tag:blogger.com,1999:blog-51979357423927515492024-02-21T04:56:46.544+05:30HINDI VANGMAY ALIGARH हिन्दी वाडमयशगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.comBlogger198125tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-11601556457223722152011-04-23T12:36:00.002+05:302011-04-23T12:40:46.289+05:30अनुसंधान त्रैमासिक वर्ष : २ अंक : ६ अप्रैल-जून २०११ सम्पादक : डॉ. शगुफ्ता नियाज असि. प्रोफेसर हिन्दी, वीमेन्स कॉलेज, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgSwYIpEj0BZeQjSmcuUi2KZjCKY0X-Uo_2vNNE2p8XDIAD1isKoTFKv3aOdxOg12c0b97gpeQcb29NHO9pnsFeKHGv6uALTONse2aMWNEcB4aywu6qe1ucKJXcT1k1UrzrWUIWH9Od5Kc/s1600/4.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 301px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgSwYIpEj0BZeQjSmcuUi2KZjCKY0X-Uo_2vNNE2p8XDIAD1isKoTFKv3aOdxOg12c0b97gpeQcb29NHO9pnsFeKHGv6uALTONse2aMWNEcB4aywu6qe1ucKJXcT1k1UrzrWUIWH9Od5Kc/s400/4.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5598672318155416978" /></a>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-23470504073852158992010-10-30T10:10:00.000+05:302010-10-30T10:12:10.140+05:30स्त्री-मुक्ति का समावेशी रूप<div align="justify"><span style="font-size:180%;">वेद प्रकाश<br />नासिरा शर्मा का उपन्यास ‘ठीकरे की मंगनी’ दो दशक पहले प्रकाशित हुआ था। यह सुखद आश्चर्य है कि आज भी इस उपन्यास में स्त्री-विमर्श का एक विश्वसनीय एवं सार्थक रूप मिलता है। यह उपन्यास स्त्रीवाद के समक्ष कुछ चुनौतीपूर्ण सवाल भी व्यंजित करता है। इसीलिए बहुत से स्त्रीवादी इसके निंदक आलोचक हो सकते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि नासिरा शर्मा स्त्री की यातना, उसके जीवन की विसंगतियों-विडंबनाओं पर सशक्त ढंग से विचार करती है। वे सामान्य अर्थों में स्त्राीवादी लेखिका नहीं है। वे नारीवाद की एकांगिता, आवेगिता, आवेगात्मकता को पहचानती हैं। नारीवाद की पश्चिमी परंपरा का प्रभाव तथा उसकी सीमाएं नासिरा शर्मा की दृष्टि में हैं, इसलिए बहुत हद तक वे इन सीमाओं से मुक्त होकर लिखती हैं, उनकी स्त्राी संबंधी दृष्टि कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी जैसी लेखिकाओं की दृष्टि के अधिक निकट ठहरती है। ये लेखिकाएं मौलिक, यथार्थवादी ढंग से स्त्राी समस्याओं पर विचार करती हैं। इस संदर्भ में इन लेखिकाओं की रचनाएं द्वंद्वात्मकता से युक्त हैं।<br />जीवन की अंतःसंबद्धता की उपेक्षा किसी भी प्रकार के लेखन की बहुत बड़ी सीमा हो सकती है। स्त्राीवादी और दलितवादी लेखन को लेकर यह आशंका कम नहीं, अधिक ही है। प्रभावशाली स्त्रीवादी और दलित लेखन वह है जिसमें जीवन की जटिलता और परस्पर संबद्धता की अभिव्यक्ति होती है। बुद्धिजीवी या लेखक, सक्रिय राजनीति के नकारात्मक पहलुओं का चाहे जितना उल्लेख करें लेकिन सक्रिय राजनीति की बड़ी शक्ति यह है कि वह अधिक समावेशी - सबको साथ लेकर चलने वाली होती है। आज की दलित राजनीति इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। इस समावेशिता से लेखन को समृद्ध होना चाहिए। स्त्रीवादी एवं दलित लेखन को भी।<br />नासिरा शर्मा ने ‘ठीकरे की मंगनी’ के माध्यम से हिन्दी साहित्य को महरुख़ जैसा अद्वितीय एवं मौलिक पात्रा दिया है। महरुख़ का जीवन उन स्त्रिायों के जीवन का प्रतिनिधित्व करता है जो अपनी मुक्ति को अकेले में न ढूँढकर समाज के उपेक्षित, निम्नवर्गीय, संघर्षरत, शोषितों पात्रों की मुक्ति से जोड़कर मुक्ति के प्रश्न को व्यापक बना देती है। वह ‘मुक्ति अकेले में नहीं मिलती’ पंक्ति को चरितार्थ करती है। बहुत बाद में लिखे गए चित्रा मुद्गल के उपन्यास ‘आवाँ’ की नमिता पाण्डे, महरुख़ की वंशज पात्रा है। यह स्त्री-विमर्श का व्यापक, समावेशी रूप है इसीलिए अनुकरणीय भी। ‘ठीकरे की मंगनी’ उपन्यास के फ्लैप में ठीक ही लिखा गया है कि ‘‘औरत को जैसा होना चाहिए, उसी की कहानी यह उपन्यास कहता है।’’ यह वाक्य औरत को परंपरागत आदर्शवाद की ओर न ले जाकर उसके व्यावहारिक एवं सशक्त रूप की ओर संकेत करता है। उसका स्वयं को समाज की सापेक्षता में देखने का समर्थन करता है। साथ ही पुरुष को जैसा होना चाहिए वैसा होने की माँग भी करता है क्योंकि औरत भी तभी वैसी होगी जैसी उसे होना चाहिए। इन्हीं सब बातों को लेकर चलने वाली महरुख़ की जीवन-यात्रा है। वह जहाँ से आरंभ करती है वह बिन्दु अंत में बहुत व्यापक बन जाता है। जैसे किसी नदी का उद्गम तो सीमित हो लेकिन समुद्र में मिलने से पहले उसका संघर्ष भी है, अनुकूल को मिलाने और प्रतिकूल को मिटाने की प्रक्रिया भी।<br />समृद्ध और जन-संकुल जै़दी खानदान एक विशाल घर में रहता है। जिसके द्वार ऐसे खुलते हैं मानो जहाज़ के दरवाजे खुल रहे हों। चार पुश्तों से इस खानदान में कोई लड़की पैदा नहीं हुई। जब हुई तो सबके दिल खुशी से झूम उठे। उसका नाम रखा गया महरुख़ - ‘चाँद-से चेहरे वाली। सबकी लाड़ली। दादा तो रोज़ सुबह महरुख़ का मुंह देखकर बिस्तर छोड़ते थे। जै़दी खानदान में बाइस बच्चे थे, जिनकी सिपहसालार महरुख़ थी। उसका बचपन कमोबेश ऐसे ही बीता। उसी महरुख़ की मंगनी बचपन में शाहिदा खाला के बेटे रफ़त के साथ कर दी गई, ठीकरे की मंगनी। शाहिदा खाला ने महरुख़ को गोद ले लिया ताकि वह जी जाए। रफ़त, परंपरागत परिवार में पली-बढ़ी, नाजुक महरुख़ को अपनी तरह से ढालना चाहता है। क्रांति और संघर्ष की बड़ी-बड़ी बातें करता है। पुस्तकें लाकर देता है। महरुख़ अपने को बदलती तो है लेकिन उसकी बदलने की राह और उद्देश्य अलग है। वह क्रांति और आधुनिकता की बातें करने वाले लोगों के जीवन में झाँकती है तो काँप उठती है। वहाँ ये मूल्य फैशन अवसरवाद एवं कुण्ठाग्रस्त हैं। रफ़त दिखने को तो रूस का समर्थक है लेकिन पी-एच.डी. करने अमेरिका जाता है। उसका और उसके दोस्तों का अपना तर्क है, ‘‘पूंजीवादी व्यवस्था देखकर आओ, फिर इन साम्राज्यवादियों की ऐसी-तैसी करेंगे।’’<br />खुलेपन और प्रगतिशीलता के नाम पर रवि जो माँग एकांत में महरुख़ से करता है, उसे वह स्वीकार नहीं कर पाती। वह रवि की दृष्टि में पिछड़ेपन का प्रतीक बनती है लेकिन महरुख़ का तर्क है, ‘‘उसे हैरत होती है कि इस विश्वविद्यालय में भी औरत को देखने वाली नज़रों का वही पुराना दृष्टिकोण है, तो फिर यह किस अर्थ में अपने को स्वतंत्रा, प्रगतिशील और शिक्षित कहते हैं?’’<br />नासिरा शर्मा कम्युनिस्ट विचारधारा को मानने वाले कुछ लोगों की सीमाओं और उपभोक्तावाद के दोगलेपन की आलोचना करती है लेकिन वे कम्युनिस्ट विचारधारा की विरोधी नहीं समर्थक हैं क्यांेकि महरुख़ ने अपने सकर्मक जीवन के माध्यम से इसी विचारधारा को सार्थक बनाया। यह भी कह सकते हैं कि वह इस विचारधारा पर चलकर सार्थक पात्रा बनी। इसके साथ ही लेखिका इस बात की भी अभिव्यक्ति करती है कि परंपरागत, संस्कारी, धर्म को मानने वाले सभी गैरप्रगतिशील तथा जड़ नहीं होते। इस स्तर पर नासिरा शर्मा अनेक रचनाकारों की तरह अग्नीभक्षी या अराजकतावादी नहीं हैं। न ही वे पुराने माने जाने वाले मानवीय मूल्यों की विरोधी लेखिका है। बल्कि वे.............................................शेष भाग पढ़ने के लिए पत्रिका देखिए </span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-84605015356423532362010-10-27T21:54:00.000+05:302010-10-27T21:03:54.943+05:30‘आधा गाँव’ के हिन्दू पात्र<div align="justify"><span style="font-size: 180%;">डा- रमाकान्त राय<br />
राही मासूम रज़ा का प्रसिद्ध उपन्यास <a href="http://vangmaypatrika.blogspot.com/">‘आधा गाँव’</a> (1966 ई.) हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में एक है। ‘वर्तमान साहित्य’ के ‘शताब्दी कथा साहित्य’ अंक में सदी के दस श्रेष्ठ उपन्यासों में ‘आधा गाँव’ को स्थान मिला था। उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर के एक गाँव ‘गंगौली’ को इसका कथा स्थल बनाया गया है। शिया <a href="http://vangmaypatrika.blogspot.com/">मुसलमानों</a> की ज़िन्दगी का प्रामाणिक दस्तावेज यह उपन्यास स्वतंत्राता प्राप्ति से पूर्व एवं बाद के कुछ वर्षों की कथा कहता है। स्वतंत्राता-प्राप्ति के बाद पाकिस्तान के वजूद में आने एवं जमींदारी उन्मूलन ने मियाँ लोगों की ज़िन्दगी में जो हलचल मचाई, उसकी धमक इस उपन्यास में सुनाई पड़ती है। मुहर्रम का सियापा; जो इस उपन्यास का मूल कथा-सूत्रा है, अपनी मनहूसियत एवं उत्सव के मिले-जुले रूप के साथ पूरे उपन्यास में पाश्र्व संगीत की तरह बजता है और अंततः शोक आख्यान में तब्दील हो जाता है। राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गाँव’ को गंगौली के आधे हिस्से की कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। उनके लिए यह उपन्यास कुछ-एक पात्रों की कहानी नहीं बल्कि समय की कहानी है। बहते हुए समय की कहानी। चूँकि समय धार्मिक या राजनीतिक नहीं होता और न ही उसके सामाजिक वर्ग/जाति विभेद किए जा सकते हैं, अतः उसके प्रवाह में आए पात्रों का विभाजन भी संभव नहीं। हिन्दू-मुसलमान के साम्प्रदायिक खाँचे में रखकर देखना तो और भी बेमानी होगा। बावजूद इसके अध्ययन का एक तरीका यह है कि यदि मानव समाज धार्मिक खाँचों में बँटा है, उसकी राजनीतिक चेतना पृथक् है और कालगत, देशगत एवं जातिगत विशिष्टता मूल्य निर्धारण में प्रमुख भूमिका का निर्वाह करती है तो उन भिन्नताओं में उनको विश्लेषित करना बेमानी हो जाता है।शेष भाग पत्रिका में..............</span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-50789661449545564082010-10-27T21:42:00.000+05:302010-10-27T21:06:52.348+05:30अनुसंधान aligarh<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgw-W14D821GbP6EVRK9_i_q7KMWgHp3Yeoc_kt-nfv6XjkRrIXbkDr4shMNqqnoZpZbwqBvt5XN5N-K4fmQly0eNN433mNuHu-Ud7V-PnGrJJnuu83C7cOZb7VlHP7RjYY7qzh7KrdvJo/s1600/clip_image002.jpg"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5530905023044750530" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgw-W14D821GbP6EVRK9_i_q7KMWgHp3Yeoc_kt-nfv6XjkRrIXbkDr4shMNqqnoZpZbwqBvt5XN5N-K4fmQly0eNN433mNuHu-Ud7V-PnGrJJnuu83C7cOZb7VlHP7RjYY7qzh7KrdvJo/s400/clip_image002.jpg" style="cursor: hand; display: block; height: 303px; margin: 0px auto 10px; text-align: center; width: 400px;" /></a><br />
<div><span style="font-size: x-large;">सहयोग राशि:एक प्रति: 40/- रु., वार्षिक शुल्क: 150/- रु., (डाक खर्च 20/- रु. अतिरिक्त) संस्थाओं के लिए: 200/- रु., (डाक खर्च 20/- रु. अतिरिक्त) द्विवार्षिक शुल्क: 280/- रु., (डाक खर्च 40/- रु. अतिरिक्त) द्विवार्षिक शुल्क संस्थाआंे के लिए: 350/- रु.,(डाक खर्च 40/- रु. अतिरिक्त) विशेष सहयोग: 501/- रु. या 1001/- रु., आजीवन सदस्य: 1500/- रु., संस्थाओं के लिए आजीवन: 2,000/-</span><br />
<span style="font-size: x-large;">अनुक्रम</span><br />
<span style="font-size: x-large;">डा. रमाकान्त राय आधा गांव के हिन्दू पात्र/6</span></div><div><span style="font-size: x-large;">डा. दया दीक्षित शृंखला का द्वन्द्व, कोई उधार न हो/16</span></div><div><span style="font-size: x-large;">लवली शर्मा महानगरीय वर्ग की जीवन त्रासदीः मुर्दाघर/21</span></div><div><span style="font-size: x-large;">सरिता बिश्नोई राजनीतिक धरातल पर कदम बढ़ाती मैत्रेयी पुष्पा की नायिकाएं/26</span></div><div><span style="font-size: x-large;">डा. अशोक व. मर्डेः हिन्दी और मराठी दलित आत्मकथाओं का तुलनात्मक अध्ययन/32</span></div><div><span style="font-size: x-large;">डा. कृष्णा हुड्डा हिन्दी की बाल एकांकियों में बाल मनोविज्ञान/35</span></div><div><span style="font-size: x-large;">कुलभूषण मौर्य स्त्री मुक्ति का भारतीय संदर्भ और महादेवी वर्मा/41</span></div><div><span style="font-size: x-large;">डा. सुनील कुमार लोकायतन में युग बोध की परिकल्पना/46</span></div><div><span style="font-size: x-large;">सीमा भाटिया कबीर का दार्शनिक तत्त्व-निरूपण/48</span></div><div><span style="font-size: x-large;">डा. सुनील दत्त हरिवंशराय बच्चन के काव्य में विरलन का अध्ययन/55</span></div><div><span style="font-size: x-large;">डा. रजनी सिंह प्रयोगवाद और अज्ञेय/58</span></div><div><span style="font-size: x-large;">कुशम लता पितृसत्तात्मक व्यवस्था का दस्तावेज: तीसरी सत्ता/62</span></div><div><span style="font-size: x-large;">डा. बशीरूद्दीन मुक्तक काव्य/66</span></div><div><span style="font-size: x-large;">एलोक शर्मा सर्वेश्वर के बकरी नाटक में राजनीतिक चेतना/70</span></div><div><span style="font-size: x-large;">बबिता के. : महिला कथा लेखन और नारी संत्रास के विविध रूप/74</span></div><div><span style="font-size: x-large;">शत्रघ्न सिंह स्त्री मुक्ति के बनते-बिगड़ते समीकण में बाज़ारवाद और मीडिया की भूमिका/77</span></div><div><span style="font-size: x-large;">अंजुम फात्मा धर्म की वैदिक अवधारणा/82</span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-69528393971497655242010-10-27T20:57:00.002+05:302010-10-27T20:57:59.281+05:30नासिरा शर्मा<span style="font-size: x-large;">विशेषांक उपलब्ध (मूल्य-150/ रजि. डाक से)</span><br />
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<span style="font-size: x-large;">नासिरा शर्मा विशेषांक</span><br />
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<span style="font-size: x-large;">सम्पादकीय</span><br />
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<span style="font-size: x-large;">नासिरा शर्मा मेरे जीवन पर किसी का हस्ताक्षर नहीं </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">सुदेश बत्रा नासिरा शर्मा - जितना मैंने जाना </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">ललित मंडोरा अद्भुत जीवट की महिला नासिरा शर्मा </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">अशोक तिवारी तनी हुई मुट्ठी में बेहतर दुनिया के सपने </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">शीबा असलम फहमी नासिरा शर्मा के बहान </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">अर्चना बंसल अतीत और भविष्य का दस्तावेज: कुंइयाँजान </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">फज़ल इमाम मल्लिक ज़ीरो रोड में दुनिया की छवियां </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">मरगूब अली ख़ाक के परदे </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">अमरीक सिंह दीप ईरान की खूनी क्रान्ति से सबक़ </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">सुरेश पंडित रास्ता इधर से भी जाता है </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">वेद प्रकाश स्त्री-मुक्ति का समावेशी रूप </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">नगमा जावेद ज़िन्दा, जीते-जागते दर्द का एक दरिया हैः ज़िन्दा मुहावरे</span><br />
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<span style="font-size: x-large;">आदित्य प्रचण्डिया भारतीय संस्कृति का कथानक जीवंत अभिलेखः अक्षयवट</span><br />
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<span style="font-size: x-large;">एम. हनीफ़ मदार जल की व्यथा-कथा कुइयांजान के सन्दर्भ में </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">बन्धु कुशावर्ती ज़ीरो रोड का सिद्धार्थ </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">अली अहमद फातमी एक नई कर्बला </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">सगीर अशरफ नासिरा शर्मा का कहानी संसार - एक दृष्टिकोण </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">प्रत्यक्षा सिंहा संवेदनायें मील का पत्थर हैं </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">ज्योति सिंह इब्ने मरियम: इंसानी मोहब्बत का पैग़ाम देती कहानियाँ</span><br />
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<span style="font-size: x-large;">अवध बिहारी पाठक इंसानियत के पक्ष में खड़ी इबारत - शामी काग़ज़ </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">संजय श्रीवास्तव मुल्क़ की असली तस्वीर यहाँ है </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">हसन जमाल खुदा की वापसी: मुस्लिम-क़िरदारों की वापसी </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">प्रताप दीक्षित बुतखाना: नासिरा शर्मा की पच्चीस वर्षों की कथा यात्रा का पहला पड़ाव</span><br />
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<span style="font-size: x-large;">वीरेन्द्र मोहन मानवीय संवेदना और साझा संस्कृति की दुनियाः इंसानी नस्ल</span><br />
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<span style="font-size: x-large;">रोहिताश्व रोमांटिक अवसाद और शिल्प की जटिलता </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">मूलचंद सोनकर अफ़गानिस्तान: बुजकशी का मैदान- एक </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">महा देश की अभिशप्त गाथा</span><br />
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<span style="font-size: x-large;">रामकली सराफ स्त्रीवादी नकार के पीछे इंसानी स्वरः औरत के लिए औरत </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">इकरार अहमद राष्ट्रीय एकता का यथार्थ: राष्ट्र और मुसलमान </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">सिद्धेश्वर सिंह इस दुनिया के मकतलगाह में फूलों की बात </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">आलोक सिंह नासिरा शर्मा का आलोचनात्मक प्रज्ञा-पराक्रम </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">मेराज अहमद नासिरा शर्मा का बाल साहित्य: परिचयात्मक फलक </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">बातचीत</span><br />
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<span style="font-size: x-large;">नासिरा शर्मा से मेराज अहमद और फ़ीरोज़ अहमद की बातचीत </span><br />
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<span style="font-size: x-large;">नासिरा शर्मा से प्रेमकुमार की बातचीत</span><br />
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<span style="font-size: x-large;"></span>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-34742622365479809182010-10-24T19:20:00.004+05:302010-10-24T19:22:57.548+05:30vangmaypatrika.blogspotशगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-12172919180299567752010-10-24T19:06:00.000+05:302010-10-24T19:06:02.618+05:30धर्म की वैदिक अवधारणा<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">अंजुम फात्मा</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">‘धर्म’ इस शब्द की आयु ऋग्वेद से लेकर आजतक लगभग चार हज़ार वर्षों की है। प्रथमतः ऋग्वेद में इसका दर्शन एक नवजात शिशु के समान होता है जो अस्तित्त्व में आने के लिये हाथ-पैर फैलाता जान पड़ता है। वहाँ यह ‘ऋत्’ के रूप में दृष्टिगत होता है जो सृष्टि के अखण्ड देशकालव्यापी नियमों हेतु प्रयुक्त हुआ। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">वैदिक मन्त्रों का वर्गीकरण चार संहिताओं में करने वाले वेदव्यास के अनुसार प्रकृति के साथ-साथ व्यक्ति, राष्ट्र एवं लोक-परलोक सबको धारण करने का शाश्वत् नियम ‘धर्म’ है- धारणाद्धर्म इत्याहुधर्मों धारयते प्रजाः। /यतस्याद्धारण संयुक्तं स धर्म इति निश्चयः।।१</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">वैदिक ऋषियों से लेकर वेदव्यास जैसे महाभारतकार एवं चाणक्य जैसे कूटनीतिज्ञ भी मानव की उन्नति एवं समाज की सम्यक्गति का कारण धर्म को ही मानते हैं। धर्म२ शब्द ‘धृ’ धातु (ध×ा् धारणे) से बना है, जिसका तात्पर्य है धारण करना, आलम्बन देना, पालन करना। धर्म सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है, सबका पालन-पोषण करता है और सबको अवलम्बन देता है इसलिये सम्पूर्ण जगत् एकमात्रा धर्म के ही बल पर सुस्थिर है। ‘धृ’ धातु से बने धर्म का अर्थ वृष भी है-‘वर्षति अभीष्टान् कामान् इति वृषः।’३ अर्थात् प्राणियों की सुख-शान्ति के लिए, उनके अभिलाषित पदार्थों की जो वृष्टि करे तो दूसरी ओर धर्म का नाम ‘पुण्य’ भी है-‘पुनाति इति पुण्यम्’ यानि जो प्राणियों के मन-बुद्धि-इन्द्रियों एवं कर्म को पवित्रा कर दे। मनु के अनुसार धर्म के दस लक्षण है-धृतिक्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिनिन्द्रिय निग्रहः।/धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।४ </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">आर्य धर्म के मूलाधार वेद, धर्म के प्रमाण स्वरूप सर्वोपरि है। भारतीय आस्तिक दर्शनों ने वेद की प्रामाणिकता स्वीकारी है। धर्मसूत्रों में जहाँ बौधायन५ वेद के पारायण को पवित्राीकरण साधन मानते हैं वहीं आपस्तंब६ के अनुसार धर्म एवं अधर्म का नीरक्षीर विवेक, वेद से ही प्राप्त होता है। धर्मसूत्रा, वेद को धर्म का मूल स्वीकारते हुए उसकी अलौकिक पावनकत्र्तृशक्ति के प्रति आस्थावान भी हैं।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">ऋग्वेद संहिता भारतीय धर्म का प्राचीनतम एवं महत्त्वपूर्ण आधार है। ऋग्वेद का धर्म अनेक देवों की पूजा से सम्बन्ध रखता है।७ ऋग्वेद में हमें स्तुतिपरक मंत्रों के दर्शन होते हैं, जिनमें मैक्समूलर का हेनोथीज़्म है,८ जगत् सृष्टा के रूप में परमपुरुष की कल्पना का प्रतीक एकेश्वरवाद भी है एवं सर्वदेवतावाद९ या पैनथीज़्म भी है पर अन्ततः ‘‘एकं सद्धिप्राः बहुधा वदन्ति’’ कहकर ऋषि अद्वैतवाद का प्रतिपादन करते हैं। ऋग्वेद में देवताओं का अनिश्वर रूप में वर्णन है एवं उनके सामथ्र्य को प्रतिपादित करने वाले तीन रूप कहे गये हैं जो क्रमशः आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक है। ऋग्वेद में ‘ऋत’ एक कारण सत्ता का प्रतीक है एवं यह सत्ता सत्यभूत ब्रह्म है। विभिन्न देवता इसी मूलकारण के प्रतिनिधि स्वरूप कार्यरत हैं चाहे वह वृतहंता इन्द्र हों या </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">धृतव्रत वरूण या हव्यवाहन अग्नि अथवा प्राचीन होकर भी नित्य नवीन रूप में प्रकट होने वाली उषा हो। कुछ भावनात्मक देवताओं की भी कल्पना की गई है। एक सूक्त में ‘श्रद्धा’ व दो सूक्तों में ‘मन्यु’ का भी उल्लेख है। ऋग्वैदिक देवताओं का विकास बाह्य एवं अंतस् दो स्वरूपों में हुआ। आरम्भ में आर्यगण आकाश, पृथ्वी, वृष्टि आदि से आश्चर्य चकित थे, अतएव उन्हीं प्राकृतिक शक्तियों को देवता स्वीकार लिया ताकि उन देवताओं की कुदृष्टि से बचे रहें। बाह्य शक्तियों के साथ-साथ अंतस् शक्तियाँ भी मनुष्य को प्रभावित करती थी। बुद्धि ही ऐसी अंतस् शक्ति थी जो मनुष्य को उचितानुचित का दिग्दर्शन कराती थी अतएव यह सरस्वती रूप में पूजित हुई।10॰ आर्यांे ने देवताओं को मानवरूप में स्वीकार कर उनके मानवीकरण की संयोजना की। साधारणता मानवों की तुलना में देवतागण अवगुणरहित एवं अपार शक्ति सम्पन्न थे, पर ऋत के नियम उनके लिये भी अलंध्य थे।११</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">यजुर्वेद तथा ऋग्वेद के उपासनान्तर्गत धार्मिक स्वरूप में कोई भी मौलिक अन्तर नहीं हैं। देवसमूह अधिकांशतः वही हैं पर देवताओं की प्रकृति में कुछ अवान्तर परिवर्तन देखे जा सकते हैं। यथा-ऋग्वेद का प्रजापति यजुर्वेद का मुख्य देवता बन जाता है। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #3d85c6; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-52472495730627539242010-10-24T19:05:00.000+05:302010-10-24T19:05:14.059+05:30स्त्री-मुक्ति के बनते-बिगड़ते समीकरण में बाज़ारवाद और मीडिया की भूमिका<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">शत्रुघ्न सिंह</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">लम्बे अवसान के बाद अब नारी जागृति का युग शुरू हुआ है। परंपरा से व्यक्तित्व हीनता व शाप ग्रस्तता का जीवन जीने वाली, दमित, शोषित स्त्री पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में अपने अधिकार, स्वतंत्राता व अपनी मुक्ति के लिए एक नया भाष्य गढ़ रही है। वह संघर्ष का एक नया तर्कपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रही है। उसके संघर्ष की इस चेतना के फलस्वरूप यह महसूस किया जाने लगा है कि ‘‘स्त्री की मुक्ति का सवाल, उसके अस्तित्व एवं मनुष्यत्व को स्वीकार करने का सवाल, आज मानवता का सबसे बड़ा सवाल है।’’1</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">स्त्री ने अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिए जो संघर्ष शुरू किया, उसका सैद्धांतिक प्रतिफलन ‘नारीवाद’ है। नारीवाद स्त्री जीवन की समस्याआंे और उसके समाधान का एक वैचारिक आन्दोलन है। इसे परिभाषित करते हुए ‘इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ में कहा गया है कि ‘‘यह एक ऐसा आन्दोलन है जो नारी को पुरुष के समान सम्मान और अधिकार प्रदान करेगा और अपनी जीविका और जीवन पद्धति के सम्बन्ध में स्वाधीन रूप से निर्णय देने का अधिकार देगा।’’2</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">नारीवाद में लैगिंक और सामाजिक, दोनों स्तरों पर स्त्री को पितृसत्ता की जकड़ बंदियों से बाहर निकालने का संकल्प है। उसमें उसकी शिक्षा, सम्पत्ति और लोकतांंित्राक अधिकारों को अर्जित करके उसकी स्वतंत्रा पहचान कायम करने का प्रयास है क्योंकि परम्परागत समाज में समस्त अधिकारों से हीन स्त्री केवल अपने ‘शरीर’ से पहचानी जाती है। यद्यपि प्रकृति ने दोनों का निर्माण मनुष्य के दो रूप नर व मादा में किया, किन्तु पुरुष ने अपनी अहं और श्रेष्ठता की भावना के वशीभूत होकर समाज में अपनी सत्ता कायम करने के लिए स्त्री के प्रति भेदभाव से भरी एक शोषण मूलक धर्म, संस्कृति, परम्परा व व्यवस्था का निर्माण किया। इसके लिए उसने स्त्री की देह को आधार बनाया। इसलिए आज हम स्त्री की किसी भी समस्या के मूल में झांकंेगे तो उसकी देह ही दिखाई देगी। ‘‘उसके किसी प्रकार के शोषण का प्राइम साइट उसका देह ही होती है। किसी प्रकार के स्त्री अपराध की बात करें; मारपीट, पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा, सती प्रथा, मीडिया में कमोडीफिकेशन, बलात्कार या मानसिक उत्पीड़न यहाँ तक कि गाली-गलौज के केन्द्र में भी स्त्री का शरीर ही रहता है।’’3</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">स्त्री-विमर्श की बात करते हुए इस बात पर विशेष बल दिया गया कि जब स्त्री के शोषण और उत्पीड़न का मुख्य कारण उसकी देह है तब उसकी मुक्ति और सशक्तिकरण का आरंम्भ भी उसकी देह से ही होना चाहिए। उसे इस अहसास से मुक्त करने का प्रयास होना चाहिए कि वह सिर्फ ‘देह’ है। इसलिए देह-मुक्ति वर्तमान स्त्राी-चिन्तन का मुख्य मुद्दा है और यह सौ फीसदी सच है कि ‘‘स्त्राी-मुक्ति का प्रस्थान बिंदु देह की मुक्ति ही होगा।’’4</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">स्त्री के लिए ‘देह-मुक्ति’ का अभिप्राय ‘अपने शरीर पर अपना दखल’ की आज़ादी प्राप्त करने से है; जिससे वह पहनने-ओढ़ने, बसों, टेªनों, में सफर करने, पढ़ने-लिखने में और विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों में सहज व स्वाभाविक ढंग से पुरुषों के साथ रहने व काम करने में किसी भी तरह की कुण्ठा, भय या ही</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #b45f06; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-24339960799551549002010-10-24T19:04:00.000+05:302010-10-24T19:04:03.920+05:30महिला कथा लेखन और नारी संत्रास के विविध रूप<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">बबिता के</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">महिलाओं की समस्याओं को आधार बनाकर महिलाओं द्वारा निर्मित लेखन समकालीन हिन्दी साहित्य में एक रोचक एवं दिलचस्प विधा के रूप में दृष्टिगत है। बंगमहिला से लेकर अनेक लेखिकाओं ने अपनी साहित्यिक कृतियों के जरिए नारी मुक्ति के विचारों को महिला जगत में पूरी तरह फैलाकर महिलाओं में जागृति लाने का कार्य किया है। शिक्षा, विदेशी प्रभाव, रोजगार आदि को लेकर भारतीय नारी के बदलते परिवेश आधुनिक महिला कथा लेखन में प्रतिफलित है। पुरुष के रू-ब-रू होकर मानवीय संदर्भ में अपनी अतीत और वर्तमान की विसंगितयों को ध्वस्त कर सुखद भविष्य के नींव धरने की सुकून भरी चाहत यही तो है महिला कथा लेखन।’’1</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">परंपरा एवं आधुनिकता, संस्कार, शिक्षा को लेकर आज की नारी विवश है। कथनी और करनी के अन्तर ने स्त्री के जीवन में जितना वैषम्य लाया है उसे उसका जागरूक मन पहचान नहीं सकता। वह अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रही है। आत्मान्वेषण की अदम्य चाह या अपनी पीड़ाओं, कुंठाओं से मुक्ति का आग्रह समकालीन महिला कथा लेखन के मूल में है। डाॅ. राजकुमारी गड़कर के अनुसार- स्त्री की स्थितियों को स्वयं स्त्री वर्णित करती है तो उसका प्रभाव और उसकी रियेलिटी पूरी भिन्न होती है इसी अर्थ और संदर्भ में महिला उपन्यास लेखन को देखना चाहिए।2</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">स्वांतत्रयोत्तर महिला लेखिकाओं ने नैतिक मूल्यों के प्रति जागृत होकर हिन्दी कथा साहित्य को नयी दिशा देने का प्रयत्न किया। मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, मृदुला गर्ग, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, सूर्यबाला, मालती जोशी, प्रभा खेतान, मैत्रोयी पुष्पा आदि लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं के माध्यम से स्त्री की साहसिकता का परिचय देकर उसकी मानसिक पीडा को बहुत ही मार्मिक ढंग से अभिव्यक्ति दी है। आज महिला लेखन के समक्ष अनेक चुनौतियां हैं। कृष्णा सोबती ने मित्रों मरजानी के माध्यम से एक स्त्री की साहसिकता व्यक्त की है। उनकी मित्रों ऐसी एक पात्रा है जो नैतिकता का आडंबर छोड़कर अपनी दैहिक जर$रतों की अभिव्यक्ति खुलकर की है। मृदुला गर्ग का चितकोबरा, नासिरा शर्मा का शाल्मली, प्रभा लेखन का छिन्नमस्ता आदि नारी की विभिन्न समस्याओं को अभिव्यक्त करने वाले उपन्यास हैं। मृदुला गर्ग का उपन्यास मैं और मैं एक महिला लेखिका के ज़िन्दगी की संघर्ष को चित्रित करने वाला उपन्यास है। पारिवारिक जिम्मेदारियां और लेखन के द्वन्द्व के बीच फंसी नारी की विवशता का यथार्थ चित्राण इसमें है। मैत्रोयी पुष्पा का चर्चित उपन्यास इदन्नमम स्त्री संघर्ष का जीवन्त दस्तावेज कहा जाता है। वैश्विक तथा भारतीय परिवेश में स्त्री शोषण की कहानी सुनाने वाला और एक उपन्यास है-कठगुलाब। कठगुलाब के सभी पुरुषों द्वारा पीड़ित एवं प्रताड़ित दिखाया गया हैं।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">आधुनिक काल की बदलती हुई परिस्थितियों के कारण स्त्री का भी सर्वांगीण विकास हुआ। वह घर से बाहर आने लगी। पुरुष पर ज्यादा निर्भर रहना उसे पसन्द न आया। परिणामतः पति पत्नी में से झगड़ा शुरू हो गया। एक दूसरे को सहना मुश्किल हो गया तो तलाक का प्रश्न भी सामने आया। मन्नू भंडारी का उपन्यास आपका बंटी दाम्पत्य जीवन की समस्याओं को विषय बनाया गया उपन्यास हैं। दोनों की अहंवादी प्रकृति के कारण दाम्पत्य जीवन की समस्याएं शुरू होती है। मृदुला गर्ग की दो एक फूल कहानी</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: yellow; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-48341849356560443022010-10-24T19:03:00.000+05:302010-10-24T19:03:15.809+05:30सर्वेश्वर के बकरी नाटक में राजनीतिक चेतना<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">एलोक शर्मा</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">सर्वेश्वर दयाल सक्सैना का रचना संसार विविध रंगों से रंगा है जिसमें प्रेम का पावन स्वर है, प्रकृति की मनोरम छटाएं है। साथ ही भूख एवं गरीबी का चित्राण है इतना ही नहीं राजनीतिक, सामाजिक स्थिति पर करारा व्यंग्य भी है। सर्वेश्वर के काव्य में युगीन परिवेश का सफल चित्राण हुआ, सर्वेश्वर जी स्वतन्त्राता पूर्व एवं पश्चात् की राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों एवं घटनाओं के सक्रिय दर्शक थे। अपने चारों ओर व्याप्त विसंगतियों सत्ता पक्ष की निरकुंश प्रवृत्ति, देशवासियों की सामाजिक-राजनीतिक परिवेश के प्रति उदासीनता एवं खोखले लोकतंत्रा की त्रासदी को अपने नाट्य साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति दी।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">सर्वेश्वर जी एक प्रयोग धर्मी नाटककार हंै। नाट्य क्षेत्रा में नये-नये प्रयोग कर उन्होंने अपनी नाट्य प्रतिभा का परिचय दिया सर्वेश्वर जी के नाटक जन-साधारणोन्मुख है एवं उनके नाटकों में स्थापित व्यवस्था का खुलकर और कहीं-कहीं विद्रोहात्मक विरोध हुआ है। उन्होंने राजनीतिक परिस्थितियों में जूझते एवं पिसते चरित्रों को अपने कथानक में स्थान दिया। अतः सर्वेश्वर जी जनसाधारण से जुड़े थे एवं उनके पास माक्र्सवादी जीवन दृष्टि थी यही कारण है कि उनके बकरी, लड़ाई और अब गरीबी हटाओं नाटक प्रतिबंध नाटक माने जाते है।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">प्रतिमबद्ध नाटक या किसी राजनीतिक विचारधारा विशेष से प्रभावित नाटक में यह आवश्यक हो जाता है कि नाटककार राजनिति परिवेश की पूर्ण समझ हो एवं राजनीति बोध को तिलमिला देने वाले विचार तंत्रा को जोड़कर मानव-नियति के पक्ष को उजागर करें।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">सर्वेश्वर जी ने स्वयं लिखा कि ‘‘जब चारों ओर के लोग इस बात पर कमर बांधे हो कि वे आपकी बात नहीं समझेंगे, तब आपके सामने दो ही रास्ते रह जाते है, या तो चुप रहे अपनी बात न कहें या फिर इस ढं़ग से कहे कि सुनने वाला तिलमिला उठे, उनकी कलाई उतर जाये।’’1</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">सन् 1974 में प्रकाशित सर्वेश्वर जी का ‘‘बकरी’’ नाटक सफल राजनीतिक नाटकों में से एक है। इसमें लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था एवं उनमें पनपे अमानवीय मूल्यों पर तीखा व्यंग्य है। सर्वेश्वर जी ‘‘बकरी’’ नाटक में गाँधी जी के नाम एवं सिद्धान्तों की आड़ में अपनी स्वार्थी पूर्ति करने वाले नेताओं की पोल खोलने का प्रयास किया एवं नाटक के माध्यम से समसामयिक, राजनीतिक नेता व्यवस्था राजनीति के विकृतरूप, राजनीतिक अवसर वादिता, पुलिस वर्ग मंे व्याप्त भ्रष्टाचार, जनता का शोषण, समाज एवं जनता का राजनीतिक के प्रति उदासीनता एवं गांधीवादी मूल्यों में आई विकृति को व्यंग्यात्मक एवं यथार्थ रूप से अपने बकरी नाटक में प्रस्तुति दी।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">इसमें सर्वेश्वर जी ने सदैव दूसरे मार्ग का अनुसरण किया। सर्वेश्वर जी ने अपने ‘‘बकरी’’ नाटक के माध्यम से सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक समस्याओं एवं विडम्बनाओं से घिरे लाचार मानव के संकट के कारुणिक चित्रा प्रस्तुत किये।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">डाॅ. गिरीश रस्तोगी के शब्दों में -‘‘बकरी’’ बदलते हुये तेवर का सीधा-सादा प्रभावशाली नाटक है जिसमें समसामयिक-राजनीतिक व्यंग्य का तीखापन भी है और सारे प्रपंच, दबाव को निरन्तर झेलती हुई आम जनता का असन्सोष, विद्रोह, खीजभरी, झुझलाहट और एक निर्णय भी है।2</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">बकरी नाटक में डाकू के पेशे को छोड़कर राजनीतिक में प्रवेश करने वाले दुर्जन सिंह व उसके साथी मिलकर जो पूजा गीत ‘‘तन मन धन </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #e06666; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-55202106227525460802010-10-24T19:02:00.000+05:302010-10-24T19:02:26.255+05:30मुक्तक काव्य<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">डा. बशीरूद्दीन एम. मदरी </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">साधारण मानव भी विचारशील और संवेदनशील होता है। किंतु वह अपनी अनुभूति को छंदोबद्ध करके संवेद्य नहीं बना सकता। जैसा कि कवि काव्य सर्जन द्वारा कर सकता है।1 यानी मनुष्य के आंतरिक भावोद्वेलन की मुखर अभिव्यक्ति को कवि ही सार्थक ध्वनि दे सकता है। प्राचीनकाल से मनुष्य अपनी गहरी भावना को बार-बार शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्ति करते आया है। कविता हो या काव्य दरअसल मनुष्य की निजी एकांतिक संपत्ति है। इसी को तुलसीदास ने स्वान्त सुखाय कहा। चाहे काव्य या कविता में कवि अपने स्वप्नों, आदर्शाें अपनी चिंताओं, अपने विचारों और जीवनानुभूतियों को शब्दों के माध्यम से साकार कर आनंदित होता है। यद्यपि तुलसीदास बड़े कवि माने जाते हैं तो केशवदास शब्दों से चमत्कृत जनकतः काव्य कर काव्य खिलाड़ी माने जाते हैं। वास्तव में कवि स्वभाव से सौंदर्य प्रेमी होने के कारण अपनी रचना मंे सत्यम् शिवम् सुंदरम् को प्रदान करते हुए कविता को उसकी परिभाषा तक ठहरा देता है। इन तीनों गुणों के कारण कविता महानता प्राप्त करती है। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">महावीर प्रसाद द्विवेदी के अनुसार किसी प्रभावोत्पादक और मनोरंजन लेख या वक्रोक्ति ही काव्य जीवित का नाम कविता है और नियमानुसार तुली हुई स्तरों का नाम पद्य है।2 वे कहते हैं कि जिस पद्य को पढ़ने या सुनने से चिद्द पर असर नहीं होता वह कविता नहीं बल्कि नपी-तुली शब्द स्थापना मात्रा।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">पहले का जागरूक संवेदनशील कवि अपनी एक कविता की व्याख्या दूसरी कविता में और दूसरी की व्याख्या तीसरी कविता में करता जिससे पाठक को बांधे रखने की कला वह अच्छी तरह जानता था। किंतु आज का समकालीन कवि मानवीय नियति में परिवर्तन देख वह उसी धरातल पर लिखना चाहता है जिसे आज की पीढ़ी चाहती हो। इसी के समर्थन में आधुनिक काव्य धारा जो सन् 1970 ई. के आसपास भारतेन्दु के प्रयत्नों से आरंभ हुई। ब्रजभाषा आधुनिक समस्याओं की अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल न होने के कारण नई समस्याओं को अभिव्यक्ति देने के लिए एक नई भाषा की खोज में खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में स्वीकार किया गया। लेकिन इसके पूर्व पुरानी काव्य भाषा-शैली की अपेक्षित पूजा होती थी। जिसकी पुनव्र्याख्या के द्वारा भारतीय जन को उसके अतीत की वास्तविकता से परिचय कराया जाता था। जिसका श्रेय स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परहंस, महात्मा गांधी को जाता है। क्योंकि ये लोग भारतीय जन जागरण के परिशोधन और व्याख्यता समझे जाते हैं। इसी आधार पर सारे इतिहास सारे चरित्रों की नए सिरे से व्याख्या होने लगी। इसी व्याख्या और परिशोध के परिणाम आधुनिक भारतीय हिन्दी साहित्य और हिन्दी की कविता है। जिसमें हरिऔंध, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी की भूमिका अहम् रही। इन कवियों ने भारतीय इतिहास पुराण की नयी व्याख्या को अपनी रचनाओं में प्रतिष्ठित किया। आज हिन्दी कविता ऊँची कगार पर इसलिए है जिसकी तेजी की पकड़ मात्रा से भाषा शैली अभिव्यक्ति और कवि के निजी अनुभवों में अनेक काव्य आंदोलन आए। इनमें छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता जिसकी प्रमुख धाराएं है। इसमें प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी आदि उन्नायक कवियों मंे से है। इसी कड़ी का विकास जिन कवियों में देखा जाता है उनमें बच्चन, दिनकर, नरेन्द्र शर्मा, गिरिश कुमार माथुर और शिवमंगल सिंह सुमन आदि की गिनती होती है। इस तरह हिन्दी काव्य परंपरा की आधुनिक काव्यधारा ने पिछले सौ वर्षाें में हज़ार की दूरी तय की।3 आज संसार की किसी भी भाषा की कविता के समकक्ष की दावेदार बन सकती। मुक्तक काव्य तारतम्य के बंधन से मुक्त होने के कारण (मुक्तेन मुक्तकम) मुक्तक कहलाता है उसका प्रत्येक पद स्वतः पूर्ण होता है।4 यदि इसकी परिभाषा पर प्रकाश डाला जाता है तो हमें संस्कृत काव्य शास्त्री ग्रंथांे की ओर उन्मुख होना पड़ेगा। जिसमें मुक्तक के लिए ऐसा कहा गया है कि- मुक्तक वह श्लोक है जो वाक्यांतर की अपेक्षा नहीं रखता।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #f4cccc; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #e06666; font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-1456180643884974692010-10-24T19:01:00.002+05:302010-10-24T19:01:23.126+05:30पितृसत्तात्मक व्यवस्था का दस्तावेज: ‘तीसरी सत्ता’<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">कुशम लता</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">गिरिराज किशोर हिन्दी-साहित्य के अग्रणी कथाकार हैं। उन्होंने समस्त सामाजिक, राजनीतिक चेतना और विसंगतियों-अन्तर्विरोधो को गहरी संवेदनशीलता और तर्कपूर्ण चिन्तन के साथ प्रस्तुत किया है। लेखक के अनुभव और संवेदना का एक पक्ष स्त्री-पुरुष संबंधों से भी जुड़ता है जिसका अंकन विशेष रूप से ‘तीसरी सत्ता’ उपन्यास में मिलता है। पति-पत्नी संबंधी पारम्परिक एवं नयी मान्यताओं की टकराहट इस उपन्यास अर्थ से इति तक विद्यमान है। नारी के व्यक्तिगत स्वातंत्रय और पारम्परिक पुरुष-दृष्टि के संघर्ष के अन्त में नारी अपने में निहित ममता और प्रेम के कारण सिर झुका लेती है। यह स्वीकृति पराजय को व्यक्त नहीं करती है बल्कि अपने में निहित मातृत्व की महिमा को व्यक्त करती है। इसलिए यह उपन्यास वर्तमान की नारी के स्वातंत्रय के साथ पितृसत्तात्मक व्यवस्था को भी उकेरता है। इसके अलावा यह निम्नवर्गीय वफादारी, मध्यवर्गीय चालाकी आदि मुद्दों पर भी प्रकाश डालता है।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">समाज में आये दिन होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव जीवनबोध को नयी दिशाओं, दशाओं और संभावनाओं से भरता रहता है, पुरुष और स्त्री इन परिवर्तनों के भोक्ता हंै। नियति से ही पुरुष और स्त्री के जीवन में जो भेद है उसे पुरुष ने और भी अधिक विषम बना दिया है। परन्तु नारी जागरण की दिशाओं और संभावनाओं में प्रगति होेने के कारण नारी जीवन और जगत में मूल्यगत संक्रांति हुई है क्योंकि महिलाओं की शिक्षा और रोजगार के अवसरों में काफी वृद्धि हुई है। परिवर्तित परिस्थितियों के कारण स्त्री की भावनाओं, विचारों, विवाह, प्रेम, यौन संबंधों, सामाजिक परम्पराओं, धार्मिक विश्वासों तथा स्त्राी-पुरुष चरित्र की नैतिकता के प्रति दृष्टिकोण मंे बड़ा परिवर्तन दिखायी देता है। बेटी हो या माँ, बहन हो या पत्नी सभी संबंधों में पुरुष के प्रति उसके दृष्टिकोण में अंतर आ गया है परन्तु पुरुष उसके इस परिवर्तित रूप को स्वीकार करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है, अतः स्त्री का जीवन तनावग्रस्त, द्वंद्वपूर्ण, पेचीदा और संक्रात हो गया है।1</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">गिरिराज किशोर का ‘तीसरी सत्ता’ उपन्यास सन् 1982 ई. में प्रकाशित हुआ है। आज के आधुनिक एवं विज्ञान युग में भारतीय नारी एवं उसके चरित्रा के संबंध में आज भी रूढ़िवादी संकीर्ण दृष्टिकोण है। पुरुष सत्ता प्रधान वैचारिकता वर्गेतर नारी-पुरुष के संवेदनात्मक संबंधों को संशय एवं हिकारत की दृष्टि से देखती है। इस तरह के अन्तर-वर्गीय नारी-पुरुष के संवेदनात्मक, भावात्मक संबंधों के प्रति पुरुष प्रधान मानसिकता को इस उपन्यास में उभारा है। ‘‘गिरिराज किशोर की लेखनी से निकलने वाली यह रचना अपने संदर्भों को तब तक विकसित करती रहेगी जब तक मानव की सोच और व्यवहार को व्याख्यायित करने की संभावना है।’’2 ‘तीसरी सत्ता’ परम्परागत त्रिकोणात्मक उपन्यास से इस अर्थ में भिन्न है कि इसमें रमा और रामेसर के बीच पनपा संबंध मूलतः शंका और लांछन की हवा पाकर ही विकसित होता है। ‘‘मदन की अतिरंजित रूप से शंकालु प्रवृत्ति और आस पास के लोगों की लांछन भरी फुसफुसाहट उन दोनों को करीब लाकर इस संबंध के बारे में अतिरिक्त रूप से सजग बना देती है। अन्यथा जैसी उन दोनों की स्थिति है, पति और पत्नी के रूप में, उसमें इस तीसरी सत्ता के प्रवेश और उसकी सशरीर उपस्थिति के लिए संभावना बहुत कम है।’’3</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">डाॅ. रमा जिस अस्पताल में काम करती है उसी अस्पताल में रामेसर एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी है। अस्पताल में काम के पश्चात् वह एक पुरानी मोटर चलाता</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #cc0000; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-32704623419242278402010-10-24T19:00:00.002+05:302010-10-24T19:00:38.278+05:30प्रयोगवाद और अज्ञेय<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">डा. रजनी सिंह </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">प्रयोगवादी कविता हिन्दी काव्य क्षेत्रा का एक आंदोलन विशेष है। प्रयोगवादी कविता आधुनिकता बोध सम्पन्न मानवतावादी कविता है, मानव नियति का साक्षात्कार उसका लक्ष्य है। कविता संप्रेषण व्यापार है, कवि भाषा नहीं शब्द लिखता है। काव्य में सभी गुण शब्द के गुण है। प्रयोगवाद में वस्तु और शिल्प का समान महत्त्व है वस्तु संप्रेष्य है विषय नहीं। वस्तु से रूपाकार को अलग नहीं किया जा सकता। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">प्रयोगवादी कविता मानवतावादी कविता है और उसकी दृष्टि यथार्थवादी है, उसका मानवतावाद मिथ्या आदर्श परिकल्पना पर आधारित नहीं है। वह यथार्थ की तीखी चेतना वाले मनुष्य को उसके समग्र परिवेश में समझने-समझाने का वैदिक प्रयत्न करती है। प्रयोगवाद में नया कुछ भी नहीं होता है। हो ही क्या सकता है, केवल संदर्भ नया होता है और उसमें से नया अर्थ बोलने लगता है। विवेक की कसौटी पर खरी उतरने वाली आस्थाएं ही ग्राह्य हो सकती हैं।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">‘‘हिन्दी में प्रयोगवाद का जन्म सन् 1943 में अज्ञेय द्वारा सम्पादित तार सप्तक से माना जाता है। सर्वप्रथम अज्ञेय ने ही कविता को प्रयोग का विषय स्वीकार किया। उनका मत है कि प्रयोगवादी कवि सत्यान्वेषण में लीन हैं। वह काव्य के माध्यम से सत्य का अन्वेषण कर रहा है।’’1</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">विचारणीय बात यह है कि प्रयोग क्यों और किसलिए? इसमें संदेह नहीं कि परिवर्तित परिस्थिति ने संवदेनशील प्राणी को झकझोर दिया था। उसमें आत्मान्वेषण की प्रवृत्ति जाग उठी थी। वैज्ञानिक दृष्टि ने जीवन को बौद्धिक जागरण के लिए विवश कर दिया था। जीवन के सभी मूल्य विघटित हो गए थे तथा इन मूल्यों के प्रति अनास्था उत्पन्न हो गयी थी। प्रयोगवाद में उसी सत्य की खोज और प्राप्त सत्य को उसी रूप में संप्रेषित करने का कार्य हो रहा था।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">इसके बार में अज्ञेय का कहना है कि- ‘‘हम वादी नहीं रहें, न ही हैं, न प्रयोग अपने आप में ईष्ट या साध्य है। अतः हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है जितना कवितावादी कहना।’’2</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">तमाम ऊहापोह के बावजूद प्रयोगवाद प्रतिष्ठित हो चुका है। चाहें राग भाव में चाहें द्वेष भाव से। वस्तुतः आधुनिक परिवेश विघटन, संत्रास टूटन, अकेलापन और कुरूपता है, जिसमें आज का मानव कीड़े की तरह कुलबुला रहा है। वाह्य यथार्थ की प्रमाणिक अनुभूति आज की कविता का मूल स्वर बन गया है। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">‘‘उस युग में भी कवियों का एक ऐसा वर्ग था, जिसने देश की समस्या को यथार्थ दृष्टि से देखना शुरू कर दिया था। वे जिस प्रकार अपने युग के यथार्थ के प्रति सजग थे, उसी स्तर का उनमें अपने कवि कर्म के दायित्व का भी मनन था।’’3</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">ऐसे कवियों के नेता अज्ञेय थे। अज्ञेय ने अपनी रचनाओं में मानव व्यक्तित्व की स्वाधीनता सर्जनात्मकता और दायित्व को प्रभावशाली रूप में करते हुए युग बोध को गहन संवेदना के ग्रहण करने की प्रक्रिया तथा उसकी अभिव्यक्ति को कवि कर्म की प्रमुख समस्या के रूप में घोषित किया। इसलिए पांचवे दशक की प्रमुख काव्यधारा प्रयोगवादी कवियों की </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #990000; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-19488002874528372312010-10-24T17:54:00.002+05:302010-10-24T17:54:43.353+05:30हरिवंशराय ‘बच्चन’ के काव्य में विरलन का अध्ययन<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">डा. सुनील दत्त</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">विरलन: अर्थ एवं स्वरूप </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">विरलता अग्रप्रस्तुति का एक ऐसा अभिकरण है जो विचलन, विपथन, समानान्तरता से भिन्न है। कभी रचना में प्रयुक्त शब्द चयन, विचलन, समानान्तरता पर आधृत न होते हैं तथापि अपनी सार्थकता का अहसास कराते हुए अग्रप्रस्तुत हो जाते हैं ऐसे शब्दों को उन्मीलक शब्द (की वर्ड) की संज्ञा से अभिहित किया जाता है।1</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">अनेक बार साहित्यकार अपनी कृति में प्रतिपाद्य विषय से सम्पृक्त करके उन्मीलक शब्द की गहन रचना को प्रदर्शित करता है, जिसमें कृति के कथ्य में विचलन, विपथन और समानान्तरता का अभाव होता है और साथ ही वह उसे विशिष्ट पद मानता है। पदबन्ध, वाक्य तथा प्रोक्ति द्वारा स्पष्ट करता है, तब उसे विरलन के अन्तर्गत माना जाता है।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">‘विरलन’ अंगे्रजी शब्द ;त्ंतमदमेेद्ध का पर्यायवाची शब्द है। इसका सामान्य अर्थ है अनोखा। किसी रचना में प्रयोग किया गया वह भाव जो सामान्य से भिन्न हो, उसे ही विरलन माना जाता है। यह प्रयोग विरल होने के कारण पाठक का ध्यान यकायक अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">यद्यपि पाठ की भाषिक प्रमुखता या ‘अग्रप्रस्तुति’ अर्थ से जुड़कर कभी ‘विचलन’ के सहारे उपस्थित होती है, तो कभी ‘विपथन’ के सहारे और कभी ‘समानान्तरता’ के सहारे, किन्तु कृति अथवा पाठ में कभी-कभी ऐसी स्थिति भी उत्पन्न होती है जब वहाँ न तो ‘विचलन’ होता है, न ही विपथन और न ही समानान्तरता, फिर भी शब्द प्रमुख होकर हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए अग्रप्रस्तुत हो जाते हैं। वस्तुतः ऐसे शब्द ‘उन्मीलक’ शब्द होते हैं, जो कृति अथवा पाठ की गहन संरचना से जुड़कर अर्थवत्ता का संचालन करते हैं। इनके हाथ में कृति अथवा पाठ के कथ्य का नियंत्राण-सूत्रा होता है। कृति अथवा पाठ में शब्द प्रयोगों की प्रायः दो कोटियाँ की गई हैं- 1. प्रतिपाद्य शब्द 2. उन्मीलक शब्द। प्रतिपाद्य शब्द किसी कृति अथवा पाठ में अनेकशः आवृत्त होते हैं। इसके विपरीत उन्मीलक शब्दों के प्रयोग विरल होते हैं। प्रतिपाद्य शब्द में क्रियाशीलता को सदैव समानान्तरता के अभिकरण के सहारे रेखांकित किया जाता है, किन्तु उन्मीलक शब्द को सदैव विचलन के सहारे रेखांकित नहीं किया जा सकता। यदि अव्याकरणिकता और अस्वीकार्यता उसके मूल में नहीं है तो विचलन नहीं होगा और यदि रचनाकार की ‘प्रायिक’ प्रत्याशित पद्धति के समनुरूप है तो विपथन भी नहीं होगा।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">अतः विरल शब्द कृति में अन्य शब्दों की भाँति अनेकशः आवृत्त नहीं होते अपितु विरल होते हैं और कृति को सार्थकता प्रदान करते हैं। यह विरलता शब्द, वाक्य और प्रोक्ति स्तर पर दिखायी देती है।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: red; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-29002062889487700322010-10-24T17:53:00.003+05:302010-10-24T17:53:46.708+05:30कबीर का दार्शनिक तत्त्व-निरूपण<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">सीमा भाटिया</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">‘दर्शन’ भारतीय संस्कृति का वह अंग है जो आज भी भारत को तेजोमय किए हुए है। दार्शनिक दृष्टिकोण के समन्वित स्वरूप की नींव पर ही हमारा साहित्य प्रणीत हुआ है। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">‘दार्शनिकता से अभिप्राय है जीवन और जगत् के पारमार्थिक स्वरूप तथा मानवीय जीवन के चरम लक्ष्य का चिंतन, मनन या साक्षात्कार। दर्शन का संबंध मुख्यतः किसी साधक या कलाकार की उस दृष्टि से स्वीकार किया जाता है जो प्रायः आध्यात्मिक हुआ करती है। उसका सीधा संबंध ब्रह्म, जीव, जगत्, माया आदि परोक्ष चेतनाओं के साथ हुआ करता है। उन्हीं चेतनाओं को व्यक्तिकरण उस साधक या कलाकार के सृजन में रूपयित होकर जगत्-जीवन को प्रभावित किया करता है। अतः दर्शन का संबंध प्रायः सूक्ष्म से होता है। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">कबीर का दार्शनिक विचार</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">कबीर मूलतः दार्शनिक नहीं थे बल्कि एक संत व भक्त थे। भक्त का दर्शन किसी सम्प्रदाय या किसी विशिष्ट मतवाद का सूचक नहीं बन पाता। उसकी दृष्टि उदार होती है इसलिए कई तरह के विचारों की झलक उसकी चिंतन प्रणाली में प्राप्त हो जाती है। चूंकि भक्त के ज्ञान का अवसान भाव में होता है इसलिए वह तर्क-वितर्क की दृढ़ शृंखला से बंध नहीं पाता। कई बार परस्पर विरोधी बातों का भी उसके विचारों में सन्निवेश हो जाता है। कबीर ऐसे ही भक्त साधक है जो संपूर्ण भारतीय चिंतन परंपरा के विरोधों के बीच समतामूलक तत्त्वों का निकालकर व्यापक धर्म की प्रतिष्ठा का संकल्प लेकर चल रहे थे। दार्शनिक चिंतन के लिए जिस प्रकार की सघन स्वानुभूतियों की आवश्यकता हुआ करती है, उनका भी कबीर के पास अभाव नहीं था। कबीर स्वयं भी इस ओर सतर्क थे कि लोग उनकी वाणी को तत्त्व या दार्शनिक-चिंतन से रहित सामान्य वाणी ही न समझ लें। तभी तो उन्होंने चेतावनी के स्वर में स्पष्ट कहा है- ‘‘तुम्ह जिनि जानौ गीत है यहु निज ब्रह्म विचार/केवल कहि समझाइया आतम साधन सार रे।’’ इसलिए श्यामसंुदर दास कबीर को ब्रह्मवादी या अद्वैतवादी मानते हैै। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">परशुराम चतुर्वेदी की मान्यता है कि कबीर के मत में जो तत्त्व प्रकाशित हुआ है वह उनके स्वाधीन चिंतन का परिणाम है। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #990000; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-48956669828290065152010-10-24T17:53:00.000+05:302010-10-24T17:53:04.509+05:30लोकायतन’ में युगबोध की परिकल्पना<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">डा. सुनील कुमार</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">कविवर सुमित्रानन्दन पन्त हिन्दी के एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविता का स्वरूप एवं स्वर समय के साथ बदलता रहा। पंत काव्य के क्रमिक विकास का चतुर्थ चरण ‘नवमानवतावादी’ कविताओं का युग है। इसी युग में उनका महाकाव्य लोकायतन (1961 ई.) प्रकाशित हुआ। साधना के पथ पर सतत् अग्रसर होकर इस कवि ने अपनी प्रतिभा, कल्पना और अनुभूति के माध्यम से जो रचनाएँ प्रस्तुत की उनमें युग का स्पंदन है और युग की अनुभूति है।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">साहित्यकार सामाजिक-युग चेतना से प्रभाव ग्रहण करने वाला प्राणी है। उसका समस्त व्यक्तित्व युगीन परिस्थितियों की देन होता है।1 पंत जी का महाकाव्य ‘लोकायतन’ युगबोध की सफल अभिव्यक्ति है। राजनीतिक दाँव-पेंच, साम्प्रदायिकता, धा£मक आडम्बरों, सामाजिक कुरीतियों, आ£थक विषमताओं, मानवहित-चिंतन, शोषितों के प्रति सहानुभूति आदि युगीन सारी सामाजिक भावनाओं को इस महाकाव्य में अभिव्यक्ति प्रदान की गई है। यही सत्य है कि ”साहित्यकार केवल अपनी जिं़दगी नहीं जीता, अपने समाज और अपने समय की ज़िन्दगी को भी प्रतिबिंबित करता है तथा दूसरी ओर अपने समय और परिवेश में से उस तत्त्व को भी उपलब्ध और अभिव्यक्त करता चलता है, जो शाश्वत है।“2 </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">वास्तव में अंधविश्वासों और रूढ़िवादी परम्पराओं ने मानव समाज में भयावह स्थिति उत्पन्न कर दी है। धर्म और सम्प्रदाय की संकीर्ण दीवारों को लांघे बिना नवीन मानव-समाज की स्थापना संभव नहीं है। कवि पंत पुरातनता, रूढ़िवादिता एवं निष्क्रिय मान्यताओं के प्रति तीव्र आक्रोश व्यक्त करते हैं- ”भारत-मस्तक का कलंक यह/जाति-पातियों मं जन खण्डित/जहाँ मनुज अस्पृश्य चरण-रज/राष्ट्र रहे वह कैसे जीवित।’’3 कवि ने एक ऐसे युग की आवश्यकता पर बल दिया, जिसमें वर्गभेद कम हों, जीवन की मूलभूत सुविधाएँ सर्वजन सुलभ हों। वास्तव में मानव-समाज के लिए जाति-पाति का भेदभाव व्यर्थ है। पंत जी एक नव्य सामाजिक क्रांति का आह्वान करते हुए कहते हैं- ‘‘सामाजिक क्रांति अपेक्षित/भारत जन के मंगल हित/हो जाति-वर्ण मंे बिखरी/चेतना राष्ट्र में केन्द्रित।“4</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">कोई भी कवि या साहित्यकार अपने समाज और अपनी परिस्थितियों से गहन एवं व्यक्तिगत रूप से जुड़ा होता है क्योंकि कवि होने के साथ-साथ वह एक सामाजिक प्राणी भी होता है; समाज की उन्नति की ओर अग्रसर होती हुई एक शक्ति भी होता है। यही कारण है कि समाज की एक स्पन्दनशील इकाई होने के नाते यह उसका दायित्व बन जाता है कि जिस समाज में उसका जन्म हुआ है, उसका आभास उसके साहित्य में मिलना ही चाहिए क्योंकि उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व उन्हीं परिस्थितियों और समाज की धरोहर होता है। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">कवि नये युग की स्थापना के लिए आत्मविस्तार और मानवीय एकता का प्रबल समर्थन करते हैं- ”मनुज एकता की नव युग आत्मा/महन्त-धरा जीवन में ही स्थापित/जाति-धर्म-वर्णों से कढ़ भू-मन/लांघ राष्ट्र-सीमा - हो दिंग् विस्तृत।“5 </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">छायावादी कवियों ने नारी को सम्मान देते हुए उसे प्रेरक शक्ति माना है। पंत भी उसे ”देवि, मां, सहचरि, प्राण’’ सम्बोधन देकर उसे गौरव प्रदान करते हैं। कवि का विचार है कि जब स्त्री निर्भय होकर धरा पर विचरण करेगी, तब जन-भू जीवन सरस एवं प्रश्न</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: red; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-17640862937152603662010-10-24T17:52:00.002+05:302010-10-24T17:52:14.549+05:30स्त्री मुक्ति का भारतीय सन्दर्भ और महादेवी वर्मा<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">कुलभूषण मौर्य</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">भारत में स्त्री मुक्ति का आन्दोलन एक लम्बी यात्रा के बाद ऐसे मुकाम पर पहुच गया है, जहाँ एक ओर उसकी सफलता के गीत गाये जा रहे हैं, सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों की बात की जा रही है, तो दूसरी ओर उस पर एक आयामी एवं पश्चिम आयातित होने का आरोप लगाया जा रहा है। परन्तु भारतीय चिन्तन परम्परा पर एक दृष्टि डालने पर यह सिद्ध हो जाता है कि यह पश्चिम की देन नहीं है। नारीवादी आन्दोलन को महत्त्वपूर्ण दिशा देने वाली सीमोन द बोउवार की पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ (1949 ई.) के पहले ही महादेवी वर्मा की ‘शृंखला की कड़ियाँ’ (1942 ई.), नामक महत्त्वपूर्ण पुस्तक आ चुकी थी, जो ‘नारी मुक्ति के उपायों की ओर गहन चिन्तन और विद्रोही तेवर’1 के कारण ध्यान आकर्षित करती है। ‘शृंखला की कड़ियाँ’ के पहले भी ‘थेरी-गाथा’, ‘सीमन्तनी उपदेश’, ‘स्त्री-पुरुष’ संज्ञान में है। स्त्री दृष्टि के कारण चर्चा में भी। भले ही उनकी लेखिकाओं के नाम ज्ञात हो या अज्ञात।’’2 </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">व्यक्तित्व के स्तर पर स्त्री-मुक्ति के नये आख्यान रचने वाली महादेवी वर्मा का नारी सम्बन्धी चिन्तन भारतीय सन्दर्भ में स्त्री-मुक्ति का मार्ग तलाशने का सशक्त एवं सार्थक प्रयास है। भारत में पाश्चात्य नारी चिन्तन के माध्यम से उठे नारी आन्दोलन के कई दशक पहले महादेवी ने भारतीय नारी की समस्याओं को न केवल सशक्त ढंग से उठाया, बल्कि स्त्री एवं समाज के हितों को ध्यान में रखते हुए सामंजस्यपूर्ण समाधान देने का भी प्रयास किया। ‘‘महादेवी पश्चिमी-नारीवादियों की तरह न तो कभी पुरुष-जाति का विरोध करती हैं और न ही पुरुष-प्रवृत्तियों को अपनाने की होड़ में यकीन करती हैं।’’3 उनका नारी विषयक चिन्तन बड़े ही शालीन ढंग से पुरुष वर्चस्ववादी समाज व्यवस्था पर अनेक सवाल खड़ा करता है। ‘शृंखला की कड़ियाँ’ में ‘‘उनकी नारी संवेदना के बौद्धिक एवं सामाजिक पक्ष का उद्घाटन हुआ है। रूढ़िवादी समाज और पुरुष प्रधान परम्परावादी दृष्टिकोण का एक तेजस्वी नारी द्वारा सांस्कृतिक सार पर तीव्र प्रतिवाद किया गया है।’’4 </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">महादेवी पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करते हुए भी ‘‘नारी के जीवन की कठिनाइयों के लिए न केवल पुरुष को दोष देती है, बल्कि इसके लिए वे नारी को भी समान रूप से दोष देती हैं।’’5 वे नारी में चेतना के अभाव को ही उसकी सारी समस्याओं की जड़ में देखती हैं। तभी तो वे कहती हैं, ‘‘वास्तव में अन्धकार स्वयं कुछ न होकर आलोक का अभाव है।’’6 </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">महादेवी स्त्री की मानसिक एवं शारीरिक बनावट को ध्यान में रखते हुए उसे पुरुष का पूरक मानती हैं जिनके अन्र्तसम्बन्धों पर समाज की पूर्णता निर्भर है। उनका कहना है, ‘‘नारी का मानसिक विकास पुरुषों के मानसिक विकास से भिन्न परन्तु अधिक द्रुत, स्वभाव अधिक कोमल और प्रेम-घृणादि भाव अधिक तीव्र तथा स्थायी होते हैं। इन्हीं विशेषताओं के अनुसार उसका व्यक्तित्व विकास पाकर समाज के उन अभावों की पूर्ति करता रहता है, जिनकी पूर्ति पुरुष स्वभाव द्वारा सम्भव नहीं।’’7 वे नारी को पुरुष की ‘सहधर्मचारिणी’ और ‘सहभागिनी’ के रूप में देखती हैं, जिसका कार्य है, ‘‘अपने सहयोगी की प्रत्येक त्राुटि को पूर्ण कर उसके जीवन को अधिक से अधिक पूर्ण बनाना।’’8 इसको प्रमाणित करने के लिए वे मैत्रोयी, गार्गी, गोपा, सीता, यशोधरा आदि का उदाहरण भी देती हैं। परन्तु उल्लेखनीय है कि उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। वास्तविकता यह है कि स्त्री ‘स्वतंत्रा व्यक्तित्व से रहित पति की छाया मात्रा’ रही।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #cc0000; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-57342873245315524602010-10-24T17:51:00.002+05:302010-10-24T17:51:31.244+05:30हिन्दी की बाल एकांकियों में बाल मनोविज्ञान<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">डा. कृष्णा हुड्डा</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">निस्सन्देह, बालक किसी भी देश के भविष्य- निर्माता होते हैं। सर्वांगीण विकास का भविष्य बालकों पर ही निर्भर करता है। इसलिए विकासकामी देश बालकों के विकास पर सर्वाधिक ध्यान देते हैं। यह विकास सर्वतोन्मुखी होता है तथा विकास की सारी योजना बाल मन से सम्बद्ध होती है। बालमन किसी भी चीज़ को जल्दी समझता है, जल्दी पकड़ता है और जल्दी अनुकरण करता है। शीघ्रता और चंचलता उनकी सहज प्रवृत्ति होती है। साहित्य की अनेक विधाओं में बालकांे का मन या तो कहानियों में रमता है या लघु एकांकियों में। एकांकियों या बाल एकांकियों से बालक शीघ्रता से किसी चीज़ का अधिगम करता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि हिन्दी में एकांकियों की एक लंबी परम्परा है। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">जैसा कि नाम से ही राष्ट्र है कि बाल एकांकी बच्चों- बालकों के लिए लिखा जाता है और यह एक अंक का होता है। बाल एकांकियों का उद्देश्य होता है। बालकों का परिष्कार करना, उन्हें नैतिकता की शिक्षा प्रदान करना। बाल एकांकी अपने उद्देश्य में तभी सफल होते हैं, जब उनकी रचना बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर की जाती है। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">जहां तक बाल एकांकियों के स्वरूप का प्रश्न है, उस बारे में ज्ञातव्य है कि अनेक विद्वान एवं लेखकों ने बाल एकांकियों पर प्रकाश डाला है। कुछ विद्वानों के मत यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं-</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">1. पंडित सीताराम चतुर्वेदी के अनुसार- बाल नाटकों से बच्चों को आचरण की सीख मिलती है। साथ ही बच्चों में सही ढंग से प्रस्तुतीकरण की क्षमता भी विकसित होती है।1</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">2. जयप्रकाश भारती के अनुसार- शिशु हो या बालक- अभिव्यक्त करना उसके स्वभाव में होता है। कह सकते हैं कि बच्चों द्वारा नाटक करना है, बड़ों ने उसे बाद में अपना लिया। अभिनय करने पर बालक में विश्वास जागता है। अपनी बात साफ-साफ कहने की क्षमता बढ़ती है। मनोरंजन तो होता है। यों तो पूरा जीवन ही रंगमंच पर अभिनय जैसा है।2</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">उक्त विद्वानों के विचारों से स्पष्ट हो जाता है कि बाल एकांकियों का साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। बाल एकांकियों का स्वरूप ऐसा होना चाहिए कि बालमन उससे सहज रूप से आकृष्ट हो जाये। उसकी भाषा सुबोध तथा संवाद छोटे और सारगर्भित होने चाहिए।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">हिन्दी साहित्य में बाल एकांकियों का विकास और शुरूआत नया नहीं है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय से ही बाल एकांकियों की रचना का दौर शुरू हो गया था। स्वयं भारतेन्दु ने सत्य हरिश्चन्द्र और अंधेर नगरी चैपट राजा लिखकर बाल एकांकियों के क्षेत्रा में पदार्पण किया था। डा. हरिकृष्ण देवसरे ने इसकी पुष्टि करते हुए लिखा है कि हिन्दी में बाल नाटकों का आरम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से ही माना जा सकता है।...भारतेन्दु युग में बच्चों के नाटकों के लिए प्रेरणादायी सृजन कार्य हुआ है।3</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">बाल एकांकियों की रचना के क्षेत्रा में द्विवेदी युग में भी पर्याप्त प्रयास हुए। 1917 ई. नर्मदाप्रसाद मिश्र द्वारा सम्पादित सरल नाटक माला (इसमें 44 बाल नाटक हैं) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसके बाद केशवचन्द्र वर्मा (बच्चों की कचहरी) कुदासिया जैदी (चाचा छक्कन के ड्रामे) की चर्चा आवश्यक है।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #990000; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-6313943977630993272010-10-24T17:50:00.003+05:302010-10-24T17:50:48.483+05:30हिंदी और मराठी दलित आत्मकथाओं का तुलनात्मक अध्ययन<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">डा. अशोक व. मर्डे</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">दलित साहित्य भारत के उन सभी शोषित, पीडित, अधिकार वंचित लोगों की दास्तान है। सदियों से अपने अधिकारों से वंचित एवं सदैव दुख दर्दे में छाये दासता का बोझ ढोते भारतवासियों की कहानी दलित साहित्य है। दलित शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘दल’ धातु से हुई है। शब्द कोशों में दल शब्द के अनेक अर्थ देखे जा सकते है। जैसे - फटना, खंडित होना, द्विधा होना, दबाया, कुचला हुआ, खण्डित आदि। दलित शब्द के आशय के संदर्भ में डा. नरसिंहदास वणकर के अनुसार, ‘दलित शब्द से हिंदू जाति व्यवस्था तथा हिंदू जाति व्यवस्था द्वारा मान्य किये गये लोगों के समूह का अर्थ बोध होता है। उसी प्रकार दलित शब्द विशिष्ट वर्ग का वाचक है। इससे उपेक्षित जातियों का परिचय मिलता है। दलित शब्द समाज व्यवस्था-जाति व्यवस्था की ओर ले जाता है। दलित शब्द कल और आज के दलित को दिखाता है।दलित शब्द से विद्रोह, आक्रोश, क्रांतिकारी का अर्थ - बोध होता है।1 </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">दलित साहित्य के बारे में कहा जाता है कि दलितों द्वारा, दलितों के लिए लिखा साहित्य ही दलित साहित्य है। तो कुछ लोगों का मानना है कि जिस साहित्य में शोषितों की जीवन कहानी है वह दलित साहित्य है। ‘दलित साहित्य, मानव मुक्ति का साहित्य है ही साथ ही यह शास्त्रों से मुक्ति की चेतना का साहित्य है। इस साहित्य में दलितोत्थान की मूल चेतना के साथ-साथ आम आदमी के दुख दर्द, उसके सामाजिक सरोकार आदि को नए सिरे से अभिव्यक्त करने का आग्रह है।2 इसमें दलित व्यक्ति के द्वारा ही लिखे होने का कोई सम्बन्ध नहीं। दलित साहित्य लेखक कोई भी, किसी भी जाति का हो सकता है जिसने यातानाओं को सहा है, किसी के शोषण को सहा है, जाति के नाम पर यातनाआं को झेला है। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">हिंदी और मराठी साहित्य में दलित साहित्य ने अपनी अलग पहचान कायम की है। कबीर, रविदास, नामदेव, तुकाराम, चोखामेला, सोयराबाई आदि संत कवियों ने भी दलितों, शोषितों पीड़ितों के लिए पदों की रचनाएं कर दलित जीवन की त्रासदी को रेखांकित किया है। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">हिंदी में दलित आत्मकथा की लेखन परंपरा मराठी के बाद की है। क्योंकि मराठी आत्मकथा की शुरूआत साठ के दशक से तो हिंदी में आत्मकथा की शुरूआत आठवें-नौवे दशक से मानी जा सकती है। डा. भगवानदास की ‘मैं भंगी हूं’ से हिंदी आत्मकथा की शुरूआत है तो मराठी में दलित आत्मकथा की कहानी कुछ निराली है। मराठी में दलित लेखक की परंपरा हिंदी दलित आत्मकथा की अपेक्षा बड़ी लंबी मानी जाती है। आधुनिक भाारत में हिंदी दलित साहित्य को मराठी की देन स्वीकार किया जाता है। अनेक भाषाओं में भी इस प्रकार का साहित्य लिखा गया लेकिन मराठी भाषा के समान यह साहित्य विकसित नहीं हुआ। मराठी भाषा में दलित साहित्य ने एक प्रकार से क्रांतिकारी विचारों को बड़े पटल पर और प्रचुर साहित्यकारों के माध्यम से वाणी दिलाने के प्रयास किए। औरंगाबाद से 1960 में अस्मिता और अस्मितादर्श पत्रिकाओं के माध्यम से दलित साहित्य ने अपनी पहचान कायम की। इसी पत्रिकाओं के माध्यम से पहली बार मराठी के केशव मेश्राम, बंधु माधव, राजा ढाले, नामदेव ढसाल, योगिराज वाघमारे, बाबुराव बागुल आदि लेखकों की संक्षिप्त आत्मकथा प्रकाशित हुई और तब से मराठी के अनेक बुजुर्ग लेखकों, युवकों ने अपनी आत्मकथाओं का लेखन कार्य शुरू किया। हर एक आत्मकथा लेखन</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #990000; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-16585882110480410292010-10-24T17:50:00.000+05:302010-10-24T17:50:04.375+05:30राजनीतिक धरातल पर कदम बढ़ाती मैत्रेयी पुष्पा की नायिकाएँ<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">सरिता बिश्नोई</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">राजनीति और समाज का अन्योनाश्रित सम्बन्ध है। समाज और राजनीति की प्रत्येक गतिविधि एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। यदि यह कहा जाए कि स्वच्छ एवं सुचारू रूप से होने वाली राजनीतिक गतिविधियाँ उन्नत और प्रगतिशील समाज का निर्माण करती हैं और दूषित तथा भ्रष्टाचार में लिप्त गलत राजनीतिक गतिविधियाँ सम्पन्न समाज को भी संकट में डाल देती हैं, तो कदाचित् गलत नहीं होगा। इसी प्रकार समाज में प्रतिदिन घटने वाली घटनाएँ राजनीतिक मुद्दा बनकर समूची शासन-व्यवस्था को हिला कर रख देती हैं। चूँकि साहित्य समाज की युगीन परिस्थितियों और परिवेश का जीवंत चित्राण होता है, तो उसमें तत्कालीन राजनीतिक परिवेश व परिस्थितियों का उल्लेख होना स्वाभाविक ही है। समाज के विविध क्षेत्रों के समान राजनीतिक क्षेत्रा भी साहित्यकार की चेतना को झकझोरने का काम करता है और साहित्यकार युग और इतिहास में घटित राजनीतिक घटनाओं, दुर्घटनाओं, आंदोलनों व समस्याओं के प्रति सजग दृष्टिकोण अपनाते हुए उनके कारणों, स्रोतों और प्रभावों को अपने साहित्य में सचेतन अभिव्यक्ति देता है। इस प्रकार साहित्यकार तत्कालीन परिवेश तथा विविध क्रियाकलापों को तटस्थ भाव से देखते हुए अपने साहित्य में निष्पक्ष रूप से उनका चित्रांकन करता हुआ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">वर्तमान में विविध सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं से लोगों को अवगत कराने और जागरूक करने के लिए कथा-साहित्य अत्यंत प्रभावी माध्यम के रूप में सामने आया है। जनसामान्य की समस्याओं को जनसामान्य की भाषा में अधिक सरलता से समझाया जा सकता है। इसलिए राजनीतिक समस्याओं को अपने कथा-साहित्य का विषय बनाकर कथाकारों ने लोगों में राजनीतिक जागरूकता लाने का उल्लेखनीय कार्य किया है। पुरुष कथा-लेखकों के समान ही महिला लेखिकाओं ने भी राजनीति को केन्द्र में रखकर साहित्य की रचना द्वारा राजनीतिक-क्षेत्रा से जुड़ी समस्याओं और उपलब्धियों को समाज के सामने प्रस्तुत किया है। महिला-कथाकारों ने भारतीय राजनीति के विभिन्न पहलुओं को अपने कथा-साहित्य में उजागर किया है। अपराधियों का राजनीतिकरण, सांप्रदायिकता पर आधारित राजनीति, जनसामान्य पर अनुचित राजनीतिक निर्णयों के दुष्प्रभाव, नारी की राजनीतिक सहभागिता इत्यादि विविध मुद्दों को उन्होंने लेखन का विषय बनाया। समकालीन लेखिकाओं में मैत्रोयी पुष्पा का नाम विशेष रूप से राजनीतिक विषयों पर कथा-लेखन के लिए लिया जाता है। इसमें भी उन्होंने नारी की राजनीति में भागीदारी और उसके लिए राजनीतिक क्षेत्रा में व्याप्त चुनौतियों को अपने उपन्यासों और कहानियों का वण्र्य-विषय बनाया है। मैत्रोयी पुष्पा के कथा-साहित्य में राजनीति के विविध कार्यक्षेत्रों में चुनौतियों का सामना करती हुईं नायिकाएँ अपनी संकल्प दृढ़ता का परिचय देती हैं। उनकी यह संकल्प दृढ़ता तथा राजनीति के क्षेत्रा में बार-बार पुरुष वर्ग द्वारा पीछे धकेले जाने के बावजूद अपनी पहचान बना लेना ही उनकी संघर्ष-गाथा को सार्थकता प्रदान करती है। लेखिका की यह विशेषता है कि उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों की विषय-वस्तु कहीं बाहर से नहीं जुटाई है और न ही काल्पनिक है, बल्कि उन्होंने अपने आस-पास के ग्रामीण परिवेश की ज़मीन पर कदम-दर-कदम चलते हुए यथार्थ को अनुभव करते हुए एकत्रित की है। नारी-विमर्श के अंतर्गत राजनीतिक संदर्भों को उजागर करने की दृष्टि से उनके ‘चाक’ व ‘इदन्नमम्’ उपन्यास अत्यंत चर्चित</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #f4cccc; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-20664467663653938472010-10-24T17:49:00.002+05:302010-10-24T17:49:17.401+05:30महानगरीय निम्न वर्ग की जीवन त्रासदी: ‘मुर्दाघर’<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">लवली शर्मा </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">वैभव के परिचायक महानगरों में जहां एक ओर गगनचुम्बी अट्टालिकायों व इमारतों में रहने वाले उच्चवर्गीय लोगों की दुनिया बसती है वहीं दूसरी ओर इसी दुनिया के समांतर कुत्तों, कौवों और रेंगते हुए कीड़ों से भी बदतर ज़िन्दगी व्यतीत करने वाले लाखों लोग फुटपाथों पर रहते हैं जिन्हें महानगर का सभ्य समाज जूठन और ग़न्दगी के अलावा और कुछ नहीं मानता। लेकिन फिर भी नैतिक मूल्यों से विहीन मानी जाने वाली यही दुनिया महानगरों का अभिन्न अंग है।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">औद्योगिकरण के प्रसार के साथ-साथ महानगरों में रोज़गार अवसरों की संभावना भी बढ़ने लगी। उद्योगों की स्थापना के फलस्वरूप महानगर पहले से अधिक महत्त्वपूर्ण हो गये। उच्चस्तरीय शिक्षा, चिकित्सा, व्यापार, राजनीति एवं साहित्य आदि के केन्द्र होने के कारण महानगर लगभग सभी वर्ग के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। बड़ी-बड़ी इमारतों, पुलों, सड़कों के निर्माण एवं अन्य कार्य हेतु छोटे व बड़े कारीगर तथा मज़दूर वर्ग गांव और कस्बों से पलायन कर महानगरों में आकर बसने लगते हैं। लेकिन यह आवश्यक नहीं कि इन नगरों में सभी को जीविका कमाने के समान अवसर प्राप्त हों। इसी कारण अधिकांशतः नवागन्तुक यहां आकर मोहभंग का शिकार होते हैं। जनसंख्या बढ़ने के कारण महानगरीय समस्याएं भी बढ़ने लगती हैं जिनमें से आवास की समस्या सबसे अधिक विकट रूप धारण कर रही है। इसी समस्या के कारण महानगर के भीतर व बाहरी किनारों पर झुग्गी-झोपड़ियों एवं मलिन बस्तियों के रूप में अति निम्न वर्ग की दुनिया अस्तित्व में आयी है। भले ही महानगरीय जटिलताएं मध्य वर्ग के लिए भी पीड़ादायक प्रतीत होती हैं लेकिन ये जटिलताएं निम्न वर्ग को सबसे अधिक प्रभावित करती रही हैं।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">इन मलिन बस्तियों में रहने वाले भिखारी, अपाहिज, कोढ़ी, रेड़ी लगाने वाले व्यक्ति, मज़दूर एवं अन्य छोटे-मोटे काम करने वाला यह गरीब वर्ग ज़िन्दगी की जद्दोजहद व लड़ाई में निरन्तर हार रहा है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं यदि यह वर्ग ‘मूल्य’ जैसे शब्दों को समझने व पहचानने का सामथ्र्य न रखता हो। जगदम्बा प्रसाद दीक्षित ने ऐसे ही वर्ग के विघटित सामाजिक व उनकी ‘इच्छा-आकांक्षाओं, सपनों आशाओं-निराशाओं, अच्छाइयों, बुराइयों को उनकी अभागी-अपाहिज ज़िन्दगी की अभिशप्त नियति को, उनकी सड़ांध से घिरी धूल और कीच में बखस औंधी पड़ी, फुटपाथ पर एकदम सपाट गिरी-लेटी मजबूर ज़िन्दगियों के आँसू-रीते दर्द को’’1 को अपने उपन्यास ‘मुर्दाघर’ में प्रस्तुत किया है। उनका यह उपन्यास महानगरीय परिवेश की सशक्त अभिव्यक्ति है जिसका कथ्य बम्बई महानगर की झोपड़ियों, फुटपाथों, पाइपों या खुले आसमान के नीचे बिना किसी छत के रह रहे बेघर निम्न वर्ग एवं वेश्याओं के जीवन के मार्मिक पक्षों का उद्घाटन करता है। इस उपन्यास के केन्द्र में ‘‘रंडियाँ हैं जो पूरी ज़िन्दगी घरबार और पति!’’ जोड़ने की अनथक कोशिशों में टूट रही हैं और स्वप्न पाल रही हैं (मैना)। ये उगती हुई नस्ल (राजू) के अंधकारमय भविष्य की चिन्ता से आक्रान्त हैं। शरीर पर सभ्यता के दिये हुए अमानवीय अघातों को झेलती हुई और शरीर को माँस की दुकान में बदलती हुई इन रंडियों की सारी ज़िन्दगी की कमाई कुल जमा पूँजी एक या दो रुपये की है जो किसी दुर्घटना से जूझते हुए बस के भाड़े या मुरदा ठिकाने लगाने वाले भंगी की सेवाओं के प्रतिमान में निकल जाती है</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #990000; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-90757591926641612032010-10-24T17:48:00.002+05:302010-10-24T17:48:30.108+05:30शृंखला का द्वन्द्व घोष, कोई उधार न हो<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">डा. श्रीमती दया दीक्षित</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">जो सकार के अर्थां को प्राप्त करने के लिए क्रांतिदृष्टा, क्रांतिचेता और क्रांतिकर्ता होते हैं यही अर्थां में वे क्रांतिकारी, विचारक, प्रबुद्ध चिंतक कहे जाने अधिकारी हैं। ये विभूषण ऐसे ही लोगों पर फबते हैं, अपने पूरे वास्तविक और सही अर्थां में। जिसका खून माक्र्स के विचारों के रंग से रंगा हो, अगर वह मुक्तिबोध या निराला के तेवरों पर दिलोजान से फिदा न हो, तो क्या रीति की नीतियों पर फिदा होगा? सो अपने जोश और होश में इन विभूषणों को पैबस्त करने वाली कात्यायनी ने अपनी माक्र्सवादी रौ में माक्र्स और उसके समकालीन तद्देशीय और अन्य अंतर्राष्ट्रीय विचारकों ने विचार घोंट कर आत्मस्थ कर डाले। माक्र्स, हर्जन, ट्रोबोल्युबोब, टाल्स्टाय, मक्सिम गोर्की, लूशून, लोर्का, फेहिन, पाब्लोनेरूदा, नाजिम हिकमत, गोएठे...इन सबके सार को घटित करने की जद्दोजहद से जूझती हुई काव्य वस्तुओं का चित्राण करती हैं, विज्ञान उनका ज्ञान प्रदान करता है। आज के युग की मांग है जो ज्ञान प्राप्त किया है, उसे वास्तविक जीवन में मूर्त किया जाये।1 अपने जीवन को प्राप्त ज्ञान से परिचालित करने वाली कात्यायनी के तीन चिंतन ग्रंथ बेहद महत्त्वपूर्ण हैं- दुर्ग द्वार पर दस्तक, कुछ जीवंत कुछ ज्वलंत और षड्यन्त्ररत मृतात्माओं के बीच। उनके काव्य संकलनों में महत्त्वपूर्ण काव्य संकलन है- सात भाइयों में चम्पा, इस पौरुषपूर्ण समय में और फुटपाथ पर कुर्सी, जादू नहीं कविता।</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">इनमें वे राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक सामाजिक क्षेत्रों में व्याप्त समस्याओं, असमानताओं का विश्लेषण कहते हुए ग्लोब्लाइजेशन एवं विश्व बैंक की करतूतों जैसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों का उसकी आर्थिक नीतियों षड्यंत्रों का पर्दाफाश करती हैं। किस तरह पूंजीवादी विश्व बैंक की वैश्विक षड्यंत्राकारी कुव्यवस्था अपना घर भरने के लिए हमारे देश की अर्थनीति को तहस नहस करने में लगी है। किस तरह से हमारी भूमि क्रय करके अधिग्रहीत कर रही है। किस तरह से कम दामों में हमारे देशी खून पसीने, श्रम को खरीद कर उसे निचोड़ चूस रही है। उन्हें बर्बाद कर रही है, किस तरह कच्चा माल और श्रम आयातित करके ले जा रही है, इस पूरी षड्यंत्राकारी कवायद को और इसे सफल बनाने वाली स्वदेशी गंदी घृणित राजनीति को बेनकाब भी कर रही है और उसके विरूद्ध लड़ाई भी लड़ रही है। उनकी यह लड़ाई पूंजीवाद से है, सांप्रदायिकता और वर्ग भेद से है। हर उस धिनौनी ताकत से है जो उनकी यह निर्बलों, दलितों, स्त्रिायों, बच्चों, श्रमिकों, सर्वहारा वर्ग को लगातार अपने शोषण के मकड़जाल में कसती फंसाती जा रही है। वे एक साथ ही माक्र्सवादी धारा से जुड़ी सक्रिय क्रांतिनेत्री हैं, प्रखर विचारक हैं, नारीवादी चिंतक हैं। उनके नारीवादी रूप पर मंगलेश डबराल के शब्द याद आ रहे हैं। </span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #660000; font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-87703516131566213142009-12-31T19:01:00.001+05:302009-12-31T19:01:33.556+05:30NEWHAPPY NEW YEAR 2010शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-70141469331931584562009-09-23T22:28:00.000+05:302009-09-23T22:36:50.347+05:30फेयरवेल<div align="justify"><span style="font-size:130%;">प्रताप दीक्षित<br /> <br /><br /> अंततः रामसेवक अर्थात् आर.एस. वर्मा, सहायक सुपरवाइजर की पोस्टिंग मुख्यालय में ही हो गई। ग्रामीण इलाकों से लेकर कस्बों और अनेक नगरों में फैली शाखाओं वाले इस अर्द्धसरकारी जनसेवी संस्था का मुख्यालय प्रदेश की राजधानी में स्थित था। नियुक्ति के पश्चात् लगभग पन्द्रह-सोलह वर्षों के दौरान वह सदा ग्रामीण अथवा कस्बाई इलाकों में ही रहा था। नीति के अनुसार प्रत्येक तीन वर्ष बाद उसका स्थानान्तरण हो जाता। यद्यपि इसके कारण अभी तक उसे कुछ विशेष असुविधा तो नहीं हुई क्योंकि जिस छोटे-से नगर की गंदी-सी बस्ती में उसका बचपन बीता था, उसकी तुलना में इन जगहों में उसके रहन-सहन का स्तर पर्याप्त से अधिक ही था। परन्तु बढ़ती सुविधाएँ, जिनका वह आदी होता गया था, शीघ्र ही अपनी अर्थवत्ता खोने लगीं। मसलन रंगीन टी.वी. और फ्रिज खरीदा, तो बिजली न आती। पत्नी के लिए ब्यूटी सैलून न होता। कहीं-कहीं तो उसके नए विशाल सोफे और बोन-चाइना की क्रॉकरी के लिए उपयुक्त मेहमान तक उपलब्ध न होते। अतः क्षेत्राीय प्रबंधक से लेकर यूनियन के महासचिव तक दौड़ने और काफी जद्दोजहद के बाद उसके स्थानान्तरण के लिए आदेश हेड ऑफिस हेतु हो गए। इस महानगर में आने के थोड़े ही दिनों बाद उसे लगने लगा कि उसके अंदर की गौरैय्या एक डैने पसारे विशाल पक्षी में परिवर्तित हो रही है।<br /> नई जगह, आवास से कार्यालय दूर था। बच्चों के स्कूल भी पास नहीं। खर्च बढ़ने ही थे। पिता को भेजे जाने वाले मनीऑडरों में अंतराल आने लगा। दफ्तर के बाद अथवा छुट्टियों में बाहर निकलना मुश्किल होता। पिछली जगहों में, यहाँ की तरह नफासत पसंद सहयोगी भले ही न रहे हों, पर अवकाश के दिन और शामें मोहन लाल, श्रीवास्तव, रफीक अथवा पांडेय के यहाँ कट ही जाती थी। यहाँ इस प्रकार का पारस्परिक व्यवहार संभव न हो पाता। एक तो चलन नहीं दूसरे सभी दूर-दूर रहते थे। उसने प्रारम्भ में कोशिश की परन्तु थोड़ी ही देर बाद, जिसके घर वह गया होता, उसके आने का कारण पूछ बैठता। अतः वह भी चुप हो बैठ गया। इस नगर में दूर-पास के संबंधी भी शायद ढूँढने पर ही मिलते। यहाँ सुविधाएँ जरूर अधिक थीं-बिजली की आपूर्ति लगभग चौबीस घंटे, दूरदर्शन के अनेक चैनल, मनोरंजन के साधन, चिकित्सा सुविधा, नए-नए विज्ञापनों वाली उपभोक्ता वस्तुओं से भरे हुए बाजार। परन्तु समय कृपणता बरतता। पहली जगहों में जहाँ दुकानदार अनुनय के साथ किफायती दरों में सामान घर पहुँचा देते, यहाँ प्रॉविजन स्टोरों में प्रतीत होता कि उस पर लगातार एहसान किया जा रहा है या अति विनम्रता का प्रदर्शन कि बिना खरीददारी के वापस आने की हिम्मत न पड़ती, रेट चाहे जितने अधिक लगते रहे हों। यदि कभी बिजली न आ रही हो तो बंद कमरों से निकल चौथी मंजिल की खुली छत पर जाने का साहस न होता। शायद सुविधा भी नहीं थी। मकान मालिक की इतनी सदाशयता ही बहुत थी वह नजरें मिलने पर जरा-सा सिर हिलाकर नमस्कार-सा कर लेता।<br /> मुख्यालय के जिस उपविभाग में सहायक-पर्यवेक्षक के पद पर उसकी नियुक्ति थी, वहाँ का मुख्य कार्य, विभिन्न शाखाओं से आए स्टेटमेंट का विश्लेषण और वर्गीकरण कर, अंतिम आंकड़े तैयार करना था। दफ्तर में काम तो कम था परन्तु फैलाव अधिक। एक का काम दूसरे से जुड़ा, एक हद तक दूसरे पर निर्भर था। अक्सर शाखाओं अथवा दूसरे विभागों से साप्ताहिक और मासिक रिपोर्ट समय पर न आती, जिससे कम्प्यूटर पर फीगर न पहुँच पाती। जिम्मेदार उसे ठहराया जाता। कार्यालय में लगता सभी जल्दी में हैं। लंच के बाद बाबू लोग तो चले ही जाते, अधिकारी भी इधर-उधर देख सिमट लेते। उसके विभाग को ऊपर के लोग अनाथालय और अधीनस्थ कर्मी ÷क्लब' कहते। निश्चित बंटा काम भी समय पर पूरा न हो पाता। कारण अनेक थे। स्टेशनरी की कमी जो अक्सर हो जाती, चपरासी या वाटर-ब्वाय का गायब हो जाना, आदि-आदि। इसके बाद लोगों के अपने काम भी तो थे। बिल अथवा शेयर फार्म जमा करना, बच्चों को स्कूल से लाना। मेहरोत्रा की बीबी स्कूल में पढ़ाती थी, वह उसे छोड़कर आता। फिर लेने भी तो जाना पड़ता था। विभाग में उसके अतिरिक्त एक अन्य अधिकारी जे.पी. श्रीवास्तव था। उसे लोग सनकी या ऐसा ही कुछ मानते। नियम-कानून का पक्का। खुद समय से आता, जमकर काम करता और सबसे यही उम्मीद करता। वह अक्सर हाजिरी रजिस्टर में क्रॉस लगा देता। लोग उससे चिढ़ते। खुद पिले रहो, पर यह क्या सबको घड़ी देखकर हांकोगे। उससे श्रीवास्तव की पट गई।<br /> एक दिन उसकी सीट पर ऑडिट सेक्शन का कुंदन आया, ÷÷बॉस! जरा दो सौ रुपये बढ़ाना।'' उसके हाथ में एक लिस्ट थी। उसने फाइलों के बीच से सिर उठाकर प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा।<br /> ÷÷अरे! क्या जनार्दन जी का सरकुलर नहीं मिला। अपने निदेशक महोदय, शाह साहब का, स्थानान्तरण केन्द्रीय कार्यालय हुआ है। उनकी विदाई पार्टी है।''<br /> ÷÷परन्तु क्या यह राशि ज्यादा नहीं है?'' उसने झिझकते हुए कहा, लेकिन जनार्दन के नाम से उसने रुपये बढ़ा दिए थे।<br /> ÷÷आप अभी नए आए लगते हैं। मजे करोगे यार!'' कुंदन ने बेतकल्लुफी से कहा था।<br /> दो दिन बार विदाई पार्टी का आयोजन संस्थान के अतिथिगृह में किया गया था। विशाल लॉन में कुर्सियाँ और बीच में लाल कालीन। लोग धीरे-धीरे आ रहे थे। उसने हाथ जोड़ नमस्ते किया। अधिकारी संघ के सचिव जनार्दन जी लोगों से घिरे हुए थे। व्यस्तता के बाद भी उन्होंने आगे बढ़कर उससे हाथ मिलाया। वह कृतज्ञ हो आया।<br /> पण्डित जनार्दन, अधिकारी संघ के सचिव, टाई-सूट में रहते। गौर वर्ण, माथे पर लाल चंदन, सिर पर गांठ लगी चोटी। गरिमामय ढंग से निरन्तर अंग्रेजी बोलते। धीमे-धीमे बोलते अचानक उनका स्वर तेज हो जाता। यह इस बात का सूचक था कि फैसला हो गया, अब बात खत्म। उन्होंने कई लोगों को कुछ काम बताते हुए, आदेश जैसे स्वर में, प्रार्थना की। पास खड़ा जगदीश, कुछ नहीं तो, पास पड़ी बेतरतीब कुर्सियों को ही व्यवस्थित करने लगा। वह निरुद्देश्य इधर-उधर देखता रहा। तभी जनार्दन जी उसके पास आकर बोले, ÷÷आपसे तो मुलाकात ही नहीं होती बहुत व्यस्त रहते हैं।''<br /> उसने कुछ कहना चाहा तभी निदेशक महोदय की कार अंदर आती दिखाई दी। लोग सावधान हो उठे। जनार्दन उससे ÷एंज्वाय', ÷एंज्वाय' करते उधर बढ़ गए। लोगों ने उन्हें मार्ग दिया। उन्होंने कार का दरवाजा खोलते हुए, ÷वेलकम सर' कहकर हाथ मिलाया।<br /> काले सूट में मुस्कराते निदेशक महोदय, लोगो के साथ, सोफों की ओर बढ़े। सभी लोगों के साथ वह पीछे पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया था। वह स्पष्ट नहीं सुन पा रहा था। माल्यार्पण का कार्यक्रम आरम्भ हो चुका था। सचिव महोदय आवाज देते और लोग, महत्त्वपूर्ण लोग, निदेशक महोदय को माला पहनाकर वापस आ जाते। जर्नादन जी ने आवाज दी थी, ÷श्री जगदीश चन्द्र, स्टेटमेंट अनुभाग' जगदीश शायद लघुशंका हेतु चला गया था। पंडित जी ने कुछ रुककर कहा, ÷श्री राम सेवक जी।'<br /> वह चौंका फिर सचिव महोदय को अपनी ओर देखते पाकर आगे बढ़ा और उनके हाथ से माला ले, निदेशक महोदय के गले में डाल, फिर वापस अपने स्थान पर आ बैठा। अभी भी कई मालाएँ बची हुई थीं। वह अपने को महत्त्वपूर्ण मान रहा था। उसका संकोच कुछ हद तक मिट गया था। इसके बाद अगला कार्यक्रम था। जर्नादन जी ने निदेशक महोदय का गिलास भरने के बाद अपना गिलास भरा था। इसके बाद अन्य लोगों ने। ÷चियर्स' के साथ हलचल बढ़ गई थी।<br /> ÷आओ यार।' कहीं से जगदीश ने आकर उसे खींचा था।<br /> ÷÷परन्तु, मैं तो लेता नहीं।'' उसने कहा।<br /> ÷÷अरे सूफीपन छोड़ो। दो सौ वसूलने हैं या नहीं?'' उसने दुबारा जोर दिया।<br /> निदेशक महोदय, उपनिदेशक के साथ किसी गम्भीर मंत्राणा में व्यस्त हो गए थे। जनार्दन जी आते दिखे। वह उसके सामने आ गए थे। वह खड़ा हो गया। उससे मुखातिब होते हुए उन्होंने कहा, ÷यार रामसेवक तुम आगे क्या लिखते हो?'<br /> वह संकुचित हो उठा। उसे याद आया, वर्षों पहले कॉलेज में एक प्रोफेसर के द्वारा इसी प्रश्न के उत्तर में उसने उन्हें वह लेक्चर पिलाया था कि वह माफी-सी माँगने लगे थे। पर इस समय उसने झिझकते हुए उत्तर दिया, ÷जी! वर्मा, रामसेवक वर्मा।'<br /> ÷वही तो,' वह हाथ में गिलास लिए हो-हो हँसते हुए थूक उड़ाते बोले, ÷÷वही तो। मैं तो कुछ और समय रहा था।''<br /> वह कुछ कहना चाहता था, परन्तु माहौल देखकर चुप रह गया। जनार्दन जी फिर डायरेक्टर साहब के पास सिमट गए थे। वह चिन्तित से बोले-÷सर, आपके जाने के बाद इस मुख्यालय का क्या होगा? ईश्वर जाने इस संस्था का क्या भविष्य है?'<br /> शायद भोजन कुछ कम पड़ गया था। लोग आशंकित हो हाथ में प्लेटें लिए टूट पड़ रहे थे। निदेशक महोदय को काफी बड़ा गिफ्ट पैकेट विदाई में दिया गया था। देर रात लौटते हुए उसने अपनी पूर्व विदाई पार्टियाँ याद आई। पाँच-पाँच रुपये एकत्रिात कर, चाय-समोसे, गुलाब जामुन और उपहार में एक पेनसेट। उसे संतोष हुआ चलो यहाँ से चलते समय विदाई पार्टी तो ढंग से होगी। घर में पत्नी और बच्चे पार्टी की भव्यता सुनकर उत्साहित थे।<br /> अगले माह उसके प्रभाग में कार्यरत जगदीश के तबादले के आर्डर आ गए। उसके इस स्टेशन पर पाँच वर्ष पूर्ण हो चुके थे। आना था ही। उसने कुंदन, सचिव का सहयोगी, से जगदीश की पार्टी के लिए बात की। ÷क्या?' उसने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए कहा, ÷इस संबंध में तुम सचिव से ही सीधे बात कर लो।'<br /> उसने सचिव को ढूँढा। वह डायरेक्टर के कमरे में था। वह बाहर ही प्रतीक्षा करने लगा। तभी द्वार खुला। स्प्रिंग वाला दरवाजा खोल, जनार्दन बाहर निकला। पीछे डायरेक्टर साहब। वह दरवाजा बंद होने से रोकने के लिए पकड़े रहा था। उसने सुना, ÷÷पहले की बातें तो जाने दीजिए। मैं जाने वाले की बुराई नहीं करता परन्तु यहाँ के प्रबन्ध, लोगों की कार्यक्षमता में जो सुधार आपके ज्वाइन करने के बाद हुआ, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।''<br /> जनार्दन कह रहा था।<br /> मुदित डायरेक्टर साहब कार में बैठ गए थे। उसने जनार्दन से अपनी बात जोर देकर कही। जनार्दन गंभीर हो गया, ÷÷इस बार तो संभव नहीं है। लोग अभी दो-दो सौ झेल ही चुके हैं। फिर इसे जनरल बॉडी में पास भी तो कराना पड़ेगा।''<br /> तभी वहाँ कुंदन और तीन-चार अन्य साथी भी आ गए थे। वह निराश होकर आगे बढ़ गया था। पीछे से उसके कानों में कई आवाजें पड़ी थीं-÷पार्टी चाहिए! साला डायरेक्टर से अपनी बराबरी करता है।'<br /> दो-ढाई महीने बीत गए। उसने इस बीच और कई साथियों से बात की थी। उसे आश्चर्य था कि सबके हित और समानता की बात होने पर भी कोई भी उससे सहमत क्यों नहीं था। एक शाम उसे कार्मिक विभाग में बुलाया गया। पता चला कि उसका ट्रांसफर एक दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रा में हो गया था। उसे रोष के साथ अचरज भी हुआ-उसे आए तो मुश्किल से एक वर्ष भी नहीं हुआ होगा। इतनी जल्दी<br /> ÷÷आप चाहें तो निदेशक महोदय से मिल लें।'' कार्मिक अधिकारी ने ठंडे स्वर में अपनी विवशता बताई।<br /> परन्तु कुछ न हो सका। वह जनार्दन से किंचित आवेश में मिला।<br /> ÷÷यह तो प्रशासनिक आधार पर हुआ है। इसमें कुछ नहीं हो सकता।'' जनार्दन ने मजबूरी जाहिर की।<br /> उसके दोबारा कहने पर कहा, ÷अच्छा तो आप अवकाश ले लें। देखूंगा, क्या-कुछ किया जा सकता है?'<br /> एक दिन उसके सुनने में आया कि कुंदन ने जनार्दन से कहा था, ÷÷यह तो बना हुआ वर्मा है।''<br /> जनार्दन ने कहा था, ÷÷मुझे पहले से ही मालूम था।''<br /> वह दो माह तक बीमारी के आधार पर छुट्टी लिए रहा। रोज जनार्दन के कार्यालय में जाकर बैठ जाता। आखिरकार परिणाम आया। दूरस्थ शाखा से आदेश परिवर्तित होकर एक अन्य, अपेक्षाकृत निकट की ग्रामीण शाखा के लिए हो गया, उसे अवमुक्त कर दिया गया था। उसके अधीनस्थ भी प्रसन्न थे। तिवारी कह रहा था, ÷÷बड़े कानूनदां और तुर्रमखाँ बनते थे। लद गए न।''<br /> वह रिलीविंग पत्रा लेकर लौट रहा था। उसको मालूम था कि उसकी फेयरवेल न होनी थी न होगी। उसके मन में आ रहा था-छोटू को गुलाब की माला और बेटी को गिफ्ट पैकेट की प्रतीक्षा होगी। पत्नी तो, पार्टी में खाने को क्या था-यही सुनकर तृप्त हो जाएगी।<br /> वह निरन्तर सोचता रहा। लौटते हुए बाजार में घड़ी की एक दुकान पर रुका। एक अलार्म घड़ी खरीदकर पैक करवाने के बाद, लाल कागज में गिफ्ट-पैकेट बनवा लिया। पास में स्थित एक मंदिर के बाहर बैठे माली से एक गुलाब का हार लिया। माली ने उसे पत्ते में लपेटना चाहा, पर उसने उसे ऐसे ही ले लिया। माला लिए हुए वह पार्क के कोने में गया। इधर-उधर देख, उसने माला पहन लिया। वह पार्क के बाहर आया। एक रिक्शेवाले को रोका। वह चौकन्ना-सा रिक्शे पर बैठ गया। रिक्शा उसके घर की ओर चल पड़ा।</span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5197935742392751549.post-30994061907747934932009-09-06T07:19:00.000+05:302009-09-06T07:19:00.878+05:30नरक में लोग नहीं मरते<div align="justify"><span style="font-size:130%;">प्रताप दीक्षित<br /> <br /> आधी रात में अचानक आशुतोष के पेट में तेज दर्द उठा। पहले तो वह चुपचाप लेटा रहा परन्तु जब पीड़ा असह्य हो गई तो उसकी कराहटों से पत्नी जाग गई। एकदम जाग उठने के कारण, सावित्राी कुछ समझ न सकी। गृहस्थी के अनेक खटरागों में खटने के बाद पहली नींद थी। संज्ञान होने में कुछ देर लगी। जब तक वह कुछ समझ सके और लाइट जलाए उसकी कराहटें बढ़ गई थी। पति ने बड़ी मुश्किल से पेट पर हाथ रखकर बताया। उसने तुरन्त फोरी उपचार हेतु सुन रखे, घरेलू नुस्खे अपनाए। सिकाई के लिए पानी गर्म करने के लिए स्टोव जलाने लगी।<br /> प्रतिदिन की तरह पिछली रात भी आशुतोष फैक्ट्री से आने के बाद चाय पीकर पुत्रा रवि से बतियाता रहा, उसकी किताबें देखता रहा था। रात के खाने में रोटी और सब्जी ही थी। खाने के दौरान, किस्तों में लिए गए पार्टेबिल टी.वी. पर, वे फिल्मी गीतों का कार्यक्रम भी देखते जा रहे थे। उसने सोचा कहीं कोई बदपरहेजी तो नहीं हुई? पर उसे, इस हालात में भी हंसी आ गई, बदपरहेजी के लिए, उनकी सामर्थ्य ही कहाँ है। पहले तो वह कभी-कभार दोस्तों के साथ ÷शौक' भी कर लेता था, परन्तु अब तो पूरी तरह सुधर गया था। हाथ भी नहीं लगाता। रोलिंग मिल की टेम्परेरी नौकरी सही, किसी तरह गुजर-बसर हो ही जाती। यह तो आई.टी.आई. से किया फिटर का डिप्लोमा काम आया, नहीं तो यह भी मुश्किल था। काफी संघर्षों के बाद, कहीं कुछ ठहराव आया था। उसने पति के पेट को सेंक दी। उसे मजबूरी में ऊपर की मंजिल पर रहने वाली, मकान मालकिन के यहाँ जाना पड़ा। हाल बताते, वह घबरा गई थी। उन्होंने सांत्वना देते हुए ÷बेलारगन' की दो टेबलेट दी। उसने एक गोली खिला दी। थोड़ी देर के बाद, उसके दर्द में कुछ कमी महसूस हुई। सावित्राी भी उसके पाँवों के पास लेट गई। सुबह उसकी नींद देर से खुली। उसने देखा, आशुतोष जागा हुआ था, उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव थे। शरीर शिथिल-सा लग रहा था। उसे अपने देर से उठने पर ग्लानि हुई। उसने जल्दी उठकर, पति का माथा छुआ। कुछ गर्म लगा। उसकी समझ में बीमारी का पहला निदान माथे की गर्माहट से ही होता था। उसने सोचा गर्म चाय से कुछ आराम मिलेगा। उसने स्टोव जलाकर, चाय बढ़ा दी। आशुतोष उठकर, बैठ गया। उसकी हिम्मत फैक्ट्री जाने की नहीं पड़ रही थी। उसने सोचा किसी प्रकार काम पर पहुँच जाए अन्यथा साढे बयालिस रुपये कट जायेंगे साथ ही अगले दिन फोरमैन, बिना सूचना बैठ जाने के लिए चार बातें ऊपर से सुनाएगा। सावित्राी ने, उसके हाथ में चाय का गिलास दे दिया। वह चाय पी भी नहीं सका था कि उसे जोर से उबकाई आ गई। दर्द की लहर सी उठी। गिलास रख, वह दोहरा हो गया। सावित्राी बेहद घबरा गई। उसे समझ में नहीं आया वह क्या करे? वह फिर ऊपर चल दी। उसकी सहज पहुँच में यही एक स्थल था। मकान मालिक अकेले दम्पत्ति थे। पति रिटायर्ड। नीचे गली की तरफ एक कोठरी नुमा कमरा किराए पर देखा था। उन्हें मौखिक सहानुभूति में, कोई एतराज न होता। पत्नी कुछ अधिक सहृदय थी। गली-मौहल्ले में, आज भी इतनी सदाशयता तो थी कि लोग एक-दूसरे की तकलीफ में खड़े हो जाते। मकान मालकिन उसके साथ ही नीचे आई। हालात देख के परेशान हो गई। आखिर उसे अस्पताल ले जाना तय हुआ। उसने पति को आश्वस्त किया, ÷÷घबराओ मत, रवि बापू। अस्पताल चलते हैं। डाक्टर सुई लगा देगा। न हो एक-दो दिन के लिए भरती हो जाना। सब ठीक हो जाएगा।''<br /> वह कपड़े बदलने लगी। स्त्राी के लिए बाहर जाने के पूर्व कपड़े बदलने का अर्थ-कदाचित् परिस्थिति, अभी इतनी गंभीर नहीं है कि वह जैसी की तैसी उठ कर चल दे। उसने ताख पर रखा डब्बा खोला, रेजगारी छोड़, एक से दस तक मुडे+-तुड़े कुल साठ रुपए थे। उसने, सब रूमाल में बाँधे ब्लाउज में रख लिए। मौहल्ले के ही प्राथमिक स्कूल में पढ़ने वाला ११-१२ वर्षीय, रवि इन्हीं सब परेशानियों के कारण स्कूल नहीं जा सका था। रवि को साथ ले पति को सहारा देकर बाहर आई।<br /> ÷÷जे.पी.एम. ÷÷अस्पताल'', उसने रिक्शे वाले से पूछा।<br /> ÷छः रुपए'<br /> लाठी मोहाल से बिरहाना रोड दूर ही कितना है, पर मजबूरी में वह बैठ गई। अस्पताल का विशाल गेट, आस-पास बन गई गुमटियों, चाय की दुकानों और लाटरी के स्टालों के कारण अपेक्षाकृत छोटा लग रहा था।<br /> अस्पताल की लॉबी में मरीज और तीमारदार जिनके चेहरों में अंतर करना, कठिन था बैठे थे। पीली मटमैली दीवालों के कोने, पान की पीकों से रंगे और छत मकड़ी के जालों से अटी थी। हवा में व्याप्त, दवा, टिंचर, स्प्रिट और बीमार शरीरों की मिली जुली गंध से, एक दमघोटू वातावरण की सृष्टि हो रही थी। बेंचों के नीचे तथा कोनों में, प्रयोग में लाई गई रुई, पट्टियाँ-खून-मवाद से भरी पड़ी थीं। इन सबके मध्य सार्थक, सामने की दीवार पर ठीक ऊपर टंगा एक नया-सा बोर्ड ही लग रहा था। बोर्ड पर ÷हम दो, हमारे दो' का पोस्टर लगा था। उसमें, एक दम्पत्ति और उनके दो बच्चों के चित्रा के साथ ही, परिवार को नियोजित करने के उपाय भी बताए गए थे। और कोई समय होता तो वह पति को, उस और इंगित कर, मजाक अवश्य करती। क्षण के लिए, उसके मुख पर लाज के भाव, उभरने के पहले ही तिरोहित हो गए। उसने पति को, एक बेंच पर थोड़ी-सी जगह में बैठा दिया। वहाँ बैठे अन्य लोगों ने, उसकी कराहटें सुनकर सहानुभूतिपूर्वक, उसकी ओर देख अनचाहे मन से उठकर जगह दी। वह लेट-सा गया। रवि को, पति के पास छोड़, वह डाक्टर की तलाश में इधर-उधर देखते, गैलरी की ओर बढ़ी। सामने दरवाजे पर ÷आकस्मिक चिकित्सा' पढ़ उसने अन्दर झाँक कर देखा। कुर्सी पर एक डाक्टर जैसा लग रहा व्यक्ति, सफेद कोट पहने बैठा था। उसने पास जाकर पति का हाल बताते हुए व्यग्रता से कहा, ÷÷उन्हें यहीं ले आऊ या?...''<br /> ÷÷क्या कोई, एक्सीडेन्ट या चाकू-वाकू लगने का केस है?'' उसने बात काटी। ÷जी ऐसा कुछ नही हैं। वह घबरा गई।<br /> ÷÷तो फिर सामने काउण्टर से पर्चा बनवाकर, ड्यूटी वाले डाक्टर को दिखाओ।'' बिना सिर उठाये कहा। वह लौट आई। पर्चे वाले काउण्टर पर भीड़ थी। बाबू अभी तक आया नहीं था। वह औरतों वाली लाइन में खड़ी हो गई। तभी पर्चेवाला बाबू पान खाकर आ गया था। वह जल्दी से आगे बढ़ी लेकिन आगे खड़ी औरतों ने उसे झिड़क कर धकेल-सा दिया। वह सहम कर पुनः अपने स्थान पर आ गई। अपेक्षाकृत कुछ जल्दी ही, उसका नम्बर आ गया।<br /> ÷दो रुपए' बाबू ने कहा। काउण्टर पर एक तख्ती पर ÷एक रुपया' लिखा टंगा हुआ था। उसने बिना किसी एतराज के दो रुपए काउण्टर पर रख दिए। ÷नाम, उम्र, तकलीफ' पूछ, बारह नम्बर कमरा कहकर पर्चा उसे दे दिया। उसने पर्चा रवि को पकड़ा दिया। कमरों के नम्बर देखते हुए बारह नम्बर कमरे के बाहर रुक गई। कमरे के बाहर ÷बाह्य चिकित्सा विभाग' की पट्टिका और ड्यूटी पर उपस्थित चिकित्सक का नाम एक तख्ती पर लटक रहा था। दरवाजे पर नीला पर्दा था। दरवाजे पर खड़ा आदमी मरीजों के पर्चे जमा कर रहा था। वह बीच-बीच में अन्दर जाता और नाम पुकार कर उन्हें अन्दर भेजता।<br /> बाहर बेंचों पर जगह नहीं थी। उसने आशुतोष को जमीन पर ही बिठा दिया और पर्चा रवि से लेकर दरवाजे वाले आदमी की ओर बढ़ा दिया। इस बीच रवि ने पर्चे को खेल-खेल में ही गोल-मोल कर सिगरेट की तरह मुंह से लगा रखा था। दरवाजे वाले ने, पर्चा देखकर उसे सीधा करता हुआ बोला, ÷÷इसकी क्या बत्ती बना कर....'' फिर उसकी ओर देखकर बात अधूरी छोड़ दी।<br /> ÷÷काफी देर बाद पति का नाम पुकारा गया। मेज के पीछे एप्रेन पहने डाक्टर साहब बैठे थे। पास ही एक कम्पाउण्डर नुमा व्यक्ति मरीज को टेबिल पर लिटाने में सहायता कम, झुँझला अधिक रहा था। आशुतोष टेबिल पर लेट गया। ÷÷चलो कपड़े उतारो।'' कम्पाउण्डर ने उसे घूरते हुए कहा? वह सकपका गई। ÷÷अरे! इसके, कपड़े ढीले करो।'' कहते हुए उसने पति के कपड़े नोच-खोंच दिए थे। डाक्टर ने, उसका पेट दबाते हुए देखा, ÷यह तो सर्जरी केस है।'<br /> मरीज को आठ नम्बर कमरे में ले जाओ। सर्जरी वाले डाक्टर देखेंगे। कम्पाउण्डर ने पर्चा वापस करते हुए कहा। आठ नम्बर कमरे के बाहर काफी गिड़गिड़ाने के बाद ही गेट मैन ने भुनभुनाते हुए पर्चा जमा किया। वह थककर पति के पास ही बैठ गई। रवि का चेहरा भी कुम्हला गया था। जब तक, उसका नम्बर आया डाक्टर जाने के लिए उठ गया। शायद आज मरीज ज्यादा थे। डाक्टर के चेहरे पर चिड़चिड़ाहट वाले भाव थे। उसने जल्दी जल्दी में पति का निरीक्षण किया। वह असमंजस में था।<br /> एक्सरे और बाकी टेस्ट करवाने के बाद दिखाना उसने पर्चे पर कुछ लाइनें घसीट दीं। डाक्टर के जाने के बाद दरवाजे पर खड़े मूँछों वाले आदमी ने उसे सलाह दी, ÷÷शाम को डाक्टर साहब को घर पर दिखा लो। जरूरत होने पर वे भर्ती भी करवा देंगे।''<br /> शाम को वह पति को लेकर डॉ० वर्मा के आवास पर गई। कल से ही उसने पति के संरक्षण का भार उसने ऊपर ले लिया था। डॉ० वर्मा का आवास अस्पताल प्रांगण में ही था। बरामदे में मरीज बैठे थे। यहाँ भी वहीं मूंछों वाला व्यक्ति मौजूद था। फीस लेकर वह मरीजों के नाम एक पर्ची में नोट कर रहा था। सावित्राी ने मकान मालकिन से रुपए उधार लिए थे। साठ रुपए देकर उसने पति का नाम लिखा दिया। नम्बर आने पर वे अन्दर गए। ÷÷आइए इधर बैठें''। प्रवेश करते देख डाक्टर ने बड़ी नम्रता से कहा। डाक्टर के चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान थी। इस समय वे अस्पताल की औपचारिक पोशाक एप्रेन में न होकर सामान्य वेशभूषा में थे। उसने सामने, अस्पताल का पर्चा रख दिया।<br /> ÷÷कहिए आशुतोष जी''। अब पेट दर्द कैसा है? उन्हें याद आ रहा था। ÷÷क्या, दावतें वगैरह ज्यादा खा लीं?'' उन्होंने मजाक किया। इस समय, वे बड़ी ही खुशमिजाज लग रहे थे। अस्पताल का तनाव जो यहाँ नहीं था। वह उसे लेटाकर, खड़ा करके बड़ी देर तक परीक्षण करते रहे।<br /> ÷÷इस समय, यही दवा लें। सुबह आ जाइए, भर्ती कर लेंगे। चिन्ता न करें।'' उन्होंने आश्वस्त किया।<br /> चलते समय उन्होंने फिर कहा, पाँच सौ रुपये, करीम के पास, अरे वहीं मूछों वाले साहब, जमा करा देना। उसे सारी रात पाँच सौ की चिन्ता रही। सुबह उसने मकान मालकिन के पास, एक पतली-सी चेन, जिसे पति ने पिछले वर्ष बोनस मिलने पर दिलाया था, रखकर सात सौ रुपए लिए। वह अस्पताल जल्दी आ गई। डॉ० वर्मा अभी तक आए नहीं थे। आशुतोष श्लथ-सा पीछे घिसट रहा था। तभी डॉ० वर्मा आते दिखाई दिए। वह लपकती-सी उनके पास गई। सौ-सौ के पाँच नोट उनकी ओर बढ़ा दिए। डॉ० वर्मा ने इधर-उधर देख, बिना गिने जेब में रख लिए। वह कुछ उखड़े से लग रहे थे। रूखे स्वर में, करीम से संपर्क करने को, कह आगे बढ़ गए। करीम काफी देर बाद आया। वह पर्चा लेकर उन्हें रुकने को कह, एक ओर चला गया। कुछ देर बाद, आकर बोला, प्रबन्ध हो गया है। वार्ड नम्बर ५ बेड नम्बर १७ पर चलो।<br /> वह पति और रवि के साथ अन्दर की ओर चल दी। चौड़ी से गैलरी में, एक हालनुमा वार्ड के बाहर उसने एक नर्स से पूछा। करीम का नाम और बेड नम्बर १७ बताने पर वह अपने साथ आने का इशारा कर अन्दर चली गई। आगे जाकर वह एक बेड के पास रुकी। पीछे दीवाल पर १७ लिखा था बेड पर सर से कम्बल ओढ़े कोई लेटा था। दो-तीन औरतें उसे घेरे धीमी आवाज में रो रही थीं।<br /> ÷÷अरे अभी तक मुर्दा यहीं है।''<br /> उसने औरतों को सम्बोधित किया।<br /> ÷नया मरीज आ गया, बेड खाली करो।'<br /> रोते-रोते सिर उठाकर एक औरत बोली, ÷÷घर के आदमी इंतजाम करने गए हैं।''<br /> ÷तब तक, क्या यह इसके ऊपर लेटेगा, ÷÷वार्ड ब्वाय डेड बॉडी बाहर करो।'' नर्स चिल्लाई।<br /> पत्नी ने कहना चाहा, वे प्रतीक्षा कर लेंगे परन्तु तभी दो वार्ड ब्वायों ने एक स्ट्रेचर लाकर लाश लाद दी थी। कम्बल वापस, बेड पर रख दिया।<br /> पति ने उसकी ओर बेबस भाव से देखा फिर चुपचाप लेटकर कम्बल घसीट लिया। पत्नी ने गहरी सांस खींची। वार्ड में नजर दौड़ाई। दीवार से सटे कतार में, मरीजों के पलंग। अधिकांश पर चादरें थीं नहीं, जो थीं, वे भी रक्त और पेशाब के धब्बों से युक्त। पराजित योद्धाओं के उदास शिविरों की भाँति। वातावरण में घुली, एक अव्यक्त-सी मृत्यु गंध पूरे वार्ड में समाई हुई थी।<br /> तभी करीम भर्ती का टिकट लेकर आ गया। वह पहले तो प्रश्नवाचक मुद्रा में खड़ा रहा, फिर बोला, ÷अब मेरा भी हिसाब कर दो।''<br /> पत्नी ने उसकी ओर देखा फिर मतलब समझती बोली, ÷÷मैंने डाक्टर साहब को....।''<br /> वह बिगड़ उठा, ÷÷जाने कितने लोग पीछे पड़े थे। बिना नम्बर के भर्ती करा दिया। काम निकल जाने पर अब रास्ता दिखाया जा रहा है।'' पत्नी ने ब्लाउज से, रुमाल निकाल कर एक दस का नोट बढ़ा दिया।<br /> ÷यह क्या?' उसने नोट फेंक दिया। ÷÷मुझे कोई स्वीपर समझ लिया है, जो चूतड़ों के नीचे पाट लगवाने का दे रही हो।''<br /> वह सकपका गई। एक और दस का नोट बढ़ाती बोली, ÷मेरे पास इस समय यही है।'<br /> करीम बीस रुपया लेकर बड़बड़ाता हुआ चला गया। वह बेंच पर दुबक गई, कहीं, नर्स की नजरें फिर न उस पर पड़ जाए। सावित्राी को अपनी उपस्थिति पति के लिए कवच प्रतीत हो रही थी। कुछ देर बार डॉ० वर्मा आते दिखाई दिए। पति के बेड के पास रुके। नर्स आ गई थी। उन्होंने पति का पेट थपथपाया जीभ, नब्ज, आँखें और रक्तचाप देखा।<br /> सिरहाने टंगे टिकट पर उपचार लिखते, हुए नर्स को हिदायतें दी। थोड़ी देर बाद वार्ड ब्वाय पहियों वाला नीला पर्दा घसीट लाए। उससे बाहर जाने को कह पर्दा डाल दिया। लगभग एक घण्टे बाद, उसके वापस आने पर पति का गात और भी शिथिल लग रहा था। यद्यपि दर्द में कुछ राहत थी।<br /> शाम को अस्पताल में गहमा-गहमी हो गई थी। मिलने वालों की भीड़। बेंचें कम पड़ गई थीं। साथ आए बच्चे दौड़ लगा रहे थे। नर्सें, जिनके चेहरों से तनाव की बर्फ पिघलती लग रही थी, बीच-बीच में, कृत्रिाम गुस्से बच्चों को डॉंट देती थीं। बच्चे कुछ पल को सहम, फिर उनकी आँखों में झाँक अपने में मस्त हो जाते। यह रवि को घर में छोड़ आई थी। उसे लगा, रवि यहाँ होता तो हंस खेल लेता। दो-तीन दिनों में, जैसे उस पर तनाव का संक्रमण हो गया था।<br /> मरीजों के इर्द-गिर्द सहानुभूति, आन्तरिक पीड़ा को छुपाती मुस्कानें, हँसी मजाक और चिन्ताओं को टालने वाले, सुने-सुनाए लतीफे, संचारित हो रहे थे। कुछ देर के लिए, व्याधियाँ और तनाव कहीं दुबक गए थे। मौका मिलते ही घात में तत्पर।<br /> अगले दिन, मुँह अँधेरे ही उसकी हालत फिर गंभीर हो गई। अस्पताल में, यह सब तो लगा ही रहता था। फिर यह वक्त तो ड्यूटी में परिवर्तन का था। रात की पाली वाली नर्सें घर जाने की हड़बड़ी में थी। दिन की पाली की अभी आ नहीं सकी थीं। इस समय फुर्सत किसे थी? वह बदहवास सी, इधर-उधर दौड़ रही थी। सबका एक ही उत्तर था, ÷÷जिसका केस है, वही आकर देखेंगे।'' कह आगे बढ़ जाते थे। काफी देर बाद डाक्टर वर्मा, कॉरीडोर में अपने कमरे के बाहर दिखे। वह हाल बताती-बताती रो पड़ी। डाक्टर वर्मा निस्पृह स्वर में बोले, ÷इलाज तो चल ही रहा है। यहाँ से उठने पर देख लूँगा। हाँ कुछ पाँच सौ रुपए की और जरूरत होगी।'<br /> वह हतप्रभ रह गई। उसके पास मुश्किल से तीस एक रुपए बचे होंगे। वह हिचकती हुई बोली, ÷÷वह पहले पाँच सौ डाक्टर वर्मा जैसे इसी की प्रतीक्षा कर रहे थे'', पाँच सौ में क्या अस्पताल खरीद लिया है? एण्डोस्कोपी हुई, पेट से पानी निकाला गया। हुंह? और करीम शिकायत कर रहा था। उन्होंने नाराजगी प्रकट की। ÷डाक्टर साहब हम लोग बड़ी परेशानी में है।' वह गिड़गिड़ाई।<br /> ÷÷अरे, यहाँ राजी खुशी कौन आता है। आज के समय में, सभी बड़ी परेशानी में हैं। वे इस बार कुछ नर्मी से बोले।'' अर्जित अनुभव से उन्हें मालूम था कि सामने वाले को जेब से पैसा किस तरह निकलवाया जा सकता है। वह लौट आई। वार्ड में पति के सहकर्मी लालमणि, जगन, दौलतराम आदि पाँच-छह व्यक्ति उपस्थित थे। यूनियन के आगामी चुनावों में, दौलतराम प्रत्याशी था। चार दिनों से गैर हाजिर आशुतोष के घर प्रचार हेतु आने पर उन्हें खबर लगी।<br /> उपयुक्त अवसर जान कर, वे सभी अस्पताल आ गए। डॉ० वर्मा के संबंध में सुनकर उनमें आक्रोश पैदा होना स्वाभाविक ही था। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में अस्तित्व की सार्थकता का इससे अच्छा मौका फिर न जाने कब मिलता? राजनीतिक दल से संबद्धता एवं समूह में होने के कारण, उनका मनोबल ऊँचा था। अस्पताल की अव्यवस्था और डॉ० वर्मा के विरोध में नारे लगाते वे मुख्य चिकित्सा अधिकारी कक्ष के बाहर एकत्रिात हो गए थे। शोर गुल सुन चिकित्सक स्वयं बाहर निकल उन्हें अन्दर ले गए। उन्होंने डॉ० वर्मा को बुलाया, वे परन्तु वे नहीं मिल सके। बेड नम्बर सत्राह की फाइल मंगवाई गई और आगे इलाज की डॉ० सक्सैना को सौंप दी गई। बेड नम्बर १७ अस्पताल भर में चर्चित हो गया। सभी आश्वासन दे, चिन्ता न करने को कह, चले गए। अस्पताल वालों के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। बहुधा ऐसा होता रहता था। दो-तीन दिन बाद, अस्पताल में हलचल सी थी। शायद किसी बड़े अधिकारी अथवा किसी मंत्राी का दौरा होना था। फर्श को फिनायल से धो-पौंछ कर चमकाने का प्रयास किया जा रहा था। बिस्तरों पर धुली सफेद चादरें और लाल कम्बल सजाए से जा रहे थे। ठीक जैसे, रामलीला में पात्राों के सिर पर, गोदाम से निकालकर, मुकुट। पुरानी चिलमची आदि गायब कर दिए गए थे। कोनों में, चूना छिड़क दिया गया। मुख्य अधीक्षक, जिनके पीछे अन्य डाक्टर नर्सें आदि थीं, तैयारियों के पूर्वावलोकन हेतु, वार्डों का दौरा कर रहे थे। सत्राह नम्बर बेड के पास, वे रुके। नर्स से, मरीज की फाइल माँगी। ÷यह तो पैरिटोनाइटिस एबडॉमिनल का केस है। एडमिट करने की क्या जरूरत थी? बेकार में मरीज को परेशानी होगी। दवा प्रेस्क्राइब कर डिस्चार्ज करो।'<br /> आशुतोष के मुख पर तीव्र वेदना के लक्षण विद्यमान थे। सावित्राी और रवि अन्य लोगों के साथ पहले ही वार्ड के बाहर कर दिए गए थे। मरीज के पास डाक्टरो की भीड़ देख, वह आशंकित हो अन्दर चली आई। पीछे-पीछे रवि भी। उसने देखा कि आशुतोष की हिचकियों की आवृत्ति बढ़ गई थी। अचानक उसे दर्द के तेज लहर के साथ उल्टी आई। मुँह से ढेर सारा खून गिरा। उसके कपडे+, नई धुली चादर सब भीग गए। रक्त के छींटे डाक्टरों के सफेद एप्रेन पर भी पड़े थे। सभी स्तब्ध रह गए। डॉ० वर्मा ने फुर्ती से उसी नब्ज, आँखें और स्टेथेस्कोप से दिल की जाँच की। उन्होंने निराशा से सिर हिलाया, ÷यह तो मर गया।'<br /> यह सुनकर सावित्राी पथरा सी गई। यद्यपि पाँच-छह दिनों से पति की जो दशा थी, खुद को झूठी तसल्ली के बाद भी उसने चरम सत्य की कल्पना शायद कर रखी थी। फिर भी जब तक साँस जब तक आस का सहारा तो था ही। परन्तु रवि के लिए तो यह शब्द न केवल अप्रत्याशित बल्कि अविश्वसनीय भी थे। बारह वर्षीय शर्मीले से बालक के एक मात्रा सखा मित्रा उसे इस तरह छोड़ कर कैसे जा सकते थे? अभी तो उनके किए जाने कितने वायदे पूरे करने बाकी थे? डाक्टर के शब्दों ने उसे वयस्क बना दिया था।<br /> ÷नहीं'....वह चीख कर पलंग पर औंधा हो गया। सावित्राी स्वयं को सम्हालती या रवि को। बेड के आस-पास भीड़ सिमट आई थी। चिर निस्तब्धता। स्वर थे तो केवल रवि की हिचकियों के। सावित्री ने किसी तरह उसे उठाने का प्रयास किया।<br /> ÷÷आह...'' कहीं गहरे तल से जैसे आवाज आई थी। लोगों का आश्चर्य अथवा विश्वास होता कि यह स्वर आशुतोष के कण्ठ से फूटा था। रवि आंसुओं से भीगा, चेहरा उठाकर चीख-सा उठा था।<br /> ÷÷बापू अभी जिन्दा है।''</span></div>शगुफ्ता नियाज़http://www.blogger.com/profile/00029405772313911177noreply@blogger.com1