कबीर की प्रासंगिकता 2
डॉ० शेर सिंह बिष्ट
कबीर आचरण की शुद्धता को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वे न केवल पशु-बलि का विरोध करते हैं वरन् मांस-मदिरा-जुआ, वेश्यागमन, चोरी आदि बुराइयों को भी व्यक्ति के सर्वनाश का कारण मानते हैं, अतः उनसे दूर रहने की सलाह देते हैं - मांस भखै और मद पिये, धन वेश्या सों खाय।/जुआ खेलि चोरी करै, अंत समूला जाय।२९जो व्यक्ति इस तरह के दुर्व्यसनों का शिकार होता है वह कामी, क्रोधी और लालची प्रवृत्ति का होता है। ऐसे लोगों से ईश्वरी-भक्ति नहीं हो सकती। प्रभु की भक्ति कमजोर चित्तवृत्ति वाले लोग नहीं कर सकते, उसे कोई सूरमा ही कर सकता है जो जाति, वर्ण और कुल के मिथ्याभिमानों से ऊपर उठा हुआ हो - कामी क्रोधी लालची, इन ते भक्ति न होय।/भक्ति करे कोई सूरमा, जाति बरन कुल खोय।३०प्रत्येक मनुष्य की आत्मिक एवं शारीरिक संरचना में किसी तरह का कोई अंतर नहीं है। सभी मनुष्यों का शरीर पंच भौतिक तत्त्वों से विनिर्मित है और सबके भीतर एक ही आत्मा का अधिवास है तो फिर ब्राह्मण-शूद्र वगैरह का ऊँच-नीच भेद किसलिए। जैसे - एक बूँद एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा।/एक जोति थैं सब उतपनौं, कौन ब्राँह्मन कौन सूदा।३१
जो लोग कबीर से उनकी जातीय पहचान के बारे में सवाल करते हैं कि वे कहाँ से आये हैं, उनकी जाति, नाम, पता, ठिकाना वगैरह क्या है तो कबीर उनको उत्तर देते हैं कि आत्मा ही उनकी जाति है, प्राण उनका नाम है, आराध्य उनका अलख निरंजन है तथा गाँव (निवास स्थान) उनका आकाश है - कौन तुम्हारी जाति है, कौन तुम्हारा नाम।/कौन तुम्हारा इष्ट है, कौन तुम्हारा गाँव।/जाति हमारी आतमा, प्रान हमारा नाम।/अलख हमारा इष्ट है, गगन हमारा ग्राम।३२
जिसका प्रभु राम पर अटूट विश्वास है, कबीर की दृष्टि में उसे अपने विरोधियों या शत्रुओं से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आप सच्चाई के रास्ते पर चल रहे हैं तो फिर डरने की क्या बात है। शत्रुओं से बचने के लिए किसी संगी-साथी की आवश्यकता भी नहीं है। सबसे बड़ा रखवाला तो हमारे साथ ही है। कबीर का आत्मविश्वास इन शब्दों में देखते ही बनता है - जाको राखै साँइया, मारि न सकिहै कोय।/बाल न बाँका करि सकै, जो जग बैरी होय॥३३
लेकिन हमारा भी यह कर्तव्य है कि उस रखवाले को हम सुख के दिनों में भूल न जायँ। ऐसा न हो कि उसकी याद केवल कष्ट के समय ही आये, बाकी दिनों में नहीं। जो उसको सदा याद रखेगा, तो फिर उसे कष्ट क्यों होने लगा? लेकिन जो प्रभु-स्मरण नहीं करते, वे जरूर परेशानी में पड़ जाते हैं - दुख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय।/जो सुख में सुमिरन करै, तो दुख काहे को होय।३४
कबीर मानते हैं कि यह कलियुग है। इसमें उल्टा-पुल्टा भी हो जाता है। कबीर अपने समय की सच्चाई से भली भाँति परिचित है। वे जानते हैं कि दिन-प्रतिदिन नैतिक मूल्यों का Ðस हो रहा है, सज्जनों की संख्या में निरन्तर कमी आ रही है जबकि दुर्जनों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हो रही है। कबीर बड़े कठिन समय के दौर से गुजर रहे थे। ऐसा दौर हर युग में आता है। त्रोता में दुष्टों के नाश और सज्जनों के उद्धार के लिए विष्णु अवतारी राम को जन्म लेना पड़ा था तो द्वापर में कृष्ण को। उनके समय की परिस्थितियाँ भी बहुत भिन्न नहीं थी। साधु सज्जनों की अपेक्षा दुष्टों का प्रभुत्व अधिक था, जिसकी झलक उनके इन शब्दों में देखने को मिलती है - ÷कबिरा कलियुग कठिन है, साधु न मानैं कोय।/कामी क्रोधी मसखरा, तिनको आदर होय।'३५
यह कलियुग बहुत बुरा है। तथाकथित संन्यासी भी लोभी-लालची हैं और कुछ पाने की चाह में राजदरबारों में फिरा करते हैं। कबीर को भी सच्चे अर्थों में कोई ऋषि-मुनि नहीं मिला। कबीर अपने युग की इसी सामाजिक दशा का वर्णन इस प्रकार से करते हैं - कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी खटाइ।/राजा दुआरा यों फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाइ॥३६
स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिए सामर्थ्यवान का ही स्तुतिगान करते हैं, प्रभु का नहीं। कबीर के अनुसार वे अज्ञानी यह नहीं जानते कि प्रभु-स्मरण से तो प्रभुता भी दासी हो जाती है - प्रभुता को सब कोउ भजे, प्रभु को भजे न कोय।/कहै कबीर प्रभु को भजै, प्रभुता चेरी होय॥३७कबीर केवल व्यक्तिगत मुक्ति या निजी साधना तक सीमित नहीं थे। वे जनता के कवि थे और जनता के दुःख-दर्द में बराबर के भागीदार भी थे। समाज के दलित-शोषित वर्ग के प्रति उनकी विशेष सहानुभूति थी। जहाँ भक्ति के क्षेत्र में सभी मानव प्राणियों के प्रति समभाव रखते हैं, वहीं सामाजिक विषमता के लिए जिम्मेदार लोगों को खरी-खोटी सुनाने से भी नहीं चूकते। यह विषमता मुख्य रूप से दो तरह की थी - १. जातीय तथा २. आर्थिक। दीन-दुखियों को गरीबी में भी सम्मान से जीने के लिए प्रेरित किया। निर्धनों की तत्कालीन सामाजिक स्थिति का वर्णन उन्होंने इस प्रकार से किया है - निर्धन आदर कोई न देई। लाख जतन करै ओहु चित न धरेई॥/जौ निर्धन सरधन कै जाई। आगै बैठा पीठ फिराई॥३८कबीर दीन-हीनों को कभी संतोष का पाठ पढ़ाते हैं तो कभी गरीबी को महिमामंडित कर, उसे प्रभु सान्निध्य का प्रवेश-द्वार बताते हैं। उनकी दृष्टि में जहाँ धन-वैभव है, वहाँ प्रभु का वास नहीं है और जहाँ अनाभाव है वहाँ प्रभु का वास है। जिसके साथ प्रभु हैं वह निश्चित रूप से धनपतियों से बड़ा धनी है। आधुनिक युग में गाँधी ने भी दरिद्रनारायण की बात कहकर संभवतः कबीर की ही बात दोहराई थी। उनकी दृष्टि में गरीबी अभिशाप नहीं वरन् वरदान है क्योंकि वहाँ ईश्वर का निवास है - दीन गरीबी बंदगी, साधन सो आधीन।/ताके संग हरियौ रहै, ज्यों जल संगहि मीन।/दीन लखै मुख सबन को, दीनहिं लखै न कोय।/भली बिचारी दीनता, नरहू देवता होय॥३९
गरीब को अमीर से श्रेष्ठ सिद्ध कर, वे गरीबों को स्वाभिमान से जीवनयापन करने के लिए हमेशा उत्प्रेरित करते हैं कि गरीब होना कोई अपराध नहीं है। अतः किसी तरह की हीनभावना से ग्रस्ति होने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि हम जिह्वा के स्वाद की तृप्ति के लिए दूसरों के आगे हाथ न फैलायें, वरन् रूखा-सूखा खाकर भी संतोषपूर्वक शान से जियें - रूखा सूखा खाइ के, ठंडा पानी पीव।/देखि बिरानी चोंपडी, मत ललचावे जीव।४०
जो लोग साधन सम्पन्न हैं, शासन-प्रशासन में सत्तासीन हैं, उनसे गरीबों के लिए कुछ करने की आशा करना भी व्यर्थ है। कबीर अपने जीवनानुभवों से भलीभाँति जानते थे कि जो जितना ही मीठा बोलता है, वह भीतर से उतना ही कपटी होता है। यदि अपवाद स्वरूप कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो कथनी को करनी का रूप देता तो कबीर की दृष्टि में उसकी वाणी तो अमृततुल्य है - कथनी मीठी खाँड़ सी, करनी विषय की लोय।/कथनी कथि करनी करै, विष से अमृत होय॥४१बड़े आश्चर्य की बात है कि कबीर को चारों ओर कोई ऐसा व्यक्ति नजर नहीं आता, जो विश्वास के योग्य हो, जिससे अपने दिल की बात कही जाये। जिससे भी वे अपने हृदय की बात करते हैं, वही उनकी बात को हथियार के रूप में उन्हीं के विरुद्ध इस्तेमाल करता है। ऐसे अविश्वसनीय वातावरण में व्यक्ति जिए भी तो कैसे जिए?
कबीर भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि इस संसार में सच्चा प्रेमी मिलना बड़ा ही कठिन है। वे अपने जैसे किसी भगवत्प्रेमी की खोज में निकले, परन्तु कोई सच्चा प्रेमी मिला नहीं। सौभाग्यवश किसी भगवत्प्रेमी को सच्चा प्रेमी मिल जाये तो सांसारिक विषय-वासनारूपी विष भी अमृत में परिणत हो जाता है, अर्थात् अधोगामी प्रवृत्तियाँ ऊर्ध्वगामी होकर मन का परिष्कार कर देती है और प्रभु का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है - प्रेमी ढूँढत मैं फिरौं, प्रेमी मिलै न कोइ।/प्रेमी कौ प्रेमी मिलै, सब विषय अमृत होइ॥४२लेकिन कबीर को ऐसा सच्चा प्रेमी कोई मिला नहीं जो उनका भी दुःख-दर्द सुनता और उनकी बातें करता। उन्होंने देखा कि संसार में सभी अपनी ही राम कहानी कहे जा रहे हैं। संसार की मुक्ति के लिए चिंतित कबीर की किसी को परवाह ही नहीं है। उन्होंने भी निश्चय कर लिया कि अपनी बातें वे स्वयं ही कहेंगे, जिसको जो करना है, करे। होगा वही, जो सृष्टिकर्ता प्रभु चाहेंगे - अपनी अपनी सब कहैं, हमारी कहै न कोय।/हम अपनी आपहि कहैं, करता करै सो होय॥४३
उन्होंने अपनी बात बड़े आत्मविश्वासपूर्वक कहनी शुरू कर दी - कि वे धर्म-अधर्म, योगी-भोगी, सेवक-स्वामी, बंधन-मुक्ति, राग-विराग, स्वर्ग-नरक, कर्म-अकर्म, वाद-प्रतिवाद इन सबसे ऊपर और परे हैं। यह बात विरले लोग ही समझे हैं, जो उस भावभूमि तक पहुचे हों। कबीर न कोई मत-वाद प्रतिपादित करना चाहते हैं, और न किसी मत-वाद का खण्डन करते हैं - ना मैं धर्मी नाही अधर्मी, ना मैं जती न कामी हो।/ना मैं कहता ना मैं सुनता, ना मैं सेवक-स्वामी हो/.../सब ही कर्म हमारा कीया, हम कर्मन तें न्यारे हो/या मत को कोई बिरलै, बूझे सोई अटर हो बैठे हो/मत कबीर काहू को थापै, मत काहू को मेटे हो।४४अंत में वे अपने बारे में कुछ इस तरह घोषणा करते हैं कि लगता है वे सचमुच सबसे विलक्षण और विलग हैं। अपने को सुर-नर-मुनि से भी श्रेष्ठ बताने का साहस कबीर ही कर सकते हैं। पंच भौतिक और त्रिगुणात्मक शरीररूपी चादर सभी ने ओढ़ी और मैली कर दी पर कबीर ने सलीके से ओढ़कर जस की तस रख दी - झीनी झीनी बीनी चदरिया।/काहे कै ताना काहै कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।/इंगला-पिंगला ताना भरनी, सुसमन तार से बीनी चदरिया।/आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्व गुन तीनी चदरिया॥/साँई को सियत मास दस लागै, ठोक ठोक के बीनी चदरिया।/सो चादर सुर-नर-मुनि ओढ़िन, ओढ़ि के मैनी कीनी चदरिया।/दास कबीर जतन से ओढ़िन, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।४५आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इन पंक्तियों के संबंध में लिखते हैं - सारी बात कुछ इस लहजे में कही गयी है कि वह आक्रमणमूलक हो गयी है। सुर-नर-मुनि को उँगली दिखाकर कहना और उनकी तुलना में अपने आपको बैठा देना और उनसे बड़ा बताना निश्चय ही एक ऐसा तीव्र कटाक्ष है जो लक्ष्यभूत श्रोता को चिढ़ाये बिना नहीं रह सकता। पर लक्ष्य करने योग्य है कहने वाले की लापरवाही। वह इतनी बड़ी चिढ़ा देने वाली बात कह गया है लेकिन कटुता के साथ नहीं और प्रत्याक्रमण की चिन्ता के साथ तो बिल्कुल नहीं। ऐसे थे कबीर। सिर से पैर तक मस्त-मौला; स्वभाव से फक्कड, आदत से अक्खड़, भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचण्ड, दिल के साफ, दिमाग के दुरुस्त; भीतर से कोमल, बाहर से कठोर; जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय। वे जो कुछ कहते थे, अनुभव के आधार पर कहते थे, इसीलिए उनकी उक्तियाँ बेधने वाली और व्यंग्य चोट करने वाले होते थे।४६
महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि कबीर जन्मना हिंदू थे या मुसलमान? या दोनों समुदायों ने उन्हें अस्वीकार कर दिया था, जिसके प्रतिक्रियास्वरूप उन्होंने भी उन दोनों समुदायों को नकारकर अपनी भड़ाँस निकाली थी। महत्त्वपूर्ण यह है कि कबीर ने क्या कहा और क्या किया। कबीर की वाणियों से स्पष्ट है कि उन्होंने राम-रहीम को एक ही माना और अपनी बात को अनेक प्रमाणों से पुष्ट किया। हिंदू-मुस्लिम दोनों धर्मों के मिथ्या बाह्याचारों का खुलकर विरोध किया, जिसके आधार पर माना जा सकता है कि वे प्रकारान्तर से दोनों समुदायों की धार्मिक कट्टरता एवं विद्वेष को दूर करके उनमें एकता स्थापित करना चाहते थे परन्तु हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार कबीर को हिंदू-मुस्लिम एकता का पैगम्बर मानना सही नहीं है। उन्होंने - दोनों धर्मों की ऊँची संस्कृति या दोनों धर्मों के उच्चतर भावों में सामंजस्य स्थापित करने की कहीं भी कोशिश नहीं की और सिर्फ यही नहीं, बल्कि उन सभी धर्मगत विशेषताओं की खिल्ली ही उड़ायी है जिसे मजहबी नेता बहुत श्रेष्ठ धर्माचार कहकर व्याख्या करते हैं।४७
कबीर अपने समय के सबसे विवादास्पद व्यक्ति थे क्योंकि वे न केवल लीक से हटकर चल रहे थे, वरन् लीक पर चलने वालों को गरिया भी रहे थे। किसी बने-बनाये अथवा बँधे-बँधाये रास्ते पर चलना आसान है। सुविधाभोगी यही करते हैं । लीक से हटकर चलने में सामाजिक तिरस्कार, बहिष्कार एवं एकाकीपन का दंश झेलना पड़ता है। कबीर का धर्म जैसे संवेदनशील मुद्दे पर दो शक्तिशाली कौमों को चुनौती देना, आ बैल मुझे मार'' की तरह ही था। ऐसा कोई मतवाला ही कर सकता था जो केवल अपने को सही बताकर, बाकी सबको खारिज कर रहा हो। वे ऐसे ही मतलवाले थे। प्रेम-भक्ति की मदिरा पीकर मतवाले हो रहे कबीर जैसे सारी दुनिया से दो-दो हाथ करने हर समय तैयार बैठे रहते थे। उन्हें अपने साँई पर इतना भरोसा था कि दुनिया का डर गायब हो गया था। ताल ठोंककर जोगी, जती, पंडित, काजी, मौलवी को चिढ़ा-चिढ़ाकर धर्म के अखाड़े पर ललकारना, सामान्य मनुष्य के बूते का काम नहीं था। कभी-कभी उनकी निर्मता अपने चरम पर पहुँच जाती थी। एक अकेली जान का खुल्लमखुल्ला दो शक्तिशाली कौमों से वैर मोल लेना अत्यन्त जोखिम भरा काम था। इसीलिए कबीरपंथी यदि उन्हें अवतारी पुरुष मानते हैं तो कोई गलती नहीं करते। वे सचमुच में अलौकिक थे। उनकी इसी अलौकिकता को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-कबीरदास का रास्ता उल्टा था...वे मुसलमान होकर भी असल में मुसलमान नहीं थे; हिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं थे; वे साधु होकर भी साधु (अगृहस्थ) नहीं थे, वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे; योगी होकर भी योगी नहीं थे। वे कुछ भगवान की ओर से सबसे न्यारे बनाकर भेजे गये थे। वे भगवान की नृसिंहावतार की मानव-प्रतिमूर्ति थे। नृसिंह की भाँति वे असंभव समझी जाने वाली परिस्थितियों के मिलन-बिन्दु पर अवतीर्ण हुए थे।४८
मानवतावादी कबीर हिंदू धर्म की जातीय विषमता, सामाजिक समानता एवं अस्पृश्यता से बुरी तरह तिलमिला उठे थे, जिसका दंश उन्होंने स्वयं भी झेला था। ऐसा धर्म जो पशु-पक्षियों तक को देवतुल्य समझता हो, गाय को माता तथा साँप को देवता मानता हो, शेर, उल्लू, गरुड़, चूहे, बैल वगैरह को देवी-देवताओं के वाहन के रूप में आदर देता हो और दूसरी ओर शूद्र को न केवल अस्पृश्य वरन् उसके दर्शनों को भी पाप समझता हो, उसे कबीर कैसे स्वीकार कर सकते थे। पशु-पक्षियों का देवतुल्य सम्मान एवं समाज सेवकों का घोर अपमान करने वाला तथा पत्थर की मूर्ति को देवता और मानव को पत्थरवत् समझने वाला धर्म भी उन्हें मान्य न था। प्राणिमात्रा को ईश्वर की संतान समझने वाले कबीर जीव-हत्या को ब्रह्म हत्या के सदृश मानते थे। हत्यारे यदि प्रभु के द्वारपाल हों तो वहाँ साधारण व्यक्ति कैसे प्रवेश पा सकता है। इसलिए उन्होंने अपने निर्गुण पंथ के द्वार हत्यारों, ढोंगियों, दलालों एवं पापियों के लिए बंद कर दिए तथा प्रेम के पुजारियों के लिए खोल दिए।
सत्य के द्रष्टा कबीर असत्य का मायाजाल देख सकते थे, ज्ञानदीप से ज्योतित कबीर अज्ञान का अंधकार भगा सकते थे, अहिंसा के पुजारी कबीर हिंसा का रास्ता रोक सकते थे, मानवतावादी कबीर ही समानता के अधिकार की लड़ाई लड़ सकते थे। अदम्य साहसी कबीर कई मोर्चों पर एक साथ लड़ाई-लड़ रहे थे। इसीलिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें अपने युग का सबसे बड़ा क्रांतिकारी कहा है-कबीर का रास्ता बहुत साफ था।...वे समस्त बाह्याचारों के जंजालों और संस्कारों को विध्वंस करने वाले क्रांतिकारी थे। समझौता उनका रास्ता नहीं था। इतने बड़े जंजाल को नहीं कर सकने की क्षमता मामूली आदमी में नहीं हो सकती। कमजोर स्नायु का आदमी इतना भार बर्दाश्त नहीं कर सकता। जिसे अपने मिशन पर अखण्ड विश्वास नहीं है, वह इतना असम साहसी हो ही नहीं सकता। कबीर ने समस्त बाह्याचारों को स्वीकार करके मनुष्य को साधारण मनुष्य के आसन पर और भगवान को निरपख भगवान के आसन पर बैठाने की साधना की थी, उसका परिणाम क्या हुआ और भविष्य में वह उपयोगी होगा या नहीं, यह प्रश्न उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। सफलता महिमा की एकमात्रा कसौटी नहीं है। कबीरदास ने इस महती साधना का बीज बोया था४९
कबीरदास ने जिस साधना का बीज बोया था, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। लगभग छः सौ वर्ष पूर्व क्रांतिकारी कबीर ने जिस लड़ाई की शुरूआत की थी, वह अभी खत्म नहीं हुई है। इनके विरोध के बावजूद न मंदिरों का बनना रुका, न मस्जिदों का; न मंदिर-मस्जिद के मुद्दे खत्म हुए न हिंदू-मुस्लिम एकता कायम हुई; न र्मूर्तिपूजा रुकी, न नमाज पढ़ना; न जात-पाँत के झगड़े खत्म हुए न जीव हत्या बंद हुई। लोग दशरथ सुत राम को भजते रहे, लेकिन उसे अपना न सके; पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक का जाप होता रहा, कथनी-करनी का भेद बना रहा; लेकिन इस सबके बावजूद बहुत कुछ हुआ है। आज वे नहीं है लेकिन उनका दर्शन जिंदा है, उनका संघर्ष जिंदा है, उनकी लड़ाई अलग-अलग मोर्चों पर लड़ी जा रही है। कबीर का विश्वमानवता का सपना जब तक साकार नहीं होगा, तब तक लड़ाई जारी रहेगी। कबीर के इसी अद्वितीय व्यक्तित्व के संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - हिन्दी साहित्य के हजारों वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई व्यक्तित्व उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता हैः तुलसीदास। मस्ती, फक्काड़ाना स्वभाव और सब-कुछ को झाड़ फटकार कर चल देने वाले तेज ने कबीर को अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सँभाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को कवि कहने में संतोष पाता है। ऐसे आकर्षक वक्ता को कवि न कहा जाय तो क्या कहा जाय?५०
सचमुच हिंदी साहित्य के इतिहास में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक बुराइयों पर चोट करके सांस्कृतिक पुनर्जागरण का पहला उद्घोष मध्यकाल में कबीर ने किया तो आधुनिक काल में एक दूसरे रूप में राजा राममोहन राय वगैरह ने। कबीर सदियों से चली आ रही जड़ परम्पराओं का ही विध्वंस नहीं कर रहे थे, वरन् अपने प्रगतिशील चिंतन के द्वारा एक स्वस्थ एवं समतावादी समाज व्यवस्था का विकल्प भी प्रस्तुत कर रहे थे। वे जंक लगी धार्मिक-सांस्कृतिक व्यवस्था को एक तार्किक परिणति देना चाहते थे। कबीर केवल एक व्यक्ति के रूप में नहीं, वरन् एक पुनरुत्थानवादी संस्था के रूप में सामाजिक पुनरुद्धार के कार्य में संलग्न थे। वे झूठ से पर्दा उठा रहे थे और अज्ञानरूपी अंधकार के घने जंगल को ज्ञान की तलवार से चीर रहे थे। वे लोकजीवन के ऐसे जननायक और जनकवि थे जो कूपमंडूक जनता की मूक वाणी को आत्मसाक्षात्कार एवं आत्मानुभाव की भाषा में बुलंद कर रहे थे।कई विद्वानों की राय में ब्राह्मणवाद के घोर विरोधी कबीर का भक्ति आन्दोलन एक तरह से दलित-मुक्ति का भी आन्दोलन था, जिसके केन्द्र में वे स्वयं थे। उन्होंने भी पहले-पहल इस देश के उपेक्षितों-दलितों को ईश्वर दिया, जिनके लिए ईश्वर के दरवाजे बंद थे। जिस समाज में दलितों के लिए मंदिरों में प्रवेश वर्जित था, उन्होंने उन मंदिरों और पोथी-पंडितों को ही नकार दिया तथा सदगुरु की कृपा से निर्गुण ईश्वर की भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। कबीर अपने युग के निविड़ अज्ञान रूपी अंधकार का विषपान करके, भक्तों को ज्ञानरूपी प्याले में प्रभु की प्रेम-भक्ति का अमृतपान कराने वाले भारत के सुकरात थे।५१
कबीर की इस प्रासंगिकता का मुख्य कारण उनका मानवतावादी दृष्टिकोण एवं प्रगतिशील चिंतन है। हिंदू एवं मुस्लिम समाज में उनकी स्वीकार्यता के कुछ अन्य कारण भी हैं। तथाकथित मुसलमान होने के अलावा वे निर्गुण एकेश्वरवादी हैं, इसलिए मुस्लिम समाज में स्वीकार्य हैं, हालाँकि कबीर का एकेश्वरवाद मुसलमानी धर्म के एकेश्वरवाद से भिन्न है। वे अद्वैतवाद का समर्थन करते हैं लेकिन पौराणिक सगुणभाव भी उसमें परिलक्षित होता है, इसलिए हिंदू समाज में भी स्वीकार्य हैं। वे किसी भी धर्म-सम्प्रदाय को स्वीकार न करके सम्प्रदायों से ऊपर उठकर मानव मात्रा के उद्धार प्राणिमात्र के प्रति करुणा, अहिंसा तथा प्रेम की बात करते हैं, इसलिए उनका किसी धर्म से विरोध भी नहीं है। वे भक्त हैं, इसलिए सभी धर्म-सम्प्रदायों के भक्तों में आदरणीय हैं। वे जीवन में तथा भक्ति मार्ग के अनुसरण में गुरु को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं तथा विविध रूपों में गुरु महिमा का गुणगान करते हैं, इसलिए सभी धर्म-सम्प्रदायों के धर्मगुरुओं के लिए पूज्य, आदर्शस्वरूप एवं सर्वकालिक प्रासंगिक हैं। वे मानवता के पुजारी हैं तथा समाज के दबे-कुचले लोगों को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए निरन्तर लड़ाई लड़ते रहे हैं, इसलिए आम जनता के चहेते एवं नायक हैं। वे बाह्याचारों पर आक्रमण करते हैं, लेकिन मन की शुद्धता एवं आचरण की पवित्राता पर बल देते हैं, इसलिए उनसे किसी तरह का तार्किक विरोध नहीं हो सकता। वे वैचारिक एवं सैद्धान्तिक आधार पर बाह्याचारों का विरोध करते हैं, इसलिए उनके विरोध में किसी के प्रति व्यक्तिगत कटुता या राग-द्वेष नहीं हैं। उन जैसा अक्खड़ और फक्खड़ आदमी जो अनहदनाद के ब्रह्मानंद में लीन रहता हो, कलुषित हृदय का हो ही नहीं सकता। हृदय की इस पवित्राता के कारण उनकी डाँट-फटकार खानेवाला भी उन्हें गले लगाने के लिए आतुर रहता था। उनके इसी गुण को रेखांकित करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं-कबीरदास के आक्रमण में भी एक रस है; एक जीवन है क्योंकि वे आक्रान्त के वैभव से परिचित नहीं थे और अपने को समस्त आक्रमणयोग्य दुर्गुणों से मुक्त समझते थे। इस तरह जहाँ उन्हें लापरवाही का कवच लिया था, वहाँ अखण्ड आत्मविश्वास का कृपाण भी।५२कबीर का यह आत्मविश्वास उन्हें दिव्यता एवं भव्यता प्रदान करता है जो उन्हें न केवल एक अलग पहचान देता है, वरन् युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा नायक की भूमिका में आसीन कर देता है। इस युगचेता युगपुरुष की निर्लिप्तता एवं वैचारिक प्रखरता में नवयुग निर्माण की वह दूरदर्शिता थी, जो युग-युगों तक आत्मज्ञान के आलोक से भावी पीढ़ी का पंथ आलोकित करती रहेगी तथा अपनी प्रासंगिकता निरन्तर बनाये रखेगी।
कबीर आचरण की शुद्धता को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वे न केवल पशु-बलि का विरोध करते हैं वरन् मांस-मदिरा-जुआ, वेश्यागमन, चोरी आदि बुराइयों को भी व्यक्ति के सर्वनाश का कारण मानते हैं, अतः उनसे दूर रहने की सलाह देते हैं - मांस भखै और मद पिये, धन वेश्या सों खाय।/जुआ खेलि चोरी करै, अंत समूला जाय।२९जो व्यक्ति इस तरह के दुर्व्यसनों का शिकार होता है वह कामी, क्रोधी और लालची प्रवृत्ति का होता है। ऐसे लोगों से ईश्वरी-भक्ति नहीं हो सकती। प्रभु की भक्ति कमजोर चित्तवृत्ति वाले लोग नहीं कर सकते, उसे कोई सूरमा ही कर सकता है जो जाति, वर्ण और कुल के मिथ्याभिमानों से ऊपर उठा हुआ हो - कामी क्रोधी लालची, इन ते भक्ति न होय।/भक्ति करे कोई सूरमा, जाति बरन कुल खोय।३०प्रत्येक मनुष्य की आत्मिक एवं शारीरिक संरचना में किसी तरह का कोई अंतर नहीं है। सभी मनुष्यों का शरीर पंच भौतिक तत्त्वों से विनिर्मित है और सबके भीतर एक ही आत्मा का अधिवास है तो फिर ब्राह्मण-शूद्र वगैरह का ऊँच-नीच भेद किसलिए। जैसे - एक बूँद एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा।/एक जोति थैं सब उतपनौं, कौन ब्राँह्मन कौन सूदा।३१
जो लोग कबीर से उनकी जातीय पहचान के बारे में सवाल करते हैं कि वे कहाँ से आये हैं, उनकी जाति, नाम, पता, ठिकाना वगैरह क्या है तो कबीर उनको उत्तर देते हैं कि आत्मा ही उनकी जाति है, प्राण उनका नाम है, आराध्य उनका अलख निरंजन है तथा गाँव (निवास स्थान) उनका आकाश है - कौन तुम्हारी जाति है, कौन तुम्हारा नाम।/कौन तुम्हारा इष्ट है, कौन तुम्हारा गाँव।/जाति हमारी आतमा, प्रान हमारा नाम।/अलख हमारा इष्ट है, गगन हमारा ग्राम।३२
जिसका प्रभु राम पर अटूट विश्वास है, कबीर की दृष्टि में उसे अपने विरोधियों या शत्रुओं से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आप सच्चाई के रास्ते पर चल रहे हैं तो फिर डरने की क्या बात है। शत्रुओं से बचने के लिए किसी संगी-साथी की आवश्यकता भी नहीं है। सबसे बड़ा रखवाला तो हमारे साथ ही है। कबीर का आत्मविश्वास इन शब्दों में देखते ही बनता है - जाको राखै साँइया, मारि न सकिहै कोय।/बाल न बाँका करि सकै, जो जग बैरी होय॥३३
लेकिन हमारा भी यह कर्तव्य है कि उस रखवाले को हम सुख के दिनों में भूल न जायँ। ऐसा न हो कि उसकी याद केवल कष्ट के समय ही आये, बाकी दिनों में नहीं। जो उसको सदा याद रखेगा, तो फिर उसे कष्ट क्यों होने लगा? लेकिन जो प्रभु-स्मरण नहीं करते, वे जरूर परेशानी में पड़ जाते हैं - दुख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय।/जो सुख में सुमिरन करै, तो दुख काहे को होय।३४
कबीर मानते हैं कि यह कलियुग है। इसमें उल्टा-पुल्टा भी हो जाता है। कबीर अपने समय की सच्चाई से भली भाँति परिचित है। वे जानते हैं कि दिन-प्रतिदिन नैतिक मूल्यों का Ðस हो रहा है, सज्जनों की संख्या में निरन्तर कमी आ रही है जबकि दुर्जनों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हो रही है। कबीर बड़े कठिन समय के दौर से गुजर रहे थे। ऐसा दौर हर युग में आता है। त्रोता में दुष्टों के नाश और सज्जनों के उद्धार के लिए विष्णु अवतारी राम को जन्म लेना पड़ा था तो द्वापर में कृष्ण को। उनके समय की परिस्थितियाँ भी बहुत भिन्न नहीं थी। साधु सज्जनों की अपेक्षा दुष्टों का प्रभुत्व अधिक था, जिसकी झलक उनके इन शब्दों में देखने को मिलती है - ÷कबिरा कलियुग कठिन है, साधु न मानैं कोय।/कामी क्रोधी मसखरा, तिनको आदर होय।'३५
यह कलियुग बहुत बुरा है। तथाकथित संन्यासी भी लोभी-लालची हैं और कुछ पाने की चाह में राजदरबारों में फिरा करते हैं। कबीर को भी सच्चे अर्थों में कोई ऋषि-मुनि नहीं मिला। कबीर अपने युग की इसी सामाजिक दशा का वर्णन इस प्रकार से करते हैं - कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी खटाइ।/राजा दुआरा यों फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाइ॥३६
स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिए सामर्थ्यवान का ही स्तुतिगान करते हैं, प्रभु का नहीं। कबीर के अनुसार वे अज्ञानी यह नहीं जानते कि प्रभु-स्मरण से तो प्रभुता भी दासी हो जाती है - प्रभुता को सब कोउ भजे, प्रभु को भजे न कोय।/कहै कबीर प्रभु को भजै, प्रभुता चेरी होय॥३७कबीर केवल व्यक्तिगत मुक्ति या निजी साधना तक सीमित नहीं थे। वे जनता के कवि थे और जनता के दुःख-दर्द में बराबर के भागीदार भी थे। समाज के दलित-शोषित वर्ग के प्रति उनकी विशेष सहानुभूति थी। जहाँ भक्ति के क्षेत्र में सभी मानव प्राणियों के प्रति समभाव रखते हैं, वहीं सामाजिक विषमता के लिए जिम्मेदार लोगों को खरी-खोटी सुनाने से भी नहीं चूकते। यह विषमता मुख्य रूप से दो तरह की थी - १. जातीय तथा २. आर्थिक। दीन-दुखियों को गरीबी में भी सम्मान से जीने के लिए प्रेरित किया। निर्धनों की तत्कालीन सामाजिक स्थिति का वर्णन उन्होंने इस प्रकार से किया है - निर्धन आदर कोई न देई। लाख जतन करै ओहु चित न धरेई॥/जौ निर्धन सरधन कै जाई। आगै बैठा पीठ फिराई॥३८कबीर दीन-हीनों को कभी संतोष का पाठ पढ़ाते हैं तो कभी गरीबी को महिमामंडित कर, उसे प्रभु सान्निध्य का प्रवेश-द्वार बताते हैं। उनकी दृष्टि में जहाँ धन-वैभव है, वहाँ प्रभु का वास नहीं है और जहाँ अनाभाव है वहाँ प्रभु का वास है। जिसके साथ प्रभु हैं वह निश्चित रूप से धनपतियों से बड़ा धनी है। आधुनिक युग में गाँधी ने भी दरिद्रनारायण की बात कहकर संभवतः कबीर की ही बात दोहराई थी। उनकी दृष्टि में गरीबी अभिशाप नहीं वरन् वरदान है क्योंकि वहाँ ईश्वर का निवास है - दीन गरीबी बंदगी, साधन सो आधीन।/ताके संग हरियौ रहै, ज्यों जल संगहि मीन।/दीन लखै मुख सबन को, दीनहिं लखै न कोय।/भली बिचारी दीनता, नरहू देवता होय॥३९
गरीब को अमीर से श्रेष्ठ सिद्ध कर, वे गरीबों को स्वाभिमान से जीवनयापन करने के लिए हमेशा उत्प्रेरित करते हैं कि गरीब होना कोई अपराध नहीं है। अतः किसी तरह की हीनभावना से ग्रस्ति होने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि हम जिह्वा के स्वाद की तृप्ति के लिए दूसरों के आगे हाथ न फैलायें, वरन् रूखा-सूखा खाकर भी संतोषपूर्वक शान से जियें - रूखा सूखा खाइ के, ठंडा पानी पीव।/देखि बिरानी चोंपडी, मत ललचावे जीव।४०
जो लोग साधन सम्पन्न हैं, शासन-प्रशासन में सत्तासीन हैं, उनसे गरीबों के लिए कुछ करने की आशा करना भी व्यर्थ है। कबीर अपने जीवनानुभवों से भलीभाँति जानते थे कि जो जितना ही मीठा बोलता है, वह भीतर से उतना ही कपटी होता है। यदि अपवाद स्वरूप कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो कथनी को करनी का रूप देता तो कबीर की दृष्टि में उसकी वाणी तो अमृततुल्य है - कथनी मीठी खाँड़ सी, करनी विषय की लोय।/कथनी कथि करनी करै, विष से अमृत होय॥४१बड़े आश्चर्य की बात है कि कबीर को चारों ओर कोई ऐसा व्यक्ति नजर नहीं आता, जो विश्वास के योग्य हो, जिससे अपने दिल की बात कही जाये। जिससे भी वे अपने हृदय की बात करते हैं, वही उनकी बात को हथियार के रूप में उन्हीं के विरुद्ध इस्तेमाल करता है। ऐसे अविश्वसनीय वातावरण में व्यक्ति जिए भी तो कैसे जिए?
कबीर भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि इस संसार में सच्चा प्रेमी मिलना बड़ा ही कठिन है। वे अपने जैसे किसी भगवत्प्रेमी की खोज में निकले, परन्तु कोई सच्चा प्रेमी मिला नहीं। सौभाग्यवश किसी भगवत्प्रेमी को सच्चा प्रेमी मिल जाये तो सांसारिक विषय-वासनारूपी विष भी अमृत में परिणत हो जाता है, अर्थात् अधोगामी प्रवृत्तियाँ ऊर्ध्वगामी होकर मन का परिष्कार कर देती है और प्रभु का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है - प्रेमी ढूँढत मैं फिरौं, प्रेमी मिलै न कोइ।/प्रेमी कौ प्रेमी मिलै, सब विषय अमृत होइ॥४२लेकिन कबीर को ऐसा सच्चा प्रेमी कोई मिला नहीं जो उनका भी दुःख-दर्द सुनता और उनकी बातें करता। उन्होंने देखा कि संसार में सभी अपनी ही राम कहानी कहे जा रहे हैं। संसार की मुक्ति के लिए चिंतित कबीर की किसी को परवाह ही नहीं है। उन्होंने भी निश्चय कर लिया कि अपनी बातें वे स्वयं ही कहेंगे, जिसको जो करना है, करे। होगा वही, जो सृष्टिकर्ता प्रभु चाहेंगे - अपनी अपनी सब कहैं, हमारी कहै न कोय।/हम अपनी आपहि कहैं, करता करै सो होय॥४३
उन्होंने अपनी बात बड़े आत्मविश्वासपूर्वक कहनी शुरू कर दी - कि वे धर्म-अधर्म, योगी-भोगी, सेवक-स्वामी, बंधन-मुक्ति, राग-विराग, स्वर्ग-नरक, कर्म-अकर्म, वाद-प्रतिवाद इन सबसे ऊपर और परे हैं। यह बात विरले लोग ही समझे हैं, जो उस भावभूमि तक पहुचे हों। कबीर न कोई मत-वाद प्रतिपादित करना चाहते हैं, और न किसी मत-वाद का खण्डन करते हैं - ना मैं धर्मी नाही अधर्मी, ना मैं जती न कामी हो।/ना मैं कहता ना मैं सुनता, ना मैं सेवक-स्वामी हो/.../सब ही कर्म हमारा कीया, हम कर्मन तें न्यारे हो/या मत को कोई बिरलै, बूझे सोई अटर हो बैठे हो/मत कबीर काहू को थापै, मत काहू को मेटे हो।४४अंत में वे अपने बारे में कुछ इस तरह घोषणा करते हैं कि लगता है वे सचमुच सबसे विलक्षण और विलग हैं। अपने को सुर-नर-मुनि से भी श्रेष्ठ बताने का साहस कबीर ही कर सकते हैं। पंच भौतिक और त्रिगुणात्मक शरीररूपी चादर सभी ने ओढ़ी और मैली कर दी पर कबीर ने सलीके से ओढ़कर जस की तस रख दी - झीनी झीनी बीनी चदरिया।/काहे कै ताना काहै कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।/इंगला-पिंगला ताना भरनी, सुसमन तार से बीनी चदरिया।/आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्व गुन तीनी चदरिया॥/साँई को सियत मास दस लागै, ठोक ठोक के बीनी चदरिया।/सो चादर सुर-नर-मुनि ओढ़िन, ओढ़ि के मैनी कीनी चदरिया।/दास कबीर जतन से ओढ़िन, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।४५आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इन पंक्तियों के संबंध में लिखते हैं - सारी बात कुछ इस लहजे में कही गयी है कि वह आक्रमणमूलक हो गयी है। सुर-नर-मुनि को उँगली दिखाकर कहना और उनकी तुलना में अपने आपको बैठा देना और उनसे बड़ा बताना निश्चय ही एक ऐसा तीव्र कटाक्ष है जो लक्ष्यभूत श्रोता को चिढ़ाये बिना नहीं रह सकता। पर लक्ष्य करने योग्य है कहने वाले की लापरवाही। वह इतनी बड़ी चिढ़ा देने वाली बात कह गया है लेकिन कटुता के साथ नहीं और प्रत्याक्रमण की चिन्ता के साथ तो बिल्कुल नहीं। ऐसे थे कबीर। सिर से पैर तक मस्त-मौला; स्वभाव से फक्कड, आदत से अक्खड़, भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचण्ड, दिल के साफ, दिमाग के दुरुस्त; भीतर से कोमल, बाहर से कठोर; जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय। वे जो कुछ कहते थे, अनुभव के आधार पर कहते थे, इसीलिए उनकी उक्तियाँ बेधने वाली और व्यंग्य चोट करने वाले होते थे।४६
महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि कबीर जन्मना हिंदू थे या मुसलमान? या दोनों समुदायों ने उन्हें अस्वीकार कर दिया था, जिसके प्रतिक्रियास्वरूप उन्होंने भी उन दोनों समुदायों को नकारकर अपनी भड़ाँस निकाली थी। महत्त्वपूर्ण यह है कि कबीर ने क्या कहा और क्या किया। कबीर की वाणियों से स्पष्ट है कि उन्होंने राम-रहीम को एक ही माना और अपनी बात को अनेक प्रमाणों से पुष्ट किया। हिंदू-मुस्लिम दोनों धर्मों के मिथ्या बाह्याचारों का खुलकर विरोध किया, जिसके आधार पर माना जा सकता है कि वे प्रकारान्तर से दोनों समुदायों की धार्मिक कट्टरता एवं विद्वेष को दूर करके उनमें एकता स्थापित करना चाहते थे परन्तु हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार कबीर को हिंदू-मुस्लिम एकता का पैगम्बर मानना सही नहीं है। उन्होंने - दोनों धर्मों की ऊँची संस्कृति या दोनों धर्मों के उच्चतर भावों में सामंजस्य स्थापित करने की कहीं भी कोशिश नहीं की और सिर्फ यही नहीं, बल्कि उन सभी धर्मगत विशेषताओं की खिल्ली ही उड़ायी है जिसे मजहबी नेता बहुत श्रेष्ठ धर्माचार कहकर व्याख्या करते हैं।४७
कबीर अपने समय के सबसे विवादास्पद व्यक्ति थे क्योंकि वे न केवल लीक से हटकर चल रहे थे, वरन् लीक पर चलने वालों को गरिया भी रहे थे। किसी बने-बनाये अथवा बँधे-बँधाये रास्ते पर चलना आसान है। सुविधाभोगी यही करते हैं । लीक से हटकर चलने में सामाजिक तिरस्कार, बहिष्कार एवं एकाकीपन का दंश झेलना पड़ता है। कबीर का धर्म जैसे संवेदनशील मुद्दे पर दो शक्तिशाली कौमों को चुनौती देना, आ बैल मुझे मार'' की तरह ही था। ऐसा कोई मतवाला ही कर सकता था जो केवल अपने को सही बताकर, बाकी सबको खारिज कर रहा हो। वे ऐसे ही मतलवाले थे। प्रेम-भक्ति की मदिरा पीकर मतवाले हो रहे कबीर जैसे सारी दुनिया से दो-दो हाथ करने हर समय तैयार बैठे रहते थे। उन्हें अपने साँई पर इतना भरोसा था कि दुनिया का डर गायब हो गया था। ताल ठोंककर जोगी, जती, पंडित, काजी, मौलवी को चिढ़ा-चिढ़ाकर धर्म के अखाड़े पर ललकारना, सामान्य मनुष्य के बूते का काम नहीं था। कभी-कभी उनकी निर्मता अपने चरम पर पहुँच जाती थी। एक अकेली जान का खुल्लमखुल्ला दो शक्तिशाली कौमों से वैर मोल लेना अत्यन्त जोखिम भरा काम था। इसीलिए कबीरपंथी यदि उन्हें अवतारी पुरुष मानते हैं तो कोई गलती नहीं करते। वे सचमुच में अलौकिक थे। उनकी इसी अलौकिकता को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-कबीरदास का रास्ता उल्टा था...वे मुसलमान होकर भी असल में मुसलमान नहीं थे; हिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं थे; वे साधु होकर भी साधु (अगृहस्थ) नहीं थे, वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे; योगी होकर भी योगी नहीं थे। वे कुछ भगवान की ओर से सबसे न्यारे बनाकर भेजे गये थे। वे भगवान की नृसिंहावतार की मानव-प्रतिमूर्ति थे। नृसिंह की भाँति वे असंभव समझी जाने वाली परिस्थितियों के मिलन-बिन्दु पर अवतीर्ण हुए थे।४८
मानवतावादी कबीर हिंदू धर्म की जातीय विषमता, सामाजिक समानता एवं अस्पृश्यता से बुरी तरह तिलमिला उठे थे, जिसका दंश उन्होंने स्वयं भी झेला था। ऐसा धर्म जो पशु-पक्षियों तक को देवतुल्य समझता हो, गाय को माता तथा साँप को देवता मानता हो, शेर, उल्लू, गरुड़, चूहे, बैल वगैरह को देवी-देवताओं के वाहन के रूप में आदर देता हो और दूसरी ओर शूद्र को न केवल अस्पृश्य वरन् उसके दर्शनों को भी पाप समझता हो, उसे कबीर कैसे स्वीकार कर सकते थे। पशु-पक्षियों का देवतुल्य सम्मान एवं समाज सेवकों का घोर अपमान करने वाला तथा पत्थर की मूर्ति को देवता और मानव को पत्थरवत् समझने वाला धर्म भी उन्हें मान्य न था। प्राणिमात्रा को ईश्वर की संतान समझने वाले कबीर जीव-हत्या को ब्रह्म हत्या के सदृश मानते थे। हत्यारे यदि प्रभु के द्वारपाल हों तो वहाँ साधारण व्यक्ति कैसे प्रवेश पा सकता है। इसलिए उन्होंने अपने निर्गुण पंथ के द्वार हत्यारों, ढोंगियों, दलालों एवं पापियों के लिए बंद कर दिए तथा प्रेम के पुजारियों के लिए खोल दिए।
सत्य के द्रष्टा कबीर असत्य का मायाजाल देख सकते थे, ज्ञानदीप से ज्योतित कबीर अज्ञान का अंधकार भगा सकते थे, अहिंसा के पुजारी कबीर हिंसा का रास्ता रोक सकते थे, मानवतावादी कबीर ही समानता के अधिकार की लड़ाई लड़ सकते थे। अदम्य साहसी कबीर कई मोर्चों पर एक साथ लड़ाई-लड़ रहे थे। इसीलिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें अपने युग का सबसे बड़ा क्रांतिकारी कहा है-कबीर का रास्ता बहुत साफ था।...वे समस्त बाह्याचारों के जंजालों और संस्कारों को विध्वंस करने वाले क्रांतिकारी थे। समझौता उनका रास्ता नहीं था। इतने बड़े जंजाल को नहीं कर सकने की क्षमता मामूली आदमी में नहीं हो सकती। कमजोर स्नायु का आदमी इतना भार बर्दाश्त नहीं कर सकता। जिसे अपने मिशन पर अखण्ड विश्वास नहीं है, वह इतना असम साहसी हो ही नहीं सकता। कबीर ने समस्त बाह्याचारों को स्वीकार करके मनुष्य को साधारण मनुष्य के आसन पर और भगवान को निरपख भगवान के आसन पर बैठाने की साधना की थी, उसका परिणाम क्या हुआ और भविष्य में वह उपयोगी होगा या नहीं, यह प्रश्न उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। सफलता महिमा की एकमात्रा कसौटी नहीं है। कबीरदास ने इस महती साधना का बीज बोया था४९
कबीरदास ने जिस साधना का बीज बोया था, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। लगभग छः सौ वर्ष पूर्व क्रांतिकारी कबीर ने जिस लड़ाई की शुरूआत की थी, वह अभी खत्म नहीं हुई है। इनके विरोध के बावजूद न मंदिरों का बनना रुका, न मस्जिदों का; न मंदिर-मस्जिद के मुद्दे खत्म हुए न हिंदू-मुस्लिम एकता कायम हुई; न र्मूर्तिपूजा रुकी, न नमाज पढ़ना; न जात-पाँत के झगड़े खत्म हुए न जीव हत्या बंद हुई। लोग दशरथ सुत राम को भजते रहे, लेकिन उसे अपना न सके; पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक का जाप होता रहा, कथनी-करनी का भेद बना रहा; लेकिन इस सबके बावजूद बहुत कुछ हुआ है। आज वे नहीं है लेकिन उनका दर्शन जिंदा है, उनका संघर्ष जिंदा है, उनकी लड़ाई अलग-अलग मोर्चों पर लड़ी जा रही है। कबीर का विश्वमानवता का सपना जब तक साकार नहीं होगा, तब तक लड़ाई जारी रहेगी। कबीर के इसी अद्वितीय व्यक्तित्व के संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - हिन्दी साहित्य के हजारों वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई व्यक्तित्व उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता हैः तुलसीदास। मस्ती, फक्काड़ाना स्वभाव और सब-कुछ को झाड़ फटकार कर चल देने वाले तेज ने कबीर को अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सँभाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को कवि कहने में संतोष पाता है। ऐसे आकर्षक वक्ता को कवि न कहा जाय तो क्या कहा जाय?५०
सचमुच हिंदी साहित्य के इतिहास में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक बुराइयों पर चोट करके सांस्कृतिक पुनर्जागरण का पहला उद्घोष मध्यकाल में कबीर ने किया तो आधुनिक काल में एक दूसरे रूप में राजा राममोहन राय वगैरह ने। कबीर सदियों से चली आ रही जड़ परम्पराओं का ही विध्वंस नहीं कर रहे थे, वरन् अपने प्रगतिशील चिंतन के द्वारा एक स्वस्थ एवं समतावादी समाज व्यवस्था का विकल्प भी प्रस्तुत कर रहे थे। वे जंक लगी धार्मिक-सांस्कृतिक व्यवस्था को एक तार्किक परिणति देना चाहते थे। कबीर केवल एक व्यक्ति के रूप में नहीं, वरन् एक पुनरुत्थानवादी संस्था के रूप में सामाजिक पुनरुद्धार के कार्य में संलग्न थे। वे झूठ से पर्दा उठा रहे थे और अज्ञानरूपी अंधकार के घने जंगल को ज्ञान की तलवार से चीर रहे थे। वे लोकजीवन के ऐसे जननायक और जनकवि थे जो कूपमंडूक जनता की मूक वाणी को आत्मसाक्षात्कार एवं आत्मानुभाव की भाषा में बुलंद कर रहे थे।कई विद्वानों की राय में ब्राह्मणवाद के घोर विरोधी कबीर का भक्ति आन्दोलन एक तरह से दलित-मुक्ति का भी आन्दोलन था, जिसके केन्द्र में वे स्वयं थे। उन्होंने भी पहले-पहल इस देश के उपेक्षितों-दलितों को ईश्वर दिया, जिनके लिए ईश्वर के दरवाजे बंद थे। जिस समाज में दलितों के लिए मंदिरों में प्रवेश वर्जित था, उन्होंने उन मंदिरों और पोथी-पंडितों को ही नकार दिया तथा सदगुरु की कृपा से निर्गुण ईश्वर की भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। कबीर अपने युग के निविड़ अज्ञान रूपी अंधकार का विषपान करके, भक्तों को ज्ञानरूपी प्याले में प्रभु की प्रेम-भक्ति का अमृतपान कराने वाले भारत के सुकरात थे।५१
कबीर की इस प्रासंगिकता का मुख्य कारण उनका मानवतावादी दृष्टिकोण एवं प्रगतिशील चिंतन है। हिंदू एवं मुस्लिम समाज में उनकी स्वीकार्यता के कुछ अन्य कारण भी हैं। तथाकथित मुसलमान होने के अलावा वे निर्गुण एकेश्वरवादी हैं, इसलिए मुस्लिम समाज में स्वीकार्य हैं, हालाँकि कबीर का एकेश्वरवाद मुसलमानी धर्म के एकेश्वरवाद से भिन्न है। वे अद्वैतवाद का समर्थन करते हैं लेकिन पौराणिक सगुणभाव भी उसमें परिलक्षित होता है, इसलिए हिंदू समाज में भी स्वीकार्य हैं। वे किसी भी धर्म-सम्प्रदाय को स्वीकार न करके सम्प्रदायों से ऊपर उठकर मानव मात्रा के उद्धार प्राणिमात्र के प्रति करुणा, अहिंसा तथा प्रेम की बात करते हैं, इसलिए उनका किसी धर्म से विरोध भी नहीं है। वे भक्त हैं, इसलिए सभी धर्म-सम्प्रदायों के भक्तों में आदरणीय हैं। वे जीवन में तथा भक्ति मार्ग के अनुसरण में गुरु को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं तथा विविध रूपों में गुरु महिमा का गुणगान करते हैं, इसलिए सभी धर्म-सम्प्रदायों के धर्मगुरुओं के लिए पूज्य, आदर्शस्वरूप एवं सर्वकालिक प्रासंगिक हैं। वे मानवता के पुजारी हैं तथा समाज के दबे-कुचले लोगों को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए निरन्तर लड़ाई लड़ते रहे हैं, इसलिए आम जनता के चहेते एवं नायक हैं। वे बाह्याचारों पर आक्रमण करते हैं, लेकिन मन की शुद्धता एवं आचरण की पवित्राता पर बल देते हैं, इसलिए उनसे किसी तरह का तार्किक विरोध नहीं हो सकता। वे वैचारिक एवं सैद्धान्तिक आधार पर बाह्याचारों का विरोध करते हैं, इसलिए उनके विरोध में किसी के प्रति व्यक्तिगत कटुता या राग-द्वेष नहीं हैं। उन जैसा अक्खड़ और फक्खड़ आदमी जो अनहदनाद के ब्रह्मानंद में लीन रहता हो, कलुषित हृदय का हो ही नहीं सकता। हृदय की इस पवित्राता के कारण उनकी डाँट-फटकार खानेवाला भी उन्हें गले लगाने के लिए आतुर रहता था। उनके इसी गुण को रेखांकित करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं-कबीरदास के आक्रमण में भी एक रस है; एक जीवन है क्योंकि वे आक्रान्त के वैभव से परिचित नहीं थे और अपने को समस्त आक्रमणयोग्य दुर्गुणों से मुक्त समझते थे। इस तरह जहाँ उन्हें लापरवाही का कवच लिया था, वहाँ अखण्ड आत्मविश्वास का कृपाण भी।५२कबीर का यह आत्मविश्वास उन्हें दिव्यता एवं भव्यता प्रदान करता है जो उन्हें न केवल एक अलग पहचान देता है, वरन् युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा नायक की भूमिका में आसीन कर देता है। इस युगचेता युगपुरुष की निर्लिप्तता एवं वैचारिक प्रखरता में नवयुग निर्माण की वह दूरदर्शिता थी, जो युग-युगों तक आत्मज्ञान के आलोक से भावी पीढ़ी का पंथ आलोकित करती रहेगी तथा अपनी प्रासंगिकता निरन्तर बनाये रखेगी।
२९. वही, साखी, १४६-५, पृ. ४८५
३०. वही, साखी, ९९-४४, पृ. ४३९
३१. वही, पद-५७, पृ. ५४७
३२. वही, साखी, ९०-२९, २७, पृ. ४२८
३३. वही, साखी, १३५-२२, पृ. ४७६
३४. वही, साखी, ६७-५, पृ. ३९९
३५. वही, साखी, ९६-३, पृ. ४३३
३६. वही, साखी, १७-६, पृ. २८०
३७. वही, साखी, ९४-१३, पृ. ४३२
३८. वही, परिशिष्ट(पद-१३०), पृ. ७२०
३९. वही, साखी, ९५-१२, पृ. ४३३
४०. वही, साखी, १५६-१, पृ. ४९४
४१. वही, साखी, ९७-३, पृ. ४३५
४२. वही, साखी, ४३-१२, पृ. ३२६
४३. वही, साखी, १२१-१३, पृ. ४६०
४४. वही, पृ. ७८१-७८२
४५. शब्दावली; कबीर साहब की-(१९००), बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, पृ. ७४
४६. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, (१९८७), पृ. १४५-१४६
४७. वही, पृ. १८७४८. वही, पृ. १५७
४९. वही, पृ. १६०
५०. वही, पृ. १८५
५१. (सं.) राजेन्द्र यादव, हंस, (जुलाई, २००१), पृ० १८५
५२. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, (१९८७), पृ. १४४
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