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Sunday, October 24, 2010

लोकायतन’ में युगबोध की परिकल्पना

डा. सुनील कुमार

कविवर सुमित्रानन्दन पन्त हिन्दी के एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविता का स्वरूप एवं स्वर समय के साथ बदलता रहा। पंत काव्य के क्रमिक विकास का चतुर्थ चरण ‘नवमानवतावादी’ कविताओं का युग है। इसी युग में उनका महाकाव्य लोकायतन (1961 ई.) प्रकाशित हुआ। साधना के पथ पर सतत् अग्रसर होकर इस कवि ने अपनी प्रतिभा, कल्पना और अनुभूति के माध्यम से जो रचनाएँ प्रस्तुत की उनमें युग का स्पंदन है और युग की अनुभूति है।

साहित्यकार सामाजिक-युग चेतना से प्रभाव ग्रहण करने वाला प्राणी है। उसका समस्त व्यक्तित्व युगीन परिस्थितियों की देन होता है।1 पंत जी का महाकाव्य ‘लोकायतन’ युगबोध की सफल अभिव्यक्ति है। राजनीतिक दाँव-पेंच, साम्प्रदायिकता, धा£मक आडम्बरों, सामाजिक कुरीतियों, आ£थक विषमताओं, मानवहित-चिंतन, शोषितों के प्रति सहानुभूति आदि युगीन सारी सामाजिक भावनाओं को इस महाकाव्य में अभिव्यक्ति प्रदान की गई है। यही सत्य है कि ”साहित्यकार केवल अपनी जिं़दगी नहीं जीता, अपने समाज और अपने समय की ज़िन्दगी को भी प्रतिबिंबित करता है तथा दूसरी ओर अपने समय और परिवेश में से उस तत्त्व को भी उपलब्ध और अभिव्यक्त करता चलता है, जो शाश्वत है।“2

वास्तव में अंधविश्वासों और रूढ़िवादी परम्पराओं ने मानव समाज में भयावह स्थिति उत्पन्न कर दी है। धर्म और सम्प्रदाय की संकीर्ण दीवारों को लांघे बिना नवीन मानव-समाज की स्थापना संभव नहीं है। कवि पंत पुरातनता, रूढ़िवादिता एवं निष्क्रिय मान्यताओं के प्रति तीव्र आक्रोश व्यक्त करते हैं- ”भारत-मस्तक का कलंक यह/जाति-पातियों मं जन खण्डित/जहाँ मनुज अस्पृश्य चरण-रज/राष्ट्र रहे वह कैसे जीवित।’’3 कवि ने एक ऐसे युग की आवश्यकता पर बल दिया, जिसमें वर्गभेद कम हों, जीवन की मूलभूत सुविधाएँ सर्वजन सुलभ हों। वास्तव में मानव-समाज के लिए जाति-पाति का भेदभाव व्यर्थ है। पंत जी एक नव्य सामाजिक क्रांति का आह्वान करते हुए कहते हैं- ‘‘सामाजिक क्रांति अपेक्षित/भारत जन के मंगल हित/हो जाति-वर्ण मंे बिखरी/चेतना राष्ट्र में केन्द्रित।“4

कोई भी कवि या साहित्यकार अपने समाज और अपनी परिस्थितियों से गहन एवं व्यक्तिगत रूप से जुड़ा होता है क्योंकि कवि होने के साथ-साथ वह एक सामाजिक प्राणी भी होता है; समाज की उन्नति की ओर अग्रसर होती हुई एक शक्ति भी होता है। यही कारण है कि समाज की एक स्पन्दनशील इकाई होने के नाते यह उसका दायित्व बन जाता है कि जिस समाज में उसका जन्म हुआ है, उसका आभास उसके साहित्य में मिलना ही चाहिए क्योंकि उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व उन्हीं परिस्थितियों और समाज की धरोहर होता है।

कवि नये युग की स्थापना के लिए आत्मविस्तार और मानवीय एकता का प्रबल समर्थन करते हैं- ”मनुज एकता की नव युग आत्मा/महन्त-धरा जीवन में ही स्थापित/जाति-धर्म-वर्णों से कढ़ भू-मन/लांघ राष्ट्र-सीमा - हो दिंग् विस्तृत।“5

छायावादी कवियों ने नारी को सम्मान देते हुए उसे प्रेरक शक्ति माना है। पंत भी उसे ”देवि, मां, सहचरि, प्राण’’ सम्बोधन देकर उसे गौरव प्रदान करते हैं। कवि का विचार है कि जब स्त्री निर्भय होकर धरा पर विचरण करेगी, तब जन-भू जीवन सरस एवं प्रश्न

शेष भाग पत्रिका में..............




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