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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Saturday, January 10, 2009

अम्बेडकर के विचारों की अभिव्यक्ति ही दलित साहित्य है : ओमप्रकाश वाल्मीकि



डॉ. शगुफ्ता नियाज
पारिवारिक और साहित्यिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइये?
मैं, बरला, मुजफ्फर नगर के एक साधारण परिवार में पैदा हुआ और उन दिनों दलित परिवारों के बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। जो स्कूल जाने की कोशिश करते थे, उनको जाने नहीं दिया जाता था। जो जाना भी चाहते थे, उनको रोकने की कोशिश की जाती थी। जो पहुँच जाते थे, उनको भगाने की कोशिश की जाती थी। शिक्षकों की मानसिकता जातिवादी होती थी और वे ऐसा कोई मौका नहीं चूकते थे जहाँ वे जाति के आधार पर अपमानित किया जा सके। बचपन की ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जिनका चित्रण मैंने जूठन में किया है जो दलित जीवन के दग्ध अनुभव हैं। ऐसी स्थितियों में शिक्षा पाना बहुत मुश्किल होता था। परिवार की आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं होती थी कि शिक्षा ग्रहण कर सके। इन हालात में शिक्षा पाकर साहित्य की तरफ मुड़ना बहुत ही मुश्किल काम था, लेकिन मैं जैसे-जैसे आगे बढ़ता रहा मेरे मन में साहित्य के प्रति आकर्षण भी बढ़ा और साहित्य ने ही मुझे हीनता-बोध से बाहर निकाला और जब मैं ७-८वीं कक्षा में था, तभी से कविता, कहानी लिखने की कोशिश करने लगा था, लेकिन सही दिशा मुझे मिली जब मैंने महाराष्ट्र में दलित पेंथर के आन्दोलन को बहुत करीब से देखा और डॉ. अम्बेडकर के जीवन दर्शन को अपनी व्यथा-कथाओं में अभिव्यक्त करने की प्रेरणा मिली।

आपकी नजरों में दलित कौन है? शब्द दलित क्यों और कब प्रचलन में आया?

अगर सीधे-सीधे दलित को परिभाषित किया जाये, तो दलित वह है, जिसे संविधान में अनुसूचित जाति, जनजाति कहाँ गया है और जिसे सामाजिक जीवन में उसके मानवीय हक़ों से दूर रखा गया है। वर्ण-व्यवस्था में जो अस्पृश्य, अन्त्यज, अछूत है, वही दलित है।
दलित शब्द डॉ. अम्बेडकर के आन्दोलन से बाहर आया है और इसे राष्ट्र स्तर पर स्वीकार किया गया। ऐसा पहली बार हुआ है कि दलितों ने दलितों द्वारा अपने लिए किसी शब्द को चुना। अभी तक जितने भी शब्द दिये गये थे, वे तमाम शब्द गैर दलितों द्वारा दिये गये थे, इस शब्द ने उनकी आकांक्षा और अस्मिता को एक पहचान दी है। इस शब्द का प्रचलन तब और अधिक बढ़ा जब मराठी दलित साहित्य आन्दोलन का सूत्रापात हुआ। आज यह शब्द संघर्ष का प्रतीक बन गया है।


आपकी दृष्टि में दलित साहित्य क्या है? दलित साहित्य के सैद्धान्तिक पक्ष पर अपनी राय प्रकट कीजिए?


दलित साहित्य वही साहित्य है जिसमें दलितों की पीड़ा की अभिव्यक्ति हो और जिसकी अन्तर्ऊर्जा में दलित चेतना का समावेश हो। दलित चेतना का केन्द्र बिन्दु हजारों साल का उत्पीड़न, शोषण है और उससे मुक्त होने की कोशिश ही दलित चेतना है। दलित चेतना का सरोकार डॉ. अम्बेडकर के जीवन संघर्ष से जुड़ता है। इसीलिए हम यूं भी कह सकते हैं कि जिस साहित्य में अम्बेडकर विचार हो वही दलित साहित्य है। अम्बेडकर के विचार से विहीन साहित्य, भले ही वह लिखा हो किसी दलित ने वह हरिजन साहित्य हो सकता है, लेकिन दलित साहित्य नहीं हो सकता है। यदि कोई गैर दलित इस विचार के तहत अपनी रचनाधर्मिता की अभिव्यक्ति करता है तो उसे भी हम दलित साहित्य कह सकते हैं। लेकिन गैर दलित को जातीय भावना से मुक्त होना चाहिए, वर्ण व्यवस्था में अटूट विश्वास रखने वाला कोई लेखक दलित साहित्य लिखेगा तो वह सिर्फ दिखावा ही होगा।

हिन्दी साहित्य के सौन्दयशास्त्र और दलित साहित्य के सौन्दय शास्त्र में आपको कोई भेद लगता है। अगर लगता है तो बताने का कष्ट करें।

हिन्दी साहित्य का सौन्दयशास्त्र संस्कृत के काव्य शास्त्र के आधार पर तैयार किया गया है। जिसके तहत उसकी तमाम मान्यताएं सामंतवादी हैं और उसके जीवन मूल्य ब्राह्मणवादी विचारधारा से संचालित होते हैं। उस साहित्य में आनन्द और रस की जो महत्ता स्थापित होती है, उसे दलित साहित्य स्वीकार नहीं करता है। दलित साहित्य आनंद के लिए नहीं लिखा जाता है, बल्कि मनुष्य की स्वतंत्राता, समता, भाई चारे की भावना को महत्ता देता है और उसके केन्द्र में मनुष्य ही सर्वोपरि है। उन तमाम मान्यताओं का विरोध करता है, जिनमें महाकाव्यों का नायक उच्च कुलोत्पन्न होना चाहिए। ऐसी तमाम चीजों को दलित साहित्य स्वीकार नहीं करता साथ ही भारतीय समाज व्यवस्था जो वर्ण व्यवस्था से संचालित होती है। उसे मनुष्य विरोधी मानता है।

आपकी दृष्टि में दलित-चेतना क्या है?

जैसा कि उससे पहले कहा गया है कि दलित चेतना हजारों साल के उत्पीड़न से मुक्त होने की इच्छा ही दलित चेतना है।

दलित लेखन में दलित लेखकों और गैर-दलित लेखकों की अपनी-अपनी भूमिकाएँ क्या हैं? क्या ग़ैर दलित लेखक दलित साहित्य के प्रति पूर्व धारणा से ग्रस्त है साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डालने का कष्ट करेंगे कि क्या दलित साहित्यकारों पर सवर्ण विचारधारा का प्रभाव है?
दलित लेखन में दलित लेखकों और गैर दलित लेखकों की भूमिकाएँ अलग-अलग ही हैं। अभी तक जो हिन्दी साहित्य में गैर दलित लेखकों द्वारा लिखा गया साहित्य सामने आया है उसका मुख्य स्वर यथास्थिति बनाए रखने का है। वह आदर्शवादी और सुधारवादी दृष्टिकोण के तहत लिखा गया है, और एक मुख्य बात है कि उन रचनाओं में दलित व्इरमबज की तरह इस्तेमाल हुए हैं, ...की तरह नहीं। जहाँ ... की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश हुई है, वहाँ भी दलितों के आन्तरिक चित्रण का अभाव दिखाई पड़ता है। दलित लेखकों ने दलित पात्रों को ...की तरह लिखा और उनकी सामाजिक भूमिकाओं को प्रतिबद्धता के साथ चित्रित किया है। जहाँ तक दलित साहित्यकारों पर सवर्णों के प्रभाव का कारण है। दलित साहित्य के पूर्व अनेक रचनाकार उसी प्रभाव में आकर लेखन कार्य कर रहे थे। आज भी ऐसे अनेक जन्मा दलित लेखक हैं जो कहते हैं वे दलित लेखक नहीं हैं। उनकी रचनाओं में सवर्ण-सोच का प्रभाव दिखायी पड़ता है, उनकी रचनाओं में दलित चेतना और दलित-संघर्ष का अभाव साफ-साफ देखा जा सकता है।

सदियों का सन्ताप और बस बहुत हो चुका आपके दो कविता संग्रह है। सलाम एवं घुसपैठिए आपके कहानी संग्रह है तथा जूठन आपकी आत्मकथा है। दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र पुस्तक भी आपने लिखी है। मैं जानना चाहती हूं कि आपको दलित साहित्य की रचना करने में कौन-कौन सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, क्या सवर्णों के अलावा आपके अपनों ने भी आपको आहत किया?

जब मैंने लिखना शुरू किया तो बहुत सारी कठिनाइयाँ और चुनौतियाँ मेरे सामने थीं। छपने-छपाने की समस्याओं से भी जूझना पड़ा। उस समय की चर्चित पत्रिका सारिका ने दस वर्ष तक मेरी कहानी अपने पास रखकर लौटाई थी इस आशय के साथ यदि और इन्तजार कर सकते हैं तो भेज दीजिए हम उसे छापेंगे। अब आप इसी से अन्दाज लगा सकते हैं कि हिन्दी सम्पादकों का रवैया दलित लेखक के साथ कैसा रहा, किसी भी लेखक के लिए दस वर्ष बहुत होते हैं लेकिन सम्पादकों को यह करते समय कतई शर्मिन्दगी नहीं हुई और वे लगातार दलित रचनाओं के साथ यही करते रहे। जहाँ तक अपनों का सवाल है, ऐसे कई दलित प्रकाशक थे जिनके पास मैं अपनी पुस्तकें लेकर गया, लेकिन वहाँ भी जातिवाद कुण्डली मारे बैठा था और दलित लेखकों में मैं अकेला लेखक था जिसकी कोई भी पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई थी।


दलित कविता लिखने का विचार आपके मन में कब और कैसे आया?
मैंने अपने बचपन में ही इस बात को महसूस कर लिया था कि हमारा समाज तमाम प्रताड़नाओं, उत्पीड़न, शोषण को चुपचाप सह रहा है। ऐसा नहीं है कि उसको बयान नहीं करते थे। वे अपने घरों में या बिरादरी के छोटे-मोटे समारोहों या कार्यक्रमों में शोषण के खिलाफ बोलते थे। लेकिन उनकी आवाज अनसुनी रह जाती थी, और जब मेरा परिचय साहित्य से हुआ तो मुझे लगा कि साहित्य ही इस आवाज को दूसरों तक पहुंचा सकता है। मैंने बचपन में ही कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं।

कहानी लिखने के पीछे कौन-सा दर्द छिपा है?

कहानी लिखने के पीछे भी वही स्थितियाँ मौजूद थीं जो बात कविता में सीधे-सीधे नहीं कही जा सकती है। वह कहानी के माध्यम से ज्यादा आसानी से लोगों तक जा सकती है। जीवन का यथार्थ, उसके उसी रूप में, जैसा मौजूद है, पाठकों तक पहुंचाने में कहानी विधा की अपनी महत्ता है। जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। कथाकथन कार्यक्रमों के माध्यम से ये अनुभव और ज्यादा गहरे हुए थे। दिल्ली की दलित बस्तियों में राजेन्द्र यादव जी के साथ ऐसे अनेक कार्यक्रम हुए जहां आम आदमी सीधे कहानियों से जुड़ता था।

डॉ. अम्बेडकर और महात्मा गाँधी में से प्रेमचन्द पर किसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। क्या प्रेमचन्द का कुछ लेखन दलितों के लिए समर्पित है?

प्रेमचन्द पर गाँधी के प्रभाव से पहले आर्य समाज का प्रभाव था। उनकी बहुत सारी रचनाएं आदर्शवाद की मानसिकता के साथ लिखी गईं। बाद में वे गाँधी जी के प्रभाव में आते हैं और कर्मभूमि, रंगभूमि जैसी रचनाएं लिखते हैं। अम्बेडकर का प्रभाव उन पर सीधे-सीधे नहीं दिखाई देता लेकिन सामाजिक दबाव के तहत उन्होंने कुछ ऐसी कहानियाँ लिखीं, जिन पर अम्बेडकर का प्रभाव साफ दिखाई पड़ता है। उदाहरण के तौर पर ठाकुर का कुंआ, दूध का दाम और मंत्र जैसी कहानियाँ अम्बेडकर के प्रभाव की कहानियाँ हैं। लेकिन ३५० कहानियों में से तीन-चार कहानियाँ लिखकर वे दलित के प्रति समर्पित नहीं हो सकते। उनकी ज्यादातर कहानियाँ गाँधीवादी प्रभाव के सुधारवादी दृष्टिकोण की कहानियाँ हैं।

दलित साहित्य के बारे में हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचकों का नजरिया क्या है?

आरम्भिक दौर में हिन्दी के आलोचकों का नजरिया दलित साहित्य के प्रति नकारात्मक ही रहा है। आज भी ऐसे अनेक आलोचक हैं जो दलित साहित्य को साहित्य मानने को तैयार नहीं हैं। लेकिन दलित साहित्य को ऐसे आलोचकों की स्वीकृति की जरूरत नहीं है, क्योंकि दलित साहित्य का फलक व्यापक है। वह समाज की बेहतरी के लिए समर्पित है और समाज में बदलाव की प्रक्रिया का समर्थक है। उसका उद्देश्य भिन्न है। जो लोग भारतीय समाज व्यवस्था के समर्थक हैं उन्हें दलित साहित्य क्यों स्वीकार होगा। ऐसे आलोचक ब्राह्मणवादी मानसिकता के साथ साहित्य को पढ़ते हैं।

दलित विमर्श पर आज लगभग हर पत्रिका अपने विशेषांक निकाल रही है। क्या दलित विशेषांक निकालने वालों के यथार्थ से अवगत करायेंगे साथ ही यह भी बताना चाहेंगे कि दलित विमर्श के पीछे का विमर्श क्या है?

हाँ, प्रत्येक पत्रिका दलित विशेषांक निकाल रही है लेकिन उनमें से बहुत सारी पत्रिकायें हैं, जो आज भी दलित रचनाकारों को छापने का मन नहीं बना पा रही हैं। बल्कि उनके विरोध में ही कभी टिप्पणियाँ, कभी लेख प्रकाशित करने में पीछे नहीं हैं। इसीलिए ऐसे सम्पादकों के तमाम गठजोड़ कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं कर पाते हैं। ऐसे सम्पादकों को अवसरवाद के बजाए पहले अपनी मानसिकता को बदलना होगा और दलित विमर्श में सक्रिय भागीदारी करनी होगी। दलित विशेषांक निकालने से पहले दलित रचनाओं को स्थान देना होगा। दलित साहित्य के उद्देश्य को भी समझना होगा।

दलित और स्त्री दोनों ही सामाजिक शोषण के शिकार रहे हैं। क्या आप इससे सहमत है?

हाँ, बिलकुल सहमत हूँ। मैं स्वयं इस बात को मानता हूँ जिन स्थितियों से दलितों को गुजरना पड़ा है। उन्हीं स्थितियों से स्त्रियाँ भी गुजर रही हैं। दलित यदि मन्दिरों में नहीं जा सकते हैं तो दक्षिण के एक मन्दिर में स्त्री के प्रवेश को लेकर हंगामा मचा हुआ है। दलित के भगवान की मूर्ति छू लेने से भगवान अपवित्रहो जाते हैं वही स्थिति महिलाओं की भी है। दक्षिण ही नहीं उत्तर भारत में अनेक ऐसे मन्दिर हैं जहाँ स्त्रियों के प्रवेश को निषेध किया गया है। घरेलू स्तर पर भी स्त्रियों के अधिकार नगण्य हैं। उन्हें पांव की जूती मानने वालों की कमी नहीं। तरह-तरह के बंधनों में उन्हें जकड़ा हुआ है और यह सब धर्म और संस्कृति के नाम पर होता है।

दलित साहित्य को लेकर आपकी भविष्य में क्या रणनीति है और क्या योजना है?

दलित साहित्य को लेकर भविष्य में रणनीति और योजना को लेकर इस तरह अभिव्यक्ति नहीं किया जा सकता है। किसी एक लेखक के करने से कुछ नहीं होता। एक समूह होता है लेखकों का। वह अपनी रचनाओं के माध्यम से आने वाले समय को तय करता है।

वरिष्ठ दलित साहित्यकारों ने मार्ग तैयार किया है उस पर चलने के लिए उभरते दलित रचनाकारों का आप कैसे मार्ग दर्शन करना चाहेंगे?

भरते रचनाकारों को अपनी दृष्टि को साफ करने के लिए अपनी अध्ययनशीलता को बढ़ाना होगा और साहित्य के सरोकारों को गम्भीरता के साथ विश्लेषण करके समझना होगा। आज जिस तरह से स्थितियां बदल रही हैं, उनमें कई तरह की चुनौतियाँ हमारे सामने हैं। उन चुनौतियों को दूर करना और अपनी प्रतिबद्धता के द्वारा समाज में बदलाव की प्रक्रिया को, रचनाओं के द्वारा रेखांकित करना होगा।

क्या हिन्दी दलित साहित्य पर मराठी दलित साहित्य का प्रभाव है?

दलित साहित्य की शुरुआत महाराष्ट्र से हुई है और डॉ. अम्बेडकर का आन्दोलन भी पहले महाराष्ट्र में शुरू हुआ और इसके बाद ही देश के अन्य राज्यों में उसका विस्तार हुआ। इस विस्तार के कारण ही हिन्दी में दलित साहित्य का विकास हुआ और यह कोई अनुचित बात नहीं है। एक जगह से दूसरी जगह पर साहित्य का प्रभाव पड़ता है। हिन्दी में इससे पूर्व ऐसी घटनाएं हुई हैं। भक्ति काव्य दक्षिण के प्रभाव से शुरू हुआ। छायावाद पर यूरोप के रोमान्टिक प्रभाव को देखा जा सकता है। निराला पर विवेकानन्द और रामकृष्ण परमहंस का प्रभाव देखा जा सकता है। प्रेमचन्द पर आर्य समाज का प्रभाव, गाँधीवाद का प्रभाव देखा जा सकता है। प्रगतिवाद और प्रयोगवाद पर मार्क्स का प्रभाव देखा जा सकता है। जनवादी दौर की तमाम कहानियाँ वामपंथी प्रभाव से मुक्त नहीं हैं।

आप कहानियाँ लिखते हैं आप अपनी कहानियों के माध्यम से शोषितों को क्या संदेश देने का प्रयास कर रहे हैं, विस्तार से बताने का कष्ट करेंगे, साथ ही यह भी बताने का कष्ट करेंगे कि समाज में घुसपैठिए कहाँ-कहाँ पर मौजूद हैं?


कहानी मैं सिर्फ शोषितों के लिए नहीं लिख रहा हूँ। मैं कहानियाँ लिख रहा हूँ शोषितों के दर्द को, उनकी वाणी को शब्द देने के लिए ताकि शोषकों के छद्म और शोषण की सही-सही तस्वीर साहित्य के माध्यम से लोगों तक जा सके। वे तमाम लोग जो ये कहते हैं कि देश में जातिवाद नहीं है उन्हें बताया जा सके कि देश में जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं और जहाँ तक घुसपैठियों का सवाल है ऐसे लोगों की कमी नहीं है। जो दलितों की हर-एक गतिविधि को अपने कार्य क्षेत्रों में अनावश्यक घुसपैठ मानते हैं। जबकि यह उनकी घुसपैठ नहीं, बल्कि ये उनका मौलिक अधिकार है कि वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकें।
कुछ दलित साहित्यकार अपने को डॉ. अम्बेडकर से भी बड़ा स्थापित करने की जुगाड़ में रहते हैं? उनसे दलित साहित्य का कितना भला होगा।

ऐसे लोगों से साहित्य का भला तो बाद की बात है, वे पहले अपने को ही बड़ा बना लें और यदि कोई व्यक्ति डॉ. अम्बेडकर से अपने को ही बड़ा बना लेता है तो यह हीनता की नहीं गर्व की बात होगी लेकिन उससे पहले उसे अपने इर्द-गिर्द अच्छी तरह से देख लेना चाहिए कि वह कहाँ खड़ा है। झूठ ज्यादा दिन नहीं चलता, मुखौटे में भी चेहरा तो दिखायी दे ही जाता है।
साहित्य में दलित विमर्श क्या है? साहित्य में यह कब प्रारम्भ हुआ और वर्तमान में उसकी क्या स्थिति है?

साहित्य में दलित विमर्श से सीधा-सीधा तात्पर्य दलित साहित्य आन्दोलन और अम्बेडकर विचारधारा से है। इसका सूत्रपात डॉ. अम्बेडकर के आन्दोलन से हुआ जो आज भी जारी है। यह विमर्श दलित मुक्ति से जुड़ा है।
दलित आन्दोलन का दलितों के व्यापक धरातल पर क्या कोई प्रभाव पड़ रहा है? अगर पड़ रहा है तो किस प्रकार?

बिलकुल पड़ रहा है जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दलितों ने अपनी उपस्थिति दर्ज की है। जिसकी प्रेरणा उन्हें दलित आन्दोलन से ही मिली है और भविष्य में भी इसके सकारात्मक परिणाम दिखायी देंगे। आज दलितों में मुक्ति की छटपटाहट बढ़ी है। वे समाज में समता, बंधुता के लिए संघर्षरत हैं और यह सब दलित आन्दोलन से प्रेरित होकर हुआ है, इसमें दलित साहित्य ने सकारात्मक भूमिका निभायी है।

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Friday, January 9, 2009

रोज़ सुबह अखबार में

-राजेन्द्र राज

अम्मा ने लगाई फटकार
लालू उठकर हुए तैयार
चारे की रकम में से
सौ साड़ियाँ भिजवाईं हैं।

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Wednesday, January 7, 2009

बलबीर बन्ना

राजेन्द्र राज

जब मुस्कराते हैं
कितने कत्ल कर आते हैं
जहाँ खड़े हो जाते हैं
वहीं शुरू हो जाते हैं

शाम सहेली है इनकी
रोज़ सज-धज कर आती है
रात जब अकेली होती है
इनके घर सो जाती है

जीन्स पैन्ट और टी-शर्ट में
ये कहर ढ़ाते हैं
काला चश्मा लगा लें तो
आइटम-सोंग हो जाते हैं

इनकी अदाओं पे मरती हैं
आधी लड़कियाँ शहर की
आधी कुछ समझदार हैं
इनकी गली से गुजरती नहीं

सुबह-शाम तफ़्रीह करने
ये बाग़बां में जाते हैं
चम्पा-चमेली और जूही को
इशारों में बुलाते हैं

रीबॉक के पहनके जूते
बन्ना जब जमीन पर चलते हैं
जमाने भर की लड़कियों के
दिल के अरमान मचलते हैं

बन्ना ने कसम खाई है
जिएँगे तो ऐसे ही
माँ-बाप ने आखिर दौलत
किसलिए कमाई है

मैक्-डोनाल्ड्स में इनके लिए
एक टेबल बुक रहती है
दिलकश हसीन लड़कियाँ
आई.लव.यू. कहती हैं

बन्ना जब फिसल जाते हैं
दोनों हाथों से लुटाते हैं
अपनी जवानी को छोड़कर
बाकी सब छोड़ आते हैं

इनके दो चार चेले हैं
जो दुनिया में अकेले हैं
चलते हैं बन्ना के संग
खुली शर्ट और जीन्स तंग

एक शाम बन्ना को
लड़की एक भा गई
घर में अकेली थी
छत पर आ गई

बन्ना को देखे बिना ही
वो ऐसे शरमा गई
उसकी शादी की तारीख
जैसे क़रीब आ गई

बन्ना ने भेजा उपहार
उसने कर दिया इन्कार
बन्ना ने लगाई पुकार
लड़की ने कहा खबरदार

बन्ना का खान: खराब है
दोनों हाथों में शराब है
जो खो गया वो शबाब है
जो मिल गया बो जवाब है

बलबीर बन्ना जब मुस्कराते हैं
कितने कत्ल कर आते हैं
जहाँ खड़े हो जाते हैं
वहीं शुरू हो जाते हैं।

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Tuesday, January 6, 2009

वेदना का वृक्ष

SEEMA GUPTA


विद्रोह कर आंसुओ ने,
नैनो मे ढलने से इंकार किया
ओर सिसकियाँ भी
कंठ को अवरुद्ध करके सो गयी
स्वर का भी मार्गदर्शन
शब्दों ने किया नही
भाव भंगिमाएं भी रूठ कर
लुप्त कहीं हो गयी
अनुभूतियों का स्पंदन भी
तपस्या में विलीन हुआ
वेदना के वृक्ष की ऊँचाइयों को
स्पर्श दिल ने जब किया .......

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Monday, January 5, 2009

उत्तर-आधुनिकतावाद को एक मुहावरे के रूप में अपनाये जाने से हिन्दी आलोचना का कोई ज्यादा भला होने वाला नहीं है : प्रो. मैनेजर पाण्डेय


देवेन्द्र चौबे, अभिषेक रौशन, उदय कुमार एवं रेखा पाण्डेय
प्रो. पाण्डेय, देरिदा कहते हैं कि इतिहास एक पाठ है, उसका कोई निश्चित अर्थ नहीं होता है। देरिदा की इस धारणा के आलोक में उत्तर-आधुनिकता के बारे में आप क्या सोचते हैं?
देखिए, एक तो देरिदा खुद को उत्तर-आधुनिक नहीं मानते, और वैसे भी उत्तर आधुनिकतावाद का कोई सुनिश्चित अर्थ नहीं है। उत्तर-आधुनिकतावाद के बहुत सारे विचारक या कहिए कि जिनको उत्तर-आधुनिकतावाद का विचारक माना जाता है, उनमें से अनेक लोगों ने यह स्वीकार किया है कि हम उत्तर-आधुनिकतावादी नहीं हैं। इसलिए एक तो देरिदा के इस कथन को उत्तर-आधुनिकतावादी कथन नहीं माना जा सकता। इस कथन की अलग से व्याख्या और उस पर बात की जाए, यह समझ में आता है। आपके सवाल से एक बात यह भी जुड़ी हुई है कि जैसे देरिदा के इस कथन में सबसे अधिक महत्त्व अनिश्चितता को या .... को दिया गया है कि पाठ का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता, उसी तरह उत्तर-आधुनिकतावाद को अधिकांश स्थापनाओं के बारे में यह कहा जा सकता है कि उनका भी कोई निश्चित अर्थ नहीं है। इसलिए उत्तर-आधुनिकतावाद की तरह-तरह की व्याख्याएँ प्रचलित हुई हैं, बल्कि मैं अतिरंजना का खतरा उठाते हुए यह कह सकता हूँ कि उत्तर-आधुनिकतावाद के बारे में जितने मुँह उतनी बातें सुनाई पड़ती हैं। अब रही बात देरिदा के उस कथन की, तो उस कथन को दो-तीन संदर्भों में समझने की जरूरत है। पाठ के रूप में अब तक हम लोग लिखित पाठ जानते हैं और दर्शन के प्रसंग में यह परंपरा लम्बे काल से बनी हुई कि पुराने पाठों की नई व्याख्या करते हुए नई दार्शनिक दृष्टि का विकास होता रहा है; और मेरा ख्याल है कि जॉक देरिदा की मान्यता के मूल में दर्शन की यह परम्परा मौजूद है। पाठ का दूसरा रूप साहित्यिक कृतियों में दिखाई देता है। उत्तर-आधुनिकतावादी लेखक को महत्त्व नहीं देते। स्वयं दो विचारकों ने, रोलाबार्थ और फूको ने लेखक के बदले पाठ को महत्त्व दिया है, या बल्कि रोलाबार्थ का तो यह कथन है कि लेखक की मृत्यु की कीमत पर ही पाठ और पाठक का महत्त्व स्थापित हो सकता है। तब पाठ से पाठक का सम्बन्ध ही आलोचना का केन्द्रीय तत्त्व होगा, पाठ से लेखक का सम्बन्ध नहीं। ऐसी स्थिति में, पाठक तो बदलते रहते हैं। हर युग के नए पाठक पुरानी रचनाओं का पुराने पाठों का नया अर्थ करते हैं। इसलिए जॉक देरिदा के इस कथन का एक अभिप्राय साहित्यिक पाठों के अर्थ की अनेकता भी है। आगे एक और स्तर पर इस बात को देखा जा सकता है। सबसे अधिक परेशानी यह है कि जॉक देरिदा सब कुछ को पाठ मानते हैं। ...तो इसका मतलब है कि संसार की घटनाएँ, स्थितियाँ ये सब पाठ हैं। अब यहीं से खतरनाक अर्थ की शुरूआत होती है। मान लीजिए कि उनके अनुसार हम मान लें कि इराक पर अमेरिकी हमला की घटना एक पाठ है, तो इतनी दूर तक तो सही होगा कि उसका एक अर्थ जार्ज बुश अपना लगाते हैं और दूसरा अर्थ इराक की जनता लगाती है और दोनों अर्थों की टकराहट हो रही है इतिहास की प्रक्रिया में। पर सवाल यह है कि वह दोनों में से किसी एक अर्थ को स्वीकार करें, क्योंकि यह कहना काफी नहीं होगा कि इस घटना रूपी पाठ के दो अर्थ हैं, बल्कि दो अर्थ कहने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए यह तो बाहर बैठे आदमी को बताना ही पड़ेगा कि वह किस अर्थ को सही समझता है। इसलिए जॉक देरिदा के इस कथन में अर्थ की अनिश्चितता के साथ-साथ विचारक की नैतिक स्थिति की भी अनिश्चितता है और ऐसी स्थिति में अर्थ का अनर्थ होने लगता है। मान लीजिए कि हम बाबरी मस्जिद के ध्वंश को भी एक घटना और पाठ के रूप में देखें तो उसका एक अर्थ हिन्दूवादी लोग करते हैं, दूसरा अर्थ मुसलमान करते हैं और तीसरा अर्थ इस देश के लोकतांत्रिक चेतना वाले लोग करते हैं और यह कहना कि तीनों अर्थ बराबर सही हैं कुछ भी कहना नहीं है, बल्कि अपनी नैतिक जिम्मेदारी से बचना है। इसलिए जॉक देरिदा के पाठ में फिसलन की संभावना बहुत है और इस तरह के मुहावरेदार वाक्यों के ऐसे ही खतरे हुआ करते हैं।
आज भारत में विचारधाराओं को लेकर जो सारी बहसें हो रही हैं उसमें उत्तर-आधुनिकतावाद से संबंधित बहस को आप किस रूप में देखते हैं?
देखिए, जहाँ तक मुझे मालूम है कि हिन्दुस्तान की बहुत सारी भाषाओं में उत्तर आधुनिकतावाद के बारे में बातें हो रही हैं, बहसें हो रही हैं, हम उनको नहीं जानते, आप भी नहीं जानते। दो भाषाएँ ऐसी हैं जिनमें होने वाली बहसों से हम परिचित हैं, एक तो हिन्दी दूसरी भाषा है अंग्रेजी। अंग्रेजी में जो उत्तर-आधुनिकतावाद से संबंधित बहसें हैं, वह पश्चिम में होने वाली बहसों का विस्तार हैं। मुझे हिन्दुस्तान के किसी अंग्रेजी लेखक की ऐसी किताब या ऐसा लेख पढ़ने को नहीं मिला है जो उत्तर-आधुनिकतावाद के बारे में कोई नई बात कहता हो। हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावाद पर जो बहस है वह और भी खराब स्तर की है। हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावाद पर कोई गंभीर बहस हुई ही नहीं है, न तो उसकी व्याख्या करने वाली बहस, न उसके पक्ष को ठीक से प्रस्तुत करने वाली बहस और न उसका विरोध करने वाली बहस; बल्कि मैं तो अभी यही कह सकता हूँ कि हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावाद के बारे में जो कुछ लिखा गया है वह बहुत कुछ पश्चिम में और वह भी अंग्रेजी के माध्यम से उत्तर-आधुनिकतावाद के बारे में जो बातें कही गयी हैं, उनकी पुनर्प्रस्तुति ही हिन्दी में हुई है। मतलब हिन्दी में जो उत्तर-आधुनिकतावाद पर लिखने वाले हैं उनमें सबसे अधिक तो सुधीश पचौरी ही लिखते रहते हैं और जाहिर है कि वे काफी उत्तर-आधुनिकतावादी भाषा में उत्तर-आधुनिकतावाद पर लिखते हैं। इसलिए उनके लेखन से भी उत्तर-आधुनिकतावाद का कोई स्वरूप लोगों के सामने स्पष्ट हुआ हो, ऐसा नहीं है। हाँ, इस बहस के प्रसंग में मैं यह जरूर कहूँगा कि असल में उत्तर-आधुनिकतावाद की बुनियादी बहस मार्क्सवाद से है। अपने यहाँ मार्क्सवादियों ने भी उत्तर-आधुनिकतावाद से पैदा हुए सवालों का कोई बहुत अच्छा उत्तर दिया हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। मेरी अपनी जानकारी में दो लोग हैं, एक तो प्रो. रणधीर सिंह और दूसरे एजाज अहमद, जिन्होंने उत्तर-आधुनिकतावाद पर गंभीरता से बहस करने की कोशिश की है मार्क्सवाद की ओर से बहस करने की कोशिश की है। इसलिए मैं कहूँगा कि अभी उत्तर-आधुनिकतावाद को ठीक से समझने-समझाने की जरूरत हिन्दी में बनी हुई है। देखिए, मैं विचार और आलोचना के प्रसंग में इस धारण को महत्त्व देता हूँ कि किसी भी विचार को अस्वीकार करने से बेहतर है कि उसको गलत साबित करना, अगर आपको वह गलत लगता है तो। क्योंकि अस्वीकार करने में कुछ बौद्धिक प्रयास नहीं लगता, गलत साबित करने में बौद्धिक प्रयास की जरूरत होती है। इसलिए हिन्दी में उत्साही मार्क्सवादियों ने उत्तर-आधुनिकतावाद को अस्वीकार करने का काम बहुत अधिक किया है और उसे गलत साबित करने का काम बहुत कम किया है।
उत्तर-आधुनिकतावाद के समर्थन में यह तर्क दिया जाता है कि इससे स्थानीय स्वायत्तता और विकेन्द्रीकरण की जमीन मजबूत हुई है और उत्तर उपनिवेशवादी साहित्य, तीसरी दुनिया का साहित्य, नारी एवं अश्वेत लेखन, दलित साहित्य आदि केन्द्र में आए हैं। आप इस तर्क से कहाँ तक सहमत हैं?
देखिए, एक बात तो यह है कि हिन्दी में या सारी दुनिया में आपने जिन-जिन समस्याओं की चर्चा की है उन तीनों समस्याओं पर गंभीर बहसें उत्तर-आधुनिकतावाद के आने के बहुत पहले से चल रही हैं। मतलब स्त्रीकी स्वाधीनता और पराधीनता के प्रश्न पर बहस, भारतीय समाज के प्रसंग में दलितों की पराधीनता और स्वाधीनता पर बहस या फिर उसी से जुड़ा हुआ दलित साहित्य का प्रश्न और इसके साथ ही केन्द्र बनाम हाशिए का द्वंद्व, इन सब पर बहसें उत्तर-आधुनिकतावाद के आने के बहुत पहले से चल रही हैं। बात यह है कि उत्तर-आधुनिकतावाद केवल शब्द नहीं, बल्कि एक विचार प्रक्रिया के रूप में इतिहास पर आप ध्यान दें तो मालूम होगा कि कुल मिलाकर १९८० के आस-पास से इसकी शुरूआत होती है। थोड़ा पहले आप फूको को उसमें जोड़कर देखें तो थोड़ा और पीछे जाएँगे ७० के दशक में, अन्यथा सब लोग जानते हैं लेकिन स्त्रियों की स्वाधीनता के प्रश्न पर हम सारी दुनिया को छोड़ भी दें तो हिन्दी में ४० के दशक से बहस चल रही है कम या ज्यादे। मतलब महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक श्रृंखला की कड़ियाँ १९३५ के आस-पास उनके लिखे निबंधों का ऐसा संकलन है जो पुस्तकाकार १९४२ में छपा। मतलब हिन्दी में और हिन्दुस्तान में स्त्रियों की स्वाधीनता का सवाल देश की स्वाधीनता के सवाल से जुड़ा हुआ दिखाई देता है और उसके बाद आप देख सकते हैं हिन्दी में स्त्रियों की स्वाधीनता का एक बड़ा प्रमाण उनकी स्वतंत्र रचनाशीलता में दिखाई देता है। हिन्दी साहित्य में स्त्रियों को रचनाशीलता का इतिहास भी छिट-पुट ही सही बहुत पुराना है लेकिन व्यवस्थित रूप से उसकी शुरूआत नई कविता, नई कहानी के दौर से दिखाई देती है। अब रही बात दलित साहित्य की तो देखिए, हिन्दी में दलित साहित्य बाद में आया, पर मराठी में दलित साहित्य उत्तर-आधुनिकतावाद के बहुत पहले से स्थिर और स्थापित धारा के रूप में मौजूद है और हिन्दी के दलित लेखक उत्तर-आधुनिकतावाद से जितना परिचित हैं, प्रेरित हैं और प्रभावित हैं उससे बहुत अधिक वह मराठी के दलित लेखक से परिचित, प्रेरित और प्रभावित हैं। रही बात केन्द्र और हाशिए के द्वंद्व की, तो बहुत पहले बीसवीं सदी के दूसरे या तीसरे दशक की बात होगी, ...केन्द्र और हाशिए की बहस स्वयं आधुनिकतावादी विचार और रचनाशीलता में मौजूद रही है, इसलिए यह कहना कि उत्तर-आधुनिकतावाद के कारण स्त्रियों की स्वाधीनता, दलित लेखन या केन्द्र और हाशिए पर बहस की शुरुआत हुई उससे कोई दिशा मिली है मुझे एकदम ठीक नहीं लगता। हाँ, यह जरूर कहूँगा कि उत्तर-आधुनिकतावादी चिंतन ने इन तीनों प्रसंगों में थोड़ी मद्द की है, क्योंकि पहले के दिनों में ये सब विवाद के विषय के उत्तर-आधुनिकतावाद ने इन सबके महत्त्व को नए रूप में स्थापित करने में मद्द की है। इसलिए व्यक्ति की स्वायत्तता, समुदायों की स्वतंत्रता और समाज में हाशिए पर रहने वाले लोगों की ताकत का अहसास, यह उत्तर-आधुनिकतावाद की मद्द से बेहतर रूप में समझा गया है। इसलिए मैं यह जरूर कहूँगा कि ये सारी बहसें पुरानी हैं, पर उत्तर-आधुनिकतावाद ने इन बहसों को नई धार देने में मद्द की है।
मार्क्सवादी चिंतन का आधार आर्थिक विश्लेषण था। उत्तर-आधुनिकतावाद आर्थिक पक्ष के प्रति उदासीन है। क्या यह सही नहीं है कि आर्थिक पक्ष के प्रति उदासीनता के कारण ही मार्क्सवादी विचारक उत्तर-आधुनिकतावाद की आलोचना करते हैं?
हाँ, पर बात सही है। देखिए, उत्तर-आधुनिकतावाद असल में सामाजिक संरचना को महत्त्व नहीं देता और इसीलिए वह वर्ग को भी महत्त्व नहीं देता। मुझे तो लगता है कि यह उत्तर-आधुनिकतावाद का एक अंतर्विरोध है कि आप सुबह से शाम तक हाशिए के लोगों की बात तो करें, पर सर्वहारा की बात आते ही नाक-भौं सिकोड़ने लगें। स्वयं पूँजीवादी व्यवस्था के हाशिए पर रहता है सर्वहारा वर्ग। लेकिन मार्क्सवादियों ने असल में जब उत्तर-आधुनिकतावाद की आलोचना की है तो इसलिए भी की है कि उत्तर-आधुनिकतावादी, सामाजिक, राजनीतिक द्वंद्व, संघर्ष और किसी भी तरह से मुक्ति के प्रयास को महत्त्व नहीं देते। वे बल्कि अधिक से अधिक द्वंद्व को विचार के स्तर तक स्वीकार करते हैं; बहस के स्तर पर उसको मानते हैं, लेकिन सामाजिक व्यवहार में भी उसको लागू करना जरूरी है यह वे स्वीकार नहीं करते और तब मुझे वाल्टर बेंजामिन का एक कथन याद पड़ता है कि पूँजीवाद और सर्वहारा के बीच लड़ाई विचारकों के दिमाग में नहीं, समाज में होती है। पर समाज में जो लड़ाई होती है वह लड़ाई किसी भी तरह से उत्तर आधुनिकतावादियों को स्वीकार नहीं। मुझे फूको का एक ... याद पड़ रहा है जिसमें उन्होंने कहा था कि एक स्तर पर हम सब लोग आंतरिक द्वंद्व से गुजरते हैं। अब दिमाग के भीतर द्वंद्व हो यह वे मानते हैं लेकिन समाज में वह द्वंद्व हो और निर्णायक दौड़ तक पहुँचे, यह उनके लिए महत्त्व की बात नहीं है। वे यह बात पहली बार थोड़े कह रहे हैं। बहुत पहले जयशंकर प्रसाद कामायनी में कह चुके हैं कि -
देवों की विजय दानवों की
हारों का होता युद्ध रहा
संघर्ष सदा उर अन्तर में
जीवित रह नित्य विरुद्ध रहा।
मतलब यह कि मनुष्य की चेतना के भीतर अच्छी प्रवृत्तियों और बुरी प्रवृत्तियों जिसको वे दैवी और आसुरी प्रवृत्तियाँ कहते हैं उनके बीच द्वंद्व चलता ही रहता है। जयशंकर प्रसाद के इस कथन के लगभग ५०-६० साल बाद बहुत नई बात की तरह जो फूको ने कहा वह वही है जो जयशंकर प्रसाद कह चुके। इसलिए मार्क्सवादी जब उत्तर-आधुनिकतावाद का विरोध करते हैं तो इसलिए भी कि उत्तर-आधुनिकतावादी मुक्ति को किसी धारणा और कोशिश को महत्त्व नहीं देते। उत्तर-आधुनिकतावादी दिमागी गुलामी की बात तो करते हैं पर सामाजिक और राजनीतिक गुलामी की बात नहीं करते और उस तरह की गुलामी से छुटकारा पाने के लिए जो संघर्ष है उसको भी महत्त्व नहीं देते। इसलिए बहुत लोगों का ख्याल है कि उत्तर-आधुनिकतावाद ने एक तरह से संघर्षशील चेतना को लकवाग्रस्त करने का प्रयास किया है कि हर चीज केवल बौद्धिक बहस तक सीमित रह जाए। समाज में जो संघर्ष है और द्वंद्व हैं वह केवल बौद्धिक बहसों से हल नहीं होंगे।
उत्तर-आधुनिकतावादी मजदूरी को सेवा का नाम देते हैं इस पर आपकी कोई टिप्पणी....।
फ्रांस के एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री थे। अभी उनकी क्मंजी हुई है। उन्होंने कहा है कि पंडिताऊ शास्त्रार्थ की प्रवृत्ति उत्तर-आधुनिकतावाद में दिखाई देती है। मतलब यह कि मजदूरी को सेवा कहना, उसमें से शोषण के बोध को गायब करना। शोषण का बोध नहीं होगा तो संघर्ष की संभावना भी नहीं होगी। इसीलिए मैं बार-बार कहा करता हूँ कि उत्तर-आधुनिकतावाद असल में पूँजीवाद के वर्तमान दौड़ की रक्षा करने वाली विचारधारा है।
उत्तर-आधुनिकतावादी कहते हैं कि सर्वहारा वर्ग खत्म हो गया वे सब मध्य वर्ग में शामिल हो गए हैं। उनकी इस मान्यता पर आपका क्या सोचना है?
अरे,मतलब सपने में ऐसा हो गया होगा। सपनों पर तो मेरा नियंत्रण नहीं है।जाकर पूछना चाहिए कि भारत जैसे देश में जहाँ लाखों मजदूर बेकार हैं और दस हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली है ये जीवन से मुक्त होकर मध्य वर्ग में शामिल हुए हैं क्या? इस मूर्खतापूर्ण मान्यता पर मैं क्या कह सकता हूँ। आप उन किसानों से जाकर अब तो खैर कैसे पूछेंगे आप, जिन्होंने आत्महत्या कर ली। उनके घर-परिवार के लोग बता सकते हैं कि वे मध्य वर्ग में शामिल हुए हैं या प्रेतों में शामिल हो गए हैं।यह बहुत ही भ्रामक, मैं कह सकता कि छल-छद्म से भरी हुई बातें हैं।
हिन्दी आलोचना में एक दौर ऐसा था जब आधुनिकता और-आधुनिकतावाद की चर्चा थी। आज उत्तर-आधुनिकतावाद की चर्चा जोरों पर है। आधुनिकता और-आधुनिकतावाद से उत्तर-आधुनिकतावाद की यह यात्रा साहित्य और समाज की वास्तविकताओं से कितना जुड़ा है?
भई देखो, बात यह है कि यह तो मैं मान सकता हूँ कि आजकल हिन्दी आलोचना में उत्तर-आधुनिकतावाद की चर्चा बहुत है, लेकिन मेरी जानकारी में हिन्दी में कोई उत्तर-आधुनिकतावादी आलोचना नहीं है, मैं सुधीश पचौरी को याद करते हुए यह बात कहना चाहता हूँ। उसका एक कारण है कि उत्तर-आधुनिकतावादी रचनाशीलता भी हिन्दी में अभी उस तरह से विकसित नहीं हुई है जिसकी उत्तर-आधुनिकतावादी औजारों से ही व्याख्या करने की स्थिति बनती हो। इसलिए यह पूरी बहस ठोस आलोचना पर होने के बदले केवल विस्तार के स्तर पर मौजूद है। लेकिन आधुनिकता और आधुनिकतावाद से संबंधित जो बहस थी वह गहरे स्तर पर आलोचनात्मक बहस थी। क्योंकि आधुनिकता रचनाशीलता और-आधुनिकतावादी रचनाशीलता के विकास के साथ-साथ आधुनिक और-आधुनिकतावादी आलोचना का भी विकास हुआ। हिन्दी में उसका क्षेत्र बहुत लम्बा है। आप उसको आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से लेकर नामवर सिंह तक में देख सकते हैं और देखिए, जब आधुनिक कहा जाता है तो मैं तो मार्क्सवाद को भी आधुनिकता का ही एक रूप समझता हूँ। यद्यपि तब मार्क्सवादियों ने आधुनिकतावाद का विरोध किया लेकिन आधुनिक और-आधुनिकतावाद में फर्क करने की जरूरत है। मैं इसलिए आधुनिक विचारधाराओं के अन्तर्गत मार्क्सवाद को रखता हूँ, आधुनिकतावाद को इससे अलग रखता हूँ। जैसी रचनाशीलता, आधुनिकता और-आधुनिकतावाद के साथ हिन्दी में विकसित थी, वैसी रचनाशीलता और आलोचना अभी उत्तर-आधुनिकतावाद से प्रेरित-प्रभावित होकर हिन्दी में विकसित नहीं हुई है।
आपने एक साक्षात्कार में कहा है कि आलोचना को कोई वाद वहीं तक मद्द कर सकता है जहाँ तक वह रचना की अर्थवत्ता और सार्थकता समझने में सहायक हो। उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में यह बात कहाँ तक सच है?
देखिए, उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि यह हवा में तैरते विचारों को पकड़कर अपना व्यवसाय चलाने की कोशिश है। यह ठीक है कि मार्क्सवाद से या मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि से आप पुराने साहित्य की भी व्याख्या कर सकते हैं। लोगों ने कालिदास से लेकर भक्तिकाल होते हुए छायावाद तक की व्याख्या मार्क्सवादी दृष्टि से की है। मार्क्सवादी दृष्टि से गैर मार्क्सवादी रचनाओं की व्याख्या करना जिस तरह संभव है उसी तरह उत्तर-आधुनिकतावाद दृष्टि से गैर उत्तर आधुनिकतावादी और पुरानी रचनाओं की व्याख्या करना भी संभव है। लेकिन यह तभी संभव होगा जब पहले उत्तर-आधुनिकतावाद की व्यवस्थित समझ विकसित हो। मेरी चिन्ता और शिकायत यह है कि अभी हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावाद की व्यवस्थित समझ ही पैदा नहीं हुई है। उत्तर-आधुनिकतावाद की एक स्थापना यह है कि साहित्य के प्रसंग में शास्त्रीय और लौकिक के बीच कोई फर्क नहीं है। ... अगर आप इसको रचना के स्तर पर देखना चाहें तो नागार्जुन की मंत्र कविता में इसको देखा जा सकता है। बाबा ने लौकिक और शास्त्रीय दोनों को मिलाने की कोशिश की है और बहुत सफल कोशिश की है। इस कोशिश के माध्यम से उन्होंने धारदार राजनीतिक समझ की कविता लिखी है मंत्र। अब कोई चाहे और उत्तराआधुनिकतावाद के भीतर लौकिक और शास्त्रीय के द्वंद्व और दोनों की एकता की जटिलता को समझता हो, तो वह नागार्जुन की इस कविता की ठीक से व्याख्या कर सकता है। लेकिन केवल अध्ययन की सुविधा के लिए उत्तर- आधुनिकतावाद को एक मुहावरे के रूप में अपनाते जाने से हिन्दी आलोचना का कोई ज्यादे भला होने वाला नहीं है।
एक समय में मार्क्सवादी विचारधारा ने हिन्दी साहित्य की दिशा और दशा बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। क्या आपको लगता है कि उत्तर-आधुनिकतावाद वही भूमिका निभा पाएगा?
देखिए, ऐसा है कि मार्क्सवादी आलोचना ने हिन्दी आलोचना और हिन्दी साहित्य की दिशा बदलने में जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी उसका एक कारण यह भी था कि मार्क्सवादी आलोचना केवल साहित्यिक दृष्टिकोण नहीं है। वह एक साथ साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टिकोण है और इस व्यापक दृष्टि के तहत मार्क्सवादी आलोचना ने हिन्दी साहित्य में हस्तक्षेप किया और उसकी दिशा बदलने में एक भूमिका निभाई। उत्तर-आधुनिकतावाद इस तरह की समग्रता को स्वीकार नहीं करता। दूसरी बात यह भी है कि मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि का विकास अपने देश में जनसंघर्षों की लम्बी परंपरा से जुड़कर हुआ था और उसी प्रकार की रचनाशीलता भी विकसित हुई थी। हिन्दी में अभी उत्तर-आधुनिकतावादी रचनाशीलता का भी ठीक से विकास नहीं है। मैंने नागार्जुन की एक कविता का उल्लेख किया यद्यपि यह कविता लिखते समय नागार्जुन ने किसी उत्तर-आधुनिकतावाद को ध्यान में नहीं रखा था और वे जानते भी नहीं थे कि उत्तर-आधुनिकतावाद क्या है। सजग रूप से उत्तर-आधुनिकतावादी लेखक हिन्दी में मेरी जानकारी में एक ही है, वे हैं मनोहर श्याम जोशी, जो घोषित रूप से अपने उपन्यासों को उत्तर-आधुनिकतावादी मानते हैं और स्वीकार भी करते हैं। असल में जब तक हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावादी रचनाशीलता का विकास नहीं होगा तब तक उत्तर-आधुनिकतावादी आलोचना भी ठीक से विकसित नहीं होगी। इसीलिए मैं सारांश के रूप में कहूँ तो उत्तर-आधुनिकतावादी आलोचना दृष्टि महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, यद्यपि वह मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि का स्थानापन्न कभी नहीं बनेगी। लेकिन उसकी एक भूमिका हो सकती है बशर्तें कि एक तो स्वयं उत्तर-आधुनिकतावाद की शक्ति और सीमाओं का स्पष्ट बोध हो और दूसरे उत्तर-आधुनिकतावादी रचनाशीलता का भी विकास हो और तीसरे इन दोनों के बीच एक द्वंद्वात्मक संबंध का निर्माण हो।

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Sunday, January 4, 2009

अदब से ही रिश्ता बाकी रहा : जाबिर हुसेन

रामधारी सिंह दिवाकर
आपके रचनाकर्म पर मरगंगा में दूब किताब लिखते समय मुख्यतः आपकी कृतियां ही मेरे सामने थीं। आपके परिवार या आपकी वंश-परंपरा के विषय में जानने की कोशिश मैंने नहीं की। अब चाहता हूं कि आपकी जिंदगी के कुछ अनजाने पक्ष भी हमारे सामने आयें। क्या आप अपने और अपने परिवार के विषय में कुछ बताना चाहेंगे?
मैंने अपने बारे में बहुत कम लिखा या कहा है, बल्कि नहीं के बराबर। इस मामले में अपने को औरों से थोड़ा अलग महसूस करता हूँ। जरूरत हो तो भी अपने रिश्तेदारों का जिक्र करने से परहेज करता हूँ। मैं उनमें नहीं, जो अपनी कारगुजारियाँ बयान करते वक्त अपने बाप-दादों की सिफतों का सहारा लेते हैं। बस इतना ही काफी है जानना कि मेरा खानदान कई पीढ़ियों से इल्म-व-अदब की ख़िदमत करता रहा है। कई अहम्‌ शायर-अदीब हुए हैं, अपने खानदान में। वालिद, चचा, फूफा, भाई-बहन, सब शायरी, अफसानानिगारी में अच्छी-खासी शोहरत के मालिक रहे हैं। बहार हुसैनाबादी, परवीन शाकिर, अख्तर पयामी, शीन अख्तर, महदी अली, जीशान फातमी, इनमें से कुछ हैं। बहार हुसैनाबादी ने तो अपनी उर्दू-फारसी शायरी से अपने समकालीन गजलगो शायरों को हैरत में डाल दिया था।
अपना रिश्ता सूफी परंपरा से रहा है। सात-आठ सौ वर्षों की अपनी तारीख़ लिखी मिलती है। मनेरशरीफ के सूफियों से अपना सिलसिला जुड़ा है। शाह शुएब अपने पुरखों में हैं। कइयों को बादशाहों और अंग्रेज शासकों के हाथ जाम-ए-शहादत पीने की नौबत आई है। उसूलपसंदी, ईमानदारी, इल्म-दोस्ती विरासत में मिली है। कोई अनर्गल आरोप लगाता है तो मन में आरोप लगाने वाले के प्रति दया का भाव जागता है। जो हमारी जड़ों से वाकिफ नहीं और जो अपनी जड़ों को ही हमारी जड़ समझने की भूल करता है, वही आरोप लगाने की कोशिश करता है। मुझे ऐसे लोगों पर तरस आता है।
मुझे नहीं मालूम इल्म-व-अदब की हमारी परंपरा और कितना आगे जायेगी। हमारे बाद की नस्लें इसे आगे बढ़ा सकेंगी, तभी तो हमारी विरासत महफूज रह पायेगी। कभी-कभी हालात मुझे मायूस कर देते हैं। लोगों में इल्म हासिल करने के लिए कोई बेचैनी नहीं रह गई है। आसानी से सब कुछ मिल जाए, यही जिंदगी का मकसद हो गया है।
कुछ अपनी अदबी तालीम, औपचारिक शिक्षा के बारे में बतायेंगे।
अदब की तालीम तो बस घर के माहौल ने दी है। सोचने-समझने की सलाहियत हुई तो देखा कि खानदान में अपने बड़े भाई अख्तर पयामी की जेहानत और शायरी की धूम मची है। सबकी जबान पर उनकी नज्में हैं, अशआर हैं। फिर शीन अख्तर की कहानियों का दौर आया। दोनों भाइयों की सियासी सरगर्मियों ने भी दिल-व-दिमाग़ में हरकत पैदा कर दी। स्कूल के दिनों से ही बीड़ी मजदूरों के संगठन से जुड़ गया। उनके सम्मेलनों, सभाओं में सक्रिय भागीदारी होने लगी। वालदैन को भाइयों की तरह मेरे बिगड़ने का भी अंदेशा हुआ तो सख्तियां बढ़ गयीं। पढ़ाई में अव्वल आते रहने की वजह से शिकायत का कोई मौक़ा उन्हें कभी नहीं मिला। अपनी ख्वाहिश राजनीति विज्ञान पढ़ने की थी, लेकिन वालिद ने अंग्रेजी साहित्य की डोर हाथों में थमा दी। फिर तो बस अदब से ही रिश्ता रह गया, बाकी चीजें पीछे छूट गईं। केन्द्रीय सेवाओं के इम्तेहान में बैठा, कामयाबी मिली, लेकिन किस्मत कहीं और ले जाना चाहती थी। फिर कालेज की नौकरी में आ गया। रिद्म ऑफ विजन इन हार्ट क्रेन्स पोयटरी शीर्षक से शोध-निबंध लिखा। आपातकाल के दौरान पुलिस कार्रवाई में शोध-निबंध की सारी पांडुलिपि नष्ट हो गई। किताबों का बड़ा सरमाया भी जाता रहा। आज भी इसकी याद आने पर गहरी टीस महसूस होती है।
आप हिंदी और उर्दू भाषाओं में लिखते हैं। क्या कभी आपके सामने अभिव्यक्ति की माध्यम-भाषा को लेकर कोई आंतरिक संकट महसूस हुआ? आपके आरंभिक लेखन के पीछे कौन-सी प्रेरणाएं थीं।
स्कूल-कालेज के दिनों से ही लिखने-पढ़ने का शौक गहराया। घर का माहौल ही ऐसा था कि अपनी पहचान बनाने के लिए कुछ न कुछ लिखना लाजिमी था। आरंभ में नज्में लिखीं, कविताएं लिखीं। पत्रिाकाओं में छपीं। आरंभिक रचनाएं सज्जाद जहीर की पत्रिका में प्रकाशित हुईं। बड़े प्यार से बीड़ी मजदूरों की तहरीक से जुड़ी मेरी रिपोर्टें और नज्में छापते थे। उन दिनों मैं आठवीं-नवीं कक्षा में था। नज्में छपने लगीं तो वालदैन की वहशत बढ़ी। वो दरअसल मुझे अफ़सर बनाना चाहते थे। लेकिन अपनी मिट्टी में ही सरकारी तंत्र से तनावपूर्ण दूरी रखने की ख़ासियत छिपी थी। भाषा को लेकर मुझे कोई समस्या नहीं रही। हिंदी-उर्दू दोनों भाषाओं में लिखता रहा। मेरे लिए बता पाना मुश्किल है कि कौन-सी रचना पहले किस भाषा में लिखी गई। ज्यादातर रचनाएं एक साथ दोनों भाषाओं में लिखी गईं। शुरू के दिनों में संस्कृत और फारसी का प्रभाव अधिक रहा। यह प्रभाव दरअसल मेरे शिक्षकों की देन थी। आहिस्ता-आहिस्ता, शायद कालेज के दिनों में, मैंने इस प्रभाव पर काबू पाने की कोशिश की। बाद के अनुभवों ने अभिव्यक्ति के लिए अपनी भाषा खुद गढ़ ली। आगे चलकर यह भाषा मेरी नहीं रह गई, मेरे सरोकारों और अनुभवों की भाषा हो गई। मेरे कितने काम की बन पाई यह भाषा, मैं नहीं जानता। लेकिन अपने सरोकारों की तल्ख़ सच्चाई बयान करने के लिए इससे अलग किसी भाषा का इस्तेमाल मेरे लिए मुमकिन नहीं था। उर्दू के कुछ अहम्‌ लोगों को मेरी तहरीरों में हिंदी-उर्दू के मिले-जुले अलफ़ाज की मौजूदगी पर एतराज है। इस एतराज को लेकर संजीदगी से गौर करने पर मुझे महसूस होता है कि वो मुझसे ख़ालिस क्लासीकी जबान लिखने की उम्मीद रखते हैं। मैं इसका अहल नहीं हूं। मेरे लिए अपने सरोकारों और अनुभवों से हटकर कोई रचना-माध्यम तैयार करना संभव नहीं है। आगे भी शायद यह संभव नहीं हो।
आपकी कथा-डायरियों को पढ़ते हुए महसूस होता है कि तमाम घटनाएं सच्चाई की दस्तावेज हैं। एक कथाकार के रूप में सोचते हुए मुझे लगता है, इस कच्चे माल को लेकर कलात्मक रचनाएं भी लिखी जा सकती थीं लेकिन आपने ऐसा नहीं किया। क्या लेखन के यथार्थ को लेकर आपकी कुछ निजी मान्यताएं या प्रतिबद्धताएं हैं? अपनी कथा-डायरियों के वस्तुगत यथार्थ के विषय में साफ-साफ कुछ बताना चाहेंगे।
मैंने बहुत सोचकर, योजना बनाकर, गहरा परिश्रम करके अपनी कथा-डायरियों की दुनिया नहीं रची है। यह दुनिया दरअसल मेरे सामाजिक सरोकारों और संघर्षों की कोख से अपने आप जन्मी है। इसमें रचनाकार की हैसियत से मेरा कोई विशेष योगदान नहीं। मैंने सिर्फ इतना किया कि जो तजुर्बे मेरे सामने आये, जो घटनाएं मेरी आंखों ने खुद देखीं, और जिनसे होकर मैं खुद गुजरा, उनको शब्दों का जामा पहनाया और उन्हें एक कथावरण दिया। कथावरण देते समय भी मैंने यह सावधानी जरूर बरती कि मूल कथा-सामग्री पर कला की कृत्रिम परतें नहीं पड़ें। मेरे लिए कला के उस रूप को स्वीकारना कठिन हो जाता है, जो समाज को, पाठकों को जीवन के यथार्थों से कट जाने के लिए प्रेरित करता है। मुझे कला का वही रूप स्वीकार है जो उपेक्षित समाज को न सिर्फ आत्मबल प्रदान करे, बल्कि उसे हालात से जूझने के लिए मानसिक रूप से तैयार भी करे।
मैं किसी शाम पड़ोस के किसी गांव में जाता हूँ, अपनी आंखों से गांव के शोहदों की दरिंदगी की शिकार शांतीया की लाश देखता हूँ, प्रतिरोध के लिए दस-बीस गांव के सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं को तैयार करता हूँ। स्वयं पुलिस बल की ज्यादतियों का मुकाबला करता हूँ। आख़िरकार शोहदों को सजा दिलाने में कामयाब होता हूं। अब यह एक तजुर्बा मेरी कथा-डायरी का आधार बनता है। इतना जरूर है कि डायरी लिखते वक्त मैं घटना के प्रतिरोध में अपनी भूमिका को बिल्कुल गौण कर देता हूँ। ऐसा नहीं होने पर मेरी हस्तक्षेप-कार्रवाई ही डायरी के केंद्र में आ जाती और जो स्थान बलात्कार की शिकार उस दलित महिला को मिलना चाहिए वो नहीं मिल पाता। यह उदाहरण मेरी कथा-डायरी के तमाम संदर्भों को परिभाषित करता है। डायरी में बस कहीं-कहीं एक नैरेटर के रूप में मेरी मौजूदगी दर्ज होती है, वो भी बिल्कुल हाशिए पर।
मैं अपनी कथा-डायरी के अधिकांश पात्रों से गहरे तौर पर जुड़ा होता हूँ। आज भी सैकड़ों ऐसे पात्र जिंदा हैं, मेरे आसपास हैं, जिनकी यातनाओं को मैंने अपनी डायरी में दर्ज किया है। लेकिन उन्हें उनकी यातनाओं से निजात दिलाने की ख़ातिर मैंने जो लड़ाइयां लड़ीं उनका जिक्र मैंने अपनी डायरी में करना जरूरी समझा। मेरा मक़सद हालात के प्रति व्यापक समाज में तेजी से क्षीण हो रही संवेदनशीलता के तंतुओं को दोबारा जिंदा या बहाल करना था। मैं इस मक़सद में बड़ी हद तक सफल रहा हूँ। बिहार में नई सामाजिक शक्तियों के उभार तथा उनकी व्यापक गोलबंदी के पीछे इन प्रयासों की अच्छी-खासी भूमिका रही है। मैंने इस काम में अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा लगाया है। मैं सुख और समृद्धि के पीछे कभी नहीं भागा। मैंने, एक सामान्य, मध्यम वर्ग के परिवार को जो सुविधायें मिल सकती हैं, उनसे भी अपने आप को बचाने की कोशिश की। अपने लिए कांटों का यह रास्ता मैंने अपनी मजरी से चुना है, किसी और को इसका कुसूरवार नहीं ठहरा सकता। मेरी रचनाओं की मिट्टी इन्हीं सच्चाइयों से गूंधी गई है।
आपने कविताएं भी लिखी हैं। ज्यादा सहज आप कहां होते हैं, डायरी में या कविताओं में? ये दो भिन्न विधाएं क्या जाबिर हुसेन के अंतर्जगत के अलग-अलग प्रतिरूप हैं?
कथा-डायरी का रिश्ता मेरे सामाजिक सरोकारों से है, जैसा मैं पहले कह चुका हूँ। ये मेरे खुद से बाहर के सफर को रेखांकित करती है, मुझको व्यापक समाज से जोड़ती है। लेकिन कविता मेरे भीतर जो कैफ़ियत है, उसको व्यक्त करने का माध्यम बनती है। कविताओं में अपने आपसे बातें करने का अवसर मिलता है। कभी-कभी अपने आपसे बातें करना जिंदा रहने के बराबर है। यह सिलसिला रुक जाये तो शायद जिंदा रहना भी मुश्किल हो। कविताओं में अपने आपको पूरी तरह खोलने का सुख है, जो आपका होकर भी सिर्फ आप तक सीमित नहीं रहता उसकी हदें व्यापक हो जाती हैं, विस्तारित भी। कविता मेरी रचनाशीलता को जिंदा रखती है। इसलिए बार-बार इसकी शरण में आता हूँ।
इन सबके बावजूद आप सच्ची बात पूछेंगे तो कहूंगा कि मैं न तो कविताएं लिखता हूँ, न कथा-डायरियां। ये दोनों मुझसे खुद को लिखवाती हैं और मेरे लिए मुश्किलें पैदा करती हैं। मुझे इन मुश्किलों से निबटने की कला नहीं मालूम। मैं करूँ भी तो क्या!
इधर क्या कुछ लिख रहे हैं?
तीन अहम्‌ काम अपने हाथ में ले रखें हैं। एक तो विधान परिषद् में अपने बारह साल के अनुभवों पर आधारित पुस्तक है। काफ़ी हिस्सा इस पुस्तक का लिखा जा चुका है। शीघ्र प्रकाश में आ जाए, ऐसी इच्छा है। दूसरा काम कबीर आज पर अपनी अधूरी पुस्तक का है। इसमें इधर थोड़ी प्रगति हुई है। लेकिन सबसे अहम्‌ काम उपन्यास कैनवस पर लिखी जा रही लंबी कथा-डायरी दोआबा है। ज्यादा समय इसी पर दे रहा हूं। दोस्तों और मेहरबानों ने जिंदा रहने दिया, तो जल्द ही ये सारे काम मुकम्मल हो जायेंगे।
आप लंबे समय से राजनीति में हैं। क्या हिंदू बहुल दलीय राजनीति में आपको मुस्लिम होने या इस नाते अकेले पड़ जाने का भी एहसास हुआ है?
मैं राजनीतिक आंदोलनों से जुड़ा रहा हूँ। अब भी मेरे रिश्ते राजनीति से हैं। मैं वर्षों राजनीतिक ओहदों पर रहा हूं। एसेम्बली काउंसिल में रहा हूं। एक दशक से ज्यादा मैंने सदन चलाया है। अब कुछ महीनों से संसद में हूँ। मेरे लिए ये ओहदे हमेशा व्यापक सामाजिक जवाबदेही निभाने का माध्यम रहे हैं। मैं अपने फैसलों से कई निहित स्वार्थी राजनेताओं और अपराधी सरगनाओं को नाराज करता रहा हूं। जो तत्त्व जनता के बुनियादी सवालों पर अपने स्वार्थों को तरजीह देने के आदी हैं, उनसे हमेशा मेरा संघर्ष रहा है। ऐसे तत्त्व न सिर्फ मेरी मुखाल्फ़त करते हैं, बल्कि मेरे खून के प्यासे भी हैं। मैं इन तत्त्वों के इरादे जानता हूं, लेकिन इससे घबराता नहीं। समय-समय पर ये तत्त्व मुझे विवादों में ढकेलने की कोशिश करते रहते हैं। मैं उनके नाम गिनाना नहीं चाहता। सामाजिक संदर्भों में मेरी निरंतर क्रियाशीलता के कारण ही ये तत्त्व मुझे निशाना बनाते हैं। ये दरअसल नस्लवाद में यक़ीन रखने वाले लोग हैं। ये अपनी सोच और नजरिए से घोर जातिवादी और सांप्रदायिक हैं। मैं उन्हें तमाम पसमांदा बिरादरियों का हिमायती नजर आता हूँ। ये हमेशा लोगों को याद दिलाते रहते हैं कि मेरा जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ है और राजनीति में मेरे अधिकार सीमित हैं। दलितों के प्रति भी इनके विचार कुछ इसी प्रकार के हैं। ये स्वस्थ एवं प्रगतिशील विचारों के दुश्मन हैं। इससे ज्यादा मैं इस वक्त उनके बारे में कुछ नहीं कहना चाहता।

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