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Monday, November 17, 2008

कबीर का सच

प्रो० रामदेव शुक्ल
आधुनिकता का एक शौक है, प्रत्येक सृजन की प्रासंगिकता की तलाश। मनोरंजक प्रश्न हो सकता है कि प्रासंगिकता की प्रासंगिकता क्या है? जो बात, विचार या वस्तु अभी हमारे लिए अतिउपयोगी अर्थात्‌ अतिप्रासंगिक दीख रही है, क्या पहले भी इसी रूप में स्वीकृत होने का उसका इतिहास है? जिसे हम क्लासिकल सृजन के रूप में शिरोधार्य करते हैं, उसका इतिहास तो प्रायः बताता है कि समकालीन विचारकों में उसे अप्रासंगिक सिद्ध करने की होड़ लगी हुई थी। इसका उल्टा भी होता आया है। जो एक समय प्रासंगिक माना गया, उसे आने वाले समय ने अप्रासंगिक करार देकर ठुकरा दिया। क्लासिक की प्रासंगिकता आने वाले प्रत्येक नये सन्दर्भ में, युग में, नये सिरे से रेखांकित की जाती रही है। कम होने के स्थान नर वह बढ़ती चली जाती है। वह क्या है जो हर पीढ़ी को अपना लगता है?कबीर कहते हैं - ''सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।/जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप॥''सच्चा होना, सच्चा बने रहना, इससे बढ़कर कोई तप नहीं है।

सच (सत्य) की दार्शनिक व्याख्या और परिभाषा और भी जटिल है। सत्य का मुख हिरण्यमय पात्र से आवृत रहता है। ईशावास्योपनिषद की इस घोषणा को लेकर कामायनी के इस कथन-सत्य ! आह ! यह एक शब्द ! तू कितना बड़ा हुआ है !/मेधा के क्रीड़ा-पंजर का पाला हुआ सुवा है। तक को ध्यान में रखें तो इस पर सोचने की हिम्मत नहीं होगी। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में जब सत्य को मेधा के खेल का पिंजरबद्ध तोता कहा था, तब उनकी कल्पना में यह कहाँ था कि राष्ट्रीय सम्पत्ति हजम कर जाने वाले अक्षम्य अपराधी उनके हित में खड़े वकीलों की सत्यक्रीड़ा के बल पर पलभर में छूट जाते हैं।अतः कबीर या किसी मध्यकालीन संत के सन्दर्भ में 'सच' या 'साँच' पर विचार करें तो मेधा के खेल से दूर रहकर ही करें। संतों का 'सच' खेल नहीं है, चाहे बुद्धि-वैभव का ही क्यों न हो। वह सच एक ओर शिशु का सच है जो सच के अतिरिक्त कुछ जानता ही नहीं, तो दूसरी ओर उस साहसी शूर का सच है, जिस पर चलकर वह हँसते-हँसते अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देता है। वह 'सच' इतना बड़ा है कि उसके बाहर कुछ है ही नहीं। जो 'सच' से इतर है, उसका अस्तित्व सम्भव नहीं। तब आज जो जगत्‌-व्यवहार झूठ पर ही चल रहा है, उसका क्या करें ? जरा सा सावधान होकर विचार करें, तो इसे 'मिथ्या-व्यवहार' का रहस्य खुल जायेगा। पहली बात तो यह कि 'सत्य और असत्य' ये दो स्थितियाँ नहीं होतीं। असत्य तो हो ही नहीं सकता, जो हो सकता है, वह केवल 'सच' ही होगा। इसी अर्थ में आदि शंकराचार्य ने ब्रह्म के अतिरिक्त सब कुछ को 'मिथ्या' कहा। ध्यातव्य है 'मिथ्या' कहा, 'असत्य' नहीं। 'मिथ्या' शब्द बड़े काम का है। 'मिथ्या' उस 'वस्तु या प्रतीति' को कहते हैं, जो जिस रूप में सच है, उससे भिन्न रूप में दिखाई दे रहा है। इसके परम्परागत उदाहरण रज्जु-सर्प, मृगवारि आदि हैं। आज की सुपरिचित उदाहरण सिनेमाटोग्राफी का है। पर्दे पर जो दिखाई पड़ रहा है, वह वही नहीं है, जिस रूप में वह हर समय हो रहा है। हमारी दृष्टिक्षमता की विशेषता यह है कि जो बिम्ब एक सेकेंड में बीस या उससे अधिक बार हमारी आँखों के सामने से गुजरेगा, उसे अनवरत रूप में ही हमारा मस्तिष्क ग्रहण करेगा। यह प्राकृतिक नियम जिसने समझ लिया, वह इस विज्ञान का आविष्कारक हो गया। सिनेमा निर्माता की कृति को देखकर दर्शक भावविभोर होकर रोता, हँसता है। जिस पात्र को ईश्वरावतार राम, कृष्ण के रूप में देखकर भोले दर्शक श्रद्धाभिभूत में रह जाते हैं, उसी समय वह अभिनेता कहीं बैठा शराब पी रहा होता है या किसी दूसरी फिल्म में किसी की हत्या कर रहा होता है।
यह सारा जगत्‌ प्रपंच इसी तरह चलता है। जो 'है' वह दिखता नहीं, जो दिखता है, वह 'हो' नहीं सकता। उसका होना सम्भव नहीं है। उसे सम्भव बनाती है टेक्नॉलाजी। मध्यकालीन शब्द 'माया'।कबीर का एक दोहा है - ''माया ते मन ऊपजे, मन ते दस अवतार।/बरमा बिसनू के धोखे में, भरम परा संसार॥''

संतो की दृष्टि में माया पर विचार करते हुए शोधकर्त्ताओं ने बहुत कुछ लिखा है। उस घटाटोप को छोड़ दें तो उपर्युक्त दोहे के आधार पर देखा जा सकता है कि कबीर माया को ही सब कुछ उत्पन्न करने वाली मानते हैं। सांख्य दर्शन माया को 'प्रसवधर्मिणी' मानकर कहता है कि सत्य, रजस्‌ तमस तीनो एकत्र होकर कार्यसम्पादन करते हैं।१ कबीर मानते हैं कि सारी सृष्टि माया से उत्पन्न हुई है। वे इसकी प्रक्रिया भी बताते हैं कि माया ने सबसे पहले 'मन' को उत्पन्न किया। इसी 'मन' से दस अवतार उत्पन्न हुए। संसार के सामान्य लोग इस धोखे में पड़े हुए हैं कि इस संसार को ब्रह्मा और विष्णु ने बनाया। अवतार की अवधारणा पर विचार करने वाले लोग भी यह मानते हैं कि मनुष्य अपने को ही सामने रखकर ईश्वर की कल्पना करता है। सौन्दर्य, शक्ति और शील के प्रति सभी आकृष्ट होते हैं। इन तीनों का परम उत्कर्ष जिस काल्पनिक 'व्यक्ति' में एकत्र दिखाई देता है, उसी को परमात्मा मान लिया जाता है। मनुष्य के 'मन' द्वारा सीमित अवतार मनुष्य रूप होते हैं, या भिन्न होकर भी कार्य मनुष्य के समान ही करते हैं। इसी सन्दर्भ में एक यूनानी दार्शनिक का कहना है कि यदि हम घोड़ों की भाषा और उनकी ईश्वर सम्बन्धी अवधारणा को समझ पाते तो जानते कि उनका ईश्वर एक सुन्दर शक्तिशाली घोड़ा है।
मन द्वारा सृष्टि-रचना को प्रायः संत और अधिकांश भक्त कवियों ने अपनी अपनी शैली में वर्णित किया है। तुलसीदास 'विनय पत्रिका' में कहते हैं - ''जौ निज मन परिहरे विकारा।/तौ कत द्वैतजनित संसृति दुख संशय शोक अपारा।/विटप मध्य पुतरिका, सूत मँह कंचुक बिनहिं बनाए।/मन मँह तथा लीन नाना तनु प्रकटत अवसर पाए॥''
वृक्ष की लकड़ी में सभी आकार छिपे होते हैं, जब जैसा चाहता है, बढ़ई उसमें से निकाल लेता है। सूत में सभी प्रकार के वस्त्रा छिपे हैं, बुनकर और दर्जी उसे जब जो रूप चाहें, दे देते हैं। उसी प्रकार 'मन' में अगणित शरीर छिपे रहते हैं। अगाध अथाह मन जब जैसा शरीर चाहे प्रकट कर लेता है। मनुष्य मन की इच्छा से ही सक्रिय होता है।
कबीर अन्यत्र 'माया' और 'मन' को एक बताते हुए 'मन' की अनन्तता, अगधता की बात कहते हैं - ई मन चंचल, ई मन चोर, ई मन सुद्ध ठगहार।/मन मन करते सुर नर मुनि जँहड़े, मन के लच्छ दुवार॥यह मन चंचल है, यह मन चोर है, यह मन शुद्ध ठगी करने वाला है। सुर, नर, मुनि मन-मन करते जकड़े हुए हैं, जबकि मन के लाखों द्वार हैं। यहाँ 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः' की व्याख्या देखी जा सकती है। सुर, नर, मुनि जिस मन के कारण जकड़े हुए हैं, उसी मन के लाखों द्वार भी हैं - मन माया तो एक है, माया मनहि समाय।/तीन लोक संसय परी, मैं काहि कहौं समुझाय॥
माया न सिर्फ मन की सृष्टि करती है, बल्कि वह मन से अभिन्न है। मन की रचना करके माया उसी में समा जाती है। इसी कारण तीनों लोकों के प्राणी संशय में पड़े रहते हैं। मैं किस-किस को इस संशय अर्थात्‌ माया-रचित सृष्टि का रहस्य समझाऊँ ?एक अन्य रूपक में कबीर मन को अगाध सागर और मनसा अर्थात्‌ इच्छाओं को लहरें बताते हुए कहते हैं कि अधिकांश तो डूब ही जाते हैं, वही तैर पाता है, जिसके हृदय में विवेक जाग्रत रहता है - मन सागर, मनसा लहरि, बूड़े बहुत अचेत।/कहैं कबीर ते बाँचि है, जाके हृदय विवेक॥
जगत संशयग्रस्त होकर खण्डित हो जाता है। संशय का खंडन कोई नहीं कर सकता है, संशय का खण्डन वही कर सकता है, जो शब्दविवेकी हो - संशय सब जग खण्डिया, संसय खण्डे कोय।/संशय खण्डे सो जना, जो सबदविवेकी होय॥
गुरुकृपा से संशय खण्डित करने वाला शब्दविवेक हो जाने पर जब सच का बोध हो जाता है, तब पता चलता है कि सारा जगत प्रपंच झूठा है। सभी लोग इसी झूठ के जाल में उलझे हुए हैं और मान रहे हैं कि वे ही ठीक हैं। कबीर बताते हैं कि - झूठ बँधायो आना, झूठी बात साँच कै जाना।/धंधे बंध कीन्हें बहुतेरा करम बिवरजित रहै न नेरा॥/खट आस्रम खट दरसन कीन्हां। खटरस बांटि करम संगि दीन्हां॥/चार वेद छ सास्त्रा बखानै। विद्या अनंत कथे को जाने॥/तप तीरथ कीन्हें ब्रत पूजा। धरम नेम दान पुनि दूजा॥/और अगम कीन्हें बेवहारा। नहिं गमि सूझै वार न पारा॥/माया मोह धन जोबना, इनि बंधे सब लोई॥/झूठै झूठै बेयापिया, अलख न लखई कोइ॥
माया, मोह, धन, यौवन इन्हीं को सच मानकर लोग भ्रम में पड़े हुए हैं, झूठ ही झूठ सर्वत्र व्याप्त हो गया है, जिस परम सत्य को, अलख को देखने से झूठ का यह फंदा कट जायेगा, उसे देखने का प्रयत्न कोई नहीं करता।ब्रह्म, जीव, माया, जगत्‌ इन सब पर संतसाहित्य में गंभीर विचार के लिए पूरी सामग्री भरी पड़ी है और शोधकर्त्ता बहुत कुछ लिखते पढ़ते रहते हैं।

संत साहित्य में, विशेषतः कबीर-बानी में अवगाहन करने पर एक बात का पक्का निश्चय हो जाता है कि वहाँ पुस्तकाधारित ज्ञान को महत्त्व नहीं दिया गया है, इसीलिए ब्रह्म, जीव, माया आदि का तात्विक विवेचन करने के लिए अलग से कुछ नहीं कहा गया है। कबीर की चिन्ता यह नहीं है कि लोग उन्हें ज्ञानी के रूप में जानें और मानें। कबीर की चिन्ता के केन्द्र में है, सामान्यजन, जो एक ओर अज्ञान के कारण झूठ की चक्की में पीसा जा रहा है और दूसरी ओर काजी, मुल्ला, पंडा, पुरोहित के जाल में उलझाया जाकर दम तोड़ रहा है। कबीर सबको ज्ञानी बनाने का संकल्प करके भी नहीं चल रहे थे। उनका उद्देश्य, मात्र इतना था कि इन दो पाटों के बीच पीसी जा रही साधारण जनता को काजी-मुल्ला, पंडा-पुरोहित द्वारा फैलाए गये अज्ञान से मुक्त कराकर सच्चाई से जोड़ दें। इसीलिए वे ब्रह्म जीव, माया आदि का रहस्य सामान्यजन को बताते चल रहे थे, उन्हीं की बोली बानी में। उन्हीं के घरेलू उपकरणों का प्रयोग करके उन्हें समझा रहे थे।
मूर्तिपूजा की व्यर्थता बताने के लिए वे दरिद्र से दरिद्र किसान मजूर के घर की चक्की का उपयोग करके अपनी बात कहते हैं - पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजूं पहार।/घर की चाकी काहे न पूजे, जासे पीस खाय संसार॥
औसत आदमी छल कपट करता हुआ जो चतुराई करता रहता है, उसे कबीर जला देना चाहते हैं - जारौं मैं या जग की चतुराई।/माया जोरि कै करै इकट्ठी, हम खैहें लरिका व्यौसाई।/सो धन चोर मूसि लै जइहें, रहा सहा लै जाइ जंवाई॥

अभावग्रस्त परिवारों में जामाता (दामाद) द्वारा ससुराल का दोहन करना गृहस्थ का सामान्य अनुभव है। कबीर कहते हैं कि छल प्रपंच करके जो धन कमाते हो, यह मानकर कि तुम भोगोगे, तुम्हारे बच्चे भोगेंगे, व्यवसाय करेंगे पर होगा यह कि चोर चुरा ले जायेंगे और जो बचेगा, उसे दामाद झटक ले जायेगा। तो जान लो, जिस धन के लिए तुम मनुष्यता छोड़ रहे हो उससे तुम्हें क्या मिलेगा ?जो मुक्ति भारतीय जीवन-पद्धति की सबसे बड़ी उपलब्धि बताई जाती है, उसी अलभ्य मुक्ति का कितना सस्ता सौदा प्रत्येक तीर्थ के पंडे करते है, उससे सबलोग परिचित हैं। किसी तीर्थ में स्नान करने से मुक्ति मिल जाती है, किसी में दान करने से मुक्ति मिल जाती है, किसी में सिर मुड़ाने से मिल जाती - इन सर्वथा झूठ बातों का प्रचार करके तीर्थपुरोहित साधारणजन का धन लूटते हैं। कबीर पूछते हैं, उसी गँवई किसान की भाषा में, कि सिर मुड़ाने से भगवान की प्राप्ति होती है, तो बार-बार मूड़ी जा रही भेड़ क्यों नहीं हरि को प्राप्त कर लेती ? जैसे - मूड़ मुड़ाये हरि मिले, तो सब कोई लेइ मुड़ाय।/बार बार के मूड़ते, क्यों भेड़ न बैकुंठ जाय॥

कबीर के ऐसे कथन लोक में बहुत प्रचलित हैं। इनका उल्लेख मैं इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि आप सबको इनसे परिचित कराना चाहता हूँ। परिचित तो आप हैं ही, इनका स्मरण करके मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि जो कबीर का सच है, जिसे वे सबसे बड़ा तप कहते हैं, वह दार्शनिक विवेचन से, शास्त्रार्थ से, तर्क से सिद्ध किया हुआ सत्य नहीं है। कबीर का सच शास्त्रज्ञान से अर्जित नहीं है। वह रोटी कपड़े के लिए संघर्ष कर रही जनता के दुख दर्द को हृदयंगम करने से उत्पन्न अनुभव के ताप से, आग में तपने से पाया हुआ सच है। इस सन्दर्भ में सर्वपल्ली डॉ० राधाकृष्णन की एक स्थापना स्मरणीय है। उनका मानना है कि शंकराचार्य तथा उनके परवर्ती आचार्यों के गंभीर दार्शनिक तत्त्वचिन्तन पांडित्य और तर्क की दृष्टि से अप्रतिम हैं किन्तु सामान्यजन द्वारा वे कभी गृहीत नहीं हो सके।२

इस बात को स्मरण रखना चाहिए कि कबीर और परवर्ती संतों ने, दार्शनिकों, धर्माचार्यों और शास्त्रविचक्षण पण्डितों का हमेशा मखौल उड़ाया है, क्योंकि उनकी कथनी और करनी में फर्क होता है।कबीर के सम्बन्ध में सदैव स्मरणीय तथ्य है कि वे सामान्यजन को मोहजाल से निकालने के लिए उन्हीं की बोली-बानी में, उन्हीं के मुहावरों-प्रतीकों में समझाते जरूर हैं, पर कभी न उन्हें फटकारते हैं, न उनका उपहास करते हैं, न उनको चुनौती देते हैं। कबीर सामान्यजन के बीच के हैं, उनके सुख-दुख परिचित हैं। उनको मोहजाल में फँसाए रखने वाले मुल्लामौलवी, पंडितपुरोहितों की असलियत अच्छी तरह जानते समझते हैं, इसलिए धर्म का धन्धा करने वाले आचरणभ्रष्ट मुल्लामौलवी और पंडेपुरोहितों को फटकारते भी हैं, उनका मखौल भी उड़ाते हैं और उनके ज्ञान को सदा चुनौती भी देते हैं - संतो राह दुहू हम दीठा।/हिन्दु तुरक हटा नहिं मानें, स्वाद सबन को मीठा॥/हिन्दु बरत एकादसि साधे, दूध सिंघारा सेती।/ .../इनको विहिस्त कहाँ से होवे, जो साँझे मुरगी मारे॥/हिन्दु की दया, मेहर तुरूकन की, दोनों घट से त्यागी।/ई हलाल, वे झटका मारें, आग दुनों घर लागी॥/हिन्दू तुरूक की एक राह है, सतगुरु सोई लखाई।/कहहि कबीर सुना हो सन्तों, राम न कहूँ खुदाई॥

सुगौती भोजपुरी में बकरे के माँस को कहते हैं। एकादशी के व्रत में दूध सिघाड़े का फलाहार करने वाले व्रत का पारण माँसाहार से करते हैं। मुल्ला जी अगले दिन रोजा रखने के लिए शाम को ही मुरगी हलाल करते हैं। दोनों स्वाद के गुलाम हैं, इंद्रियों के दास हैं - संतो पांड़े निपुन कसाई।/बकरा मारि भैंसा पै धावें, दिल में दर्द न आई।/करि असनान तिलक दै बैठें, विधि सों देव पुजाई।/ .../इन्हते दीक्षा सब कोई माँगे, हँसी आवै मोंहि भाई।/पाप कटन को कथा सुनावें, कर्म करावे नीचा।/हम तो दुवौ परस्पर देखा, जम लाए हैं धोखा।/गाय बधें से तुरूक कहिए, इनते वै क्या छोटे।/कहहिं कबीर सुनो हो संतो, कलि में बाभन खोटे॥वेद पुराण और कुरान का चाहे जितना पाठ करें, यदि आचार शुद्ध नहीं, तो नरक में जाना निश्चित - पंडित बेद पुराण पढ़ैं सब, मुसलमान कुराना।/कहें कबीर दोउ गए नरक में, जिन हरदम राम न जाना॥कसाई का काम करने वाले पंडित से वे कहते हैं - पंडित एक अचरज बड़ होई।/एक मरि मुए अन्न नहिं खाई, एक मरे सिझै रसोई।/करि असनान देवन की पूजा, नौ गुन कान्ह जनेऊ।/हँड़िया हाड़, हाड़ थरिया मुख, अब षटकरम बनेऊ।/धरम करे जहाँ जीउ बधतु है, अकरम करे मोर भाई।/जो तोहरा के बाभन कहिए, तो का को कहिए कसाई।

ऐसे क्रूरकर्मी ब्राह्मणों के प्रति जनसामान्य के मन में व्याप्त घृणा की यह अभिव्यक्ति है। ऐसा सोचा जाना अप्रासंगिक नहीं होगा कि आगे चलकर एक अति समर्थ कवि तुलसीदास को एक साथ कई मुद्दों पर लड़ना पड़ा। एक मुद्दा निर्गुण-सगुण का है। तुलसीदास घोषित करते हैं कि अगुनहि सगुनहिं नहिं कछु भेदा, उभय हरहि भव संभव खेदा।' किन्तु रामचरित मानस के उत्तरकांड में गरुण के मोह प्रसंग में मोहग्रस्त ज्ञानियों की चर्चा करते हुए कहते हैं - जे मतिमलिन विषयबस कामी। प्रभु पर मोह धरहिं इमि स्वामी॥/नयनदोष जा कँह जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई॥/जब जेहि दिसि भ्रम होई खगेसा। सो कह पच्छिम उगेउ दिनेसा॥/नौकारूढ़ चलत जग देखा। अचल मोहबस आपुहि लेखा॥/बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी। कहहि परसपर मिथ्यावादी॥/हरि विसइक अस मोह विहंगा। सपनेहुँ नहि अज्ञान प्रसंगा॥/मायाबस मतिमंद अभागी। हृदय जमनिका बहुविधि लागी॥/तो सठ हठबस संसय करहीं। निज अज्ञान राम पर धरहीं॥दूसरा दोहा देखिए - काम क्रोध मद लोभरत, गृहासक्त दुख रूप।/ते किमि जानहि रघुपतिहि, मूढ़ परे तम कूप॥/निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुन न जानहि कोइ।/सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनिमन भ्रम होइ॥३

मतिमलिन, विषयवश, कामी, मायावश, मतिमंद, अभागी, मिथ्यावादी, काम, क्रोध, मद, लोभरत, गृहासक्त, दुखरूप, मूढ़, तमकूप में पड़े हुए-ये विशेषण उन लोगों के लिए हैं, जो दशरथसुत राम के प्रति किसी तरह का संशय करते हैं। यहाँ कबीर का कथन स्मरण कर लेना चाहिए, दसरथ सुत तिहुलोक बखाना, रामनाम का मरम है आना। मानस के बालकाण्ड में सती को इसी तरह का भ्रम हुआ था कि पत्नी-वियोग में रुदन करने वाले राम परात्पर ब्रह्म कैसे हो सकते हैं? शिव ने उन्हें अज्ञानग्रस्त देखकर कह दिया कि जाकर परीक्षा ले लें। वे सीता का रूप धारण कर गयीं। राम ने उन्हें माता कहकर प्रणाम किया। शिव ने प्रतिज्ञा कर ली कि एहि तन सतिहि भेंट अब नाहीं। ठीक इसी तरह का भ्रम लंका के युद्धक्षेत्र में नागपाश काटने वाले गरुण को हो गया। भ्रम का निवारण काकभुशुंडि जी ने किया, यह बताकर कि उनसे भी इस तरह का प्रमाद हो गया था।
सन्दर्भ-
ग्रन्थ
१. सांख्य कारिका, १२, १३, २२
२. इण्डियन फिलॉस्फी, भाग-२, पृ० २२४-२५
३. उत्तरकांड, दो०, ९३

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