आप सभी का स्वागत है. रचनाएं भेजें और पढ़ें.
उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Thursday, March 5, 2009

मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ

सुनील गज्जाणी

किस नयन तुमको निहारू,
किस कण्ठ तुमको पुकारू,
रोम रोम में तुम्ही हो मेरे,
फिर काहे ना तुम्हे दुलारू,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ।

प्रतिबिम्ब मै या काया तुम,
दोनो मे अन्तर जानू,
हॉं, हो कुछ पंचतत्वो से परे जग में,
फिर मै धरा तुम्हे माटी क्यू ना बतलाऊ,
सुनो! तुम तिलक मै ललाट बन जाऊ,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ॥

बैर-भाव, राग द्वेष करू मै किससे,
मुझ में जीव तुझ में भी है आत्मा बसी,
पोखर पोखर सा क्यूं तू जीए रे जीवन,
जल पानी, जात-पात मे मै भेद ना जांनू,
हो चेतन, तुझे हिमालय, सागर का अर्थ समझाऊ,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ॥।

विलय कौन किसमे हो ये ना जानू,
मेरी भावना तुझ में हो ये मै मानू,
बजाती मधुर बंषी पवन कानो में हमारे,
शान्त हम, हो फैली हर ओर शान्ति चाहूं,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ॥।
..................................
सुनील गज्जाणी
सुथारों की बड़ी गुवाड़,
बीकानरे।

Read more...

Wednesday, March 4, 2009

आता है नजर

सुनील गज्जाणी

सपेरा, मदारी खेल नट-नटनी का,
बतलाओ जरा कहां आता है नजर ?
खेल बच्चो का सिमटा कमरो में अब,
बलपण को लगी कैसी ये नजर ।

वैदिक ज्ञान, पाटी तख्ती, गुरू शिष्य अब,
किस्सो में जाने सिमट गए इस कदर,
नैतिकता, सदाचार अब बसते धोरो मे,
फ्रेम में टंगा बस आदमी आता है नजर।

चाह कंगुरे की पहले होती अब क्यूं,
धैर्य, नींव का कद बढ़ने तक हो जरा,
बच्चा नाबालिग नही रहा इस युग में,
बाल कथाएं अब कही सुनता आया है नजर।

अपने ही विरूद्ध खडे किए जा रहा,
प्रष्न पे प्रष्न निस्त्तर जाने मै क्यूं,
सोच कर मुस्कुरा देती उसकी ओर
सच्च, मेरे लिए प्यार उसमें आता है नजर।

दिन बहुत गुजरे शहर सूना सा लगे
चलो फिर कोई दफन मुद्दा उठाया जाए,
तरसते दो वक्त रोटी को वे अक्सर
सेकते रोटियां उन पे कुर्सिया रोज आती है नजर।

Read more...

Tuesday, March 3, 2009

खुश्की का टुकड़ा



- राही मासूम रजा


आदमी अपने घर में अकेला हो और पड़ोस की रोशनियां और आवाजें घर में झांक रही हों तो यह साबित करने के लिए कि वह बिल्कुल अकेले नहीं है, वह इसके सिवा और क्या कर सकता है कि उन बेदर्द रोशनियों और आवाजों को उल्लू बनाने के लिए अपनी बहुत पुरानी यादों से बातें करने लगे।
वह कई रातों से लगातार यही कर रहा था।
अकेला होना उसके लिए कोई नयी बात न थी। उसे मालूम था कि बदन और आत्मा की तनहाई आज के लोगों की तक़दीर है। हर आदमी अपनी तनहाई के समुद्र में खुश्की के एक टुकड़े की तरह है। सागर के अंदर भी है और बाहर भी । और वह इस अकेलेपन का ऐसा आदी हो गया है कि अपनी तनहाई को बचाने के लिए अपने से भी भागता रहता है।
दस-ग्यारह बरस या दस-ग्यारह हजार वर्ष पहले उसने एक शेर
लिखा थाः
छूटकर तुझसे अपने पास रहे,
कुछ दिनों हम बहुत उदास रहे।
यह उदासी आधुनिक है हमारे पुरखों की उदासी से बिल्कुल अलग है इसने हमारे साथ जन्म लिया है और शायद यह हमारे ही साथ मर भी जायेगी। क्योंकि हर पीढ़ी के साथ उसकी अपनी उदासी जन्म लेती है।
हमारे युग की उदासी को उदासी कहना, ठीक नहीं है, वास्तव में यह बोरियत है, यह बोर होने वालों की पीढ़ी है, किसी चीज का मजाक उड़ाना भी नहीं चाहता पहले के लोग कैसा मजे में जिया करते थे। पतंग उड़ाते थे- चीजें उड़ाते थे। बाते उड़ाते थे। मजाक उड़ाते थे। आज का आदमी अपने चेहरे के रंग के सिवा उड़ाता ही नहीं ...
और उसके बारे में एक बात मैं यक़ीन से कह सकता हूं कि वह यदि आदमी था तो आज ही का आदमी था। और आज के आदमी को वह डंलपिलो जैसी गदीली तनहाई नसीब नहीं होती कि वह आराम से लेट कर अपनी यादों को छाँटें। सड़ी-गली यादों को अलग कर फटी-पुरानी यादों की मरम्मत करे और अच्छी यादों को धूप दिखला दे।
वह बहुत दिनों से फ़ुरसत के ऐसे मौक़े की तलाश में था परन्तु आज तो मरने की फ़ुरसत नहीं मिलती, जीने की तो बात अलग रही। पहले लोग आराम से बरसों बीमार पडे+ रहा करते थे। सेवा करवा-करवा के सेवा करने का अरमान निकलवाते थे। दूर पास के सारे रिश्तेदारों को इसका मौका देते थे कि वह उनकी पाटी के पास बैठ कर उसकी तारीफ़ करें ... और जब लगभग लोगों को यक़ीन हो जाये कि यह मरने वाले नहीं, तब कहीं जाकर लोग मरा करते है पर अब वक्+त की कमी के कारण हार्ट फेल होने लगे है आधुनिक जिंदगी की भागदौड़ में मरने का चार्म भी बिल्कुल ख़त्म हो गया हैं।
वह हार्ट फ़ेल होने के खिलाफ़ नहीं था। परन्तु हार्ट फेल होने में एक बड़ी खाराबी है। हार्ट फेल होने पर कोई शेर नहीं कहा जा सकता है। इतना समय ही नहीं मिलता कि कोई यह कहे।
उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक़ ,
वह समझते है कि बीमार का हाल अच्छा है।
इसीलिए वह चाहता था कि अपनी यादों को क्लासिफाई कर ले। जो वह कवि होता, तो बहुत परेशानी की बात न होती पर शायरी से उसका पुराना बैर था। वह कहा करता था कि शायरी बड़ी असाइंटिफिक चीज होती है। शायरी में मुर्दे बोलते हैं ... कागा सब तन खाइया ... से लेकर कुरेदते हो जो अब आग जुस्तुजू क्या है .... तक मुर्दे टायें-टायें बोल रहे हैं। दिल जो ख़ून पंप करने की एक मशीन है, उसे शायरों ने इतना सर चढ़ाया है कि क्या कहा जाये। प्रेमिका को चंद्रमुखी कहने वाले यह भी नहीं जानते कि चांद पर कैसी-कैसी खाइयां है!
परन्तु जब वह अकेला हुआ तब उसे पता चला कि तनहाई खुद बहुत साइंटिफिक़ नहीं होती। भरीपुरी दुनिया में कोई अकेला कैसे हो सकता है। परन्तु वह अकेला था और वह इस हक़ीक़त को झूठला नहीं सकता था और इसीलिए लगातार अपनी यादों की राख कुरेद रहा था।
कई रातों तक लगातार यादों के जंगल में भटकने के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचा था कि आदमी अपनी यादों के बारे में डींगता ज्+यादा है, मेरे पास इतनी यादें हैं और ऐसी ऐसी यादें है। सब झूठ है। बस-दस-बीस यादें होती हैं। जिंदगी का बजट बहुत चौकस होता है। सारी जिंदगी जीने के बाद बचत के ख़ाने में दस-बीस बुरी भली यादों के सिवा कुछ नहीं होता।
पता नहीं लोग जीवनियां कैसे लिखते हैं। उसे तनहाई की चंद रातें गुजार लेने के बाद यकीन हो गया था कि जीवनियां झूठी होती है। लेखक अपने जीवन की कहानी नहीं लिखता। एक कहानी लिखता है। अपने वर्तमान के लिए अतीत का पुश्ता बांधता है। वह अपनी तसवीर को बहुत री-टच करता है। इससे भी काम नहीं चलता तो शायद अपनी गर्दन पर एक नया चेहरा जड़ देता है।
परन्तु वह तो बिलकुल अकेला था। आदमी चाहे दुनिया से झूठ बोल ले पर वह अपनी तनहाई से झूठ नहीं बोल सकता। वह अपने आपसे यह कैसे कहता कि जिन लैलाओं ने उसे धोखा दिया है वह वास्तव में बड़ी वफ़ादार थीं। वह तो अपने आपसे यह भी नहीं कह सकता था कि खुद वह बड़ा वफ़ादार है। उसे कभी अपने आप पर तरस नहीं आया।
उदास होना दूसरी बात है। उदासी तो इस युग के मनुष्य की तक़दीर है। उदासी और झल्लाहट। यही दो शब्द है जो बहरुपियों की तरह रूप बदल-बदल कर आते रहते है। यदि पहचान लिये जायें तो फिर बहरूप ही क्या हुआ!
उसे वह फैंसी ड्रैस शो याद था जिसमें वह अपने वेष में चला गया था। किसी ने नहीं पहचाना। बाद में उसे बताया गया कि एक आदमी ने ग़जब का बहरूप भरा था।
उसी दिन से जब कभी वह यह चाहता कि कोई उसे न पहचाने तो वह अपने चेहरे पर कोई चेहरा चढ़ाये बिना निकल जाता... और फिर उसे आदत-सी पड़ गयीं। उसने अपने चेहरे पर कोई चेहरा चढ़ाना बिलकुल छोड़ दिया। नतीजा यह निकला कि अब उसे कोई पहचानता ही नहीं। एक दिन उसने वह नक़ली मुसकराहट बाक्स से निकाल कर देखी जिसे वह होंठों पर चिपका कर निकला करता था तो यह देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह तो एक बड़ी बेहूदा चीज थी। बेजान। बेमतलब। बेमजा। वह यह सोच कर हँस दिया कि इस मेक-अप में वह कैसा हवन्नाक दिखाई देता रहा होगा। उसने उस मुसकराहट को फिर बक्स में डाल दिया और यह सोचने लगा कि उसकी पत्नी ने इस चीज को संभाल क्यों रखा है! उसे तो सफा+ई का बड़ा शौक़ हैं।
उसकी पत्नी मसर्रत बड़ी सुघड़ और प्यारी लड़की थी। इश्क़ करते-करते थक-हार कर उसने मसर्रत से ब्याह कर लिया था। मसर्रत से उसे न ब्याह के पहले इश्क़ था और न ब्याह के बाद इश्क़ हुआ। और शायद इसीलिए वह उसे सही पर्सपेक्टिव में देख सकता था। इसीलिए वह बरसों इस फ़िक्र+ में रहा कि इस चांद का दाग़ कहां है। गहरी छानबीन के बाद उसे पता चला कि मसर्रत को पुरानी चीजें जमा करने का शौक़ है। उसका बस चले तो नयी साड़ियां बेच कर कबाड़ियें की दुकान से पुरानी साड़ियाँ ख़रीद लाये यह पता उसे खासा-पुराना पति हो जाने के बाद चला। फिर भी पलभर के लिये वह कांप गया कि किसी दिन बोर हो कर वह उसे औने-पौने निकाल कर किसी कबाड़ख़ाने से कोई ऐंटीक पति न ख़रीद लाये।
उसने जब यह बात मसर्रत को बतायी तो वह खिलखिला कर हंस पड़ी। उसने चोरों की तरह इधर-उधर देखा। बड़ा बेटा ख़ादिम हुसैन सामने ही रेडियोग्राम के पास क़ालीन पर लेटा गुन-गुना रहा था-:
रिमझिम बरसता सावन होगा,
झिलमिल सितारों का आंगन होगा।
छोटी बेटी ख़ातून जो अपनी छोटी गुड़िया के फ्लू से सख्त परेशान थी, बड़ी गुड़िया को डांट रही थी कि वह छोटी को लेकर इस ठंड में घर से निकली ही क्यों ...
ख़ादिम के गाने से बोर होकर वह बोली-भाई मियां, जब सावन रिमझिम बरस रहा है तो यह सितारे कहां से आ गये ?
खादिम सटपटा गया। पर वह छोटी बहन से हार भी नहीं मान सकता था। बड़े गंभीर लहजे में बोला-यह फिल्मी आंगन है।
बेटा-बेटी दोनों मशगूल थे। मसर्रत ने जल्दी से उसकी उस नाक का प्यार ले लिया। जिसका वह बहुत मजाक उड़ाया करती थी और बोली-ईडियट, तुम्हें यही ख़बर नहीं कि हर सुबह को मैं तुम्हें कबाड़ के कमरे में फेंककर दिल में हाथ डालकर एक नया यानी तुमसे भी एक दिन पुराना पति निकाल लेती हूँ!
उसे ठीक-ठीक पता नहीं था कि मसर्रत की बात पर हंसना चाहिए या नहीं, पर वह हंस पड़ा।
ख़ातून का हाथ हंसी की आवाज+ से हिल गया। गुड़िया की दवा ख़ादिम के उजले कुरते पर गिर गयी। ख़ादिम ने उसे एक चांटा मार दिया। उसने ख़ादिम को किचकिचा कर दांत काट लिया। खून छलक आया...
मसर्रत बीच-बचाव करने लपकी। पर भाई-बहन लड़ने के मूड़ में थे दोनों उछल-कूद रहे थे। इस पर मसर्रत को हंसी आ गयी ...
इस मसर्रत के साथ जिंदगी कभी पुरानी नहीं हो सकती। जिंदगी बड़े मजे से गुजर रही थी। बस उस नक़ली मुसकान का ख्याल उसे परेशान किया करता था। एक दिन चुपके से वह उसे एक कबाड़िये के हाथ बेच आया। बात आयी-गयी हो गयी। वह उस मुसकराहट को भूल भी गया। उसके दिल से यह डर जा चुका था कि उसके मरने के बाद यदि उस पर रिसर्च करने वाले को यह मुसकराहट मिल जायेगी तो क्या होगा। यह डर मिट जाने के कारण वह ज्यादा खुल कर हंसने लगा था। दो-एक दिन के बाद मसर्रत ने कहा-बिल्डिंग के लोगों को यह ख्बर करने की क्या जरूरत है कि तुम हंस रहे हो।
वह बोला-अरे तो क्या बिल्डिंग वालों के डर से मैं हंसना बंद कर दूं!
बात बढ़ गयी सोलह बरस के बाद पहली बार बात बढ़ी थी ...
तीन-चार दिन तक दोनों में बातचीत बंद रही। ख़ादिम और ख़ातून ने भी भांप लिया था कि दाल में कुछ काला जरूर है। मसर्रत इस बीच में कई बार उन दोनों से इतनी दबी आवाज में, कि दूसरे कमरे में बैठा हुआ वह यह सुन सके, पूछ चुकी थी कि यदि वह दरभंगा चली जाय तो वह क्या करेंगे ... दरभंगा के नाम सुनकर वह कांप जाया करता था। बात यह थी कि अपनी मां से वह बहुत डरा करता था। वह सौतेली माँ रही होती तो वह सोच कर दिल को समझा लेता कि सौतेली मां से और क्या उम्मीद हो सकती है। परन्तु वह तो उसकी सगी मां थी और वह इकलौते बेटे से ज्यादा इकलौती बहू को चाहती थी।
कई दिन इस उधेड़बुन में गुज+र गये। एक दिन वह घर में सहमा-सहमा आया तो उसने देखा कि मर्सरत की आंखों में एक अजीब-सी चमक है। उसकी तरफ़ मसर्रत ने कनखियों से देखा। खादिम निहायत नया, चुनी हुई आसतीनों वाला कुरता पहने दरवाजे में खड़ा मुसकरा रहा था। ख़ातून गरारा पहने एक हाथ से पायचे और दूसरे से दुपट्टा संभालने में लगी हुई थी।
वह चकरा गया। चकराने का आसान इलाज यह था कि वह सीधा अपने कमरे में चला जाये वह अपने कमरे में चला गया।
पीछे-पीछे मसर्रत भी आयी। उसने कमरे के दरवाजे को अंदर से बंद किया। उसका दिल उछलकर हलक में आ गया। उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि मसर्रत चाहती क्या है।
-सुनते हो ? मसर्रत ने कहा। क्या बेहूदा सवाल है, इन हिन्दुस्तानी बीवियों को आखिर कब बात करना आयेगा ?
-क्या सुनूं ? उसने बड़ी भलमनसाहट से पूछा।
-नहीं सुनते तो मत सुनो, मसर्रत चमक गयी। मेरी जूती को क्या गरज पड़ी है। मैं ही पागल हूं कि दो दिन से मारी-मारी फिर रही थी।
-क्यों
-तुम्हारी सालगिरह के लिए और क्यों।
-मगर मेरी सालगिरह के लिए मारे-मारे फिरने की क्या जरूरत है। सालगिरह तो राशंड है, साल में एक ही बार मिलती है। चोर बाजार से एक आध सालगिरहें ख़रीद लायीं क्या !
उसका ख्याल था कि यह सुन कर मसर्रत जमीन-आसमान एक कर देगी। पर वह तो हंसने लगी। हंसते-हंसते बेहाल हो गयी।
हाल में आयी तो बोली- भई मुझे ख्फ़ा रहना नहीं आता।
-तो मान जाओ।
-मान गयी। मगर तुम तो बड़े वह।
-वह क्या!
-मेरा सिर। आज तुम्हारी सालगिरह है।
- सार्टिफिके+ट वाली कि असली वाली।
-मैं तुम्हारे लिए बड़े ग़जब की चीज लायी हूँ।
-तुम हमेशा ग़जब की चीज लाती हो।
-देखोगे तो फड़क जाओगे।
-अच्छा!
-हां।
वह मुसकरा दिया।
-तुम्हारी मुसकराहट बड़ी फटीचर है।
-आदत पड़ गयी है।
-छोड़ दो। जैसे सिगरेट छोड़ दी।
-ग़लत। मैंने सिगरेट को नहीं छोड़ा है। सिगरेट ने मुझे छोड़ दिया है। तंबाकू पर टैक्स इतना बढ़ गया है कि सिगरेट का ख़र्च और मकान का किराया बराबर हो गया है। पर अभी तक हंसना फ्री हैं। तो मैं अडल्ट्रेटेड या इंफ़ीरियर मुसकराहट क्यों इस्तेमाल करूं ? आगे न कह सका क्योंकि मसर्रत की हथेली पर उसकी वह पुरानी मुसकराहट चमक रही थी जो एक दिन चुपचाप कबाड़िये की दुकान पर बेच आया था।
उसकी आंखें हैरत से फैल गयीं।
-चकरा गये ना, वह लहक कर बोली। मैं खुद इसे देख कर फेंक गयी थी। बिलकुल तुम्हारे होंठ के नाप की है। उस गंवार कबाड़िये ने इस पर वार्निश जरा ज्यादा कर दी है। मगर चलेगी तुम्हारे रंग से भी मैच खाती हैं। मैं उससे कह आयी थी कि कलर होंठ में फिट नहीं होगा तो लौटा दूंगी ...
जहिर है कि अपनी वर्षगांठ के दिन वह उस मुसकराहट को स्वीकार नहीं कर सकता था।
वह मुसकराहट अब भी ड्रेसिंग टेबिल पर पड़ी हुई थी। उसी के पास मसर्रत की एक तस्वीर थी। वह ख़ातून को गोद में लिये हंस रही थी। वह ड्रेसिंग टेबिल की तरफ़ बढ़ा देर तक वह वार्निश की हुई उस मुसकराहट की तरफ़ देखता रहा। मसर्रत के बग़ैर अकेला रहना नामुमकिन था। उसने वह मुसकराहट अपने होंठो पर चिपका ली। सोचा कि फ़ौरन मसर्रत को एक ख़त लिखना चाहिए क़ाग़ज मिल गया। कलम नहीं मिल रही थी। कलम के केस में ख़ातून की गुड़िया का जहेज+ रखा था ... वह ढूंढते वह थक गया। आख़िर उसने मसर्रत के डे्रसिंग टेबिल की दराजें खखोड़ी। आखिरी दराज में उसे एक अजीब चीज+ मिली- मसर्रत जल्दी में अपने कहकहों का पूरा सेट भूल गयी थी। वह खिलखिला कर हंस पड़ा।
थोड़ी देर के बाद पड़ौस के लोग जाग गये। उन्होंने दरवाजा पीटना शुरू किया। परन्तु वह हंसता रहा। वह चाहता था कि अपनी हंसी रोक ले। पर जैसे टेढ़ी सुराही से पानी गिरना बंद नहीं होता उसी तरह उसके मुंह से क़हक़हा बह रहा था।
मसर्रत के क़हक़हों का सेट उसके हाथ में था। हंसते-हंसते वह खिड़की तक आ गया। बहुत नीचे सड़क रोशनी की एक लकीर की तरह पड़ी हुई थी। मसर्रत के क़हक़हों का सेट हाथों से फिसल कर खिड़की के बाहर जा पड़ा। उन्हें बचाने के लिये उसने हाथ बढ़ाया। वह हाथ नहीं आये, वह उन्हें बचाने के लिए झुकता ही चला गया।
सड़क एक दम से उछली और उससे टकरा कर टूट गयी।





Read more...

Sunday, March 1, 2009

सिकहर पर दही निकाह भया सही



- राही मासूम रजा


मीर जामिन अली बड़े ठाठ के जमींदार थे। जमींदारी बहुत बड़ी नहीं थी। परन्तु रोब बहुत था। क्योंकि दख्ल और बेदख्ली का जादू चलाने में उन का जवाब नहीं था।
मीर साहब ने उस्ताद लायक अली से गाने के सबक लिये थे और ईमान की बात यह है कि खूब गाते थे। संगीत उनके गले में उतरा हुआ था। बड़ी-बड़ी मशहूर गानेवालियां महफिल में उन्हें देख लेतीं तो कान छूकर । गाना शुरू करतीं। बड़ी बांदी जैसी गानेवाली का शिकार ही उन्होंने रसीली आवाज से किया था, वरना कहां खलिसपुर के ठाकुर साहब कहां मीर जामिन अली। बड़ी बांदी उनकी आवाज पर मर मिटी थी । परन्तु जब वह असमियों को गाली देते तो उनकी आवाज का रूप बदल जाता। जेठ की गर्म हवा की तरह उनकी दी हुई गालियां जिसके पास से गुजर जाती, उसको झुलस देती। और चूंकि वह कोई छोटा काम करना पसंद नहीं करते थे। इसलिए छोटी गालियां भी नहीं देते थे। गाँववालों को उनकी गालियों से बहुत-सी ऐसी बातें मालूम हुई थी, जो औरों को शरीर-विज्ञान के बड़े-बड़े पोथे पढ़कर भी मालूम नहीं हो सकती। अफसोस कि उनके जीवन में किसी को यह ख्+ायाल न आया और उनकी गालियां उन्हीं के साथ मर गयी।
ये मीर जामिन अली बड़े रख रखाव के आदमी थे। जिंदगी भर नमाज+ पढ़ते रहे गालियां बकते रहे और गुनगुनाते रहे और चूंकि वे खुद परम्पराओं का ख़याल रखते थे इसलिए उनका ख्याल था कि जीवन भी परम्पराओं का ख़याल रखेगा। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। वे परिवर्तन के विरोधी थे इसीलिए उनका कहना यह था कि कांग्रेस वाले भपकी दे रहे हैं। जमींदारी भला कैसे ख़त्म हो सकती है! चुनांचे वे गालियां बकते रहे, मुश्कें कसवाते रहे, बेगार लेते और अल्लाह का शुक्र अदा करते रहे... परंन्तु एक रात को मिट्टी के तेल की तरह जमींदारी ख़त्म हो गयी। लालटेन भबक के बुझ गयी और घर में अंधेरा हो गया।
यह घर बहुत बड़ा था। इस घर में छह शताब्दियां रहती थीं। छह शताब्दियों में बकी जानेवाली गालियां रहती थीं। छह शताब्दियों के किसानों की सिसकियां रहती थीं। इसीलिए जब अंधेरा हुआ तो मीर जामिन अली डर गये। वे अंधेरे से नहीं डरे। वे डरे छह शताब्दियों की अनगिनत परछाइयों से, जो एकदम से जी उठी थी, जो मीर साहब अकेले रहे होते तो शायद इन परछाइयों से डर कर मर गये होते। परन्तु वे अकेले नहीं थे, एक बीवी थी। दो बेटियाँ थीं। एक पुश्तैनी नौकरानी थी। एक उस का बेटा था...
परन्तु इस रात में उन्हें कोई शक नहीं था कि अब वे अपने गांव में नहीं रह सकते थे। चुनांचे वे शहर उठ गये। जाहिर है कि शहर में उन्हें उतना बड़ा मकान मिल नहीं सकता था। जितने बड़े मकान में रहने के वे आदी थे। उनका घर इस शहर से पुराना था इसलिए मीर साहब की आत्मा शहर में समा नहीं रही थी।
किराये के जिस घर में वे सब आबाद हुए वह एक छोटा-सा दोमंजिला मकान था। एक छोटा-सा आंगन था। मीर साहब जब गर्मी की पहली रात गुजारने के लिए उस आंगन में लेटे तो उन्हें ऐसा लगा कि जैसे चारों तरफ खड़ी ऊँची हुई दीवारें गर्दन झुका-झुका कर उन्हें देख रही हैं और आपस में इशारे कर के मुस्करा रही है।
मीर साहब घबरा कर उठ बैठे। उन्हें प्यास लग रही थी। वे घड़ौंची की तरफ चले। रास्ते में एक पलंग पर उन्हें बड़ी बेटी रुकय्या की नींद मिली, जो उसकी जवानी का बेचुना दुपट्टा ओढ़े करवटें बदल रही थीं फिर उन्हें दूसरी बेटी रजिया का बचपन मिला। दस-बारह साल की रजिया नींद में बड़बड़ा रही थी कि उसे यह घर बिल्कुल पसंद नहीं...तीसरे पलंग पर उनकी पत्नी आमेना थी, वह जाग रही थी। फिर घड़ौंची थी और घड़ौंची के उधर एक बंसखट पर मत्तो लेटी नींद में बांस का चर्खीदार पंखा झल रहीं थी। और आख़िर में, बिल्कुल दीवार के पास मत्तो का बेटा शौकत सो रहा था।
मीर साहब ने ठंडे झज्जर को छुआ। झज्जर की ठंडक उनके बदन में समा गयी। थोड़ी देर तक वे झज्जर पर हाथ रखे खड़े रहे। फिर चांदी के नक्शीन कटोरे में पानी उड़ेल कर उन्होंने एक ही सांस में कटोरा खाली कर दिया।
वे आमेना के पलंग के पास रुक गये। उन्हें मालूम था कि वह जाग रही है। आमेना सांस रोके पड़ी रही। मीर साहब पट्टी पर बैठ गये। पट्टियाँ बोल उठीं- आमेना घबरा कर उठ बैठी।
''अरे, क्या करते हो। बगल में जवान बेटी सो रही है, जाग पड़ी तो क्या सोचेगी दिल में।''
लेकिन मीर जामिन अली को इसमें कही ज्यादा महत्त्वपूर्ण बातों ने परेशान कर रखा था...दुनिया क्या सोचेगी यदि जल्द रुकय्या का ब्याह न हो गया। उन्हें याद था कि उनकी बहनों की शादियाँ नवें बरस हो गयी थीं। इस हिसाब से तो अब तक रजिया की शादी को दो बरस पुरानी बात हो जाना चाहिए था। परन्तु बेटी की उम्र बड़ी बेहया और बेदर्द होनी है। मुंह पर चढ़ी आती है।
मीर साहब शहर आने से पहले वहां गाँव में भी रुकय्या की शादी की फिक्र के चटियल मैदान में रातों की नींद को हापता देख चुके थे। लड़का मिलता। तो खानदान न मिलता खानदान मिलता तो लड़का न मिलता। और फिर तो ऐसा हुआ कि ऐसी तेज हवा चली कि लड़कों को सीमा पार उठा ले गयी। मांग यहाँ रह गयी, सिंदूर लगानेवाली उंगलियाँ उधर चली गयी। जिन घरों में कल तक लड़के रहा करते थे, उनमें कस्टोडियन का प्रेत बस गया था। अब वे किसी धुने जुलाहे से तो अपनी बेटी ब्याह नहीं सकते थे। और कुछ दिनों के बाद रजिया की जवानी भी सब को दिखायी देने लगेगी, इसी डर से उन्होंने रजिया को गांधी मेमोरियल मुस्लिम गर्ल्स हायर सेकेंड्री स्कूल में दाखिला करवा दिया था। अब कम से कम वे कह सकते थे कि बच्ची अभी पढ़ रही हैं। परन्तु रुकय्या के कुंवारेपन के लिये तो उनके पास कोई बहाना भी नहीं था।
''रुकय्या के लिए म्यां शम्सुल का रिश्ता मान लेने के सिवा कोई चारा नहीं रह गया है।'' मीर साहब ने आमेना की बात अनसुनी करते हुए कहा। आमेना घबरा कर उठ बैठी।
''सठिया गये हो क्या?'' उसने तकिये के नीचे से दुपट्टा निकाल कर ओढ़ते ओढ़ते पूछा, ''तुम खुद कहते हो कि शम्सुल मियां तुम से तीन-चार साल बड़े है।''
''क्वांरी रह जाने से अच्छा है कि लड़की बेवा हो जाये,'' मीर साहब ने कहा।
उस छोटे से आंगन में सन्नाटा हो गया। पट्टी की चरचराहट सुनकर जाग उठनेवाली रुकय्या के दिल में भी सन्नाटा हो गया। आंगन में सन्नाटा इतना गहरा था कि कोई गिरता तो डूब जाता।
पलंग की पट्टी फिर चरचरायी। रुकय्या ने आंखें बंद कर लीं। वह मीर साहब की चाप सुन सकती थी। चाप उसके पलंग के पास आकर रुक गयी रुकय्या का गला सूख गया था। वह थूक घूटना चाहती थी। परन्तु इस डर से थूक नहीं घूंट रही थी कि कहीं बाबा देख न लें।
पल भर के बाद चाप दूर चली गयी।

दूसरे दिन रजिया ने स्कूल में अपनी सहेलियों को यह बात बतायी कि उसकी आपा की शादी होनेवाली है किसी शम्सुल मियां के साथ।
''क्या वे कोई बहुत बड़े आदमी है?'' किसी साथी ने पूछा।
''बहुत बड़े आदमी है जनाब,''रजिया ने गर्दन अकड़ा कर कहा, ''बाबा से भी चार साल बड़े हैं।''
रजिया बहुत खुश थी कि उसकी आपा का ब्याह होनेवाला है। अपनी खुशी में उसने इस बात को कोई महत्त्व नहीं दिया कि रुकय्या को चुप लग गयी है या यह कि जब देखीं तब अम्मां की आँख में कुछ न कुछ पड़ जाता है या यह कि बाबा ने डांटना बिल्कुल बंद कर दिया है। वह तो स्कूल से आती और मत्तो के पास बैठ कर आपा की शादी की बातें करने लगती। वह यह सोच -सोच कर खुश हुआ करती कि दूल्हा भाई को वह कैसे-कैसे छकायेगी।
पास ही चटाई पर बैठा बीड़ी बनाता हुआ शौकत ये बातें सुनता रहता और कहीं-कहीं बोल पड़ता।

शौकत को खड़े नाक नक्शेवाली यह सांवली-सी रजिया बहुत अच्छी लगती थी। रजिया उसे हमेशा से पसंद थी। वह कोई छह -सात साल का था। और मत्तो नहलाने-धुलाने के बाद उसे ईद का जोड़ा पहना रही थी। तब उसकी बड़ी बहन जीनत फेकू मियां के लड़के के साथ पाकिस्तान नहीं भागी थी। उसने कहा था, ''तैं त अइसा सजा रही सौकतवा के कि जना रहा कि ई अभई जय्यहे और पंचफुल्ला रानी को बिआह लिअय्यहे!'' यह सुन कर उसने अपनी बहन की तरफ बड़ी हिकारत से देखकर कहा था। ''हम पंचफुल्ला रानी ओनी से बिआह ना करे वाले है। हम न भय्या रजिया बहिनी से बिआह करेंगे।'' यह सुन कर कंघी करता हुआ मत्तो का हाथ रुक गया था। उसने एक तमाचा मारा था। आठ साल बाद भी रजिया को देखकर वहां अब भी हल्का-हल्का दर्द होने लगता था। जहां मत्तो का तमाचा पड़ा था।
शौकत ने कनखियों से रजिया की तरफ देखा वह अपनी ओढ़नी का साफा बांधे रुकय्या का दूल्हा बनी बैटी थी। फिर वह खुद ही मौलवी बन कर निकाह पढ़ने लगी। सिकहर पर दही निकाह भया सही...
जाहिर है कि सिकहर पर दही कहने से निकाह नहीं हो जाता। रुकय्या का निकाह तो बाकायदा दो मौलवियों ने अरबी में पढ़वाया।
शम्सू मियां बड़े ठाठ की बरात लाये। चढ़ावा देख कर मुहल्लेवालों की आँख खुल गयी। पांच मन मेवा। इक्कीस मन चीनी इक्यावन जोड़े। एक जोड़ा मुरस्सा। जड़ाऊ नथ।
रजिया का जी चाहा कि वह खुद शम्सू मियां से ब्याह कर ले। छोटा-सा घर उसकी सहेलियों से भरा हुआ था। मिरासनें गालियों गा रही थीः
सुन रे वन्नो तेरी बहिना को आख़िर,
ले भागा थानेदार।
डुग्गी बाजे।
गालियों के भीड़-भड़क्के में रजिया लोगों की आँखें बचा-बचा कर खूब पान खा रही थी।
सड़क पर रायसाहब के हाते में बरात शार्मियाने के नीचे खिलौनों की किसी दुकान की तरह सजी हुई थी। शम्सू मियां भारी सेहरे में मुँह छिपाये जापानी बबुए की तरह मौलाना की बात सुन कर सिर हिलाने लगे। शौकत उस जापानी बबूए की तरफ टकटकी बांधे देख रहा था। उसे दूल्हा मियां बिल्कुल पसंद न आये। वह बड़ी बहिनी को बहुत चाहता था। और जब मौलाना रुकय्या से शम्सू मियां का निकाह पढ़ रहे थे, वह यह सोच रहा था कि कहीं मीर साहब छोटीओं बहिनी को कोई बुड्ढे से न बियाह दें... परन्तु शादी के हंगामों में यह कौन सोचता है कि एक पुश्तैनी नौकरानी का छोकड़ा शौकत क्या सोच रहा है। और शौकत के सोचने या न सोचने से फ़र्क ही क्या पड़ सकता है। शौकत का घबराना पिछली तीन शताब्दियों से मीर साहब के घराने में नौकरी करता चला आ रहा था। मीर जामिन अली के घराने का कोई न कोई आदमी काम कर रहा था। सच्ची बात यह है कि अब इन लोगों की है हैसियत केवल नौकरी की नहीं थी। ये बराबर बैठ नहीं सकते थे परन्तु घरवालों में गिने जाते थे। इन लोगों को तनखाह भी नहीं मिलती थी। इन्हें जेब खर्च मिलता था। और साल में दो बार जब घरवालों के कपड़े-लत्ते बनते थे, तो इनके लिए भी जोड़े तैयार होते। यही कारण है कि मीर साहब के घराने की औरतें शौकत के घराने के मर्दों से पर्दा भी नहीं करती थी। और इसीलिए शौकत को यह हक था कि रुकय्या और शम्सू मियां की शादी पर दिल बुरा करे। और इसीलिए जब बरात चली गयी और घर में सन्नाटा हो गया, तो शौकत ने मीर साहब से दिल की बात कह दी। ''ए मियां, बड़की बहिनी के वास्ते ए से अच्छा दुलहा ना मिल सकता रहा का?''
मीर जामिन अली का रात का खाना खाने के बाद हुक्का पीने की तैयारी कर रहे थे। हुक्के की नय की तरफ बढ़ता हुआ उनका हाथ रुक गया। उन्होंने शौकत की तरफ देखा। शौकत झुका हुआ गट्टा दबा रहा था। परन्तु उनकी आँखों का रंग देख कर मत्तो का दिल धक से हो गया।
''उसे क्या घूर रहे हो?'' आमेना आड़े आ गयी, ''सारी दुनिया यही कह रही है। शम्सू मियां का छोटा बेटा अपनी रुकय्या से चार साल बड़ा है। इस ब्याह से अच्छा तो यह होता कि हम उसे चुपके कुछ खिला कर सुला देते।''
रजिया जरा दूर थी। उसने केवल यह सुना कि रुकय्या को कुछ चुपके से खिलाने की बात हो रही है तो वह जहां थी वहीं से चिल्लायी, ''हम भी खायेंगे।''
''मैंने तो खैर रुकय्या की शादी कर दी है। तुम चाहो तो रजिया को कुछ खिला दो।'' यह कहते हुए उन्होंने हुक्के की नय सीधी कर दी और बेटी की तरफ देखे बिना उठ कर बाहर चले गये।
और यूं मर्दाने में ज्यादा समय बिताने के दिन शुरू हो गये। अब जो मीर साहब ज्यादातर बाहर रहने लगे तो घर में रजिया और अकेली हो गयी। उसकी समझ में नहीं आता था कि इस छोटे से एक्के मकान में वह सुबह को शाम और रात को दिन में कैसे बनाये।
नीचे तो उसे वह रत होती थी। इसलिए वह ज्यादातर ऊपरवाले कमर में रहती। आमेना डाँटती रहती परन्तु वह जब भी मौका मिलता आँखें बचा कर ऊपर सरक जाती।
ऊपरवाला कमरा उसी की तरह छोटा था और छोटी-छोटी दो खिड़कियों की आँखों से हर वक्त सड़क को देखता रहता था। यही दोनों खिड़कियां रजिया की आत्मा में खुल गई। कभी-कभी तो उसे ऐसा लगता जैसे सड़क उसके दिल के बीचोंबीच से गुजर रही है। वह बहुत से लोगों की आवाजें पहचानने लगी थी। इन आवाजों पर वह रिऐक्ट भी करती थी क्योंकि इन आवाजों से उनका एक तरफ का नाता हो गया था। कई आवाजों का तो उसे इंतजार-सा रहता था। एक तो वह बुड्ढ़ा था। जिसके गले में बदलगम की गिरह पड़ती थी। वह खिड़की के नीचे आने से जरा एक पहले गला साफ़ करता था। उसकी खांसी की आवाज सुनकर रजिया का जी गंगना जाया करता था। फिर व ऐन खिड़की से नीचे, सड़क के उस पार रुक जाया करता था। दोपहर का समय होता। सड़क वीरान होती। पहले व दाहिने-बायें देखता और निगाह को दाहिने से बायें ले जाने में वह चुपके से यह भी देख लेता कि वह खिड़की पर है या नहीं। पूरा इत्मीनान करके व आँखे झुकाये-झुकाये हुए खिड़की की तरफ मुँह किये हुए कमरबन्द खोलने लगता। उसके हाथों की जुंबिश के साथ-साथ रजिया का मुँह लाल होने लगता। फिर उसे ऐसा लगता। जैसे उसके कान की लवें फट जायेंगी और वह अपने खून से लथ-पथ हो जायेगी। परन्तु वह उस खांसते हुए बूढ़े से अपनी निगाह न हटाती। फिर भी एक पल ऐसा आता जब उसकी निगाह झुक जाती वह बूढ़ा मुंह फेर कर नाली के किनारे उकड़ू बैठ जाता। रजिया चुपचाप वही बैठी रहती और उस बढ़े की पीट की तरफ देखती रहती। कोई मिनट डेढ़ मिनट के बाद वह उठता। यदि कोई आता जाता दिखाई देता तो वह जल्दी चल देता और जो सड़क पर सुनसान रहती तो वह काफी देर लगाता और दाहिने-बायें देखता रहता और दाहिने से बायें जाने में उसकी चिपचिपाती हुई निगाहें रजिया के चेहरे पर अपनी निगाहों का लस छोड़ जाती। वह चला जाता और रजिया के गाल देर तक चिपचिपाते रहते। सड़क फिर वीरान हो जाती और वह रीगल टाकीज के इश्तहारवाले रिक्शे की राह देखने लगती। लाउडस्पीकर पर गूंजती हुई आवाज+ उसके खून की रफ़तार बढ़ा देती।
आज देखिए महबूब प्रोड्क्शन की आन दिलीप कुमार, निम्मी, नादिरा, नौशाद का म्यूजिक जो आपके दिल में बरसों गूजता रहेगा... रोजाना तीन शो फ्री पास बिल्कुल बंद...''
पहले आवाज दूर से पास आती। फिर बिल्कुल खिड़की के नीचे-नीचे आ जाती और फिर दूर जाते-जाते बिल्कुल गायब हो जाती। और वह यह सोचती रह जाती कि आख़िर यह दिलीप कुमार कौन है। निम्नी क्या चीज है... स्कूल में किसी से पूछने की हिम्मत। दिलीप कुमार, राजकपूर देवानन्द... कैसे अजीब नाम है। जैसे कोई दूर से नाम ले कर पुकार रहा हो...इन नामों के बारे में सोचते-सोचते न जाने कितना समय बीत जाता। वह उस लड़के की आवाज+ सुन कर चौंकती, जो रोज खिड़की के नीचे आकर रुक जाया करता था और उसकी तरफ देख कर कहा करता था...जो कुछ वह कहा करता था उसे याद कर के भी वह पसीने-पसीने हो जाया करती थी। इसलिए उसकी आवाज सुनते ही वह एक बार तो उनकी तरफ देखती और फिर बगटुर नीचे भागती...
रात को वह अजीब-अजीब ख़वाब देखती और लाउडस्पीकर की आवाज आती रहतीं। उसने कभी लाउड स्पीकार को ख़वाब में नहीं देखा।

उसकी आँख खुल जाती। हलक में कांटें पड़ चुके होते। जबान सूख कर ऐंठी हुई मिलती। वह पानी पीने के लिए उठती। पलंग चरचराता। वह डर कर फिर बैठ जाती। फिर बहुत धीरे-धीरे उठती और घड़ौंची के पास जा कर खड़ी हो जाती और खबर सोये हुए शौकत की तरफ देखने लगती...
दिलीप कुमार, राजकपूर और देव आनंद तो पता नहीं कौन थे। और कैसे थे। परन्तु शौकत तो शौकत ही था। सामने पड़ा बेखबर सो रहा था। गहरा सांवला रंग। बड़ी-बड़ी बंद आँखें, गोल नाक। अच्छे खासे मोटे होंठ। ऊपरी होंठ पर नर्म सुर्मइ रोयें की एक लकीर। मैला बनियान। चारखानेदार बैंगनी लुंगी...
रजिया को पता भी न चला कि जागती हुई आवाजें सुनते-सुनते और सोये हुए शौकत को देखते-देखते वह कब जवान हो गई। वह यह तो जानती थी कि उसमें कोई परिवर्तन हो रहा है। परन्तु उसे यह मालूम नहीं था कि इस परिवर्तन का नाम क्या है।
इसीलिए यह कहना ठीक नहीं कि रजिया को शौकत से प्यार हो गया था। रजिया तो यह सोच भी न सकती थी कि वह अपनी मत्तो बुआ के लड़के शौकत से प्यार कर सकती है। परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं कि वह शौकत से बेख़बर थी। वह उसे दिन को तो नौकर दिखाई देता, परन्तु रात को जब वह घड़ौंची के
उधर सोता दिखाई देता तो उसमे कुछ और ही बात पैदा हो जाया करती थी। वह दिलीप कुमार, राजकपूर और देवआनन्द हो जाया करता था। और वह देर तक भरा हुआ कटोरा हाथ में संभाले उसकी तरफ देखती रहा करती थी। भरा हुआ कटोरा संभाले इसलिए कि जो कोई जाग पड़े तो यह देख सके कि वह पानी पीने उठी है।
जाड़े की रातें अलबत्ता बहुत परेशान करती थीं। क्योंकि उन रातों में वह सोता तो उसी दालान में था जिसमें घड़ौंची हुआ करती थी,परन्तु जाड़े की रातों में हर रात प्यास जो नहीं लग सकती। फिर भी गयी रात को उसकी आँख जरूर खुलती। वह बाहर निकलती। लोटा उठाती और गुसलखाने की तरफ चली जाती। वहाँ पानी बहा कर फिर लौट आती। परन्तु शौकत में एक बुरी आदत यह थी कि वह मुँह छिपा कर सोया करता था। तो जी कड़ा करके वह लोटा उठाने और फिर लोटा रखने में खास शोर करती, कि शायद शौकत की आंख खुल जाये और वह सिर से लिहाफ सरका के देखे। परन्तु वह तो जैसे हाथी घोड़े बेच कर सोया करता था। वह लाख कोशिश करती परन्तु शौकत की आँख न खुलती तो उसे मजबूरन कमरे में जाकर लेट जाना पड़ता। वह जाकर लेट जाती। परन्तु देर तक जागती रहती और लाउडस्पीकर गूंजनेवाली आवाज सुनती रहती।
रजिया में होनेवाली इस परिवर्तन की खबर घर में किसी को नहीं थीं। रुकय्या होती तो शायद उसके बदन में मचलती हुई अंगड़ाईयों की आहट सुन लेती। परन्तु वह तो शम्सू मियां के साथ पाकिस्तान जा चुकी थीं। जहाँ शम्सू मियां का बड़ा बेटा किसी बड़ी नौकरी पर था। शम्सू मियां मांगे का चढ़ावा लाये थे। पाँच हजार का कर्ज छोड़ कर एक रात चुपचाप चले गये थे।
तो रजिया किसे बताती कि एक अजीब प्यास लगती है और वह प्यास उसे गयी रात को जगा देती हैं। वह घर में अकेली थी। उसके दिल की भाषा समझने वाला कोई नहीं था। और शायद उसकी जिदंगी इसी बेजबानी में कट गई होती। परन्तु एक दिन एक बड़ी साधारण-सी बात ने सुबह की नर्म हवा की तरह उसे छू दिया और उसका सारा बदन जवान बन गया।
हुआ यह कि मत्तो बावर्चीखाने के दर पर बैठी मसाला पीस रही थी आमेना शाम की नमाज पढ़ रही थी। रजिया दालान में एक खुरें पलंग पर लेटी कुछ गुनगुना रही थी कि शौकत आया उसके हाथ में कई चीजें थीं।
''छोटी बहिनी तनी इ पान ले ल्यो'' शौकत ने यह कह कर वह हाथ उसकी तरफ बढ़ाया, जिसमें पान था, वह कोई खास बात न थी। कई बार यह हो चुका था कि जब मत्तो किसी काम में फसी होती वह बाजार से लाई हुई चीजें रजिया को दे देता। परन्तु शाम को खास बात यह हुई कि पान लेते वक्त रजिया का हाथ शौकत के हाथ से छू गया। पलभर से भी कम की बात थी। शौकत मुड़कर बावर्चीखाने की तरफ चला गया। परन्तु रजिया जहां की तहां खड़ी रह गयी। उसका सारा बदन झनझना रहा था। और व पान के हरे-हरे पत्तों की तरफ यूँ देख रही थी। जैसे उन्होंने कोई शरमा देने वाली बात कह दी हो।
उस शाम के बाद से ऐसा होने लगा कि व शौकत के बाज+ार से आने की राह देखने लगी। शौकत को आता देख कर वह चीजें लेने के लिए झटपटाती। इस बात पर न तो मत्तो ने ध्यान दिया और न आमेना ने। इसलिए शौकत चीजें लेकर आता रहा। रजिया वह चीजें लेती रही। हाथ से हाथ टकराहट रहा। बदन झनझनाता रहा और तब वह एक दिन वह यह जान कर शरमा गई कि शौकत अब चीजें लेकर ऐसे समय पर लेकर आता है, जब मत्तो मसाला पीस रही होती और आमेना नमाज+ पढ़ रही होती है। वह जो शरमाई तो शौकत ने उसकी उगंलियां जरा-सी दबा दी। और पहली बार उसने रजिया की तरफ देखा। ठीक उसी वक्त रजिया ने उसी तरफ देखा। वह मुस्करा दिया।
अभी तक इन दोनों को वह यह मालूम था कि वह एक दूसरे से प्यार करने लगे हैं। रजिया को तो खैर यह मालूम ही नहीं था कि प्यार होता क्या है। मगर शौकत हिन्दी फ़िल्में देखता रहता है। तो उसे उन फ़िल्मों पर बड़ा भरोसा होता था। वह अक्सर रजिया को कामिनी कमसिन और मधुबाला और नर्गिंस के सपनें देखता और खुद दिलीप कुमार, विनोद कपूर बनता। इसलिए उसे यकीन था कि उसे रजिया से प्यार नहीं हुआ है, क्योंकि उसने तो रूपहरे पर्दे पर प्यार से लबरेज सीन देखे थे। जो हाथ छूने में इतने दिन लगने लगें तो हो चुकी मुहब्बत परन्तु इसमें शक नहीं कि उसे रजिया का हाथ छूने में बड़ा मजा आता था। वह उस एक पल की उम्मीद में सारा दिन गुजारा करता था। इसीलिए किसी दिन जो उसका हिसाब जरा ग़लत हो जाता और मत्तो साली मिलती तो उसका मुँह उतर जाता और शायद दिलो की बात आगे न बढ़ती यहां से, क्योंकि यह दोनों ही इस बात से बेख़बर थे कि उन्हें एक दूसरे से प्यार हो गया है। परन्तु गर्मी की एक शरीर दोपहर ने दोनों को जो धक्का दिया तो दोनों टकरा गये।
हुआ यह कि मीर जामिन अली खाना खाकर लेट गये थे। आमेना भी पंखा झेलने के लिए पास ही लेट गयी थी। मत्तो कोठरी में थी। आंगन में लू चल रही थी।
रजिया चुपके से अपने कमरे का दरवाजा खोल कर बाहर आ गयी। वह दबे पांव बावर्चीखाने की तरफ चली, जहां एक छीके पर हरी-हरी अमियां रखी थी। रजिया के मुँह में पानी आ गया। दो अमियें उतार कर उसने जल्दी-जल्दी कुचला बनाया। और फिर वहीं बैठ कर चटखारे ले-लेकर खाने लगी।
सच्ची बात यह है कि उस समय उसके दिमाग़ में शौकत नहीं था। परन्तु शौकत आ गया। और यह भी सच्ची बात है कि उस समय उसके दिमाग़ में भी रजिया नहीं थी। परन्तु एक छोटे-से घर में एक दूसरे को न देख लेना संभव नहीं हैं। दोनों ने एक दूसरे को देखा-दोनों के हलक एकदम से सूख गये। वह बावर्चीखाने की चौखट पर रुक गया। उसने बोलना चाहा परन्तु आवाज गोंद की तरह सूख गयी थी। तो उसने कुचले के लिए हाथ बढ़ा दिया। रजिया ने उसी उंगली पर थोडा-सा कुचला उठाया जिससे वह खुद अब तक चाट रही थी। कुचले समेत उसने वह उंगली शौकत की खुली हुई हथेली पर रख दी।
''छोटी बहिनी।'' उसके हलक़ से एक अजीब-सी आवाज+ निकली।
''का है।'' रजिया के लिए भी अपनी आवाज को पहचान लेना मुश्किल हो गया।
तो शौकत ने उसकी वह उंगली पकड़ ली। फिर वह उस उंगली को अपने होंठों की तरफ ले चला। अब बात उसकी समझ में आने वाली लगी थी। यह तो फ़िल्मी पर्दे जैसी बात है। उसने वह उंगली चाट ली बैक ग्राउंड म्यूजिक शुरू हो गया। रजिया बावर्चीखाने से दालान की तरफ भागी। मुहम्मद रफी ने गाना शुरू कर दिया। अपने कमरे का दरवाजा बंद करने से पहले रजिया पल भर के लिए ठिठकी। शौकत अब भी वहीं खड़ा था। रजिया मुस्करा दी और शौकत तक लता मंगेशकर की आवाज आने लगी-उसे यकीन हो गया कि वह रजिया से प्यार करने लगा है। यह यकीन दिल हिलानेवाला था। पता नहीं इस फ़िल्म का अंजाम क्या होगा। अभी तो के०एन०सिंह आयेगा। फिर मीर जामिन अली हीरोइन के बापों की तरह मरने की धमकी देंगे। फिर जैसे फ़िल्मों में आता है, समाज आयेगा। शौकत बेचारे ने बहुत सिर मारा परन्तु उसकी समझ में यह न आया कि आख़िर यह समाज क्या होता है।

उस रात शौकत बहुत देर तक जागता रहा और सोचता रहा। फिर वह उठा और सोचता रहा। फिर वह उठा और बाहर की ड्योढ़ी में चला गया और लालटैन की सहमी हुई रोशनी में दिलीप कुमार को खत लिखने लगा। वह कोई पढ़ा लिखा आदमी नहीं था। बड़ी बहिनी ने उसे उल्टा-सीधा पढ़ना और टेढ़ा-सीधा लिखना सिखा दिया था। उसने दिलीप कुमार को एक छोटा-सा खत लिखने में लगभग सारी रात लगा दी। उसने लिखाः
मेरे भाई दिलीप कुमार को बाद अस्सलामालेकुम के मालूम हो कि मैं खैरियत से हूँ और खैरियत उनकी खुदावंदे करीम से नेक चाहता हूँ।
यहाँ तक लिख कर रुक गया। क्योंकि यहां तक की बात उसे जबानी याद थी। यह तो हर खत में लिखा जाता है। परन्तु बात आगे कैसे बढ़े उसने फिर शुरू कियाः
गुजारिश अहवाल यह है कि मुझे छोटी बहिनी से प्यार हो गया। आप छोटी बहिनी को नहीं जानते। मगर खुदा की कसम यह आपकी हीरोइन से कहीं ज्यादा खूबसूरत हैं आप हिन्दू है तो क्या हुआ। बाकी आपके सीने में भी दिल होगा। आप एक प्यार करने वाले की मदद कीजिए। खुदा आपको इसका बदला देगा और आपको के०एन०सिंह के हाथ से बचायेगा। कसम अल्लापाक की जब वह आपको मारता है तो मेरा मगर फिर जाता है और जी चाहता है कि मैं उसकी बोटियां नोच कर चील कौवों की खिला दूं। आप ई मत सोचिए कि मैं मुस्लमान हूँ तो पाकिस्तान चला गया हूंगा और आप कोई पाकिस्तानी की मदद काहे को करें। हम पाकिस्तान ना गये हैं। हम तो बस अपने गांव से निकलकर शहर में आ गये है। और हम यहां बीड़ी बनाते हैं। और साढ़े चार रुपया रोज कमा ले रहें। हमारे लायक कोई काम हो तो जरुर लिखिए। बाक़ी आप बड़े भाई हैं और हर फ़िल्म में कोई न कोई से प्यार जरुर करते हैं। एह मारे ई जरुर बताइए कि अब हम को क्या करना चाहिए। थोड़े लिखे को बहुत जानिए और खत को तार जान कर जवाब दीजिए। एक बात हमारी समझ में नहीं आती कि के०एन०सिंह वगैरह से तो हम समझ ले। बाकी ई समाज का होता है? आज तक कोई फिलिम में एकी शकल ना देखाई दी हैं। काई समाज बहुत तगड़ा होता है।
आपका नाचीज खादिम
शौकत अली

यह बात लिखकर वह थक गया। उसे लगा कि दो हजार बीड़ी बनाना एक खत लिखने के मुकाबले में बहुत आसान काम होता है।
खत को लिफ़ाफे में रखने के बाद वह पता लिखने लगा।
दर शहर बंबई पहुंच कर
आली जनाब भाई दिलीप कुमार, मशहूर हीरो को मिले।
फिर वह थक कर सो गया। दूसरे दिन उसने पहला काम यह किया कि इस खत को लेटर बक्स में डाल आया। उसे पक्का यक़ीन था कि दिलीप कुमार खत का जवाब अवश्य देगा।
अब यह तो नहीं मालूम कि दिलीप कुमार को यह खत मिला या नहीं और यदि मिला तो उन्होंने उसे समाज की क्या परिभाषा दी। परन्तु यह मुझे अवश्य मालूम है कि शौकत-रजिया-पे्रम की कहानी हिन्दी फिल्मों के ढ़र्रों पर नहीं चली। क्योंकि हिन्दी फिल्मों में यह अवश्य दिखला दिया जाता है कि विजय समाज की हुई या नायक की। परन्तु इस कहानी के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। दूसरी परेशानी यह है कि हमारे देश में हिन्दू सोशल और मुस्लिम सोशल फिल्में बनाते हैं जैसे कि देश हिन्दू और मुस्लमान समाजों में बंटा हुआ हो और यदि सोसाइटी एक ही है तो कोई मुझे बतलाये कि यह हिन्दू सोशल और मुस्लिम सोशल क्या होता है? मजे की दूसरी बात यह है कि हिन्दू सोशल' फिल्में देखिए तो पता चलेगा कि भारत में केवल हिन्दू रहते है और 'मुस्लिम सोशल' देखिए तो पता चले कि इस देश में मुस्लमानों के सिवा कोई रहता ही नहीं। मुस्लिम सोशल फिल्मों की एक खसूसियत और होती है कि उसका हीरो यदि नवाब नहीं होता तो कवि अवश्य होता है। और अपना शौकत न नवाब था और न कवि। वह नमाज+ पढ़ता था। रोजे रखता था। परन्तु मुस्लिम सोशल फ़िल्मों के गज ;या मीटरद्ध से नापा जाये तो वह मुस्लमान ही नहीं था। इन बातों से अलग रह कर भी देखा जाये तो शौकत किसी कोने से हीरो नहीं दिखाई देता था। बीड़ी बनाने वाला एक बीड़ी मजदूर भला हीरो कैसे हो सकता है। उसे तो जब पता चला कि उसे रजिया से प्रेम हो गया है, तो उसका कलेजा धक से हो गया। उसे यकीन ही नहीं आ रहा था। छोटी बहिनी और शौकत! यह तो कोई बात ही नहीं हुई। परन्तु हुआ यह कि रजिया की माँ आमेना और अपनी माँ मत्तो की आँखें बचा-बचा कर रजिया की तरफ देखने लगा और वह जब भी रजिया की तरफ देखता उसके सारे बदन में जैसे हजारों-हजार दिल धड़कने लगते और इन हजारों हजार दिलों में लाखों लाख चिराग जल जाते और उसकी रग-रग में उजाला हो जाता और छोटे-छोटे अनगिनत ख़वाब हंसते हुए रंगों की गलियों में दौड़ने लगते और वह शोर होता कि कान पड़ी आवाज न सुनायी देती।
कई बार ऐसा हुआ कि उसने अपनी माँ की आवाज न सुनी। माँ का दिल थक से हो गया। इकलौते बेटे यूँ भी बड़े कीमती होते है और जब से पाकिस्तान बना है तब से इकलौते मुस्लमान बेटों का दाम इतना बढ़ गया है कि कभी-कभी ममता दिल में मसोस कर रह जाती है, क्योंकि सौदा नहीं पटता, इसीलिए मत्तो हील खाने लगी। एक दिन वह चुपके से मस्जिद के मुल्ला के पास गई। उसने कहा कि शौकत पर एक परी का साया हो गया है। मुल्ला को मालूम था कि मत्तो मीर जामिन अली की नौकरानी है, और मुल्ला को यह भी मालूम था कि जमींदारी ख़त्म हो चुकी है। इसलिए उसने केवल आधे तोले सोने,एक काले मुर्ग और एक तोले जाफरान की मांग की, यदि वह मत्तो के हाथों में सोने की चार चूड़ियाँ न देख लेता तो शायद सोने की मांग न करता। परन्तु चूड़ियां उसके सामने थी। मत्तो ने एक चूड़ी उसके हवाले की। मुर्ग और केसर का दाम दिया। एक शुक्रवार को मुल्ला ने उसे दो ताबीज दिये। एक ताबीज शौकत के पलंग के पाये के नीचे दबाने के वास्ते और दूसरा घोल कर पिलाने के लिए। मत्तो उस दिन मस्जिद से बहुत खुश लौटी। एक ताबीज उसने पलंग के पाये के नीचे दबा दिया और दूसरा ताबीज उसने शौकत की दाल में घोल दिया। ताबीजों के साथ-साथ उसने हाथ उठा-उठा कर उस परी को खूब कोसने भी दिये जिसने उसके इकलौते बेटे पर अपना साया डाल दिया था।

जाहिर है कि शौकत को ये बातें नहीं मालूम थी। वह तो रजिया के ख़याल में मगन था। पहले वह बाहर की ड्योढ़ी में बैठकर बीड़ी बनाया करता था। अब उसने दालान में अपनी चटाई डाल ली थी।
छोटे दालान से सदर दालान साफ दिखाई देता था। वह बोड़ी बनाता रहता और चुपके-चुपके कोई ग़जल गुनगुनाता रहता।
घर में इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि अब रजिया ने ऊपरवाले कमरे में समय बिताना छोड़ दिया है।
रजिया जब स्कूल में न होती तो सदर दालान में होती और एक पलंग पर लेटी पांव के अंगूठे हिलाती रहती और इस्मत चुगताई या मंटो या कृष्ण चंदर की कहानियां पढ़ती रहती और कनखियों से बीड़ी बनाते हुए शौकत को देखती रहती। कभी-कभार दोनों की आँखें मिल जाती तो दोनों मुस्करा देते। इस मुस्कराहट की ओस से दोनों के बदन नम हो जाते।
एक दिन मत्तो ने शौकत की मुस्कराहट पकड़ ली। उसने बावर्चीखाने में मसाला पीसते-पीसते उस मुस्कान का पीछा किया। वह मुस्कान रजिया की आँखों से उसके दिल में उतर गयी। मत्तो को अपनी आँखों पर यकीन न आया। यह एक अनहोनी बात थी। यह और वह है कि वह खुद दिल में मीर जामिन अली को पूज चुका थी। परन्तु वह नौकर नहीं थी, नौकरानी थी। नौकरी का पूरा इतिहास नौकरानियों और मालिकों के बदन के टकराव की कहानियों से भरा हुआ था। परन्तु आज तक किसी नौकर से मालिक की लकड़ी की तरफ देखकर मुस्कराने का हौसला नहीं किया था। अनारकली हो तो दीवार में चुनवा दी जाती है। परन्तु अनारकली की जगह कोई शौकत हो तो क्या अंजाम होता है। वह कांप गयी।
उस रात जब घर में सोता पड़ गया तो वह शौकत के सिर में तेल डालने बैठ गयी। वह इस उघेड़-बुन में थी कि बात शुरू कैसे करे कि खुद शौकत ने बात शुरू कर दी।
''अब तू बूढ़ी हो गयी है अम्मा जाओ आराम करो।''
स्त्र्''हां, बेटा बूढ़ी त ज+रूर हो गयी हौं। बाकी तौरे सिर में तेलो पड़ना त जरूरी है ना। ए ही मारे सोच रहें कि तोरा बिआह कर के चांद अय्यसी दुल्हिन लिआये।''
''हम त छोटी बहिनी से बिआह करेंगे।'' शौकत ने कहा। यह बात उसने दस-बारह साल बाद कहीं थी। और अब मत्तो उसे चांटा भी नहीं मार सकती थी। उसे कोसने भी नहीं दे सकती थी।
''अय्यसी बात ना करे को बेटा!''
वह उठ कर बैठ गया।
''काहे न करें अय्यसी बात।''
ऊ मालिक है।''
''का तनखाह देते हैं तो को?''
''तनखाह से का होता है!''
''...हम बदमाशी करें की बात ना कर रहें। बिआह करे की बात कर रहे।''
''बरब्बर की बात ना है ना बेटा। एह मारे बिआहो की बात बदमाशीय की बात है।''
''का हम शम्सूओं मियां से गये गुजरे हैं, तू हम्में इ बता द्यो कि हमरे में का खराबी है?''
उसमें कोर्ई खराबी होती तब भी मत्तो को दिखाई न देती क्योंकि मत्तो माँ थी। तो वह शौकत के इस सवाल का क्या जवाब देती। वह चुपचाप सिर में तेल मलने लगी। परन्तु बैठे हुए शौकत का सिर उसे बहुत ऊँचा लगा।
''अच्छा तनी लेट के जट से तेल त लगवा ले।'' मत्तो की आवाज+ जैसे उसके कान से चिपक गयी। उसकी आवाज इस इश्क की आंच से पिघल गयी थी। वह लेट गया। सन्नाटा छा गया।
''अच्छा जो मैं इ मानों ल्यों कि मियां छोटी बहिनी से तोरा बिआह करे पर राजी हो जय्यहें त तैं हम्में ई बता कि मैं छोटी बहिनी से अपना पांव दबवय्यहो?''
''काहें ना दबावय्यहों?''
हमरें बाप दादा जेके बाप दादा का नमक खाइन हैं हम ओसे अपना पांव ना दबवा सकते।'' मत्तो की आवाज में फैसले की खनक थी।
''अच्छा मत दबवय्यहो बस। हम दबावेंगे तोरा पांव। और अब हम्में सोये द्यो। अब हम्में नींद आ रही।'' उसने करवट ले ली।
थोड़ी देर तक मत्तो उसका सिर सहलाती रही। पर जब शौकत आँखें बंद किये पड़ा ही रहा तो वह उठ कर अपने बिस्तर पर चली गयी।

गर्मी की रात थी। बांस का पंखा झलती हुई मत्तो तारों भरे आसमान की तरफ देखती रही। खटोलना घर की छत पर था। उसकी आँखें उसी खटोलने पर जम गयीं और वह शौकत के बारे में सोचने लगी। का मैं ओको बित्ते भर से एक लाठी का एह मा किये हौं कि ऊ छोटी बहनी के वास्ते मोरी बात टाल दें?
परन्तु यह बात ऐसी थी कि वह मुंह से निकाल भी नहीं सकती थी। कई दिन तक वह यही सोचती रही और बावर्चीखाने के दर पर बैठी अपने शौकत की मुस्कान को छोटी बीबी की आँखों से दिल में उतरते देखती रही और हौल खाती रही कि छोटी बीबी का क्या है। बरस-दो बरस में कोई बाजे-गाजे के साथ आकर उसे बिदा करवा ले जायेगा। परन्तु शौकत का क्या होगा?
मत्तो सोच रही थी।
शौकत मुस्करा रहा था।
रजिया इस्मत की टेढ़ी लकीर पढ़ रही थी।
समय रेंग रहा था।
दोपहर का वक्त था। आंगन में लू दौड़ रही थी। रजिया एक टीकोरा खा रही थी कि शौकत आया। रजिया को देखकर वह बावर्चीखाने में चला गया।
''हमहूं को चखा दीजिए जरा-सा सा।''
रजिया मुस्करा दी। उसने अपना जूठा टिकोरा उसकी तरफ बढ़ा दिया। यही मौका था। शौकत ने हजार बार दिलीप कुमार को कामिनी कौशल, नलिनी जयवंत या मधुबाला का हाथ पकड़ते देखा था। उसने रजिया का हाथ पकड़ लिया।
कोई देख लीहों रजिया की आवाज प्यार के बोझ से लचक गयी।
''दुपहरिया में कौन खड़ा है दखें वाला।''
शौकत ने छोटी बहिनी को अपनी बांहो में कस लिया। और ठीक उसी वक्त नाइन कहीं से हिस्सा लेकर आ गयी। रजिया तड़प कर अलग हो गयी। शौकत मटके से पानी निकालने लगा। नाइन सिर से सेनी उतार कर वहीं बावर्ची खाने में बैठ गयी।
''सेख जी इ आम भे जिन हैं। पहिली फसिल आयी है।'' नाइन ने १२ आम निकाल कर बावर्चीखाने के फ़र्श पर रख दिये। रजिया ने सेनी में कोई आध सेर आटा सिर भारी का डाल दिया। नाइन ने सेनी पर रख ली।
''बड़ी गर्मी है।'' नाइन ने रजिया से कहा।
रजिया ने सिर हिला दिया। नाइन चली गयी।
''अ जो ऊ देख लिहिस होय तब का होगा'' उसने सवाल किया।
''हमरे ख़याल में त ना देखिस है।'' शौकत ने कहा। डर तो उसे भी यही था कि नाइन ने देख लिया होगा तो क्या होगा। परन्तु वह छोटी बहिनी को परेशान करना नहीं चाहता था।
दोनों को शाम होते-होते इस प्रश्न का जवाब मिल गया।
नाइन मीर जामिन अली के घर से उठकर समीउल्ला खां के घर गयी। हिस्सा देकर जमीन पर पलंग की पट्टी से लग कर बैठ कर पान का इंतजार करने लगी। खां साहब की बीवी पान लगा रही थी।
यह बोली।
''बाप रे बाप। का जमाना आ गया है!''
''का भया?''
''अब मैं का बताओं बीबी कलजुग है। जो न हो जाये ऊ थोड़ा है।''
''तनी एक देखे कोई।'' पठानी झल्ला गयी। ''टरटराये जा रही और मुंह से ई ना फूटती कि आख़िर भया का।''
''बाइस्कोप भया। बीबी और का भया!'' नाइन सिनेमा की शौकीन थी। पठानी भी कभी कभार सिनेमा देख आया करती थी। सुन कर उनका माथा ठनका। वह संभल कर बैठ गयीं।
''मैं निखौंदी चली गयी दनदनाती मीर साहब के घर हिस्सा देवे। बाकी अब हुआ पुकार के जाय को चाहिए बीबी।''
नाइन ने यह कहानी सुनाते-सुनाते तीन पान खाये। पठानी इस कहानी को अमृत की चाट गयीं। एक-एक शब्द को उन्होंने खूब-खूब निचोड़ा कि कोई बूंद रह न जाये। नाइन तो कहानी सुना कर चली गयी। परन्तु पठानी के लिए घर में बैठना-मुश्किल हो गया और दिन था कि ढ़लने का नाम नहीं लेता था। वह इस कदर जल्दी में थी कि अस्र की नमाज उन्होंने समय से पढ़ डाली।
पठानी के साथ यह कहानी सारे मुहल्ले में फैल गयीं। बीबियों ने दांतों में उंगलियों दबा ली। पठानी सारे मुहल्ले का चक्कर लगा कर आख़िर में मीर जामिन अली के घर पहुंची। आमेना को तो कुछ मालूम नहीं था। उसने पठानी को हाथों-हाथ लिया। परन्तु पठानी बैठती ही बड़े राजदाराना लहजे में बोली कि मुहल्ले में क्या बातें हो रहीं...
''अब मैं बेचारी केहका केहका मुँह बंद करौ?''
आमेना सन्नााटा में आ गयी। पठानी आमेना को सन्नााटे में छोड़ कर चली गयी। उनके जाने के बाद आमेना ने बावर्चीखाने की तरफ देखा। मत्तो दाल बघार रही थी। फिर उन्होंने छोटे दालान की तरफ देखा। शौकत बैठा लालटैन की रोशनी में बीड़ी बना रहा था। फिर उन्होंने सदर दालान की तरफ देखा। सड़ी हुई गर्मी में रजिया एक पलंग पर लेटी न जाने क्या पढ़ रही थी और पैर के अंगूठे नचा रही थी। आमेना के तन बदन में आग लग गयी। वह उठी सदर दालान में जाकर उन्होंने रजिया को एक दोथप्पड़ मारा और फिर वह उसे कोसने लगी।
उनके कोसने इतने साफ थे कि बात मत्तो, शौकत और रजिया की समझ में आ गयी। आमेना रोती जा रही थी और बेटी के मरने की दुआएं मांगती जा रही थी और नमक हरामों को शाप देती जा रही थी।
पोर-पोर गल के गिर जाये नमक हरामन की। मरते वक्त कोई मुँह में पानी चुआवेवाला ना जुड़े। या अल्लाह माटी मिला वे निशान उठ जावे। कबुर पर दिया बत्ती करनेवाला ना रह जाये...''
अपनी झल्लाहट में वह यह भी भूल गयी कि यह मीर साहब के खाने का वक्त हैं। मीर साहब यह कोसने सुन कर सन्नाटे में आ गये।
''क्या हो गया भई।''
'' अरे इ पुछिए कि का ना हो गया। बता अपने बाप को ही कलमूंही।''
कलमूंही! यह शब्द एक पत्थर की तरह मीर साहब के माथे पर लगा। उनकी आत्मा लहू लहान हो गयी। वह किसी छतनार बूढ़े पेड़ की तरह इस आंधी में टूट गयी...
''इस मत्तो हलामजादी से कहो कि अपने नमक हराम बेटे को ले कर इसी वक्त जाये मेरे घर से।''
आमेना आंसू पोंछती हुई पांयती बैठ गयी। रजिया वहीं दालान में थी और रो नहीं रही थी। शौकत अपने दालान में था। परन्तु उसने बीड़ी का सूप नीचे रख दिया था। मत्तो बावर्चीखाने में थी। वह मीर साहब के लिए खाना निकाल रही थी। मीर साहब का हुक्म सुनते ही वह कफगीर को पतीली में छोड़ कर शौकत के पास गयी। अपनी जूती उतार कर उसने शौकत को मारना शुरू किया। शौकत चुपचाप मार खाता रहा। उसने बचने की भी कोई कोशिश न की।
''बाकी जो एह सभन को निकाल दिया गया त महल्लेवाले ई जरूर कहिएं कि जो कउनो बात ना होती त आप एह तरे से इन सभन को कभई ना निकालते।''
आमेना ने कहा।
यह बात भी ठीक थी।
मीर साहब ने अपना फैसला बदल दिया परन्तु यह हुक्म हो गया कि अब शौकत अंदर नहीं आयेगा। शौकत बीड़ी का सूप उठाये, सिर झुकाये बाहर ड्योढ़ी में चला गया।
दूसरे ही दिन में मुहल्ले में खुसुर-फुसुर होने लगी।
''अरे साहब निकाल कैसे दें। चार साढ़े चार रुपया रोज कमा रहा है। लड़का।''
''और हर्ज ही क्या है। इस्लाम ऊंच-नीच तो मानता नही।''
''मैं तो कह रह्मूं भाउज कि इ तो बैगतीं की हद हो गयी। ऊ साफ फंसी है। ओसे!''
शौकत सांप के मुंह की छछूंदर बन गया था। न उगला जा रहा था न निगला जा रहा था। मीर साहब ने बाहर निकालना छोड़ दिया। क्योंकि वह बाहर निकलते तो लोग गला साफ करने लगते।
और घर के अंदर एक गंभीर सन्नाटा था। आमेना बुत बनी एक पलंग पर बैठी रहती। रजिया उसी पलंग पर लेटी कोई किताब पढ़ती रहती। मत्तो खाना पकाती रहती, झाड़-पोंछ करती रहती और रोती रहती। शौकत ड्योढ़ी में बैठा बीड़ी बनाता रहता। मीर साहब हुक्का पीते रहते और अपनी छोटी-छोटी मूंछो को दांतो से चबाते रहते। कोई किसी से नहीं बोलता था। ऐसा लगता था कि घर खाली हो गया है और घर को खाली देख कर कुछ परछाइयां आ बसी हैं।
जमींदारी के खात्मे ने मीर साहब को परेशान किया था। किया था परन्तु बूढ़ा नहीं किया था। मगर रजिया के इश्क़ की गर्म हवा ने उन्हें बिल्कुल झुलस दिया था। वह आत्महत्या भी नहीं कर सकते थे क्योंकि इसका मतलब भी यही निकलता कि उनकी छोटी बेटी उनकी नौकरानी के लड़के से फंसी हुई है। चारा केवल एक था कि जल्द से जल्द रजिया का ब्याह कर दिया जाये-परन्तु अब प्रश्न यह था कि लड़की वाले खुद अपनी बेटी के लिए कहीं पैगाम कैसे दें। मीर साहब ने यह काम करने से नकार कर दिया।
''मार गैरते देखाये को है त ऊहे माटी मिले शौकतवे से दू बोल पढ़वा दिजिए। लड़की वाले बने का मुंहो रह गया है हम लोगन का!''
मीर साहब बल खा कर रह गये। परन्तु बात आमेना ठीक कह रही थी। तो रिश्ते के किसी भाई भतीजे को लिखा गया कि फलां साहब के लड़के से रजिया की बात चलाओ। चक्कर चल गया।
अब ऐसा तो है नहीं कि सारे ही मुस्लमान लड़के पाकिस्तान चल गये हों, कई जगह से खतों का चक्कर चला। एक जगह बात पक्की हो गयी। लड़का पी०डब्ल्यू०डी० में ओवरसियर था। तनखाह तो कुछ ज्यादा न थी। परन्तु ऊपर की आमदनी अल्लाह के करम से काफी थी। लड़के के खानदान में कहीं-कहीं इक्का दुक्का पैबंद लगे हुए थे। परन्तु पाकिस्तान बनवाने की इतनी कीमत तो देनी ही पड़ेगी कि खानदानी लड़कियां खोटे खानदानों में ब्याही जायें। तो साहब मरता क्या न करता। बड़ी ऊंची नाकवाले मीर जामिन अली ने यह रिश्ता मान लिया। बड़े धूम-धड़क्के से तैयारियां शुरू हुई। परन्तु बरात आने के दिन से कोई दो महीने पहले ओवरसियर के बाप का खत आया कि लड़की में खोट है। यह बात इशारे में कहीं गयी थी। साफ साफ यह लिखा गया था कि लड़का ठना हुआ है कि जो दहेज में एक हिंदुस्तान गाड़ी न मिली तो ब्याह करने से फायदा ही क्या। फायदा-यह शब्द भी किन-किन दीवारों पर ठुंका दिखाई देता हैं।
मीर साहब कोई पागल नहीं थे कि इस खत का मतलब न समझ लेते। मतलब साफ था कि लड़की शौकत से फंसी हुई है। उसका ब्याह करना हो तो एक मोटर दो! इसीलिए यह खत पढ़ कर मीर साहब की आंखों में खून उतर आया और आमेना हाथ उठा-उठा कर मुहल्ले वालों को कोसने लगी। ''हे पाक परवर दिगार। जय्यसा इ लोग हमरी बेटी के वास्ते कर रहें इनहूं लोगन के सामने आवे...''
परन्तु कोसनों से क्या होता हैं। रिश्ता टूट गया क्योंकि मीर साहब में कार देने की सकत न थी। उधर सारे मुहल्लेवालों को मालूम था कि बात पक्की हो गयी है और तारीख पड़ गयी है। और यदि उसी तारीख पर बरात न आयी तो मर जाने के सिवा कोई चारा न रह जायेगा।
लड़के के लिए फिर जाल डाला जाने लगा। जो लड़का मिला वह बासठ साल का एक टांठा बुड़ढा था। रिटायर्ड थानेदार था। रंडुवा था। पांच बेटियों और चार बेटों को ब्याह चुका था। परन्तु पांचों दामाद और चारों बेटे पाकिस्तान में थे। इसलिए वह अपनी बूढ़ी तनहाई दूर करने के लिए एक नौजवान लड़की से ब्याह करने को तैयार हो गया।
इस बार मुहल्लेवालों को कानों-कान खबर न होने दी गयी। मत्तो मस्जिद के मुल्ला के पास गयी कि वह कोई ऐसी तरकीब करें कि यह ब्याह हो जाये। मत्तो की समस्या यह थी कि वह यह नहीं भूल सकती थी कि उसकी रगों में दौड़नेवाला लहू वास्तव में रजिया के बाप दादा का नमक है। वह रजिया से पांव दबाने के लिए नहीं कह सकती थी। मुल्ला से भी वह यही रोयी-गायी, क्योंकि दाई से पेट और मुल्ला से बात नहीं छिपायी जाती। सोने की दो चूड़ियों पर बात पक्की हो गयी। मुल्ला ने एक जलाली तावीज लिख दिया और एक जलाली चिल्ला खींचने का वादा किया और वह मत्तो को यह यकीन दिलाने में सफल हो गया कि मीर निजाकत हुसैन बरात ले कर अवश्य आयेंगे। मीर निजाकत हुसैन उस लड़के का नाम था जिससे रजिया की निस्बत लगी थी।
मीर साहब के घर में तो शादी की तैयारियां पहले ही हो चुकी थी। इसलिए उन मियां बीबी का तो केवल यह काम रह गया था कि हर नमाज में यह दुआ मांगें कि ब्याह साथ खैरियत के हो जाये। समधियाने से कोई खत आता तो घड़कते हुए दिल के साथ पढ़ा जाता। और मत्तो आमेना के चेहरे पर इतमिनान की चमक देखकर मुतमइन हो जाती। हर बार मत्तो खुदा का शुक्र अदा करती पर एक दिन जब वह फिर दाल की बघार रही थी। उसने आमेना के कोसनों की आवाज सुनी। हे पाक परवरदिगार। जय्यसा ई लोग हमरी बेटी के वास्ते कर रहें इनहूं लोगन के सामने आवे...
मत्तो के हाथ से बघार का कर्छुल गिर गया। मीर निजाकत हुसैन ने बरात लाने से इनकार नहीं किया था। परन्तु उन्हें चूंकि रजिया और शौकत की कहानी मालूम हो चुकी थी। इसलिए वह रजिया की एक तस्वीर मांग रहे थे।
मीर जामिन अली गुस्से में कांपने लगे। मीर निजाकत हुसैन ने यह नहीं लिखा था कि वह रजिया और शौकत को कहानी सुन चुके परन्तु यूं ऐन वक्+त पर तस्वीर मांगने का और मतलब हो क्या ही सकता है? मीर जामिन अली ने निजाकत हुसैन साहब रिटायर्ड थानेदार को लिखा दिया कि आखिर वह भी पांच बेटियां ब्याह चुके हैं। क्या उन्होंने समधियाने वालों की बेटी की तस्वीरें सप्लाई की थी? इस खत के जवाब में मीर निजाकत हुसैन रिटायर्ड थानेदार ने एक बड़ा सादा-सा खत लिखा। उस खत में सलाम दुआ के बाद लिखा थाः
...खादिम ने अपने समधियानेवालों को बेटियों की तस्वीरें इसलिए नहीं भेजी थी कि उनमें से किसी ने घर के किसी पालक से फंसने की ग़ल्ती नहीं की थी। आपको इत्तला के लिए कुछ खत रवाना कर रहा हूं...
इस खत के साथ चार खत और थे। उनमें से हर खत में रजिया और शौकत की कहानी लिखी थी। वह चारों खत रजिया की तहरीर में थे।
मीर जामिन अली पहली बार यह भूल गये कि हर एक शरीफ आदमी हैं। पहली बार उन्होंने रजिया पर हाथ उठाया। वह उसे केवल मार रहे थे। चूंकि उन्होंने रजिया से बोलना छोड़ रक्खा था इसलिए वह उसे डांट रहे थे। रजिया ने भी चूंकि उनसे बोलना छोड़ रक्खा था इसलिए वह यह भी बताना नहीं चाहती थी कि उसे चोट लग रही है! मीर साहब मारते-मारते थक गये। और तब उन्होंने बेटी की तस्वीर खिंचवाने की बेगैरती करने का फैसला किया।
परन्तु बेटी की तस्वीर खिंचवाना कोई आसान काम नहीं है। वह रजिया को लेकर फ़ोटोग्राफर की दूकान तक जा नहीं सकते थे। घर में फोटोग्र्राफर को बुलाते तब भी वही बात होती। इसलिए एक रिश्तेदार की बीमारी की खबर उड़ा कर मीर साहब बीबी और बेटी को ले कर बनारस चले गये। वहां तस्वीर खिंची और वहीं से मीर निजाकत हुसैन के पास भेज दी गयी। मीर निजाकत हुसैन रजिया पर लहलोट हो गये। वह चार दिन पहले बरात लाने पर तैयार थे। उनका यह जवाब पाकर मीर जामिन अली ने इतमिनान का सांस लिया। मत्तो लपकी लपकी मस्जिद गयी और सवा रुपया मुल्ला को भेंट कर आयी।
मीरासनें ढोल ठोकने लगी।
जिन दिन ढोल ठोंका गया उस रात को सब के सो जाने के बाद रजिया पलंग से उठी। चुपके-चुपके चोरों की तरह वह बाहरी ड्योढ़ी तक चली गयी।
शौकत जाग रहा था।
''अब तोरा का इरादा है शौकत?''
''तूं जो कहो छोटी बहिनी।''
छोटी बहिनी ने कुछ नहीं कहा। सदर दरवाजा खोल कर छोटी बहिनी सड़क पर निकल गयी। अंधेरी रात ने उसे गले लगा लिया। ड्योढ़ी में शौकत के चेहरे पर लालटैन की रोशनी पड़ रही थी। उसने पहले उस दरवाजे की तरफ देखा जिसे खोल कर रजिया ड्योढ़ी में आयी थी। फिर उसने उस दरवाजे की तरफ देखा जिसे खोल कर रजिया सड़क पर निकल गयी थी। और फिर उसने उस परछाई की तरफ देखा जो सड़क पर खड़ी उसकी राह देख रही थी।
वह भी परछाई बन गया।

Read more...

About This Blog

  © Blogger templates ProBlogger Template by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP