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HAPPY NEW YEAR 2010
उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.
महेंद्र भटनागर
हम मनुज हैं —
मृत्तिका की सृष्टि
सर्वोत्तम
सुभूषित,
प्राणवत्ता चिद्द
सर्वाधिक प्रखर,
अन्तःकरण
परिशुद्ध ;
प्रज्ञा
वृद्ध !
.
लघुता —
प्रिय हमें हो,
रजकणों की
अर्थ-गरिमा से
सुपरिचित हों,
परीक्षित हों।
.
मरण-धर्मा
मृत्यु से भयभीत क्यों हो ?
चेतना हतवेग क्यों हो ?
दुर्मना हम क्यों बनें ?
सदसत् विवेचक
मूढ़ग्राही क्यों बनें ?
महेंद्र भटनागर
ईर्ष्या
करो नहीं,
ईर्ष्या से
डरो नहीं !
.
किसी की ईर्ष्या-अभिव्यक्ति
संकेतित हो
वाचिक हो
क्रियात्मक हो
तुम्हारी सफलता
बोधिका है !
आत्म-गहनता
शोधिका है !
.
उससे त्रस्त क्यों होते हो ?
इतने अस्तव्यस्त क्यों होते हो ?
.
ईर्ष्या
जितनी स्वाभाविक है
उसका दमन
उतना ही आवश्यक है।
.
ईर्ष्या का
दलन करो,
वरण नहीं !
.
ईर्ष्या-आश्रय को
सन्तुलित करो,
प्रगति-प्रेरित करो।
उसे विकास के
अवसर दो,
उसके हलके मानस में
गरिमा भर दो।
.
फिर कोई ईर्ष्या नहीं करेगा,
फिर कोई ईर्ष्या से नहीं डरेगा।
.
जिस दिन —
मानवता
ईर्ष्या के घातों-प्रतिघातों को
सह जाएगी,
उस दिन से —
वह मात्र
संचारी-भाव-विवेचन में
महत्त्वहीन हो
काव्य-शास्त्र का साधारण विषय
रह जाएगी !
.
महेंद्र भटनागर
बुद्धि के उच्चतम शिखरों तक पहुँचे
हम
विज्ञान युग के प्राणी हैं
महान
समुन्नत
सर्वज्ञ !
.
हमारे लिए
जीवन के
सनातन सिद्धान्त
शाश्वत मूल्य
अर्थ-हीन हैं !
.
हमारे शब्द-कोश में
‘हृदय’
मात्र एक मांस-पिण्ड है
जो रक्त-शोधन का कार्य करता है
तन की समस्त शिराओं को
ताज़ा रक्त प्रदान करता है,
उसकी धड़कन का रहस्य
हमारे लिए नितान्त स्पष्ट है,
कमज़ोर पड़ जाने पर
अथवा
गल-सड़ जाने पर
हम उसको बदल भी सकते हैं।
हृदय से सम्बन्धित
पूर्व-मानव का
समस्त राग-बोध
उसके
समस्त कोमल-मधुर उद्गार
हमारे लिए
उपहासास्पद हैं !
.
हमारे लिए
पूर्व-मानव की
पारस्परिक प्रणय भावनाएँ
विरह-वियोग जनित चेष्टाएँ
सब
बचकानी हैं
अस्वस्थ हैं
निरर्थक हैं !
.
यह हमारे लिए
मानव इतिहास में
समय का सबसे बड़ा अपव्यय है !
.
हमारे लिए
आकर्षण —
इन्द्रिय सुख की कामना का पर्याय !
हाव —
आंगिक अभिनय का अभ्यासगत स्वरूप,
नाट्य-शालाओं में
प्रवेश प्राप्त कर
सहज ही ग्राह्य!
प्रेमालाप —
कृत्रिम
चमत्कारपूर्ण वाणी-विलास !
मिलन —
मात्रा स्थूल इन्द्रिय सुख के निमित्त !
स्मृति —
ढोंग का दूसरा नाम
या
अभाव की पीड़ा !
प्रेम —
भ्रम / धोखा
अस्तित्वहीन
‘ढाई आखर’ का शब्द-मात्र !
महेंद्र भटनागर
मुझे
कृत्रिम मुसकराहट से चिढ़ है !
कुछ लोग
जब इस प्रकार मुसकराते हैं
मुझे लगता है
डसेंगे !
अपने नागफाँस में कसेंगे !
.
यही
अप्रिय मुसकराहट
शिष्टाचार का जब
अंग बन जाती है,
कितनी फीकी
नज़र आती है !
.
मुझे
इस कृत्रिम फीकी मुसकराहट से
चिढ़
बेहद चिढ़ है !
.
महेंद्र भटनागर
अप्राप्य रहा —
वांछित,
कोई खेद नहीं।
.
तथाकथित
आभिजात्य गरिमा के
अगणित आवरणों के भीतर
नग्न क्षुद्रता से परिचय,
निष्फलता की
उपलब्धि !
कोई खेद नहीं।
.
सहज प्रकट
तथाकथित
निष्पक्ष-तटस्थ महत् व्यक्तित्व का
अदर्शित अभिनय;
असफलता की
उपलब्धि !
कोई खेद नहीं।
.
महेंद्र भटनागर
सर्वत्र
कड़वाहट सुलभ
दुर्लभ मधुरता !
सर्वत्र
घबराहट प्रकट
जीवट विरलता !
सर्वत्र
झुलझलाहट-प्रदर्शन
लुप्त स्थिरता !
सर्वत्र
आडम्बर-बनावट
दूर कोसों वास्तविकता !
.
महेंद्र भटनागर
दृष्टि-दोषों से सतत संत्रास्त
अर्थ-संगति हीन,
अद्भुत,
सैकड़ों पूर्वाग्रहों से ग्रस्त
हम,
सन्देह के गहरे तिमिर से घिर
परस्पर देखते हैं
अजनबी से !
और...
अनचाहे
विषैले वायुमण्डल में
घुटन के बोझ से
निष्कल तड़पते जब —
घहर उठता तभी
अति निम्नगामी
क्षुद्रता का सिन्धु,
अनगिनत
भयावह जन्तुओं से युक्त !
मनुजोचित सभी
शालीनता के बंधनों से मुक्त !
.
महेंद्र भटनागर
हृदय में दर्द है
तो
मुसकराओ !
.
दर्द यदि
अभिव्यक्त —
मुख पर एक हलकी-सी
शिकन के रूप में भी,
या
सजगता की
तनिक पहचान से उभरे
दमन के रूप में भी,
निंद्य है !
धिक् है !
स्खलित पौरुष्य !
.
उर में वेदना है
तो
सहज कुछ इस तरह गाओ
कि अनुमिति तक न हो उसकी
किसी को,
सिक्त मधुजा कण्ठ से
उल्लास गाओ !
पीत पतझर की
तनिक भी खड़खड़ाहट हो नहीं
मधुमास गाओ !
सिसकियों को
तलघरों में बन्द कर
नव नूपुरों की
गूँजती झनकार गाओ !
शून्य जीवन की
व्यथा-बोझिल उदासी भूलकर
अविराम हँसती गहगहाती
ज़िन्दगी गाओ !
महत् वरदान-सा जो प्राप्त
वह अनमोल
जीवन-गंधमादन से महकता
प्यार गाओ !
.
यदि हृदय में दर्द है
तो
मुसकराओ !
दूधिया
सितप्रभ
रुपहली
ज्योत्स्ना भर मुसकराओ !
.
महेंद्र भटनागर
अतीत का मोह मत करो,
अतीत —
मृत है !
उसे भस्म होने दो,
उसका बोझ मत ढोओ
शव-शिविका मत बनो !
शवता के उपासक
वर्तमान में ही
एक दिन
स्वयं निश्चेष्ट हो रहेंगे
अनुपयोगी
अवांछित
अरुचिकर —
जो व्यतीत है
अस्तित्वहीन है !
वह वर्तमान का नियंत्रक क्यों हो ?
वह वर्तमान पर आवेष्टित क्यों हो ?
वर्तमान को
अतीत से मुक्त करो,
उसे सम्पूर्ण भावना से
जियो,
भोगो !
वास्तविकता के
इस बोध से —
कि हर अनागत
वर्तमान में ढलेगा !
अनागत —
असीम है !
.
महेंद्र भटनागर
स्वीकार शायद
जो कभी भी था न
तुमको
भ्रांति उस अधिकार की
यदि आज
मानस में प्रकाशित हो गयी
सुन्दर हुआ
शुभकर हुआ !
.
अस्थिर
प्रवंचित मन !
न समझो —
प्राप्य
जीवन की
बड़ी अनमोल अति दुर्लभ
धरोहर खो गयी !
.
मूर्छा नहीं,
निश्चय
सजगता।
मोह का कुहरा नहीं,
परिज्ञान
जीवन-वास्तविकता।
.
अर्थ जीवन को मिलेगा अब
नये आलोक में,
उद्विग्न मत होना तनिक भी
शोक में !
महेंद्र भटनागर
जीने योग्य
जीवन के सुनहरे दिन —
सुकृत वरदान-से,
आनन्दवाही गान-से,
मधुमय-सरस-स्वर-गूँजते दिन
आह ! जीने योग्य !
हर पल
हर्ष पीने योग्य !
.
जीवन के
सतत प्रतिकूलता के दिन,
उदासी-खिन्नता
अति रिक्तता से सिक्त
बोझिल दिन —
अशुभ अभिशाप-से,
विष-दंश-वाही-ताप-से,
कटु विद्ध दुर्भर दिन
आह ! जीने योग्य !
हर पल
मर्ष पीने योग्य !
.
जीवन प्राप्त जो —
अच्छा
बुरा
अविराम जीने के लिए !
अनिवार्य जीने के लिए !
महेंद्र भटनागर
जीवन में
पराजित हूँ,
हताश नहीं !
.
निष्ठा कहाँ ?
विश्वासघात मिला सदा,
मधुफल नहीं,
दुर्भाग्य में
बस
दहकता विष ही बदा !
.
अभिशप्त हूँ,
पग-पग प्रवंचित हूँ,
निराश नहीं !
.
क्षणिक हैं —
ग्लानि पीड़ा घुटन !
वरदान समझो
शेष कोई
मोह-पाश नहीं !
महेंद्र भटनागर
संपीडित अँधेरा
भर दिया किसने
अरे !
बहूमूल्य जीवन-पात्र में मेरे ?
एक मुट्ठी रोशनी
दे दो
मुझे !
.
संदेह के
फणधर अनेकों
आह !
किसने
गंध-धर्मी गात पर
लटका दिये ?
विश्वास-कण
आस्था-कनी
दे दो
मुझे !
.
एक मुट्ठी रोशनी
दे दो
मुझे !
महेंद्र भटनागर
.
अकेलापन नियित है,
हर्ष से
झेलो इसे !
.
अकेलापन प्रकृति है,
कामना-अनुभूति से
ले लो इसे !
.
इससे भागना-बचना —
विकृति है !
मात्र अंगीकर करना —
एक गति है !
.
इसलिए स्वेच्छा वरण,
मन से नमन !
.
महेंद्र भटनागर
.
निरीहों को
हृदय में स्थान दो:
सूनापन-अकेलापन मिटेगा !
.
जिनको ज़रूरत है तुम्हारी —
जाओ वहाँ,
मुसकान दो उनको
अकेलापन बँटेगा !
.
अनजान प्राणी
जोकि
चुप गुमसुम उदास-हताश बैठे हैं
उन्हें बस, थपथपाओ प्यार से
मनहूस सन्नाटा छँटेगा !
.
ज़िन्दगी में यदि
अँधेरा-ही अँधेरा है,
न राहें हैं, न डेरा है,
रह-रह गुनगुनाओ
गीत को साथी बनाओ
यह क्षणिक वातावरण ग़म का
हटेगा !
ऊब से बोझिल
अकेलापन कटेगा
.
महेंद्र भटनागर
हर आदमी
अपनी मुसीबत में
अकेला है !
यातना की राशिµसारी
मात्र उसकी है !
साँसत के क्षणों में
आदमी बिल्कुल अकेला है !
.
संकटों की रात
एकाकी बितानी है उसे,
घुप अँधेरे में
किरण उम्मीद की जगानी है उसे !
हर चोट
सहलाना उसी को है,
हर सत्य
बहलाना उसी को है !
.
उसे ही
झेलने हैं हर क़दम पर
आँधियों के वार,
ओढ़ने हैं वक्ष पर चुपचाप
चारों ओर से बढ़ते-उमड़ते ज्वार !
.
सहनी उसे ही ठोकरें —
दुर्भाग्य की,
अभिशप्त जीवन की,
कठिन चढ़ती-उतरती राह पर
कटु व्यंग्य करतीं
क्रूर-क्रीड़ाएँ
अशुभ प्रारब्ध की !
उसे ही
जानना है स्वाद कड़वी घूँट का,
अनुभूत करना है
असर विष-कूट का !
अकेले
हाँ, अकेले ही !
.
क्योंकि सच है यह —
कि अपनी हर मुसीबत में
अकेला ही जिया है आदमी !
.
महेंद्र भटनागर
.
उसी ने छला
अंध जिस पर भरोसा किया,
उसी ने सताया
किया सहज निःस्वार्थ जिसका भला !
.
उसी ने डसा
दूध जिसको पिलाया,
अनजान बन कर रहा दूर
क्या ख़ूब रिश्ता निभाया !
.
अपरिचित गया बन
वही आज
जिसको गले से लगाया कभी,
अजनबी बन गया
प्यार,
भर-भर जिसे गोद-झूले झुलाया कभी !
.
हमसफ़र
मुफ़लिसी में कर गया किनारा,
ज़िन्दगी में अकेला रहा
और हर बार हारा !
महेंद्र भटनागर
हमने नहीं चाहा
कि इस घर के
सुनहरे-रुपहले नीले
गगन पर
घन आग बरसे !
.
हमने नहीं चाहा
कि इस घर का
अबोध-अजान बचपन
और अल्हड़ सरल यौवन
प्यार को तरसे !
.
हमने नहीं चाहा
कि इस घर की
मधुर स्वर-लहरियाँ
खामोश हो जाएँ,
यहाँ की भूमि पर
कोई
घृणा प्रतिशोध हिंसा के
विषैले बीज बो जाए !
.
हमने नहीं चाहा
प्रलय के मेघ छाएँ
और सब-कुछ दें बहा,
गरजती आँधियाँ आएँ
चमकते इंद्रधनुषी
स्वप्न-महलों को
हिला कर
एक पल में दें ढहा !
.
पर,
अनचहा सब
सामने घटता गया,
हम
देखते केवल रहे,
सब सामने
क्रमशः
उजड़ता टूटता हटता गया !
महेंद्र भटनागर
इन अट्टालिकाओं का
गगन-चुम्बी
कला-कृत
इन्द्र-धनुषी
स्वप्न-सा
अस्तित्व
कितना घिनौना है
हमें मालूम है !
.
इनकी ऊँचाइयों का रूप
कितना
क्षुद्र, खंडित और बौना है
हमें मालूम है!
.
परियों-सी सजी-सँवरी
इन अंगनाओं का
अवास्तव छद्म आकर्षण
कितना सुशोभन है
हमें मालूम है !
.
गौर-वर्णी
कमल-पंखुरियाँ छुअन
कितनी
सुखद, कोमल व मोहन है
हमें मालूम है !
.
परिचित हम
सुगन्धित रस-भरे
इन स्निग्ध फूलों की
चुभन से,
कामना-दव से
दहकती
देह की आदिम जलन से,
वासना-मद से
महकती
देह की आदिम तपन से,
इनका बिछौना
कितना सलोना है
हमें मालूम है!
.
पुस्तक उपलब्ध
मूल्य 150 (25प्रतिशत छूट के साथ)
भूमिका
डॉ० मेराज अहमद:सम्पूर्ण समाज की अभिव्यक्ति मुस्लिम कथाकार और उनकी हिन्दी कहानियाँ कहानियाँ
हसन जमाल : चलते हैं तो कोर्ट चलिए
मुशर्रफ आलम जौक़ी : सब साजिन्दे
एखलाक अहमद जई : इब्लीस की प्रार्थना सभा
हबीब कैफी : खाये-पीये लोग
तारिक असलम तस्नीम : बूढ़ा बरगद
अब्दुल बिस्मिल्लाह : जीना तो पड़ेगा
असगर वजाहत : सारी तालीमात
मेहरून्निसा परवेज : पासंग
नासिरा शर्मा : कुंइयांजान
मेराज अहमद : वाजिद साँई
अनवर सुहैल : दहशतगर्द
आशिक बालौत : मौत-दर-मौत
शकील : सुकून
मौ० आरिफ : एक दोयम दर्जे का पत्र
एम.हनीफ मदार : बंद कमरे की रोशनी
महेंद्र भटनागर
प्यार करना
ज़िन्दगी से: जगत से
आदमी का धर्म है !
.
प्यार करना
मानवों से
मूक पशुओं पक्षियों जल-जन्तुओं से
वन-लताओं से
द्रुमों से
आदमी का धर्म है !
.
प्यार करना
कलियों और फूलों से
विविध रंगों-सजी-सँवरी
तितलियों से
आदमी का धर्म है !
प्यार करना
इन्द्रजालों से रचे
अद्भुत
विशृंखल-सूत्रा
सपनों से,
मधुरतम कल्पनाओं में
गमन करती
सुकोमल-प्राण परियों से
आदमी का धर्म है !
महेंद्र भटनागर
रे हृदय
उत्तर दो
जगत के तीव्र दंशन का
राग-रंजित,
सोम सुरभित साँस से !
.
स्वीकार्य
जीवन-पंथ पर...
दर्द हर उपेक्षा का
शांत उज्ज्वल हास से !
.
आतिथेय
घन तिमिर के
द्वार पर
स्वर्ण किरणों की
असंशय आस से !
.
आराध्य
वज्रघाती देव
प्राण के संगीत से,
प्रेमोद्गार से
अभिरत रास से !
.
रे हृदय !
उत्तर दो
जगत के क्रूर वंचन का
स्नेहल भाव से,
विश्वास से !
.
जीवन हमारा फूल हरसिंगार-सा
जो खिल रहा है आज,
कल झर जायगा !
.
इसलिए,
हर पल विरल
परिपूर्ण हो रस-रंग से,
मधु-प्यार से !
डोलता अविरल रहे हर उर
उमंगों के उमड़ते ज्वार से !
.
एक दिन, आख़िर,
चमकती हर किरण बुझ जायगी...
और
चारों ओर
बस
गहरा अँधेरा छायगा !
जीवन हमारा फूल हरसिंगार-सा
जो खिल रहा है आज,
कल झर जाएगा !
.
मत लगाओ द्वार अधरों के
दमकती दूधिया मुसकान पर,
हो नहीं प्रतिबंध कोई
प्राण-वीणा पर थिरकते
ज़िन्दगी के गान पर !
.
एक दिन
उड़ जायगा सब ;
फिर न वापस आयगा !
जीवन हमारा फूल हरसिंगार-सा
जो खिल रह है आज,
कल झर जायगा !
महेंद्र भटनागर
आदमी का प्यार सपनों से
सनातन है !
मृत्यु के भी सामने
वह, मग्न होकर देखता है स्वप्न !
सपने देखना, मानों,
जीवन की निशानी है ;
यम की पराजय की कहानी है !
.
सपने आदमी को
मुसकराहट — चाह देते हैं,
आँसू — आह देते हैं !
.
हृदय में भर जुन्हाई-ज्वार,
जीने की ललक उत्पन्न कर,
पतझार को
मधुमास के रंगीन-चित्रों का
नया उपहार देते हैं !
विजय का हार देते हैं !
.
सँजोओ, स्वप्न की सौगात,
महँगी है !
मिली नेमत,
इसे दिन-रात पलकों में सहेजो !
‘स्वप्नदर्शी’ शब्द
परिभाषा ‘मनुज’ की,
गति-प्रगति का
प्रेरणा-आधार;
संकट-सिंधु में
संसार-नौका की
सबल पतवार ;
गौरवपूर्ण सुन्दरतम विशेषण।
स्वप्न-एषण और आकर्षण
सनातन है, सनातन है !
आदमी का प्यार सपनों से
सनातन है !
- शैफाली
मैं कई सदियों तक जीती रही
तुम्हारे विचारों का घूंघट
अपने सिर पर ओढे,
मैं कई सदियों तक पहने रही
तुम्हारी परम्पराओं का परिधान,
कई सदियों तक सुनती रही
तुम्हारे आदेशों को,
दोहराती रही तुम्हारे कहे शब्द,
कोशिश करती रही तुम जैसा बनने की।
तुम्हारे शहर में निकले चाँद को
पूजती रही चन्द्र देवता के रूप में
बच्चों को सिखाती रही
चँदा मामा कहना।
हर रस्म, हर रिवाज़ को पीठ पर लादे,
मैं चलती रही कई मीलों तक
तुम्हारे साथ.........।
मगर मैं हार गई.....
मैं हार गई,
मैं रोक नहीं सकी
तुम्हारे विचारों को सिर से उड़ते हुए
और मैं निर्लज्ज कहलाती रही,
मैंने उतार दिया
तुम्हारे परम्पराओं का परिधान
और मैं निर्वस्त्र कहलाती रही,
मैं मूक बधिर-सी गुमसुम–सी खड़ी रही कोने में,
तुम देखते रहे मुझको सबसे जुदा होते हुए।
मैं नहीं बन सकी
तुम्हारे शहर की एक सच्ची नागरिक,
तुम्हारे चन्द्र देवता की चाँदनी
मुझको रातों बहकाती रही,
मैं चुप रही,
खामोश घबराई-सी,
बौखलाई-सी, निर्विचार, संवेदनहीन होकर।
आज मैने उतार कर रख दिए
वो सारे बोझ
जिसे तुमने कर्तव्य बोलकर
डाले थे मेरी पीठ पर
मैं जीती रही बाग़ी बनकर,
तुम देखते रहे खामोश।
और अब जब मैं पहनना चाहती हूँ
आधुनिकता का परिधान,
तुम्हारे ही शहर में
नए विचारों की चुनरिया जब लपेटती हूँ देह पर,
तुम्हें नज़र आती है उसकी पार्दर्शिता।
जब मैं कहती हूँ धीरे से
घबराए शब्दों में अपने जीवन की नई परिभाषा,
चाँद को छूने की हसरत में
जब मैं कोशिश करती हूँ
नई परम्पराओं के पर लगाने की,
समय का हाथ थामे
मैं जब चलना चाहती हूँ
तुम्हारे चेहरे पर उभरा
एक प्रश्न चिह्न शोर मचाता है.....
क्यों?
- शैफाली
वो दोनों चादर पर
सोये थे कुछ इस तरह
जैसे मुसल्ले पर
कोई पाक़ क़िताब खुली पड़ी हो
और खुदा अपनी ही लिखी
किसी आयत को उसमें पढ़ रहा हो
वक्त दोपहर का
खत्म हो चला था,
डूबते सूरज का बुकमार्क लगाकर
ख़ुदा चाँद को जगाने चला गया
उन्हीं दिनों की बात है ये
जब दोनों सूरज के साथ
सोते थे एक साथ
और चाँद के साथ
जागते थे जुदा होकर
दोनों दिनभर न जाने
कितनी ही आयतें लिखते रहते
एक की ज़ुबां से अक्षरों के सितारे निकलते
और दूजे की रूह में टंक जाते
एक की कलम से अक्षर उतरते
दूजे के अर्थों में चढ़ जाते
दुनियावी हलचल हो
या कायनाती तवाज़न
हसद का भरम हो
या नजरें सानी का आलम
अदीबों के किस्से हो
या मौसीकी का चलन
बात कभी ख़ला तक गूंज जाती
तो कभी खामोशी अरहत (समाधि) हो जाती
देखने वालों को लगता
दोनों आसपास सोये हैं
लेकिन सिर्फ खुदा जानता है
कि वो उसकी किताब के वो खुले पन्ने हैं
जिन्हें वही पढ़ सकता है
जिसकी आँखों में मोहब्बत का दीया रोशन हो
*************************************************
- शैफाली
उनके पास जीवन है, विज्ञान है, ताकत भी है
उनके पास जोश है, ज्ञान है, नफरत भी है
उनके पास प्यार है और परमात्मा भी है
उनके पास पानी है और आग भी है
उनके पास निर्जीव, सजीव दोनों दुनिया है
मेरे पास सिर्फ एक देह, एक आत्मा और कुछ संवेदनाएँ हैं
फिर भी वो नहीं जानते ये दुनिया कैसे चलती है
और मैं कहती हूँ मैं इश्क हूँ और दुनिया मुझसे चलती है.....
********************************************************************
. महेंद्रभटनागर
.
ऊहापोह
(जितना भी)
ज़रूरी है।
विचार-विमर्श
हो परिपक्व जितने भी समय में।
.
तत्त्व-निर्णय के लिए
अनिवार्य
मीमांसा-समीक्षा / तर्क / विशद विवेचना
प्रत्येक वांछित कोण से।
.
क्योंकि जीवन में
हुआ जो भी घटित -
वह स्थिर सदा को,
एक भी अवसर नहीं उपलब्ध
भूल-सुधार को।
.
सम्भव नहीं
किंचित बदलना
कृत-क्रिया को।
.
सत्य -
कर्ता और निर्णायक
तुम्हीं हो,
पर नियामक तुम नहीं।
निर्लिप्त हो
परिणाम या फल से।
(विवशता)
.
सिद्ध है —
जीवन: परीक्षा है कठिन
पल-पल परीक्षा है कठिन।
.
वीक्षा करो
हर साँस गिन-गिन,
जो समक्ष
उसे करो स्वीकार
अंगीकार!
महेंद्रभटनागर
(13) तुलना
.
जीवन
कोई पुस्तक तो नहीं
कि जिसे
सोच-समझ कर
योजनाबद्व ढंग से
लिखा जाए / रचा जाए!
.
उसकी विषयवस्तु को —
.
क्रमिक अध्यायों में
सावधानी से बाँटा जाए,
मर्मस्पर्शी प्रसंगों को छाँटा जाए!
.
स्व-अनुभव से, अभ्यास से
सुन्दर व कलात्मक आकार में
ढाला जाए,
शैथिल्य और बोझिलता से बचा कर
चमत्कार की चमक में उजाला जाए!
.
जीवन की कथा
स्वतः बनती-बिगड़ती है
पूर्वापर संबंध नहीं गढ़ती है!
.
कब क्या घटित हो जाए
कब क्या बन-सँवर जाए,
कब एक झटके में
सब बिगड़ जाए!
.
जीवन के कथा-प्रवाह में
कुछ भी पूर्व-निश्चित नहीं,
अपेक्षित-अनपेक्षित नहीं,
कोई पूर्वाभास नहीं,
आयास-प्रयास नहीं!
ख़ूब सोची-समझी
शतरंज की चालें
दूषित संगणक की तरह
चलने लगती हैं,
नियंत्राक को ही
छलने लगती हैं
जीती बाज़ी
हार में बदलने लगती है!
.
या अचानक
अदृश्य हुआ वर्तमान
पुनः उसी तरतीब से
उतर आता है
भूकम्प के परिणाम की तरह!
अपने पूर्ववत् रूप-नाम की तरह!
महेंद्रभटनागर
.
जीवन-भर
अजीबोगरीब मूर्खताएँ
करने के सिवा,
समाज का
थोपा हुआ कर्ज़
भरने के सिवा,
क्या किया?
.
ग़लतियाँ कीं
ख़ूब ग़लतियाँ कीं,
चूके
बार-बार चूके!
.
यों कहें -
जिये;
लेकिन जीने का ढंग
कहाँ आया?
(ढोंग कहाँ आया!)
और अब सब-कुछ
भंग-रंग
हो जाने के बाद —
दंग हूँ,
बेहद दंग हूँ!
विवेक अपंग हूँ!
.
विश्वास किया
लोगों पर,
अंध-विश्वास किया
अपनों पर!
.
और धूर्त
साफ़ कर गये सब
घर-बार,
बरबाद कर गये
जीवन का
रूप-रंग सिँगार!
.
छद्म थे, मुखौटे थे,
सत्य के लिबास में
झूठे थे,
अजब ग़ज़ब के थे!
.
ज़िन्दगी गुज़र जाने के बाद,
नाटक की
फल-प्राप्ति / समाप्ति के क़रीब,
सलीब पर लटके हुए
सचाई से रू-ब-रू हुए जब µ
अनुभूत हुए
असंख्य विद्युत-झटके
तीव्र अग्नि-कण!
ऐंठते
दर्द से आहत
तन-मन!
हैरतअंगेज़ है, सब!
सब, अद्भुत है!
अस्तित्व कहाँ है मेरा,
मेरा बुत है!
अब,
पछतावे का कड़वा रस
पीने के सिवा
बचा क्या?
.
ज़माने को
न थी, न है
रत्ती-भर
शर्म-हया!
महेंद्रभटनागर
.
सूरज,
ओ, दहकते लाल सूरज!
.
बुझे
मेरे हृदय में
ज़िन्दगी की आग
भर दो!
थके निष्क्रिय
तन को
स्फूर्ति दे
गतिमान कर दो!
सुनहरी धूप से,
आलोक से -
परिव्याप्त
हिम / तम तोम
हर लो!
.
सूरज,
ओ लहकते लाल सूरज!
. महेंद्रभटनागर
.
नहीं निराश / न ही हताश!
सत्य है -
गये प्रयत्न व्यर्थ सब
नहीं हुआ सफल,
किन्तु हूँ नहीं
तनिक विकल!
.
बार-बार
हार के प्रहार
शक्ति-स्रोत हों,
कर्म में प्रवृत्त मन
ओज से भरे
सदैव ओत-प्रोत हो!
.
हो हृदय उमंगमय,
स्व-लक्ष्य की
रुके नहीं तलाश!
भूल कर
रुके नहीं कभी
अभीष्ट वस्तु की तलाश!
हो गये निराश
तय विनाश!
हो गये हताश
सर्वनाश!
महेंद्रभटनागर
.
जीवन जीना —
दूभर - दुर्वह
भारी है!
मानों
दो - नावों की
विकट सवारी है!
.
पैरों के नीचे
विष - दग्ध दुधारी आरी है,
कंठ - सटी
अति तीक्ष्ण कटारी है!
.
गल - फाँसी है,
हर वक़्त
बदहवासी है!
भगदड़ मारामारी है,
ग़ायब
पूरनमासी,
पसरी सिर्फ़
घनी अँधियारी है!
.
जीवन जीना
लाचारी है!
बेहद भारी है!
महेंद्रभटनागर
.
दौड़ रहा हूँ
बिना रुके / अविश्रांत
निरन्तर दौड़ रहा हूँ!
दिन - रात
रात - दिन
हाँफ़ता हुआ
बद-हवास,
जब -तब
गिर -गिर पड़ता
उठता,
धड़धड़ दौड़ निकलता!
लगता है -
जीवन - भर
अविराम दौड़ते रहना
मात्रा नियति है मेरी!
समयान्तर की सीमाओं को
तोड़ता हुआ
अविरल दौड़ रहा हूँ!
.
बिना किये होड़ किसी से
निपट अकेला,
देखो —
किस क़दर तेज़ — और तेज़
दौड़ रहा हूँ!
.
तैर रहा हूँ
अविरत तैर रहा हूँ
दिन - रात
रात - दिन
इधर - उधर
झटकता - पटकता
हाथ - पैर
हारे बग़ैर,
बार - बार
फिचकुरे उगलता
तैर रहा हूँ!
यह ओलम्पिक का
ठंडे पानी का तालाब नहीं,
खलबल खौलते
गरम पानी का
भाप छोड़ता
तालाब है!
कि जिसकी छाती पर
उलटा -पुलटा
विरुद्ध - क्रम
देखो,
कैसा तैर रहा हूँ!
अगल - बगल
और - और
तैराक़ नहीं हैं
केवल मैं हूँ
मत्स्य सरीखा
लहराता तैर रहा हूँ!
लगता है -
अब, ख़ैर नहीं
कब पैर जकड़ जाएँ
कब हाथ अकड़ जाएँ।
लेकिन, फिर भी तय है µ
तैरता रहूंगा, तैरता रहूंगा!
क्योंकि
ख़ूब देखा है मैंने
लहरों पर लाशों को
उतराते ... बहते!
.
कूद - कूद कर
लगा रहा हूँ छलाँग
ऊँची - लम्बी
तमाम छलाँग-पर-छलाँग!
दिन - रात
रात - दिन
कुंदक की तरह
उछलता हूँ
बार - बार
घनचक्कर-सा लौट -लौट
फिर - फिर कूद उछलता हूँ!
.
तोड़ दिये हैं पूर्वाभिलेख
लगता है —
पैमाने छोटे पड़ जाएंगे!
उठा रहा हूँ बोझ
एक-के-बाद-एक
भारी — और अधिक भारी
और ढो रहा हूँ
यहाँ - वहाँ
दूर - दूर तक —
इस कमरे से उस कमरे तक
इस मकान से उस मकान तक
इस गाँव-नगर से उस गाँव-नगर तक
तपते मरुथल से शीतल हिम पर
समतल से पर्वत पर!
.
लेकिन
मेरी हुँकृति से
थर्राता है आकाश - लोक,
मेरी आकृति से
भय खाता है मृत्यु-लोक!
तय है
हारेगा हर हृदयाघात,
लुंज पक्षाघात
अमर आत्मा के सम्मुख!
जीवन्त रहूंगा
श्रमजीवी मैं,
जीवन-युक्त रहूंगा
उन्मुक्त रहूंगा!
महेंद्रभटनागर
.
यह
आदमी है —
हर मुसीबत
झेल लेता है!
विरोधी आँधियों के
दृढ़ प्रहारों से,
विकट विपरीत धारों से
निडर बन
खेल लेता है!
.
उसका वेगवान् अति
गतिशील जीवन-रथ
कभी रुकता नही,
चाहे कहीं धँस जाय या फँस जाय;
अपने
बुद्धि-बल से / बाहु-बल से
वह बिना हारे-थके
अविलम्ब पार धकेल लेता है!
.
यह
आदमी है / संयमी है
आफ़तें सब झेल लेता है!
सुनील गज्जाणी
किस नयन तुमको निहारू,
किस कण्ठ तुमको पुकारू,
रोम रोम में तुम्ही हो मेरे,
फिर काहे ना तुम्हे दुलारू,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ।
प्रतिबिम्ब मै या काया तुम,
दोनो मे अन्तर जानू,
हॉं, हो कुछ पंचतत्वो से परे जग में,
फिर मै धरा तुम्हे माटी क्यू ना बतलाऊ,
सुनो! तुम तिलक मै ललाट बन जाऊ,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ॥
बैर-भाव, राग द्वेष करू मै किससे,
मुझ में जीव तुझ में भी है आत्मा बसी,
पोखर पोखर सा क्यूं तू जीए रे जीवन,
जल पानी, जात-पात मे मै भेद ना जांनू,
हो चेतन, तुझे हिमालय, सागर का अर्थ समझाऊ,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ॥।
विलय कौन किसमे हो ये ना जानू,
मेरी भावना तुझ में हो ये मै मानू,
बजाती मधुर बंषी पवन कानो में हमारे,
शान्त हम, हो फैली हर ओर शान्ति चाहूं,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ॥।
..................................
सुनील गज्जाणी
सुथारों की बड़ी गुवाड़,
बीकानरे।
सुनील गज्जाणी
सपेरा, मदारी खेल नट-नटनी का,
बतलाओ जरा कहां आता है नजर ?
खेल बच्चो का सिमटा कमरो में अब,
बलपण को लगी कैसी ये नजर ।
वैदिक ज्ञान, पाटी तख्ती, गुरू शिष्य अब,
किस्सो में जाने सिमट गए इस कदर,
नैतिकता, सदाचार अब बसते धोरो मे,
फ्रेम में टंगा बस आदमी आता है नजर।
चाह कंगुरे की पहले होती अब क्यूं,
धैर्य, नींव का कद बढ़ने तक हो जरा,
बच्चा नाबालिग नही रहा इस युग में,
बाल कथाएं अब कही सुनता आया है नजर।
अपने ही विरूद्ध खडे किए जा रहा,
प्रष्न पे प्रष्न निस्त्तर जाने मै क्यूं,
सोच कर मुस्कुरा देती उसकी ओर
सच्च, मेरे लिए प्यार उसमें आता है नजर।
दिन बहुत गुजरे शहर सूना सा लगे
चलो फिर कोई दफन मुद्दा उठाया जाए,
तरसते दो वक्त रोटी को वे अक्सर
सेकते रोटियां उन पे कुर्सिया रोज आती है नजर।
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