Saturday, December 13, 2008
Friday, December 12, 2008
ग़ज़ल
महताब हैदर नक़वी
सुबह की पहली किरन पर रात ने हमला किया
और मैं बैठा हुआ सारा समां देखा किया
ऐ हवा ! दुनिया में बस तू है बुलन्द इक़बाल1 है
तूने सारे शहर पे आसेब2 का साया किया
इक सदा ऐसी कि सारा शहर सन्नाटे में गुम
एक चिनगारी ने सारे शहर को ठंण्डा किया
कोई आँशू आँख की दहलीज़ पर रुक-सा गया
कोई मंज़र अपने ऊपर देर तक रोया किया
वस्ल3 की शब को दयार-ए-हिज्र4 तक सब छोड़ आए
काम अपने रतजगों ने ये बहुत अच्छा किया
सबको इस मंजर में अपनी बेहिसी पर फ़ख़ है
किसने तेरा सामना पागल हवा कितना किया
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1. तेजस्वी 2. प्रेत-बाधा 3. मिलन 4. विरह-स्थल
मधुशाला
हरिवंशराय बच्चन
भूल गया तस्बीह नमाजी,
पंडित भूल गया माला,
चला दौर जब पैमानों का,
मग्न हुआ पीनेवाला।
आज नशीली-सी कविता ने
सबको ही बदहोश किया,
कवि बनकर महफ़िल में आई
चलती-फिरती मधुशाला।
रूपसि, तूने सबके ऊपर
कुछ अजीब जादू डाला
नहीं खुमारी मिटती कहते
दो बस प्याले पर प्याला,
कहाँ पड़े हैं, किधर जा रहे
है इसकी परवाह नहीं,
यही मनाते हैं, इनकी
आबाद रहे यह मधुशाला।
भर-भर कर देता जा, साक़ी
मैं कर दूँगा दीवाला,
अजब शराबी से तेरा भी
आज पड़ा आकर पाला,
लाख पिएँ, दो लाख पिएँ,
पर कभी नहीं थकनेवाला,
अगर पिलाने का दम है तो
जारी रख यह मधुशाला।
Thursday, December 11, 2008
कविता
रवीन्द्रनाथ टैगोर
अनुवादक -डॉ. डोमन साहु ‘समीर
लगी हवा यों मन्द-मधुर इस
नाव-पाल पर अमल-धवल है;
नहीं कभी देखा है मैंने
किसी नाव का चलना ऐसा।
लाती है किस जलधि-पार से
धन सुदूर का ऐसा, जिससे-
बह जाने को मन होता है;
फेंक डालने को करता जी
तट पर सभी चाहना-पाना !
पीछे छरछर करता है जल,
गुरु गम्भीर स्वर आता है;
मुख पर अरुण किरण पड़ती है,
छनकर छिन्न मेघ-छिद्रों से।
कहो, कौन हो तुम ? कांडारी।
किसके हास्य-रुदन का धन है ?
सोच-सोचकर चिन्तित है मन,
बाँधोगे किस स्वर में यन्त्र ?
मन्त्र कौन-सा गाना होगा ?
पराजित पीढ़ी का अपराजित नायक
Wednesday, December 10, 2008
दलिताएं खुद लिखेगीं अपना इतिहास
कबीर और जायसी की प्रेम व्यंजना
डॉ० आशुतोष पार्थेश्वर
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरष्या आइ।
अंतरि भीगी आत्माँ हरी भई बनराइ॥
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मुहमद कवि जो प्रेम का ना तन रकत न मांसु।
जेई मुख देखा तेइ हंसा सुना तो आये आँसु॥
यदि विकास के वर्तमान मॉडल और भक्तिकाव्य को आस-पास रखें तो भक्तिकालीन कविता हमें मुँह चिढ़ाती नजर आती है, हम पर हँसती हुई मालूम होती है। उसकी हँसी में हम पर व्यंग्य है और दया भी। वह हमारी ऐतिहासिक निष्फलता को बयाँ करती है। हमारे आगे दर्पण रख देती है ताकि हम अपने को पहचान सकें। हमें मालूम हो सके कि हम जितना आगे बढ़ रहे हैं, उतना ही स्वकेन्द्रित हो रहे हैं। व्यवस्था से असहमति वाला वह साहस अब नहीं, उसकी जगह एक घुन्नापन है स्वार्थपरता है। कहना न होगा ऐसे में भक्तिकाल के चारों बड़े रचनाकार अपनी सीमाओं के बावजूद अपनी निष्कलुष मानवता, अकुंठ संवेदना और अपने प्रति संसार के साथ निरंतर प्रासंगिक होते जा रहे हैं। उनकी पूरी यात्रा संवेदना की यात्रा है। कबीर के उक्त दोहे का मर्म इसी में है।
कबीर प्रेम का बादल होना चाहते हैं, कौंध पैदा करना नहीं, बिजली चमकाना नहीं, बरसना चाहते हैं, ताकि आत्मा भींगे, हर कोई भींगे, कलुषता खत्म हो, मैल दूर हो, घृणा न रहे, ओछापन हटे, क्षुद्रता, लोभ-लालच न बचे, और हरियाली आए। नयापन आए। जीवन आए। पूरी प्रकृति प्रेम के रंग में रंग जाए। एक निष्ठुर समाज में यह कबीर की इच्छा है और यह जायसी की भी।भक्ति काव्य जागरण का काव्य है। स्मरण रहे, यहाँ भक्ति और जागरण अलग-अलग नहीं है। अपने ईश्वर की पहचान, उससे लगाव, उससे प्रेम ही उन्हें यह ताकत देती है जिससे कि वे मौजूदा संसार से अपनी असंतुष्टि दिखाते हैं और प्रतिसंसार की अपनी परिकल्पना प्रस्तुत कर पाते हैं। यह जागरण ठस्स बुद्धिवाद नहीं है। यहाँ तो सारा खेल, सारी पहचान, सभी घेरे प्रेम के हैं। हृदय के हैं।
इसलिए भी कि भक्त कवि अपने समय में सबसे उपेक्षित इसी हृदय को पाते हैं। इसी से सबसे अधिक बल प्रेम पर है। आपसदारी पर है। भक्त कवियों के अपने अंतर्विरोध हैं, पर उनके प्रतिसंसार का जो मॉडल है वह इन अंतर्विरोधों और सीमाओं से काफी बड़ा है।
कबीर जिस हरेपन की बात करते हैं, वह जिन्दगी का उल्लास है, आत्मा की तृप्ति है। स्पष्ट है कि यह गैर बराबरी के रहते संभव नहीं। कबीर इसी गैर बराबरी के खात्मे के लिए लाठी लेकर चलते हैं। यह कबीर का काल-यथार्थ है जो इतने ही तीखेपन के साथ जायसी में भी है।विजयदेव नारायण साही ने जायसी में इसका उल्लेख किया है कि पद्मावत केवल प्रेम का नहीं, युद्ध का भी ग्रन्थ है। संघर्ष, युद्ध और आतंक यह जायसी के समय का यथार्थ है। पद्मावत में जितना प्रेम है, उतना ही युद्ध है; जितना मन के भीतर दिपता हुआ सिंहल लोक है, उतना ही टूटे हुए दुर्गों की धूल उड़ाती हुई वीरानगी है, जितना अपने हाथ से सिर उतार कर जमीन पर रख देने की तड़प है, उतना ही वैभव का प्रदर्शन है; सत है, साका है। जायसी अपने समय से मुँह नहीं छिपाते। दिल्ली और शेष भारतीय समाज के बीच जो खाई है और उस खाई को युद्धों के माध्यम से, आतंक के रास्ते पाटने की जो कोशिश है; पद्मावत उसी का गवाह है और प्रतिकार भी।पद्मावती का आकर्षण ही दोनों को बाँधता है - रत्नसेन को भी और अलाउद्दीन को भी। पर दोनों विपरीत भूमिकाओं में हैं। रत्नसेन प्रेम के लिए भिखारी बनता है तो अलाउद्दीन आक्रमणकारी। चित्तौड़ की विजय तो होती है, पर पद्मावती कहाँ?
जायसी लिखते हैं - आइ साहि सब सुना अखारा। होइगा राति देवस जो बारा।/छार उठाइ लीन्हि एक मूठि। दीन्हि उड़ाइ पिरिथिमी झूठी॥/जौहर भइ सब इस्तिरी, पुरुष भए संग्राम।/बादसाह गढ़ चूरा चितउर भा इस्लाम॥पद्मावती कहाँ ? वह तो राख है। वह रूप कहाँ गया ? पद्मावती कहाँ गई? पद्मावती राख हो गई। चित्तौड़ टूटा। गढ़ टूटा। अलाउद्दीन जीता। रत्नसेन हारा। पर सच कहें तो जीतती केवल पद्मावती ही है। स्वयं को राख कर देना। यह स्वाधीनता की आकांक्षा है, अपने प्रेम की रक्षा है। हम अतिरिक्त शाबासी न दें, पर पद्मावती और पद्मावती के स्रष्टा जायसी दोनों की मनः स्थिति को समझने की कोशिश करें।अलाउद्दीन को इतनी बड़ी विजय भी व्यर्थ मालूम होती है - पृथ्वी झूठी है। बगैर प्रेम के झूठी है। जायसी इसी से कहते हैं - मानुस पेम भयउ बैकुंठी। नाहिं त काह छार एक मूठी।/पेम पंथ जौं पहुँचै पाराँ। बहुरि न आइ मिलै एहि छाराँ॥यह बैकुंठ प्रेम से अलग नहीं है, धरती से अलग नहीं है। अगर प्रेम है तब ही मनुष्य-मनुष्य है। धरती-धरती है और कहें कि तब धरती ही बैकुंठ है।प्रेम का यह जो ताना-बाना है जायसी के यहाँ, कबीर इसी प्रेम से अपनी चदरिया बनाते हैं। दुनिया वालों को केवल और केवल प्रेम पर भरोसा करने को कहते हैं - पोथि पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय।/ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय॥प्रेम के अतिरिक्त सभी शास्त्रा बेकार हैं, प्रेम से शून्य सारे शास्त्रा शून्य हैं। सारा ज्ञान बोझ है, मझधार में डुबोने वाला है, पार-लगाने वाला नहीं है। यह प्रेम दुनिया के बाहर की चीज नहीं है इसे जायसी भी मानते हैं और कबीर भी।
यह प्रेम मध्य युग में भी आवश्यक था और आज भी है। बिना रक्त, माँस और तन के जायसी जब खुद का परिचय प्रेम के कवि के रूप में देते हैं और आँसू की बात करते हैं तो इसलिए कि वह कवि के काव्य का विषय मात्र नहीं है, कवि के समय का अभाव भी है।पद्मावती में रूप की कौंध जरूर है, पर महत्त्वपूर्ण रूप की गाथा का प्रेम की गाथा में अंतरण है। क्योंकि वहाँ प्रेम केवल रक्त, माँस और तन का नहीं रह जाता; वहाँ आँसू का खेल है, करूणा का संसार है, संवेदना की एक विराट दुनिया है जो शारीरिक सौन्दर्य को धता बताते हुए मन की खूबसूरती को केन्द्रत्व देता है। रूप की हिंसक तृष्णा बेकार है, जायसी पद्मावत से यही बोध कराते हैं - जौ लहि ऊपर छार न परै। तौ लहि यह तिस्ना नहिं मरै॥बेशक, कबीर और जायसी दोनों ही ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रेम की भाषा बोलते है और सुनना भी चाहते हैं।कबीर और जायसी दोनों ही में रहस्यवाद को स्वीकारा जाता है, हम इस रहस्यवाद को तत्काल स्थगित कर, कबीर और जायसी में प्रेम की ठेठ देशज और लौकिक उपस्थिति को महसूसने की कोशिश करें। यों प्रेम अध्यात्म का पेटेंट माल है भी नहीं। दोनों कवियों के यहाँ प्रेम की जितनी छवियाँ हैं वह आम जन जीवन के अनुभवों से उपलब्ध हुई हैं।प्रेम के धरातल पर खड़े होते ही दोनों कवि भारतीय नारी के पास खींचे चले आते हैं। जायसी अपनी संपूर्ण भावुकता के स्त्री जीवन के अनुभवों कष्टों का परिचय देते हैं तो कबीर स्वयं को एक स्त्री के साथ रूप में ही ढाल लेते हैं।
नामवर सिंह ने लिखा है - कबीर के लोकप्रिय पद वे हैं जहाँ वे एक भारतीय नारी की तरह अपने नैहर और ससुराल की बातें करते हैं। पिया का घर प्यारा तो लगता है, लेकिन पिता के घर का छूटना भी कम दुखद नहीं। मध्यकालीन गीत काव्य में भारतीय नारी की ऐसी जीती जागती तस्वीर शायद ही कहीं मिले। स्त्री जीवन की इस चित्रावली में स्त्री हृदय की गहरी वेदना के साथ कुछ सुहाने सपने भी हैं। वेदना अधिक सपने कम। सपनों में ऐंद्रिय सुख की तलाश है, तो यथार्थ में विरह की आन्तरिक टीस और जल्द से जल्द मिलने की उत्कट तड़प। ऐसा ही एक पद देखें - ए अँखियाँ अलसानी पिया हो सेज चलो।/खंभ पकरि पतंग अस डोलै, बोलै मधुरी बानी।/फूलन सेज बिछाइ जो राख्यौ, पिया बिना कुम्हलानी।/धीरे पाँव धरौ पलंग पर, जागत ननँद जिठानी।/कहत कबीर सुनो भई साधो, लोक-लाज बिछलानीमिलने की बेचैनी भी और लाज की ललाई भी। इच्छा और संकोच के बीच जो चीज कौंधती है-जागत ननँद जिठानी। यह समूचे पद को भारत के ग्रामीण परिवारों का एक सहज, सुलभ चित्र बना देता है। ये दृश्य कबीर से भी पहले विद्यापति में मिलते हैं। वस्तुतः एक क्लासिक कवि की यह पहचान है कि वह अपने समाज को, उसकी बनावट और बुनावट को कितने गहरे जाकर पकड़ पाता है।कबीर के काव्य का श्रेष्ठांश वही है जहाँ वह अपने प्रिय के विरह में तड़पते नजर आते हैं और बकौल नामवर सिंह जहाँ से भारतीय नारी के जीवन की अनगिनत नाजुक स्थितियों की पहचान हो जाती है। अकेली स्त्री की पीड़ा देखें - कै विरहिन को मीचु दै कै आपा दिखलाय।/आठ पहर का दाझना मोपै सहा न जाय।'
अथवा - यह तन जालौ मसि करौं लिखौं राम का नाउँ।/लेखणि करुँ करंक की, लिखि लिखि राम पठाऊँ॥कबीर के प्रेम में पूर्ण समर्पण है, अपने राम के प्रति, अपने प्रिय के प्रति; किसी दूसरे का सवाल ही कहाँ उठता है? राम में ही रमना है - कबीर रेख सिंदूर की काजल दिया न जाइ।/नैनूं रमइया रमि रइया, दूजा कहाँ समाइ॥इसे ही घनानंद ने कहा है - यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।'' सर्वस्व राम का। मेरेपन का बोध और प्रेम रस का पान साथ-साथ नहीं हो सकता। राम नाम से भक्ति की जो गूज सुनाई पड़ती है। उसे सुनने से पहले हम उस प्रक्रिया को निथारें जिसके तहत कबीर उस बेचैनी, तड़प, प्रेम की उत्कटता और एकनिष्ठता को पा सके थे। निस्संदेह, यह एक भारतीय स्त्री के अनुभव हैं। कबीर पर राम से प्रेम की बेलि चढ़ गई है, और जिस पर प्रेम की बेलि चढ़ गई, जायसी के अनुसार उस पर कुछ और नहीं चढ़ सकता - प्रीति अकेली बेलि चढ़ि छावा। दूसरि बेलि न संचरै पावाप्रेम ईश्वर प्राप्ति का सबसे सुलभ और विश्वसनीय मार्ग है, पर यह एकदम आसान नहीं है। कबीर और जायसी दोनों ही इसे मानते हैं - कबीर यह घर प्रेम का खाला का घर नाँहि।/सीस उतारे हाथि करि सो पैसे घर माँहि।/पेम पहाड़ कठिन विधि गढ़ा।/सो पै चढ़ा सौ सीस चढ़ा।गौरतलब है कि प्रेम की यह उपस्थिति समाज की उपेक्षा करके नहीं है। आचार्य शुक्ल ने उचित ही पद्मावत में फारसी मसनवियों का प्रभाव और उससे कहीं अधिक भारतीयता देखी थी। फारसी परंपरा में प्रेम लगभग लोक विमुख होता है, जबकि भारतीय कहानियाँ लोकपक्ष का तिरस्कार नहीं करती हैं।
भारतीय कहानियों में प्रेम वायवीय नहीं होता, वह धरती के किसी कोने का ही होता है। वहाँ लोक-जीवन के चित्र और चेतना दोनों होते हैं। वहाँ जीवन और मर्यादा दोनों का परिपाक मिलता है। इन कहानियों में अपने समय को सँभालने वाली एक कोशिश होती है, दृष्टि होती है। प्रेम कितना भी उदात्त हो जाए, अशरीरी हो जाए, उसमें आध्यात्मिक संस्पर्श हो, पर यदि वह अपने काल-यथार्थ से कटा हो; तो भले वह प्रशंसनीय हो जाए, हमारे जीवन-संबंधो, आवेगों-संवेगों की अनुकृति नहीं हो सकता। यहाँ हम विद्यापति, बिहारी और घनानंद को देखें। विद्यापति प्रसंग में आचार्य शुक्ल ने आध्यात्मिक रंग के चश्मे की बात ही है और एक तरह से विद्यापति की पदावली की आध्यात्मिक व्याख्याओं को नकारा है। ध्यान रहे, विद्यापति के समूचे काव्य में नायकत्व कृष्ण को नहीं, राधा को प्राप्त है और यह राधा उत्तर बिहार में रहने वाली एक आम औरत से अलग नहीं है। जिसका पति रोजी-रोटी के लिए निरंतर परदेश ही रहता है। पलायन की समस्या विद्यापति के सात सौ साल बाद भी जस की तस है, अकारण नहीं कि विद्यापति आज भी मिथिला में जीवित हैं। अपने पदों में समायी वेदना और करूणा के जरिए।रीतिकाल के दो बड़े कवि घनानंद और बिहारी को लें तो आचार्य शुक्ल की दृष्टि में घनानंद का पलड़ा थोड़ा नहीं, बहुत भारी है। वहाँ प्रेम की पीड़ा, स्वाभाविकता, उदात्तता सब है जबकि बिहारी में केवल एक दर्शक है। जो मध्यवर्ग से आता है और सामंती संस्कार ओढ़ता है, जिसके पास अपूर्व सौंदर्यग्राहिणी दृष्टि है, पर जो दरबारी माँग के चित्र दिखलाने में ही थक जाती है। बावजूद हम कह सकते हैं कि घनानंद में प्रेम के तमाम स्वाभाविक और करूण चित्रों के होते हुए भी तत्कालीन समय और समाज की यथार्थ पहचान बिहारी से ही होती है। ऐसे में विद्यापति की दुर्लभता, कबीर का महत्त्व और जायसी की विशिष्टता स्पष्ट हो जाती है, जहाँ प्रेम की ऊँचाई भी है, देह का स्वीकार भी और भारतीय जन-जीवन की अभिव्यक्ति है।जायसी प्रबंधात्मक प्रतिभा के कवि हैं और उनके पास इसका पर्याप्त अवसर है कि मार्मिक प्रसंगों की व्यंजना कर सकें। नागमती का विरह वर्णन तो ख्यात ही है। आचार्य शुक्ल उचित ही उस पर मुग्ध है, वियोग का समाजीकरण उसे विश्वसनीय मार्मिक देता है। शुक्ल जी ने लिखा है - रानी नागमती विरह दशा में अपना रानीपन भूल जाती है और अपने को केवल साधारण स्त्री के रूप में देखती है।... यह आशिक माशूकों का निर्लज्ज प्रलाप नहीं है, यह हिन्दू-गृहिणी की विरह वाणी है। जायसी नागमती के पक्ष में खड़े होकर नागरता की आलोचना करते हैं - नागरि नारि काहुँ बस परा। तेइँ बिमोहि मोसौं चितु हरा।इस विरह वर्णन में ÷काम' की उपस्थिति भी है - पिउ बियोग अस बाउर जीऊ। पपिहा तस बोलै पिउ पीऊ॥/अधिक काम दगधै सो रामा। हरि जिउ लै सो गएउ पिय नामा॥तो, सुख सुविधाओं की लालसा से अलग अत्यन्त नम्र शीतल प्रेम की भी झलक है - हमहु वियाही संग ओही पीऊ। आपुहि पाई, जानु पर जीऊ॥/मोहिं भोग सौं काज न बारी। सौंह दिस्टि के चाहनहारी॥और अंत में नागमती और पद्मावती का जौहर परकीया प्रेम के उस युग में गार्हस्थिक प्रेम की मर्यादा की रक्षा के लिए है, जहाँ जायसी भावुक हो उठते हैं - गिरि समुद्र ससि मेघ रवि, सहि न सकहिं वह आगि।/मुहमद सती सराहिए, जर्रे जो अस पिउ लागि।शिव कुमार मिश्र ने उचित लिखा है कि जायसी पद्मावत लिखते नहीं, रचते हैं और जैसा कि साही ने कहा है कि पद्मावत का पूर्वार्द्ध ही नहीं उत्तरार्द्ध भी जायसी की कल्पना है, तो हम जायसी की पीड़ा को समझें कि अपनी सबसे सुंदर परिकल्पना को आग में झोंकते हुए वे क्या महसूस कर रहे होंगे ? इसे इतिहास की विडंबना कहें या समकाल का दबाव। पर सच है कि कथा का यह त्रासद अंत मध्यकाल के चेहरे को और चिथरा कर देता है।मध्यकाल के ये दोनों कवि अपनी प्रतिबद्धता सहिष्णुता और स्वतंत्राता के प्रति स्थिर करते हैं। अपने समय की चिन्ता और भविष्य के सपने दोनों ही इनके पास हैं। तिरस्कार है तो क्षुद्रता का, कृतित्रामता का। स्वीकार है मनुष्यता का, विवेक का, प्रेम का। कबीर और जायसी दोनों ही कवियों के यहाँ प्रेम दर्शन की चीज नहीं, जीवन की वस्तु है। विराट सांस्कृतिक चेतना और उदार मानवता की उपस्थिति प्रेम की जमीन पर खड़े होने से संभव हो सकी है।
Tuesday, December 9, 2008
नारी शोषण की अनंत कथा
- डॉ. सुनीता गोपालकृष्णन‘
नई सदी में कबीर
Monday, December 8, 2008
कविता
रवीन्द्रनाथ टैगोर
अनुवादक -डॉ. डोमन साहु समीर
विविध वासनाएँ हैं मेरी प्रिय प्राणों से भी
वंचित कर उनसे तुमने की है रक्षा मेरी;
संचित कृपा कठोर तुम्हारी है मम जीवन में।
अनचाहे ही दान दिए हैं तुमने जो मुझको,
आसमान, आलोक, प्राण-तन-मन इतने सारे,
बना रहे हो मुझे योग्य उस महादान के ही,
अति इच्छाओं के संकट से त्राण दिला करके।
मैं तो कभी भूल जाता हूँ, पुनः कभी चलता,
लक्ष्य तुम्हारे पथ का धारण करके अन्तस् में,
निष्ठुर ! तुम मेरे सम्मुख हो हट जाया करते।
यह जो दया तुम्हारी है, वह जान रहा हूँ मैं;
मुझे फिराया करते हो अपना लेने को ही।
कर डालोगे इस जीवन को मिलन-योग्य अपने,
रक्षा कर मेरी अपूर्ण इच्छा के संकट से।।
सामाजिक - सांस्कृतिक क्रांति के सम्वाहक : कबीर
डॉ० जगत सिंह बिष्ट
कबीर हिंदी के संत काव्य परंपरा के प्रतिनिधि और प्रवर्तक कवि हैं। संत काव्य धारा के सांस्कृतिक एवं दार्शनिक आधार व्यापक हैं, वे आधार है : उपनिषद्, शंकराचार्य का अद्वैत-दर्शन, नाथपंथ, इस्लाम धर्म और सूफी दर्शन। यही कारण है कि हिंदी संत काव्य परंपरा वस्तुपरकता की दृष्टि से अत्यंत व्यापक है। इसी अर्थ में संत काव्य विश्व धर्म बन जाता है। एक ऐसा विश्व धर्म, जिसमें सब प्रकार के जीवों का कल्याण विद्यमान है। वह इसलिए भी कि संत कवियों ने अपने द्वारा गृहीत सांस्कृतिक और दार्शनिक आधारों के, केवल उन पक्षों का सार ग्रहण किया है, जो मानव समेत समस्त प्राणियों के लिए उपयोगी और कल्याणकारी है। यही कारण है कि हिंदी के विद्वान एकमत से संत काव्य का महत्त्व साहित्यिक दृष्टि की अपेक्षा सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक दृष्टि से मानते हैं-संत काव्य का जो महत्त्व सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दृष्टि से है; वह साहित्यिक दृष्टि से नहीं है।१ किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि संत काव्य का महत्त्व साहित्यिक दृष्टि से नगण्य है। इतना अवश्य है कि संत काव्य में वैचारिक क्रांति की अतिशयता से, उसका साहित्यिक पक्ष दब सा गया है फिर भी संत कवि अपनी कविताओं के द्वारा, जिस सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति को व्यक्त करते हैं; वह साहित्यिकता के बिना संभव नहीं है।
कबीर संत काव्य परंपरा के सर्वाधिक प्रभावशाली कवि हैं। वे अपने काव्य में एक साथ भक्त, कवि, विचारक एवं समाज सुधारक की भूमिका में दिखाई देते हैं। कहना यह है कि संत कबीर के काव्य में भक्ति, ज्ञान और वैचारिकता का अद्भुत सामंजस्य है। उनकी वैचारिक और समाज सुधारक की भूमिका ही, उन्हें सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति का सम्वाहक बनाती है। मूलतः एक भक्त कवि होते हुए भी; उन्हें अपने समाज की पर्याप्त चिन्ता थी। उनके काव्य के दो वर्ग हैं-इनमें से प्रथम रचनात्मक है तथा द्वितीय आलोचनात्मक। रचनात्मक विषयों के अन्तर्गत सतगुरु नाम, विश्वास, धैर्य, दया, विचार, औदार्य, क्षमा, संतोष आदि व्यावहारिक शैली में भाव व्यक्त किए गए हैं। यहाँ उनकी आलोचनात्मक प्रतिभा के दर्शन नहीं होते हैं अर्थात् यहाँ मानव की हीनताओं का दिग्दर्शन नहीं कराया गया है। प्रतिपाद्य के दूसरे विषय में कबीर की आलोचनात्मक प्रतिभा व्यक्त हुई है। यहाँ वे आलोचक, सुधारक, पथ-प्रदर्शक और समन्वय कर्ता के रूप में दृष्टिगत होते हैं - चेतावनी, भेष, कुसंग, माया, मन, कपट, कामिनी आदि।२ यद्यपि संत कबीर के रचनात्मक और आलोचनात्मक दोनों ही प्रतिपाद्य विषयों में सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के स्वर विद्यमान हैं। फिर भी उनके रचनात्मक प्रतिपाद्य विषय उपदेश एवं नीतिपरक होने के कारण, उसमें सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रांति के स्वर दब से गए हैं। जबकि आलोचनात्मक प्रतिपाद्य विषयों में संत कबीर क्रांतिकारी दिखाई देते हैं इसलिए तो हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-फिर व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानते। पंडित और काजी, अवधू और जोगिया, मुल्ला और मौलवी - सभी उनके व्यंग्य से तिलमिला जाते हैं।३ कहने में संकोच नहीं है कि संत कबीर कालजयी कवि हैं क्योंकि उनकी साखियों, पदों एवं रमैनियों में तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक विकृतियों के प्रति विरोध मुखरित हुआ है। उससे कवि की संवेदना असीम हो गई है। सब बाहरी धर्माचारों को अस्वीकार करने का अपार साहस लेकर कबीरदास साधन के क्षेत्र में अवतीर्ण हुए।...उन्होंने अटल विश्वास के साथ अपने प्रेम मार्ग का प्रतिपादन किया। रूढ़ियों और कुसंस्कारों की विशाल वाहिनी से वह आजीवन जूझते रहे।४हिंदी साहित्य जगत में जब संत कबीर का अवतरण हुआ, उस समय भारत की सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थिति अच्छी नहीं थी। तब भारतीय समाज हिन्दू, मुस्लिम, जैन और बौद्ध आदि प्रमुख सम्प्रदायों में विभक्त था। समाज का प्रत्येक व्यक्ति इन सम्प्रदायों में व्याप्त रूढ़ियों, अंधविश्वासों, मिथ्या प्रदर्शनों, अमानवीय, अप्रासंगिक रीति-रिवाजों के मकड़जाल में बुरी तरह उलझा था। सभी सम्प्रदायों से सम्बद्ध लोग, अपने-अपने सम्प्रदायों की श्रेष्ठता के प्रतिपादन में कटिबद्ध थे। अपने मत की प्रतिष्ठा के सवाल से समूचे समाज में तनाव का माहौल बना हुआ था। संत कबीर ने ऐसे अराजक वातावरण में प्रत्येक सम्प्रदाय की अप्रासंगिक एवं अमानवीय रीति-रिवाजों का खुलकर विरोध किया था। उनके आलोचना के केन्द्र में प्रमुख रूप से हिंदू और मुस्लिम सम्प्रदाय थे। क्योंकि उस समय ये दोनों सम्प्रदाय सबसे बड़े थे और इन दोनों में ही प्रतिष्ठा के सवाल बराबर खड़े होते थे। फलतः सामाजिक समरसता को खतरा उत्पन्न हो रहा था। उस समय हिंदू समाज में भी नाना प्रकार की साधनाएँ प्रचलन में थीं। इन साधनाओं में शाक्त, शैव, वैष्णव आदि प्रमुख थे। इनमें भी परस्पर घोर अंतर्विरोध था। छोटी-छोटी बातों में खून-खराबा आम बात थी। इनकी उपासना पद्धतियों में कई प्रकार की विकृतियाँ प्रविष्ट हो चुकी थीं। फलतः संत कबीर ने विविध उपासना पद्धतियों से युक्त समाज में पारस्परिक समरसता के लिए प्रेम भक्ति की साधना का उच्चादर्श प्रस्तुत किया और हिंदू समाज में प्रचलित विविध उपासना पद्धतियों के आडम्बरों के प्रति घोर विरोध व्यक्त किया था। उनके समय में शक्ति की उपासना में मांस और मदिरा का चलन था। वे स्वयं सातात्त्विक प्रवृत्ति के थे। यही कारण है कि उन्होंने शक्ति के उपासकों को खूब फटकार लगाई थी। उन्हें शक्ति के उपासक सन की रस्सी के समान लगते थे, जो भीग कर अधिक कठोर हो जाती है-साबित सण का जेबड़ा, भीगाँ सू कठ्ठाइ। (कबीर समग्र; २८/११) संत कबीर का शाक्तों से विरोध केवल अपवित्रा एवं जीव विरोधी उपासना को लेकर था। क्योंकि उनकी उपसना में हिंसा, मदिरा एवं मांस का चलन था-पापी पूजा बैसि करि भषै मांस मद दोइ। (कबीर समग्र; २९०/१३) हिंदू समाज में प्रचलित मूर्तिपूजा, जप, तप, तीर्थस्नान और माला फेरने को ढकोसला मानते थे। उन्होंने हिन्दुओं की मूर्तिपूजा पर कई स्थलों पर खिल्ली उड़ाई है- पाहन पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार।/तातै यह चाकी भली, पीसि खाए संसार॥(कबीर समग्र, ४४१/०१)
वस्तुतः संत कबीर का मूर्तिपूजा के प्रति विरोध अकारण नहीं था। बल्कि यह विरोध गहरे यथार्थ बोध से उपजा था, जिसमें वर्षों से परिचालित हिंदुओं की जड़ एवं अप्रासंगिक मानसिकता के खिलाफ प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी आह्वान था। इसके अतिरिक्त उन्होंने पत्थर की मूर्ति का धंधा और समाज को दिग्भ्रमित करने वाले लोगों को भी बेनकाब किया था-मूरित धरि धंधा रचा, पाहन का जगदीश। (कबीर समग्र; ४४५/३) उन्होंने हिन्दुओं में माला फेरने की परंपरा का भी खंडन किया क्योंकि वे माला पहनने की अपेक्षा हृदय में पड़ी वासना की गाँठों को खोलना हितकर समझते थे-माला पहरयौ कुछ नहीं गाँठि, हिरदा की खोल (कबीर समग्र; २९४/९) इसी प्रकार संत कबीर ने बालों को मुड़ाकर वैष्णव भक्त बनने की आडम्बरपूर्ण प्रवृत्ति पर भी दो टूक बात की थी। वे बालों को मुड़ाने की अपेक्षा मन का संस्कार करना ठीक समझते हैं-कैसों कहा बिगाडिया, जे मूँडै सौ बार/मन कौं काहे न मूँडिए, जामै विषै विकार॥ (कबीर समग्र; २९४/१२) इतना ही नहीं, उन्होंने संन्यासी की वेश-भूषा धारण करने वाले वैष्णवों को भी नहीं छोड़ा और उन्हें आडम्बरपूर्ण वेश-भूषा के बजाय विवेकपूर्ण आचरण को आत्मसात् करने की ओर प्रेरित किया-बसनों भया तौ का भया, बूझा नहीं विवेक।/छाया तिलक बनाइ करि, दगध्या लोक अनेक॥ (कबीर समग्र; २९५/१६)कबीर पोथी ज्ञान को भी अव्यावहारिक मानते हैं, उनका मानना है कि पोथियों को पढ़ने वालों को आत्मज्ञान न होकर आत्मनाश होता है। संसार में सारे पंडित पुस्तकें पढ़-पढ़कर मर गए किंतु किसी को भी आत्मज्ञान नहीं हुआ-पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा पंडित भया न कोइ। (कबीर समग्र; २८४/४) कहने की आवश्यकता नहीं है कि कबीर का यह मन्तव्य अकारण नहीं है। यह भी उनके गहरे यथार्थ बोध से उपजा है। आज के समय में जितनी भी प्रकार की विसंगतियाँ दिखाई देती हैं। उनमें से अधिकांश पोथी पाठी विद्वानों से उत्पन्न हुई हैं। चाहे जातिवाद हो, क्षेत्रवाद या फिर भाषावाद आदि।संत कबीर के समाज में हिंदू समाज में वर्ण व्यवस्था अपनी चरम सीमा में थी। समाज में ऊँच-नीच का बोल बाला था, जिससे समाज में अनेक प्रकार की विकृतियाँ पैदा हो चुकी थीं। स्वयं संत कबीर समाज में व्याप्त ऊँच-नीच और भेदभाव के भुक्तभोगी थे। अतः उन्होंने एक समाज सुधारक के रूप में हिंदू धर्म में प्रचलित वर्णों में ऐक्य स्थापित करने का प्रयत्न किया क्योंकि उनका मानना था कि विधाता ने सभी को एक ही प्रकार की मिट्टी से बनाया है उसी प्रकार जिस प्रकार कुम्हार एक ही मिट्टी से विविध प्रकार के बर्तनों का निर्माण करता है-माटी एक एकल संसारा, बहु विधि भाँडे, घडै कुम्हारा'' (कबीर समग्र; ५४६/५३) इनके अतिरिक्त वे हिंदू धर्म में प्रचलित पिंडदान प्रथा की विडम्बना पर भी कटाक्ष करते हैं। आडम्बर पूर्ण प्रदर्शनों की अपेक्षा लोकोचार को श्रेष्ठ मानते हैं। इसीलिए वे पितरों को पिण्डदान की अपेक्षा जीवित अवस्था में सेवा करने पर बल देते हैं-ताथै कहिए लोकोचार; वेद कतेब कथैं ब्यौहार।/जारि बारि काई आवै देहा, मूवाँ पीछै प्रीति स्नेहा॥/जीवित पित्राहि मारहि डंडा, मूवाँ पित्रा ले घालै गंगा।/जीवत पित्रा कूँ अन न ख्वावैं, मूवाँ पाछे प्यंड भरावै।/जीवत पित्रा कूँ बौले अपराध, मूँवाँ पीछे देहि सराध॥ (कबीर समग्र; ६७०/३५३)
संत कबीर ने हिंदू समाज में व्याप्त आडम्बरपूर्ण लोकाचारों के साथ-साथ मुस्लिम समाज के आडम्बरपूर्ण प्रदर्शनों की भी आलोचना की है। उन्होंने निर्भीक होकर दिन में पांच बार नमाज एवं बंदगी को व्यर्थ तथा असत्य कहा है-यह सब झूटी बंदनी, वरिया पंच निवाज (कबीर समग्र; २८९/५) वे हलाल को भी अनुचित मानते हैं क्योंकि वे हलाल को पूर्णतः हिंसा ही मानते हैं। वे हज यात्रा को भी व्यर्थ मानते हैं और वे हज यात्रा की अपेक्षा मन में संतोष उत्पन्न करने के पक्षधर थे-सेष सबूरी बाहिरा, क्या हज काबै जाई (कबीर समग्र; २९०/१) उन्होंने मुस्लिम सम्प्रदाय के द्वारा मस्जिद में बांग देने की परंपरा का भी मखौल उठाया है। वे मस्जिद में चढ़कर बांग देने को आडम्बरपूर्ण प्रदर्शन मानते हैं-ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाई (कबीर समग्र; ४४५/१३) क्योंकि कबीर का मत था कि मुल्ला जिसको बांग देता है वह सब जीवों के अंदर विद्यमान है- जिस कारण तू बांग दै, सो दिलहि अन्दर जोय। (कबीर समग्र; ४४५/१४) उन्होंने हिंदू एवं मुस्लिम समाज में प्रचलित हिंसा का घोर विरोध किया था। वे समान रूप से, इन दोनों सम्प्रदायों से सम्बद्ध लोगों को जीव हत्या के लिए फटकारते हैं -बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।/जो बकरी को खात है, तिनका कौन हवाल॥ (कबीर समग्र; ४८६/१८) अथवा दिन को रोजा रहत है, रात हनत है गाय।/यह खून वह बंदगी, कहुं क्यों खुशी खुदाय॥ (कबीर समग्र; ४८७/३३)वस्तुतः दो सम्प्रदायों में प्रचलित विविध बाह्याचारों के खिलाफ जिस प्रकार से कबीर ने लेखनी चलाई थी वह कम साहस का काम नहीं है। जबकि वह ऐसा समय था जब छोटी सी बात पर खून-खराबा होना आम बात हो गई थी। इसी अर्थ में जहाँ एक ओर कबीर प्रगतिशील कवि सिद्ध होते हैं। वहीं उनकी साखी, सबद और रमैनियाँ सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रांति की सम्वाहक दिखती हैं। उन्होंने एक पद में हिंदू और मुस्लिम सम्प्रदाय में प्रचलित नाना प्रकार के आडम्बरों की व्यर्थता सिद्ध करते हुए लिखा है-धरती से मिट्टी उठाकर मूर्ति बनाने और उसी मूर्ति को स्नान कराने में क्या फायदा? जप और मंजन करने और मस्जिद में सिर झुकाने से क्या? रोजा रखने, नमाज अदा करने, हज के लिए काबा जाने से क्या? ब्राह्मण चौबीस एकादशी करता है। काजी एक माह रमजान रखता है। तब ग्यारह माह प्रभु को अलग क्यों रखते हो?...अगर खुदा मस्जिद में निवास करता है तो अन्य स्थानों में कौन? तीर्थों एवं मूर्तियों में राम का निवास है यह भी ठीक नहीं है...हरि पूर्व में अल्लाह पश्चिम में रहता है। यह भी ठीक नहीं है। (कबीर समग्र; ६३०/२५९) कहने की आवश्यकता नहीं है कि इससे अधिक क्रांति के सम्वाहक स्वर और क्या हो सकते हैं? जिनको कवि एक परंपरा की तमाम प्रकार की रूढ़ियों और अंधविश्वास से जकड़े समाज में रहकर भी निर्भीकतापूर्वक ललकारता है।
एक क्रांतिधर्मी के रूप में संत कबीर ने तत्कालीन भारतीय समाज में हिंदू और मुस्लिम सम्प्रदायों के बीच उत्पन्न वैमनस्य की खाई को पाटने का भारी श्रम किया था। वस्तुतः तब इन दोनों सम्प्रदायों के बीच उत्पन्न वैमनस्य, इनके परस्पर विरोधी आचार-व्यवहार से उपजा था। वे दोनों सम्प्रदायों के वैमनस्य के बीच एक मध्यस्थ के रूप में खड़े दिखते हैं। उन्होंने दोनों सम्प्रदायों के बीच ऐक्य के लिए राम, रहीम, करीम, केशव, अल्लाह आदि सभी के सत्य का प्रतिपादन किया था। इसीलिए कबीर ने घोषणा की थी कि बिस्मिल्लाह और विशम्भर एक हैं। काजी, मुल्ला, पीर, पैगम्बर, राजा, पश्चिम दिशा में नमाज पढ़ना, पूर्व में एकादशी व्रत, गंगा में दीपदान सब एक हैं। मस्जिद एवं मंदिर दोनों स्थानों में ईश्वर है। हिंदू-मुसलमानों का सृष्टिकर्त्ता एक ही प्रभु है- हमारे राम रहीम करीमा केसो अल्लाह राम सति सोई।/बिसमिल मेटि विसंभर एकै, और न दूजा कोई।.../हिंदु तुरक का करता एकै, ता गति लखि न जाई। (कबीर समग्र; ५४८/५८)
इसके लिए संत कबीर ने हिंदू-मुस्लिम के बीच द्वैत उत्पन्न करने वालों को भोंदू (मूर्ख) कहा था क्योंकि उनका मानना था कि - यौनियाँ, दो धरती और अलग-अलग धर्म ये सब बीच के काम हैं। मूलतः राम रहीम एक ही हैं बोलने वाला प्रभु न हिंदू और न मुसलमान (कबीर समग्र; ५४७/५६) संत कबीर ने उसी हिंदू एवं मुसलमान को ठीक कहा है जिसका इमान ठीक है-सो हिन्दु सो मुसलमौंन, जिसका दुरस रहे ईमान। (कबीर समग्र; ६७०/३५५)
वस्तुतः संत कबीर संत काव्य परंपरा का नहीं अपितु सम्पूर्ण हिंदी साहित्य का बेजोड़ व्यक्तित्व हैं। मूलतः वे भक्त कवि हैं फिर भी वे कम विचारक एवं चिंतक नहीं हैं। इसी अर्थ में वे सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के सम्वाहक कवि सिद्ध होते हैं। उन्होंने भक्ति एवं चिंतक के रूप में वर्षों से विविध प्रकार के मानवता विरोधी अप्रासंगिक परंपरा से जकड़े समाज को नई दृष्टि दी। वह किसी क्रांतिकारी विद्रोही कवि से कम नहीं हैं। उन्होंने भक्ति और समाज में प्रचलित बाह्याचारों के विरोध में जिन क्रांतिकारी स्वरों को व्यक्त किया था। वह कम जोखिम का काम न था किन्तु संत कबीर ने हिंदू-मुस्लिम सम्प्रदाय की परवाह किए वगैर इनकी दोषपूर्ण भक्ति भावना और बाह्याचारों की खुलकर आलोचना की थी। संत कबीर ने प्रेम भक्ति, सादगी, अहिंसा और समदृष्टि के द्वारा उदात्त मानवीय मूल्यों की सद्भावना की थी। इसीलिए तो हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही लिखा है-हिंदी साहित्य के हजारों वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई उत्पन्न नहीं हुआ।५ अतः कहने में संकोच नहीं है कि संत कबीर के द्वितीय वर्ग का आलोचनात्मक साहित्य अपनी वस्तुपरकता में सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से क्रांति का वाहक है। ऐसी क्रांति जो आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक है। आज भी जब कभी सम्प्रदाय के नाम पर फसाद होते हैं, राजनेता इन फसादों के द्वारा कुर्सी की राजनीति में सक्रिय दिखते हैं और भ्रष्ट निष्कृष्ट कार्यों में लिप्त धर्माचार्यों एवं मठाधीशों के कारनामें उजागर होते हैं। तब संत कबीर की वाणी याद आती है। इस संबंध में कबीर के साहित्य के अध्येता डॉ० नजीर मुहम्मद का कथन समीचीन जान पड़ता है-कबीर एक सफल साधक प्रभावशाली उपदेशक, महान नेता और युगद्रष्टा थे। उन्होंने कविता के सहारे अपने विचारों को युगान्तर के लिए अमरता प्रदान की।६ वस्तुतः कबीर के विचारों की युगान्तर के लिए अमरता ही, उनके काव्य की प्रासंगिकता है। ऐसी प्रासंगिकता जिसकी आज के जटिल विविध जीवन संदर्भों के साथ पूर्ण संगति है। इसके अतिरिक्त कबीर काव्य के मूर्धन्य समीक्षक डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन कि - कबीर वाणी के डिक्टेटर ७ भी कहीं न कहीं संत कबीर के काव्य की प्रासंगिकता को ही व्यक्त करता है और कबीर का वाणी डिक्टेटर होना कुछ और नहीं बल्कि पुराणपंथियों, धर्म के ठेकेदारों और धर्मोन्माद फैलाने वाले तथाकथित मठाधीशों के प्रति क्रांति के स्वरों का वाहक है, जिसका लक्ष्य समाज में समरसता, अहिंसा, भाईचारा, सुख-शांति एवं समृद्धि की स्थापना करना है
संदर्भ-ग्रन्थ
१. डॉ० नगेन्द्र, हिंदी साहित्य का इतिहास; मयूर पेपर बैक्स, नोएडा, १९९७; पृ० १२४.
२. वही; पृ० १२८
३. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, १९७१; पृ० १८५
४. वही; पृ० १५९
५. वही; पृ० १८५
६. डॉ० नजीर मुहम्मद, कबीर के काव्य रूप; भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़, १९७१; पृ० 1
७. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर; पृ० १८५
Sunday, December 7, 2008
दलित महिलाएं एवं उनका सशक्तिकरण
भारतीय संविधान ने महिला व पुरुष दोनों को समकक्ष रखकर उनके विकास के लिए समान अवसरों की गारंटी दी। अनेक प्रावधानों द्वारा महिला को सुरक्षा तथा संरक्षण प्रदान करने की व्यवस्था की गई। पर इन सबके बावजूद महिला की स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया, क्योंकि सामाजिक रवैये में बुनियादी बदलाव नहीं हुए। समाज ने महिला के प्रति अपने दायित्व के निर्वहन में कोताही बरती। दरअसल दुनिया के तमाम उत्पादन के साधनों पर उत्तराधिकार कानूनों के माध्यम से पुरुषों का स्वामित्व है और उत्पादन के साधनों पर वर्चस्व बनाये-बचाये रखने के लिए पुर्नोत्पादन के साधनों (यानी महिला की देह और कोख) पर भी संपूर्ण नियंत्रण अनिवार्य हैं जो विवाह संस्था के माध्यम से बनाया गया है। उत्तराधिकार के लिए वैद्य संतान और वैद्य संतान के लिए विवाह संस्था अनिवार्य है। विवाह संस्था से बाहर जन्मे बच्चे अवैद्य, नाजायज, हरामी हैं। इसलिये पिता की संपत्ति में कानूनी वारिस नहीं माने जाते। कानून और न्याय की नजर में वैद्य संतान पुरुष की और अवैद्य महिला की होती है। विवाह संस्था अनिवार्य है सो पुरुष की सम्पत्ति के असली (कानूनी) उत्तराधिकारी तो बेटे ही होंगे क्योंकि बेटियाँ तो परायाधन है और कन्यादान के बाद दहेज लेकर ससुराल चली जाएगी। संयुक्त हिन्दू परिवारों में सम्पत्ति का स्वामित्व केवल पुरुषों के नाम। बंटवारा करवाने का अधिकार केवल पुरुषों को। बेटा गर्भ में आते ही संपत्ति का हकदार लेकिन बेटियाँ भूण-हत्या की शिकार। परिवार या विवाह संस्था के मूल ढांचे में समता और समाज में न्याय (सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक) की नींव डाले बिना न कन्या भूण हत्या रोकना संभव होगा और न टूटते-बिखरते परिवार को बचाना। निःसन्देह पितृसत्ता को सिरे से दुबारा सोचना-समझना पड़ेगा। संपत्ति और सत्ता में महिलाओं को बराबर हिस्सा दिये बिना परिवार बचाना मुश्किल है। बेटियाँ नहीं होंगी तो बहू कहाँ से आएगी? वंश कैसे चलेगा? परिवार संरचना में आमूलचूल परिवर्तन की मांग को और अधिक टालना खतरे से खाली नहीं है।
महिला के लिए पहली चुनौती तो यही है कि बदलते परिवेश में सामाजिक मान्यताओं का सम्मान करते हुए वह समाज के दृष्टिकोण को बदल डाले कि 'स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी शत्रु हैं।' महिलाओं की समस्याओं के हल हेतु महिलाओं को ही आगे आकर महिलाओं को समझना पड़ेगा, यह भी एक चुनौती है पर सबसे बड़ी चुनौती यही है कि महिलाएं अपने अनेक रूपों को (बहन, बेटी, पत्नी आदि) सहज रूप में बनाए रखकर अपनी लड़ाई लड़ सकती है या नहीं; क्योंकि अति उच्छृखलता, अतिउन्मुकता, अति परकीयकता भारतीय महिलाओं, भारतीय परिवेश और पारिवारिकता के विरुद्ध है। यदि रचनात्मक जीवन उसे जीना है और समाज में अपनी पहचान बनानी है तो उसे पुरुष समाज द्वारा खीची गई लक्ष्मण रेखा को लांघना ही होगा और समाज में जो भी स्थितियाँ, चुनौतियाँ आएगी, उनका डटकर मुकाबला करना होगा। कोई जरूरी नहीं यह लक्ष्मण रेखा लांघने के बाद उसे सब कुछ आसानी से मिल जायेगा। जिनसे पाना है या जिनके बीच से होकर गुजरना है वह आज जहाँ खड़ी है कही उससे अधिक भयानक स्थितियाँ उसके सामने आ सकती है लेकिन इसी के बीच से अपना सफर तय करना और अपनी पहचान भी बनानी है। क्या यह सत्य नहीं है कि निर्धन-कमजोर-गरीब लोगों एवं सभी प्रकार की महिलाओं का विराट जनता जनार्दन तो केवल उस ज्ञान पर आश्रित रहा जो उसे वांछित परंपरा द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी मिलता रहा और शस्त्रा एवं साहित्य शताब्दियों तक इस देश में राजा-महाराजाओं, सामंतो-उमरावों, धनवानों-उच्च कुलीनो के प्राधिकार में रहे? महिला कामगारों में चाहे घास काटने वाली हों, तेंदूपत्ते जमा करने वाली हो, बीड़ियाँ, अगरबत्ती आदि बनाने वाली हों, मिट्टी के बर्तन बनाने वाली हों, मछलियाँ ढोने और बेचने वाली हों या कपड़ा बुनने वाली हों इन सभी क्षेत्रों में उन्हें पुरुषों से अधिक मेहनती काम करने के बाद भी उनसे कम मजदूरी मिलती है, उन महिलाओं को प्रसूतिकाल की मजदूरी नहीं मिलती, क्या महिला साक्षरता अभियान से उनमें अपने अस्तित्व के संकट को पहचानने का सोच-विचार पैदा होगा और उनमें असमानता को समूल नष्ट करने के संघर्ष की चेतना जागृत हो सकेगी? इन सब बातों को महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में सोचना-विचारना बहुत आवश्यक है।
यद्यपि यह भी उल्लेखनीय है कि महिलाओं की बेहतरी के लिए कुछ विशेष योजनाएं बनाई गई। सर्वप्रथम ग्रामीण क्षेत्रों में महिला तथा बाल विकास कार्यक्रम (डी.डब्ल्यू.सी.आर.ए.) समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम (आई.आर.डी.पी.) की एक उपयोजना के रूप में 1 सितम्बर १९८२ में प्रारंभ किया गया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य गरीबी की रेखा से नीचे बसरकर रहे ग्रामीण परिवारों की महिलाओं के लिए स्वरोजगार के उपयुक्त अवसर प्रदान करना है। तत्पश्चात् निर्धन महिलाओं की ऋण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए १९९२-९३ में एक राष्ट्रीय महिला कोष की स्थापना की गई। इसके साथ ही ग्रामीण महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने व उनमें बचत की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने के लिए महिला समृद्धि योजना की शुरुआत २ अक्टूबर १९९३ से की गई। राज्य सरकारों द्वारा चलाए जा रहे महिला विकास कार्यक्रमों की सूची भी लंबी होती जा रही है। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 1 नवंबर १९९१ से विशेषतः ग्रामीण एवं आदिवासी क्षेत्रों की महिलाओं के कल्याण एवं विकास हेतु 'पंचधारा योजना' शुरू की गई। इस कार्यक्रम के तहत वात्सल्य योजना, ग्राम्य योजना, आयुस्मति योजना, सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना और कल्पवृक्ष योजना सन्निहित है। हरियाणा सरकार ने अनुसूचित जाति व जनजातियों की बालिकाओं के लिए 'अपनी बेटी अपना धन योजना' प्रारंभ की गई। गुजरात सरकार द्वारा चलाई जा रही 'कुंवरबाई नु मामेरू योजना', 'महाराष्ट्र में प्रचलित काम धेनु योजना', आंध्रप्रदेश में 'बालिका संरक्षण योजना' आदि इस दिशा में किए जा रहे प्रयास हैं। बीस सूत्रीय कार्यक्रम के कुछ प्रावधानों और परिवार नियोजन कार्यक्रम को जो कुछ भी सीमित सफलता प्राप्त हुई उसका सीधा लाभ सबसे पहले महिलाओं को मिला। काहिरा सम्मेलन (१९९४) व बीजिंग में महिलाओं पर चतुर्थ विश्व सम्मेलन (१९९५) ने महिला व बाल स्वास्थ्य सुधार और महिलाओं के यौन स्वास्थ्य व अधिकारों जैसे अन्य मुद्दों को भारतीय नीतियों में दाखिल कर दिया। भारत सरकार सोची और तय की हुई नीतियों के साथ विदेशी हलकों से आयातित विचारों और सलाहों के चलते हुए कुछ आशाजनक स्थिति निर्मित हुई। साथ ही महिलाओं के पक्ष में किए गए कानूनी सुधारों ने भी महिलाओं की पैरवी की। लेकिन समितियों, रपटों, योजनाओं और सुधारों से परे हटकर यदि वास्तविकता देखी जाए तो महिलाओं से संबंधित मोटे-मोटे तथ्य ही उनकी स्थिति की पोल खोलते हैं। वर्ष १९९१ की जनगणना के अनुसार स्त्री-पुरुष अनुपात ९२७ महिलाएं प्रति हजार पुरुष रहा। वैवाहिक स्थिति के आंकड़े बताते हैं कि १५ से १९ वर्ष के आयु समूह में ७ प्रतिशत लड़कों और ३९ प्रतिशत लड़कियों का विवाह हो जाता है। कम आयु में विवाह और मातृत्व के बोझ के अलावा सामान्य तौर पर भी माताओं में कुपोषण, उनकी अस्वस्थता और मृत्यु दर के मुख्य कारण है। गर्भावस्था के दौरान और प्रसूति के बाद स्वास्थ्य की उपेक्षा आम बात है। यह परिस्थितियाँ ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक व्याप्त है। बालक की चाह आज भी अत्यंत तीव्र है और विज्ञान की दया से मादा भू्रण हत्याएं निरंतर वृद्धि पर है। बालिकाओं के साथ भेदभाव को भी कई स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है। टीकाकरण व पोषण के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं। बालिकाओं और महिलाओं पर यौन अत्याचार ने अकल्पनीय आयाम ग्रहण कर लिए हैं। स्वास्थ्य के अलावा मानव कल्याण के सबसे सशक्त माध्यम शिक्षा की भी हालत दयनीय हैं स्कूलों में नामांकन अनुपात शाला में उपस्थिति दर और विद्यालय त्याग अनुपात में लिंग-भेद के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। विद्यालयीन, सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत कारणों के चलते यह प्रवृत्ति स्कूली शिक्षा के आगे भी यथावत् बनी रहती है। पुरुषों में साक्षरता दर ६४.१३ प्रतिशत तथा महिलाओं में ३९.२९ प्रतिशत है। साक्षरता और शिक्षा के अभाव में स्त्रियाँ जिन अनेक लाभों से वंचित रहीं उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है रोजगार। १९९१ की जनगणना के आंकड़े दर्शाते हैं कि कार्यशील जनसंख्या का ७१.४२ प्रतिशत पुरुष थे और मात्रा २८.५८ प्रतिशत महिलाएं थीं जबकि असलियत यह थी कि ऊंची निरक्षरता दर के बावजूद अधिकांश महिलाएं काम करती थीं। इसी सांख्यकीय प्रमाण के पीछे बहुलता के कारण उनके कार्य की गणना नहीं की जाती। श्रम कानूनों के दायरे से बाहर ये महिलाएं कई प्रकार के शोषण का शिकार होते हुए भी आर्थिक तंगी के कारण इस क्षेत्र में अशिक्षित और सकल राष्ट्रीय उत्पाद के लगभग एक चौथाई हिस्से के बराबर योगदान करती हुई महिलाओं का कार्य पारिवारिक श्रम के रूप में विलीन हो जाता है। इसके अलावा कई महिलाएं तथाकथित स्त्री सुलभ नौकरियों, अंशकालिक कार्यों और स्व-रोजगार के कुछ क्षेत्रों तक सीमित रह जाती है। भारत के लिंग आधारित श्रम बाजार की एक विशेषता यह भी है कि इसके एक सिरे पर यदि अदृश्य आर्थिक योगदान करती उपेक्षित महिलाएं हैं तो दूसरे सिरे पर सफेद पोश नौकरियों, व्यवसायों व उच्च पदों पर आसीन महिलाएं भी हैं। ये बात अलग है कि व्यावसायिक शिक्षा की सीढ़ियाँ चढ़कर इन स्थितियों में पहुंचने के बाद भी ये महिलाएं कैरियर की प्रतिकूल मांगों और संस्कृतिजन्य पारिवारिक दायित्व के बीच सामंजस्य बैठाने में पिसती रहती हैं ऐसी महिलाओं की संख्या कम होते हुए भी स्त्री दशा में नाटकीय परिवर्तन दर्शाने के लिए पर्याप्त हो जाती है साथ ही दूसरे क्षेत्रों में महिलाओं के कार्य की अदृश्यता को ये आंकड़े ढांक लेते हैं। फलस्वरूप स्त्रियों की आर्थिक भूमिका को कम आंके जाने के दूरगामी परिणाम योजनाओं और विकास कार्यक्रमों की रूपरेखा तक देखे जा सकते हैं। इसीलिए यह आवश्यक हो जाता है कि महिला विकास कार्यक्रमों को पुनः परिभाषित किया जाए। भारतीय महिलाओं के संस्कारों की अच्छी विशेषताओं को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता प्रदान की जाए। साथ ही प्राथमिक शिक्षा से ही लैंगिक समानता के मुद्दों पर जोर डालना जरूरी हो जाता है। मानसिकता में बुनियादी परिवर्तन के बाद ही महिला सबलीकरण के अन्य बाह्य तरीके सफल हो सकते हैं।
यह बात भी उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश पांच साल पहले लागू की गई अपनी महिला नीति का आकलन किसी स्वतंत्रा एजेंसी से करवाना चाहती है, ताकि गत अनुभवों और इस अध्ययन-आकलन के निष्कर्षों के प्रकाश में नई नीति को सुदृढ़ आधार मिल सकें। सिद्धांततः प्रदेश में महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए किए गए कार्यों की एक प्रभावशाली सूची है। संस्थागत प्रजातांत्रिक ढांचे में नारी को नारायणी बनाने के प्रयास के फलस्वरूप तीस प्रतिशत पंच-सरपंच महिलाएं हैं। अब यह बात अलग है कि कुछ महिला सरपंचों के पतियों की जरूरत से ज्यादा सक्रियता ने एस पी यानी सरपंच पति नामक एक नया शब्द राजनीतिक मुहावरे में जोड़ दिया है। अन्य बातों के अलावा यहाँ शिक्षा-सहकारिता, नौकरियों आदि में महिलाओं के आरक्षण के साथ-साथ भूमि स्वामित्व में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने से नारी उत्थान के आर्थिक स्वावलंबन पक्ष, को निश्चय ही मजबूती मिलेगी। महिलाओं की स्थिति में सिद्धांततः सुधार के दावों के बावजूद व्यवहारतः मैदानी हालात में कोई निर्णायक अंतर शायद ही आया हो। अगर प्रदेश के उत्तरी जिलों में बालिका के जन्म को अभी भी इतना हतोत्साहित किया जाता है कि वहाँ स्त्री-पुरुष अनुपात डगमगा गया है। क्या बालिका शिशु की हत्या गोहत्या से कम पाप हैं? हो सकता है कि इस वर्ष के जनगणना के आंकड़े इस बिंदु पर आंखे खोलने वाले साबित हों। जहाँ दतिया, देवास या रायसेन जिले महिला आई.ए.एस. और आई.पी.एस. अधिकारियों की पदस्थिति के लिए जाने जाते हैं, वहीं स्वयं मुख्यमंत्री से संबंधित राजगढ़ और गुना जिले महिला उत्पीड़न के लिए रेखांकित है। स्थिति का व्यंग्य यह है कि खुद मुख्यमंत्री महिला जागरण और सशक्तीकरण के प्रबल प्रतिबद्ध पक्षधर हैं। इसका साफ मतलब है कि महिला उत्थान की तमाम योजनाओं को समाज की अपेक्षित स्वीकृति अभी भी मिलने को है। आखिर क्या कारण है कि दहेज, मौतों और बलात्कारों जैसे जघन्य अपराधों के मामले में मध्यप्रदेश देश के शीर्षस्थ प्रदेशों में से है? कहीं ऐसा तो नहीं कि महिला सशक्तीकरण की योजनाएं शासकीय दावों के कलश-कंगूरों की श्रृंगारिक शोभा बनकर रह गई है जबकि सामाजिक चेतना की नींव से उनका कोई नहीं है। महिलाओं के लिए मगर के आंसू बहाने से कुछ नहीं होगा। नारी को नारायणी बनाने के लिए उसके 'आँचल में है दूध और आंखों में है पानी' वाले हालात बदलने होंगे।
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और अन्य सभी अवसरों में सामाजिक विभेद उनके विवेक और चेतना को पंगु कर देते हैं। ऐसी स्थिति में सशक्तीकरण के सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों से औपचारिक शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और साख व रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाना आवश्यक है, परंतु इन अवसरों से लाभ उठाकर भी महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन आए यह आवश्यक नहीं है, इसलिए महिलाओं के आंतरिक सोच में परिवर्तन लाने के लिए प्रचार-प्रसार भी आवश्यक है। आत्मिकरूप से निर्भीक, बचपन से ही शारीरिक रूप से शक्तिशाली और आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाना, महिला सशक्तीकरण के चरण हो सकते हैं। इसके साथ ही विधिक साक्षरता और सहायता से इस जागृति को सही दिशा में गति दी जा सकती है जिससे सूक्ष्म से वृहद स्तर तक हो रहे प्रत्येक प्रकार के अन्याय और अपराध का सशक्त विरोध महिलाएं कर सके। पुलिस, प्रशासन और विधि से जुड़े संपूर्णतंत्र को इस संबंध में संवेदनशील बनाना सार्वजनिक नीतियों की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। इन सभी प्रयासों की सफलता समाज के और सबसे ज्यादा स्वयं महिलाओं के दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन पर निर्भर करती है स्वयं के प्रति आस्था और मानवीय मूल्यों में दृढ़ विश्वास से ही महिला सशक्तिकरण संभव है।
महिला सशक्तिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें न केवल संसाधनों पर उनको अधिकार दिलाने होंगे वरन् इस विचारधारा को भी बदलना होगा, जो भेदभाव के विचारों, दृष्टिकोण और विश्वास के जरिए लिंग-भेद को बनाये रखते हैं। इस विचारधारा वाले बिन्दु को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए क्योंकि इसमें परिवर्तन न होने के कारण ही सरकार की अनेक सशक्तिकरण योजनाएं निष्प्रभावी सिद्ध हुई हैं। तमाम सशक्तिकरण योजनाओं में संसाधनों के पुनर्वितरण, संसाधनों के पुनर्वितरण, संसाधनों पर समान पहुंच और अधिकार के जरिए महिला पुरुष के शक्ति संबंधों में और साथ ही ऐसे विचारों को आगे बढ़ाने वाली संस्थाओं व संरचनाओं में परिवर्तन लाना आवश्यक है। अतः सशक्तिकरण का प्रारंभ उस वैचारिक परिवर्तन पर आघात करके किया जाना चाहिए जो कि भेदभाव को आगे बढ़ाते हैं। इसके लिये महिला-पुरुष की समानता के विचारों को समाज में प्रसारित किया जाना चाहिए। महिलाओं के लिए शिक्षा अनिवार्य हो और शिक्षा के पाठ्यक्रमों में असमानता के मूल्यभारित अंशों को हटाया जाना भी आवश्यक है दूसरे, महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्म निर्भर बनाकर सशक्त किया जाएं। विभिन्न सेवाओं एवं क्षेत्रों में आरक्षण और दूसरी सुविधाएं देकर उन्हें आगे लाने के प्रयासों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए लागू की गई विभिन्न योजनाओं की समीक्षा कर बेहतर क्रियान्वयन की व्यवस्था की जाए। महिलाओं की स्थिति को सुधारने-संवारने के लिए अनेक कानून बनाये गये लेकिन इसके ठीक से क्रियान्वयन नहीं होने से वे अप्रभावी है। अतएव उनमें संशोधन एवं उनके क्रियान्वयन के लिए उत्तरदायी एजेन्सियों विशेषकर पुलिस और प्रशासन के साथ ही साथ न्यायपालिका को अधिक संवेदनशील बनाया जाना आवश्यक है।
तुम बिन
SEEMA GUPTA
हर गीत अधुरा तुम बिन मेरा,
साजों मे भी अब तार नही..
बिखरी हुई रचनाएँ हैं सारी,
शब्दों मे भी वो सार नही...
जज्बातों का उल्लेख करूं क्या ,
भावों मे मिलता करार नही...
तुम अनजानी अभिलाषा मेरी,
क्यूँ सुनते मेरी पुकार नही ...
हर राह पे जैसे पदचाप तुम्हारी ,
रोकूँ कैसे अधिकार नही ...
तर्ष्णा प्यासी एक नज़र को तेरी,
मिलने के मगर आसार नही.....