आप सभी का स्वागत है. रचनाएं भेजें और पढ़ें.
उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Saturday, March 28, 2009

निष्कर्ष

. महेंद्रभटनागर

.
ऊहापोह
(जितना भी)
ज़रूरी है।
विचार-विमर्श
हो परिपक्व जितने भी समय में।
.
तत्त्व-निर्णय के लिए
अनिवार्य
मीमांसा-समीक्षा / तर्क / विशद विवेचना
प्रत्येक वांछित कोण से।
.
क्योंकि जीवन में
हुआ जो भी घटित -
वह स्थिर सदा को,
एक भी अवसर नहीं उपलब्ध
भूल-सुधार को।
.
सम्भव नहीं
किंचित बदलना
कृत-क्रिया को।
.
सत्य -
कर्ता और निर्णायक
तुम्हीं हो,
पर नियामक तुम नहीं।
निर्लिप्त हो
परिणाम या फल से।
(विवशता)
.
सिद्ध है —
जीवन: परीक्षा है कठिन
पल-पल परीक्षा है कठिन।
.
वीक्षा करो
हर साँस गिन-गिन,
जो समक्ष
उसे करो स्वीकार
अंगीकार!

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Thursday, March 26, 2009

तुलना

 महेंद्रभटनागर 
(13) तुलना
.
जीवन
कोई पुस्तक तो नहीं
कि जिसे
सोच-समझ कर
योजनाबद्व ढंग से
लिखा जाए / रचा जाए!
.
उसकी विषयवस्तु को —
.
क्रमिक अध्यायों में
सावधानी से बाँटा जाए,
मर्मस्पर्शी प्रसंगों को छाँटा जाए!
.
स्व-अनुभव से, अभ्यास से
सुन्दर व कलात्मक आकार में
ढाला जाए,
शैथिल्य और बोझिलता से बचा कर
चमत्कार की चमक में उजाला जाए!
.
जीवन की कथा
स्वतः बनती-बिगड़ती है
पूर्वापर संबंध नहीं गढ़ती है!
.
कब क्या घटित हो जाए
कब क्या बन-सँवर जाए,
कब एक झटके में
सब बिगड़ जाए!
.
जीवन के कथा-प्रवाह में
कुछ भी पूर्व-निश्चित नहीं,
अपेक्षित-अनपेक्षित नहीं,
कोई पूर्वाभास नहीं,
आयास-प्रयास नहीं!
ख़ूब सोची-समझी
शतरंज की चालें
दूषित संगणक की तरह
चलने लगती हैं,
नियंत्राक को ही
छलने लगती हैं
जीती बाज़ी
हार में बदलने लगती है!
.
या अचानक
अदृश्य हुआ वर्तमान
पुनः उसी तरतीब से
उतर आता है
भूकम्प के परिणाम की तरह!
अपने पूर्ववत् रूप-नाम की तरह!

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Wednesday, March 25, 2009

अनुभूति

महेंद्रभटनागर

.
जीवन-भर
अजीबोगरीब मूर्खताएँ
करने के सिवा,
समाज का
थोपा हुआ कर्ज़
भरने के सिवा,
क्या किया?
.
ग़लतियाँ कीं
ख़ूब ग़लतियाँ कीं,
चूके
बार-बार चूके!
.
यों कहें -
जिये;
लेकिन जीने का ढंग
कहाँ आया?
(ढोंग कहाँ आया!)
और अब सब-कुछ
भंग-रंग
हो जाने के बाद —
दंग हूँ,
बेहद दंग हूँ!
विवेक अपंग हूँ!
.
विश्वास किया
लोगों पर,
अंध-विश्वास किया
अपनों पर!
.
और धूर्त
साफ़ कर गये सब
घर-बार,
बरबाद कर गये
जीवन का
रूप-रंग सिँगार!
.
छद्म थे, मुखौटे थे,
सत्य के लिबास में
झूठे थे,
अजब ग़ज़ब के थे!
.
ज़िन्दगी गुज़र जाने के बाद,
नाटक की
फल-प्राप्ति / समाप्ति के क़रीब,
सलीब पर लटके हुए
सचाई से रू-ब-रू हुए जब µ
अनुभूत हुए
असंख्य विद्युत-झटके
तीव्र अग्नि-कण!
ऐंठते
दर्द से आहत
तन-मन!
हैरतअंगेज़ है, सब!
सब, अद्भुत है!
अस्तित्व कहाँ है मेरा,
मेरा बुत है!
अब,
पछतावे का कड़वा रस
पीने के सिवा
बचा क्या?
.
ज़माने को
न थी, न है
रत्ती-भर
शर्म-हया!

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Tuesday, March 24, 2009

प्रार्थना

महेंद्रभटनागर
.
सूरज,
ओ, दहकते लाल सूरज!
.
बुझे
मेरे हृदय में
ज़िन्दगी की आग
भर दो!
थके निष्क्रिय
तन को
स्फूर्ति दे
गतिमान कर दो!
सुनहरी धूप से,
आलोक से -
परिव्याप्त
हिम / तम तोम
हर लो!
.
सूरज,
ओ लहकते लाल सूरज!

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Monday, March 23, 2009

प्रबोध

. महेंद्रभटनागर
.
नहीं निराश / न ही हताश!
सत्य है -
गये प्रयत्न व्यर्थ सब
नहीं हुआ सफल,
किन्तु हूँ नहीं
तनिक विकल!
.
बार-बार
हार के प्रहार
शक्ति-स्रोत हों,
कर्म में प्रवृत्त मन
ओज से भरे
सदैव ओत-प्रोत हो!
.
हो हृदय उमंगमय,
स्व-लक्ष्य की
रुके नहीं तलाश!
भूल कर
रुके नहीं कभी
अभीष्ट वस्तु की तलाश!
हो गये निराश
तय विनाश!
हो गये हताश
सर्वनाश!

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Sunday, March 22, 2009

यथार्थता

महेंद्रभटनागर

.
जीवन जीना —
दूभर - दुर्वह
भारी है!
मानों
दो - नावों की
विकट सवारी है!
.
पैरों के नीचे
विष - दग्ध दुधारी आरी है,
कंठ - सटी
अति तीक्ष्ण कटारी है!
.
गल - फाँसी है,
हर वक़्‍त
बदहवासी है!
भगदड़ मारामारी है,
ग़ायब
पूरनमासी,
पसरी सिर्फ़
घनी अँधियारी है!
.
जीवन जीना
लाचारी है!
बेहद भारी है!

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