विपत्ति-ग्रस्त
डा. महेंद्र भटनागर
बारिश
थमने का नाम नहीं लेती,
जल में डूबे
गाँवों-क़स्बों को
थोड़ा भी
आराम नहीं देती!
सचमुच,
इस बरस तो क़हर ही
टूट पड़ा है,
देवा, भौचक खामोश
खड़ा है!
.
ढह गया घरौंधा
छप्पर-टप्पर,
बस, असबाब पड़ा है
औंधा!
.
आटा-दाल गया सब बह,
देवा, भूखा रह!
.
इंधन गीला
नहीं जलेगा चूल्हा,
तैर रहा है चैका
रहा-सहा!
.
घन-घन करते
नभ में वायुयान
मँडराते
गिद्धों जैसे!
शायद,
नेता
मंत्री आये
करने चेहलक़दमी,
उत्तर-दक्षिण
पूरब-पश्चिम
छायी
ग़मी-ग़मी!
अफ़सोस
कि बारिश नहीं थमी!
4 comments:
बहुत अच्छी कविता। सच में नेताओं के उड़न खटोले गिद्धों से कम नहीं।
बहुत सुन्दर..आनन्द आ गया.
बहुत सुंदर लिखा है।
Maine aapke blog ko bookmark ka liya hai...aapke blog par bahut achchhi jankari milti hai....
Bahut sundar kavita....
Regards
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