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Saturday, November 8, 2008

"शीशा-ऐ-दिल"

Seema gupta


ये माना शीशा-ऐ-दिल ,
रौनके-बाज़ारे- उलफ़त है !
मगर जब टूट जाता है,
तो क़ीमत और होती है !!

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दलित साहित्य, सामाजिक समता का साहित्य है

माता प्रसाद
दलित साहित्य अपमान, शोषण और अपमान की प्रतिक्रिया की दर्दभरी और रोषपूर्ण अभिव्यक्ति है। दलित शब्द का अर्थ - दबाया गया, गिराया गया, दो फाड़ किया गया, अपमानित, शोषित, पीड़ित, वंचित एवं बहिष्कृत आदि है। जब दलित शब्द साहित्य से जुड़ जाता है तो वह दबाये गये, उत्पीड़ित किये गये, अपमानित किये गये, शोषण किये गये और वंचितों का साहित्य हो जाता है। इस साहित्य में जहाँ पीड़ा की चीत्कार होती है वहीं व्यवस्था पर रोषपूर्ण प्रतिकार और उसके उपचार के लिए कड़वी घूट के समान है। इस कड़वी घूँट से कुछ लोग तिलमिला जाते हैं किन्तु अब अधिकांश लोग इसके उद्देश्यों से सहमत होते दिखायी पड़ते हैं।दलित साहित्य में यों तो आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पक्षों को उजागर किया जाता है लेकिन इसमें सर्वाधिक बल सामाजिक विषमता की खाइयों को पाटने पर जोर दिया जाता है। वर्ण व्यवस्था से उत्पन्न जाति व्यवस्था पर चोट कर समाज में समता की स्थिति पैदा करने का प्रयास किया जाता है।
इस प्रकार यह सामाजिक समता का साहित्य है। दलित साहित्य भाग्यवाद, पुनर्जन्म, अंधविश्वास, अवतारवाद, कर्मकाण्ड, मूर्तिपूजा और अंध परम्परा का विरोधी है। यह विज्ञान संबत बातों का समर्थक है। विश्व बंधुत्व स्वतंत्रता, लोकतंत्र, समता, न्याय सेक्युलरिज्म को मानता है। रंग, वर्ण, जाति, लिंग, क्षेत्रावाद और पूंजीवाद का विरोधी है। दलित साहित्य का केन्द्र बिन्दु मनुष्य है।
डॉ० अम्बेडकर के सामाजिक संघर्षों से यह प्रेरित है। दलित साहित्य तथागत गौतमबुद्ध की इस बात को भी मानता है कि जिसमें उन्होंने कहा था कि किसी ग्रन्थ में जो लिखा है उसे सही मत मानो, परम्परा में कोई बात चली आयी है उसे मत मानो, महापुरुषों ने कहा है उसे सही मत मानो, मैं भी जो कह रहा हूं उसे भी सही मत मानो बल्कि अपनी बुद्धि, विवेक और तर्क से जिस बात को सही समझो उसे ही सही मानो और उसी पर चलो।कुछ समय पहले दलित साहित्य को लोग अलगाववादी और जातिवादी साहित्य मानते थे इसलिए दलित साहित्य का विरोध होता था, किन्तु अब धीरे-धीरे लोगों की इस धारणा में परिवर्तन आता जा रहा है। क्योंकि जब तक समाज में दलित साहित्य की स्थिति को भी नकारा नहीं जा सकता है।
मराठी, गुजराती, कन्नड़, पंजाबी और मलयालम में पर्याप्त मात्रा में साहित्य लिखे जा रहे हैं। हिन्दी साहित्य में भी दलित साहित्य की तरफ रूझान बढ़ रही है। हिन्दी की कई पत्रिकाओं ने दलित साहित्य पर अपने विशेषांक निकाले हैं। इस समय देश के विश्व विद्यालयों में अनेक छात्र दलित साहित्य पर शोध कार्य कर रहे हैं कुछ को तो इस कार्य पर एम०फिल्‌ और पी-एच०डी० की उपाधि भी मिल चुकी है।दलित साहित्य की पहचान उसकी सरल भाषा है। साहित्य में जो लिखा जाता है साधारण लोग भी उसकी भावना से अवगत हों इसलिए इसकी भाषा में क्लिष्टता, चमत्कारिता, छंद एवं अलंकार का अभाव होता है। दलित साहित्य में अन्यायों के विरुद्ध लिखा जाता है इसलिए इसकी भाषा कटु और चुटीली भी होती है कहीं अपमान से उत्पन्न प्रतिकार की भावना होती है इसलिए कुछ लोगों को यह पसंद नहीं आती और वे इसे साहित्य की श्रेणी में नहीं मानते।दलित साहित्य लेखन के सम्बन्ध में यह प्रश्न उठाया जाता है कि दलित साहित्य दलित ही लिख सकता है यह उचित नहीं है, बल्कि गैर दलित साहित्यकार भी दलित साहित्यकार हो सकते हैं जैसे - प्रेमचन्द, निराला, नागर, नागार्जुन और धूमिल आदि ने दलितों पर अच्छा साहित्य लिखा है इसलिए यह भी दलित साहित्यकार की श्रेणी में आते हैं। इस सम्बन्ध में यह निवेदन करना है कि दलित साहित्य भुक्त भोगियों का साहित्य है।जाके पांव न फटी बेवाई, वह का जाने पीर पराई।जिस व्यक्ति के पांव में कांटा चुभता है उसको जो पीड़ा होती है वह पीड़ा कांटा चुभे व्यक्ति को देखने वाले को नहीं हो सकती। उसके प्रति उसकी सहानुभूति तो हो सकती है किन्तु पीड़ा नहीं। इस प्रकार दलित साहित्य स्वानुभूति का साहित्य है और दूसरे लोग दलित की पीड़ा से जो साहित्य लिखते हैं वह सहानुभूति का साहित्य है फिर भी जिन गैर दलित साहित्यकारों ने सहानुभूति के हिसाब से ही दलितों की पीड़ा को समाज के सामने रखा है उनका मैं हृदय से सम्मान करता हूँ। प्रेमचन्द, निराला, नागार्जुन, नागर आदि ने अपने साहित्य में दलितों की जो स्थिति अभिव्यक्ति की है वह दलित साहित्यकार के नाते नहीं एक ऊँचे साहित्यकार होने के नाते उनकी दृष्टि में दलित भी ओझल नहीं हो सका।
इस सम्बन्ध में डॉ० रमणिका गुप्ता कहती हैं -''प्रेमचन्द और निराला ने कतई इसे दलित साहित्य की दृष्टि से नहीं लिखा बल्कि मानवीय दृष्टि या जनवादी और प्रगतिशील दृष्टि से अथवा समाज की विकृतियों के विरोध स्वरूप लिखा था और उसकी जनवादी दृष्टि का केन्द्र भी मनुष्य ही था यह उनकी दलितों के प्रति सहानुभूति थी, दलितों की चेतना की दृष्टि नहीं। उनमें वर्गीय समानता की बात मुखर थी।''(डॉ० रमणिका गुप्ता, दलित साहित्य की परिभाषा और सीमाएं, पृष्ठ ६-७)वर्तमान काल में दलित साहित्यकार प्रचुर मात्रा में साहित्य के विविध स्वरूपों पर रचना कर रहे हैं। हिन्दी के अतिरिक्त मराठी, गुजराती, पंजाबी, तेलगू, मलयालम, कन्नड़ और बांगला में दलित साहित्य लिखे जा रहे हैं। हिन्दी की सभी विधाओं में यथा कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, समीक्षा, आलेख, शोध ग्रन्थ, आत्म कथा, लेखन और पत्रा सम्पादन पर्याप्त मात्रा में किये जा रहे हैं जो दलित साहित्य के उज्ज्वल भविष्य के प्रतीक हैं।दलित साहित्य के कुछ साहित्यकार तो हिन्दी के नामी साहित्यकारों से लेखन में टक्कर लेते दिखायी पड़ रहे हैं इनमें डॉ० जय प्रकाश कर्दम, डॉ० एन० सिंह, श्री कंवल भारती, डॉ० धर्मवीर, डॉ० तेज सिंह, ओम प्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, डॉ० पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, एन० सागर, सी०बी० भारती, डॉ० कुसुम वियोगी, विपिन बिहारी, पारस नाथ, डॉ० श्योराज सिंह बेचैन, सूरजपाल चौहान, दयानन्द बटोही, डॉ० प्रेमशंकर, डॉ० सुशीला टाक भौरे, डॉ० बी०आर० जाटव, डॉ० सोहनपाल सुमनाक्षर, डॉ० अवन्तिका प्रसाद मरमट, डॉ० चमन लाल, डॉ० रघुवीर सिंह, डॉ० तारा परमार, बुद्ध शरण हंस, ईश कुमार गंगानिया के नाम प्रमुख रूप से लिये जा सकते हैं।

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कबीर की साखियों और उलटबाँसियों का महत्त्व

डॉ० (श्रीमती) भारती कुमारी
संत कबीर एक क्रांतिकारी कबीर थे। परम्परा से आने वाली समस्त मान्यताओं को किस प्रकार युग के अनुकूल परिवर्तित किया जा सकता है; किस सीमा तक उसका खंडन या मंडन किया जा सकता है, यह अंतर्दृष्टि उनमें थी।
यही कारण है कि शास्त्रीय ज्ञान की उपेक्षा करते हुए उन्होंने जन-मानस को समझा और जातिभेद एवं कर्मकाण्डों का विरोध करते हुए उन्होंने ऐसे विश्व-धर्म की परिकल्पना की, जिसमें विविध वर्गों के लोग बिना किसी बाँधा के समान रूप से एक पंक्ति में बैठ सकें। उन्होंने परिस्थितियों के अभिशाप से धर्म को बचाने के लिए विश्व-धर्म की रूपरेखा प्रस्तुत की।कबीर एक कवि होने के साथ-साथ उच्चकोटि के साधक, सत्य के उपासक और ज्ञानी थे। इसलिए उन्होंने सत्य एवं ज्ञान के निरुपण हेतु अथवा उस परम सत्ता का कल्याणकारी उपदेश देने के लिए काव्य को अपना माध्यम बनाया।
संत कबीर की प्रतिभा सत्य का साक्षात्कार करने में सशक्त और सक्षम थी। यही कारण है कि उन्होंने जो कुछ कहा उसमें गहन अनुभूति एवं सत्यान्वेषण की प्रधानता है। उनका लक्ष्य जिस प्रकार कविता करना नहीं था, उसी भाँति दर्शन की पेचीदगियों को सुझाना भी उन्हें अभीष्ट नहीं था। इतना होने पर भी वह हिन्दी के उत्कृष्ट कवि हैं। उनकी वाणी में साहित्य-नवरसों की अपेक्षा आध्यात्मिक रस की प्रधानता है। भक्ति में प्रेम की विविध भाव-व्यंजनाओं के साथ-साथ उन की ब्रह्म, जीव, जगत, माया आदि से सम्बन्धित विचार-धारा अनुपम है।
उनका समस्त साहित्य एक जीवनमुक्त संत के गूढ़ एवं गंभीर अनुभवों का भण्डार है। कबीर राम रसायन से उन्मत्त होकर सांसारिक जीवन से विरक्त हो स्थितप्रज्ञ या जीवनमुक्त की दशा में आ गये थे। इसी अनुपम प्रेम जगत, भावलोक से, जो उनका वास्तविक जीवन रह गया था, उन्होंने गूढ़ चिन्तन, आस्थाएँ एवं विचार प्रकट किये हैं उनसे हमें उनकी विचारधारा और चिन्तन-परिणामों का ज्ञान होता है।कबीर मूलतः भक्त थे। परम सत्ता पर उनका अविचल अखण्ड विश्वास था। वे अपने उपदेश साधु भाई को देते थे या फिर स्वयं अपने आपको ही संबोधित करके कहते थे।
वाणी द्वारा उन्होंने उस निगूढ़ अनुभवैकगम्य तत्त्व की ओर ध्यान आकृष्ट किया है, उसे ध्वनित किया है ऐसा करने के लिए उन्हें भाषा के द्वारा रूप खड़ा करना पड़ा है और अरूप को रूप के द्वारा अभिव्यक्त करने की साधना करनी पड़ी है। काव्यशास्त्र के आचार्य इसे ही कवि की सबसे बड़ी शक्ति मानते हैं। कबीर के काव्य में कला-पक्ष भले ही शिथिल हो, परन्तु भावपक्ष अत्यन्त उत्कृष्ट है। काव्य में बुद्धि हृदय से अनुशासित रह कर ही सक्रियता पाती है, इसी से उनका दर्शन न बौद्धिक तर्क-प्रणाली है और न सूक्ष्म बिन्दु तक पहुंचने वाली विशेष विचार-पद्धति। वह तो जीवन, जीवन के प्रति उसकी आस्था का दूसरा नाम है। वे वस्तुतः व्यक्तिगत साधना के प्रचारक थे।
वे व्यष्टिवादी थे। सर्वधर्म समन्वय के लिए जिस मजबूत आधार की आवश्यकता होती है वह उनके पदों में सर्वत्र प्राप्त होती है और वह बात है उनकी सटीक वाणी। इसमें भावुकता एवं स्पष्टवादिता पर्याप्त मात्रा में है। यद्यपि उनकी प्रवृत्ति सुधार करना या नेतागिरी की नहीं थी किन्तु वे एक संदेश देने के लिए ही यहाँ आये थे, जिससे समाज में व्याप्त कुरूपता को निकाल सकें। वास्तव में वे तो मानव के दुःख से उत्पीड़ित होकर उसकी सहायता के लिए चले थे। तथापि उन्होंने अपनी उर्वर प्रतिभा द्वारा इस संदेश को इतना मर्मस्पर्शी एवं हृदयग्राही बना दिया कि कबीर की वाणी में सर्वसाधारण को एक वर्णनातीत अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। जनता के दुःख दर्द और उसकी वेदना से फूटकर ही उनके काव्य की सरस्वती प्रवाहित हुई थी। उन्होंने वही कहा जो उनकी आत्मा की कसौटी पर खरा उतरा। सहज सत्य को स्वाभाविक ढंग से वर्णित करने में कबीर का कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है।कबीर साधारण हिन्दू-गृहस्थ पर आक्रमण करते समय लापरवाह होते हैं और इसीलिए लापरवाही भरी एक मुस्कान उनके अधरों पर और स्पष्ट ध्वनि जिह्‌वा पर मानो खेलती रहती है।
इन आक्रमणों से एक सहज भाव एक जीवन्त काव्य मूर्तिमान हो उठा है। यही लापरवाही उनके काव्य का प्राण और वाणी की शान तथा व्यक्तित्व की आन है। सच पूछा जाए तो आज तक हिन्दी में ऐसा शक्तिशाली व्यंग-लेखक और वाणी-विधायक उत्पन्न ही नहीं हुआ। उनकी स्पष्ट प्रहार करने वाली भाषा, बिना कहे भी सब कुछ कह देने वाली शैली अनन्य एवं असाधारण है। उनकी वाणी वह है जहाँ कहने वाला अधरोष्ठों में हँस रहा है और सुनने वाला तिलमिला उठा हो। कबीर की भाषा भीतर तक झकझोर देने की शक्ति रखती है। उनके काव्य की स्वाभाविकता, सरलता एवं भावनात्मकता ने सभी को आकृष्ट किया है और उनकी उत्कृष्ट भावना एवं गूढ़ चिन्तन ने काव्य-क्षेत्र में उन्हें मूर्धन्य स्थान प्रदान किया है। उन्होंने अत्यन्त सहज और सरल भाषा के द्वारा संयोग और वियोग के जो भावुकतापूर्ण चित्रा अंकित किए हैं, सरल एवं अप्रतिम प्रतीकों के द्वारा जीवन की जिन गहनतम अनुभूतियों को चित्रित किया है, प्रभावशाली रूपकों के द्वारा आत्मा और परमात्मा के मधुर मिलन को रूपायित किया है वह निःसंदेह हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।
कबीर काव्य रूढ़ियों के ज्ञाता न होकर भी अनुभवी शब्द-चितेरे थे, काव्य-कला के मर्मज्ञ न होकर भी शब्द-शिल्पी थे और महान्‌ संगीतज्ञ न होकर भी हिन्दी की दिव्य एवं आलौकिक कविता के महान गायक थे।कबीर की साखियों का महत्त्वसाखी की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। श्वेताम्बर उपनिषद् में साखी शब्द का प्रयोग परमसत्ता के अर्थ में हुआ है। यथा - एकोदेवः सर्वभूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्व भूतान्तरात्मा।/कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेताकेवलोनिर्गुणश्च॥साखी का प्रयोग परवर्ती काव्यकारों के अनुसार साक्षी या प्रत्यक्ष दृष्टा या प्रामाणित ज्ञान के लिए हुआ है। साखी शब्द संस्कृत के साक्षी का तद्भव है। साक्षी का अर्थ होता है-गवाह। गवाही के लिए संस्कृत में साक्ष्य शब्द है। साक्षी वह है जिसने स्वयं अपनी आँखों से तथ्य को देखा हो।
साक्ष्य का अर्थ है - आँख से देखे हुए तथ्य का वर्णन। साखी का प्रयोग नीतिकाव्य में बहुत हुआ है। नीति काव्य के रचयिताओं ने नीति की बातें करते समय साखी का ही प्रयोग किया है। यह साखी अपभ्रंश काल से प्रचलित है। संत काव्य में तो इसका बोलबाला है। कबीर ने अपनी इन उक्तियों का शीर्षक साखी इसलिए दिया है, क्योंकि उन्होंने इनमें वर्णित तथ्यों का स्वयं साक्षात्कार किया है। उन्होंने किसी दूसरे से सुनकर अथवा दूसरे ग्रन्थों में उपलब्ध बात नहीं कही है। साखी का भाव केवल यही है कि स्वसंवेद्य स्वानुभूत आध्यात्मिक तथ्यों अथवा ज्ञान का वर्णन जिसमें किया गया हो वही ÷साखी है। कबीर ने अपने साक्षात्‌ अनुभव, यथार्थ ज्ञान और प्रत्यक्ष अनुभूति को साखियों के द्वारा जनता के समक्ष प्रस्तुत किया है। साखी का एक अर्थ महापुरुषों के आप्त-वचनों से भी है। हमारे दैनिक जीवन में आने वाली विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए, नैतिक, आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक उलझनों को सुलझाने के लिए, अज्ञानजनित भ्रम एवं सन्देह के निवारण हेतु तथा अपनी भूलों को सुधारने के लिए जिस आत्म-ज्ञान की जरूरत पड़ती है, वह इन साखियों में विद्यमान है। इस ज्ञान के अभाव में संसार के कष्टों एवं माया के प्रपंच से मुक्ति संभव नहीं है - साक्षी आँखी ज्ञान की, समुझि देखि माहिं।/बिना साखी संसार का, झगरा छूटत नाहिं॥कबीर ने साखी के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि पदों का ज्ञान प्राप्त करने से केवल मन आनंदित होता है, परन्तु साखी के ज्ञान से आनंद के साथ-साथ अनुभव व आत्म-ज्ञान की प्राप्ति होती है। इस आनन्द से मन शुद्ध होकर परमसत्ता का अनुभव करता है। जैसे - पद गायें मन हरषिया, साखी कहाँ आनंद।
कबीर ने परमपिता परमात्मा की प्रेरणा से ही साखियों को अपनी वाणी प्रदान की। जिससे भवसागर के प्राणी ज्ञान प्राप्त करके मुक्ति-लाभ प्राप्त कर सकें-हरिजी यहे विचारिया, साखी कहौ कबीर। भौ सागर में जीव है, जे कोई पकड़े तीर॥संसार के सभी प्राणी माया के बन्धन में आबद्ध हैं। इससे त्राण का एक मात्रा उपाय है प्रभु-भक्ति, इसी भक्ति का निरुपण कबीर ने अपनी साखियों में कुशलता पूर्वक किया है और इस तथ्य का निरुपण भी किया है कि जो मनुष्य साखी कहता तो है परन्तु उसके वास्तविक अर्थ को ग्रहण करके उसके अनुकूल आचरण नहीं करता वह मोहरूपी नदी के जल में इस तरह बहता रहता है कि उसके पैर तक जल में नहीं टिकते और अन्त में उसी जल में डूब जाता है। उदाहरण स्वरूप - साखी कहैं गहै नहीं, चाल चली नहिं जाय।/सलित मोह नदिया बहै, पाँव नहीं ठहराय॥
इससे सिद्ध होता है कि साखियों के अनुकूल आचरण करने से ही मानव-मात्रा का कल्याण हो सकता है। साखी भवसागर से पार करने वाली अनुपम नौका है।कबीर ने अपनी साखियों का महत्त्व बताते हुए कहा है कि साखी के बिना संसार का झगड़ा समाप्त नहीं होता। अतः संसार में भटकने वाले मानव को सही मार्ग दिखाने का माध्यम ही साखी है। डॉ० राम कुमार वर्मा ने स्पष्ट किया है कि (साखी का अर्थ प्रत्यक्ष ज्ञान मानते हुए) वह प्रत्यक्ष ज्ञान गुरु शिष्य को प्रदान करता है। सन्त सम्प्रदाय में अनुभव जन्य ज्ञान की महत्ता है, शास्त्रीय ज्ञान की नहीं। इस प्रकार सत्य की साक्षी देता हुआ ही गुरु जीवन के तत्त्व ज्ञान की शिक्षा शिष्य को देता है। यथा- चेतन चौकी बैसि करि, सतगुरू दीन्हाँ धीर।/निरभै होई निसंक भजि, केवल कहै कबीर॥कबीर ने अपनी साखियों का विभाजन अंगों में किया है। जैसे-गुरुदेव कौ अंग, सुमिरन कौ अंग, विरह कौ अंग, ग्यान-विरह कौ अंग, परचा कौ अंग, माया कौ अंग, मन कौ अंग, पीव पिछाँवन कौ अंग, सहज कौ अंग आदि। तत्त्व ज्ञान की शिक्षा जितनी प्रभावपूर्ण होती है, उतनी ही स्मरणीय है। इसी कारण सन्त सम्प्रदाय में साख इतनी अधिक मात्र में है।
इन साखियों में गुरु की महत्ता, नाम स्मरण की महिमा, ज्ञान प्राप्ति से मानव-कल्याण आदि का प्रतिपादन करते हुए यह समझाने की चेष्टा की गई है कि सतगुरु की कृपा से ही मानव सांसारिक प्रपंचों से मुक्त होकर ईश्वर-प्राप्ति में सफल होता है। जैसे - सतगुरु की महिमा अनँत, अनंत किया उपगार।/लोचन अनंत उघारिया, अनंत दिखावन हार॥
कबीर ने समस्त सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने के लिए इन साखियों द्वारा मानव को आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख किया है।मन को सभी विकारों से रहित करके सदाचार और शुद्धाचरण द्वारा मनुष्य को सज्जनों की संगति करनी चाहिए, क्योंकि सज्जनों के संगति से मन निर्मल हो जाता है। जैसे - कबीर संगति साध की, कदै न निरफल होइ।/चंदन होसी बांबना, नींव न कहसी कोई॥
कबीर की साखियों में सूक्ष्म अनुभूति के साथ-साथ दार्शनिकता का भी बेजोड़ समन्वय है। उनकी ब्रह्म-भावना आदि से अंत तक अद्वैत परक है। किन्तु उस अद्वैत की प्राप्ति का प्रारम्भ या प्रयत्न जब कबीर करते हैं, प्रिय परमात्मा से वियुक्त हृदय की मनोभावनाओं की जिस समय अभिव्यक्ति करते हैं, उस समय वे द्वैत भावना से प्रस्थान करते हैं। इस द्वैत भावना से कबीर की अद्वैत भावना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे सर्वत्रा उसका निरुपण उपनिषदों के समान अद्वैत भावना से उत्प्रेरित होकर की करते है। - कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढै बन माहिं।/ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं॥
कबीर ने अपनी साखियों में ब्रह्म और जीव की अद्वैतता, जगत और ब्रह्म का अभेद तथा माया के द्वारा ब्रह्म और जगत्‌ की भिन्नता का प्रतिपादन बड़े सुन्दर ढंग से किया है। उन्होंने निरुपित किया है कि आत्मा और परमात्मा की वस्तुतः एक ही सत्ता है। माया के कारण ही परमात्मा में नाम और रूप का अस्तित्व है। आत्मा और परमात्मा एक ही शक्ति के दो भाग हैं, जिन्हें माया के परदे ने अलग कर दिया है। जब ज्ञानार्जन से माया नष्ट हो जाती है तब दोनों भागों का पुनः एकीकरण हो जाता है। आत्मा और परमात्मा के मिलन में माया ही बाधक है। कबीर की साखियाँ अद्वैतवाद की पोषक हैं। उन्होंने अपनी साखियों में माया के त्रिागुणात्मक रूप से बचने की सलाह दी है जैसे - बुगली नीर बटालिया, सायर चढ्या कलंक।/और पँखेरू पी गये, हंस न बोवे चंच॥
कबीर ने अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से उचित एवं उपयुक्त प्रतीकों द्वारा आत्मा-परमात्मा के मिलन, साधक की विरहानुभूति, हठयोग की साधना आदि का वर्णन किया है। आत्मा-परमात्मा के मिलन से सम्बन्धित साखी अविस्मरणीय है-सुरति समांणी निरति मैं, अजपा मांहै जाप।/लेख समाणां निरति मैं, यूँ आपा मांहै आप॥इस प्रकार कबीर ने गूढ़ दार्शनिक तथ्यों को साखियों के माध्यम से बड़ी सहजता के साथ प्रस्तुत किया है।कबीर की साखियाँ अधिकांशतः दोहा छन्द में हैं, परन्तु कुछ साखियाँ चौपाई, श्याम, उल्लास, हरिपद, गीत, सार और छप्पय आदि छन्द में भी प्राप्त होती हैं। विरहिणी कौ अंग' भाग में विप्रलम्भ श्रृंगार की अत्यन्त गहन तीव्रानुभूति के साथ अभिव्यक्ति हुई है - यह तन जारौं मसि करौ, लिखौ राम का नाउँ।/लेखनि करौ करंक की, लिखि लिखि राम पठाउँ॥
इन साखियों में उक्ति वैचित्रय, भाव गाम्भीर्य एवं अर्थ सौष्ठव दर्शनीय है। सभी साखियाँ जीवन की भावनात्मक एवं कलात्मक विवेचना से परिपूर्ण हैं, इनमें मनोभावों की अनुभूति के साथ-साथ कवित्व का चमत्कार भी सर्वत्रा विद्यमान है। उच्चकोटि की परिष्कृत व्यंग्यात्मक अभिव्यंजना के कारण ये हृदय पर तीखा प्रहार करती हैं। कबीर की काव्य प्रतिभा के प्रत्यक्ष प्रमाण हेतु हठयोग की साधना का यह वर्णन श्रेष्ठ है। यथा - आकासे मुखि औंधा कुआँ, पाताले पनिहारि।/ताका पाँणी को हँस पीवै, विरला आदि विचारि॥
कबीर ने इस साखी में उलटबाँसी के माध्यम से साधना के द्वारा कुण्डलिनी के जाग्रत होने और सहस्रार कमल (चक्र) पर पहुँचने की अनुभूति को व्यक्त किया है।सारांश यह है कि कबीर की साखियाँ सहज स्वाभाविक सौन्दर्य से ही ओत-प्रोत नहीं हैं वरन्‌ वैयक्तिक अनुभूतियों की अक्षय निधि भी हैं। अयत्नसाधित होने के साथ-साथ ज्ञान और भक्ति, नैतिकता और व्यावहारिकता, दार्शनिकता और भावुकता, आध्यात्मिक और लौकिकता का समुच्चय है। कबीर ने इन साखियों के द्वारा सर्व साधारण को उस परमसत्ता का आभास कराके उससे भावनात्मक सम्बन्ध जोड़ने का श्रेष्ठ मार्ग दिखाया है। इन साखियों के आलोक में सांसारिक मोहजाल में भूले-भटके व्यक्ति, सत्य-मार्ग का अनुसंधान कर सकते हैं। उनकी साखियाँ मानव-मात्रा के हृदय में विश्व बन्धुत्व का भाव जाग्रत ही नहीं करती अपितु मानव को आत्म-निरीक्षण की ओर भी उन्मुख करती हैं।
अनासक्तिपूर्ण कर्मों द्वारा मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करती हैं। मानव को सत्कर्म एवं सदाचरण की प्रेरणा प्रदान करती हैं। इन साखियों में उनका अप्रतिम एवं कालजयी व्यक्तित्व विद्यमान है।
कबीर की उलटबाँसियाँकबीर के काव्य में एक साधक चित्त की अनुभूति की गहनता है। कवि ने जिस अनिर्वचनीय परमतत्त्व को वाणी का विषय बनाया है, उसकी अभिव्यक्ति अभिधा द्वारा सम्मत नहीं। अतः कबीर ने प्रतीकों का आश्रय लिया है अथवा ध्वनि या व्य×जना द्वारा उस परमानन्द की ओर संकेत किया है। इसलिए उनकी वाणी प्रायः अटपटी या उल्टी लगती है। उनके काव्य में निहित प्रतीकों या ध्वन्यार्थ को समझे बिना, भावों की गहराई तक पहुँचना कठिन है। इसके अतिरिक्त कबीर के पहले नाथ-योगियों, बौद्धों-सिद्धों तथा अन्य साधन-सम्प्रदायों में परम्परा से प्रयुक्त होते चले आ रहे थे। उन्होंने अपनी बात स्पष्ट करने के लिए अनेक शब्दों को ग्रहण किया है।
कबीर ने उन्हें नयी अर्थवत्ता से भास्वर कर दिया है। उलटबाँसी भी उनकी अभिव्यक्ति का एक रूप है।आध्यात्मिक अनुभव की अलौकिक अभिव्यक्ति हेतु साधक कभी-कभी परस्पर विरोधी उक्तियों द्वारा अपनी बात स्पष्ट करता है जिससे गूढ़-प्रतीकों की सृष्टि स्वतः ही हो जाती है इन्हीं गूढ़-प्रतीकों को उलटबाँसी या उलटा कथन या विपर्यय कहा जा सकता है। पं. परशुराम चतुर्वेदी ने गुरु गोरखनाथ की उलटी चरचा के आधार पर उलटबाँसी शब्द की कल्पना की है। उलटबाँसी शब्द को उलटा तथा बाँस शब्दों से निर्मित भी माना जा सकता है। जिस दशा में उसका सही अर्थ वैसी रचना के अनुसार होगा जिसका बाँस (पार्श्व भाग या अंग) उलटा या विपरीत ढंग का हो।
डॉ. सरनाम सिंह शर्मा ने उलटबाँसी शब्द की दो व्युत्पत्तियाँ दी हैं - एक तो उलटबाँसी संयुक्त शब्द और दूसरी उलटबाँस से सम्बन्धित। पहले शब्द उलटबाँस का अर्थ उलटी हुई और सी का अर्थ समान अर्थात्‌ उलटबाँसी का अभिप्राय हुआ उलटी हुई प्रतीत होने वाली उक्ति। दूसरी व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में बताया गया है कि परमपद या अध्यात्म-लोक में रहने वाले का निवास वास्तव में उलटबास' है। इससे सम्बन्धित कथन उलटबासी वाणी कहला सकती है। आध्यात्मिक अनुभूतियाँ अलौकिक एवं असाधारण होती है जो लोक-दृष्टि से उलटी प्रतीत होती हैं। इस शब्द में वा के ऊपर की सानुनासिकता अकारण है।डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उलटबाँसी का सम्बन्ध सन्ध्या-भाषा से स्थापित किया है। उनके मतानुसार सहजयानियों में इस प्रकार की उलटी बानियों को सन्ध्या-भाषा कहा जाता था। सान्ध्य-भाषा' वह है, जिसका कुछ अंश समझ में आये और कुछ अस्पष्ट रहे अर्थात्‌ अन्धकार और प्रकाश के मध्य की-सी भाषा को सन्ध्या-भाषा कहते हैं। कुछ विद्वान्‌ सन्ध्या-भाषा को सान्ध्य-भाषा भी मानते है, जिसका अर्थ है -अभिसंधि-सहित या अभिप्राय-युक्त भाषा।इसी प्रकार उलटबाँसी शब्द विपरीत तथा अस्पष्ट कथन का द्योतक प्रतीत होता है, क्योंकि कबीर ने स्वयं इन्हें उलटा वेद कहा है और इस प्रकार के उलटे एवं अस्पष्ट कथन ऋग्वेद से लेकर सिद्धों तक की बानियों में मिलते हैं। इस प्रकार की बानियाँ उपनिषदों में भी मिलती है। ऐसे ही उलटे तथा अस्पष्ट कथन सिद्धों एवं नाथ योगियों में भी मिलते हैं। सिद्ध ने कहा है कि बैल व्याता है और गाय बाँझ रहती है तथा बछड़ा तीन समय दुहा जाता है। गुरु गोरखनाथ ने कहा कि पानी में आग लगी हुई है, मछली पहाड़ पर है और खरगोश जल में है।इस तरह की उलटी एवं विपरीत तथा अस्पष्ट कथन की प्रणाली अत्यन्त प्राचीन काल से मिलती हैं। ये उक्तियाँ कबीर और सिद्धों आदि में समान रूप से प्राप्त होती हैं। कदाचित्‌ इसका कारण इन उक्तियों का साधारण जनता में अत्यधिक प्रचलन था। आज भी ग्राम्य समाज में हप्प सुन्नो भई गप्प, नाव बिच नदिया डूबी जाय जैसी उक्तियाँ सुनने को मिल जाती हैं। कुछ लोकोक्तियों में भी इन उलटबाँसियों की छाया मिलती है - जो बैल ब्याहै नाय तो, बूढ़ो ना होय।कहने का तात्पर्य यह है कि कबीर के समय तक इस प्रकार की उक्तियों का पर्याप्त प्रचलन हो गया था। हठयोगी साधना के सिद्धों और नाथों की परम्परा से ग्रहण करने वाले कबीर पर उनकी उलटबाँसी शैली का प्रभाव अवश्य पड़ा होगा।
उन्होंने जो उलटबाँसी लिखी है उनकी कुंजियाँ प्रायः ऐसे साधु और महंतों के पास है जो किसी को बतलाना नहीं चाहते, अथवा ऐसे साधु और संत अब हैं ही नहीं। यह भी संभव है कि यह रहस्य छिपा हो कि सिद्ध एवं गुरु अपने भक्तों में जिज्ञासा उत्पन्न करने के लिए तथा उन्हें आश्चर्यचकित करने के लिए ऐसी अटपटी एवं विचित्रा बानियों का प्रयोग करते हों। परन्तु भारत में इनकी एक सुदीर्घ परम्परा प्राप्त होती है तथा इनमें गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों का उल्लेख है।कबीर की उलटबाँसियाँ अत्यन्त मनोरंजक होने पर भी दुःसाध्य है। इनमें जटिल विचारों की अनगिनत काली गुफायें हैं। यह जीवात्मा की उस अन्तर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल संबंध जोड़ना चाहती है। कबीर ने भी कितनी ही उलटबाँसियाँ लिखी हैं जो रहस्यात्मक होने के साथ-साथ अटपटी, आश्चर्यचकित करने वाली एवं विचित्र हैं।
आध्यात्मिक अनुभूति से परिपूर्ण होने के कारण ये किसी न किसी तात्त्विक रहस्य की ओर संकेत करती हुई जान पड़ती हैं। ये सभी लोक-व्यवहार एवं प्राकृतिक नियमों के सर्वथा विरूद्ध जान पड़ती हैं किन्तु इनमें सांकेतिक रूप से एक गूढ़ तात्त्विक सिद्धान्त की विवेचना निहित रहती हैं।विद्वानों ने कबीर की उलटबाँसियों के तीन वर्ग किये हैं - १. अलंकार प्रधान, २. अद्भुत प्रधान तथा ३. प्रतीकात्मक प्रधान।१. अलंकार प्रधानइन उलटबाँसियों में अधिकांशतः विरोधी तथा विचित्रा बातें रहती हैं। इनमें प्रयुक्त अलंकार भी विरोधमूलक हैं। जो किसी न किसी रूप में आश्चर्य की सृष्टि करते हैं। इन अलंकारों में विरोधाभास, असंभव, विभावना, असंगति, विषम आदि की प्रधानता रहती है। विरोधाभास का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं - जे काटौ तो डहडही, सींचौ तो कुम्हलाइ।विभावना अलंकार का सौन्दर्य भी दर्शनीय है - बिन मुख खाइन चरन बिन चालै, बिन जिम्यागुण गावै। आछै रहै ठौर नहीं छाड़ै, दह दिसिहिं फिरि आवै।अन्यत्रा कबीर ने सांगरूपक द्वारा सहज समाधि में लीन योगी की अवस्था का चित्रा इस तरह अंकित किया है - गंग जुमन उर अन्तरै, सहज सूंनि ल्यौघाट।/तहाँ कबीरै मठ रच्या, मुनि जन जावैं बाट॥इन रूपकों में आध्यात्मिक संकेत के साथ-साथ अद्भुत कवित्व भी विद्यमान है।२. अद्भुत प्रधानकबीर की कुछ उलटबाँसियाँ अद्भुत एवं अलौकिक वर्णनों से युक्त होने के कारण अद्भुत रस भी परिपूर्ण हैं। उन्होंने इन उलटबाँसियों में प्रतीकों का आश्रय तो अवश्य लिया है, परन्तु कवि ने अत्यन्त आश्चर्यपूर्ण चित्र प्रस्तुत किया है। ये उलटबाँसियाँ उनकी गहन एवं सूक्ष्म अनुभूति को अभिव्यक्त करती हैं - डाला गह्या थैं मूल न सूझै, मूल गह्यां फल पाया। बंबई उलटि शरप कौ लायी, धरोणि महारस खावा॥ बैठि गुफा में सब जग देख्या, बाहरि कछू न सूझै। उलटै धनकि पारधी मारयो, यहु अचरित कोई बूझै॥ अथवा - एक अचंभा देख रे भाई, ठाड़ा सिंह चरावै गाई।/पहले पूत पीछे भई माई, चेला के गुरु लागै पाइ॥भक्तों के हृदय में जिज्ञासा एवं आश्चर्य उत्पन्न करती है। इनका भावार्थ जानने में कठिनाई का अनुभव होता है।३. प्रतीकात्मक प्रधानप्रतीकात्मक उलटबाँसियों में कबीर ने साधना के निगूढ़ रहस्यों को प्रायः रूपक आदि के द्वारा कहा है। इनमें कहीं रूपक प्रधान है तो कहीं प्रतीक प्रधान है। इन उलटबाँसियों के प्रतीकों में आध्यात्मिक अनुभूति के साथ-साथ कबीर की गूढ़तम भावना एवं रहस्यात्मक विचारों का सुन्दर सामंजस्य हुआ है। निम्नस्थ उदाहरण रूपक प्रधान हैं - कैसे नगरि करौ कुटवारी, चंचल पुरिष विचषन नारी।/बैल बियाइ गाइ भई बांझ, बछरा छूहे तीन्यो साँझ॥/मकड़ी धरी भाषी छछिहारी, माँस पसारि चील्ह रखवारी॥/मूसा खेवट नाव बिलइया, मींडक सोवै साँप पहरइयाँ॥/निति उठि स्याल स्यंधासूँ झझै, कहै कबीर कोई बिरला बूझै।उक्त पद में कबीर ने अद्भुत मानवेत्तर प्राणियों के प्रतीकों द्वारा उनके अस्वाभाविक व्यापारों का वर्णन करते हुए नगर के शासन प्रबन्ध में उत्पन्न बाधा की ओर भी संकेत किया है। इन प्रतीकों द्वारा मानव-शरीर के अन्तर्गत उत्पन्न बाधाओं का उल्लेख करते हुए उन्होंने संसार के प्रपंच से ग्रस्त जीव की दीन-हीन अवस्था का उत्कृष्ट वर्णन किया है।कबीर की उक्तियों में कहीं-कहीं प्रतीक ही प्रधान है, ऐसे स्थानों पर रूपक-योजना गौण हो जाती है यथा - है कोई जगत गुर ग्यानी, उलटि बेद बूझै।/पांणी में अगनि जरै, अंधेरे को सूझै॥/एकनि दादुर खाये पंच भवंगा।/गाइ नाहर खायौ, कटि अंगा॥/बकरी बिघार खायौं, हरनि खायौ चीता।/कागिल गर फांदियां, बटेरै बाज जीता॥मूसै मंजार खायौ, स्यालि खायी स्वांनां।/आदि कौं आदेश करत, कहै कबीर ग्यांना॥ज्ञानी कबीर इस कथन द्वारा प्रभु का ही संदेश अर्थात्‌ प्रभु-भक्ति का संदेश देना चाहते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि कबीरदास जी के प्रतीक और उलटबाँसियों में प्रेम के अद्भुत रहस्य और ज्ञान का अपरिमित अक्षय कोष भरा पड़ा है।
अतः कबीर की उलटबाँसियों में विभिन्न विषयों पर अथाह ज्ञान भरा पड़ा है। उलटबाँसियों में सांसारिक प्रेम, माया-प्रपंच, ज्ञान-विरह, आत्मज्ञान, मन आदि का वर्णन मिलता है। विविध प्राणियों एवं प्राकृतिक पदार्थों के कार्यों एवं व्यापारों का निरूपण भी सूक्ष्मता के साथ किया गया है। कबीर ने कहीं वन, उपवन, शरीर आदि के रूपकों द्वारा सैद्धान्तिक निरूपण किया है तो कहीं कमल, चरखा, बेल, नगर, कोतवाल आदि के प्रतीकों द्वारा साधना पथ के रहस्यों का उद्घाटन किया है। इस तरह कबीर की उलटबाँसियाँ भले ही अटपटी, अस्पष्ट या उलटी बात कहलाती हों, परन्तु इनमें कबीर के दार्शनिक सिद्धान्तों के साथ-साथ आध्यात्मिक तथ्यों का लौकिक तथा अलौकिक रूप में मर्मस्पर्शी वर्णन मिलता है।
संदर्भ-ग्रन्थ
१. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास।
२. कबीर ग्रन्थावली।३. कबीर साहित्य की परख।
४. कबीर : एक विवेचन।
५. डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी : कबीर
६. हिन्दी भाषा का इतिहास।

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सच्ची सहेली

नासिरा शर्मा



रेशमा का रोते-रोते बुरा हाल था। आज वह कालेज भी नहीं गई थी। मां के बहुत मनाने पर भी उसने कल से कुछ खाया न था। मां की जान मुसीबत में थी। एक तरफ शौहर का गुस्सा और दूसरी तरफ बेटी की जिद। किस का साथ दें और किस से रुठें ? बड़ी देर तक चुपचाप बैठी रही। अचानक कुछ याद आया। सिर पर चादर डालकर वह घर से बाहर निकली और पड़ोस में रहने वाले मौलाना वहीद के घर गईं। ‘‘कहो बीबी कैसे आना हुआ ?’’ मौलाना ने तस्बीह (माला) घुमाई।‘‘बेटी की शादी तय हो रही है।’’ धीमे से रेशमा की मां बोली।
‘‘मुबारक हो....तारीख निकलवाना है ?’’
मौलाना की आंखें चमकीं।‘‘ऐसी किस्मत कहां ? बेटी शादी से मना कर रही है और उसके वालिद जिद पर हैं......आप से मदद मांगने आई हूं।’’ रेशमा की मां की आवाज भर्रा गई।‘‘माजरा क्या है ?’’ मौलाना ने भवें सिकोंडी।‘‘हमीद बटुए वाले के यहां से बात आई है। दौलतमंद आदमी है। बीवी मर गई हैं अब वह दूसरी शादी करना चाहता है। उसके पांच बच्चे हैं। बड़ी लड़की रेशमा से पांच छह साल छोटी है। मैं यह शादी रुकवाना चाहती हूं।’’ कांपती आवाज से मां बोली।‘‘अच्छा ! कायदे की बात तो यह है कि हमीद को किसी विधवा से शादी करना चाहिए। उसको भी सहारा मिल जाएगा और इसके बच्चे भी पल जाएंगे !’’ मौलवी बोले।

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दलित साहित्य : अंतर्विरोधों के बीच और उनके बावजूद

डॉ० शिवकुमार मिश्र
अपने को साहित्य और साहित्य के आन्दोलनों तक ही सीमित रखें तो उनका विकास और उनके विकास का इतिहास साक्षी है कि अंतर्विरोधों से साहित्य की कोई भी धारा और साहित्य का कोई भी आन्दोलन कभी मुक्त नहीं रहा। अंतर्विरोध विकास में सहायक भी होते हैं और यदि उन्हें हल न किया गया तो विकास को अवरूद्ध भी करते हैं। आन्दोलनों को दिशाहीन, विघथित और कमजोर करते हैं।
चूँकि संप्रति हमारी चर्चा के केन्द्र में दलित साहित्य है, अतएव हम अपने को विचार और व्यवहार के स्तर पर उभरे दलित साहित्य और उसके आन्दोलन के अंतर्विरोधों तक ही सीमित रखेंगे। आज जबकि दलित साहित्य अपनी विशिष्ट पहचान के साथ भारत की अनेक भाषाओं में लगभग स्वीकृत और मान्य हो चुका है और नई सदी के साहित्यिक-विमर्श के केन्द्र में है, जरूरी है कि इस बात को रेखांकित किया जाए कि अंतर्विरोधों ने उसके विकास को कितनी गति दी है या उसके विकास को कितना अवरूद्ध किया है।आइए सबसे पहले ऐसे एक दो मुद्दों को लें, जिन पर दलित लेखकों और गैर दलित लेखकों के बीच लंबे समय से विमर्श चल रहा है और जिन पर कोई भी सहमति नहीं बन सकी है।
अपने एक आलेख में मैंने ऐसे मुद्दों को जो अपने-अपने आग्रहों के चलते विवादास्पद बने हुए हैं, गैर-जरूरी मानते हुए छोड़ देने को कहा है, ताकि विमर्श जरूरी मुद्दों पर आगे बढ़े। बावजूद इसके, जब मैं उन्हें यहाँ उठा रहा हूँ तो संक्षेप में ही सही, उनके अंतर्विरोध को देखें।बात है, कि किसी रचना की पहचान का मूलवती आधार क्या हो? उसकी अंतर्वस्तु या कि यह बात कि उसका रचने वाला कौन है? दलित लेखक बंधु आग्रह पूर्वक अपनी इस बात पर अड़े हुए हैं दलित रचना वही है जिसका रचनाकार दलित हो, जबकि गैर-दलितों में ऐसे वरिष्ठ लेखक हैं जो अपने आग्रहों के नाते इस बात को नहीं मानते। वे दलित रचना उसे मानते हैं जिसकी अंतर्वस्तु दलित जीवन संदर्भों वाली हो, और दलितों के पक्ष में हो। तर्क की जमीन पर दूसरी बात संगत है, परन्तु दलित लेखक उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। रोटी की पहचान उसकी अंतर्वस्तु और उसका स्वाद है ना कि उसे किसने बनाया है? मैंने अपने कुछ दलित लेखक मित्रों के सामने सवाल रखा कि मैं आपको दलित जीवन संदर्भों की चार रचनाएँ देता हूँ।
आप बताएँ कि उनमें से कौन-सी रचना दलित आकांक्षाओं की रचना है? मैं रचनाकारों के नाम नहीं बताऊँगा। आपके द्वारा चुनी गयी रचना यदि गैर-दलित रचनाकार की हुई तो क्या आप अपने पुराने आग्रह को छोड़ने को तैयार होंगे? उनके पास मेरी बात का कोई उत्तर नहीं था। तर्क की जमीन पर ओम प्रकाश वाल्मीकि लिखकर मुझसे स्वीकार करते हैं कि रचना की पहचान का मापदण्ड उसकी अंतर्वस्तु है, परन्तु विमर्श में फिर से अपनी मूलवती जिद पर आ जाते हैं।दलित लेखक तर्क देते हैं कि जिस स्वानुभूति में दलित गुजरता है वह गैर-दलित को हो ही नहीं सकती। जो भोगता है वही जानता है। इस तर्क में दम है। मैं मान चुका हूँ कि आपबीती का कोई विकल्प नहीं होता।
दलित जिस यातना के अनुभव से गुजरे हैं, प्रेमचन्द, जगदीश चन्द्र या दूसरे जिन गैर-दलित लेखकों ने दलितों पर लिखा है, सचमुच उस यातना का वैसा अनुभव नहीं कर सकते। परन्तु यह स्थिति अर्द्ध सत्य की ही स्थिति है। यह मानते हुए भी आपबीती का, भोगे हुए अनुभव, कोई विकल्प नहीं, रचना की एकमात्रा शर्त वह नहीं हो सकती। साहित्य को, रचना को, भोगे हुए तक ही सीमित मान लेने के हश्र हम पहले भी देख चुके हैं। भोगे हुए तक साहित्य को सीमित करना उसकी शक्ति, व्याप्ति और संभावनाओं, सबको समाप्त मान लेना है। ऐसा मानने पर संसार के बहुत उत्कृष्ट साहित्य से हमें वंचित होना पड़ेगा। तोल्सतोय काउण्ट थे परन्तु जारशाही के समय के रूस के गाँवों और किसानों के जीवन के यथार्थ को उन्होंने जिस तरह अपनी रचनाओं में उतारा लेनिन को कहना पड़ा कि रूस के गाँवों के जीवन के बारे में उन्हें सबसे प्रामाणिक जानकारी तोल्सतोय की रचनाओं से मिलती। लेनिन समाज का रूपान्तरण करना चाह रहे थे, क्रांति की अगुवाई कर रहे थे।
प्रेमचन्द ने कभी किसानी नहीं की परन्तु किसानों और गाँवों के बारे में उन्होंने जो कुछ लिखा आज भी मिसाल के तौर पर मान्य है। भोगे हुए को ही रचना की शर्त मान लेने पर दलित लेखन भी सीमित होगा। तब जिस जाति को जो दलित लेखक है वह दलित मात्रा के लिए लिखने का अधिकारी न माना जाकर मात्र अपनी जाति के अनुभव ही लिख पाएगा। रचनाकार अपने को... करके संवेदनात्मक स्तर पर जब दूसरे वर्ग से एकात्म कर लेता है वह प्रामाणिक लिख पाता है। अतएव दलित लेखक बन्धु स्वयं अपने अनुभवों के तहत रचना की सही पहचान का मापदण्ड तय करेंगे हम इसकी आशा करते हैं। चूँकि इस मुद्दे पर होने वाले विमर्श ने बहुत समय लिया है और आज भी वह विमर्श के केन्द्र में हैं इसी नाते मैंने उसे गैर जरूरी मानते हुए जरूरी मद्दों पर संवाद की गुजारिश की है। इससे कुछ बनता बिगड़ता भी नहीं है कि कौन लेखक दलित लेखक है या कौन सी रचना दलित रचना है, पाठक जब भी रचना से मुखातिब होंगे, वे उसकी अंतर्वस्तु से उपजे प्रभाव के तहत ही रचना या रचनाकार पर अपना निर्णय देंगे।बहुत विवादास्पद मुद्दा है वर्ण और वर्ग का, जिसे लेकर लंबे समय से विमर्श चल रहा है।
दलित लेखक वर्ण के यथार्थ के आगे सोचना ही नहीं चाहते, जबकि वर्ण की हकीकत को मानते हुए भी कम से कम, हमारा उनसे यही आग्रह रहा है कि वे वर्ग का बड़ी वास्तविकता को भी स्वीकार करें। स्वाभाविक है कि अपने वर्ण पर दृढ़ आग्रह के चलते लेखक मार्क्स, मार्क्सवाद और उनसे जुड़े लेखकों, विचारकों पर जो उनकी ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई में उनके साथ हैं, न केवल शक करते हैं, उन्हें अपने प्रतिस्पर्धी के रूप में भी विज्ञापित करते हैं। यह स्थिति अहेतुक है। हमने बराबर कहा है कि वर्ण का सवाल मुख्यतः भारत का अपना सवाल है, कारण वर्ण व्यवस्था, भारतीय सामाजिक संरचना की अपनी विशिष्टता है। मार्क्स का चिन्तन अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का चिन्तन है जिसके तहत समाज के इतिहास को वर्ग समाजों के इतिहास के रूप में देखा और व्याख्यायित किया गया है और उसी आधार पर उसके तहत मूलतः दो वर्गों की बात की गयी है-उत्पादन के साधनों का स्वामी वर्ग, और उन साधनों पर श्रम करने वालों का वर्ग, जिन्हें अलग तौर से शोषक और शोषित वर्गों के रूप में विज्ञापित किया जाता है। मार्क्सवाद की स्थापना है कि समाज का आर्थिक आधार बदलने के साथ सर्वहारा मुक्ति के संदर्भ में ही समाज में वर्गों का वैषम्य समाप्त होगा और शोषित वर्ग, श्रमिक वर्ग, अपने स्वत्व को पा सकेंगे। भारत की बात करें तो शोषित वर्गों की इस मुक्ति में दलितों की मुक्ति भी शामिल होगी कारण वर्ग विहीन समाज में न कोई शोषक होगा और न ही शोषित।
दलित लेखक विचारक मार्क्स की इस स्थापना को अपने संघर्ष में अप्रासंगिक और एक तरह की बाधा मानते हुए मात्रा वर्ण व्यवस्था से उपजे अन्याय तक ही अपने संघर्ष को सीमित रखना चाहते हैं। उनके लिए बाबा साहेब अम्बेडकर के चिन्तन के अलावा प्रेरणा स्रोत के रूप में दूसरा कोई विचार कोई मायने नहीं रखता। परन्तु दलित लेखक, विचारकों में भी ऐसे लोग हैं, मसलन बाबू राव बागुल, नारायन सुर्वे आदि जो मार्क्सवादी दर्शन के महत्त्व को उसकी पूरी स्वीकृति देते हुए बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों को उसके साथ जोड़कर चलने के हिमायती हैं। खुद बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी मार्क्स के चिन्तन को नहीं नकारा, अपना संघर्ष जरूर उन्होंने वर्ण वैषम्य के मुद्दे पर चलाया जो तात्कालिक परिस्थितियों में जरूरी था। हम भी चाहते हैं कि मार्क्सवाद से जुड़े लेखक, विचारक जो दलितों के साथ हैं मार्क्स के दर्शन की पूरी अहमियत के साथ भारत की अपनी विशिष्ट सामाजिक वास्तविकता के मद्देनजर वर्ण की हकीकत को भी अहम्‌ मानते हुए वर्ग और वर्ण दोनों को अपनी निगाह के दायरे में रखें।
यह जरूरी है कारण वर्ग वैषम्य के साथ वर्ण वैषम्य भारत की अपनी खासियत है। सदियों सहस्राब्दियों से मनुष्यता का एक बड़ा हिस्सा वर्ग और वर्ण वैषम्य दोनों की सम्मिलित यातना का शिकार रहा है। दलित लेखकों के वर्ण सम्बन्धी आग्रह को भी हमें यथार्थ परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए और यदि वर्ण और वर्ग सम्बन्धी मुद्दों को लेकर दलित लेखकों में अंतर्विरोध भी है तो उन्हें समझने की कोशिश करना चाहिए।इस मुद्दे पर विचार करते हुए मेरा ध्यान कबीर की ओर गया और कबीर के यहाँ मुझे इस मुद्दे को उसकी वास्तविकता से समझने का आधार मिला। विलक्षण लगता है कि जो कबीर सामाजिक वैषम्य पर इतने कठोर प्रहार करते है आर्थिक वैषम्य को लेकर लगभग चुप हैं। चुप ही नहीं, और भी विलक्षण तब लगता है जब वे यह कहते हैं कि भगवान के यहाँ से सब एक समान आते हैं, एक ही मिट्टी से बने हैं, समाज में आकर वे स्पृश्य-अस्पृश्य बनते हैं, परन्तु जहाँ तक अमीर और गरीब का सवाल है उन्हें राम जी या प्रभु ही बनाकर भेजते हैं - 'निरधन सरधन दोनों भाई, प्रभु की लीला कहीं न जाई।' यह कबीर का अंतर्विरोध है परन्तु हमें इसे समझना चाहिए। कबीर आखिर ऐसा क्यों करते हैं कि सामाजिक वैषम्य पर प्रहार आर्थिक वैषम्य पर चुप्पी। वे गरीबों को यह भी समझाते हैं कि वे अपनी गरीबी को लेकर परेशान न हों। भौतिक सम्पन्नता, सम्पन्नता नहीं है असली धन राम धन है।
वे रामधन पाने का प्रयास करें। वस्तुतः कबीर या आज के दलित जिस एक बात पर सारा जोर देते हैं वह उनके जिए भोगे का सच है। जिए भोगे अनुभवों के अलावा वे अन्य किसी भी अनुभव को प्रामाणिक नहीं मानते। वर्ण और वर्ग के सवाल की गुत्थी यही पर सुलझती है।आदमी को सबसे अधिक दंश तब होता है जब उसके साथ भेदभाव किया जाए। सारे संत्रास का कारण यह भेदभाव है। कबीर जानते थे कि भूख, बीमारी और दरिद्रता भेदभाव नहीं करती। भूख सबको त्रास देती है, समान त्रास, बीमारी भी सबको लगती है और अमीर-गरीब कोई भी हो सकता है। कबीर स्वतः अपने समय के तमाम सवर्णों, ब्राह्मणों की तुलना में आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न थे, कारण वे मेहनत करते थे, मेहनत की कमाई खाते थे। उन्होंने ऊँचे वर्ण के लोगों को गरीबी की मार झेलते हुए न देखा होगा और अमीरी का ठाठ करते हुए भी। उन्होंने नीचे वर्णों को भी गरीबी झेलते देखा होगा और अपेक्षाकृत सम्पन्न दलित भी उनकी निगाह में होंगे। जैसा हमने कहा उन्हें इस बिन्दु पर सवर्ण असवर्ण में कोई बुनियादी भेद नहीं दिखाई दिया जो सच भी है। परन्तु कबीर के अनुभवों में यह भी आया होगा कि दरिद्र होते हुए भी ब्राह्मण समाज में पूज्य है, सम्मानित है और सम्पन्न होते हुए भी दलित समाज में सामाजिक भेदभाव का शिकार है। जहाँ भेद है दंश वहाँ है। कबीर इस भेदभाव के खिलाफ ही उठे थे और आज के दलित लेखकों की दुखती राग यही सामाजिक भेदभाव और ऊँच-नीच का भाव है। ऊँचे से ऊँचे ओहदे पर पहुँच जाने के बावजूद दलित दलित ही रहता है सामाजिक भेदभाव का शिकार रहता है और दरिद्र से दरिद्र ब्राह्मण समाज में, भले ही भीख माँगे ब्राह्मण देवता ही माना जाता है।
दलित लेखक इसी नाते वर्ण को भी अहमियत देते हैं वर्ग को नहीं।परन्तु जैसा हमने कहा है कि वर्ग की बड़ी हकीकत को भी वे कभी न कभी समझेंगे। जिस तरह दलितों में एक नया क्लास बड़ी तेजी से उभरकर भौतिक सुविधाएँ एकत्र कर अपने मूल से कटता हुआ आम मध्यवर्गीयों की जिन्दगी जी रहा है, अपनी जाति और अपने वर्ण को छिपाकर सवर्ण जातियों से एकमेल हो रहा है, यदि इस तरह का अंतर्विरोध तीव्र हुआ जैसा कि उसके होने की संभावनाएँ हैं, (अनेक दलित लेखकों ने अपनी कहानियों में इस स्थिति को चित्रित किया है और वे इसके प्रति जागरूक भी हैं) तो वह दिन दूर नहीं जब दलित समझेंगे कि वर्ण से ज्यादा बड़ी हकीकत वर्ग है। वर्ग-स्वार्थ सवर्ण-असर्वण दोनों को एक ही कहेंगे सम्पन्नों को भी और दरिद्रों को भी, तभी सही-वर्ग चेतना का रूप सामने आयेगा, जिसकी चर्चा मार्क्स ने की है।कहना न होगा कि दलित लेखक, ब्राह्मणवाद, मनुवाद या वर्गगत भेदभाव के खिलाफ कितनी भी आवाज क्यों न उठायें, मनुवादी-ब्राह्मणवादी, वर्णवादी सोच ने किस तरह उनके अपने मानस को जकड़ रखा है, क्लेश होता है यह कहते कि उनके अपने लेखन, सामाजिक व्यवहार और विचारों में इसके साक्ष्य हैं। आज तो दलित लेखक खुलकर एक दूसरे के विरोध में खड़े दिखाई दे रहे हैं।
हम इस स्थिति को अहेतुक मानते हैं। दलित चेतन और दलित साहित्य का जो आन्दोलन वर्णगत तथा सामाजिक भेदभाव को लेकर चला, जिसकी प्रेरणा के स्रोत ज्योतिबा फुले तथा बाबा साहेब अम्बेडकर का अपना सामाजिक चिन्तन है, जिन्होंने आजीवन भेदभाव और सामाजिक विसंगतियों पर चोट की, वह चेतना और वह आन्दोलन यदि अपने ही लक्ष्य से भटकने लगें, व्यवहार तथा लेखन में उसी भेदभाव का शिकार हो जाए, जिसके खिलाफ वह सामने आया, तो हमे क्लेशप्रद और अहेतुक और अवांछित ही माना जाएगा। अपने कुछ एक पहले के आलेखों में मैंने दलित मानस और दलित लेखन के इस अंतर्विरोध की ओर संकेत किया है परन्तु किसी भी दलित लेखक ने इस सवाल से टकराने की जरूरत नहीं समझी। दलित चेतना और दलित साहित्य के लक्ष्यों से अपनी एकात्मता के नाते मैं यह प्रश्न पुनः इस नाते उठा रहा हूँ कि दलित लेखक उसे अपनी चिन्ता के दायरे में लाएं और अपने लक्ष्यों को विपथित होने से बचाएँ। यह वह अंतर्विरोध है जो उनके लेखन और उससे जुडे उनके संकल्पों को हर स्तर पर क्षतिग्रस्त करने वाला है।कभी सूरजपाल चौहान की आत्मकथा के कुछ अंश पढ़े थे। अब तो वह आत्मकथा प्रकाशित हो चुकी है। पहली बार पता चला था कि दलित लेखकों के अपने मानस में किस तरह वर्णवाद के घातक प्रभाव मौजूद हैं। सूरजपाल चौहान दलितों में भी दलित (भंगी) जाति से सम्बन्ध रखते हैं। उन्होंने लिखा है कि जब तक उनके दूसरे दलित लेखक मित्रों को उनकी वास्तविक जाति का भान नहीं था। वे उनके साथ उठते बैठते थे खाते-पीते थे, परन्तु जिस क्षण उन्हें पता चला कि सूरजपाल चौहान का सम्बन्ध भंगी जाति से है वे उनके साथ उठने-बैठने, खाने-पीने से परहेज करने लगे। सूरजपाल चौहान ने स्वतः दलित लेखकों पर मनुवादी होने का आरोप लगाया है, खासतौर पर भंगी जाति के प्रति उन दलित लेखकों के व्यवहार पर तीखी टिप्पणियां की हैं जो दलितों में जाटव या चमार कही जाने वाली जाति से सम्बन्ध रखते हैं और अपने को भंगी जाति से ऊँचा मानते हैं और उसके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं जो सवर्णों का व्यवहार है और तो और ऊँच-नीच का उनका भाव यहाँ तक है कि खटिक कही जाने वाली जाति में बकर खटिक अपने को सुअर खटीक से ऊँचा मानता है। बहुत ही कष्टदायक है यह सब लिखना और इस अहसास के साथ लिखना कि जो लोग मनुवाद के खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाए हैं वे किस कदर इस मनुवाद की गिरफ्त में हैं।
अभी समय माजरा पत्रिका में किन्हीं रतन कुमार सांभरिया का आलेख छपा है। उसमें विस्तार से दलितों के इस मनुवाद पर और उनकी चेतना पर इस अंतर्विरोध पर प्रकाश डाला गया है। इस लेखक के अनुसार हिन्दी का सारा दलित साहित्य आन्दोलन वस्तुतः दो दलित जातियों के बीच होने वाली अंतर्कलह के चलते विपथित हो रहा है। एक तरफ जाटव हैं दूसरी ओर भंगी कहे जाने वाले दलित लेखक पहले वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं - मोहनदास नैमिशराय, डॉ० जय प्रकाश कर्दम, श्यौराज सिंह बेचैन और डॉ० एन० सिंह और दूसरे वर्ग के प्रतिनिधि हैं ओम प्रकाश वाल्मीकि, सूरजपाल चौहान, महेन्द्र बेनीवाल। ये सब दलित साहित्य के जाने माने लेखक हैं जिनकी रचनाओं और विचारों ने दलित आन्दोलन को हिन्दी में अपनी पहचान दी है। अब जब इन्हीं लोगों के बीच में इस तरह की खेमे बंदी हो तो दलित साहित्य के भविष्य के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। जो सवर्ण मानसिकता आरम्भ से ही न तो दलित चेतना के उभार के साथ और ना ही दलित साहित्य की विकासशील दिशाओं से अपना सामंजस्य बिठा पाई है उसके लिए तो दलित लेखकों के बीच का यह संघर्ष और उनके अपने कथन और कर्म का यह अंतर्विरोध एक ऐसा हथियार है जो वह चाह ही रही थी और विडंबना यह कि यह हथियार उसे स्वतः दलित लेखकों ने ही दिया हैं।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि दलित लेखकों के बीच विस्तार के और आचरण के स्तर पर ही नहीं रचनात्मक स्तर पर भी यह युद्ध चल रहा है। ओम प्रकाश वाल्मीकि की 'शवयात्रा' कहानी के जवाब में दलित लेखकों की ओर से ही दूसरी कहानी आती है, उनकी 'खानाबदोश' कहानी का जवाब 'और वह पढ़ गई' जैसी कहानी में कुसुम वियोगी की ओर से दिया जाता है। एक पर चमार जाति को अपमानित और गलत तरीके से पेश करने का आरोप लगाया जाता है तो दूसरे पर भंगी जाति को बेआबरू करने का। एक की आत्मकथा से आए प्रसंगों का जवाब दूसरा अपनी आत्मकथा में देता है। महाराष्ट्र के दलित साहित्य में भी ये असंगतियां रही हैं। महारों और मातंगों के अपने-अपने जीवन संदर्भों को लेकर जहां महार अपने को मातंगों से ऊँचा मानते हुए उनके साथ वही व्यवहार करते हैं जो सवर्ण दलित के साथ करते हैं। डॉ० सूर्य नारायन रणसुंभे ने भी इस स्थिति को अहेतुक मानते हुए लिखा है कि दलितों में अपनी ऊँची अस्मिता का मोह इस कदर व्याप्त हो रहा है कि वे दलित युवतियों से विवाह न कर ब्राह्मण कन्याओं से विवाह करने की कोशिश में रहते हैं। उनके अनुसार महाराष्ट्र में ऐसे ही लोगों को दलित ब्राह्मण कहकर याद किया जाता है।मैं वस्तुस्थिति को अतिरंजित करके पेश नहीं करना चाहता, परन्तु वस्तुतः वह जैसी है वह नितांत अहेतुक और क्लेशप्रद है।
दलित लेखकों को जो सामाजिक समता की लड़ाई लड़ रहे हैं विचार, व्यवहार और रचना के स्तर से जागरूक हों इस मानसिकता से मुक्त हो, यह उम्मीद तो उनसे की ही जा सकती है अन्यथा उनके अपने लेखन और आन्दोलन की ऊर्जा का क्षय निश्चित है।एक ओर तो यह वस्तुस्थिति है दूसरी ओर दलित साहित्य के अपने सौन्दर्यशास्त्र की बात भी जोरों से उठ रही है। मराठी में शरण कुमार निम्बाले की दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है जिसका अनुवाद दलित साहित्य के प्रति समर्पित श्रीमती रमणिका गुप्ता ने किया है। हिन्दी में ओम प्रकाश वाल्मीकि अपनी इसी शीर्षक की पुस्तक के साथ सामने आए हैं। मैंने शरण कुमार निम्बाले की पुस्तक नहीं देखी है परन्तु जो कुछ उसके बारे में जाना है वह यह कि प्रगतिशील विचारों के होने के नाते निम्बाले ने बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों को प्रमुखता देते हुए भी मार्क्स के दर्शन को भी अपनी निगाह के दायरे में रखा है और उससे भी आवश्यक संबंध लेने की बात कही है। उन्होंने पश्चिम के अश्वेत साहित्य के संदर्भ में लिए हैं। उनके लेखन और विचारों का पाठ व्यापक और विस्तृत प्रतीत होता है और लगता है कि वे बहुत सुविचारित रूप से दलित साहित्य के सौन्दर्य शास्त्र का प्रारूप लेकर सामने आए हैं। ओम प्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक मैंने पढ़ी है। वे समर्थ दलित रचनाकार हैं जिन्होंने अपने 'सलाम' कहानी संकलन तथा दूसरी कहानियों के जरिए अपने कहानीकार की बड़ी भावनापूर्ण छवि पेश की है। वे समय-समय पर दलित साहित्य से जुड़े मुद्दों पर लेख भी लिखते रहे हैं और उनके लेखों में एक संजीदा दलित विचारक के रूप में पहचान भी हमें मिलती रही है। उनकी 'दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र' पुस्तक वस्तुतः दलित लेखन से जुड़े मुद्दों का समय-समय पर उनके द्वारा लिखे गये आलेखों का संकलन है जिनमें उन्होंने दलित साहित्य की अवधारण से लेकर उसकी प्रासंगिकता, सामाजिक प्रतिबद्धता, उसके स्वरूप, उसकी वैचारिक अंतर्वस्तु और उसकी भाषा तथा रचना शैली आदि पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। पुस्तक का एक निबन्ध दलित साहित्य के सौन्दर्य शास्त्र पर भी हैं जिसके आधार पर पुस्तक का शीर्षक रखा गया है। परन्तु निम्बाले के विपरीत ओम प्रकाश वाल्मीकि पूरी तरह से अम्बेडकर जी के विचारों पर ही आधारित हैं और महज नामवर सिंह के कभी दलित साहित्य पर व्यक्त विचारों को लेकर उन्होंने पूरी मार्क्सवादी दर्शन को खारिज करने की कोशिश की है, इस शीर्षक के साथ कि क्या मार्क्सवाद कभी इन सवालों से टकराएगा? इस प्रकार के निष्कर्ष और विचार जाहिर हैं कि हड़बड़ी में व्यक्त किये गये विचार हैं जिनसे बचने की जरूरत हैं। मार्क्सवाद को खाजिर करने के लिए उन्हें समग्रता में मार्क्सवादी दर्शन पर गौर करना चाहिए था ना कि किसी प्रसंग में किसी मार्क्सवादी लेखक के विचारों को मुद्दा बनाकर पूरे के पूरे मार्क्सवादी दर्शन को खारिज करना। बहरहाल, जो बात मैं कहना चाहता हूँ वह यह कि सौन्दर्यशास्त्र जैसे मुद्दे पर बात गंभीरता से होनी चाहिए। प्रतिक्रिया मृतक आवेश के तहत नहीं।जो भी सौन्दर्यशास्त्र आना चाहिए वह दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र हो, ना कि हिन्दी या मराठी या किसी अन्य भाषा के दलित साहित्य का। इसके लिए दलित लेखकों को आम सहमति बनानी चाहिए। अन्यथा अराजकता की स्थिति ही उत्पन्न होगी। जब दलित लेखकों ने शास्त्र के अनुशासन को मान ही लिया है तो जो भी शास्त्र आए वह शास्त्र के अनुशासन का पालन करने वाला हो। सौन्दर्यशास्त्र रचना के सौन्दर्य का शास्त्र होता है उसका तर्क शास्त्र नहीं। अर्थात्‌ ये मुद्दे कि दलित साहित्य क्या है, उसकी प्रासंगिकता क्या है, आदि सौन्दर्यशास्त्र के मुद्दे नहीं हैं। सौन्दर्य शास्त्र रचना की निर्मिति, ग्रहण और उसे मूल्य देने का शास्त्र होता है। उसके लिए एकाग्रता, सुविचारित तथ्य जरूरी होते हैं।
वह जीवन की, साहित्य की समग्रता को समेटने वाला शास्त्र होता है। उसके पीछे जो सर्जना होती है उसमें इतना वैविध्य होना चाहिए कि वह एक समग्र और संश्लिष्ट सौन्दर्यशास्त्र का आधार बन सके। मराठी की तुलना में अभी हिन्दी का दलित साहित्य बहुत समृद्ध नहीं है। कुछ आत्म कथाएँ हैं जो मराठी दलित आत्मकथाओं की तरह का सघन प्रभाव नहीं छोड़ती। कहानियाँ हैं और निश्चय ही उनमें उत्कृष्ट कहानियां भी हैं। कविता भी बहुत कम है और वह भी बहुत स्तरीय नहीं हैं। आवेशजन्य प्रतिक्रियाएँ कविता नहीं बनातीं। प्रगतिशील आन्दोलन के आरम्भिक दौर में ऐसी तमाम रचनाएँ सामने आयीं थीं जिनमें तत्त्व कम था झाग बहुत। शब्दों के जरिए पूँजीवाद को ध्वस्त कर दिया गया था, क्रांति भी सम्पन्न कर ली गई थी परन्तु वास्तविक जीवन में सब कुछ पहले जैसा ही विद्यमान था। ऐसी रचनाओं का क्या हश्र हुआ हम जानते हैं। वहीं रचनाएँ प्रगतिशील सर्जना का मानक बनीं जिनमें सामाजिक यथार्थ के मद्देनजर जिन्दगी को देखा था, हार गया था, जनता के जीवन के सजीव बिम्ब थे और जिन्दगी की विषमताओं विसंगतियों की खरी पहचान। दलित लेखकों को प्रगतिशील आन्दोलन के इतिहास से सीखना चाहिए। अपनी रचना में दलित जीवन के यथार्थ को वस्तुगत यथार्थ को उभारना चाहिए मनोकांक्षाओं को नहीं। दलितों के अपने स्वप्न तथा संघर्ष उनकी मनोकांक्षाओं के बिम्ब आने चाहिए।इस नाते की कविता बयान या वक्तव्य नहीं होती। अभी दलित साहित्य अतीत के समाजेतिहास से ही जुड़ा हुआ है। अतीत का यह 'हैंग ओवर' शनैः शनैः समाप्त होना चाहिए और दलित लेखकों की अपने वर्तमान और भविष्य की उन सम्भवनाओं को देखना चाहिए जो उनके वर्तमान का तार्किक प्रतिफल होंगी। बहुआयामी बहुविध रचनाशीलता के बिना जो भी सौन्दर्यशास्त्र आएगा वह अधूरा होगा।दलित लेखन में संभावनाएं हैं, प्रतिभाएं हैं, जीते-जागते अनुभव हैं, स्वानुभूति की बंधक पूँजी है। उसका उपयोग भी दलित लेखकों ने किया है।
जरूरत पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर, प्रतिक्रियामूलक आवेश से बचते हुए, इस पूँजी का ऐसा उपयोग करने की है कि दलित सर्जना चली आ रही परंपरित सर्जना से अलग अपने वैशिष्ट्य में पहचानी जा सके। पारम्परिक रागद्वेष, अंतर्कलह और अंतर्विरोध, कोरी प्रतिक्रिया और रोमानी जोश किसी भी सर्जना को क्षतिग्रस्त करता है। दलित लेखक समझें कि उनका लेखन उदीयमान संभावनाओं वाला लेखन है। इसके पहले कि वह अपने चरम वैशिष्ट्य पर पहुँचे, उसे क्षरित नहीं होना चाहिए। ये नसीहतें नहीं हैं, सच्चे मन से किया जाने वाला अनुरोध है, जिसे निश्छल मन से स्वीकार करने की जरूरत है। जो भी गैर-दलित अपने गहरे मानवीय सरोकारों के तहत दलित लेखन से विचारगत और रागात्मक संबंध रखते हैं, उन्हें मित्र-लेखक मानते हुए उनके कर्तृत्व को देखा जाए, पूर्वाग्रह पूर्ण मानसिकता से नहीं। हम पहले भी कह चुके हैं कि व्यवस्था बड़ी जटिल है, हजार बाहों वाली है। उससे अकेले नहीं लड़ा जा सकता। हजारों सालों की सामाजिक संरचना को आनन-फानन नहीं बदला जा सकता। कहानियों, कविताओं और उपन्यासों में क्रांति कर लेने से वास्तविक जीवन में क्रांति नहीं हो जाएगी। जिन्दगी की वास्तविकता को ही आधार बनाकर सोच को आगे बढ़ाया जा सकता है। यदि दलित लेखक अकेले ही अपनी लड़ाई लड़ना चाहते हों, तो यह और बात है। हमारी शुभकामनाएं उनके साथ हैं परन्तु मैंने पहले भी कहा है कि यदि वे अपनी लड़ाई जीतना चाहते हैं तो उन्हें समान सरोकारों के अपने उन साथियों को लेकर चलना होगा जो भले ही गैर दलित हों, उनकी लड़ाई में उनके साथ हैं।ऊपर हमने जो कुछ लिखा है, दलित साहित्य के लक्ष्यों से अपने लगाव के नाते, उसकी सर्जनात्मक और विचारगत उपलब्धियों के प्रति पूरी तरह सजग रहते हुए, नकारात्मक या कुछ अप्रिय टिप्पणियाँ यदि हमने की हैं तो इसी नाते कि हम चाहते हैं कि दलित लेखन अपनी संभावनाओं के साथ आए, साहित्य की चली आ रही परम्परा में कुछ नया और विशिष्ट जोडे, अपनी पहचान को गाढ़ा करें। हिन्दी में दलित साहित्य का आन्दोलन बहुत पुराना नहीं है, और अल्प अवधि में भी उसने अपनी छाप बड़े पाठक वर्ग के बीच छोड़ी है। आत्मकथाएं मराठी की तुलना में कम हैं और अभी दया पवार या लक्ष्मण माने जैसे लेखकों की अपनी आत्मकथाओं की तुलना में प्रभाव सघनता की दृष्टि से भले ही कुछ कमतर लगती हो, परन्तु जो है उनमें व्यक्त अनुभव जीते जागते अनुभव हैं। एक तल्ख सच्चाई को उजागर करने वाले हैं, जिसे अनदेखा किया जाता रहा है। पहली बार वे अनुभव हमारे सामने भोक्ताओं के जिए भोगे के साक्ष्य के रूप में सामने आए हैं। कहानियाँ हम कह चुके हैं, दलित लेखकों की बड़ी उपलब्धि के रूप में सामने आएं हैं। अछूते अनुभवों वाली ये कहानियां इस नाते मार्मिक हैं कि उनमें भी रचनाकारों ने अपनी जी हुई और भोगी हुई वास्तविकता को ही अभिव्यक्त किया है, बिना किसी छद्म के। कविताएं भी बहुत लिखी गयी हैं परन्तु उनमें अभी वैसी परिपक्वता नहीं है जैसे कहानियों में। कविता बहुत महीन विधा है। परन्तु दलित रचनाकार कविता की प्रकृति और वैशिष्ट्य को पहचानेंगे और कविता के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय उपलब्धियों के साथ सामने आयेंगे। जो कविताएं आई हैं उनमें ऐसी कविताएं भी हैं जो हमारी इस आशा को बल देती हैं। जहां तक विचार प्रधान गद्य की बात है, दलित लेखकों में ऐसे विचारक समीक्षक हैं जिनके पास दृष्टि भी है और विचार भी। थोड़े समय में ही दलित विचारकों की एक पंक्ति की पंक्ति सामने आई है। छिटपुट अपवादों को छोड़ दें और आग्रहों-पूर्वाग्रहों के चलते जो कुछ विसंगतियां आई हैं उन्हें छोड़ दें, तो अधिकांशतः दलित विचारकों ने अपनी बातें तर्क और तथ्य की जमीन पर ही की है। उनके आलेखों ने चल रहे विमर्श को पैना किया है उसे गतिशील बनाया है। सहज ही कहा जा सकता है कि दलित साहित्य अभी उठान पर है और उसकी संभावनाओं के प्रति हम आश्वस्त हैं।

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Friday, November 7, 2008

सुकून

शकील
मुश्ताक की शादी के तीसरे दिन सुबह नाश्ते के दौरान क़ारी रशीद अहमद बोल पड़े थे, ''सोचता हूँ कि अब हज के फ़रीजे से भी सुबुकदोश हो लूँ।''
पानी लाती गुलशन को लगा कि जग उसके हाथ से छूटकर गिर पडेगा। मुश्किल से उसने फिसलते जग को संभाला।''पैसे हैं इतने तो जरूर जाओ! ''
गुलशन के ससुर अजीज मियाँ उनकी आँखों में घूरते हुऐ बोले। दरअसल वे अनुमान लगा रहे थे कि चार बीघे की खेती और मदरसे की मुअल्लिमी (अध्यापकी) से रशीद मियाँ ने कितनी कमाई कर रखी है कि वे हज का इरादा भी करने लगे हैं।''
शुरू से ही हज के इरादे से पैसे जोड़ रहा था। पैसे कोई ज्यादा नहीं हैं मेरे पास। बस, हज के खर्च के बराबर ही हैं, पर मेरा इरादा शुरू से ही था। गुलशन और मुश्ताक की शादियों का इंतजार कर रहा था। गुलशन को तो माशाअल्लाह खुदा ने एक खूबसूरत सा बेटा भी नवाज दिया और अब मुश्ताक की शादी भी हो गई तो लगता है अपने इरादे को अमली जामा पहनाने का वक्त आ गया है।''
रशीद मियाँ मानो अपने आप से बातें करने लगे थे।''आप ने अब्बू, मुझे हज के इरादे के बारे में पहले कभी नहीं बताया?'' गुलशन ने नाराजगी भरे स्वर में क़ारी रशीद अहमद से सवाल किया।''
पहले तो किसी को भी नहीं बताया बेटा, आज ही बता रहा हूँ। वक्त से पहले बताकर क्या मिलता?!''
कारी रशीद अहमद सफाई देते से लगे। जानते थे गुलशन को उनका उससे अपने हज के इरादे को छुपा कर रखना नागवार लगा है। वह अपना अधिकार समझती है कि वे अपने सुख-दुख की हर बात उसे बताएँ। उसका अधिकार जताना वाजिब भी है। उन पर जान छिड़कती है वह। उन्होंने भी उसे नाजों से पाला है। कुरैशा जब गुलशन को जन्म देने के फ़ौरन बाद गुजर गई थी तभी उन्होंने संकल्प कर लिया था कि वे दूसरी शादी नहीं करेंगे। मदरसे के कुछ मुअल्लिम और गांव के कुछ लोग उन्हें बार-बार दूसरे निकाह की सलाह देने लगे थे। लेकिन अपने पिता जैसे ससुर और माँ जैसी सास को और सबसे बढ़कर कुरैशा की रूह को तकलीफ पहुंचाने का साहस उनमें नहीं था। कुरैशा को वे चाहते थे। ज्यादा लोगों को उन्होंने इतना नहीं चाहा था। माँ-बाप को टूटकर चाहते थे तो खुदा ने उनके बचपन में ही उन्हें अपने पास बुला लिया। उन्हें अपने माँ-बाप की बहुत धुंधली सी याद थी। गया जिले के उत्तरी हिस्से के एक अन्दुरूनी गाँव के रहने वाले थे। सात-आठ साल की उम्र रही होगी उनकी जब उनके वालिद ने उन्हें गया के एक मदरसे में हिफ्ज के लिए भेज दिया था। लेकिन मदरसा आने के बाद दुबारा वे अपने माँ-बाप से नहीं मिल सके। जिस वर्श उनका मदरसा में दाखिला हुआ था उसी साल एक दिन मदरसा के प्रबन्धक ने उन्हें बताया था कि उनके गाँव में साम्प्रदायिक दंगे भड़क गए हैं और कई लोगों के मारे जाने की खबर है।
दंगे थमने के बाद मदरसा के प्रबन्धक ने मदरसा के वरिष्ट मुअल्लिम कारी जमील अहमद को उन्हें साथ लेकर उनके गाँव जाने के लिए कहा था। गाँव में कुछ भी नहीं बचा था। उनके सभी परिजनों को दंगाईयों ने मार दिया था-माँ-बाप, छोटे-छोटे भाई-बहनों सभी को। उनके घर जमीन-जायदाद पर भी कुछ लोगों ने कब्जा कर लिया था। रोने-धोने और चीखने-चिल्लाने के अलावा वे और कुछ नहीं कर सकते थे। कारी जमील अहमद ने उन्हें सीने से लगा लिया था। वे उन्हें वापस मदरसा ले आये थे। वे उस दिन के बाद से उन्हें बहुत अजीज रखने लगे थे। मदरसे में ही तालीम हासिल करते हुए, खुदा की इबादत में ज्यादा से ज्यादा वक्त बिताते हुए वे बेहद अन्तर्मुखी होते गए। मदरसे के किसी भी दूसरे तालिब इल्म से वे दोस्ती नहीं बढ़ा सके। कोई उन्हें बहुत अच्छा नहीं लगता। लेकिन कुरैशा उन्हें अच्छी लगने लगी थी। छुट्टियों में कारी जमील अहमद नवादा जिला स्थित अपने गाँव मरूई जब भी जाते उन्हें भी अवश्य साथ ले जाते। वहां कारी साहब की बीवी उन्हें माँ जैसा प्यार देतीं और कारी साहब की उनकी हमउम्र इकलौती बेटी कुरैशा उनसे बेवजह शर्माती।
वे जब मदरसा लौट जाते तो उन्हें कुरैशा की यादें सताने लगती। वे शिद्दत से अगली छुट्टी का इंतजार करने लगते। इधर वे मदरसे की तालीम मुकम्मल करते हुए पूर्ण युवा में परिवर्तित हो गए उधर मरूई में कुरैशा भी एक खूबसूरत शर्मीली जवान लड़की में तब्दील हो गई थी। तालीम पूरी कर वे गया के मदरसे में ही पढ़ाने लगे थे पर गया में उनके दिल को सुकून नहीं था। उनका दिल नवादा शहर से लगभग बीस किलोमीटर भीतर के कारी साहब के गांव मरूई में लगा हुआ था। वे कारी साहब से अपने दिल की हालत बयान कर देना चाहते थे पर साहस नहीं जुटा पा रहे थे। यह साहस उन्हें दिखाना भी नहीं पड़ा। मरूई से लौटकर एक बार कारी साहब ने उनके सामने दो प्रस्ताव रखे। पहला प्रस्ताव तो कुरैशा से विवाह का था, दूसरा मरूई में खुल रहे मदरसे में मुअल्लिम की हैसियत से काम करने का था। उन्हें तो जैसे मुंह मांगी मुरादें मिल गई थीं। उन्होंने तुरन्त हामी भर दी। इस तरह उनसे शर्माने वाली कुरैशा उनकी बीवी बनी और विवाह के वर्श भर बाद उसने मुश्ताक को जन्म दिया। मुश्ताक के जन्म के बाद उन्होंने दुनियादारी में भी दिलचस्पी लेने की कोशिश की।
मदरसे की मुअल्लिम से वक्त निकाल कर वे कारी साहब की खेती-गृहस्थी के काम को समझने का प्रयास करने लगे। आखिर वे उनके घर जवांई ही तो थे। पर नियति को शायद यह सब स्वीकार नहीं था। गुलशन के जन्म के तुरन्त बाद सब लोगों को गहरा सदमा पहुंचाते हुए कुरैशा ने आँखे मूँद लीं। कारी साहब और उनकी बीवी ने अपने बुढ़ापे में इकलौती संतान की मौत का दुख झेलते हुए नाती और नातिनी को कुछेक वर्श पाला फिर बारी-बारी इस दुनिया से कूच कर गए। वे स्वयं भी अन्दर से हिल गये थे। वे खुदा से जानना चाहते थे कि जिसे भी वे बेहद चाहते हैं क्यों खुदा उसे उनसे छीन लेता है? पर उन्होंने खुदा से यह सवाल नहीं पूछा। वे खुदा से डरते थे। वे अपने बच्चों से प्यार करते थे। इसलिए नमाजों में खुदा से दुआ करते, ''परवरदिगार, मैं अपने बच्चों को बेहद चाहता हूँ। उन्हें पूरी जिन्दगी जीने देना, उन्हें बेवक्त की मौत न दे देना।
मौत ही देनी हो तो मुझे देना, मेरे बच्चों को बख्श देना।''वे इबादत में पूरी तरह डूबते चले गये और उन्होंने खुदा से हज का वादा किया। उन्होंने वादा किया कि वे दोनों बच्चों की शादी के बाद हज करेंगे। किस्मत से गुलशन की शादी मरूई में ही कारी साहब के दूर के रिश्तेदार अजीज मियां के बेटे सिराज से हो गई। और अब जबकि मुश्ताक की भी शादी हो गई तो उन्हें लगा कि अब अपने दिल की बात उन्हें जाहिर कर देनी चाहिए।गुलशन ने याद किया कि बस्ती में उसके होश में जिन तीन-चार लोगों ने हज किया वे हज के बाद ज्यादा दिन जीवित नहीं रहें। हज के बाद मानो लोग सिर्फ मौत के दिन गिनते रहते हैं। वह अब्बू की मौत नहीं देख सकती थी। वह बेचैन हो गई, ''अब इतनी जल्दी क्या है अब्बू? कभी जाइएगा ना!''''अब बेटा हज का इरादा तो खुदा दिल में पैदा करते हैं और जो तुम्हारे अब्बा जाना चाहते हैं अगर अगले ही बरस तो उन्हें हो आ लेने दो!'' जवाब उसके अब्बा की बजाए उसके ससुर अजीज मियां ने दिया था। गुलशन को बाप-बेटी के बीच ससुर का खुद को घसीट लेना अच्छा तो नहीं लगा पर वह उनका भी बहुत लिहाज करती थी। इसलिए खामोश हो गई। लेकिन उसके दिल में मानो कहीं कोई चीज चुभ गई थी। शादी-ब्याह का हंसी खुशी से भरा माहौल अचानक अनाकर्शक लगने लगा था। वह सबों को नाश्ते और बातचीत में व्यस्त छोड़कर उस कमरे में चली आई जिसमें उसका छः मास का बेटा मेराज बिस्तर पर सोया हुआ था।
वह गुमसुम सी उसके पास ही बैठ गई। उसे अपना दिल डूबता हुआ सा लग रहा था। बेचैनी से उसके पेट में हल्की मरोड़-सी होने लगी थी।बेटे मेराज को सुला लेने के बाद भी गुलशन जब सिराज से असंपृक्त-सी खामोशी के साथ बिस्तर पर पड़ी रही तो उसने खुद पहल करते हुए उसे सम्बोधित किया, ''गुलशन''!गुलशन ने सिराज की ओर करवट बदल ली और खामोशी से उसकी आँखों में देखा। सिराज उसकी सूनी आँखें देखकर व्यथित हुआ। वह जानता था गुलशन की जिन्दगी में उसके अब्बू का क्या महत्व है। वह उसके नर्म और नाजुक स्वभाव से भी परिचित था बल्कि इसी वजह से उसने उससे शादी की। उसे तेज आवाज में बातें करने लगी, गालियां बकने और कोसने देने में माहिर लड़कियाँ पसंद नहीं थीं। वह बचपन से उसके संजीदा स्वभाव से परिचित था और सच तो यह था कि वह उससे प्यार करता था।''गुलशन, अब्बू लगभग महीने भर के लिए ही तो हम से दूर जाएंगे। इतना परेशान मत हो।'' सिराज ने गुलशन को समझाने की कोशिश की।
''नहीं, मैं नहीं चाहती कि वे हज को जाएँ!'' गुलशन ने कुछ इस अंदाज से सिराज से कहा मानो वह अब्बू को हज पर जाने से रोक लेगा। सिराज जानता था कि उसके वश में वास्तव में कुछ नहीं था। पर गुलशन का तनाव कम करने के लिए उसे झूठी तसल्ली तो दे सकता था। उसने कहा, ''अभी अब्बू ने एक राय जाहिर की है। हज के लिए जाने में बहुत झमेले हैं। कौन जाने बाद में उनकी राय बदल जाए।''गुलशन को सिराज की बातें अच्छी लगीं। उसके चेहरे का फीकापन गायब होने लगा और शरीर पर उसके हाथों का स्पर्श भी बुरा नहीं लगा।इस घटना को दिन गुजरे, फिर हफ्ते, फिर महीने। शुरू में गुलशन कारी रशीद अहमद के हाव-भाव और चेहरे-मोहरे से जायजा लेती रही कि हज के उनके इरादे का क्या हुआ। पर उन्होंने इस बारे में फिर कभी कोई बात नहीं की तो उसे विश्वास-सा हो गया कि उन्होंने हज का अपना इरादा तर्क कर दिया है। पर एक दिन सुबह-सुबह जब अब्बू उसके घर खुद चले आए तो उसका माथा ठनका। वह खुद हर रोज नाश्ता बना कर, सास-ससुर और सिराज को खिला-पिलाकर थोड़ी देर के लिए अब्बू के घर चली जाया करती थी। और अब्बू का घर था भी कितनी दूर। अपने घर के सामने के घरों की कतार के पीछे जमीन का एक खुला छोटा-सा हिस्सा था। उस खुले-हिस्से से पश्चिम की तरफ घरों की जो क़तार थी उसमें उत्तर की तरफ का आखिरी घर। पर आज वहाँ उसके पहुंचने के पहले ही खुद अब्बू उसके यहाँ चले आए थे। क्या वजह हो सकती थी। उसके अन्दर की जिज्ञासा ने उसे बेचैनी से भर दिया। शिकन भरे माथे के साथ उसने सवाल किया, ''क्या बात है अब्बू, सब खैरियत तो? मुश्ताक और दुल्हन ठीक है ना?''''
हाँ, सब ठीक है। सोचा आज गुल्लू के यहाँ नाश्ता करूँ।'' रशीद अहमद मुस्कुराते हुए बोले।''अल्ला! अब्बू आज ही क्यों? हम चाहेंगे आप रोज ही यहाँ नाश्ता करें, खाना खाएँ।'' कहती हुई गुलशन ने बैठक में चले आए अजीज मियाँ को सम्बोधित किया, ''क्यों अब्बा?!''''हाँ, बिल्कुल! यह भी कोई पूछने की बात है!!'' अजीज मियां ने गुलशन का समर्थन किया। इस बीच सिराज भी वहाँ आ गया।गुलशन खाट पर बिछावन डालकर ऊपर चादर डालने लगी। ऐसा करते हुए उसके अन्दर सवाल-दर-सवाल पैदा होते रहे। नाश्ते की बात तो अब्बू ने यूं ही कह दी। मुश्ताक और दुल्हन की जब कोई बात नहीं तो....तो क्या अब्बू? उसे अपने दिमाग के अन्दर की कोई गांठ ढीली होती सी लगी।
''बात यह है बेटा कि कल हज कमीटी के दफ्तर से दरखास्त आ गई है। मैं दरखास्त भरकर एक-दो रोज में भेजूंगा। सोचा, तुम्हें बता दूँ।''गुलशन ने अपने हृदय पर एक आघात सा महसूस किया। तो अब्बू हज के इरादे पर न सिर्फ क़ायम हैं बल्कि उसकी तैयारी भी शुरू कर दी है। उसे घबराहट भरी बेचैनी महसूस होने लगी। कुछ देर वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी अपनी जगह खड़ी रही। फिर अचानक बोली, ''तो अब्बू आप अपनी ही जि+द पूरी करना चाहते हैं?''''देखो बेटा, हज की मेरी दिली ख्वाहिश है, मैं हज नहीं करूँगा तो मुझे सुकून नहीं मिलेगा। मैंने खुदा से बहुत पहले हज का वादा कर दिया था।.....'' रशीद अहमद गुलशन को समझाते-समझाते मानो अपने आप से बाते करने लगे।''
तो अब्बू आप हज की अपनी जिद पूरी कीजिए परे मैं आज से आपके न घर आऊंगी और न आप से बात करूंगी।'' गुलशन ने गहरे रोश से कहा।''गुलशन, तुम ऐसा जुल्म करोगी अपने अब्बू पर?''
रशीद अहमद दुखी स्वर में बोले पर गुलशन ने कोई जवाब नहीं दिया। वह अन्दर के कमरे में गई और बेटे मेराज को लाकर रशीद मियां की गोद में बिना कुछ बोले दे दिया। रशीद अहमद ने थोड़ी देर नाती को प्यार किया फिर उसे गुलशन को वापस दे दिया। जब रशीद अहमद वापस जाने लगे तो गुलशन ने उन्हें सलाम भी नहीं किया, आँखों में आँसू भरकर उन्हें जाते हुए देखती रही।गुलशन ने सच में रशीद के घर जाना और उनसे बातचीत करना बंद कर दिया। नासमझ गुलशन की जिद से रशीद अहमद दुखी तो थे पर खुदा से किये वादे को तोड़ देने का साहस उनमें नहीं था। समधी-समधन, दामाद, बेटे और बहू के माध्यम से उसे समझाने- मनाने की कोशिशें करके जब वे थक गये तो यह सोच कर दिल को तसल्ली दे ली कि उसका उनसे बातचीत बंद कर देना उसके उनसे बेइन्तहा प्यार के इजहार का ही एक तरीका था।पर एक दिन जब घर में प्रवेश करते हुए हज कमीटी की तरफ से अब्बू की दरखास्त की मंजूरी मिल जाने की खबर सिराज ने गुलशन को दी तो कुछ देर तो निर्विकार सी वह अपने काम में लगी रही फिर अचानक ही सिराज से बोली, ''सिराज, मैं अब्बू से मिलूंगी।''''ठीक है तो मिल आओ!''
सिराज ने जल्दी से कहा। उसे अपने अंदर अनकही सी खुशी महसूस हुई। जब से गुलशन ने अब्बू से मिलना-जुलना बंद कर रखा था, वह खुद बहुत पीड़ित-सा महसूस करता था। अब गुलशन के ऐसा कहने पर उसे लगा कि अब्बू से उसका मिलना-जुलना और बातचीत बंद कर देना शायद उन्हें हज का इरादा तर्क कर देने के लिए दबाव बनाने का उसका एक तरीका भर था पर अब जबकि अब्बू की दरखास्त की मंजूरी आ गई है तो वह हार मान चुकी है।''तुम भी साथ चलो, मैं अकेली नहीं जा पाऊंगी।''
गुलशन ने कहा।''ठीक है मैं भी साथ चलता हूँ।'' सिराज को लगा, इतने दिन अब्बू से मिलना-जुलना और बातचीत बंद रखने की जिद की वजह से गुलशन शर्मिन्दा है।रशीद अहमद उस वक्त घर की बैठक में ही थे जिस वक्त मुश्ताक ने अन्दर आकर गुलशन के आने की सूचना उन्हें दी। रशीद अहमद हर्शातिरेक में उठ खडे हुए और कमरे से बाहर निकल कर दरवाजे के सामने खड़े हो गए। उनके साथ गाँव के दो लोग और भी थे। वे भी उनका अनुसरण करते हुए बाहर चले आए। रशीद मियां ने देखा, सामने के मैदान के बीच की पगडंडी पर आगे-आगे सिराज और उसके पीछे मेराज को गोद में लिए गुलशन चले आ रहे थे। वे जब नजदीक आ गए तो सबसे पहले उन्होंने लगभग वर्श भर के मेराज को गुलशन से ले लिया और उसे चूमने लगे। गुलशन उनके पैर पकड़ते हुए बैठ गई, ''माफ़ कर दीजिए अब्बू!''
झुककर एक हाथ से उसे उठाते हुए रशीद अहमद बोले, ''नहीं'', मैं जानता हूँ, हज की मेरी जिद के बावजूद तुम मुझे माफ करने आई हो। मेरी गुल्लू का दिल कितना बड़ा है।''रशीद अहमद के सीने से लगकर गुलशन रो पड़ी। उनकी आँखों में पहले ही आँसू आ गए थे। पास खड़े सिराज, मुश्ताक और दूसरे लोगों की आँखें भी भीग गईं।गुलशन एक बार और रोई थी। जब वह अब्बू को कोलकाता के लिए विदा करने सिराज और मुश्ताक के साथ गया रेलवे स्टेशन गई थी। उसके बाद वह फिर कभी नहीं रोई। गया से नवादा और नवादा से अपने गाँव मुरूई लौटते हुए भी वह बिल्कुल नहीं रोई और न बकरीद के दूसरे दिन जब घबराहट से भरे हुए मुश्ताक ने अलसुबह आकर वह मन्हूस खबर सुनाई कि हज के दौरान मीना में भगदड़ में कुचल कर कई हज यात्रिायों के मरने की खबर है जिनमें भारतीय हज यात्री भी शामिल हैं। और गुलशन तब भी नहीं रोई जब अगले दिन सऊदी से हज कमीटी की तरफ से मदरसे में फोन से खबर आ गई कि मरने वालों में कारी रशीद अहमद भी थे और उन्हें वहीं दफना दिया गया है।
अगले दिन अलस्सुबह नींद टूटने पर सिराज ने देखा कि गुलशन मेराज को स्तनपान कराते हुए लगातार कुछ बड़बड़ाए जा रही है। पहले उसने समझा कि वह मेराज से लाड में बातें कर रही है पर मेराज जब दूध पीकर सो गया और वह तब भी उसी तरह बड़बड़ाती रही तो सिराज डर गया। उसके मन में एक आशंका रेंग आई। वह पूछ बैठा, ''यह क्या बड़बड़ा रही हो तुम गुलशन?'
'''मैं अब्बू के पास जाना चाहती हूँ!'' गुलशन ने कुछ अजीब सी नजरों से उसे घूरते हुए कहा। इससे पहले कि वह कुछ और बोलता गुलशन बाहर के दर की ओर निकलती हुई बोली, ''मैं अब्बू से मिलने जा रही हूँ।
''सिराज हड़बड़ा कर उठा और गुलशन का पीछा करते हुए बाहर आया तो देखा कि गली में बदहवास सी वह भाग रही है। वह भी उसके पीछे भागा। जब वह पकड़ में आई तो वह परेशान से स्वर में बोला, ''यह सब क्या कर रही हो गुलशन?''''मैं अब्बू के पास जा रही हूँ।'' फटी-फटी आँखों से सिराज को घूरते हुए उसने कहा।''अब्बू तो गुलशन अब.....'' कहते-कहते सिराज रूक गया फिर बात बदल कर बोला, ''गुलशन, चलो, घर चलो!''गुलशन ने कोई जवाब नहीं दिया। फटी आँखों से वह उसे घूरती रही। मैं तुम्हारा सिराज हूँ, सिराज की आँख में आँसू आ गए। वह रूंधे गले से बोला, ''घर चलो गुलशन, मेराज रो रहा होगा।
''मेराज का नाम सुनकर वह कुछ सोचने लगी और प्रकृतिस्थ होती सी लगी। तब हाथ पकड़कर सिराज उसे घर तक ले आया।गुलशन की झाड़-फूंक शुरू हुई। पहले गाँव में, फिर नवादा में फिर गया के खानकाहों में पर उसकी हालत बिगड़ती ही गई। तब कुछ लोगों ने इलाज की राय दी। उसे नवादा के जिस डॉक्टर से दिखाया गया उसने उसे पड़ोसी प्रान्त झारखण्ड की राजधानी रांची के एक प्रसिद्ध डॉक्टर के यहाँ रैफर कर दिया। सिराज और मुश्ताक ने उसे रांची ले जाने की जिम्मेदारी संभाली।लोगों के अजीब से शोर से बस में ऊँघ रहे सिराज और मुश्ताक जग पड़े और अपने बीच गुलशन को न पाकर अपने हृदय की धड़कनों को रूकती हुई महसूस किया। शोर बस के बाहर ज्यादा था। अन्दर कुछ यात्री बस के ड्राइवर, कंडक्टर और खलासी को भला बुरा कह रहे थे। मेराज सिराज की गोद में अब भी सो रहा था। वे दोनों कुछ याद करते हुए हड़बड़ा कर उठे। बस हजारीबाग बस स्टैण्ड के बाहर नेशनल हाईवे पर रूकी हुई थी। रांची में गुलशन को डॉक्टर से दिखाकर वे घर लौट रहे थे। रातभर जगते रहने के कारण वे नींद से बेहद भरे हुए थे और रांची से बस खुलने के समय से ही वे झपकियाँ लेने लगे थे।''इन झपकियों ने कहीं कोई अनर्थ न कर दिया हो।'' सिराज ने सोचा और बस से नीचे उतरा।
पीछे-पीछे मुश्ताक भी।नीचे दोनों ने पाया कि बस का कंडक्टर, खलासी और कुछ दूसरे लोग बस के किनारे जमीन पर पड़ी गुलशन को उठाने का प्रयास करते हुए कह रहे थे, ''अरे यह औरत है किसके साथ?''''हम लोगों के साथ।'' सिराज और मुश्ताक दोनों लगभग एक साथ घबराई हुई आवाज में बोलते हुए आगे बढ़े। गुलशन बेहोश थी और उसका चेहरा लहूलुहान था। नाक और बाएँ कान से भी खून रिस रहा था। कुछ लोगों ने बताया कि रूकी हुई बस से गुलशन अचानक नीचे उतर आई थी और ड्राइवर ने उसी समय गाड़ी आगे बढ़ा दी थी और बस के पिछले खुले दरवाजे से गुलशन टकरा गयी थी। लोगों ने उसे तुरन्त किसी डॉक्टर के पास ले जाने की राय दी। कुछ लोगों ने एक रिक्शा रूकवा कर गुलशन को उस पर सवार करने में मदद की और रिक्शे वाले को एक प्राइवेट नर्सिंग होम का पता बताते हुए उन्हें वहां ले जाने को कहा।हजारीबाग के उस प्राइवेट नर्सिंग होम में मरहम पट्टी के बाद गुलशन को दिनभर कई तरह के इंजेक्शन पड़ते रहे पर उसे होश नहीं आया। देर शाम को डॉक्टर ने कहा कि बेहतर होगा कि वे मरीज को रांची ले जाएं, उसकी स्थिति गंभीर है।
रात लगभग दस बजे एक रिक्शे पर गुलशन को लेकर सिराज और मुश्ताक बस स्टैण्ड पहुंचे। अंधेरे में बस स्टैण्ड के हाते के बाहर ही नेशनल हाईवे के किनारे एक बस खड़ी थी और उसका खलासी चिल्ला रहा था, ''राँची, राँची....राँची, राँची।''बहुत मुश्किल से बेहोश गुलशन को सिराज और मुश्ताक बस में चढ़ा पाए और ड्राइवर के ठीक पीछे वाली सीट पर मुश्ताक उसे संभाल कर बैठ गया। सिराज मेराज को गोद में लेकर बगल में बैठा। थोड़ी देर में बस खुल गई और बस कंडक्टर भाड़ा लेने उनके पास आ पहुंचा। भाड़े के हिसाब बताते हुए उसने कहा, ''डेढ़ सौ रुपये।''''भाई साहब कुछ कम कर दीजिए। हम लोग मरीज को ले जा रहे हैं, ऊपर से इसके साथ आज यहां हादसा हो गया और यहाँ हमारा घर भी नहीं है।'' सिराज निवेदन कर रहा था।''तो हम क्या करें?!'' कंडक्टर असंपृक्तता से बोला।
''हम लोग बहुत परेशानी में हैं। पहले ही हमारे काफी पैसे खर्च हो गए हैं।''
सिराज गिड़गिड़ाने लगा था।''अच्छा सौ रुपये दे दो।'' कंडक्टर ने दया दिखाते हुए कहा। सिराज खड़ा होकर जेब से एक हाथ से पैसे निकालने लगा। दूसरे हाथ से उसने मेराज को थाम रखा। नन्हा मेराज जगा हुआ था। सुबह के हादसे के वक्त से नन्हा मेराज आश्चर्यजनक रूप से शांत था। बगल की सीट पर एक यात्री दुख और करूणा से गुलशन के सिर पर बंधी पट्टियों को देख रहा था। नन्हा मेराज उसे देखकर मुस्कुरा पड़ा। शायद वह उसे बताना चाहता था कि उसे पता है कि उसकी अम्मी उस सफर पर आगे बढ़ गई हैं जो उसे अपने अब्बू के पास ले जायेगा और वह गहरे सुकून में है।

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Thursday, November 6, 2008

साठोत्तरी हिन्दी कविता में दलित-चेतना

डॉ० मानवेन्द्र पाठक
भारतीय अधिनियम १९३५ के अनुसार हरिजन एक्ट के आधार पर कुछ जातियों को अनुसूचित किया गया है तथा पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट के अनुसार इन्हें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग कहा गया है। कुछ निम्नवर्गीय जातियाँ ऐसी हैं जो सामान्य बोलचाल की भाषा में शूद्र कही गयी हैं। हरिजन एक्ट के अनुसार उन्हें हरिजन कहा गया, बाबा साहब अम्बेडकर के अनुसार उन्हें अछूत कहा गया है, महात्मा ज्योतिराव गोविन्दराव फुले के अनुसार उन्हें दलित या दास कहा गया है।
इस प्रकार भारतीय समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया, एक उच्च वर्ग सवर्णों का और दूसरा निम्नवर्ग दलित, दास और हरिजनों का। यह कटु सत्य है कि दलितों के प्रति भारत के उच्च वर्गीय समाज का व्यवहार अत्यंत अमानवीय और पाशविक रहा है। हरिजनों की बस्ती सवर्णों से अलग रहती थी। वे जीवन पर्यन्त सवर्णों की सेवा करते हुए भी सवर्णों से दूर रहे और तो और, उनके मरघट भी सवर्णों से अलग रहते थे - ''ओ! मेरे गाँव! तेरी जमीन पर/घुटी-घुटी साँसों के साथ/चलना पड़ता है अलग-थलग/लड़खड़ाते कदमों से/चलना पड़ता है अलग-थलग/मरने के बाद भी/जलना पड़ता है अलग-थलग॥''१ईश्वर की उपासना के निमित्त मंदिर में तो उनका प्रवेश वर्जित था ही, इससे भी आगे उन्हें किसी भी स्थान पर तपस्या करने तक की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त नहीं थी, क्योंकि वे शूद्र, दास, दलित एवं हरिजन थे - ''कर रहा तप शूद्र कोई/ अधोमुख दण्डक गहन में/स्वर्ग को सुख लूटने की/लालसा को लिए मन में/चाहता है एक दिव्य कृपाण/किन्तु जायेंगे उसी के प्राण॥''२और यदि शूद्र ने कहीं छिपकर तपस्या प्रारम्भ कर दी तो उसे जीवन से भी हाथ धोना पड़ता।
यह दुर्दशा भी किसी साधारण मानव के द्वारा नहीं, अपितु अयोध्या नरेश राम के द्वारा हुई - ''कटा सिर लोहू रहा है थूक/मृत्यु में अमरत्व का स्वर घोल/चित्त की सब वृत्तियों को तोल/राम को कुछ कह रहा शम्बूक/प्राण की टूटी हुई डोर/टकटकी बाँधे बधिक की ओर/मानता फिर भी न अपनी चूक/सुनो क्या कुछ कह रहा शम्बूक।''३दलितों और शूद्रों के प्रति यह अमानवीय व्यवहार नगरों, कस्बों तथा गाँवों में सभी जगह होता रहा। परन्तु फिर भी गाँवों में इनकी दुर्दशा अधिक रही। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत यद्यपि दलितों के उत्थान हेतु जागृति समाज में आई है, किन्तु फिर भी अभी बहुत कुछ बाकी है। इसी सदंर्भ में उल्लेखनीय है कि स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी कविता दलित-चेतना के लिए सुविख्यात रही है।
प्रयोगवाद और नयी कविता से लेकर आज तक दलितों को उनके अधिकार प्रदान करने हेतु, उनको समाज में प्रतिष्ठा दिलाने हेतु हिन्दी कविता में यह दलित-चेतना अजस्रगति से आगे बढ़ रही है। प्रयोगवाद और नयी कविता तो दलित-चेतना के बीच वपनकाल थे। साठोत्तरी कविता में वह बीज अंकुरित हुआ एवं बढ़कर हरीतिमा से सुशोभित हुआ। डॉ० राम कुमार वर्मा का 'एकलव्य' यद्यपि छठे दशक से पूर्व ही लेखनी का विषय बन चुका था, किन्तु साहित्य जगत्‌ के समक्ष वह प्रकाशन के रूप में छठे दशक के आस पास ही आया। दलित-चेतना के रूप में इस ग्रन्थ ने साठोत्तरी कविता में शीर्ष स्थान पाया। प्रस्तुत ग्रन्थ में युगों से उपेक्षित दलित-चेतना का अद्वितीय धनुर्धर एकलव्य अपना जो परिचय देता है, वह निश्चित ही दलित-चेतना को अमरत्व प्रदान करता है - ''जय! गुरुदेव!/एकलव्य दास हूँ।/है निषाद वंश मेरा, श्री हिरण्यधनु हैं मेरे पिता/तृण के समान हूँ मैं मार्ग में जो पदों का/भार बार-बार निज शीश ले,/बढ़ता है नवल हरीतिमा में मोद से।/एक ही चरण से खड़ा है जन्म काल से/अपनी तपस्या में। मैं एक ऐसा तृण हूँ।''४दलित एकलव्य को अमर एवं यशस्वी महाकाव्य 'महाभारत' के संभव पर्व के १३२ वें अध्याय में भगवान व्यास जी ने कुल ३० श्लोकों में प्रस्तुत किया है। तत्कालीन सामाजिक स्थिति दलितों के प्रति अच्छी नहीं थी। किसी दलित को शिष्य बनाना भी पाप समझा जाता था।
अतः द्रोणाचार्य ने दलित निषाद पुत्र एकलव्य को बाण-विद्या सिखाने हेतु अपना शिष्य नहीं बनाया। विनम्र एवं वीर एकलव्य आचार्य द्रोण को अपना गुरु मानते हुए उनकी मिट्टी की प्रतिमा बनाकर वन में जाकर बाण-विद्या का अभ्यास करने लगा और अद्वितीय तथा महान्‌ धुनर्धर बना। किन्तु द्रोणाचार्य से विद्वान एवं सवर्ण उसकी बाण-विद्या को सहन नहीं कर पाए, फलस्वरूप गुरु-दक्षिणा में उससे हाथ का अँगूठा माँग लिया - ''गुरु-प्रण-पूर्ति करे सब काल के लिए/जय गुरुदेव! यह रही मेरी दक्षिणा।/क्षण ही में अर्धचन्द्र-मुख-बाण से,/तूर्ण से निकाल कर लिया बाम कर में/गुरु-मूर्ति के समीप हाथ रख दाहिना/एक ही आघात में अंगुष्ठ काटा मूल से।''५अपने गुरु-ऋण से उऋण होने वाला विनम्र वीर एवं लगनशील दलित एकलव्य जैसा महान्‌ न हुआ एवं न ही कोई होगा।श्री नरेश मेहता का सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'शबरी' में भी साठोत्तरी कविता में दलित-चेतना का आधार स्तंभ है। शबरी नाम की दलित नारी सवर्णों के तिरस्कार का शिकार कभी नहीं हुई।
सवर्ण भी आज सहर्ष अपनी पुत्रियों का नाम शबरी रखते हैं। सवर्ण नारी सूर्पण खाँ का नाम तक कोई नहीं लेना चाहता है, न सुनना चाहता है, परन्तु असवर्ण एवं दलित नारी शबरी को महर्षि बाल्मीकि ने भी अमरत्व प्रदान किया है। भगवान राम उसके आश्रम पर जाते हैं तथा उसके आदर को स्वीकार कर उसे 'तपोधने' का नाम देकर उसकी सम्मान-वृद्धि करते हैं। साठोत्तरी कविता में दलित-चेतना की प्रतीक शबरी को अनुपम रूप दिया गया है - ''त्रोता युग की व्यथामयी/यह कथा दीन नारी की/राम-कथा से जुड़कर/पावन हुई, उसी शबरी की।/बदल गया था सतयुग/का सारा समाज त्रोता में,/वन-अरण्य की ग्राम्य-सभ्यता/नागर थी त्रोता में।''६श्री नरेश मेहता ऐसे आदर्श कवि हैं, जिन्होंने अपनी 'शबरी' नामक काव्य में दलित-चेतना को साकार किया है। शबरी भले ही भील जाति की दलित महिला थीं, परन्तु साहित्य में जो गौरवपूर्ण स्थान उसने पाया है, कोई दलित नारी क्या सवर्ण भी नहीं पा सकी। वह महान्‌ तपस्विनी एवं त्याग तथा परिश्रम की साक्षात्‌ प्रतिमूर्ति थीं। श्री नरेश मेहता ने शबरी के माध्यम से दलित-चेतना को साकार कर दिखाया है - ''शबरी की दिनचर्या अब/पूजा प्रबन्ध था करना,/अब थी अभिभावक पूरी/सब पर निगरानी रखना।/अब कभी-कभी प्रवचन में/उल्लेखित होती शबरी/मानो वह परम सती हो/हो भक्त शिरोमणि शबरी।''७शबरी के माध्यम से महाकवि नरेश मेहता ने दलितों की अध्यात्मपरायणता एवं पवित्राता का महान्‌ यशस्वी वर्णन किया है।
वास्तव में साठोत्तरी हिन्दी कविता ने दलित-चेतना को जो चारुता प्रदान की, वह इससे पूर्व के साहित्य में दुर्लभ हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है - ''नभ का पवित्रा नीलापन/था श्याम बरन में,/चन्दन सुगन्ध थी उसके/उस सात्विक भोलेपन में।''८श्री नरेश मेहता की कविता शबरी तो एक माध्यम है। वे शबरी को माध्यम बनाकर दलितों की भक्ति-भावना को प्रस्तुत करना चाहते हैं। जिन्हें आज सवर्ण दलित कहते हैं। वे दलित तो समाज ने बना दिए हैं। यदि वास्तविक रूप से देखें तो इनकी पवित्रा भक्ति किसी सवर्ण से कम नहीं हैं - ''शबरी अपनी कुटिया में/थी महाभाव में डूबी/वह समय-देश से ऊपर/प्रभु में तन्मय, रस-डूबी।/भीड़ के निकट आ पहुँची तो/ऋषि आश्रम बाहर आये,/तब तक दो देव पुरुष से/ऋषि चरणों पर झुक आए।''९भगवान राम जब उसके आश्रम पर पहुँचते हैं तो उनके मुख से दलित-चेतना साकार हो उठती है - ''प्रभु को देगी वह चरव/कर, होंगे रसाल जो मीठे,/वह प्रभु की जिह्‌वा बनकर/चक्खेगी कड़वे-मीठे।''१०साठोत्तरी हिन्दी कविता में श्री जगदीश गुप्त ने भी दलित-चेतना में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। आपका 'शम्बूक' नामक काव्य दलित-चेतना में मील का पत्थर सिद्ध हुआ है।
'शम्बूक' नाम का दलित पात्र महान्‌ तपस्वी था। फिर भी घोर तपस्या करते समय उसका सिर काट दिया गया। वह भी किसी साधारण मानव ने नहीं, अपितु भगवान राम ने। दलितों के प्रति अपमान एवं शोषण तथा अन्याय की यह विषाक्त भावना समाज के मस्तक पर निश्चित ही कलंक है। इस कलंक को धोने का प्रयास साठोत्तरी हिन्दी कविता में हुआ है। समाज इस कुत्सित विचारधारा से मुक्ति पाने के लिये सजग है। श्री जगदीश गुप्त कृत 'शम्बूक' इसका यशस्वी उदाहरण है - 'हे राम!/तुम्हारी रची/रक्त की भाषा में/हर बार/तुम्ही से कहता है/शम्बूक मूक,/तज कर्म-वेद-पथ,/.../मानव समाज की/ऊर्ध्वमुखी मर्यादा में/तुम गए चूक।''११शम्बूक जैसा दलित तपस्वी समाज के लिए पवित्र उदाहरण है।
तपस्या करने का अधिकार तो सभी को है। दलित वर्ण तपस्या क्यों नहीं कर सकता? सवर्ण और असवर्ण तो समाज की देन है। हर कोई इंसान है तथा वह अपनी योग्यता एवं प्रतिभा के अनुसार कार्य कर सकता है। यह बात दूसरी है कि एक वर्ण को असवर्ण एवं दलित मानकर उसे उसके अधिकारों से वंचित कर दिया गया है। अब दलितों को उनके अधिकार प्रदान करने के लिए समाज कटिबद्ध हैं, साठोत्तरी कविता इसका प्रबल प्रमाण है - मैंने जब माँगा/जन्म-सिद्ध अधिकार/आत्मा के शिखरों को छूने का/स्वयं खड्ग-पाणि हो/उतर आये हिंसा पर/मर्यादा पुरुषोत्तम।''१२
साठोत्तरी हिन्दी कविता में दलित-चेतना की कड़ी में महाकवि दिनकर की 'परशुराम की प्रतीक्षा' नामक कृति भी अपना उल्लेखनीय स्थान रखती है। आपका विचार है कि जातिगत विद्वेष भारतीय समाज को कमजोर बना रहा है। जब तक यह जातिगत भावना भारतीय समाज से पूर्णतया समाप्त नहीं होगी, तब तक भारतीय समाज सशक्त नहीं बन सकेगा - ''सबसे पहले यह दुरित-मूल काटो रे!/समतल पीटो, खाइयाँ-खड्ड पाटो रे!/बहुपाद वटो की शिरा-सोर छाँटो रे!/जो मिले अमृत, सबको समान बाँटो रे!/वैषम्य घोर जब तक यह शेष रहेगा,/दुर्बल का दुर्बल यह देश होगा।''१३आपका भारतीय समाज को स्पष्ट उद्बोधन था कि हम स्पर्श और अस्पर्श की द्वंद्वात्मक भावना को दूर करके ही भारत माता की सीमाओं की रक्षा करने में समर्थ हो सकेंगे - ''पर सावधान! जा कहो उन्हें समझा कर,/सुर पुनः भाग जाएँ मत सुधा चुरा कर।...इस बार जहर का भाग उन्हें भी देंगे।/वैषम्य शेष यदि रहा, शांति डोलेगी,/ इस रण पर चढ़कर महाकांति बोलेगी।''१४इस प्रकार साठोत्तरी हिन्दी कविता में दलित-चेतना का अत्यंत मार्मिक और हृदयस्पर्शी चित्रा देखने को मिलते है। साठोत्तरी कवियों ने सबसे बड़ी और महान्‌ चेतना मानव-समाज से संबंधित ही मानी है।
सभी मनुष्य समान हैं। शूद्र-समाज और ब्राह्मण-समाज का भेद व्यर्थ हैं, वास्तविक और आदर्श समाज यदि कोई है तो वह मानव-समाज है जिसमें सभी मानव एक दूसरे का हित चिंतन करते हुए परस्पर गले लगते हैं - ''जब वह दानव को मानव बना सके,/और सब मानवों में साम्य की हो स्थापना/हम हैं अछूत, तो हमारे अंग स्पर्श से,/आर्यों के सुअंग क्या कु-अंक बन जावेंगे?/.../शूद्र मान, हम आर्य अपने को कहते।/किन्तु शूद्र और ब्राह्मणों में भेद कैसा?/जबकि सम्पूर्ण अंग मानवों के सब में?''१५निष्कर्ष यह है कि जब तक हमारे देश में छूत-अछूत एवं सवर्ण-असवर्ण की कुत्सित विचारधारा प्रचलित रहेगी, तब तक देश उन्नति के शिखर पर नहीं पहुँच सकता है।
दलितों के प्रति अत्याचारों का जब तक यह ताण्डव नृत्य होता रहेगा, तब तक मानवता कराहती रहेगी। जिस दलित जाति को सवर्ण सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते तथा उसे उसके अधिकारों से वंचित करते रहते हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसी दलित जातियों में ही कर्ण जैसे महावीर योद्धा एवं दानी, शम्बूक सरीखे घोर तपस्वी, एकलव्य जैसा वाण-वीर, शबरी जैसी निष्कलंक भक्तिन आदि ने जन्म लिया है और जिनके जीवन चरित्र पर कवियों ने अपनी लेखनी चलाई है।
संदर्भ ग्रन्थ
१. डॉ० सुखवीर सिंह-दीर्घा, पृ. १३
२. डॉ० जगदीश गुप्त-शम्बूक, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद षष्ठ संस्करण, पृ. ११
३. वही, पृ. ७१
४. डॉ० राम कुमार-एकलव्य, भारती भण्डार इलाहाबाद, संवत्‌ २०१
५ पृ. ७०५. वही, पृ. १६५
६. श्री नरेश मेहता-शबरी, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण १९९६, पृ. 1
७. वही, पृ. ३९
८. वही, पृ. ३९९. वही, पृ. ६७
१०. वही, पृ. ७०११. डॉ० जगदीश गुप्त-शम्बूक, पृ. 1
१२. वही, पृ. ९९-१००
१३. श्री रामधारी सिंह दिनकर-परशुराम की प्रतीक्षा, उदयाचल प्रकाशन, राजेन्द्र नगर, पटना-१६, पृ. ३०
१४. वही, पृ. ३११५. श्री राम कुमार वर्मा-एकलव्य, पृ. ११२

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Wednesday, November 5, 2008

कबीर की प्रासंगिकता 2

डॉ० शेर सिंह बिष्ट

कबीर आचरण की शुद्धता को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वे न केवल पशु-बलि का विरोध करते हैं वरन्‌ मांस-मदिरा-जुआ, वेश्यागमन, चोरी आदि बुराइयों को भी व्यक्ति के सर्वनाश का कारण मानते हैं, अतः उनसे दूर रहने की सलाह देते हैं - मांस भखै और मद पिये, धन वेश्या सों खाय।/जुआ खेलि चोरी करै, अंत समूला जाय।२९जो व्यक्ति इस तरह के दुर्व्यसनों का शिकार होता है वह कामी, क्रोधी और लालची प्रवृत्ति का होता है। ऐसे लोगों से ईश्वरी-भक्ति नहीं हो सकती। प्रभु की भक्ति कमजोर चित्तवृत्ति वाले लोग नहीं कर सकते, उसे कोई सूरमा ही कर सकता है जो जाति, वर्ण और कुल के मिथ्याभिमानों से ऊपर उठा हुआ हो - कामी क्रोधी लालची, इन ते भक्ति न होय।/भक्ति करे कोई सूरमा, जाति बरन कुल खोय।३०प्रत्येक मनुष्य की आत्मिक एवं शारीरिक संरचना में किसी तरह का कोई अंतर नहीं है। सभी मनुष्यों का शरीर पंच भौतिक तत्त्वों से विनिर्मित है और सबके भीतर एक ही आत्मा का अधिवास है तो फिर ब्राह्मण-शूद्र वगैरह का ऊँच-नीच भेद किसलिए। जैसे - एक बूँद एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा।/एक जोति थैं सब उतपनौं, कौन ब्राँह्मन कौन सूदा।३१
जो लोग कबीर से उनकी जातीय पहचान के बारे में सवाल करते हैं कि वे कहाँ से आये हैं, उनकी जाति, नाम, पता, ठिकाना वगैरह क्या है तो कबीर उनको उत्तर देते हैं कि आत्मा ही उनकी जाति है, प्राण उनका नाम है, आराध्य उनका अलख निरंजन है तथा गाँव (निवास स्थान) उनका आकाश है - कौन तुम्हारी जाति है, कौन तुम्हारा नाम।/कौन तुम्हारा इष्ट है, कौन तुम्हारा गाँव।/जाति हमारी आतमा, प्रान हमारा नाम।/अलख हमारा इष्ट है, गगन हमारा ग्राम।३२
जिसका प्रभु राम पर अटूट विश्वास है, कबीर की दृष्टि में उसे अपने विरोधियों या शत्रुओं से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आप सच्चाई के रास्ते पर चल रहे हैं तो फिर डरने की क्या बात है। शत्रुओं से बचने के लिए किसी संगी-साथी की आवश्यकता भी नहीं है। सबसे बड़ा रखवाला तो हमारे साथ ही है। कबीर का आत्मविश्वास इन शब्दों में देखते ही बनता है - जाको राखै साँइया, मारि न सकिहै कोय।/बाल न बाँका करि सकै, जो जग बैरी होय॥३३
लेकिन हमारा भी यह कर्तव्य है कि उस रखवाले को हम सुख के दिनों में भूल न जायँ। ऐसा न हो कि उसकी याद केवल कष्ट के समय ही आये, बाकी दिनों में नहीं। जो उसको सदा याद रखेगा, तो फिर उसे कष्ट क्यों होने लगा? लेकिन जो प्रभु-स्मरण नहीं करते, वे जरूर परेशानी में पड़ जाते हैं - दुख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय।/जो सुख में सुमिरन करै, तो दुख काहे को होय।३४
कबीर मानते हैं कि यह कलियुग है। इसमें उल्टा-पुल्टा भी हो जाता है। कबीर अपने समय की सच्चाई से भली भाँति परिचित है। वे जानते हैं कि दिन-प्रतिदिन नैतिक मूल्यों का Ðस हो रहा है, सज्जनों की संख्या में निरन्तर कमी आ रही है जबकि दुर्जनों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हो रही है। कबीर बड़े कठिन समय के दौर से गुजर रहे थे। ऐसा दौर हर युग में आता है। त्रोता में दुष्टों के नाश और सज्जनों के उद्धार के लिए विष्णु अवतारी राम को जन्म लेना पड़ा था तो द्वापर में कृष्ण को। उनके समय की परिस्थितियाँ भी बहुत भिन्न नहीं थी। साधु सज्जनों की अपेक्षा दुष्टों का प्रभुत्व अधिक था, जिसकी झलक उनके इन शब्दों में देखने को मिलती है - ÷कबिरा कलियुग कठिन है, साधु न मानैं कोय।/कामी क्रोधी मसखरा, तिनको आदर होय।'३५
यह कलियुग बहुत बुरा है। तथाकथित संन्यासी भी लोभी-लालची हैं और कुछ पाने की चाह में राजदरबारों में फिरा करते हैं। कबीर को भी सच्चे अर्थों में कोई ऋषि-मुनि नहीं मिला। कबीर अपने युग की इसी सामाजिक दशा का वर्णन इस प्रकार से करते हैं - कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी खटाइ।/राजा दुआरा यों फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाइ॥३६
स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिए सामर्थ्यवान का ही स्तुतिगान करते हैं, प्रभु का नहीं। कबीर के अनुसार वे अज्ञानी यह नहीं जानते कि प्रभु-स्मरण से तो प्रभुता भी दासी हो जाती है - प्रभुता को सब कोउ भजे, प्रभु को भजे न कोय।/कहै कबीर प्रभु को भजै, प्रभुता चेरी होय॥३७कबीर केवल व्यक्तिगत मुक्ति या निजी साधना तक सीमित नहीं थे। वे जनता के कवि थे और जनता के दुःख-दर्द में बराबर के भागीदार भी थे। समाज के दलित-शोषित वर्ग के प्रति उनकी विशेष सहानुभूति थी। जहाँ भक्ति के क्षेत्र में सभी मानव प्राणियों के प्रति समभाव रखते हैं, वहीं सामाजिक विषमता के लिए जिम्मेदार लोगों को खरी-खोटी सुनाने से भी नहीं चूकते। यह विषमता मुख्य रूप से दो तरह की थी - १. जातीय तथा २. आर्थिक। दीन-दुखियों को गरीबी में भी सम्मान से जीने के लिए प्रेरित किया। निर्धनों की तत्कालीन सामाजिक स्थिति का वर्णन उन्होंने इस प्रकार से किया है - निर्धन आदर कोई न देई। लाख जतन करै ओहु चित न धरेई॥/जौ निर्धन सरधन कै जाई। आगै बैठा पीठ फिराई॥३८कबीर दीन-हीनों को कभी संतोष का पाठ पढ़ाते हैं तो कभी गरीबी को महिमामंडित कर, उसे प्रभु सान्निध्य का प्रवेश-द्वार बताते हैं। उनकी दृष्टि में जहाँ धन-वैभव है, वहाँ प्रभु का वास नहीं है और जहाँ अनाभाव है वहाँ प्रभु का वास है। जिसके साथ प्रभु हैं वह निश्चित रूप से धनपतियों से बड़ा धनी है। आधुनिक युग में गाँधी ने भी दरिद्रनारायण की बात कहकर संभवतः कबीर की ही बात दोहराई थी। उनकी दृष्टि में गरीबी अभिशाप नहीं वरन्‌ वरदान है क्योंकि वहाँ ईश्वर का निवास है - दीन गरीबी बंदगी, साधन सो आधीन।/ताके संग हरियौ रहै, ज्यों जल संगहि मीन।/दीन लखै मुख सबन को, दीनहिं लखै न कोय।/भली बिचारी दीनता, नरहू देवता होय॥३९
गरीब को अमीर से श्रेष्ठ सिद्ध कर, वे गरीबों को स्वाभिमान से जीवनयापन करने के लिए हमेशा उत्प्रेरित करते हैं कि गरीब होना कोई अपराध नहीं है। अतः किसी तरह की हीनभावना से ग्रस्ति होने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि हम जिह्‌वा के स्वाद की तृप्ति के लिए दूसरों के आगे हाथ न फैलायें, वरन्‌ रूखा-सूखा खाकर भी संतोषपूर्वक शान से जियें - रूखा सूखा खाइ के, ठंडा पानी पीव।/देखि बिरानी चोंपडी, मत ललचावे जीव।४०
जो लोग साधन सम्पन्न हैं, शासन-प्रशासन में सत्तासीन हैं, उनसे गरीबों के लिए कुछ करने की आशा करना भी व्यर्थ है। कबीर अपने जीवनानुभवों से भलीभाँति जानते थे कि जो जितना ही मीठा बोलता है, वह भीतर से उतना ही कपटी होता है। यदि अपवाद स्वरूप कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो कथनी को करनी का रूप देता तो कबीर की दृष्टि में उसकी वाणी तो अमृततुल्य है - कथनी मीठी खाँड़ सी, करनी विषय की लोय।/कथनी कथि करनी करै, विष से अमृत होय॥४१बड़े आश्चर्य की बात है कि कबीर को चारों ओर कोई ऐसा व्यक्ति नजर नहीं आता, जो विश्वास के योग्य हो, जिससे अपने दिल की बात कही जाये। जिससे भी वे अपने हृदय की बात करते हैं, वही उनकी बात को हथियार के रूप में उन्हीं के विरुद्ध इस्तेमाल करता है। ऐसे अविश्वसनीय वातावरण में व्यक्ति जिए भी तो कैसे जिए?
कबीर भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि इस संसार में सच्चा प्रेमी मिलना बड़ा ही कठिन है। वे अपने जैसे किसी भगवत्प्रेमी की खोज में निकले, परन्तु कोई सच्चा प्रेमी मिला नहीं। सौभाग्यवश किसी भगवत्प्रेमी को सच्चा प्रेमी मिल जाये तो सांसारिक विषय-वासनारूपी विष भी अमृत में परिणत हो जाता है, अर्थात्‌ अधोगामी प्रवृत्तियाँ ऊर्ध्वगामी होकर मन का परिष्कार कर देती है और प्रभु का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है - प्रेमी ढूँढत मैं फिरौं, प्रेमी मिलै न कोइ।/प्रेमी कौ प्रेमी मिलै, सब विषय अमृत होइ॥४२लेकिन कबीर को ऐसा सच्चा प्रेमी कोई मिला नहीं जो उनका भी दुःख-दर्द सुनता और उनकी बातें करता। उन्होंने देखा कि संसार में सभी अपनी ही राम कहानी कहे जा रहे हैं। संसार की मुक्ति के लिए चिंतित कबीर की किसी को परवाह ही नहीं है। उन्होंने भी निश्चय कर लिया कि अपनी बातें वे स्वयं ही कहेंगे, जिसको जो करना है, करे। होगा वही, जो सृष्टिकर्ता प्रभु चाहेंगे - अपनी अपनी सब कहैं, हमारी कहै न कोय।/हम अपनी आपहि कहैं, करता करै सो होय॥४३
उन्होंने अपनी बात बड़े आत्मविश्वासपूर्वक कहनी शुरू कर दी - कि वे धर्म-अधर्म, योगी-भोगी, सेवक-स्वामी, बंधन-मुक्ति, राग-विराग, स्वर्ग-नरक, कर्म-अकर्म, वाद-प्रतिवाद इन सबसे ऊपर और परे हैं। यह बात विरले लोग ही समझे हैं, जो उस भावभूमि तक पहुचे हों। कबीर न कोई मत-वाद प्रतिपादित करना चाहते हैं, और न किसी मत-वाद का खण्डन करते हैं - ना मैं धर्मी नाही अधर्मी, ना मैं जती न कामी हो।/ना मैं कहता ना मैं सुनता, ना मैं सेवक-स्वामी हो/.../सब ही कर्म हमारा कीया, हम कर्मन तें न्यारे हो/या मत को कोई बिरलै, बूझे सोई अटर हो बैठे हो/मत कबीर काहू को थापै, मत काहू को मेटे हो।४४अंत में वे अपने बारे में कुछ इस तरह घोषणा करते हैं कि लगता है वे सचमुच सबसे विलक्षण और विलग हैं। अपने को सुर-नर-मुनि से भी श्रेष्ठ बताने का साहस कबीर ही कर सकते हैं। पंच भौतिक और त्रिगुणात्मक शरीररूपी चादर सभी ने ओढ़ी और मैली कर दी पर कबीर ने सलीके से ओढ़कर जस की तस रख दी - झीनी झीनी बीनी चदरिया।/काहे कै ताना काहै कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।/इंगला-पिंगला ताना भरनी, सुसमन तार से बीनी चदरिया।/आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्व गुन तीनी चदरिया॥/साँई को सियत मास दस लागै, ठोक ठोक के बीनी चदरिया।/सो चादर सुर-नर-मुनि ओढ़िन, ओढ़ि के मैनी कीनी चदरिया।/दास कबीर जतन से ओढ़िन, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।४५आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इन पंक्तियों के संबंध में लिखते हैं - सारी बात कुछ इस लहजे में कही गयी है कि वह आक्रमणमूलक हो गयी है। सुर-नर-मुनि को उँगली दिखाकर कहना और उनकी तुलना में अपने आपको बैठा देना और उनसे बड़ा बताना निश्चय ही एक ऐसा तीव्र कटाक्ष है जो लक्ष्यभूत श्रोता को चिढ़ाये बिना नहीं रह सकता। पर लक्ष्य करने योग्य है कहने वाले की लापरवाही। वह इतनी बड़ी चिढ़ा देने वाली बात कह गया है लेकिन कटुता के साथ नहीं और प्रत्याक्रमण की चिन्ता के साथ तो बिल्कुल नहीं। ऐसे थे कबीर। सिर से पैर तक मस्त-मौला; स्वभाव से फक्कड, आदत से अक्खड़, भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचण्ड, दिल के साफ, दिमाग के दुरुस्त; भीतर से कोमल, बाहर से कठोर; जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय। वे जो कुछ कहते थे, अनुभव के आधार पर कहते थे, इसीलिए उनकी उक्तियाँ बेधने वाली और व्यंग्य चोट करने वाले होते थे।४६
महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि कबीर जन्मना हिंदू थे या मुसलमान? या दोनों समुदायों ने उन्हें अस्वीकार कर दिया था, जिसके प्रतिक्रियास्वरूप उन्होंने भी उन दोनों समुदायों को नकारकर अपनी भड़ाँस निकाली थी। महत्त्वपूर्ण यह है कि कबीर ने क्या कहा और क्या किया। कबीर की वाणियों से स्पष्ट है कि उन्होंने राम-रहीम को एक ही माना और अपनी बात को अनेक प्रमाणों से पुष्ट किया। हिंदू-मुस्लिम दोनों धर्मों के मिथ्या बाह्याचारों का खुलकर विरोध किया, जिसके आधार पर माना जा सकता है कि वे प्रकारान्तर से दोनों समुदायों की धार्मिक कट्टरता एवं विद्वेष को दूर करके उनमें एकता स्थापित करना चाहते थे परन्तु हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार कबीर को हिंदू-मुस्लिम एकता का पैगम्बर मानना सही नहीं है। उन्होंने - दोनों धर्मों की ऊँची संस्कृति या दोनों धर्मों के उच्चतर भावों में सामंजस्य स्थापित करने की कहीं भी कोशिश नहीं की और सिर्फ यही नहीं, बल्कि उन सभी धर्मगत विशेषताओं की खिल्ली ही उड़ायी है जिसे मजहबी नेता बहुत श्रेष्ठ धर्माचार कहकर व्याख्या करते हैं।४७
कबीर अपने समय के सबसे विवादास्पद व्यक्ति थे क्योंकि वे न केवल लीक से हटकर चल रहे थे, वरन्‌ लीक पर चलने वालों को गरिया भी रहे थे। किसी बने-बनाये अथवा बँधे-बँधाये रास्ते पर चलना आसान है। सुविधाभोगी यही करते हैं । लीक से हटकर चलने में सामाजिक तिरस्कार, बहिष्कार एवं एकाकीपन का दंश झेलना पड़ता है। कबीर का धर्म जैसे संवेदनशील मुद्दे पर दो शक्तिशाली कौमों को चुनौती देना, आ बैल मुझे मार'' की तरह ही था। ऐसा कोई मतवाला ही कर सकता था जो केवल अपने को सही बताकर, बाकी सबको खारिज कर रहा हो। वे ऐसे ही मतलवाले थे। प्रेम-भक्ति की मदिरा पीकर मतवाले हो रहे कबीर जैसे सारी दुनिया से दो-दो हाथ करने हर समय तैयार बैठे रहते थे। उन्हें अपने साँई पर इतना भरोसा था कि दुनिया का डर गायब हो गया था। ताल ठोंककर जोगी, जती, पंडित, काजी, मौलवी को चिढ़ा-चिढ़ाकर धर्म के अखाड़े पर ललकारना, सामान्य मनुष्य के बूते का काम नहीं था। कभी-कभी उनकी निर्मता अपने चरम पर पहुँच जाती थी। एक अकेली जान का खुल्लमखुल्ला दो शक्तिशाली कौमों से वैर मोल लेना अत्यन्त जोखिम भरा काम था। इसीलिए कबीरपंथी यदि उन्हें अवतारी पुरुष मानते हैं तो कोई गलती नहीं करते। वे सचमुच में अलौकिक थे। उनकी इसी अलौकिकता को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-कबीरदास का रास्ता उल्टा था...वे मुसलमान होकर भी असल में मुसलमान नहीं थे; हिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं थे; वे साधु होकर भी साधु (अगृहस्थ) नहीं थे, वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे; योगी होकर भी योगी नहीं थे। वे कुछ भगवान की ओर से सबसे न्यारे बनाकर भेजे गये थे। वे भगवान की नृसिंहावतार की मानव-प्रतिमूर्ति थे। नृसिंह की भाँति वे असंभव समझी जाने वाली परिस्थितियों के मिलन-बिन्दु पर अवतीर्ण हुए थे।४८
मानवतावादी कबीर हिंदू धर्म की जातीय विषमता, सामाजिक समानता एवं अस्पृश्यता से बुरी तरह तिलमिला उठे थे, जिसका दंश उन्होंने स्वयं भी झेला था। ऐसा धर्म जो पशु-पक्षियों तक को देवतुल्य समझता हो, गाय को माता तथा साँप को देवता मानता हो, शेर, उल्लू, गरुड़, चूहे, बैल वगैरह को देवी-देवताओं के वाहन के रूप में आदर देता हो और दूसरी ओर शूद्र को न केवल अस्पृश्य वरन्‌ उसके दर्शनों को भी पाप समझता हो, उसे कबीर कैसे स्वीकार कर सकते थे। पशु-पक्षियों का देवतुल्य सम्मान एवं समाज सेवकों का घोर अपमान करने वाला तथा पत्थर की मूर्ति को देवता और मानव को पत्थरवत्‌ समझने वाला धर्म भी उन्हें मान्य न था। प्राणिमात्रा को ईश्वर की संतान समझने वाले कबीर जीव-हत्या को ब्रह्म हत्या के सदृश मानते थे। हत्यारे यदि प्रभु के द्वारपाल हों तो वहाँ साधारण व्यक्ति कैसे प्रवेश पा सकता है। इसलिए उन्होंने अपने निर्गुण पंथ के द्वार हत्यारों, ढोंगियों, दलालों एवं पापियों के लिए बंद कर दिए तथा प्रेम के पुजारियों के लिए खोल दिए।
सत्य के द्रष्टा कबीर असत्य का मायाजाल देख सकते थे, ज्ञानदीप से ज्योतित कबीर अज्ञान का अंधकार भगा सकते थे, अहिंसा के पुजारी कबीर हिंसा का रास्ता रोक सकते थे, मानवतावादी कबीर ही समानता के अधिकार की लड़ाई लड़ सकते थे। अदम्य साहसी कबीर कई मोर्चों पर एक साथ लड़ाई-लड़ रहे थे। इसीलिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें अपने युग का सबसे बड़ा क्रांतिकारी कहा है-कबीर का रास्ता बहुत साफ था।...वे समस्त बाह्याचारों के जंजालों और संस्कारों को विध्वंस करने वाले क्रांतिकारी थे। समझौता उनका रास्ता नहीं था। इतने बड़े जंजाल को नहीं कर सकने की क्षमता मामूली आदमी में नहीं हो सकती। कमजोर स्नायु का आदमी इतना भार बर्दाश्त नहीं कर सकता। जिसे अपने मिशन पर अखण्ड विश्वास नहीं है, वह इतना असम साहसी हो ही नहीं सकता। कबीर ने समस्त बाह्याचारों को स्वीकार करके मनुष्य को साधारण मनुष्य के आसन पर और भगवान को निरपख भगवान के आसन पर बैठाने की साधना की थी, उसका परिणाम क्या हुआ और भविष्य में वह उपयोगी होगा या नहीं, यह प्रश्न उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। सफलता महिमा की एकमात्रा कसौटी नहीं है। कबीरदास ने इस महती साधना का बीज बोया था४९
कबीरदास ने जिस साधना का बीज बोया था, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। लगभग छः सौ वर्ष पूर्व क्रांतिकारी कबीर ने जिस लड़ाई की शुरूआत की थी, वह अभी खत्म नहीं हुई है। इनके विरोध के बावजूद न मंदिरों का बनना रुका, न मस्जिदों का; न मंदिर-मस्जिद के मुद्दे खत्म हुए न हिंदू-मुस्लिम एकता कायम हुई; न र्मूर्तिपूजा रुकी, न नमाज पढ़ना; न जात-पाँत के झगड़े खत्म हुए न जीव हत्या बंद हुई। लोग दशरथ सुत राम को भजते रहे, लेकिन उसे अपना न सके; पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक का जाप होता रहा, कथनी-करनी का भेद बना रहा; लेकिन इस सबके बावजूद बहुत कुछ हुआ है। आज वे नहीं है लेकिन उनका दर्शन जिंदा है, उनका संघर्ष जिंदा है, उनकी लड़ाई अलग-अलग मोर्चों पर लड़ी जा रही है। कबीर का विश्वमानवता का सपना जब तक साकार नहीं होगा, तब तक लड़ाई जारी रहेगी। कबीर के इसी अद्वितीय व्यक्तित्व के संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - हिन्दी साहित्य के हजारों वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई व्यक्तित्व उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता हैः तुलसीदास। मस्ती, फक्काड़ाना स्वभाव और सब-कुछ को झाड़ फटकार कर चल देने वाले तेज ने कबीर को अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सँभाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को कवि कहने में संतोष पाता है। ऐसे आकर्षक वक्ता को कवि न कहा जाय तो क्या कहा जाय?५०
सचमुच हिंदी साहित्य के इतिहास में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक बुराइयों पर चोट करके सांस्कृतिक पुनर्जागरण का पहला उद्घोष मध्यकाल में कबीर ने किया तो आधुनिक काल में एक दूसरे रूप में राजा राममोहन राय वगैरह ने। कबीर सदियों से चली आ रही जड़ परम्पराओं का ही विध्वंस नहीं कर रहे थे, वरन्‌ अपने प्रगतिशील चिंतन के द्वारा एक स्वस्थ एवं समतावादी समाज व्यवस्था का विकल्प भी प्रस्तुत कर रहे थे। वे जंक लगी धार्मिक-सांस्कृतिक व्यवस्था को एक तार्किक परिणति देना चाहते थे। कबीर केवल एक व्यक्ति के रूप में नहीं, वरन्‌ एक पुनरुत्थानवादी संस्था के रूप में सामाजिक पुनरुद्धार के कार्य में संलग्न थे। वे झूठ से पर्दा उठा रहे थे और अज्ञानरूपी अंधकार के घने जंगल को ज्ञान की तलवार से चीर रहे थे। वे लोकजीवन के ऐसे जननायक और जनकवि थे जो कूपमंडूक जनता की मूक वाणी को आत्मसाक्षात्कार एवं आत्मानुभाव की भाषा में बुलंद कर रहे थे।कई विद्वानों की राय में ब्राह्मणवाद के घोर विरोधी कबीर का भक्ति आन्दोलन एक तरह से दलित-मुक्ति का भी आन्दोलन था, जिसके केन्द्र में वे स्वयं थे। उन्होंने भी पहले-पहल इस देश के उपेक्षितों-दलितों को ईश्वर दिया, जिनके लिए ईश्वर के दरवाजे बंद थे। जिस समाज में दलितों के लिए मंदिरों में प्रवेश वर्जित था, उन्होंने उन मंदिरों और पोथी-पंडितों को ही नकार दिया तथा सदगुरु की कृपा से निर्गुण ईश्वर की भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। कबीर अपने युग के निविड़ अज्ञान रूपी अंधकार का विषपान करके, भक्तों को ज्ञानरूपी प्याले में प्रभु की प्रेम-भक्ति का अमृतपान कराने वाले भारत के सुकरात थे।५१
कबीर की इस प्रासंगिकता का मुख्य कारण उनका मानवतावादी दृष्टिकोण एवं प्रगतिशील चिंतन है। हिंदू एवं मुस्लिम समाज में उनकी स्वीकार्यता के कुछ अन्य कारण भी हैं। तथाकथित मुसलमान होने के अलावा वे निर्गुण एकेश्वरवादी हैं, इसलिए मुस्लिम समाज में स्वीकार्य हैं, हालाँकि कबीर का एकेश्वरवाद मुसलमानी धर्म के एकेश्वरवाद से भिन्न है। वे अद्वैतवाद का समर्थन करते हैं लेकिन पौराणिक सगुणभाव भी उसमें परिलक्षित होता है, इसलिए हिंदू समाज में भी स्वीकार्य हैं। वे किसी भी धर्म-सम्प्रदाय को स्वीकार न करके सम्प्रदायों से ऊपर उठकर मानव मात्रा के उद्धार प्राणिमात्र के प्रति करुणा, अहिंसा तथा प्रेम की बात करते हैं, इसलिए उनका किसी धर्म से विरोध भी नहीं है। वे भक्त हैं, इसलिए सभी धर्म-सम्प्रदायों के भक्तों में आदरणीय हैं। वे जीवन में तथा भक्ति मार्ग के अनुसरण में गुरु को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं तथा विविध रूपों में गुरु महिमा का गुणगान करते हैं, इसलिए सभी धर्म-सम्प्रदायों के धर्मगुरुओं के लिए पूज्य, आदर्शस्वरूप एवं सर्वकालिक प्रासंगिक हैं। वे मानवता के पुजारी हैं तथा समाज के दबे-कुचले लोगों को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए निरन्तर लड़ाई लड़ते रहे हैं, इसलिए आम जनता के चहेते एवं नायक हैं। वे बाह्याचारों पर आक्रमण करते हैं, लेकिन मन की शुद्धता एवं आचरण की पवित्राता पर बल देते हैं, इसलिए उनसे किसी तरह का तार्किक विरोध नहीं हो सकता। वे वैचारिक एवं सैद्धान्तिक आधार पर बाह्याचारों का विरोध करते हैं, इसलिए उनके विरोध में किसी के प्रति व्यक्तिगत कटुता या राग-द्वेष नहीं हैं। उन जैसा अक्खड़ और फक्खड़ आदमी जो अनहदनाद के ब्रह्मानंद में लीन रहता हो, कलुषित हृदय का हो ही नहीं सकता। हृदय की इस पवित्राता के कारण उनकी डाँट-फटकार खानेवाला भी उन्हें गले लगाने के लिए आतुर रहता था। उनके इसी गुण को रेखांकित करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं-कबीरदास के आक्रमण में भी एक रस है; एक जीवन है क्योंकि वे आक्रान्त के वैभव से परिचित नहीं थे और अपने को समस्त आक्रमणयोग्य दुर्गुणों से मुक्त समझते थे। इस तरह जहाँ उन्हें लापरवाही का कवच लिया था, वहाँ अखण्ड आत्मविश्वास का कृपाण भी।५२कबीर का यह आत्मविश्वास उन्हें दिव्यता एवं भव्यता प्रदान करता है जो उन्हें न केवल एक अलग पहचान देता है, वरन्‌ युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा नायक की भूमिका में आसीन कर देता है। इस युगचेता युगपुरुष की निर्लिप्तता एवं वैचारिक प्रखरता में नवयुग निर्माण की वह दूरदर्शिता थी, जो युग-युगों तक आत्मज्ञान के आलोक से भावी पीढ़ी का पंथ आलोकित करती रहेगी तथा अपनी प्रासंगिकता निरन्तर बनाये रखेगी।
२९. वही, साखी, १४६-५, पृ. ४८५
३०. वही, साखी, ९९-४४, पृ. ४३९
३१. वही, पद-५७, पृ. ५४७
३२. वही, साखी, ९०-२९, २७, पृ. ४२८
३३. वही, साखी, १३५-२२, पृ. ४७६
३४. वही, साखी, ६७-५, पृ. ३९९
३५. वही, साखी, ९६-३, पृ. ४३३
३६. वही, साखी, १७-६, पृ. २८०
३७. वही, साखी, ९४-१३, पृ. ४३२
३८. वही, परिशिष्ट(पद-१३०), पृ. ७२०
३९. वही, साखी, ९५-१२, पृ. ४३३
४०. वही, साखी, १५६-१, पृ. ४९४
४१. वही, साखी, ९७-३, पृ. ४३५
४२. वही, साखी, ४३-१२, पृ. ३२६
४३. वही, साखी, १२१-१३, पृ. ४६०
४४. वही, पृ. ७८१-७८२
४५. शब्दावली; कबीर साहब की-(१९००), बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, पृ. ७४
४६. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, (१९८७), पृ. १४५-१४६
४७. वही, पृ. १८७४८. वही, पृ. १५७
४९. वही, पृ. १६०
५०. वही, पृ. १८५
५१. (सं.) राजेन्द्र यादव, हंस, (जुलाई, २००१), पृ० १८५
५२. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, (१९८७), पृ. १४४

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