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Saturday, November 8, 2008

कबीर की साखियों और उलटबाँसियों का महत्त्व

डॉ० (श्रीमती) भारती कुमारी
संत कबीर एक क्रांतिकारी कबीर थे। परम्परा से आने वाली समस्त मान्यताओं को किस प्रकार युग के अनुकूल परिवर्तित किया जा सकता है; किस सीमा तक उसका खंडन या मंडन किया जा सकता है, यह अंतर्दृष्टि उनमें थी।
यही कारण है कि शास्त्रीय ज्ञान की उपेक्षा करते हुए उन्होंने जन-मानस को समझा और जातिभेद एवं कर्मकाण्डों का विरोध करते हुए उन्होंने ऐसे विश्व-धर्म की परिकल्पना की, जिसमें विविध वर्गों के लोग बिना किसी बाँधा के समान रूप से एक पंक्ति में बैठ सकें। उन्होंने परिस्थितियों के अभिशाप से धर्म को बचाने के लिए विश्व-धर्म की रूपरेखा प्रस्तुत की।कबीर एक कवि होने के साथ-साथ उच्चकोटि के साधक, सत्य के उपासक और ज्ञानी थे। इसलिए उन्होंने सत्य एवं ज्ञान के निरुपण हेतु अथवा उस परम सत्ता का कल्याणकारी उपदेश देने के लिए काव्य को अपना माध्यम बनाया।
संत कबीर की प्रतिभा सत्य का साक्षात्कार करने में सशक्त और सक्षम थी। यही कारण है कि उन्होंने जो कुछ कहा उसमें गहन अनुभूति एवं सत्यान्वेषण की प्रधानता है। उनका लक्ष्य जिस प्रकार कविता करना नहीं था, उसी भाँति दर्शन की पेचीदगियों को सुझाना भी उन्हें अभीष्ट नहीं था। इतना होने पर भी वह हिन्दी के उत्कृष्ट कवि हैं। उनकी वाणी में साहित्य-नवरसों की अपेक्षा आध्यात्मिक रस की प्रधानता है। भक्ति में प्रेम की विविध भाव-व्यंजनाओं के साथ-साथ उन की ब्रह्म, जीव, जगत, माया आदि से सम्बन्धित विचार-धारा अनुपम है।
उनका समस्त साहित्य एक जीवनमुक्त संत के गूढ़ एवं गंभीर अनुभवों का भण्डार है। कबीर राम रसायन से उन्मत्त होकर सांसारिक जीवन से विरक्त हो स्थितप्रज्ञ या जीवनमुक्त की दशा में आ गये थे। इसी अनुपम प्रेम जगत, भावलोक से, जो उनका वास्तविक जीवन रह गया था, उन्होंने गूढ़ चिन्तन, आस्थाएँ एवं विचार प्रकट किये हैं उनसे हमें उनकी विचारधारा और चिन्तन-परिणामों का ज्ञान होता है।कबीर मूलतः भक्त थे। परम सत्ता पर उनका अविचल अखण्ड विश्वास था। वे अपने उपदेश साधु भाई को देते थे या फिर स्वयं अपने आपको ही संबोधित करके कहते थे।
वाणी द्वारा उन्होंने उस निगूढ़ अनुभवैकगम्य तत्त्व की ओर ध्यान आकृष्ट किया है, उसे ध्वनित किया है ऐसा करने के लिए उन्हें भाषा के द्वारा रूप खड़ा करना पड़ा है और अरूप को रूप के द्वारा अभिव्यक्त करने की साधना करनी पड़ी है। काव्यशास्त्र के आचार्य इसे ही कवि की सबसे बड़ी शक्ति मानते हैं। कबीर के काव्य में कला-पक्ष भले ही शिथिल हो, परन्तु भावपक्ष अत्यन्त उत्कृष्ट है। काव्य में बुद्धि हृदय से अनुशासित रह कर ही सक्रियता पाती है, इसी से उनका दर्शन न बौद्धिक तर्क-प्रणाली है और न सूक्ष्म बिन्दु तक पहुंचने वाली विशेष विचार-पद्धति। वह तो जीवन, जीवन के प्रति उसकी आस्था का दूसरा नाम है। वे वस्तुतः व्यक्तिगत साधना के प्रचारक थे।
वे व्यष्टिवादी थे। सर्वधर्म समन्वय के लिए जिस मजबूत आधार की आवश्यकता होती है वह उनके पदों में सर्वत्र प्राप्त होती है और वह बात है उनकी सटीक वाणी। इसमें भावुकता एवं स्पष्टवादिता पर्याप्त मात्रा में है। यद्यपि उनकी प्रवृत्ति सुधार करना या नेतागिरी की नहीं थी किन्तु वे एक संदेश देने के लिए ही यहाँ आये थे, जिससे समाज में व्याप्त कुरूपता को निकाल सकें। वास्तव में वे तो मानव के दुःख से उत्पीड़ित होकर उसकी सहायता के लिए चले थे। तथापि उन्होंने अपनी उर्वर प्रतिभा द्वारा इस संदेश को इतना मर्मस्पर्शी एवं हृदयग्राही बना दिया कि कबीर की वाणी में सर्वसाधारण को एक वर्णनातीत अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। जनता के दुःख दर्द और उसकी वेदना से फूटकर ही उनके काव्य की सरस्वती प्रवाहित हुई थी। उन्होंने वही कहा जो उनकी आत्मा की कसौटी पर खरा उतरा। सहज सत्य को स्वाभाविक ढंग से वर्णित करने में कबीर का कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है।कबीर साधारण हिन्दू-गृहस्थ पर आक्रमण करते समय लापरवाह होते हैं और इसीलिए लापरवाही भरी एक मुस्कान उनके अधरों पर और स्पष्ट ध्वनि जिह्‌वा पर मानो खेलती रहती है।
इन आक्रमणों से एक सहज भाव एक जीवन्त काव्य मूर्तिमान हो उठा है। यही लापरवाही उनके काव्य का प्राण और वाणी की शान तथा व्यक्तित्व की आन है। सच पूछा जाए तो आज तक हिन्दी में ऐसा शक्तिशाली व्यंग-लेखक और वाणी-विधायक उत्पन्न ही नहीं हुआ। उनकी स्पष्ट प्रहार करने वाली भाषा, बिना कहे भी सब कुछ कह देने वाली शैली अनन्य एवं असाधारण है। उनकी वाणी वह है जहाँ कहने वाला अधरोष्ठों में हँस रहा है और सुनने वाला तिलमिला उठा हो। कबीर की भाषा भीतर तक झकझोर देने की शक्ति रखती है। उनके काव्य की स्वाभाविकता, सरलता एवं भावनात्मकता ने सभी को आकृष्ट किया है और उनकी उत्कृष्ट भावना एवं गूढ़ चिन्तन ने काव्य-क्षेत्र में उन्हें मूर्धन्य स्थान प्रदान किया है। उन्होंने अत्यन्त सहज और सरल भाषा के द्वारा संयोग और वियोग के जो भावुकतापूर्ण चित्रा अंकित किए हैं, सरल एवं अप्रतिम प्रतीकों के द्वारा जीवन की जिन गहनतम अनुभूतियों को चित्रित किया है, प्रभावशाली रूपकों के द्वारा आत्मा और परमात्मा के मधुर मिलन को रूपायित किया है वह निःसंदेह हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।
कबीर काव्य रूढ़ियों के ज्ञाता न होकर भी अनुभवी शब्द-चितेरे थे, काव्य-कला के मर्मज्ञ न होकर भी शब्द-शिल्पी थे और महान्‌ संगीतज्ञ न होकर भी हिन्दी की दिव्य एवं आलौकिक कविता के महान गायक थे।कबीर की साखियों का महत्त्वसाखी की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। श्वेताम्बर उपनिषद् में साखी शब्द का प्रयोग परमसत्ता के अर्थ में हुआ है। यथा - एकोदेवः सर्वभूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्व भूतान्तरात्मा।/कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेताकेवलोनिर्गुणश्च॥साखी का प्रयोग परवर्ती काव्यकारों के अनुसार साक्षी या प्रत्यक्ष दृष्टा या प्रामाणित ज्ञान के लिए हुआ है। साखी शब्द संस्कृत के साक्षी का तद्भव है। साक्षी का अर्थ होता है-गवाह। गवाही के लिए संस्कृत में साक्ष्य शब्द है। साक्षी वह है जिसने स्वयं अपनी आँखों से तथ्य को देखा हो।
साक्ष्य का अर्थ है - आँख से देखे हुए तथ्य का वर्णन। साखी का प्रयोग नीतिकाव्य में बहुत हुआ है। नीति काव्य के रचयिताओं ने नीति की बातें करते समय साखी का ही प्रयोग किया है। यह साखी अपभ्रंश काल से प्रचलित है। संत काव्य में तो इसका बोलबाला है। कबीर ने अपनी इन उक्तियों का शीर्षक साखी इसलिए दिया है, क्योंकि उन्होंने इनमें वर्णित तथ्यों का स्वयं साक्षात्कार किया है। उन्होंने किसी दूसरे से सुनकर अथवा दूसरे ग्रन्थों में उपलब्ध बात नहीं कही है। साखी का भाव केवल यही है कि स्वसंवेद्य स्वानुभूत आध्यात्मिक तथ्यों अथवा ज्ञान का वर्णन जिसमें किया गया हो वही ÷साखी है। कबीर ने अपने साक्षात्‌ अनुभव, यथार्थ ज्ञान और प्रत्यक्ष अनुभूति को साखियों के द्वारा जनता के समक्ष प्रस्तुत किया है। साखी का एक अर्थ महापुरुषों के आप्त-वचनों से भी है। हमारे दैनिक जीवन में आने वाली विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए, नैतिक, आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक उलझनों को सुलझाने के लिए, अज्ञानजनित भ्रम एवं सन्देह के निवारण हेतु तथा अपनी भूलों को सुधारने के लिए जिस आत्म-ज्ञान की जरूरत पड़ती है, वह इन साखियों में विद्यमान है। इस ज्ञान के अभाव में संसार के कष्टों एवं माया के प्रपंच से मुक्ति संभव नहीं है - साक्षी आँखी ज्ञान की, समुझि देखि माहिं।/बिना साखी संसार का, झगरा छूटत नाहिं॥कबीर ने साखी के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि पदों का ज्ञान प्राप्त करने से केवल मन आनंदित होता है, परन्तु साखी के ज्ञान से आनंद के साथ-साथ अनुभव व आत्म-ज्ञान की प्राप्ति होती है। इस आनन्द से मन शुद्ध होकर परमसत्ता का अनुभव करता है। जैसे - पद गायें मन हरषिया, साखी कहाँ आनंद।
कबीर ने परमपिता परमात्मा की प्रेरणा से ही साखियों को अपनी वाणी प्रदान की। जिससे भवसागर के प्राणी ज्ञान प्राप्त करके मुक्ति-लाभ प्राप्त कर सकें-हरिजी यहे विचारिया, साखी कहौ कबीर। भौ सागर में जीव है, जे कोई पकड़े तीर॥संसार के सभी प्राणी माया के बन्धन में आबद्ध हैं। इससे त्राण का एक मात्रा उपाय है प्रभु-भक्ति, इसी भक्ति का निरुपण कबीर ने अपनी साखियों में कुशलता पूर्वक किया है और इस तथ्य का निरुपण भी किया है कि जो मनुष्य साखी कहता तो है परन्तु उसके वास्तविक अर्थ को ग्रहण करके उसके अनुकूल आचरण नहीं करता वह मोहरूपी नदी के जल में इस तरह बहता रहता है कि उसके पैर तक जल में नहीं टिकते और अन्त में उसी जल में डूब जाता है। उदाहरण स्वरूप - साखी कहैं गहै नहीं, चाल चली नहिं जाय।/सलित मोह नदिया बहै, पाँव नहीं ठहराय॥
इससे सिद्ध होता है कि साखियों के अनुकूल आचरण करने से ही मानव-मात्रा का कल्याण हो सकता है। साखी भवसागर से पार करने वाली अनुपम नौका है।कबीर ने अपनी साखियों का महत्त्व बताते हुए कहा है कि साखी के बिना संसार का झगड़ा समाप्त नहीं होता। अतः संसार में भटकने वाले मानव को सही मार्ग दिखाने का माध्यम ही साखी है। डॉ० राम कुमार वर्मा ने स्पष्ट किया है कि (साखी का अर्थ प्रत्यक्ष ज्ञान मानते हुए) वह प्रत्यक्ष ज्ञान गुरु शिष्य को प्रदान करता है। सन्त सम्प्रदाय में अनुभव जन्य ज्ञान की महत्ता है, शास्त्रीय ज्ञान की नहीं। इस प्रकार सत्य की साक्षी देता हुआ ही गुरु जीवन के तत्त्व ज्ञान की शिक्षा शिष्य को देता है। यथा- चेतन चौकी बैसि करि, सतगुरू दीन्हाँ धीर।/निरभै होई निसंक भजि, केवल कहै कबीर॥कबीर ने अपनी साखियों का विभाजन अंगों में किया है। जैसे-गुरुदेव कौ अंग, सुमिरन कौ अंग, विरह कौ अंग, ग्यान-विरह कौ अंग, परचा कौ अंग, माया कौ अंग, मन कौ अंग, पीव पिछाँवन कौ अंग, सहज कौ अंग आदि। तत्त्व ज्ञान की शिक्षा जितनी प्रभावपूर्ण होती है, उतनी ही स्मरणीय है। इसी कारण सन्त सम्प्रदाय में साख इतनी अधिक मात्र में है।
इन साखियों में गुरु की महत्ता, नाम स्मरण की महिमा, ज्ञान प्राप्ति से मानव-कल्याण आदि का प्रतिपादन करते हुए यह समझाने की चेष्टा की गई है कि सतगुरु की कृपा से ही मानव सांसारिक प्रपंचों से मुक्त होकर ईश्वर-प्राप्ति में सफल होता है। जैसे - सतगुरु की महिमा अनँत, अनंत किया उपगार।/लोचन अनंत उघारिया, अनंत दिखावन हार॥
कबीर ने समस्त सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने के लिए इन साखियों द्वारा मानव को आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख किया है।मन को सभी विकारों से रहित करके सदाचार और शुद्धाचरण द्वारा मनुष्य को सज्जनों की संगति करनी चाहिए, क्योंकि सज्जनों के संगति से मन निर्मल हो जाता है। जैसे - कबीर संगति साध की, कदै न निरफल होइ।/चंदन होसी बांबना, नींव न कहसी कोई॥
कबीर की साखियों में सूक्ष्म अनुभूति के साथ-साथ दार्शनिकता का भी बेजोड़ समन्वय है। उनकी ब्रह्म-भावना आदि से अंत तक अद्वैत परक है। किन्तु उस अद्वैत की प्राप्ति का प्रारम्भ या प्रयत्न जब कबीर करते हैं, प्रिय परमात्मा से वियुक्त हृदय की मनोभावनाओं की जिस समय अभिव्यक्ति करते हैं, उस समय वे द्वैत भावना से प्रस्थान करते हैं। इस द्वैत भावना से कबीर की अद्वैत भावना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे सर्वत्रा उसका निरुपण उपनिषदों के समान अद्वैत भावना से उत्प्रेरित होकर की करते है। - कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढै बन माहिं।/ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं॥
कबीर ने अपनी साखियों में ब्रह्म और जीव की अद्वैतता, जगत और ब्रह्म का अभेद तथा माया के द्वारा ब्रह्म और जगत्‌ की भिन्नता का प्रतिपादन बड़े सुन्दर ढंग से किया है। उन्होंने निरुपित किया है कि आत्मा और परमात्मा की वस्तुतः एक ही सत्ता है। माया के कारण ही परमात्मा में नाम और रूप का अस्तित्व है। आत्मा और परमात्मा एक ही शक्ति के दो भाग हैं, जिन्हें माया के परदे ने अलग कर दिया है। जब ज्ञानार्जन से माया नष्ट हो जाती है तब दोनों भागों का पुनः एकीकरण हो जाता है। आत्मा और परमात्मा के मिलन में माया ही बाधक है। कबीर की साखियाँ अद्वैतवाद की पोषक हैं। उन्होंने अपनी साखियों में माया के त्रिागुणात्मक रूप से बचने की सलाह दी है जैसे - बुगली नीर बटालिया, सायर चढ्या कलंक।/और पँखेरू पी गये, हंस न बोवे चंच॥
कबीर ने अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से उचित एवं उपयुक्त प्रतीकों द्वारा आत्मा-परमात्मा के मिलन, साधक की विरहानुभूति, हठयोग की साधना आदि का वर्णन किया है। आत्मा-परमात्मा के मिलन से सम्बन्धित साखी अविस्मरणीय है-सुरति समांणी निरति मैं, अजपा मांहै जाप।/लेख समाणां निरति मैं, यूँ आपा मांहै आप॥इस प्रकार कबीर ने गूढ़ दार्शनिक तथ्यों को साखियों के माध्यम से बड़ी सहजता के साथ प्रस्तुत किया है।कबीर की साखियाँ अधिकांशतः दोहा छन्द में हैं, परन्तु कुछ साखियाँ चौपाई, श्याम, उल्लास, हरिपद, गीत, सार और छप्पय आदि छन्द में भी प्राप्त होती हैं। विरहिणी कौ अंग' भाग में विप्रलम्भ श्रृंगार की अत्यन्त गहन तीव्रानुभूति के साथ अभिव्यक्ति हुई है - यह तन जारौं मसि करौ, लिखौ राम का नाउँ।/लेखनि करौ करंक की, लिखि लिखि राम पठाउँ॥
इन साखियों में उक्ति वैचित्रय, भाव गाम्भीर्य एवं अर्थ सौष्ठव दर्शनीय है। सभी साखियाँ जीवन की भावनात्मक एवं कलात्मक विवेचना से परिपूर्ण हैं, इनमें मनोभावों की अनुभूति के साथ-साथ कवित्व का चमत्कार भी सर्वत्रा विद्यमान है। उच्चकोटि की परिष्कृत व्यंग्यात्मक अभिव्यंजना के कारण ये हृदय पर तीखा प्रहार करती हैं। कबीर की काव्य प्रतिभा के प्रत्यक्ष प्रमाण हेतु हठयोग की साधना का यह वर्णन श्रेष्ठ है। यथा - आकासे मुखि औंधा कुआँ, पाताले पनिहारि।/ताका पाँणी को हँस पीवै, विरला आदि विचारि॥
कबीर ने इस साखी में उलटबाँसी के माध्यम से साधना के द्वारा कुण्डलिनी के जाग्रत होने और सहस्रार कमल (चक्र) पर पहुँचने की अनुभूति को व्यक्त किया है।सारांश यह है कि कबीर की साखियाँ सहज स्वाभाविक सौन्दर्य से ही ओत-प्रोत नहीं हैं वरन्‌ वैयक्तिक अनुभूतियों की अक्षय निधि भी हैं। अयत्नसाधित होने के साथ-साथ ज्ञान और भक्ति, नैतिकता और व्यावहारिकता, दार्शनिकता और भावुकता, आध्यात्मिक और लौकिकता का समुच्चय है। कबीर ने इन साखियों के द्वारा सर्व साधारण को उस परमसत्ता का आभास कराके उससे भावनात्मक सम्बन्ध जोड़ने का श्रेष्ठ मार्ग दिखाया है। इन साखियों के आलोक में सांसारिक मोहजाल में भूले-भटके व्यक्ति, सत्य-मार्ग का अनुसंधान कर सकते हैं। उनकी साखियाँ मानव-मात्रा के हृदय में विश्व बन्धुत्व का भाव जाग्रत ही नहीं करती अपितु मानव को आत्म-निरीक्षण की ओर भी उन्मुख करती हैं।
अनासक्तिपूर्ण कर्मों द्वारा मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करती हैं। मानव को सत्कर्म एवं सदाचरण की प्रेरणा प्रदान करती हैं। इन साखियों में उनका अप्रतिम एवं कालजयी व्यक्तित्व विद्यमान है।
कबीर की उलटबाँसियाँकबीर के काव्य में एक साधक चित्त की अनुभूति की गहनता है। कवि ने जिस अनिर्वचनीय परमतत्त्व को वाणी का विषय बनाया है, उसकी अभिव्यक्ति अभिधा द्वारा सम्मत नहीं। अतः कबीर ने प्रतीकों का आश्रय लिया है अथवा ध्वनि या व्य×जना द्वारा उस परमानन्द की ओर संकेत किया है। इसलिए उनकी वाणी प्रायः अटपटी या उल्टी लगती है। उनके काव्य में निहित प्रतीकों या ध्वन्यार्थ को समझे बिना, भावों की गहराई तक पहुँचना कठिन है। इसके अतिरिक्त कबीर के पहले नाथ-योगियों, बौद्धों-सिद्धों तथा अन्य साधन-सम्प्रदायों में परम्परा से प्रयुक्त होते चले आ रहे थे। उन्होंने अपनी बात स्पष्ट करने के लिए अनेक शब्दों को ग्रहण किया है।
कबीर ने उन्हें नयी अर्थवत्ता से भास्वर कर दिया है। उलटबाँसी भी उनकी अभिव्यक्ति का एक रूप है।आध्यात्मिक अनुभव की अलौकिक अभिव्यक्ति हेतु साधक कभी-कभी परस्पर विरोधी उक्तियों द्वारा अपनी बात स्पष्ट करता है जिससे गूढ़-प्रतीकों की सृष्टि स्वतः ही हो जाती है इन्हीं गूढ़-प्रतीकों को उलटबाँसी या उलटा कथन या विपर्यय कहा जा सकता है। पं. परशुराम चतुर्वेदी ने गुरु गोरखनाथ की उलटी चरचा के आधार पर उलटबाँसी शब्द की कल्पना की है। उलटबाँसी शब्द को उलटा तथा बाँस शब्दों से निर्मित भी माना जा सकता है। जिस दशा में उसका सही अर्थ वैसी रचना के अनुसार होगा जिसका बाँस (पार्श्व भाग या अंग) उलटा या विपरीत ढंग का हो।
डॉ. सरनाम सिंह शर्मा ने उलटबाँसी शब्द की दो व्युत्पत्तियाँ दी हैं - एक तो उलटबाँसी संयुक्त शब्द और दूसरी उलटबाँस से सम्बन्धित। पहले शब्द उलटबाँस का अर्थ उलटी हुई और सी का अर्थ समान अर्थात्‌ उलटबाँसी का अभिप्राय हुआ उलटी हुई प्रतीत होने वाली उक्ति। दूसरी व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में बताया गया है कि परमपद या अध्यात्म-लोक में रहने वाले का निवास वास्तव में उलटबास' है। इससे सम्बन्धित कथन उलटबासी वाणी कहला सकती है। आध्यात्मिक अनुभूतियाँ अलौकिक एवं असाधारण होती है जो लोक-दृष्टि से उलटी प्रतीत होती हैं। इस शब्द में वा के ऊपर की सानुनासिकता अकारण है।डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उलटबाँसी का सम्बन्ध सन्ध्या-भाषा से स्थापित किया है। उनके मतानुसार सहजयानियों में इस प्रकार की उलटी बानियों को सन्ध्या-भाषा कहा जाता था। सान्ध्य-भाषा' वह है, जिसका कुछ अंश समझ में आये और कुछ अस्पष्ट रहे अर्थात्‌ अन्धकार और प्रकाश के मध्य की-सी भाषा को सन्ध्या-भाषा कहते हैं। कुछ विद्वान्‌ सन्ध्या-भाषा को सान्ध्य-भाषा भी मानते है, जिसका अर्थ है -अभिसंधि-सहित या अभिप्राय-युक्त भाषा।इसी प्रकार उलटबाँसी शब्द विपरीत तथा अस्पष्ट कथन का द्योतक प्रतीत होता है, क्योंकि कबीर ने स्वयं इन्हें उलटा वेद कहा है और इस प्रकार के उलटे एवं अस्पष्ट कथन ऋग्वेद से लेकर सिद्धों तक की बानियों में मिलते हैं। इस प्रकार की बानियाँ उपनिषदों में भी मिलती है। ऐसे ही उलटे तथा अस्पष्ट कथन सिद्धों एवं नाथ योगियों में भी मिलते हैं। सिद्ध ने कहा है कि बैल व्याता है और गाय बाँझ रहती है तथा बछड़ा तीन समय दुहा जाता है। गुरु गोरखनाथ ने कहा कि पानी में आग लगी हुई है, मछली पहाड़ पर है और खरगोश जल में है।इस तरह की उलटी एवं विपरीत तथा अस्पष्ट कथन की प्रणाली अत्यन्त प्राचीन काल से मिलती हैं। ये उक्तियाँ कबीर और सिद्धों आदि में समान रूप से प्राप्त होती हैं। कदाचित्‌ इसका कारण इन उक्तियों का साधारण जनता में अत्यधिक प्रचलन था। आज भी ग्राम्य समाज में हप्प सुन्नो भई गप्प, नाव बिच नदिया डूबी जाय जैसी उक्तियाँ सुनने को मिल जाती हैं। कुछ लोकोक्तियों में भी इन उलटबाँसियों की छाया मिलती है - जो बैल ब्याहै नाय तो, बूढ़ो ना होय।कहने का तात्पर्य यह है कि कबीर के समय तक इस प्रकार की उक्तियों का पर्याप्त प्रचलन हो गया था। हठयोगी साधना के सिद्धों और नाथों की परम्परा से ग्रहण करने वाले कबीर पर उनकी उलटबाँसी शैली का प्रभाव अवश्य पड़ा होगा।
उन्होंने जो उलटबाँसी लिखी है उनकी कुंजियाँ प्रायः ऐसे साधु और महंतों के पास है जो किसी को बतलाना नहीं चाहते, अथवा ऐसे साधु और संत अब हैं ही नहीं। यह भी संभव है कि यह रहस्य छिपा हो कि सिद्ध एवं गुरु अपने भक्तों में जिज्ञासा उत्पन्न करने के लिए तथा उन्हें आश्चर्यचकित करने के लिए ऐसी अटपटी एवं विचित्रा बानियों का प्रयोग करते हों। परन्तु भारत में इनकी एक सुदीर्घ परम्परा प्राप्त होती है तथा इनमें गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों का उल्लेख है।कबीर की उलटबाँसियाँ अत्यन्त मनोरंजक होने पर भी दुःसाध्य है। इनमें जटिल विचारों की अनगिनत काली गुफायें हैं। यह जीवात्मा की उस अन्तर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल संबंध जोड़ना चाहती है। कबीर ने भी कितनी ही उलटबाँसियाँ लिखी हैं जो रहस्यात्मक होने के साथ-साथ अटपटी, आश्चर्यचकित करने वाली एवं विचित्र हैं।
आध्यात्मिक अनुभूति से परिपूर्ण होने के कारण ये किसी न किसी तात्त्विक रहस्य की ओर संकेत करती हुई जान पड़ती हैं। ये सभी लोक-व्यवहार एवं प्राकृतिक नियमों के सर्वथा विरूद्ध जान पड़ती हैं किन्तु इनमें सांकेतिक रूप से एक गूढ़ तात्त्विक सिद्धान्त की विवेचना निहित रहती हैं।विद्वानों ने कबीर की उलटबाँसियों के तीन वर्ग किये हैं - १. अलंकार प्रधान, २. अद्भुत प्रधान तथा ३. प्रतीकात्मक प्रधान।१. अलंकार प्रधानइन उलटबाँसियों में अधिकांशतः विरोधी तथा विचित्रा बातें रहती हैं। इनमें प्रयुक्त अलंकार भी विरोधमूलक हैं। जो किसी न किसी रूप में आश्चर्य की सृष्टि करते हैं। इन अलंकारों में विरोधाभास, असंभव, विभावना, असंगति, विषम आदि की प्रधानता रहती है। विरोधाभास का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं - जे काटौ तो डहडही, सींचौ तो कुम्हलाइ।विभावना अलंकार का सौन्दर्य भी दर्शनीय है - बिन मुख खाइन चरन बिन चालै, बिन जिम्यागुण गावै। आछै रहै ठौर नहीं छाड़ै, दह दिसिहिं फिरि आवै।अन्यत्रा कबीर ने सांगरूपक द्वारा सहज समाधि में लीन योगी की अवस्था का चित्रा इस तरह अंकित किया है - गंग जुमन उर अन्तरै, सहज सूंनि ल्यौघाट।/तहाँ कबीरै मठ रच्या, मुनि जन जावैं बाट॥इन रूपकों में आध्यात्मिक संकेत के साथ-साथ अद्भुत कवित्व भी विद्यमान है।२. अद्भुत प्रधानकबीर की कुछ उलटबाँसियाँ अद्भुत एवं अलौकिक वर्णनों से युक्त होने के कारण अद्भुत रस भी परिपूर्ण हैं। उन्होंने इन उलटबाँसियों में प्रतीकों का आश्रय तो अवश्य लिया है, परन्तु कवि ने अत्यन्त आश्चर्यपूर्ण चित्र प्रस्तुत किया है। ये उलटबाँसियाँ उनकी गहन एवं सूक्ष्म अनुभूति को अभिव्यक्त करती हैं - डाला गह्या थैं मूल न सूझै, मूल गह्यां फल पाया। बंबई उलटि शरप कौ लायी, धरोणि महारस खावा॥ बैठि गुफा में सब जग देख्या, बाहरि कछू न सूझै। उलटै धनकि पारधी मारयो, यहु अचरित कोई बूझै॥ अथवा - एक अचंभा देख रे भाई, ठाड़ा सिंह चरावै गाई।/पहले पूत पीछे भई माई, चेला के गुरु लागै पाइ॥भक्तों के हृदय में जिज्ञासा एवं आश्चर्य उत्पन्न करती है। इनका भावार्थ जानने में कठिनाई का अनुभव होता है।३. प्रतीकात्मक प्रधानप्रतीकात्मक उलटबाँसियों में कबीर ने साधना के निगूढ़ रहस्यों को प्रायः रूपक आदि के द्वारा कहा है। इनमें कहीं रूपक प्रधान है तो कहीं प्रतीक प्रधान है। इन उलटबाँसियों के प्रतीकों में आध्यात्मिक अनुभूति के साथ-साथ कबीर की गूढ़तम भावना एवं रहस्यात्मक विचारों का सुन्दर सामंजस्य हुआ है। निम्नस्थ उदाहरण रूपक प्रधान हैं - कैसे नगरि करौ कुटवारी, चंचल पुरिष विचषन नारी।/बैल बियाइ गाइ भई बांझ, बछरा छूहे तीन्यो साँझ॥/मकड़ी धरी भाषी छछिहारी, माँस पसारि चील्ह रखवारी॥/मूसा खेवट नाव बिलइया, मींडक सोवै साँप पहरइयाँ॥/निति उठि स्याल स्यंधासूँ झझै, कहै कबीर कोई बिरला बूझै।उक्त पद में कबीर ने अद्भुत मानवेत्तर प्राणियों के प्रतीकों द्वारा उनके अस्वाभाविक व्यापारों का वर्णन करते हुए नगर के शासन प्रबन्ध में उत्पन्न बाधा की ओर भी संकेत किया है। इन प्रतीकों द्वारा मानव-शरीर के अन्तर्गत उत्पन्न बाधाओं का उल्लेख करते हुए उन्होंने संसार के प्रपंच से ग्रस्त जीव की दीन-हीन अवस्था का उत्कृष्ट वर्णन किया है।कबीर की उक्तियों में कहीं-कहीं प्रतीक ही प्रधान है, ऐसे स्थानों पर रूपक-योजना गौण हो जाती है यथा - है कोई जगत गुर ग्यानी, उलटि बेद बूझै।/पांणी में अगनि जरै, अंधेरे को सूझै॥/एकनि दादुर खाये पंच भवंगा।/गाइ नाहर खायौ, कटि अंगा॥/बकरी बिघार खायौं, हरनि खायौ चीता।/कागिल गर फांदियां, बटेरै बाज जीता॥मूसै मंजार खायौ, स्यालि खायी स्वांनां।/आदि कौं आदेश करत, कहै कबीर ग्यांना॥ज्ञानी कबीर इस कथन द्वारा प्रभु का ही संदेश अर्थात्‌ प्रभु-भक्ति का संदेश देना चाहते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि कबीरदास जी के प्रतीक और उलटबाँसियों में प्रेम के अद्भुत रहस्य और ज्ञान का अपरिमित अक्षय कोष भरा पड़ा है।
अतः कबीर की उलटबाँसियों में विभिन्न विषयों पर अथाह ज्ञान भरा पड़ा है। उलटबाँसियों में सांसारिक प्रेम, माया-प्रपंच, ज्ञान-विरह, आत्मज्ञान, मन आदि का वर्णन मिलता है। विविध प्राणियों एवं प्राकृतिक पदार्थों के कार्यों एवं व्यापारों का निरूपण भी सूक्ष्मता के साथ किया गया है। कबीर ने कहीं वन, उपवन, शरीर आदि के रूपकों द्वारा सैद्धान्तिक निरूपण किया है तो कहीं कमल, चरखा, बेल, नगर, कोतवाल आदि के प्रतीकों द्वारा साधना पथ के रहस्यों का उद्घाटन किया है। इस तरह कबीर की उलटबाँसियाँ भले ही अटपटी, अस्पष्ट या उलटी बात कहलाती हों, परन्तु इनमें कबीर के दार्शनिक सिद्धान्तों के साथ-साथ आध्यात्मिक तथ्यों का लौकिक तथा अलौकिक रूप में मर्मस्पर्शी वर्णन मिलता है।
संदर्भ-ग्रन्थ
१. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास।
२. कबीर ग्रन्थावली।३. कबीर साहित्य की परख।
४. कबीर : एक विवेचन।
५. डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी : कबीर
६. हिन्दी भाषा का इतिहास।

2 comments:

विजय तिवारी " किसलय " November 10, 2008 at 12:41 AM  

vyaapak jaankaari ke liye aapko bahut bnahut dhanywad
waise dhanywaad ki sarthakta tab aur badh jaayegi jab main is aalekh se kuchh haasil kar paaoonga
aapka
vijay tiwari ''kisaly ''

Vivek Gupta November 10, 2008 at 2:37 AM  

"डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी : कबीर" को मैंने भी थोड़ा पड़ा है काफी अच्छी किताब है | आप भी अच्छा लिखती हैं |

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