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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Thursday, January 22, 2009

दंगे-फसाद कुछ लोगों के बनाये भ्रम हैं : एक साधारण होटल वाला



डॉ. मेराज अहमद
सबसे पहले आप अपना नाम और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में थोड़ा-सा बतायें?
मेरा नाम चन्द्र प्रकाश है उम्र पचास-पचपन के बीच है। मैं आगरा में पैदा हुआ और मेरी तीन बेटियाँ हैं और एक बेटा है।
आप काम क्या करते है?
मैं एक होटल चलाता हूँ। यही साधारण-सा चाय पानी का।
कब से?
३५ साल हो गए।
आपने पढ़ाई कितनी की है?
मैंने इंटर किया है।
कहाँ से?
आगरा बी.आर. कालेज से किया है।
उसमें पढ़ने-लिखने में आपकी रुचि थी?
हाँ, मेरी बहुत अच्छी परसेंटेज रही है। मैंने डिप्लोमा इंजीनियरिंग भी किया है।
डिप्लोमा इंजीनियरिंग भी किया लेकिन होटल के व्यवसाय में आ गये तो क्या इससे संतुष्ट हैं?
हाँ, अब तो जीवन कट ही रहा है समय ही कितना बचा है? रोजी-रोटी चल ही रही है।
क्या मन में कसक उठती है कि पढ़ाई की और नौकरी नहीं मिली?
नौकरी की थी रेलवे में लेकिन बीमार हो गया इसलिए छूट गई।
बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में रुचि?
बहुत है। बड़ी बच्ची मेरी सऊदी अरब में वहाँ इंटरनेशनल कॉन्वेन्ट में पढ़ाती है। दूसरी भी एम.ए. के बाद शादी हो गई, तीसरी एम.ए. कर चुकी है। बी.एड. की तैयारी कर रही है।
बेटे?
बेटा मेरा इंजीनियरिंग कर रहा है।
आपने अपने बच्चों के अलावा परिवार के दूसरे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के बारे में क्या सोचते हैं?
पढ़ाई-लिखाई बहुत जरूरी है। मेरा तो मानना है कि आधे पेट खाकर बच्चों को पढ़ाना-लिखाना चाहिए।
क्या भविष्य में चाहेंगे कि आपके घर-परिवार के बच्चे इसी व्यवसाय में आयें?
कभी नहीं चाहेंगे।
क्यों नहीं चाहेंगे?
क्योंकि इसमें शांति नहीं है। इसके अलावा दूसरी तरफ देखने का मौका नहीं मिलता है।
आपको ऐसा नहीं लगता कि अगर वह दूसरे पेशे में होगा तो सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक होगी?
बिल्कुल, पढ़ने-लिखने के बाद तो कुछ भी कर सकता है। देखिए, पढ़ाई के बल पर आज मेरी बच्ची बाहर है।
क्या आपको बच्ची का उल्लेख करके गौरव की अनुभूति होती है?
बहुत खुशी होती है साहब, बयान नहीं कर सकते हैं।
क्या पढ़ने-लिखने में रुचि है, यानी पुस्तक, अखबार और पत्रिाकाएँ बगैरह पढ़ते हैं?
पढ़ता तो प्रतिदिन हूँ। अखबार-अमर उजाला, इसमें देश की विदेश की जो भी खबरें होती हैं।
किताबें पढ़ने में रुचि है आपकी?
हाँ-हाँ।
कैसी किताबें?
कुछ धार्मिक किताबें और कुछ सामाजिक किताबें पढ़ता रहता हूँ
साहित्य के बारे में कुछ सुना है आपने?
हाँ।
क्या सुना है?
साहित्य कई प्रकार के होते हैं जैसे-सामाजिक साहित्य होता है, आर्थिक यानी बिजनेस परपज से होता है। ज्यादातर मैं बिजनेस के बारे में पढ़ता रहता हूँ।
कहानी, कविता, उपन्यास आदि के बारे में कुछ सुना है?
हाँ।
जो लिखते हैं कैसे लोग होते है?
अच्छे ही होते हैं।
यानी लिखना चाहिए।
जरूर। इससे आने वाली पीढ़ी को लाभ मिलता है।
कभी कुछ साहित्य नहीं पढ़ा?
पढ़ा तो है लेकिन पिछले १० सालों से कुछ नहीं पढ़ा।
पहले क्या पढ़ते थे?
जैसे कहानियाँ बहुत निकलती थीं अखबारों में मडर के केस होत थे।
आजकल?
नहीं
जो भी पढ़ते हैं उसका क्या महत्त्व होता है?
इसके जरिये हम जानकारी लेते हैं कहीं बम फट गया, अक्सर मन में यह भी आता है कि कोई एकाक बम मेरी दुकान में न रख जाए। तो इस तरीके से लाभ है।
कुछ पुस्तकें पढ़ने का मन होता है?
होता तो है लेकिन टाइम नहीं मिल पाता है।
मिले तो कैसी किताबें पढ़ना चाहेंगे?
धार्मिक हों, सामाजिक हों, जीवन अच्छे ढंग से बिताने का संस्कार हो।
आपने कहा कि अब के साहित्य से परिचित नहीं हूँ लेकिन साहित्य के बारे में जानते हैं तो जो साहित्य लिखा जा रहा है उससे परिचित होना चाहेंगे?
हाँ, बिल्कुल।
अच्छा मैं बताता हूँ एक नाम है प्रेमचन्द उनके बारे में कुछ सुना है?
प्रेमचन्द जी की मैंने कहानियाँ पढ़ी हैं। परीक्षाओं में उनकी कहानियों के बारे में पूछा जाता था। उनके नाम से तो खूब परिचित हूँ। उनकी कहानी जैसे दो बैलों की जोड़ी.... और?
ईदगाह?
हाँ।
नशा?
हाँ-हाँ, नशा।
और भी कोई नाम बताइये सोचकर साहित्यकारों का?
याद नहीं।
तुलसीदास का नाम सुना है?
तुलसीदास का, कालीदास का सुना है, सूरदास, कबीर हैं।
आजकल जो आपके आसपास इसी शहर के हैं। उनका नाम सुना है?
.....
अलीगढ़ के मशहूर साहित्यकार गोपाल दास नीरज का नाम सुना है?
उनका नाम पढ़ा है अखबार में, सुना भी है सरकार ने बहुत सारे इनाम भी दिये लेकिन कविताएँ कोई याद नहीं।
आपके होटल में कैसे लोग आते हैं?
सभी तरीके के लोग आते हैं। यूनीवर्सिटी एम्प्लाईज, स्टूडैन्ट्स, नेता वगैरह भी। इसमें दोनों तरह के होते हैं - अच्छे और बुरे।
नेताओं से आपकी है पहचान?
हाँ, जिले के जितने बड़े-बड़े नेता हैं जैसे- विधायक है, एम.पी. है। सबसे पहचान है।
क्या कभी राजनीति पर इन लोगों से बात होती है?
बिल्कुल नहीं! न मेरा राजनीति से लगाव है न ही इन लोगों से कभी काम ही पड़ता है।
आप ऐसी जगह हैं जहाँ अक्सर नेताओं की भाषण और मीटिंग होती हैं क्या उसे कभी सुनने जाते हैं।
बिल्कुल नहीं?
अच्छा ये जो आज आन्दोलन दलित का चला है इसके बारे में कुछ सुना है?
देखो जी, आन्दोलन वान्दोलन कुछ नहीं यह तो राजनीति है, दलित आजकल कौन हैं? जो गलत आमाल करता है शराब पीता है। दलितों की यही पहचान है।
कभी आपने सोचने की कोशिश की? वह शराब और गलत आमाल क्यों करता है?
इसमें दो चीजें होती है एक तो माहौल ऐसा होता है और दूसरा संस्कार ऐसा होता है जो नहीं भी पीने वाला होता है, वह भी पीने लगता है। ऐसा होना नहीं चाहिए। अगर छोड़ दें तो बच्चे पढ़-लिख सकते हैं?
आपने बताया कि आपके होटल में तरह-तरह के लोग आते हैं तो एक ग्राहक के बजाए उनसे एक आदमी की हैसियत से आये तो उनसे मिलकर आपको कैसा लगता है।
अच्छा लगता है। खासतौर से जो स्टूडैन्ट आते हैं उनसे मिल करके बहुत अच्छा लगता है।
अच्छा चन्द्रप्रकाश जी यह बताइये कि समाज और देश के जो हालात कैसे हैं?
बहुत बुरे है राजनीति ने सबसे ज्यादा इसे खराब कर रखा है। हमारे देश की राजनीति विदेशों पर निर्भर हो गयी है। लगता है उनका विदेशों में कोई कन्टेक्ट है जबकि हमारे अपने अन्दर कोई कमी नहीं। नेता लोग चीजों को सही से समझते नहीं। महँगाई को ही ले लीजिए कितना खरीदना है कितना बेचना है अगर सही से हिसाब रखते हो तो क्या मँहगाई इतनी बढ़ती।
कहीं आप भ्रष्टाचार की बात नहीं कर रहे हैं।
बिल्कुल, यही तो गरीबी की जड़ में है।
क्या आप अपनी सामाजिक हैसियत से संतुष्ट हैं।
हाँ, असल बात तो परिवार की होती है। अगर परिवार सही है तो सब ठीक। मान-सम्मान उसी से मिलता है। संस्कार अच्छे होने चाहिए फिर समाज अपने आप ही सम्मान देता है।
आपको सबसे अच्छा नेता कौन लगता है?
मनमोहन सिंह इस समय सबसे अच्छे नेता हैं।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में आपको कौन पार्टी सबसे अधिक पसंद है?
कोई नहीं, यहाँ तो किसी ने हिन्दूवाद फैलाया है किसी ने दलितवाद फैलाया है, मुलायम सिंह ने गुण्डावाद फैलाया है। किसी से संतुष्ट नहीं हूँ।
तो फिर कैसी होनी चाहिए राजनीति?
साफ सुथरी होनी चाहिए। न हिन्दूवाद हो न मुस्लिमवाद हो।
अच्छा आप ऐसे शहर में रहते है। जो दंगों के लिए मशहूर है आपने भी दंगे झेले होंगे इस पर कुछ कहना चाहेंगे।
मेरा तो साफ कहना है कि आवाम को इससे कुछ लेना देना नहीं है। दरअसल पूँजीपति अपने लाभ के लिए व्यवसाय में फायदे के लिए करवाते हैं। एक बार दंगा हुआ माल को गोदाम में जमा किया और बाद में लाभ ही लाभ। हफ्ते में करोड़ो के माल बना लेते हैं।
दंगे?
पूँजीपतियों के खेल हैं।
लड़ाई तो आवाम लड़ता है आपस में?
वह बिल्कुल नहीं लड़ना चाहता लेकिन उन्हें भरमा के किसी को कुछ पैसे देके या दारू पिला के दंगों में झौंक दिया जाता है।
आप कैसे इलाके में रहते हैं?
जिस इलाके में रहता हूँ वहाँ ९०-९५ प्रतिशत मुस्लिम आबादी है।
तो क्या आपको या आपके परिवार को कोई परेशानी होती है?
कोई परेशानी नहीं होती है। हम लोग मिल जुल के रहते हैं। हमारे कई मुस्लिम दोस्त हैं जो हमारे सुख-दुख में हमारे साथ खड़े रहने के लिये तैयार रहते हैं। कभी-कभी दंगा फंगा हो भी जाते है तो मुझसे लोग यही कहते हैं कि निशंक होकर सोवो हम लोग हैं।
यानी कि...?
यह दंगे फसाद कुछ लोगों के बनाये हुए और भ्रम हैं।

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Wednesday, January 21, 2009

श्रेयस्

डा. महेंद्रभटनागर,.

सृष्टि में वरेण्य
एक-मात्र
स्नेह-प्यार भावना!
मनुष्य की
मनुष्य-लोक मध्य,
सर्व जन-समष्टि मध्य
राग-प्रीति भावना!
.
समस्त जीव-जन्तु मध्य
अशेष हो
मनुष्य की दयालुता!
यही
महान श्रेष्ठतम उपासना!
.
विश्व में
हरेक व्यक्ति
रात-दिन
सतत
यही करे
पवित्र प्रकर्ष साधना!
.
व्यक्ति-व्यक्ति में जगे
यही
सरल-तरल अबोध निष्कपट
एकनिष्ठ चाहना!
.

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Tuesday, January 20, 2009

विपत्ति-ग्रस्त

डा. महेंद्र भटनागर

बारिश
थमने का नाम नहीं लेती,
जल में डूबे
गाँवों-क़स्बों को
थोड़ा भी
आराम नहीं देती!
सचमुच,
इस बरस तो क़हर ही
टूट पड़ा है,
देवा, भौचक खामोश
खड़ा है!
.
ढह गया घरौंधा
छप्पर-टप्पर,
बस, असबाब पड़ा है
औंधा!
.
आटा-दाल गया सब बह,
देवा, भूखा रह!
.
इंधन गीला
नहीं जलेगा चूल्हा,
तैर रहा है चैका
रहा-सहा!
.
घन-घन करते
नभ में वायुयान
मँडराते
गिद्धों जैसे!
शायद,
नेता
मंत्री आये
करने चेहलक़दमी,
उत्तर-दक्षिण
पूरब-पश्चिम
छायी
ग़मी-ग़मी!
अफ़सोस
कि बारिश नहीं थमी!

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Monday, January 19, 2009

उद्देश्यपूर्ण पत्रिका


-[वाड्मय]- यूं तो राही मासूम रजा पर अनेक पत्रिकाओं ने विशेष अंक प्रकाशित किए हैं परन्तु राही की बहुमुखी रचनात्मक प्रतिभा के अनेक रंगों को उजागर करती हुई दुर्लभ सामग्री से भरपूर है त्रैमासिक पत्रिका वाड्मय का राही मासूम रजा अंक। प्रथम खंड में प्रताप दीक्षित के परिचयात्मक लेख के साथ राही की चुनी हुई 7 कहानियां हैं। दूसरे खंड में उनके लेखन की बहुकोणीय पडताल और मीमांसा है। साक्षात्कार खंड में प्रेम कुमार की उनकी संगिनी नैयर रजा से बेहद दिलचस्प और बेबाक बातचीत है जो इस आयोजन की उपलब्धि है। हिंदी सिनेमा को राही के योगदान पर प्रकाश डालते हुए चौथा खंड अपने में विशिष्ट और महत्वपूर्ण है। -[वाड्मय/ सं. डा.एम.फीरोज अहमद] http://in.jagran.yahoo.com/sahitya/?page=slideshow&articleid=1969&category=11#0

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नारेबाजी से कविता कमजोर होती है : डॉ. मलखान सिंह सिसौदिया



डॉ. राजेश कुमार
आपकी पहली प्रकाशित कविता कौन-सी है?

मेरी पहली प्रकाशित कविता शोणित के नाले है। यह कविता ४३-४४ में हंस में प्रकाशित हुई। इस कविता में मेरे कवि-व्यक्तित्व की व्यंजना है। मेरे प्रथम कविता-संग्रह बंगाल के प्रति और अन्य कविताएँ में यह कविता है। प्रगतिशील आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने मेरी इस कविता की जमकर प्रशंसा की है।
आपकी शोणित के नाले' कविता में दुर्धर्ष अपराजेयता, बीमारी से लड़ने का भाव तथा मानवता का विचार-बोध निहित है। सुना जाता है कि यह कविता आपने बीमारी के दौरान ही लिखी थी। क्या इस कविता को आपके संस्कार-वृक्ष की बीज कविता कहा जा सकता है।
हाँ, आपने एकदम ठीक सोचा है। जरा कविता सुनिए -
दुनिया के भविष्य-पथ पर बहते हैं शोणित के नाले।
क्यों मेरे ही दरवाजे पर रोगों ने डेरे डाले?
मन ने तन से कहा, साथ दो, पर पाया कोरा उत्तर।
हुए तटस्थ कुटुम्बी साथी कुछ आतंकित-से होकर॥
किन्तु न वे कायर सब मुझको हतोत्साह करने वाले।
दुनिया के भविष्य-पथ पर बहते हैं शोणित के नाले॥
युग से पिछड़े हुए हितैषी सड़ी सीख देने आते।
मैं अपनी रस्सियाँ तोड़ता, वे अपनी ताने जाते।
वे न साथ मेरा दे सकते, मैं भी खूब समझता हूँ।
चलता अपने पाँव, नियति का टूटा यान न चढ़ता हूँ।
तोल लिया मैंने अपना बल, देखूँ फौलादी ताले।
दुनिया के भविष्य-पथ पर बहते हैं शोणित के नाले॥
डट कर लड़ने की शिक्षा ही मिली दूध में माता के।
फिर मैं क्यों परवाह करूँ, क्या अक्षर किसी विधाता के?
मानव का लोहू बहता है मेरी स्फीत शिराओं में।
है प्रहार करने की ताकत अब भी सुदृढ़ भुजाओ में।
शीघ्र समझ लेंगी बाधाएँ पड़ीं कि वे किसके पाले।
दुनिया के भविष्य-पथ पर बहते हैं शोणित के नाले॥
धरती किसकी, मानव की या दानव की? होता निर्णय।
उसमें मेरा कितना हिस्सा, इसका भी मुझको निश्चय।
इसीलिए मैं आज मौत का पंजा भी मरोड़ दूँगा।
इस्पाती मुक्के से बीमारी की कमर तोड़ दूँगा।
युग-हलचल से देखू मुझको कौन दूर रखने वाले।
दुनिया के भविष्य-पथ पर बहते हैं शोणित के नाले॥
यह कविता मेरे संस्कारों की बीज कविता ही है। इसमें दुनिया को बेहतर बनाने का माद्दा मिलता है। मेरी यह विचारधारा बाद में कविता-संग्रहों में भी पाई जाती है। इस कविता में तीन प्रमुख बातों पर ध्यान है। पहली बात है- दुनिया के भविष्य की चिन्ता, दूसरी बात है-अपने स्वास्थ्य की चिन्ता तथा तीसरी बात है-युगीन अंधजड़ता के प्रति प्रतिवाद तथा विद्रोह का भाव। मुझे क्रॉनिक मलेरिया था। उन दिनों यह बहुत खतरनाक था, मैं रजाई ओढ़े हुए काँप रहा था। मेरे पिताजी मेरे ऊपर लेटे हुए थे। मैं तब इन पंक्तियों को बुदबुदा रहा था-
दुनिया के भविष्य-पथ पर बहते हैं शोणित के नाले।
क्यों मेरे ही दरवाजे पर रोगों ने डेरे डाले?

आपके कविता-संग्रह ÷बंगाल के प्रति और अन्य कविताएँ में गाँधी-जिन्ना मिलन पर एक कविता है-देश के दो हाथ मिलकर। गाँधी-जिन्ना मिलन की असफलता पर आप क्या कहेंगे।
जिन्ना की जड़ता तथा हठधर्मिता के कारण यह वार्ता परिणाम हीन रही। एकता स्थापित करने के लिए जितना उद्योग गाँधी कर सकते थे, उन्होंने किया। लेकिन जिन्ना अपनी जिद पर अड़े रहे। अंततः बातचीत बेनतीजा रही।

आपकी कुछ कविताओं में राजनैतिक चेतना है। मेरे विचार से राजनैतिक पूर्वग्रहों से कविता की शक्ति कमजोर होती है। इस सम्बन्ध में आपका क्या अभिमत है।

आपका कथन लगभग सही है। आज के जीवन में राजनीति का स्थान बन गया है। आज की राजनीति जीवन परक है। कविताओं में राजनैतिक चेतना नहीं होनी चाहिए। नारेबाजी से कविता कमजोर होती है। प्रगतिशील कविता में जहाँ नारेबाजी है, वहाँ संवेदनात्मकता का अभाव है। सांस्कृतिक चेतना के अभ्युदय से कविता प्राणवान्‌ होती है। मेरी कुछ कविताओं में राजनैतिक चेतना होने से कविता की शक्ति कमजोर हुई है। बाद में मैं किसी भी प्रकार के पूर्वग्रह से मुक्त हो गया हूँ। मैंने कोशिश की है कि कविता नारेबाजी से बचे। लाल सेना की नारेबाजी से बचकर साहित्य लिखा जाता, तो बेहतर होता। त्रिलोचन की कविताएँ इस दृष्टि से बेजोड़ हैं। वे भारतीय जन-संदर्भों से कविता ऊँचाई पर ले जाते हैं।

१९६५ के भारत-पाक युद्ध के संदर्भ में सूली और शांति आपका लोकप्रिय काव्य-ग्रन्थ है। इस काव्य-ग्रन्थ में कश्मीर के प्राकृतिक सौन्दर्य का जैसा चित्रण है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। इसमें युद्ध का वर्णन भी अद्भुत है। इस ग्रन्थ के बारे में आपकी क्या राय है।

सूली और शांति भावदशा और मनोदशा की अच्छी कृति है। कश्मीर-सुषमा की प्रशंसा रामविलास जी ने भी की है। १९५९ के आस पास कश्मीर में एक भ्रमणकारी दल के साथ गया। भ्रमणकारी योजना केन्द्र की थी। इसमें करीब सौ लोग गए थे। डलझील के किनारे निशातबाग था। इसमें हम ठहरे थे। सुबह बसों में निकल जाते थे, रात को आते थे। इसलिए इस वर्णन में इतना यथार्थ है। चेकोस्लोवाकिया का एक युवा भी यहीं मिल गया। वह हिन्दी-प्रेमी भी था। युद्ध का वर्णन रेडियो सुनने तथा समाचार-पत्र पढ़ने के आधार पर है। लोगों ने इसे सराहा है।
डाक्टर साहब, क्या आप अपनी साहित्यिक उपलब्धियों से परितुष्ट हैं।

अगर मुझे चार-पाँच वर्ष और मिल जाएँ, तो साहित्य के लिए कुछ विशिष्ट दे सकूँगा। एटा में रहने के कारण वह नहीं दे सका, जो मुझे देना चाहिए था। साहित्यिक क्षेत्र में दो चीजें बाधक बनीं-छोटी जगह, प्रधानाचार्य का पद। मैं अविनाशी सहाय आर्य इण्टर कालेज, एटा का प्रधानाचार्य रहा। यह स्कूल आर.एस.एस. का था। यहाँ दक्षिणपंथी लोग (आर.एस.एस. के लोग) ज्यादा थे। इन लोगों ने साहित्य में बाधा पहुँचाई। मुझे कालेज के प्रबन्धक परेशान करते रहे। मैं ईमानदार था। कोई मेरा बाल बाँका नहीं कर सका। आजकल संपाति-चिन्ता नामक प्रबन्ध-काव्य लिख रहा हूँ। यदि पूरा कर सका, तो ठीक होगा। इसमें मैंने राम के अन्तर-विरोधों को उजागर किया है। मैं संपाति पक्षी प्रकट करता हूँ। वह राम से अन्तर-विरोधों के प्रश्न करता है। राम निरुत्तर भाव से जल समाधि लेते हैं।

आप अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति किसे मानते हैं?

यह बता पाना थोड़ा मुश्किल है। बात की चिड़िया से मैं संतुष्ट हूँ। इसमें बौद्धिक चिन्तन है। यह मुक्त छन्द का संग्रह है। इसमें मेरी विचारधारा का विस्तार है। वैसे अभी हाल ही में प्रकाशित संस्मरणात्मक कृति बेहतर दुनिया के लिए संघर्षों के सहयात्री लिखकर मुझे सर्वाधिक प्रसन्नता है।

डाक्टर साहब, संस्मरणात्मक लेखन में किन-किन चीजों का ध्यान रखना चाहिए?
सफल संस्मरण में अपने को सामने नहीं रखना चाहिए। होता क्या है, लोग स्वयं को हाइलाइट करते हैं। मैंने स्वयं को हाइलाइट नहीं किया। संस्मरण जिसके बारे में लिखा जा रहा है, उसी को हाइलाइट किया। किसी भी प्रकार की कुण्ठा को संस्मरण में स्थान नहीं देना चाहिए। संस्मरण में आरोपण की प्रवृत्ति से बचना चाहिए।

डाक्टर साहब, १९४२ के क्विट इण्डिया मूवमेन्ट में आपकी सक्रियता रही है। यद्यपि उस काल में आप बी.ए. के विद्यार्थी रहे, फिर भी आपने अपना योगदान किया है। इस बारे में आप बताइए।
मैं आल इण्डिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन से सम्बद्ध था। यू.पी. ब्रान्च में कार्य करता था। इसका उद्देश्य आजादी के लिए छात्रों को प्रेरित करना था। शिवदान सिंह चौहान भी इसमें थे। प्रगतिशील विचारों को प्रसारित करना भी हमारा ध्येय था। जब बम्बई (आजकल मुम्बई) में भारत छोड़ो आन्दोलन का नारा देने वाले कांग्रेस के सब नेता गिरफ्तार किए गए, तब आगरे में विद्यार्थियों ने जुलूस निकाला। मैं सेन्ट जोन्स कालेज, आगरा में बी.ए. का छात्रथा। थाना हरीपर्वत पर एस०पी० ने जुलूस को तितर-बितर करना चाहा। मैं नेतृत्व कर रहा था। शाम चार बजे से लेकर रात सात बजे तक पुलिस से पथराव हुआ। दूसरे दिन मेरी गिरफ्तारी का वारण्ट जारी हुआ।

आज की आलोचना-पद्धति पर आपकी क्या राय है। आपकी दृष्टि में हिन्दी में सफल आलोचक कौन हैं?

आज की आलोचनात्मक-पद्धति वैयक्तिक ज्यादा है, साहित्यिक और सैद्धान्तिक उतनी नहीं है। आज की आलोचनात्मक पद्धति उतना प्रभावित नहीं करती है, जितना करना चाहिए। आलोचक या तो स्वयं को हावी कर देता है या आलोच्य को। आलोचना संतुलित होनी चाहिए। हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सबसे सफल आलोचक हैं। उनके बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम भी आदरणीय है। रामविलास जी की आलोचना में कहीं-कहीं वैयक्तिकता है। उनकी सीमाएँ हैं। वे जिससे खुश हों, उसे आसमान पर बिठा देते हैं, जिससे नाराज हों, उसे हीनमान बताते हैं। इसके बावजूद उनकी आलोचना ठीक है। कुछ लोगों ने रामविलास जी की आलोचना से असहमति तो जताई है, लेकिन उनकी मान्यताओं का सप्रमाण खण्डन नहीं किया है।

आपको कौन-कौन से पुरस्कार मिले हैं?

मुझे दो पुरस्कार मिले हैं। बाद में साहित्यिक राजनीतिक का शिकार रहा। सूली और शांति पर उत्तर-प्रदेश हिन्दी समिति का पुरस्कार ६८-६९ में मिला। १९७५-७६ में दीवारों के पार पर बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार मिला। हमारे देश में पुरस्कार भी राजनीति से प्रेरित हैं। मेरी किताबें भी देर से प्रकाशित हुईं। राजनीति भी बदल चुकी थी।

आप किन-किन कवियों से प्रभावित रहे हैं?

मैं आरम्भ में मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत से प्रभावित रहा हूँ। राष्ट्रीयता के मामले में एक सीमा तक दिनकर से भी प्रभावित हूँ। बाद में निराला का प्रभाव मुझ पर है। रचनात्मक प्रवेग मेरा अपने आपका है।

डाक्टर साहब, १९४३ ई. के तार सप्तक के प्रकाशन के बाद अज्ञेय एक नायक के रूप में सामने आते हैं। क्या तथाकथित प्रयोगवाद ने प्रगतिशील हिन्दी-कविता को क्षति पहुँचाई है।
कुछ समय तक अज्ञेय के व्यक्तित्व ने प्रगतिशील हिन्दी-कविता को आच्छादित किया। थोड़े समय तक क्षति भी हुई। लेकिन बाद में हिन्दी-कविता इससे उबर गयी।

कुछ पुराने कम्युनिस्टों ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की निन्दा की है। मेरे विचार से नेताजी की देश-भक्ति को प्रश्नचिद्दित नहीं किया जा सकता। नेताजी के बारे में आपकी क्या अवधारणा है।
मैंने १९३९ में नेताजी का फारवर्ड ब्लॉक ज्वाइन किया। मैं इटावा में उपाध्यक्ष भी था। इटावा रेलवे स्टेशन पर मैं उनसे मिला। वे दिल्ली से इलाहाबाद जा रहे थे। वे बहुत आशावादी थे। नेताजी अग्रगामी दल को मजबूत करने पर बल दे रहे थे। उन्होंने कहा-हम अंग्रेजों को तबाह कर देंगे। उनका तबाह शब्द मुझे आज भी याद है। नेताजी सोवियत संघ से ही मदद लेना चाहते थे। लेकिन विश्व की तत्कालीन परिस्थितियों के कारण उन्हें जापान-जर्मनी का आश्रय लेना पड़ा। तब से मैं विचारों में अन्तर मानने लगा। वे सच्चे देशभक्त थे। उनकी मौत विमान-दुर्घटना में नहीं हुई। वे एटा में रिजोर रियासत में साढे तीन वर्ष संन्यासी के रूप में रहे। वह कई भाषाएँ जानते थे, अंग्रेजी बहुत अच्छी बोलते थे। वह ३०-४० बाल्टियों से नहाते थे। शॉलमारी आश्रम इन्होंने स्थापित किया। जब मैं यहाँ आया, वे रिजोर से जा चुके थे। कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए पट्टाभिसीतारमैया को गाँधी जी ने खड़ा किया। बोस स्वंय खड़े हुए। बोस जीते। गाँधी ने स्वयं स्वीकार किया कि यह उनकी हार है। बाद मे बोस ने स्वयं इस्तीफा दे दिया। गाँधी जी के प्रति उनके मन में आदर-भाव तो था, लेकिन वे उनकी नीतियों में विश्वास नहीं रखते थे। समाजवादी विचारधारा नेहरू की ज्यादा थी। विचारधारा में सुभाष नम्बर दो पर थे। लेकिन राष्ट्र के प्रति मर मिटने का भाव सुभाष में सबसे ज्यादा था। उन दिनों सुभाष की लोकप्रियता शिखर पर थी। गाँधी, नेहरू, सुभाष से पीछे थे - लोकप्रियता में। उस समय की नीतियों के कारण नेताजी ने स्वयं को गुप्त रखा।
अभी हाल ही में वन्देमातरम्‌ के गायन को लेकर देश में उठा-पटक हुई है। आप भारतवासियों को इस संबंध में क्या कहेंगे।

इसको लेकर दोनों वर्गों को समझदारी से काम लेना चाहिए। इसका राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए। इस संदर्भ को अतिवादिता की हद तक खींचने की कोशिश की गई है। मैंने साम्प्रदायिक एकता पर बल दिया है। मैंने हिन्दू-मुसलमान में कोई भेद नहीं रखा है

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Sunday, January 18, 2009

मैं कहता आँखिन देखी... : काशीनाथ सिंह

प्रो. रामकली सराफ
आपका ग्रामीण जीवन से गहरा सरोकार रहा है, आपके कहानी लेखन में इसकी क्या भूमिका रही है?

ऐसा है कि मैं गाँव में पैदा हुआ, वहीं पला बढ़ा, खेला-कूदा, खेती में भी साथ देता रहा। कटाई हो, दँवरी हो ये सब कुछ मैंने किया। हाईस्कूल तक गाँव में पढ़ा। उसके बाद इंटरमीडिएट में मैं शहर आया और फिर शहर में ही सारी पढ़ाई लिखायी हुई और वो भी बनारस में। लिखना तो शुरू कर दिया था बी.ए. में मामूली कविताएँ लिखता था जिसका कोई मतलब नहीं था। सन्‌ १९६० ई. के आसपास विधिवत्‌ लिखना शुरू किया।

कविता जब आप लिख रहे थे शुरू में, तो अचानक ये कैसे मोड़ आ गया कि कहानी लिखने लगे?

इसलिए कि मेरे भाई साहब (डॉ. नामवर सिंह) स्तम्भ लिख रहे थे कहानी पत्रिका के लिए और ज्यादातर घर में कहानियों पर बात होती थी। तो कहानी पत्रिका की कहानियों को पढ़ता था और उन कहानियों को पढ़ता था जिनकी तारीफ करते थे भाई साहब। खासतौर से रूसी कहानियाँ, हेमिंग्वे की कहानियाँ, मंटो की कहानियाँ तो इन्हें पढ़ता था तो कहानी की तरफ धीरे-धीरे मुड़ने लगा और कहानी लिखना शुरू किया सन्‌ ६० के बाद से। तो जो पात्र हमारे आते थे, जो जीवन होता था वो गाँव का ही होता था। धीरे-धीरे मुझे लगा कि मैं उस आदमी के बारे में लिख रहा हूँ जो गाँव को छोड़ चुका है, लेकिन शहर में रहते हुए शहर का नहीं हो पा रहा है। सन्‌ ६० के आस-पास की स्थितियाँ ऐसी ही थीं भी। मेरी शुरुआत की कहानियों में इस तरह का एक आदमी था।
नयी कहानी का दौर और उसके समाप्ति पर आपने लिखना शुरू किया। लेकिन उस प्रभाव से जो अपने को अलग किया लेकिन मुख्य बात यह है कि उस पूरे प्रभाव से स्वयं को बचाते हुए कैसे इतना बड़ा परिवर्तन आपके लेखन में आया? क्या बदली हुई परिस्थितियाँ ही थीं इसके मूल में?
देखिए, लगभग ऐसा समय तो शीतयुद्ध का था, कांग्रेसी हुकूमत थी। जनता का मोहभंग हो गया था... ढेर सारी योजनाएँ चालू की गयी थीं और योजनाएँ या तो अधूरी थीं या जैसे बाँध बन रहा था, बने बाँध लेकिन बारिश हो तो बाँध बह जाय। सड़कें टूट जाएं, विकास जैसे होना चाहिए था वैसे नहीं हो रहा था। तो लग रहा था कि यह सत्ता इस लोकतंत्र में जनता के लिए जो काम कर रही है वह काम संतोषजनक नहीं है और इस पर मुहर लगाने का काम किया जनता ने। पूरी तरह से भारत प्रभावित हुआ था। इस परिवर्तन ने हमारी भाषा को भी प्रभावित किया और हमारे कंटेंट को भी।

आपकी कहानियों में तो है ही लेकिन आज जो कथा रिपोर्ताज लिख रहे हैं संतो घर में झगड़ा भारी पांडे कौन कुमति तोहे लागि... आदि में जो गँवईमन झाँक रहा है, उस पर आप क्या कहना चाहेंगे?

बुनियादी निर्माण तो हमारे गँवई मन का ही है, इसलिए वह भाषा वो मुहावरे, वो लोकोक्तियाँ, वो मन, वो संस्कार कहीं-न-कहीं हमारी रचनाओं पर आज भी प्रभाव जमाए हुए हैं।

आपकी पहचान आज के कथा साहित्य में एक खास किस्म की बन चुकी है। कथा भाषा को लेकर तथा कथा स्थल को लेकर (अस्सी लंका के संदर्भ में) एक बात बताना चाहेंगे कि क्या ये स्थल एक ऐसे रूपक के समान तो नहीं हैं जहाँ से हम पूरे वैश्विक परिस्थिति और परिवेश को देख सकते हैं? (संदर्भ-संतों घर में झगड़ा भारी, पांड़े कौन कुमति तोहे लागि, कौन ठगवा लूटल नगरिया हो)
ये अच्छी बात की है आपने। दरअसल मैं कहानी से संस्मरण की तरफ आया और संस्मरण से कथा रिपोर्ताज की ओर। इसमें एक संगत रही है। मेरे दिमाग में था कि जब व्यक्ति पर संस्मरण हो सकता है तो स्थल पर क्यों नहीं? व्यक्ति पर जिस तरह लिखा जा सकता है उस तरह से उस स्थल पर भी लिखा जा सकता है। जहाँ मैं रहा था। २०-२५ वर्षों तक उस स्थल को देखा। एक तरह से देखा जाय तो जैसे मेरा सम्पर्क बना था विश्वविद्यालय से पहले वैसे ही अस्सी से सम्पर्क बना रहा। रोज-ब-रोज आना-जाना रहता था। अस्सी को बदलते हुए देख रहा था, लोग बदल रहे थे। ९० के बाद मैंने कथा रिपोर्ताज लिखने की शुरुआत की। पहला रिपोर्ताज सन्‌ १९९१ में देख तमाशा लकड़ी का (हंस में) अस्सी पर था। अस्सी बदल रहा था, कारण चाहे भूमंडलीकरण रहा हो या और...। विदेशी आ रहे थे घाट के किनारे के मकान लॉज बनने शुरू हो रहे थे, वे हमारे बीच रह रहे थे, हमारे जीवन को प्रभावित कर रहे थे, इसमें महिलाएँ भी थीं और पुरुष भी थे। देखिए, कहने को तो यह मुहल्ला है लेकिन रिफ्लेक्ट कर रहा है पूरे देश को। विदेशियों में आस्ट्रेलिया, नाइजेरिया, हंगरी से थे जो अपनी संस्कृति के साथ हमारे बीच में थे। इस वजह से हम सांस्कृतिक धरातल पर एक दूसरे से मिल रहे थे। मुझे लग रहा था कि वस्तुतः यह है एक मुहल्ला, लेकिन है नहीं मुहल्ला, यह है पूरा देश। अमेरिका पर टिप्पणियाँ हैं।
कैथरीना महिला जो बनारस पर शोध कर रही है, बनारस के प्रति क्या धारणा है? वह व्यक्त करती है। उसकी प्रतिक्रिया होती है लोगों में। भूमंडलीकरण के दौरान अस्सी सूचक है देशी-विदेशी परिप्रेक्ष्य में। बड़ा फलक है। अस्सी को एक मुहल्ला मानकर न देखा जाय।

बनारस को मिनी भारत कहा जाता है। तमिल, कन्नड़, बंगाली, असमिया, सिंधी, ईसाई सभी रहते हैं। यह मिनी भारत है। इस कारण यह संभव हो सकता है कि विदेशियों और भारत के सांस्कृतिक टकराव के लिए चुना और देखा.

डॉ. साहब आपके रचना स्थल और पात्र बिल्कुल निश्चित हैं तथा जीवित हैं, क्या आपको उनकी आलोचना का शिकार नहीं होना पड़ता है? क्या रचनाकार के लिए यह कम चुनौतीपूर्ण कार्य है कि हम उसी समय की कहानी उसी समाज के लोगों के बीच रहकर उन्हें खड़ा करके कहते हैं? यों कहें कि आप हिन्दी कथा साहित्य में कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर जारे आपणाँ चले हमारे साथ की चुनौती को स्वीकार कर रहे हैं और दे भी रहे हैं। इसमें आपको कैसा अनुभव होता है? क्योंकि दौर तो घर बनाने का है और बचाने का है और इसमें आपकी कहानियाँ घर जलाकर साथ आने की बात करती है?

जी, साहस किया था उसे लेकर...। प्रेमचंद ने अपनी कहानी में (मोटेराम शास्त्री) एक ब्राह्मण को खड़ा किया था नाम बदलकर। उन पर मुकदमा भी हुआ। तो ऐसे में जीवित पात्रों को लेकर रचनाओं में सीधे-सीधे इस्तेमाल... (विस्मय) मेरी जानकारी में हिन्दी के किसी लेखक ने मेरे पहले ऐसा नहीं किया है सीधे-सीधे जीवित पात्रों को लेकर। हाँ,... डर तो था ही, गालियाँ मिली, धमकियाँ मिली, मारने तक की बात आयी। ऐसा मेरे किसी खास रचना के साथ नहीं हुआ बल्कि चाहे संतो-असंतो घोंघा बसंतो हो, देख तमाशा लकड़ी का हो, संतो घर में झगड़ा भारी हो... सभी के साथ हुआ। मुश्किल तो बहुत था। जिस रिपोर्ताज में पप्पू का जिक्र है उस पप्पू पर संस्कृत पढ़ने वाले बच्चों ने पत्थर मारा था।
कर्फ्यू लगा हुआ था, कारण दूसरा था लेकिन... धीरे-धीरे फिर पात्रों को ऐसा लगा, अहसास हुआ कि वे इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि लोग देखने आ रहे हैं तो महत्त्व के कारण सम्मान दे रहे हैं। कौन है जया सिंह, दीनबंधु तिवारी कौन है? तो कौन है पप्पू चाय दुकानवाला? तो जैसे उन्हें महत्त्व का ज्ञान हुआ अब गाली के बदले सम्मान मिलने लगा।

कथा भाषा को लेकर सवाल खड़े किए गए, श्लीलता-अश्लीलता का आरोप लगा, आपको विरोध झेलना पड़ा?

कथा भाषा को लेकर उन पात्रों की तरफ से कोई विरोध नहीं था, क्योंकि मैंने उन्हीं शब्दों को उन्हीं बातों में रखा था जिसे उन्होंने कहा था। बातों में सच्चाई थी इसलिए उन्हें इनका विरोध नहीं था। विरोध तो साहित्यिक रुचि के पाठकों को लगा, विरोध लेखकों का था उन पाठकों का था जो यह मानते हैं कि साहित्य बहुत अभिजात्य था। विरोध उनका था जो साहित्य को शराफत भरा मानते थे।

हाँ,... मैं पाठकीय प्रतिक्रियाओं के सन्दर्भ में पूछ रही थी।

सड़क के पाठकों के साथ ऐसा नहीं था उन्हें तो लग रहा था कि इसमें उनकी जिन्दगी बोल रही है।

एक बात खास यह लगती है कि दलित लेखन की भाषा पर भी अश्लीलता का आरोप लगा लेकिन वे अपने बचाव के लिए आपके पास क्यों नहीं लौटते हैं? क्यों नहीं कहते कि सवर्ण लेखकों ने भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया?

दलित लेखन एक आन्दोलन की तरह था - इनके पहले मैंने लिखा है, लेकिन दलित लेखन की भाषा पर हमसे कोई खास बात...। उन्होंने काफी बाद में शुरू किया लेकिन उनकी ओर से कोई तालमेल नहीं कोई सफाई नहीं...।

इधर बीच आपकी कहानियों में एक चीज देखने को मिल रही है लगभग कहानियों के शीर्षक कबीर के पदों की पंक्तियाँ हैं - इसके पीछे आपकी क्या चिन्तन पद्धति है? मुझे लगता है कि आपकी रचनाओं में पैठी साहसिकता है, जो बार-बार आपको उधर ले जाती है?

ये मेरी चिन्तन पद्धति नहीं है बनारस की एक परम्परा रही है जो बड़ी शालीन है। वह लोक परम्परा है जबकि दूसरी ओर तुलसी ब्राह्मणवादी परम्परा के प्रतिनिधि कवि हैं और कबीर उनके ठीक उलटे छोटी जातियों के कवि हैं। सम्प्रदाय विरोधी और साहस का काम करने वाले कवि हैं। शीर्षक चुनने के लिए कबीर से बल मिलता रहा है, इसलिए मैं कबीर की ओर लौटता हूँ। आँखिन देखी बात कबीर कहते हैं और मैं भी आँखिन देखी ही कहा करता था।

आप डॉ. धर्मवीर के बारे में क्या कहेंगे जो धर्मवीर कबीर पर और कबीर के आलोचकों पर प्रहार कर रहे हैं?
धर्मवीर कबीर पर ही नहीं प्रेमचंद पर भी (सामंत का मुंशी) प्रहार करते हैं। मैंने पढ़ा नहीं उसे। धर्मवीर को अब उतनी गंभीरता से नहीं लेना चाहिए, वे अनर्थ कर रहे हैं। चीजों को गलत इंटरप्रेट कर रहे हैं। सचमुच धर्मवीर तथ्यों को तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत कर रहे हैं।

ऐसा लगता है कि प्रेमचंद से आप ज्यादा प्रभावित नहीं हो पाए। ऐसा क्यों?

नयी कहानी प्रेमचंद की खिलाफत का आन्दोलन था। नये कहानीकार प्रेमचंद की कहानियों को पुरानी कहानी कहने लगे। कफन, पूस की रात, सवा सेर गेहूँ में आधुनिक तत्त्व की तलाश की जाने लगी। नयी कहानी के तत्त्व भी तलाशे जाने लगे। विरोध के नाम पर प्रेमचंद की प्रासंगिकता शुरू हो गयी थी।
अपने समय में अपने समकालीनों के बीच मैंने ही सबसे ज्यादा प्रेमचंद की चर्चा की। प्रेमचंद ने शक्ति दी, प्रेमचंद ने बड़ा साहस प्रदान किया। वो कौन-सी चीज है जिसने प्रेमचंद को प्रेमचंद बनाया? देखिए, कहानी सुनने सुनाने की चीज है पढ़ने और पढ़ाने की नहीं। श्रवणीयता बुनियादी चीज है। इसको मैंने समझा और ये हमारे लेखन में भी है। मेरे सभी कथा रिपोर्ताजों में मिलेगी। हमारे यहाँ भी श्रवणीयता बुनियादी चीज है।

महाकवि तुलसीदास में भी तो श्रवणीयता है वे केवल सनातनी और ब्राह्मणवादी ही नहीं थे। तो क्या भविष्य में तुलसीदास पर लिखने के लिए सोचा है आपने?

जी, नाटक लिखने की सोच रहा हूँ दस पन्द्रह वर्षों से। खासतौर से तुलसीदास जब अंतिम दिनों में बाहुशूल से पीड़ित हैं कोई देखने वाला नहीं है। तुलसीदास के उपेक्षित दिनों पर। जिस तरह से इस ब्राह्मण मुहल्ले ने उपेक्षित किया है उन्हें। वैसे इन विषयों पर लिखना इतिहास की ओर लौटना होगा और इतिहास की ओर लौटना एक तरह से भागना होता है। हमें वर्तमान पर लिखना चाहिए। वैसे जो भी नाटक आए जैसे- आषाढ़ का एक दिन हो अंधायुग हो कबिरा खड़ा बाजार में' हो सभी इतिहासाश्रित नाटक हैं। जबकि ऐसा मैं नहीं सोचता इसलिए हम वहाँ आश्रय नहीं चाहते हैं। इसलिए तुलसीदास पर मैंने नहीं लिखा।

संचारतंत्र और मीडिया, भूमंडलीकरण, बाजारवाद, पुरोहितवाद पर आप लगातार हमले कर रहे हैं। सच ही यह समय का यथार्थ है और यथार्थ की अभिव्यक्ति है लेकिन प्रारंभिक दौर में आपने जिस तरह काम किया है स्त्री-विमर्श पर। कहनी : उपखान में संग्रहित अनेक कहानियाँ इसकी गवाह हैं। अब जब पूरा दौर स्त्री-विमर्श को लेकर सक्रिय है आप मौन क्यों हैं? जबकि सातवें दशक में बड़े बेबाक तरीके से अभिव्यक्त कर रहे थे?
स्त्री-विमर्श पर बातें खूब हो रही हैं, बहसें हो रही हैं, राजेन्द्र यादव के अनुसार दलित और स्त्री एक हैं। स्त्रियों का शोषण दलित भी अपने घरों में करते हैं। पुरुष वर्चस्व सभी जगह है। जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि वह लेखन ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा है, न स्त्रियों द्वारा और न पुरुषों द्वारा। खुद स्त्रीविमर्श पर बात करने वाले लोग अपनी बेटियों और पत्नियों पर दोहरे मानदंड अपनाते हैं, यह सोचने का विषय है।

लेकिन डॉ. साहब यहाँ हावी तो पुंसवादी दृष्टि ही रही है।

हाँ-हाँ, आप ठीक कह रही हैं।

डॉ. साहब, मार्क्सवाद के बारे में बताएँ? पहले आप इस जीवन दर्शन से प्रभावित रहे लेकिन अब ऐसा नहीं लगता कि आप उससे कुछ अलग हटे हैं। इसमें एक और बात कि स्त्री और दलित लेखन में मार्क्सवाद की भूमिका कितनी बनती है?

देखिए, मार्क्सवादी दृष्टि से हम अलग नहीं हैं। अब हम लोकतांत्रिाक हो गए हैं। मार्क्सवाद को हम व्यवहार में लाए और वही हमारे विचार में भी बदलाव लाया। अब मार्क्सवादी कट्टरता नहीं रही है हमारे भीतर। स्त्री, दलित मुद्दे पर मार्क्सवादी दृष्टि हमें बल देती है। दलित जीवन में वर्ण के साथ वर्गान्तरण हो रहा है और दलित लेखक आत्मबद्ध हो रहे हैं। वर्ण एक सामाजिक सच्चाई है लेकिन वर्ग को दरकिनार करके नहीं देखना चाहिए। अम्बेडकर और मार्क्सवाद दोनों मिलकर दलित लेखन को ताकत प्रदान करते हैं।

हाँ, यह तो सही है लेकिन डॉ. साहब आपने भी जाति केन्द्रित कहानियाँ लिखीं हैं, जिसमें जातीय समस्याओं को लेकर गंभीर विमर्श किया गया है, फिर भी इन कहानियों ने दलित लेखकों का ध्यान आकर्षित नहीं किया?

हाँ, जाति केन्द्रित कहानियाँ हैं चोट, सराय मोहन... जाति को ध्यान में रखकर ७१ में चोट लिखी जो आधार पत्रिका में प्रकाशित हुई। वे तीन घर कहानी सराय मोहन की' उन्हें दलित विमर्श की कहानी नहीं कह सकता, क्योंकि दलित विमर्श तब तक आया ही नहीं था। इसमें सवर्ण दृष्टि... यह लेखक की गलती है। चोट कहानी में दलित अन्तर्विरोध भी है - तीन घरों के बारे में टिप्पणी है इसमें। दलित स्त्री है अपने कामरेड मित्र से कहती है कि उन दलित घरों पर ध्यान मत दीजिए। कहानी सराय मोहन' में ठाकुर, ब्राह्मण, हरिजन हैं। हरिजन रोटियाँ बना रहा है और उसकी रोटियाँ सब खा जाते हैं। भूख के सामने जाति का कोई मतलब नहीं रह जाता। लेकिन जैसे ही पता चलता है कि वह दलित है ब्राह्मण तो पचा जाता है और ठाकुर कै कर देता है और उसकी लुटिया भी चुराकर पंडित जी चल देते हैं। जैसे वे तीन घर दलितों के भीतर के अंतर्विरोध को व्यक्त करती हुई कहानी है वैसे ही कहानी सराय मोहन में ब्राह्मण के प्रति उपहास का भाव है दलित का प्रतिकार है। पर कहानीकार ने स्वयं बताया कि ये दलित विमर्श की कहानियाँ नहीं हैं।

भले ही आप कहें, लेकिन दलितों ने उसकी नोटिस क्यों नहीं ली जबकि दलित टोन तो है?
कोई बात नहीं... उधर ध्यान जाना चाहिए था।

ठाकुर का कुआँ, सद्गति, कफन इस पर क्या कहेंगे? जबकि ये भी तो दलित विमर्श से पहले की कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ बराबर उनके घेरे में हैं क्यों?

सारनाथ वाली गोष्ठी में मैंने कहा था प्रेमचंद बरगद हैं और हम लोग बरोह हैं, जो उसी की डाल से हम लोग निकले हुए हैं जिसकी जड़े जमीन में हो जाती हैं। प्रेमचंद आज भी अद्वितीय हैं। उनके सामने जातियाँ नहीं थी, पूरा देश था। जाति या दलित उसी स्वाधीनता आन्दोलन के अंग हैं।

आज के दलित लेखन को किस रूप में आप देखते हैं?

प्रेमचंद की दृष्टि गाँधीवादी थी और आज के दलित लेखन की दृष्टि अम्बेडकरवादी है। सुमनाक्षर ने रंगभूमि जलायी। जबकि ओमप्रकाश वाल्मीकि, सूरजपाल पाल चौहान की सहमति है प्रेमचंद से। हाँ, असहमति है तो इसलिए कि प्रेमचंद लेखक हैं दलित नहीं। दलितों की पीड़ा केवल दलित ही लिख सकते हैं, जबकि साहित्य में ऐसा कोई अंकुश नहीं है। वे मानते हैं कि दलितों की समस्या पर अम्बेडकरवादी दृष्टि से विचार करें। लेकिन यदि कोई सवर्ण भी अम्बेडकरवादी दृष्टि से लिखे तो भी वे ऐसा नहीं मानेंगे। इसके लिए वे दलित होना आवश्यक मानते हैं। यह नजरिया एकांगी है।

आपने महत्त्वपूर्ण दलित लेखक सूरजपाल चौहान की संतप्त की भूमिका लिखी है। दो पृष्ठ की भूमिका पाठक को बाध्य कर देती है कृति से होकर गुजरने के लिए। डॉ. साहब एक बात बताना चाहेंगे कि सूरजपाल ने दलित पीड़ा को न सिर्फ बाहरी संघर्ष को अभिव्यक्त किया है अपितु दलित समाज के भीतर की संरचना को एकांकित किया है? दूसरे शब्दों में दलित अंतर्विरोधों का खुलासा किया है उन्होंने इस कृति में। हम देख भी रहे हैं। आज यह स्थिति दलित लेखन में तेजी से घर कर रही है। दो हिस्सों में बँटा दलित लेखन कहीं अपने उत्स तक पहुँचने के पहले चूक तो नहीं रहा है?

मैं ऐसा नहीं मानता। कहानियाँ उतनी अच्छी नहीं लगीं आत्मकथा के बनिस्बत। आत्मकथाएँ मुझे बेहद पसंद हैं। अंतर्विरोध आन्दोलन को अंततः मजबूत करता है। यह एक डेमोक्रेटिक प्रोसेस' है। इससे आन्दोलन मजबूत होगा। मैं देखता हूँ प्रगतिशील आन्दोलन को, शिवदान सिंह चौहान, रामविलास शर्मा, प्रकाश चन्द गुप्त, अमृत राय, यशपाल एक ही आन्दोलन में थे। लेकिन इनके विचार विरोधी थे और आन्दोलन प्रभावित हुआ, प्रगतिशील लेखन खत्म हुआ। दलित आन्दोलन का भी ऐसा हो सकता है। लेकिन विचारधाराओं में टकराव से जो स्थिति आएगी उसमें से लेखन की एक उर्वर भूमि बनेगी। विघटन के बीच से जो चीज आएगी उसमें एक ताजगी एक नयी ऊर्जा मिलेगी।

हाँ, यह भी एक संभावना बनती है। लेकिन क्या दलित लेखन में खासतौर पर आत्मकथाएँ एक रस नहीं हो रही हैं?

हाँ-हाँ, जो आन्दोलन हुआ था अफ्रीका में ब्लैक लिटरेचर का वह थम गया। आज दलित आन्दोलन की आवाज भी मद्धिम हो रही है। कंट्राडिक्शन का आना शुभ है यहाँ से ऊर्जा मिलेगी। दूसरी बात सभी एक ही दिशा में सोचेंगे-लिखेंगे तो आन्दोलन का क्या होगा?

फिर भी डॉ. साहब आन्दोलन की धार मद्धिम पड़ी है?
हाँ, ऐसा हो रहा है।

दलित लेखन में स्त्रीलेखन की कमी आपको परेशान करती है? मान लीजिए कि विमला चौहान भी अपने सच को लिखें तो कहीं सच का दूसरा रूप तो उभरकर सामने नहीं आयेगा? क्योंकि शुरू से ही सब कुछ का बहुत हद तक एहसास करते हुए सूरजपाल मूक क्यों बने रहे? उनका लेखन तो काफी बोल्ड है। लेकिन इसके मूल में वजह क्या है? उनमें भी कोई कमी तो नहीं है? लेखन में इतनी प्रखरता साफ दृष्टि और जीवन में इतनी चुप्पी?

विमला चौहान का प्रसंग पढ़ा था भूमिका लिखते समय, उस समय मेरी स्थिति थी कि एक तरफ तो सूरजपाल के सामने सिर झुक रहा था और क्रोध भी आ रहा था कि रोका क्यों नहीं? सूरजपाल की कौन-सी मजबूरियाँ थी? सूरजपाल ने क्यों नहीं रोका क्यों चुप थे? विमला आगे बढ़ती जा रही थी। (क्षणभर चुप रहकर) यह तो विमला ही बता सकती हैं।
दलित लेखन में स्त्रियों को लेकर उनकी समस्याओं को लेकर लेखक चुप हैं, लेखन के क्षेत्र में दलित स्त्रिायाँ भी आगे नहीं आ रही हैं। जबकि मराठी में कुछ दलित स्त्रियों ने बड़ी शिद्दत से अपनी आत्मकथाएँ लिखी हैं?

देखिए, मैं तस्लीमा को पढ़ता हूँ भारतीय लेखिकाओं को पढ़ता हूँ। अब लेखन कम हो रहा है, विमर्श ज्यादा हो रहा है। यहाँ वह तेजस्विता नहीं है। स्त्रीविमर्श का मतलब हिन्दी के लेखक के लिए देहमुक्ति है।

जी डाक्टर साहब, कुछ लेखकों के लिए हो सकता है, पर स्त्रीविमर्श यहीं तक सिमटा हुआ नहीं है। स्थितियाँ तो विपरीत हैं, एक साथ स्त्री पर भूमंडलीकरण, बाजारवाद, पुरोहितवाद मिलकर हमला कर रहे हैं, स्त्री आन्दोलन आज भी साहित्य के धरातल पर ही ज्यादा दीख रहा है। सामाजिक धरातल पर बहुत कम, तो ऐसे में किस प्रकार यह सामाजिक धरातल पर आएगा क्योंकि स्त्रीआन्दोलन और स्त्री साहित्य अस्मत और अस्मिता का साहित्य है?

देखिए, जो हजारों साल से हमारे संस्कार बने हैं, उसे न तो पुरुष लेखक तोड़ रहे हैं और न स्त्रियाँ। स्त्रियाँ तो तोड़ रही हैं बहुत हद तक पुरुष लेखक नहीं तोड़ पा रहे हैं। उनकी फ्यूडल मानसिकता स्त्री शोषण से बाज नहीं आ रही है।

वर्तमान कथा लेखन पर आपकी क्या टिप्पणी है?
संभावनाओं से भरा अच्छा लेखन हो रहा है। हाँ, युवा लेखकों में प्रसिद्धि पाने की बेचैनी है जो घातक है उनके लिए।

पहले लेखन में जो प्रतिरोधी स्वर था जो धार थी, वह धार आज के लेखन में क्या कम हुई है?
(थोड़ा गंभीर होकर) इसे पॉजिटिव ढंग से लेना चाहिए। ये कम अधिक होते रहते हैं। आज के युवा लेखकों में कम लिखकर प्रसिद्धि पाने का जो उतावलापन है, उसी बाजारवाद के कारण है। बाजारवाद के विरोध में लिखते भी हैं और उसी से स्वीकृति भी पाना चाहते हैं। धार तो कमजोर हुई ही है।

अपना रास्ता लो बाबा' में एक छटपटाहट है उस युवक के मन में। उसे लगता है कि उसके अंदर जो लगाव है वह टूटेगा तो कोई बड़ी चीज बिखर जायेगी। लेकिन आज सम्बन्धों के भीतर वह गहराई नहीं रह गयी है, वह उष्मा भी नहीं बची है। उससे रिक्त हो रहा है युवा लेखन। कहीं अपनी आत्मबद्धता के कारण है। इसे पीढ़ियों का गैप ही कहा जा सकता है? इनका लेखन आपको चुनौती नहीं दे पा रहा है। आपको इरीलिवेन्ट साबित नहीं कर पा रहा है। यही कारण है कि आज भी पाठक आपके लेखन को बड़ी शिद्दत के साथ पसंद कर रहे हैं।

इस टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद दे रहा हूँ। आप बहुत सही कह रही हैं। हाँ, यह पीढ़ी हमें हाशिए पर नहीं डाल पा रही है, जबकि इनसे पहले की पीढ़ी में एक ऊर्जा थी, चुनौती थी।
क्या व्यवस्था के साथ उनकी सहमतियाँ ज्यादा बन रही है?

हाँ, ऐसा है। लिखने के साथ जितना श्रम किया जाना चाहिए उतना श्रम नहीं कर रहे हैं। साथ ही लेखक का जो संबंध जनजीवन से होना चाहिए, लोक जीवन से होना चाहिए, अब ऐसा कम है।

सही है जब सुरेश कांटक, अखिलेश, उदय प्रकाश, सृंजय, देवेन्द्र आदि लिख रहे हैं तो उनमें तो एक धार है, कथा लेखन में एक ऊँचाई है।
आपसे मैं सहमत हूँ।

लेकिन आज?

आज निश्चित ही वह बात नहीं रह गयी है जो व्यवस्था को चुनौती दे सके या पाठक को व्यग्र और बेचैन बना सके और उद्वेलित कर सके।

वैसे आज आपको कथा लेखन के क्षेत्र में कौन से नये लेखक आकृष्ट कर रहे हैं?

चंदन पाण्डेय, कुणाल सिंह, मनीषा कुलश्रेष्ठ, राकेश कुमार मिश्र अच्छा लिख रहे हैं। इनके भीतर वह बेचैनी नहीं है जिसे हम लोग महसूस कर रहे हैं अपने लेखन के दौरान। चंदन पांडेय की दो कहानियाँ तो ठीक आयीं लेकिन तीसरी कहानी ऐसी लिखी जिस पर हम उम्मीद रखें या न रखें। देखिए न, आज ही एक लड़के ने फोन किया और कहा कि यह पुरस्कार मुझे मिल जाता तो ठीक रहता। स्वयं के लिए कहा था।


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