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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Thursday, December 31, 2009

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HAPPY NEW YEAR 2010

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Wednesday, September 23, 2009

फेयरवेल

प्रताप दीक्षित


अंततः रामसेवक अर्थात्‌ आर.एस. वर्मा, सहायक सुपरवाइजर की पोस्टिंग मुख्यालय में ही हो गई। ग्रामीण इलाकों से लेकर कस्बों और अनेक नगरों में फैली शाखाओं वाले इस अर्द्धसरकारी जनसेवी संस्था का मुख्यालय प्रदेश की राजधानी में स्थित था। नियुक्ति के पश्चात्‌ लगभग पन्द्रह-सोलह वर्षों के दौरान वह सदा ग्रामीण अथवा कस्बाई इलाकों में ही रहा था। नीति के अनुसार प्रत्येक तीन वर्ष बाद उसका स्थानान्तरण हो जाता। यद्यपि इसके कारण अभी तक उसे कुछ विशेष असुविधा तो नहीं हुई क्योंकि जिस छोटे-से नगर की गंदी-सी बस्ती में उसका बचपन बीता था, उसकी तुलना में इन जगहों में उसके रहन-सहन का स्तर पर्याप्त से अधिक ही था। परन्तु बढ़ती सुविधाएँ, जिनका वह आदी होता गया था, शीघ्र ही अपनी अर्थवत्ता खोने लगीं। मसलन रंगीन टी.वी. और फ्रिज खरीदा, तो बिजली न आती। पत्नी के लिए ब्यूटी सैलून न होता। कहीं-कहीं तो उसके नए विशाल सोफे और बोन-चाइना की क्रॉकरी के लिए उपयुक्त मेहमान तक उपलब्ध न होते। अतः क्षेत्राीय प्रबंधक से लेकर यूनियन के महासचिव तक दौड़ने और काफी जद्दोजहद के बाद उसके स्थानान्तरण के लिए आदेश हेड ऑफिस हेतु हो गए। इस महानगर में आने के थोड़े ही दिनों बाद उसे लगने लगा कि उसके अंदर की गौरैय्या एक डैने पसारे विशाल पक्षी में परिवर्तित हो रही है।
नई जगह, आवास से कार्यालय दूर था। बच्चों के स्कूल भी पास नहीं। खर्च बढ़ने ही थे। पिता को भेजे जाने वाले मनीऑडरों में अंतराल आने लगा। दफ्तर के बाद अथवा छुट्टियों में बाहर निकलना मुश्किल होता। पिछली जगहों में, यहाँ की तरह नफासत पसंद सहयोगी भले ही न रहे हों, पर अवकाश के दिन और शामें मोहन लाल, श्रीवास्तव, रफीक अथवा पांडेय के यहाँ कट ही जाती थी। यहाँ इस प्रकार का पारस्परिक व्यवहार संभव न हो पाता। एक तो चलन नहीं दूसरे सभी दूर-दूर रहते थे। उसने प्रारम्भ में कोशिश की परन्तु थोड़ी ही देर बाद, जिसके घर वह गया होता, उसके आने का कारण पूछ बैठता। अतः वह भी चुप हो बैठ गया। इस नगर में दूर-पास के संबंधी भी शायद ढूँढने पर ही मिलते। यहाँ सुविधाएँ जरूर अधिक थीं-बिजली की आपूर्ति लगभग चौबीस घंटे, दूरदर्शन के अनेक चैनल, मनोरंजन के साधन, चिकित्सा सुविधा, नए-नए विज्ञापनों वाली उपभोक्ता वस्तुओं से भरे हुए बाजार। परन्तु समय कृपणता बरतता। पहली जगहों में जहाँ दुकानदार अनुनय के साथ किफायती दरों में सामान घर पहुँचा देते, यहाँ प्रॉविजन स्टोरों में प्रतीत होता कि उस पर लगातार एहसान किया जा रहा है या अति विनम्रता का प्रदर्शन कि बिना खरीददारी के वापस आने की हिम्मत न पड़ती, रेट चाहे जितने अधिक लगते रहे हों। यदि कभी बिजली न आ रही हो तो बंद कमरों से निकल चौथी मंजिल की खुली छत पर जाने का साहस न होता। शायद सुविधा भी नहीं थी। मकान मालिक की इतनी सदाशयता ही बहुत थी वह नजरें मिलने पर जरा-सा सिर हिलाकर नमस्कार-सा कर लेता।
मुख्यालय के जिस उपविभाग में सहायक-पर्यवेक्षक के पद पर उसकी नियुक्ति थी, वहाँ का मुख्य कार्य, विभिन्न शाखाओं से आए स्टेटमेंट का विश्लेषण और वर्गीकरण कर, अंतिम आंकड़े तैयार करना था। दफ्तर में काम तो कम था परन्तु फैलाव अधिक। एक का काम दूसरे से जुड़ा, एक हद तक दूसरे पर निर्भर था। अक्सर शाखाओं अथवा दूसरे विभागों से साप्ताहिक और मासिक रिपोर्ट समय पर न आती, जिससे कम्प्यूटर पर फीगर न पहुँच पाती। जिम्मेदार उसे ठहराया जाता। कार्यालय में लगता सभी जल्दी में हैं। लंच के बाद बाबू लोग तो चले ही जाते, अधिकारी भी इधर-उधर देख सिमट लेते। उसके विभाग को ऊपर के लोग अनाथालय और अधीनस्थ कर्मी ÷क्लब' कहते। निश्चित बंटा काम भी समय पर पूरा न हो पाता। कारण अनेक थे। स्टेशनरी की कमी जो अक्सर हो जाती, चपरासी या वाटर-ब्वाय का गायब हो जाना, आदि-आदि। इसके बाद लोगों के अपने काम भी तो थे। बिल अथवा शेयर फार्म जमा करना, बच्चों को स्कूल से लाना। मेहरोत्रा की बीबी स्कूल में पढ़ाती थी, वह उसे छोड़कर आता। फिर लेने भी तो जाना पड़ता था। विभाग में उसके अतिरिक्त एक अन्य अधिकारी जे.पी. श्रीवास्तव था। उसे लोग सनकी या ऐसा ही कुछ मानते। नियम-कानून का पक्का। खुद समय से आता, जमकर काम करता और सबसे यही उम्मीद करता। वह अक्सर हाजिरी रजिस्टर में क्रॉस लगा देता। लोग उससे चिढ़ते। खुद पिले रहो, पर यह क्या सबको घड़ी देखकर हांकोगे। उससे श्रीवास्तव की पट गई।
एक दिन उसकी सीट पर ऑडिट सेक्शन का कुंदन आया, ÷÷बॉस! जरा दो सौ रुपये बढ़ाना।'' उसके हाथ में एक लिस्ट थी। उसने फाइलों के बीच से सिर उठाकर प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा।
÷÷अरे! क्या जनार्दन जी का सरकुलर नहीं मिला। अपने निदेशक महोदय, शाह साहब का, स्थानान्तरण केन्द्रीय कार्यालय हुआ है। उनकी विदाई पार्टी है।''
÷÷परन्तु क्या यह राशि ज्यादा नहीं है?'' उसने झिझकते हुए कहा, लेकिन जनार्दन के नाम से उसने रुपये बढ़ा दिए थे।
÷÷आप अभी नए आए लगते हैं। मजे करोगे यार!'' कुंदन ने बेतकल्लुफी से कहा था।
दो दिन बार विदाई पार्टी का आयोजन संस्थान के अतिथिगृह में किया गया था। विशाल लॉन में कुर्सियाँ और बीच में लाल कालीन। लोग धीरे-धीरे आ रहे थे। उसने हाथ जोड़ नमस्ते किया। अधिकारी संघ के सचिव जनार्दन जी लोगों से घिरे हुए थे। व्यस्तता के बाद भी उन्होंने आगे बढ़कर उससे हाथ मिलाया। वह कृतज्ञ हो आया।
पण्डित जनार्दन, अधिकारी संघ के सचिव, टाई-सूट में रहते। गौर वर्ण, माथे पर लाल चंदन, सिर पर गांठ लगी चोटी। गरिमामय ढंग से निरन्तर अंग्रेजी बोलते। धीमे-धीमे बोलते अचानक उनका स्वर तेज हो जाता। यह इस बात का सूचक था कि फैसला हो गया, अब बात खत्म। उन्होंने कई लोगों को कुछ काम बताते हुए, आदेश जैसे स्वर में, प्रार्थना की। पास खड़ा जगदीश, कुछ नहीं तो, पास पड़ी बेतरतीब कुर्सियों को ही व्यवस्थित करने लगा। वह निरुद्देश्य इधर-उधर देखता रहा। तभी जनार्दन जी उसके पास आकर बोले, ÷÷आपसे तो मुलाकात ही नहीं होती बहुत व्यस्त रहते हैं।''
उसने कुछ कहना चाहा तभी निदेशक महोदय की कार अंदर आती दिखाई दी। लोग सावधान हो उठे। जनार्दन उससे ÷एंज्वाय', ÷एंज्वाय' करते उधर बढ़ गए। लोगों ने उन्हें मार्ग दिया। उन्होंने कार का दरवाजा खोलते हुए, ÷वेलकम सर' कहकर हाथ मिलाया।
काले सूट में मुस्कराते निदेशक महोदय, लोगो के साथ, सोफों की ओर बढ़े। सभी लोगों के साथ वह पीछे पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया था। वह स्पष्ट नहीं सुन पा रहा था। माल्यार्पण का कार्यक्रम आरम्भ हो चुका था। सचिव महोदय आवाज देते और लोग, महत्त्वपूर्ण लोग, निदेशक महोदय को माला पहनाकर वापस आ जाते। जर्नादन जी ने आवाज दी थी, ÷श्री जगदीश चन्द्र, स्टेटमेंट अनुभाग' जगदीश शायद लघुशंका हेतु चला गया था। पंडित जी ने कुछ रुककर कहा, ÷श्री राम सेवक जी।'
वह चौंका फिर सचिव महोदय को अपनी ओर देखते पाकर आगे बढ़ा और उनके हाथ से माला ले, निदेशक महोदय के गले में डाल, फिर वापस अपने स्थान पर आ बैठा। अभी भी कई मालाएँ बची हुई थीं। वह अपने को महत्त्वपूर्ण मान रहा था। उसका संकोच कुछ हद तक मिट गया था। इसके बाद अगला कार्यक्रम था। जर्नादन जी ने निदेशक महोदय का गिलास भरने के बाद अपना गिलास भरा था। इसके बाद अन्य लोगों ने। ÷चियर्स' के साथ हलचल बढ़ गई थी।
÷आओ यार।' कहीं से जगदीश ने आकर उसे खींचा था।
÷÷परन्तु, मैं तो लेता नहीं।'' उसने कहा।
÷÷अरे सूफीपन छोड़ो। दो सौ वसूलने हैं या नहीं?'' उसने दुबारा जोर दिया।
निदेशक महोदय, उपनिदेशक के साथ किसी गम्भीर मंत्राणा में व्यस्त हो गए थे। जनार्दन जी आते दिखे। वह उसके सामने आ गए थे। वह खड़ा हो गया। उससे मुखातिब होते हुए उन्होंने कहा, ÷यार रामसेवक तुम आगे क्या लिखते हो?'
वह संकुचित हो उठा। उसे याद आया, वर्षों पहले कॉलेज में एक प्रोफेसर के द्वारा इसी प्रश्न के उत्तर में उसने उन्हें वह लेक्चर पिलाया था कि वह माफी-सी माँगने लगे थे। पर इस समय उसने झिझकते हुए उत्तर दिया, ÷जी! वर्मा, रामसेवक वर्मा।'
÷वही तो,' वह हाथ में गिलास लिए हो-हो हँसते हुए थूक उड़ाते बोले, ÷÷वही तो। मैं तो कुछ और समय रहा था।''
वह कुछ कहना चाहता था, परन्तु माहौल देखकर चुप रह गया। जनार्दन जी फिर डायरेक्टर साहब के पास सिमट गए थे। वह चिन्तित से बोले-÷सर, आपके जाने के बाद इस मुख्यालय का क्या होगा? ईश्वर जाने इस संस्था का क्या भविष्य है?'
शायद भोजन कुछ कम पड़ गया था। लोग आशंकित हो हाथ में प्लेटें लिए टूट पड़ रहे थे। निदेशक महोदय को काफी बड़ा गिफ्ट पैकेट विदाई में दिया गया था। देर रात लौटते हुए उसने अपनी पूर्व विदाई पार्टियाँ याद आई। पाँच-पाँच रुपये एकत्रिात कर, चाय-समोसे, गुलाब जामुन और उपहार में एक पेनसेट। उसे संतोष हुआ चलो यहाँ से चलते समय विदाई पार्टी तो ढंग से होगी। घर में पत्नी और बच्चे पार्टी की भव्यता सुनकर उत्साहित थे।
अगले माह उसके प्रभाग में कार्यरत जगदीश के तबादले के आर्डर आ गए। उसके इस स्टेशन पर पाँच वर्ष पूर्ण हो चुके थे। आना था ही। उसने कुंदन, सचिव का सहयोगी, से जगदीश की पार्टी के लिए बात की। ÷क्या?' उसने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए कहा, ÷इस संबंध में तुम सचिव से ही सीधे बात कर लो।'
उसने सचिव को ढूँढा। वह डायरेक्टर के कमरे में था। वह बाहर ही प्रतीक्षा करने लगा। तभी द्वार खुला। स्प्रिंग वाला दरवाजा खोल, जनार्दन बाहर निकला। पीछे डायरेक्टर साहब। वह दरवाजा बंद होने से रोकने के लिए पकड़े रहा था। उसने सुना, ÷÷पहले की बातें तो जाने दीजिए। मैं जाने वाले की बुराई नहीं करता परन्तु यहाँ के प्रबन्ध, लोगों की कार्यक्षमता में जो सुधार आपके ज्वाइन करने के बाद हुआ, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।''
जनार्दन कह रहा था।
मुदित डायरेक्टर साहब कार में बैठ गए थे। उसने जनार्दन से अपनी बात जोर देकर कही। जनार्दन गंभीर हो गया, ÷÷इस बार तो संभव नहीं है। लोग अभी दो-दो सौ झेल ही चुके हैं। फिर इसे जनरल बॉडी में पास भी तो कराना पड़ेगा।''
तभी वहाँ कुंदन और तीन-चार अन्य साथी भी आ गए थे। वह निराश होकर आगे बढ़ गया था। पीछे से उसके कानों में कई आवाजें पड़ी थीं-÷पार्टी चाहिए! साला डायरेक्टर से अपनी बराबरी करता है।'
दो-ढाई महीने बीत गए। उसने इस बीच और कई साथियों से बात की थी। उसे आश्चर्य था कि सबके हित और समानता की बात होने पर भी कोई भी उससे सहमत क्यों नहीं था। एक शाम उसे कार्मिक विभाग में बुलाया गया। पता चला कि उसका ट्रांसफर एक दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रा में हो गया था। उसे रोष के साथ अचरज भी हुआ-उसे आए तो मुश्किल से एक वर्ष भी नहीं हुआ होगा। इतनी जल्दी
÷÷आप चाहें तो निदेशक महोदय से मिल लें।'' कार्मिक अधिकारी ने ठंडे स्वर में अपनी विवशता बताई।
परन्तु कुछ न हो सका। वह जनार्दन से किंचित आवेश में मिला।
÷÷यह तो प्रशासनिक आधार पर हुआ है। इसमें कुछ नहीं हो सकता।'' जनार्दन ने मजबूरी जाहिर की।
उसके दोबारा कहने पर कहा, ÷अच्छा तो आप अवकाश ले लें। देखूंगा, क्या-कुछ किया जा सकता है?'
एक दिन उसके सुनने में आया कि कुंदन ने जनार्दन से कहा था, ÷÷यह तो बना हुआ वर्मा है।''
जनार्दन ने कहा था, ÷÷मुझे पहले से ही मालूम था।''
वह दो माह तक बीमारी के आधार पर छुट्टी लिए रहा। रोज जनार्दन के कार्यालय में जाकर बैठ जाता। आखिरकार परिणाम आया। दूरस्थ शाखा से आदेश परिवर्तित होकर एक अन्य, अपेक्षाकृत निकट की ग्रामीण शाखा के लिए हो गया, उसे अवमुक्त कर दिया गया था। उसके अधीनस्थ भी प्रसन्न थे। तिवारी कह रहा था, ÷÷बड़े कानूनदां और तुर्रमखाँ बनते थे। लद गए न।''
वह रिलीविंग पत्रा लेकर लौट रहा था। उसको मालूम था कि उसकी फेयरवेल न होनी थी न होगी। उसके मन में आ रहा था-छोटू को गुलाब की माला और बेटी को गिफ्ट पैकेट की प्रतीक्षा होगी। पत्नी तो, पार्टी में खाने को क्या था-यही सुनकर तृप्त हो जाएगी।
वह निरन्तर सोचता रहा। लौटते हुए बाजार में घड़ी की एक दुकान पर रुका। एक अलार्म घड़ी खरीदकर पैक करवाने के बाद, लाल कागज में गिफ्ट-पैकेट बनवा लिया। पास में स्थित एक मंदिर के बाहर बैठे माली से एक गुलाब का हार लिया। माली ने उसे पत्ते में लपेटना चाहा, पर उसने उसे ऐसे ही ले लिया। माला लिए हुए वह पार्क के कोने में गया। इधर-उधर देख, उसने माला पहन लिया। वह पार्क के बाहर आया। एक रिक्शेवाले को रोका। वह चौकन्ना-सा रिक्शे पर बैठ गया। रिक्शा उसके घर की ओर चल पड़ा।

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Sunday, September 6, 2009

नरक में लोग नहीं मरते

प्रताप दीक्षित

आधी रात में अचानक आशुतोष के पेट में तेज दर्द उठा। पहले तो वह चुपचाप लेटा रहा परन्तु जब पीड़ा असह्‌य हो गई तो उसकी कराहटों से पत्नी जाग गई। एकदम जाग उठने के कारण, सावित्राी कुछ समझ न सकी। गृहस्थी के अनेक खटरागों में खटने के बाद पहली नींद थी। संज्ञान होने में कुछ देर लगी। जब तक वह कुछ समझ सके और लाइट जलाए उसकी कराहटें बढ़ गई थी। पति ने बड़ी मुश्किल से पेट पर हाथ रखकर बताया। उसने तुरन्त फोरी उपचार हेतु सुन रखे, घरेलू नुस्खे अपनाए। सिकाई के लिए पानी गर्म करने के लिए स्टोव जलाने लगी।
प्रतिदिन की तरह पिछली रात भी आशुतोष फैक्ट्री से आने के बाद चाय पीकर पुत्रा रवि से बतियाता रहा, उसकी किताबें देखता रहा था। रात के खाने में रोटी और सब्जी ही थी। खाने के दौरान, किस्तों में लिए गए पार्टेबिल टी.वी. पर, वे फिल्मी गीतों का कार्यक्रम भी देखते जा रहे थे। उसने सोचा कहीं कोई बदपरहेजी तो नहीं हुई? पर उसे, इस हालात में भी हंसी आ गई, बदपरहेजी के लिए, उनकी सामर्थ्य ही कहाँ है। पहले तो वह कभी-कभार दोस्तों के साथ ÷शौक' भी कर लेता था, परन्तु अब तो पूरी तरह सुधर गया था। हाथ भी नहीं लगाता। रोलिंग मिल की टेम्परेरी नौकरी सही, किसी तरह गुजर-बसर हो ही जाती। यह तो आई.टी.आई. से किया फिटर का डिप्लोमा काम आया, नहीं तो यह भी मुश्किल था। काफी संघर्षों के बाद, कहीं कुछ ठहराव आया था। उसने पति के पेट को सेंक दी। उसे मजबूरी में ऊपर की मंजिल पर रहने वाली, मकान मालकिन के यहाँ जाना पड़ा। हाल बताते, वह घबरा गई थी। उन्होंने सांत्वना देते हुए ÷बेलारगन' की दो टेबलेट दी। उसने एक गोली खिला दी। थोड़ी देर के बाद, उसके दर्द में कुछ कमी महसूस हुई। सावित्राी भी उसके पाँवों के पास लेट गई। सुबह उसकी नींद देर से खुली। उसने देखा, आशुतोष जागा हुआ था, उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव थे। शरीर शिथिल-सा लग रहा था। उसे अपने देर से उठने पर ग्लानि हुई। उसने जल्दी उठकर, पति का माथा छुआ। कुछ गर्म लगा। उसकी समझ में बीमारी का पहला निदान माथे की गर्माहट से ही होता था। उसने सोचा गर्म चाय से कुछ आराम मिलेगा। उसने स्टोव जलाकर, चाय बढ़ा दी। आशुतोष उठकर, बैठ गया। उसकी हिम्मत फैक्ट्री जाने की नहीं पड़ रही थी। उसने सोचा किसी प्रकार काम पर पहुँच जाए अन्यथा साढे बयालिस रुपये कट जायेंगे साथ ही अगले दिन फोरमैन, बिना सूचना बैठ जाने के लिए चार बातें ऊपर से सुनाएगा। सावित्राी ने, उसके हाथ में चाय का गिलास दे दिया। वह चाय पी भी नहीं सका था कि उसे जोर से उबकाई आ गई। दर्द की लहर सी उठी। गिलास रख, वह दोहरा हो गया। सावित्राी बेहद घबरा गई। उसे समझ में नहीं आया वह क्या करे? वह फिर ऊपर चल दी। उसकी सहज पहुँच में यही एक स्थल था। मकान मालिक अकेले दम्पत्ति थे। पति रिटायर्ड। नीचे गली की तरफ एक कोठरी नुमा कमरा किराए पर देखा था। उन्हें मौखिक सहानुभूति में, कोई एतराज न होता। पत्नी कुछ अधिक सहृदय थी। गली-मौहल्ले में, आज भी इतनी सदाशयता तो थी कि लोग एक-दूसरे की तकलीफ में खड़े हो जाते। मकान मालकिन उसके साथ ही नीचे आई। हालात देख के परेशान हो गई। आखिर उसे अस्पताल ले जाना तय हुआ। उसने पति को आश्वस्त किया, ÷÷घबराओ मत, रवि बापू। अस्पताल चलते हैं। डाक्टर सुई लगा देगा। न हो एक-दो दिन के लिए भरती हो जाना। सब ठीक हो जाएगा।''
वह कपड़े बदलने लगी। स्त्राी के लिए बाहर जाने के पूर्व कपड़े बदलने का अर्थ-कदाचित्‌ परिस्थिति, अभी इतनी गंभीर नहीं है कि वह जैसी की तैसी उठ कर चल दे। उसने ताख पर रखा डब्बा खोला, रेजगारी छोड़, एक से दस तक मुडे+-तुड़े कुल साठ रुपए थे। उसने, सब रूमाल में बाँधे ब्लाउज में रख लिए। मौहल्ले के ही प्राथमिक स्कूल में पढ़ने वाला ११-१२ वर्षीय, रवि इन्हीं सब परेशानियों के कारण स्कूल नहीं जा सका था। रवि को साथ ले पति को सहारा देकर बाहर आई।
÷÷जे.पी.एम. ÷÷अस्पताल'', उसने रिक्शे वाले से पूछा।
÷छः रुपए'
लाठी मोहाल से बिरहाना रोड दूर ही कितना है, पर मजबूरी में वह बैठ गई। अस्पताल का विशाल गेट, आस-पास बन गई गुमटियों, चाय की दुकानों और लाटरी के स्टालों के कारण अपेक्षाकृत छोटा लग रहा था।
अस्पताल की लॉबी में मरीज और तीमारदार जिनके चेहरों में अंतर करना, कठिन था बैठे थे। पीली मटमैली दीवालों के कोने, पान की पीकों से रंगे और छत मकड़ी के जालों से अटी थी। हवा में व्याप्त, दवा, टिंचर, स्प्रिट और बीमार शरीरों की मिली जुली गंध से, एक दमघोटू वातावरण की सृष्टि हो रही थी। बेंचों के नीचे तथा कोनों में, प्रयोग में लाई गई रुई, पट्टियाँ-खून-मवाद से भरी पड़ी थीं। इन सबके मध्य सार्थक, सामने की दीवार पर ठीक ऊपर टंगा एक नया-सा बोर्ड ही लग रहा था। बोर्ड पर ÷हम दो, हमारे दो' का पोस्टर लगा था। उसमें, एक दम्पत्ति और उनके दो बच्चों के चित्रा के साथ ही, परिवार को नियोजित करने के उपाय भी बताए गए थे। और कोई समय होता तो वह पति को, उस और इंगित कर, मजाक अवश्य करती। क्षण के लिए, उसके मुख पर लाज के भाव, उभरने के पहले ही तिरोहित हो गए। उसने पति को, एक बेंच पर थोड़ी-सी जगह में बैठा दिया। वहाँ बैठे अन्य लोगों ने, उसकी कराहटें सुनकर सहानुभूतिपूर्वक, उसकी ओर देख अनचाहे मन से उठकर जगह दी। वह लेट-सा गया। रवि को, पति के पास छोड़, वह डाक्टर की तलाश में इधर-उधर देखते, गैलरी की ओर बढ़ी। सामने दरवाजे पर ÷आकस्मिक चिकित्सा' पढ़ उसने अन्दर झाँक कर देखा। कुर्सी पर एक डाक्टर जैसा लग रहा व्यक्ति, सफेद कोट पहने बैठा था। उसने पास जाकर पति का हाल बताते हुए व्यग्रता से कहा, ÷÷उन्हें यहीं ले आऊ या?...''
÷÷क्या कोई, एक्सीडेन्ट या चाकू-वाकू लगने का केस है?'' उसने बात काटी। ÷जी ऐसा कुछ नही हैं। वह घबरा गई।
÷÷तो फिर सामने काउण्टर से पर्चा बनवाकर, ड्यूटी वाले डाक्टर को दिखाओ।'' बिना सिर उठाये कहा। वह लौट आई। पर्चे वाले काउण्टर पर भीड़ थी। बाबू अभी तक आया नहीं था। वह औरतों वाली लाइन में खड़ी हो गई। तभी पर्चेवाला बाबू पान खाकर आ गया था। वह जल्दी से आगे बढ़ी लेकिन आगे खड़ी औरतों ने उसे झिड़क कर धकेल-सा दिया। वह सहम कर पुनः अपने स्थान पर आ गई। अपेक्षाकृत कुछ जल्दी ही, उसका नम्बर आ गया।
÷दो रुपए' बाबू ने कहा। काउण्टर पर एक तख्ती पर ÷एक रुपया' लिखा टंगा हुआ था। उसने बिना किसी एतराज के दो रुपए काउण्टर पर रख दिए। ÷नाम, उम्र, तकलीफ' पूछ, बारह नम्बर कमरा कहकर पर्चा उसे दे दिया। उसने पर्चा रवि को पकड़ा दिया। कमरों के नम्बर देखते हुए बारह नम्बर कमरे के बाहर रुक गई। कमरे के बाहर ÷बाह्य चिकित्सा विभाग' की पट्टिका और ड्यूटी पर उपस्थित चिकित्सक का नाम एक तख्ती पर लटक रहा था। दरवाजे पर नीला पर्दा था। दरवाजे पर खड़ा आदमी मरीजों के पर्चे जमा कर रहा था। वह बीच-बीच में अन्दर जाता और नाम पुकार कर उन्हें अन्दर भेजता।
बाहर बेंचों पर जगह नहीं थी। उसने आशुतोष को जमीन पर ही बिठा दिया और पर्चा रवि से लेकर दरवाजे वाले आदमी की ओर बढ़ा दिया। इस बीच रवि ने पर्चे को खेल-खेल में ही गोल-मोल कर सिगरेट की तरह मुंह से लगा रखा था। दरवाजे वाले ने, पर्चा देखकर उसे सीधा करता हुआ बोला, ÷÷इसकी क्या बत्ती बना कर....'' फिर उसकी ओर देखकर बात अधूरी छोड़ दी।
÷÷काफी देर बाद पति का नाम पुकारा गया। मेज के पीछे एप्रेन पहने डाक्टर साहब बैठे थे। पास ही एक कम्पाउण्डर नुमा व्यक्ति मरीज को टेबिल पर लिटाने में सहायता कम, झुँझला अधिक रहा था। आशुतोष टेबिल पर लेट गया। ÷÷चलो कपड़े उतारो।'' कम्पाउण्डर ने उसे घूरते हुए कहा? वह सकपका गई। ÷÷अरे! इसके, कपड़े ढीले करो।'' कहते हुए उसने पति के कपड़े नोच-खोंच दिए थे। डाक्टर ने, उसका पेट दबाते हुए देखा, ÷यह तो सर्जरी केस है।'
मरीज को आठ नम्बर कमरे में ले जाओ। सर्जरी वाले डाक्टर देखेंगे। कम्पाउण्डर ने पर्चा वापस करते हुए कहा। आठ नम्बर कमरे के बाहर काफी गिड़गिड़ाने के बाद ही गेट मैन ने भुनभुनाते हुए पर्चा जमा किया। वह थककर पति के पास ही बैठ गई। रवि का चेहरा भी कुम्हला गया था। जब तक, उसका नम्बर आया डाक्टर जाने के लिए उठ गया। शायद आज मरीज ज्यादा थे। डाक्टर के चेहरे पर चिड़चिड़ाहट वाले भाव थे। उसने जल्दी जल्दी में पति का निरीक्षण किया। वह असमंजस में था।
एक्सरे और बाकी टेस्ट करवाने के बाद दिखाना उसने पर्चे पर कुछ लाइनें घसीट दीं। डाक्टर के जाने के बाद दरवाजे पर खड़े मूँछों वाले आदमी ने उसे सलाह दी, ÷÷शाम को डाक्टर साहब को घर पर दिखा लो। जरूरत होने पर वे भर्ती भी करवा देंगे।''
शाम को वह पति को लेकर डॉ० वर्मा के आवास पर गई। कल से ही उसने पति के संरक्षण का भार उसने ऊपर ले लिया था। डॉ० वर्मा का आवास अस्पताल प्रांगण में ही था। बरामदे में मरीज बैठे थे। यहाँ भी वहीं मूंछों वाला व्यक्ति मौजूद था। फीस लेकर वह मरीजों के नाम एक पर्ची में नोट कर रहा था। सावित्राी ने मकान मालकिन से रुपए उधार लिए थे। साठ रुपए देकर उसने पति का नाम लिखा दिया। नम्बर आने पर वे अन्दर गए। ÷÷आइए इधर बैठें''। प्रवेश करते देख डाक्टर ने बड़ी नम्रता से कहा। डाक्टर के चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान थी। इस समय वे अस्पताल की औपचारिक पोशाक एप्रेन में न होकर सामान्य वेशभूषा में थे। उसने सामने, अस्पताल का पर्चा रख दिया।
÷÷कहिए आशुतोष जी''। अब पेट दर्द कैसा है? उन्हें याद आ रहा था। ÷÷क्या, दावतें वगैरह ज्यादा खा लीं?'' उन्होंने मजाक किया। इस समय, वे बड़ी ही खुशमिजाज लग रहे थे। अस्पताल का तनाव जो यहाँ नहीं था। वह उसे लेटाकर, खड़ा करके बड़ी देर तक परीक्षण करते रहे।
÷÷इस समय, यही दवा लें। सुबह आ जाइए, भर्ती कर लेंगे। चिन्ता न करें।'' उन्होंने आश्वस्त किया।
चलते समय उन्होंने फिर कहा, पाँच सौ रुपये, करीम के पास, अरे वहीं मूछों वाले साहब, जमा करा देना। उसे सारी रात पाँच सौ की चिन्ता रही। सुबह उसने मकान मालकिन के पास, एक पतली-सी चेन, जिसे पति ने पिछले वर्ष बोनस मिलने पर दिलाया था, रखकर सात सौ रुपए लिए। वह अस्पताल जल्दी आ गई। डॉ० वर्मा अभी तक आए नहीं थे। आशुतोष श्लथ-सा पीछे घिसट रहा था। तभी डॉ० वर्मा आते दिखाई दिए। वह लपकती-सी उनके पास गई। सौ-सौ के पाँच नोट उनकी ओर बढ़ा दिए। डॉ० वर्मा ने इधर-उधर देख, बिना गिने जेब में रख लिए। वह कुछ उखड़े से लग रहे थे। रूखे स्वर में, करीम से संपर्क करने को, कह आगे बढ़ गए। करीम काफी देर बाद आया। वह पर्चा लेकर उन्हें रुकने को कह, एक ओर चला गया। कुछ देर बाद, आकर बोला, प्रबन्ध हो गया है। वार्ड नम्बर ५ बेड नम्बर १७ पर चलो।
वह पति और रवि के साथ अन्दर की ओर चल दी। चौड़ी से गैलरी में, एक हालनुमा वार्ड के बाहर उसने एक नर्स से पूछा। करीम का नाम और बेड नम्बर १७ बताने पर वह अपने साथ आने का इशारा कर अन्दर चली गई। आगे जाकर वह एक बेड के पास रुकी। पीछे दीवाल पर १७ लिखा था बेड पर सर से कम्बल ओढ़े कोई लेटा था। दो-तीन औरतें उसे घेरे धीमी आवाज में रो रही थीं।
÷÷अरे अभी तक मुर्दा यहीं है।''
उसने औरतों को सम्बोधित किया।
÷नया मरीज आ गया, बेड खाली करो।'
रोते-रोते सिर उठाकर एक औरत बोली, ÷÷घर के आदमी इंतजाम करने गए हैं।''
÷तब तक, क्या यह इसके ऊपर लेटेगा, ÷÷वार्ड ब्वाय डेड बॉडी बाहर करो।'' नर्स चिल्लाई।
पत्नी ने कहना चाहा, वे प्रतीक्षा कर लेंगे परन्तु तभी दो वार्ड ब्वायों ने एक स्ट्रेचर लाकर लाश लाद दी थी। कम्बल वापस, बेड पर रख दिया।
पति ने उसकी ओर बेबस भाव से देखा फिर चुपचाप लेटकर कम्बल घसीट लिया। पत्नी ने गहरी सांस खींची। वार्ड में नजर दौड़ाई। दीवार से सटे कतार में, मरीजों के पलंग। अधिकांश पर चादरें थीं नहीं, जो थीं, वे भी रक्त और पेशाब के धब्बों से युक्त। पराजित योद्धाओं के उदास शिविरों की भाँति। वातावरण में घुली, एक अव्यक्त-सी मृत्यु गंध पूरे वार्ड में समाई हुई थी।
तभी करीम भर्ती का टिकट लेकर आ गया। वह पहले तो प्रश्नवाचक मुद्रा में खड़ा रहा, फिर बोला, ÷अब मेरा भी हिसाब कर दो।''
पत्नी ने उसकी ओर देखा फिर मतलब समझती बोली, ÷÷मैंने डाक्टर साहब को....।''
वह बिगड़ उठा, ÷÷जाने कितने लोग पीछे पड़े थे। बिना नम्बर के भर्ती करा दिया। काम निकल जाने पर अब रास्ता दिखाया जा रहा है।'' पत्नी ने ब्लाउज से, रुमाल निकाल कर एक दस का नोट बढ़ा दिया।
÷यह क्या?' उसने नोट फेंक दिया। ÷÷मुझे कोई स्वीपर समझ लिया है, जो चूतड़ों के नीचे पाट लगवाने का दे रही हो।''
वह सकपका गई। एक और दस का नोट बढ़ाती बोली, ÷मेरे पास इस समय यही है।'
करीम बीस रुपया लेकर बड़बड़ाता हुआ चला गया। वह बेंच पर दुबक गई, कहीं, नर्स की नजरें फिर न उस पर पड़ जाए। सावित्राी को अपनी उपस्थिति पति के लिए कवच प्रतीत हो रही थी। कुछ देर बार डॉ० वर्मा आते दिखाई दिए। पति के बेड के पास रुके। नर्स आ गई थी। उन्होंने पति का पेट थपथपाया जीभ, नब्ज, आँखें और रक्तचाप देखा।
सिरहाने टंगे टिकट पर उपचार लिखते, हुए नर्स को हिदायतें दी। थोड़ी देर बाद वार्ड ब्वाय पहियों वाला नीला पर्दा घसीट लाए। उससे बाहर जाने को कह पर्दा डाल दिया। लगभग एक घण्टे बाद, उसके वापस आने पर पति का गात और भी शिथिल लग रहा था। यद्यपि दर्द में कुछ राहत थी।
शाम को अस्पताल में गहमा-गहमी हो गई थी। मिलने वालों की भीड़। बेंचें कम पड़ गई थीं। साथ आए बच्चे दौड़ लगा रहे थे। नर्सें, जिनके चेहरों से तनाव की बर्फ पिघलती लग रही थी, बीच-बीच में, कृत्रिाम गुस्से बच्चों को डॉंट देती थीं। बच्चे कुछ पल को सहम, फिर उनकी आँखों में झाँक अपने में मस्त हो जाते। यह रवि को घर में छोड़ आई थी। उसे लगा, रवि यहाँ होता तो हंस खेल लेता। दो-तीन दिनों में, जैसे उस पर तनाव का संक्रमण हो गया था।
मरीजों के इर्द-गिर्द सहानुभूति, आन्तरिक पीड़ा को छुपाती मुस्कानें, हँसी मजाक और चिन्ताओं को टालने वाले, सुने-सुनाए लतीफे, संचारित हो रहे थे। कुछ देर के लिए, व्याधियाँ और तनाव कहीं दुबक गए थे। मौका मिलते ही घात में तत्पर।
अगले दिन, मुँह अँधेरे ही उसकी हालत फिर गंभीर हो गई। अस्पताल में, यह सब तो लगा ही रहता था। फिर यह वक्त तो ड्यूटी में परिवर्तन का था। रात की पाली वाली नर्सें घर जाने की हड़बड़ी में थी। दिन की पाली की अभी आ नहीं सकी थीं। इस समय फुर्सत किसे थी? वह बदहवास सी, इधर-उधर दौड़ रही थी। सबका एक ही उत्तर था, ÷÷जिसका केस है, वही आकर देखेंगे।'' कह आगे बढ़ जाते थे। काफी देर बाद डाक्टर वर्मा, कॉरीडोर में अपने कमरे के बाहर दिखे। वह हाल बताती-बताती रो पड़ी। डाक्टर वर्मा निस्पृह स्वर में बोले, ÷इलाज तो चल ही रहा है। यहाँ से उठने पर देख लूँगा। हाँ कुछ पाँच सौ रुपए की और जरूरत होगी।'
वह हतप्रभ रह गई। उसके पास मुश्किल से तीस एक रुपए बचे होंगे। वह हिचकती हुई बोली, ÷÷वह पहले पाँच सौ डाक्टर वर्मा जैसे इसी की प्रतीक्षा कर रहे थे'', पाँच सौ में क्या अस्पताल खरीद लिया है? एण्डोस्कोपी हुई, पेट से पानी निकाला गया। हुंह? और करीम शिकायत कर रहा था। उन्होंने नाराजगी प्रकट की। ÷डाक्टर साहब हम लोग बड़ी परेशानी में है।' वह गिड़गिड़ाई।
÷÷अरे, यहाँ राजी खुशी कौन आता है। आज के समय में, सभी बड़ी परेशानी में हैं। वे इस बार कुछ नर्मी से बोले।'' अर्जित अनुभव से उन्हें मालूम था कि सामने वाले को जेब से पैसा किस तरह निकलवाया जा सकता है। वह लौट आई। वार्ड में पति के सहकर्मी लालमणि, जगन, दौलतराम आदि पाँच-छह व्यक्ति उपस्थित थे। यूनियन के आगामी चुनावों में, दौलतराम प्रत्याशी था। चार दिनों से गैर हाजिर आशुतोष के घर प्रचार हेतु आने पर उन्हें खबर लगी।
उपयुक्त अवसर जान कर, वे सभी अस्पताल आ गए। डॉ० वर्मा के संबंध में सुनकर उनमें आक्रोश पैदा होना स्वाभाविक ही था। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में अस्तित्व की सार्थकता का इससे अच्छा मौका फिर न जाने कब मिलता? राजनीतिक दल से संबद्धता एवं समूह में होने के कारण, उनका मनोबल ऊँचा था। अस्पताल की अव्यवस्था और डॉ० वर्मा के विरोध में नारे लगाते वे मुख्य चिकित्सा अधिकारी कक्ष के बाहर एकत्रिात हो गए थे। शोर गुल सुन चिकित्सक स्वयं बाहर निकल उन्हें अन्दर ले गए। उन्होंने डॉ० वर्मा को बुलाया, वे परन्तु वे नहीं मिल सके। बेड नम्बर सत्राह की फाइल मंगवाई गई और आगे इलाज की डॉ० सक्सैना को सौंप दी गई। बेड नम्बर १७ अस्पताल भर में चर्चित हो गया। सभी आश्वासन दे, चिन्ता न करने को कह, चले गए। अस्पताल वालों के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। बहुधा ऐसा होता रहता था। दो-तीन दिन बाद, अस्पताल में हलचल सी थी। शायद किसी बड़े अधिकारी अथवा किसी मंत्राी का दौरा होना था। फर्श को फिनायल से धो-पौंछ कर चमकाने का प्रयास किया जा रहा था। बिस्तरों पर धुली सफेद चादरें और लाल कम्बल सजाए से जा रहे थे। ठीक जैसे, रामलीला में पात्राों के सिर पर, गोदाम से निकालकर, मुकुट। पुरानी चिलमची आदि गायब कर दिए गए थे। कोनों में, चूना छिड़क दिया गया। मुख्य अधीक्षक, जिनके पीछे अन्य डाक्टर नर्सें आदि थीं, तैयारियों के पूर्वावलोकन हेतु, वार्डों का दौरा कर रहे थे। सत्राह नम्बर बेड के पास, वे रुके। नर्स से, मरीज की फाइल माँगी। ÷यह तो पैरिटोनाइटिस एबडॉमिनल का केस है। एडमिट करने की क्या जरूरत थी? बेकार में मरीज को परेशानी होगी। दवा प्रेस्क्राइब कर डिस्चार्ज करो।'
आशुतोष के मुख पर तीव्र वेदना के लक्षण विद्यमान थे। सावित्राी और रवि अन्य लोगों के साथ पहले ही वार्ड के बाहर कर दिए गए थे। मरीज के पास डाक्टरो की भीड़ देख, वह आशंकित हो अन्दर चली आई। पीछे-पीछे रवि भी। उसने देखा कि आशुतोष की हिचकियों की आवृत्ति बढ़ गई थी। अचानक उसे दर्द के तेज लहर के साथ उल्टी आई। मुँह से ढेर सारा खून गिरा। उसके कपडे+, नई धुली चादर सब भीग गए। रक्त के छींटे डाक्टरों के सफेद एप्रेन पर भी पड़े थे। सभी स्तब्ध रह गए। डॉ० वर्मा ने फुर्ती से उसी नब्ज, आँखें और स्टेथेस्कोप से दिल की जाँच की। उन्होंने निराशा से सिर हिलाया, ÷यह तो मर गया।'
यह सुनकर सावित्राी पथरा सी गई। यद्यपि पाँच-छह दिनों से पति की जो दशा थी, खुद को झूठी तसल्ली के बाद भी उसने चरम सत्य की कल्पना शायद कर रखी थी। फिर भी जब तक साँस जब तक आस का सहारा तो था ही। परन्तु रवि के लिए तो यह शब्द न केवल अप्रत्याशित बल्कि अविश्वसनीय भी थे। बारह वर्षीय शर्मीले से बालक के एक मात्रा सखा मित्रा उसे इस तरह छोड़ कर कैसे जा सकते थे? अभी तो उनके किए जाने कितने वायदे पूरे करने बाकी थे? डाक्टर के शब्दों ने उसे वयस्क बना दिया था।
÷नहीं'....वह चीख कर पलंग पर औंधा हो गया। सावित्राी स्वयं को सम्हालती या रवि को। बेड के आस-पास भीड़ सिमट आई थी। चिर निस्तब्धता। स्वर थे तो केवल रवि की हिचकियों के। सावित्री ने किसी तरह उसे उठाने का प्रयास किया।
÷÷आह...'' कहीं गहरे तल से जैसे आवाज आई थी। लोगों का आश्चर्य अथवा विश्वास होता कि यह स्वर आशुतोष के कण्ठ से फूटा था। रवि आंसुओं से भीगा, चेहरा उठाकर चीख-सा उठा था।
÷÷बापू अभी जिन्दा है।''

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Sunday, May 17, 2009

आत्म-बोध

महेंद्र भटनागर

हम मनुज हैं —
मृत्तिका की सृष्टि
सर्वोत्तम
सुभूषित,
प्राणवत्ता चिद्द
सर्वाधिक प्रखर,
अन्तःकरण
परिशुद्ध ;
प्रज्ञा
वृद्ध !
.
लघुता —
प्रिय हमें हो,
रजकणों की
अर्थ-गरिमा से
सुपरिचित हों,
परीक्षित हों।
.
मरण-धर्मा
मृत्यु से भयभीत क्यों हो ?
चेतना हतवेग क्यों हो ?
दुर्मना हम क्यों बनें ?
सदसत् विवेचक
मूढ़ग्राही क्यों बनें ?

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Friday, May 15, 2009

ईर्ष्या

महेंद्र भटनागर

ईर्ष्या
करो नहीं,
ईर्ष्या से
डरो नहीं !
.
किसी की ईर्ष्या-अभिव्यक्ति
संकेतित हो
वाचिक हो
क्रियात्मक हो
तुम्हारी सफलता
बोधिका है !
आत्म-गहनता
शोधिका है !
.
उससे त्रस्त क्यों होते हो ?
इतने अस्तव्यस्त क्यों होते हो ?
.
ईर्ष्या
जितनी स्वाभाविक है
उसका दमन
उतना ही आवश्यक है।
.
ईर्ष्या का
दलन करो,
वरण नहीं !
.
ईर्ष्या-आश्रय को
सन्तुलित करो,
प्रगति-प्रेरित करो।
उसे विकास के
अवसर दो,
उसके हलके मानस में
गरिमा भर दो।
.
फिर कोई ईर्ष्या नहीं करेगा,
फिर कोई ईर्ष्या से नहीं डरेगा।
.
जिस दिन —
मानवता
ईर्ष्या के घातों-प्रतिघातों को
सह जाएगी,
उस दिन से —
वह मात्र
संचारी-भाव-विवेचन में
महत्त्वहीन हो
काव्य-शास्त्र का साधारण विषय
रह जाएगी !
.

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Thursday, May 14, 2009

विपर्यस्त

महेंद्र भटनागर

बुद्धि के उच्चतम शिखरों तक पहुँचे
हम
विज्ञान युग के प्राणी हैं
महान
समुन्नत
सर्वज्ञ !
.
हमारे लिए
जीवन के
सनातन सिद्धान्त
शाश्वत मूल्य
अर्थ-हीन हैं !
.
हमारे शब्द-कोश में
‘हृदय’
मात्र एक मांस-पिण्ड है
जो रक्त-शोधन का कार्य करता है
तन की समस्त शिराओं को
ताज़ा रक्त प्रदान करता है,
उसकी धड़कन का रहस्य
हमारे लिए नितान्त स्पष्ट है,
कमज़ोर पड़ जाने पर
अथवा
गल-सड़ जाने पर
हम उसको बदल भी सकते हैं।
हृदय से सम्बन्धित
पूर्व-मानव का
समस्त राग-बोध
उसके
समस्त कोमल-मधुर उद्गार
हमारे लिए
उपहासास्पद हैं !
.
हमारे लिए
पूर्व-मानव की
पारस्परिक प्रणय भावनाएँ
विरह-वियोग जनित चेष्टाएँ
सब
बचकानी हैं
अस्वस्थ हैं
निरर्थक हैं !
.
यह हमारे लिए
मानव इतिहास में
समय का सबसे बड़ा अपव्यय है !
.
हमारे लिए
आकर्षण —
इन्द्रिय सुख की कामना का पर्याय !
हाव —
आंगिक अभिनय का अभ्यासगत स्वरूप,
नाट्य-शालाओं में
प्रवेश प्राप्त कर
सहज ही ग्राह्य!
प्रेमालाप —
कृत्रिम
चमत्कारपूर्ण वाणी-विलास !
मिलन —
मात्रा स्थूल इन्द्रिय सुख के निमित्त !
स्मृति —
ढोंग का दूसरा नाम
या
अभाव की पीड़ा !
प्रेम —
भ्रम / धोखा
अस्तित्वहीन
‘ढाई आखर’ का शब्द-मात्र !

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Tuesday, May 12, 2009

स्वाँग

महेंद्र भटनागर

मुझे
कृत्रिम मुसकराहट से चिढ़ है !
कुछ लोग
जब इस प्रकार मुसकराते हैं
मुझे लगता है
डसेंगे !
अपने नागफाँस में कसेंगे !
.
यही
अप्रिय मुसकराहट
शिष्टाचार का जब
अंग बन जाती है,
कितनी फीकी
नज़र आती है !
.
मुझे
इस कृत्रिम फीकी मुसकराहट से
चिढ़
बेहद चिढ़ है !
.
 

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Monday, May 11, 2009

उपलब्धि

महेंद्र भटनागर

अप्राप्य रहा —
वांछित,
कोई खेद नहीं।
.
तथाकथित
आभिजात्य गरिमा के
अगणित आवरणों के भीतर
नग्न क्षुद्रता से परिचय,
निष्फलता की
उपलब्धि !
कोई खेद नहीं।
.
सहज प्रकट
तथाकथित
निष्पक्ष-तटस्थ महत् व्यक्तित्व का
अदर्शित अभिनय;
असफलता की
उपलब्धि !
कोई खेद नहीं।
.

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Sunday, May 10, 2009

वस्तु-स्थिति

महेंद्र भटनागर

सर्वत्र
कड़वाहट सुलभ
दुर्लभ मधुरता !
सर्वत्र
घबराहट प्रकट
जीवट विरलता !
सर्वत्र
झुलझलाहट-प्रदर्शन
लुप्त स्थिरता !
सर्वत्र
आडम्बर-बनावट
दूर कोसों वास्तविकता !
.
 

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Saturday, May 9, 2009

संत्रस्त

महेंद्र भटनागर

दृष्टि-दोषों से सतत संत्रास्त
अर्थ-संगति हीन,
अद्भुत,
सैकड़ों पूर्वाग्रहों से ग्रस्त
हम,
सन्देह के गहरे तिमिर से घिर
परस्पर देखते हैं
अजनबी से !
और...
अनचाहे
विषैले वायुमण्डल में
घुटन के बोझ से
निष्कल तड़पते जब —
घहर उठता तभी
अति निम्नगामी
क्षुद्रता का सिन्धु,
अनगिनत
भयावह जन्तुओं से युक्त !
मनुजोचित सभी
शालीनता के बंधनों से मुक्त !
.

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Friday, May 8, 2009

वेदना: एक दृष्टिकोण

महेंद्र भटनागर

हृदय में दर्द है
तो
मुसकराओ !
.
दर्द यदि
अभिव्यक्त —
मुख पर एक हलकी-सी
शिकन के रूप में भी,
या
सजगता की
तनिक पहचान से उभरे
दमन के रूप में भी,
निंद्य है !
धिक् है !
स्खलित पौरुष्य !
.
उर में वेदना है
तो
सहज कुछ इस तरह गाओ
कि अनुमिति तक न हो उसकी
किसी को,
सिक्त मधुजा कण्ठ से
उल्लास गाओ !
पीत पतझर की
तनिक भी खड़खड़ाहट हो नहीं
मधुमास गाओ !
सिसकियों को
तलघरों में बन्द कर
नव नूपुरों की
गूँजती झनकार गाओ !
शून्य जीवन की
व्यथा-बोझिल उदासी भूलकर
अविराम हँसती गहगहाती
ज़िन्दगी गाओ !
महत् वरदान-सा जो प्राप्त
वह अनमोल
जीवन-गंधमादन से महकता
प्यार गाओ !
.
यदि हृदय में दर्द है
तो
मुसकराओ !
दूधिया
सितप्रभ
रुपहली
ज्योत्स्ना भर मुसकराओ !
.

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Thursday, May 7, 2009

दृष्टिकोण

महेंद्र भटनागर

अतीत का मोह मत करो,
अतीत —
मृत है !
उसे भस्म होने दो,
उसका बोझ मत ढोओ
शव-शिविका मत बनो !
शवता के उपासक
वर्तमान में ही
एक दिन
स्वयं निश्चेष्ट हो रहेंगे
अनुपयोगी
अवांछित
अरुचिकर —
जो व्यतीत है
अस्तित्वहीन है !
वह वर्तमान का नियंत्रक क्यों हो ?
वह वर्तमान पर आवेष्टित क्यों हो ?
वर्तमान को
अतीत से मुक्त करो,
उसे सम्पूर्ण भावना से
जियो,
भोगो !
वास्तविकता के
इस बोध से —
कि हर अनागत
वर्तमान में ढलेगा !
अनागत —
असीम है !
.

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Wednesday, May 6, 2009

मोह-भंग

महेंद्र भटनागर

स्वीकार शायद
जो कभी भी था न
तुमको
भ्रांति उस अधिकार की
यदि आज
मानस में प्रकाशित हो गयी
सुन्दर हुआ
शुभकर हुआ !
.
अस्थिर
प्रवंचित मन !
न समझो —
प्राप्य
जीवन की
बड़ी अनमोल अति दुर्लभ
धरोहर खो गयी !
.
मूर्छा नहीं,
निश्चय
सजगता।
मोह का कुहरा नहीं,
परिज्ञान
जीवन-वास्तविकता।
.
अर्थ जीवन को मिलेगा अब
नये आलोक में,
उद्विग्न मत होना तनिक भी
शोक में !

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Tuesday, May 5, 2009

जीवन प्राप्त जो

महेंद्र भटनागर

जीने योग्य
जीवन के सुनहरे दिन —
सुकृत वरदान-से,
आनन्दवाही गान-से,
मधुमय-सरस-स्वर-गूँजते दिन
आह ! जीने योग्य !
हर पल
हर्ष पीने योग्य !
.
जीवन के
सतत प्रतिकूलता के दिन,
उदासी-खिन्नता
अति रिक्तता से सिक्त
बोझिल दिन —
अशुभ अभिशाप-से,
विष-दंश-वाही-ताप-से,
कटु विद्ध दुर्भर दिन
आह ! जीने योग्य !
हर पल
मर्ष पीने योग्य !
.
जीवन प्राप्त जो —
अच्छा
बुरा
अविराम जीने के लिए !
अनिवार्य जीने के लिए !

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Monday, May 4, 2009

विश्वास

महेंद्र भटनागर

जीवन में
पराजित हूँ,
हताश नहीं !
.
निष्ठा कहाँ ?
विश्वासघात मिला सदा,
मधुफल नहीं,
दुर्भाग्य में
बस
दहकता विष ही बदा !
.
अभिशप्त हूँ,
पग-पग प्रवंचित हूँ,
निराश नहीं !
.
क्षणिक हैं —
ग्लानि पीड़ा घुटन !
वरदान समझो
शेष कोई
मोह-पाश नहीं !

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Sunday, May 3, 2009

भिक्षा

महेंद्र भटनागर

संपीडित अँधेरा
भर दिया किसने
अरे !
बहूमूल्य जीवन-पात्र में मेरे ?
एक मुट्ठी रोशनी
दे दो
मुझे !
.
संदेह के
फणधर अनेकों
आह !
किसने
गंध-धर्मी गात पर
लटका दिये ?
विश्वास-कण
आस्था-कनी
दे दो
मुझे !
.
एक मुट्ठी रोशनी
दे दो
मुझे !

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Saturday, April 18, 2009

स्वीकार

महेंद्र भटनागर

.


अकेलापन नियित है,
हर्ष से
झेलो इसे !
.
अकेलापन प्रकृति है,
कामना-अनुभूति से
ले लो इसे !
.
इससे भागना-बचना —
विकृति है !
मात्र अंगीकर करना —
एक गति है !
.
इसलिए स्वेच्छा वरण,
मन से नमन !
.

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Friday, April 17, 2009

दिशा-बोध

महेंद्र भटनागर
.
निरीहों को
हृदय में स्थान दो:
सूनापन-अकेलापन मिटेगा !
.
जिनको ज़रूरत है तुम्हारी —
जाओ वहाँ,
मुसकान दो उनको
अकेलापन बँटेगा !
.
अनजान प्राणी
जोकि
चुप गुमसुम उदास-हताश बैठे हैं
उन्हें बस, थपथपाओ प्यार से
मनहूस सन्नाटा छँटेगा !
.
ज़िन्दगी में यदि
अँधेरा-ही अँधेरा है,
न राहें हैं, न डेरा है,
रह-रह गुनगुनाओ
गीत को साथी बनाओ
यह क्षणिक वातावरण ग़म का
हटेगा !
ऊब से बोझिल
अकेलापन कटेगा
.

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Thursday, April 16, 2009

आत्म-संवेदन

महेंद्र भटनागर

हर आदमी
अपनी मुसीबत में
अकेला है !
यातना की राशिµसारी
मात्र उसकी है !
साँसत के क्षणों में
आदमी बिल्कुल अकेला है !
.
संकटों की रात
एकाकी बितानी है उसे,
घुप अँधेरे में
किरण उम्मीद की जगानी है उसे !
हर चोट
सहलाना उसी को है,
हर सत्य
बहलाना उसी को है !
.
उसे ही
झेलने हैं हर क़दम पर
आँधियों के वार,
ओढ़ने हैं वक्ष पर चुपचाप
चारों ओर से बढ़ते-उमड़ते ज्वार !
.
सहनी उसे ही ठोकरें —
दुर्भाग्य की,
अभिशप्त जीवन की,
कठिन चढ़ती-उतरती राह पर
कटु व्यंग्य करतीं
क्रूर-क्रीड़ाएँ
अशुभ प्रारब्ध की !
उसे ही
जानना है स्वाद कड़वी घूँट का,
अनुभूत करना है
असर विष-कूट का !
अकेले
हाँ, अकेले ही !
.
क्योंकि सच है यह —
कि अपनी हर मुसीबत में
अकेला ही जिया है आदमी !
.

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Wednesday, April 15, 2009

निष्कर्ष

महेंद्र भटनागर
.


उसी ने छला
अंध जिस पर भरोसा किया,
उसी ने सताया
किया सहज निःस्वार्थ जिसका भला !
.
उसी ने डसा
दूध जिसको पिलाया,
अनजान बन कर रहा दूर
क्या ख़ूब रिश्ता निभाया !
.
अपरिचित गया बन
वही आज
जिसको गले से लगाया कभी,
अजनबी बन गया
प्यार,
भर-भर जिसे गोद-झूले झुलाया कभी !
.
हमसफ़र
मुफ़लिसी में कर गया किनारा,
ज़िन्दगी में अकेला रहा
और हर बार हारा !

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Tuesday, April 14, 2009

घटनाचक्र

महेंद्र भटनागर

हमने नहीं चाहा
कि इस घर के
सुनहरे-रुपहले नीले
गगन पर
घन आग बरसे !
.
हमने नहीं चाहा
कि इस घर का
अबोध-अजान बचपन
और अल्हड़ सरल यौवन
प्यार को तरसे !
.
हमने नहीं चाहा
कि इस घर की
मधुर स्वर-लहरियाँ
खामोश हो जाएँ,
यहाँ की भूमि पर
कोई
घृणा प्रतिशोध हिंसा के
विषैले बीज बो जाए !
.
हमने नहीं चाहा
प्रलय के मेघ छाएँ
और सब-कुछ दें बहा,
गरजती आँधियाँ आएँ
चमकते इंद्रधनुषी
स्वप्न-महलों को
हिला कर
एक पल में दें ढहा !
.
पर,
अनचहा सब
सामने घटता गया,
हम
देखते केवल रहे,
सब सामने
क्रमशः
उजड़ता टूटता हटता गया !

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Monday, April 13, 2009

पहचान

महेंद्र भटनागर

इन अट्टालिकाओं का
गगन-चुम्बी
कला-कृत
इन्द्र-धनुषी
स्वप्न-सा
अस्तित्व
कितना घिनौना है
हमें मालूम है !
.
इनकी ऊँचाइयों का रूप
कितना
क्षुद्र, खंडित और बौना है
हमें मालूम है!
.
परियों-सी सजी-सँवरी
इन अंगनाओं का
अवास्तव छद्म आकर्षण
कितना सुशोभन है
हमें मालूम है !
.
गौर-वर्णी
कमल-पंखुरियाँ छुअन
कितनी
सुखद, कोमल व मोहन है
हमें मालूम है !
.
परिचित हम
सुगन्धित रस-भरे
इन स्निग्ध फूलों की
चुभन से,
कामना-दव से
दहकती
देह की आदिम जलन से,
वासना-मद से
महकती
देह की आदिम तपन से,
इनका बिछौना
कितना सलोना है
हमें मालूम है!
.

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Sunday, April 12, 2009

हिन्दी के मुस्लिम कथाकार



पुस्तक उपलब्ध
मूल्य 150 (25प्रतिशत छूट के साथ)
भूमिका
डॉ० मेराज अहमद:सम्पूर्ण समाज की अभिव्यक्ति मुस्लिम कथाकार और उनकी हिन्दी कहानियाँ कहानियाँ
हसन जमाल : चलते हैं तो कोर्ट चलिए
मुशर्रफ आलम जौक़ी : सब साजिन्दे
एखलाक अहमद जई : इब्लीस की प्रार्थना सभा
हबीब कैफी : खाये-पीये लोग
तारिक असलम तस्नीम : बूढ़ा बरगद
अब्दुल बिस्मिल्लाह : जीना तो पड़ेगा
असगर वजाहत : सारी तालीमात
मेहरून्निसा परवेज : पासंग
नासिरा शर्मा : कुंइयांजान
मेराज अहमद : वाजिद साँई
अनवर सुहैल : दहशतगर्द

आशिक बालौत : मौत-दर-मौत
शकील : सुकून
मौ० आरिफ : एक दोयम दर्जे का पत्र
एम.हनीफ मदार : बंद कमरे की रोशनी

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धर्म

महेंद्र भटनागर

प्यार करना
ज़िन्दगी से: जगत से
आदमी का धर्म है !
.
प्यार करना
मानवों से
मूक पशुओं पक्षियों जल-जन्तुओं से
वन-लताओं से
द्रुमों से
आदमी का धर्म है !
.
प्यार करना
कलियों और फूलों से
विविध रंगों-सजी-सँवरी
तितलियों से
आदमी का धर्म है !
प्यार करना
इन्द्रजालों से रचे
अद्भुत
विशृंखल-सूत्रा
सपनों से,
मधुरतम कल्पनाओं में
गमन करती
सुकोमल-प्राण परियों से
आदमी का धर्म है !

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Wednesday, April 8, 2009

प्रतिकार्य

महेंद्र भटनागर

रे हृदय
उत्तर दो
जगत के तीव्र दंशन का
राग-रंजित,
सोम सुरभित साँस से !
.
स्वीकार्य
जीवन-पंथ पर...
दर्द हर उपेक्षा का
शांत उज्ज्वल हास से !
.
आतिथेय
घन तिमिर के
द्वार पर
स्वर्ण किरणों की
असंशय आस से !
.
आराध्य
वज्रघाती देव
प्राण के संगीत से,
प्रेमोद्गार से
अभिरत रास से !
.
रे हृदय !
उत्तर दो
जगत के क्रूर वंचन का
स्नेहल भाव से,
विश्वास से !

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Tuesday, April 7, 2009

जीवन

महेंद्र भटनागर
.
जीवन हमारा फूल हरसिंगार-सा
जो खिल रहा है आज,
कल झर जायगा !
.
इसलिए,
हर पल विरल
परिपूर्ण हो रस-रंग से,
मधु-प्यार से !
डोलता अविरल रहे हर उर
उमंगों के उमड़ते ज्वार से !
.
एक दिन, आख़िर,
चमकती हर किरण बुझ जायगी...
और
चारों ओर
बस
गहरा अँधेरा छायगा !
जीवन हमारा फूल हरसिंगार-सा
जो खिल रहा है आज,
कल झर जाएगा !
.
मत लगाओ द्वार अधरों के
दमकती दूधिया मुसकान पर,
हो नहीं प्रतिबंध कोई
प्राण-वीणा पर थिरकते
ज़िन्दगी के गान पर !
.
एक दिन
उड़ जायगा सब ;
फिर न वापस आयगा !
जीवन हमारा फूल हरसिंगार-सा
जो खिल रह है आज,
कल झर जायगा !

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Monday, April 6, 2009

आदमी और स्वप्न

महेंद्र भटनागर

आदमी का प्यार सपनों से
सनातन है !
मृत्यु के भी सामने
वह, मग्न होकर देखता है स्वप्न !
सपने देखना, मानों,
जीवन की निशानी है ;
यम की पराजय की कहानी है !
.
सपने आदमी को
मुसकराहट — चाह देते हैं,
आँसू — आह देते हैं !
.
हृदय में भर जुन्हाई-ज्वार,
जीने की ललक उत्पन्न कर,
पतझार को
मधुमास के रंगीन-चित्रों का
नया उपहार देते हैं !
विजय का हार देते हैं !
.
सँजोओ, स्वप्न की सौगात,
महँगी है !
मिली नेमत,
इसे दिन-रात पलकों में सहेजो !
‘स्वप्नदर्शी’ शब्द
परिभाषा ‘मनुज’ की,
गति-प्रगति का
प्रेरणा-आधार;
संकट-सिंधु में
संसार-नौका की
सबल पतवार ;
गौरवपूर्ण सुन्दरतम विशेषण।
स्वप्न-एषण और आकर्षण
सनातन है, सनातन है !
आदमी का प्यार सपनों से
सनातन है !

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Wednesday, April 1, 2009

क्यों?????

- शैफाली
मैं कई सदियों तक जीती रही
तुम्हारे विचारों का घूंघट
अपने सिर पर ओढे,
मैं कई सदियों तक पहने रही
तुम्हारी परम्पराओं का परिधान,
कई सदियों तक सुनती रही
तुम्हारे आदेशों को,
दोहराती रही तुम्हारे कहे शब्द,
कोशिश करती रही तुम जैसा बनने की।

तुम्हारे शहर में निकले चाँद को
पूजती रही चन्द्र देवता के रूप में
बच्चों को सिखाती रही
चँदा मामा कहना।
हर रस्म, हर रिवाज़ को पीठ पर लादे,
मैं चलती रही कई मीलों तक
तुम्हारे साथ.........।

मगर मैं हार गई.....
मैं हार गई,
मैं रोक नहीं सकी
तुम्हारे विचारों को सिर से उड़ते हुए
और मैं निर्लज्ज कहलाती रही,
मैंने उतार दिया
तुम्हारे परम्पराओं का परिधान
और मैं निर्वस्त्र कहलाती रही,
मैं मूक बधिर-सी गुमसुम–सी खड़ी रही कोने में,
तुम देखते रहे मुझको सबसे जुदा होते हुए।

मैं नहीं बन सकी
तुम्हारे शहर की एक सच्ची नागरिक,
तुम्हारे चन्द्र देवता की चाँदनी
मुझको रातों बहकाती रही,
मैं चुप रही,
खामोश घबराई-सी,
बौखलाई-सी, निर्विचार, संवेदनहीन होकर।
आज मैने उतार कर रख दिए
वो सारे बोझ
जिसे तुमने कर्तव्य बोलकर
डाले थे मेरी पीठ पर
मैं जीती रही बाग़ी बनकर,
तुम देखते रहे खामोश।

और अब जब मैं पहनना चाहती हूँ
आधुनिकता का परिधान,
तुम्हारे ही शहर में
नए विचारों की चुनरिया जब लपेटती हूँ देह पर,
तुम्हें नज़र आती है उसकी पार्दर्शिता।

जब मैं कहती हूँ धीरे से
घबराए शब्दों में अपने जीवन की नई परिभाषा,
चाँद को छूने की हसरत में
जब मैं कोशिश करती हूँ
नई परम्पराओं के पर लगाने की,
समय का हाथ थामे
मैं जब चलना चाहती हूँ
तुम्हारे चेहरे पर उभरा
एक प्रश्न चिह्न शोर मचाता है.....
क्यों?

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Monday, March 30, 2009

खुदा की क़िताब

- शैफाली
वो दोनों चादर पर
सोये थे कुछ इस तरह
जैसे मुसल्ले पर
कोई पाक़ क़िताब खुली पड़ी हो
और खुदा अपनी ही लिखी
किसी आयत को उसमें पढ़ रहा हो

वक्त दोपहर का
खत्म हो चला था,
डूबते सूरज का बुकमार्क लगाकर
ख़ुदा चाँद को जगाने चला गया

उन्हीं दिनों की बात है ये
जब दोनों सूरज के साथ
सोते थे एक साथ
और चाँद के साथ
जागते थे जुदा होकर

दोनों दिनभर न जाने
कितनी ही आयतें लिखते रहते
एक की ज़ुबां से अक्षरों के सितारे निकलते
और दूजे की रूह में टंक जाते
एक की कलम से अक्षर उतरते
दूजे के अर्थों में चढ़ जाते

दुनियावी हलचल हो
या कायनाती तवाज़न
हसद का भरम हो
या नजरें सानी का आलम
अदीबों के किस्से हो
या मौसीकी का चलन
बात कभी ख़ला तक गूंज जाती
तो कभी खामोशी अरहत (समाधि) हो जाती

देखने वालों को लगता
दोनों आसपास सोये हैं
लेकिन सिर्फ खुदा जानता है
कि वो उसकी किताब के वो खुले पन्ने हैं
जिन्हें वही पढ़ सकता है
जिसकी आँखों में मोहब्बत का दीया रोशन हो

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Sunday, March 29, 2009

दुनिया मुझसे चलती है

- शैफाली
उनके पास जीवन है, विज्ञान है, ताकत भी है
उनके पास जोश है, ज्ञान है, नफरत भी है
उनके पास प्यार है और परमात्मा भी है
उनके पास पानी है और आग भी है
उनके पास निर्जीव, सजीव दोनों दुनिया है
मेरे पास सिर्फ एक देह, एक आत्मा और कुछ संवेदनाएँ हैं

फिर भी वो नहीं जानते ये दुनिया कैसे चलती है
और मैं कहती हूँ मैं इश्क हूँ और दुनिया मुझसे चलती है.....
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Saturday, March 28, 2009

निष्कर्ष

. महेंद्रभटनागर

.
ऊहापोह
(जितना भी)
ज़रूरी है।
विचार-विमर्श
हो परिपक्व जितने भी समय में।
.
तत्त्व-निर्णय के लिए
अनिवार्य
मीमांसा-समीक्षा / तर्क / विशद विवेचना
प्रत्येक वांछित कोण से।
.
क्योंकि जीवन में
हुआ जो भी घटित -
वह स्थिर सदा को,
एक भी अवसर नहीं उपलब्ध
भूल-सुधार को।
.
सम्भव नहीं
किंचित बदलना
कृत-क्रिया को।
.
सत्य -
कर्ता और निर्णायक
तुम्हीं हो,
पर नियामक तुम नहीं।
निर्लिप्त हो
परिणाम या फल से।
(विवशता)
.
सिद्ध है —
जीवन: परीक्षा है कठिन
पल-पल परीक्षा है कठिन।
.
वीक्षा करो
हर साँस गिन-गिन,
जो समक्ष
उसे करो स्वीकार
अंगीकार!

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Thursday, March 26, 2009

तुलना

 महेंद्रभटनागर 
(13) तुलना
.
जीवन
कोई पुस्तक तो नहीं
कि जिसे
सोच-समझ कर
योजनाबद्व ढंग से
लिखा जाए / रचा जाए!
.
उसकी विषयवस्तु को —
.
क्रमिक अध्यायों में
सावधानी से बाँटा जाए,
मर्मस्पर्शी प्रसंगों को छाँटा जाए!
.
स्व-अनुभव से, अभ्यास से
सुन्दर व कलात्मक आकार में
ढाला जाए,
शैथिल्य और बोझिलता से बचा कर
चमत्कार की चमक में उजाला जाए!
.
जीवन की कथा
स्वतः बनती-बिगड़ती है
पूर्वापर संबंध नहीं गढ़ती है!
.
कब क्या घटित हो जाए
कब क्या बन-सँवर जाए,
कब एक झटके में
सब बिगड़ जाए!
.
जीवन के कथा-प्रवाह में
कुछ भी पूर्व-निश्चित नहीं,
अपेक्षित-अनपेक्षित नहीं,
कोई पूर्वाभास नहीं,
आयास-प्रयास नहीं!
ख़ूब सोची-समझी
शतरंज की चालें
दूषित संगणक की तरह
चलने लगती हैं,
नियंत्राक को ही
छलने लगती हैं
जीती बाज़ी
हार में बदलने लगती है!
.
या अचानक
अदृश्य हुआ वर्तमान
पुनः उसी तरतीब से
उतर आता है
भूकम्प के परिणाम की तरह!
अपने पूर्ववत् रूप-नाम की तरह!

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Wednesday, March 25, 2009

अनुभूति

महेंद्रभटनागर

.
जीवन-भर
अजीबोगरीब मूर्खताएँ
करने के सिवा,
समाज का
थोपा हुआ कर्ज़
भरने के सिवा,
क्या किया?
.
ग़लतियाँ कीं
ख़ूब ग़लतियाँ कीं,
चूके
बार-बार चूके!
.
यों कहें -
जिये;
लेकिन जीने का ढंग
कहाँ आया?
(ढोंग कहाँ आया!)
और अब सब-कुछ
भंग-रंग
हो जाने के बाद —
दंग हूँ,
बेहद दंग हूँ!
विवेक अपंग हूँ!
.
विश्वास किया
लोगों पर,
अंध-विश्वास किया
अपनों पर!
.
और धूर्त
साफ़ कर गये सब
घर-बार,
बरबाद कर गये
जीवन का
रूप-रंग सिँगार!
.
छद्म थे, मुखौटे थे,
सत्य के लिबास में
झूठे थे,
अजब ग़ज़ब के थे!
.
ज़िन्दगी गुज़र जाने के बाद,
नाटक की
फल-प्राप्ति / समाप्ति के क़रीब,
सलीब पर लटके हुए
सचाई से रू-ब-रू हुए जब µ
अनुभूत हुए
असंख्य विद्युत-झटके
तीव्र अग्नि-कण!
ऐंठते
दर्द से आहत
तन-मन!
हैरतअंगेज़ है, सब!
सब, अद्भुत है!
अस्तित्व कहाँ है मेरा,
मेरा बुत है!
अब,
पछतावे का कड़वा रस
पीने के सिवा
बचा क्या?
.
ज़माने को
न थी, न है
रत्ती-भर
शर्म-हया!

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Tuesday, March 24, 2009

प्रार्थना

महेंद्रभटनागर
.
सूरज,
ओ, दहकते लाल सूरज!
.
बुझे
मेरे हृदय में
ज़िन्दगी की आग
भर दो!
थके निष्क्रिय
तन को
स्फूर्ति दे
गतिमान कर दो!
सुनहरी धूप से,
आलोक से -
परिव्याप्त
हिम / तम तोम
हर लो!
.
सूरज,
ओ लहकते लाल सूरज!

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Monday, March 23, 2009

प्रबोध

. महेंद्रभटनागर
.
नहीं निराश / न ही हताश!
सत्य है -
गये प्रयत्न व्यर्थ सब
नहीं हुआ सफल,
किन्तु हूँ नहीं
तनिक विकल!
.
बार-बार
हार के प्रहार
शक्ति-स्रोत हों,
कर्म में प्रवृत्त मन
ओज से भरे
सदैव ओत-प्रोत हो!
.
हो हृदय उमंगमय,
स्व-लक्ष्य की
रुके नहीं तलाश!
भूल कर
रुके नहीं कभी
अभीष्ट वस्तु की तलाश!
हो गये निराश
तय विनाश!
हो गये हताश
सर्वनाश!

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Sunday, March 22, 2009

यथार्थता

महेंद्रभटनागर

.
जीवन जीना —
दूभर - दुर्वह
भारी है!
मानों
दो - नावों की
विकट सवारी है!
.
पैरों के नीचे
विष - दग्ध दुधारी आरी है,
कंठ - सटी
अति तीक्ष्ण कटारी है!
.
गल - फाँसी है,
हर वक़्‍त
बदहवासी है!
भगदड़ मारामारी है,
ग़ायब
पूरनमासी,
पसरी सिर्फ़
घनी अँधियारी है!
.
जीवन जीना
लाचारी है!
बेहद भारी है!

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Saturday, March 21, 2009

खिलाड़ी

 महेंद्रभटनागर 

.
दौड़ रहा हूँ
बिना रुके / अविश्रांत
निरन्तर दौड़ रहा हूँ!
दिन - रात
रात - दिन
हाँफ़ता हुआ
बद-हवास,
जब -तब
गिर -गिर पड़ता
उठता,
धड़धड़ दौड़ निकलता!
लगता है -
जीवन - भर
अविराम दौड़ते रहना
मात्रा नियति है मेरी!
समयान्तर की सीमाओं को
तोड़ता हुआ
अविरल दौड़ रहा हूँ!
.
बिना किये होड़ किसी से
निपट अकेला,
देखो —
किस क़दर तेज़ — और तेज़
दौड़ रहा हूँ!
.
तैर रहा हूँ
अविरत तैर रहा हूँ
दिन - रात
रात - दिन
इधर - उधर
झटकता - पटकता
हाथ - पैर
हारे बग़ैर,
बार - बार
फिचकुरे उगलता
तैर रहा हूँ!
यह ओलम्पिक का
ठंडे पानी का तालाब नहीं,
खलबल खौलते
गरम पानी का
भाप छोड़ता
तालाब है!
कि जिसकी छाती पर
उलटा -पुलटा
विरुद्ध - क्रम
देखो,
कैसा तैर रहा हूँ!
अगल - बगल
और - और
तैराक़ नहीं हैं
केवल मैं हूँ
मत्स्य सरीखा
लहराता तैर रहा हूँ!
लगता है -
अब, ख़ैर नहीं
कब पैर जकड़ जाएँ
कब हाथ अकड़ जाएँ।
लेकिन, फिर भी तय है µ
तैरता रहूंगा, तैरता रहूंगा!
क्योंकि
ख़ूब देखा है मैंने
लहरों पर लाशों को
उतराते ... बहते!
.
कूद - कूद कर
लगा रहा हूँ छलाँग
ऊँची - लम्बी
तमाम छलाँग-पर-छलाँग!
दिन - रात
रात - दिन
कुंदक की तरह
उछलता हूँ
बार - बार
घनचक्कर-सा लौट -लौट
फिर - फिर कूद उछलता हूँ!
.
तोड़ दिये हैं पूर्वाभिलेख
लगता है —
पैमाने छोटे पड़ जाएंगे!
उठा रहा हूँ बोझ
एक-के-बाद-एक
भारी — और अधिक भारी
और ढो रहा हूँ
यहाँ - वहाँ
दूर - दूर तक —
इस कमरे से उस कमरे तक
इस मकान से उस मकान तक
इस गाँव-नगर से उस गाँव-नगर तक
तपते मरुथल से शीतल हिम पर
समतल से पर्वत पर!
.
लेकिन
मेरी हुँकृति से
थर्राता है आकाश - लोक,
मेरी आकृति से
भय खाता है मृत्यु-लोक!
तय है
हारेगा हर हृदयाघात,
लुंज पक्षाघात
अमर आत्मा के सम्मुख!
जीवन्त रहूंगा
श्रमजीवी मैं,
जीवन-युक्त रहूंगा
उन्मुक्त रहूंगा!

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Thursday, March 19, 2009

सिफ़त

महेंद्रभटनागर

.
यह
आदमी है —
हर मुसीबत
झेल लेता है!
विरोधी आँधियों के
दृढ़ प्रहारों से,
विकट विपरीत धारों से
निडर बन
खेल लेता है!
.
उसका वेगवान् अति
गतिशील जीवन-रथ
कभी रुकता नही,
चाहे कहीं धँस जाय या फँस जाय;
अपने
बुद्धि-बल से / बाहु-बल से
वह बिना हारे-थके
अविलम्ब पार धकेल लेता है!
.
यह
आदमी है / संयमी है
आफ़तें सब झेल लेता है!

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Thursday, March 5, 2009

मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ

सुनील गज्जाणी

किस नयन तुमको निहारू,
किस कण्ठ तुमको पुकारू,
रोम रोम में तुम्ही हो मेरे,
फिर काहे ना तुम्हे दुलारू,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ।

प्रतिबिम्ब मै या काया तुम,
दोनो मे अन्तर जानू,
हॉं, हो कुछ पंचतत्वो से परे जग में,
फिर मै धरा तुम्हे माटी क्यू ना बतलाऊ,
सुनो! तुम तिलक मै ललाट बन जाऊ,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ॥

बैर-भाव, राग द्वेष करू मै किससे,
मुझ में जीव तुझ में भी है आत्मा बसी,
पोखर पोखर सा क्यूं तू जीए रे जीवन,
जल पानी, जात-पात मे मै भेद ना जांनू,
हो चेतन, तुझे हिमालय, सागर का अर्थ समझाऊ,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ॥।

विलय कौन किसमे हो ये ना जानू,
मेरी भावना तुझ में हो ये मै मानू,
बजाती मधुर बंषी पवन कानो में हमारे,
शान्त हम, हो फैली हर ओर शान्ति चाहूं,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ॥।
..................................
सुनील गज्जाणी
सुथारों की बड़ी गुवाड़,
बीकानरे।

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Wednesday, March 4, 2009

आता है नजर

सुनील गज्जाणी

सपेरा, मदारी खेल नट-नटनी का,
बतलाओ जरा कहां आता है नजर ?
खेल बच्चो का सिमटा कमरो में अब,
बलपण को लगी कैसी ये नजर ।

वैदिक ज्ञान, पाटी तख्ती, गुरू शिष्य अब,
किस्सो में जाने सिमट गए इस कदर,
नैतिकता, सदाचार अब बसते धोरो मे,
फ्रेम में टंगा बस आदमी आता है नजर।

चाह कंगुरे की पहले होती अब क्यूं,
धैर्य, नींव का कद बढ़ने तक हो जरा,
बच्चा नाबालिग नही रहा इस युग में,
बाल कथाएं अब कही सुनता आया है नजर।

अपने ही विरूद्ध खडे किए जा रहा,
प्रष्न पे प्रष्न निस्त्तर जाने मै क्यूं,
सोच कर मुस्कुरा देती उसकी ओर
सच्च, मेरे लिए प्यार उसमें आता है नजर।

दिन बहुत गुजरे शहर सूना सा लगे
चलो फिर कोई दफन मुद्दा उठाया जाए,
तरसते दो वक्त रोटी को वे अक्सर
सेकते रोटियां उन पे कुर्सिया रोज आती है नजर।

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Tuesday, March 3, 2009

खुश्की का टुकड़ा



- राही मासूम रजा


आदमी अपने घर में अकेला हो और पड़ोस की रोशनियां और आवाजें घर में झांक रही हों तो यह साबित करने के लिए कि वह बिल्कुल अकेले नहीं है, वह इसके सिवा और क्या कर सकता है कि उन बेदर्द रोशनियों और आवाजों को उल्लू बनाने के लिए अपनी बहुत पुरानी यादों से बातें करने लगे।
वह कई रातों से लगातार यही कर रहा था।
अकेला होना उसके लिए कोई नयी बात न थी। उसे मालूम था कि बदन और आत्मा की तनहाई आज के लोगों की तक़दीर है। हर आदमी अपनी तनहाई के समुद्र में खुश्की के एक टुकड़े की तरह है। सागर के अंदर भी है और बाहर भी । और वह इस अकेलेपन का ऐसा आदी हो गया है कि अपनी तनहाई को बचाने के लिए अपने से भी भागता रहता है।
दस-ग्यारह बरस या दस-ग्यारह हजार वर्ष पहले उसने एक शेर
लिखा थाः
छूटकर तुझसे अपने पास रहे,
कुछ दिनों हम बहुत उदास रहे।
यह उदासी आधुनिक है हमारे पुरखों की उदासी से बिल्कुल अलग है इसने हमारे साथ जन्म लिया है और शायद यह हमारे ही साथ मर भी जायेगी। क्योंकि हर पीढ़ी के साथ उसकी अपनी उदासी जन्म लेती है।
हमारे युग की उदासी को उदासी कहना, ठीक नहीं है, वास्तव में यह बोरियत है, यह बोर होने वालों की पीढ़ी है, किसी चीज का मजाक उड़ाना भी नहीं चाहता पहले के लोग कैसा मजे में जिया करते थे। पतंग उड़ाते थे- चीजें उड़ाते थे। बाते उड़ाते थे। मजाक उड़ाते थे। आज का आदमी अपने चेहरे के रंग के सिवा उड़ाता ही नहीं ...
और उसके बारे में एक बात मैं यक़ीन से कह सकता हूं कि वह यदि आदमी था तो आज ही का आदमी था। और आज के आदमी को वह डंलपिलो जैसी गदीली तनहाई नसीब नहीं होती कि वह आराम से लेट कर अपनी यादों को छाँटें। सड़ी-गली यादों को अलग कर फटी-पुरानी यादों की मरम्मत करे और अच्छी यादों को धूप दिखला दे।
वह बहुत दिनों से फ़ुरसत के ऐसे मौक़े की तलाश में था परन्तु आज तो मरने की फ़ुरसत नहीं मिलती, जीने की तो बात अलग रही। पहले लोग आराम से बरसों बीमार पडे+ रहा करते थे। सेवा करवा-करवा के सेवा करने का अरमान निकलवाते थे। दूर पास के सारे रिश्तेदारों को इसका मौका देते थे कि वह उनकी पाटी के पास बैठ कर उसकी तारीफ़ करें ... और जब लगभग लोगों को यक़ीन हो जाये कि यह मरने वाले नहीं, तब कहीं जाकर लोग मरा करते है पर अब वक्+त की कमी के कारण हार्ट फेल होने लगे है आधुनिक जिंदगी की भागदौड़ में मरने का चार्म भी बिल्कुल ख़त्म हो गया हैं।
वह हार्ट फ़ेल होने के खिलाफ़ नहीं था। परन्तु हार्ट फेल होने में एक बड़ी खाराबी है। हार्ट फेल होने पर कोई शेर नहीं कहा जा सकता है। इतना समय ही नहीं मिलता कि कोई यह कहे।
उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक़ ,
वह समझते है कि बीमार का हाल अच्छा है।
इसीलिए वह चाहता था कि अपनी यादों को क्लासिफाई कर ले। जो वह कवि होता, तो बहुत परेशानी की बात न होती पर शायरी से उसका पुराना बैर था। वह कहा करता था कि शायरी बड़ी असाइंटिफिक चीज होती है। शायरी में मुर्दे बोलते हैं ... कागा सब तन खाइया ... से लेकर कुरेदते हो जो अब आग जुस्तुजू क्या है .... तक मुर्दे टायें-टायें बोल रहे हैं। दिल जो ख़ून पंप करने की एक मशीन है, उसे शायरों ने इतना सर चढ़ाया है कि क्या कहा जाये। प्रेमिका को चंद्रमुखी कहने वाले यह भी नहीं जानते कि चांद पर कैसी-कैसी खाइयां है!
परन्तु जब वह अकेला हुआ तब उसे पता चला कि तनहाई खुद बहुत साइंटिफिक़ नहीं होती। भरीपुरी दुनिया में कोई अकेला कैसे हो सकता है। परन्तु वह अकेला था और वह इस हक़ीक़त को झूठला नहीं सकता था और इसीलिए लगातार अपनी यादों की राख कुरेद रहा था।
कई रातों तक लगातार यादों के जंगल में भटकने के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचा था कि आदमी अपनी यादों के बारे में डींगता ज्+यादा है, मेरे पास इतनी यादें हैं और ऐसी ऐसी यादें है। सब झूठ है। बस-दस-बीस यादें होती हैं। जिंदगी का बजट बहुत चौकस होता है। सारी जिंदगी जीने के बाद बचत के ख़ाने में दस-बीस बुरी भली यादों के सिवा कुछ नहीं होता।
पता नहीं लोग जीवनियां कैसे लिखते हैं। उसे तनहाई की चंद रातें गुजार लेने के बाद यकीन हो गया था कि जीवनियां झूठी होती है। लेखक अपने जीवन की कहानी नहीं लिखता। एक कहानी लिखता है। अपने वर्तमान के लिए अतीत का पुश्ता बांधता है। वह अपनी तसवीर को बहुत री-टच करता है। इससे भी काम नहीं चलता तो शायद अपनी गर्दन पर एक नया चेहरा जड़ देता है।
परन्तु वह तो बिलकुल अकेला था। आदमी चाहे दुनिया से झूठ बोल ले पर वह अपनी तनहाई से झूठ नहीं बोल सकता। वह अपने आपसे यह कैसे कहता कि जिन लैलाओं ने उसे धोखा दिया है वह वास्तव में बड़ी वफ़ादार थीं। वह तो अपने आपसे यह भी नहीं कह सकता था कि खुद वह बड़ा वफ़ादार है। उसे कभी अपने आप पर तरस नहीं आया।
उदास होना दूसरी बात है। उदासी तो इस युग के मनुष्य की तक़दीर है। उदासी और झल्लाहट। यही दो शब्द है जो बहरुपियों की तरह रूप बदल-बदल कर आते रहते है। यदि पहचान लिये जायें तो फिर बहरूप ही क्या हुआ!
उसे वह फैंसी ड्रैस शो याद था जिसमें वह अपने वेष में चला गया था। किसी ने नहीं पहचाना। बाद में उसे बताया गया कि एक आदमी ने ग़जब का बहरूप भरा था।
उसी दिन से जब कभी वह यह चाहता कि कोई उसे न पहचाने तो वह अपने चेहरे पर कोई चेहरा चढ़ाये बिना निकल जाता... और फिर उसे आदत-सी पड़ गयीं। उसने अपने चेहरे पर कोई चेहरा चढ़ाना बिलकुल छोड़ दिया। नतीजा यह निकला कि अब उसे कोई पहचानता ही नहीं। एक दिन उसने वह नक़ली मुसकराहट बाक्स से निकाल कर देखी जिसे वह होंठों पर चिपका कर निकला करता था तो यह देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह तो एक बड़ी बेहूदा चीज थी। बेजान। बेमतलब। बेमजा। वह यह सोच कर हँस दिया कि इस मेक-अप में वह कैसा हवन्नाक दिखाई देता रहा होगा। उसने उस मुसकराहट को फिर बक्स में डाल दिया और यह सोचने लगा कि उसकी पत्नी ने इस चीज को संभाल क्यों रखा है! उसे तो सफा+ई का बड़ा शौक़ हैं।
उसकी पत्नी मसर्रत बड़ी सुघड़ और प्यारी लड़की थी। इश्क़ करते-करते थक-हार कर उसने मसर्रत से ब्याह कर लिया था। मसर्रत से उसे न ब्याह के पहले इश्क़ था और न ब्याह के बाद इश्क़ हुआ। और शायद इसीलिए वह उसे सही पर्सपेक्टिव में देख सकता था। इसीलिए वह बरसों इस फ़िक्र+ में रहा कि इस चांद का दाग़ कहां है। गहरी छानबीन के बाद उसे पता चला कि मसर्रत को पुरानी चीजें जमा करने का शौक़ है। उसका बस चले तो नयी साड़ियां बेच कर कबाड़ियें की दुकान से पुरानी साड़ियाँ ख़रीद लाये यह पता उसे खासा-पुराना पति हो जाने के बाद चला। फिर भी पलभर के लिये वह कांप गया कि किसी दिन बोर हो कर वह उसे औने-पौने निकाल कर किसी कबाड़ख़ाने से कोई ऐंटीक पति न ख़रीद लाये।
उसने जब यह बात मसर्रत को बतायी तो वह खिलखिला कर हंस पड़ी। उसने चोरों की तरह इधर-उधर देखा। बड़ा बेटा ख़ादिम हुसैन सामने ही रेडियोग्राम के पास क़ालीन पर लेटा गुन-गुना रहा था-:
रिमझिम बरसता सावन होगा,
झिलमिल सितारों का आंगन होगा।
छोटी बेटी ख़ातून जो अपनी छोटी गुड़िया के फ्लू से सख्त परेशान थी, बड़ी गुड़िया को डांट रही थी कि वह छोटी को लेकर इस ठंड में घर से निकली ही क्यों ...
ख़ादिम के गाने से बोर होकर वह बोली-भाई मियां, जब सावन रिमझिम बरस रहा है तो यह सितारे कहां से आ गये ?
खादिम सटपटा गया। पर वह छोटी बहन से हार भी नहीं मान सकता था। बड़े गंभीर लहजे में बोला-यह फिल्मी आंगन है।
बेटा-बेटी दोनों मशगूल थे। मसर्रत ने जल्दी से उसकी उस नाक का प्यार ले लिया। जिसका वह बहुत मजाक उड़ाया करती थी और बोली-ईडियट, तुम्हें यही ख़बर नहीं कि हर सुबह को मैं तुम्हें कबाड़ के कमरे में फेंककर दिल में हाथ डालकर एक नया यानी तुमसे भी एक दिन पुराना पति निकाल लेती हूँ!
उसे ठीक-ठीक पता नहीं था कि मसर्रत की बात पर हंसना चाहिए या नहीं, पर वह हंस पड़ा।
ख़ातून का हाथ हंसी की आवाज+ से हिल गया। गुड़िया की दवा ख़ादिम के उजले कुरते पर गिर गयी। ख़ादिम ने उसे एक चांटा मार दिया। उसने ख़ादिम को किचकिचा कर दांत काट लिया। खून छलक आया...
मसर्रत बीच-बचाव करने लपकी। पर भाई-बहन लड़ने के मूड़ में थे दोनों उछल-कूद रहे थे। इस पर मसर्रत को हंसी आ गयी ...
इस मसर्रत के साथ जिंदगी कभी पुरानी नहीं हो सकती। जिंदगी बड़े मजे से गुजर रही थी। बस उस नक़ली मुसकान का ख्याल उसे परेशान किया करता था। एक दिन चुपके से वह उसे एक कबाड़िये के हाथ बेच आया। बात आयी-गयी हो गयी। वह उस मुसकराहट को भूल भी गया। उसके दिल से यह डर जा चुका था कि उसके मरने के बाद यदि उस पर रिसर्च करने वाले को यह मुसकराहट मिल जायेगी तो क्या होगा। यह डर मिट जाने के कारण वह ज्यादा खुल कर हंसने लगा था। दो-एक दिन के बाद मसर्रत ने कहा-बिल्डिंग के लोगों को यह ख्बर करने की क्या जरूरत है कि तुम हंस रहे हो।
वह बोला-अरे तो क्या बिल्डिंग वालों के डर से मैं हंसना बंद कर दूं!
बात बढ़ गयी सोलह बरस के बाद पहली बार बात बढ़ी थी ...
तीन-चार दिन तक दोनों में बातचीत बंद रही। ख़ादिम और ख़ातून ने भी भांप लिया था कि दाल में कुछ काला जरूर है। मसर्रत इस बीच में कई बार उन दोनों से इतनी दबी आवाज में, कि दूसरे कमरे में बैठा हुआ वह यह सुन सके, पूछ चुकी थी कि यदि वह दरभंगा चली जाय तो वह क्या करेंगे ... दरभंगा के नाम सुनकर वह कांप जाया करता था। बात यह थी कि अपनी मां से वह बहुत डरा करता था। वह सौतेली माँ रही होती तो वह सोच कर दिल को समझा लेता कि सौतेली मां से और क्या उम्मीद हो सकती है। परन्तु वह तो उसकी सगी मां थी और वह इकलौते बेटे से ज्यादा इकलौती बहू को चाहती थी।
कई दिन इस उधेड़बुन में गुज+र गये। एक दिन वह घर में सहमा-सहमा आया तो उसने देखा कि मर्सरत की आंखों में एक अजीब-सी चमक है। उसकी तरफ़ मसर्रत ने कनखियों से देखा। खादिम निहायत नया, चुनी हुई आसतीनों वाला कुरता पहने दरवाजे में खड़ा मुसकरा रहा था। ख़ातून गरारा पहने एक हाथ से पायचे और दूसरे से दुपट्टा संभालने में लगी हुई थी।
वह चकरा गया। चकराने का आसान इलाज यह था कि वह सीधा अपने कमरे में चला जाये वह अपने कमरे में चला गया।
पीछे-पीछे मसर्रत भी आयी। उसने कमरे के दरवाजे को अंदर से बंद किया। उसका दिल उछलकर हलक में आ गया। उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि मसर्रत चाहती क्या है।
-सुनते हो ? मसर्रत ने कहा। क्या बेहूदा सवाल है, इन हिन्दुस्तानी बीवियों को आखिर कब बात करना आयेगा ?
-क्या सुनूं ? उसने बड़ी भलमनसाहट से पूछा।
-नहीं सुनते तो मत सुनो, मसर्रत चमक गयी। मेरी जूती को क्या गरज पड़ी है। मैं ही पागल हूं कि दो दिन से मारी-मारी फिर रही थी।
-क्यों
-तुम्हारी सालगिरह के लिए और क्यों।
-मगर मेरी सालगिरह के लिए मारे-मारे फिरने की क्या जरूरत है। सालगिरह तो राशंड है, साल में एक ही बार मिलती है। चोर बाजार से एक आध सालगिरहें ख़रीद लायीं क्या !
उसका ख्याल था कि यह सुन कर मसर्रत जमीन-आसमान एक कर देगी। पर वह तो हंसने लगी। हंसते-हंसते बेहाल हो गयी।
हाल में आयी तो बोली- भई मुझे ख्फ़ा रहना नहीं आता।
-तो मान जाओ।
-मान गयी। मगर तुम तो बड़े वह।
-वह क्या!
-मेरा सिर। आज तुम्हारी सालगिरह है।
- सार्टिफिके+ट वाली कि असली वाली।
-मैं तुम्हारे लिए बड़े ग़जब की चीज लायी हूँ।
-तुम हमेशा ग़जब की चीज लाती हो।
-देखोगे तो फड़क जाओगे।
-अच्छा!
-हां।
वह मुसकरा दिया।
-तुम्हारी मुसकराहट बड़ी फटीचर है।
-आदत पड़ गयी है।
-छोड़ दो। जैसे सिगरेट छोड़ दी।
-ग़लत। मैंने सिगरेट को नहीं छोड़ा है। सिगरेट ने मुझे छोड़ दिया है। तंबाकू पर टैक्स इतना बढ़ गया है कि सिगरेट का ख़र्च और मकान का किराया बराबर हो गया है। पर अभी तक हंसना फ्री हैं। तो मैं अडल्ट्रेटेड या इंफ़ीरियर मुसकराहट क्यों इस्तेमाल करूं ? आगे न कह सका क्योंकि मसर्रत की हथेली पर उसकी वह पुरानी मुसकराहट चमक रही थी जो एक दिन चुपचाप कबाड़िये की दुकान पर बेच आया था।
उसकी आंखें हैरत से फैल गयीं।
-चकरा गये ना, वह लहक कर बोली। मैं खुद इसे देख कर फेंक गयी थी। बिलकुल तुम्हारे होंठ के नाप की है। उस गंवार कबाड़िये ने इस पर वार्निश जरा ज्यादा कर दी है। मगर चलेगी तुम्हारे रंग से भी मैच खाती हैं। मैं उससे कह आयी थी कि कलर होंठ में फिट नहीं होगा तो लौटा दूंगी ...
जहिर है कि अपनी वर्षगांठ के दिन वह उस मुसकराहट को स्वीकार नहीं कर सकता था।
वह मुसकराहट अब भी ड्रेसिंग टेबिल पर पड़ी हुई थी। उसी के पास मसर्रत की एक तस्वीर थी। वह ख़ातून को गोद में लिये हंस रही थी। वह ड्रेसिंग टेबिल की तरफ़ बढ़ा देर तक वह वार्निश की हुई उस मुसकराहट की तरफ़ देखता रहा। मसर्रत के बग़ैर अकेला रहना नामुमकिन था। उसने वह मुसकराहट अपने होंठो पर चिपका ली। सोचा कि फ़ौरन मसर्रत को एक ख़त लिखना चाहिए क़ाग़ज मिल गया। कलम नहीं मिल रही थी। कलम के केस में ख़ातून की गुड़िया का जहेज+ रखा था ... वह ढूंढते वह थक गया। आख़िर उसने मसर्रत के डे्रसिंग टेबिल की दराजें खखोड़ी। आखिरी दराज में उसे एक अजीब चीज+ मिली- मसर्रत जल्दी में अपने कहकहों का पूरा सेट भूल गयी थी। वह खिलखिला कर हंस पड़ा।
थोड़ी देर के बाद पड़ौस के लोग जाग गये। उन्होंने दरवाजा पीटना शुरू किया। परन्तु वह हंसता रहा। वह चाहता था कि अपनी हंसी रोक ले। पर जैसे टेढ़ी सुराही से पानी गिरना बंद नहीं होता उसी तरह उसके मुंह से क़हक़हा बह रहा था।
मसर्रत के क़हक़हों का सेट उसके हाथ में था। हंसते-हंसते वह खिड़की तक आ गया। बहुत नीचे सड़क रोशनी की एक लकीर की तरह पड़ी हुई थी। मसर्रत के क़हक़हों का सेट हाथों से फिसल कर खिड़की के बाहर जा पड़ा। उन्हें बचाने के लिये उसने हाथ बढ़ाया। वह हाथ नहीं आये, वह उन्हें बचाने के लिए झुकता ही चला गया।
सड़क एक दम से उछली और उससे टकरा कर टूट गयी।





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Sunday, March 1, 2009

सिकहर पर दही निकाह भया सही



- राही मासूम रजा


मीर जामिन अली बड़े ठाठ के जमींदार थे। जमींदारी बहुत बड़ी नहीं थी। परन्तु रोब बहुत था। क्योंकि दख्ल और बेदख्ली का जादू चलाने में उन का जवाब नहीं था।
मीर साहब ने उस्ताद लायक अली से गाने के सबक लिये थे और ईमान की बात यह है कि खूब गाते थे। संगीत उनके गले में उतरा हुआ था। बड़ी-बड़ी मशहूर गानेवालियां महफिल में उन्हें देख लेतीं तो कान छूकर । गाना शुरू करतीं। बड़ी बांदी जैसी गानेवाली का शिकार ही उन्होंने रसीली आवाज से किया था, वरना कहां खलिसपुर के ठाकुर साहब कहां मीर जामिन अली। बड़ी बांदी उनकी आवाज पर मर मिटी थी । परन्तु जब वह असमियों को गाली देते तो उनकी आवाज का रूप बदल जाता। जेठ की गर्म हवा की तरह उनकी दी हुई गालियां जिसके पास से गुजर जाती, उसको झुलस देती। और चूंकि वह कोई छोटा काम करना पसंद नहीं करते थे। इसलिए छोटी गालियां भी नहीं देते थे। गाँववालों को उनकी गालियों से बहुत-सी ऐसी बातें मालूम हुई थी, जो औरों को शरीर-विज्ञान के बड़े-बड़े पोथे पढ़कर भी मालूम नहीं हो सकती। अफसोस कि उनके जीवन में किसी को यह ख्+ायाल न आया और उनकी गालियां उन्हीं के साथ मर गयी।
ये मीर जामिन अली बड़े रख रखाव के आदमी थे। जिंदगी भर नमाज+ पढ़ते रहे गालियां बकते रहे और गुनगुनाते रहे और चूंकि वे खुद परम्पराओं का ख़याल रखते थे इसलिए उनका ख्याल था कि जीवन भी परम्पराओं का ख़याल रखेगा। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। वे परिवर्तन के विरोधी थे इसीलिए उनका कहना यह था कि कांग्रेस वाले भपकी दे रहे हैं। जमींदारी भला कैसे ख़त्म हो सकती है! चुनांचे वे गालियां बकते रहे, मुश्कें कसवाते रहे, बेगार लेते और अल्लाह का शुक्र अदा करते रहे... परंन्तु एक रात को मिट्टी के तेल की तरह जमींदारी ख़त्म हो गयी। लालटेन भबक के बुझ गयी और घर में अंधेरा हो गया।
यह घर बहुत बड़ा था। इस घर में छह शताब्दियां रहती थीं। छह शताब्दियों में बकी जानेवाली गालियां रहती थीं। छह शताब्दियों के किसानों की सिसकियां रहती थीं। इसीलिए जब अंधेरा हुआ तो मीर जामिन अली डर गये। वे अंधेरे से नहीं डरे। वे डरे छह शताब्दियों की अनगिनत परछाइयों से, जो एकदम से जी उठी थी, जो मीर साहब अकेले रहे होते तो शायद इन परछाइयों से डर कर मर गये होते। परन्तु वे अकेले नहीं थे, एक बीवी थी। दो बेटियाँ थीं। एक पुश्तैनी नौकरानी थी। एक उस का बेटा था...
परन्तु इस रात में उन्हें कोई शक नहीं था कि अब वे अपने गांव में नहीं रह सकते थे। चुनांचे वे शहर उठ गये। जाहिर है कि शहर में उन्हें उतना बड़ा मकान मिल नहीं सकता था। जितने बड़े मकान में रहने के वे आदी थे। उनका घर इस शहर से पुराना था इसलिए मीर साहब की आत्मा शहर में समा नहीं रही थी।
किराये के जिस घर में वे सब आबाद हुए वह एक छोटा-सा दोमंजिला मकान था। एक छोटा-सा आंगन था। मीर साहब जब गर्मी की पहली रात गुजारने के लिए उस आंगन में लेटे तो उन्हें ऐसा लगा कि जैसे चारों तरफ खड़ी ऊँची हुई दीवारें गर्दन झुका-झुका कर उन्हें देख रही हैं और आपस में इशारे कर के मुस्करा रही है।
मीर साहब घबरा कर उठ बैठे। उन्हें प्यास लग रही थी। वे घड़ौंची की तरफ चले। रास्ते में एक पलंग पर उन्हें बड़ी बेटी रुकय्या की नींद मिली, जो उसकी जवानी का बेचुना दुपट्टा ओढ़े करवटें बदल रही थीं फिर उन्हें दूसरी बेटी रजिया का बचपन मिला। दस-बारह साल की रजिया नींद में बड़बड़ा रही थी कि उसे यह घर बिल्कुल पसंद नहीं...तीसरे पलंग पर उनकी पत्नी आमेना थी, वह जाग रही थी। फिर घड़ौंची थी और घड़ौंची के उधर एक बंसखट पर मत्तो लेटी नींद में बांस का चर्खीदार पंखा झल रहीं थी। और आख़िर में, बिल्कुल दीवार के पास मत्तो का बेटा शौकत सो रहा था।
मीर साहब ने ठंडे झज्जर को छुआ। झज्जर की ठंडक उनके बदन में समा गयी। थोड़ी देर तक वे झज्जर पर हाथ रखे खड़े रहे। फिर चांदी के नक्शीन कटोरे में पानी उड़ेल कर उन्होंने एक ही सांस में कटोरा खाली कर दिया।
वे आमेना के पलंग के पास रुक गये। उन्हें मालूम था कि वह जाग रही है। आमेना सांस रोके पड़ी रही। मीर साहब पट्टी पर बैठ गये। पट्टियाँ बोल उठीं- आमेना घबरा कर उठ बैठी।
''अरे, क्या करते हो। बगल में जवान बेटी सो रही है, जाग पड़ी तो क्या सोचेगी दिल में।''
लेकिन मीर जामिन अली को इसमें कही ज्यादा महत्त्वपूर्ण बातों ने परेशान कर रखा था...दुनिया क्या सोचेगी यदि जल्द रुकय्या का ब्याह न हो गया। उन्हें याद था कि उनकी बहनों की शादियाँ नवें बरस हो गयी थीं। इस हिसाब से तो अब तक रजिया की शादी को दो बरस पुरानी बात हो जाना चाहिए था। परन्तु बेटी की उम्र बड़ी बेहया और बेदर्द होनी है। मुंह पर चढ़ी आती है।
मीर साहब शहर आने से पहले वहां गाँव में भी रुकय्या की शादी की फिक्र के चटियल मैदान में रातों की नींद को हापता देख चुके थे। लड़का मिलता। तो खानदान न मिलता खानदान मिलता तो लड़का न मिलता। और फिर तो ऐसा हुआ कि ऐसी तेज हवा चली कि लड़कों को सीमा पार उठा ले गयी। मांग यहाँ रह गयी, सिंदूर लगानेवाली उंगलियाँ उधर चली गयी। जिन घरों में कल तक लड़के रहा करते थे, उनमें कस्टोडियन का प्रेत बस गया था। अब वे किसी धुने जुलाहे से तो अपनी बेटी ब्याह नहीं सकते थे। और कुछ दिनों के बाद रजिया की जवानी भी सब को दिखायी देने लगेगी, इसी डर से उन्होंने रजिया को गांधी मेमोरियल मुस्लिम गर्ल्स हायर सेकेंड्री स्कूल में दाखिला करवा दिया था। अब कम से कम वे कह सकते थे कि बच्ची अभी पढ़ रही हैं। परन्तु रुकय्या के कुंवारेपन के लिये तो उनके पास कोई बहाना भी नहीं था।
''रुकय्या के लिए म्यां शम्सुल का रिश्ता मान लेने के सिवा कोई चारा नहीं रह गया है।'' मीर साहब ने आमेना की बात अनसुनी करते हुए कहा। आमेना घबरा कर उठ बैठी।
''सठिया गये हो क्या?'' उसने तकिये के नीचे से दुपट्टा निकाल कर ओढ़ते ओढ़ते पूछा, ''तुम खुद कहते हो कि शम्सुल मियां तुम से तीन-चार साल बड़े है।''
''क्वांरी रह जाने से अच्छा है कि लड़की बेवा हो जाये,'' मीर साहब ने कहा।
उस छोटे से आंगन में सन्नाटा हो गया। पट्टी की चरचराहट सुनकर जाग उठनेवाली रुकय्या के दिल में भी सन्नाटा हो गया। आंगन में सन्नाटा इतना गहरा था कि कोई गिरता तो डूब जाता।
पलंग की पट्टी फिर चरचरायी। रुकय्या ने आंखें बंद कर लीं। वह मीर साहब की चाप सुन सकती थी। चाप उसके पलंग के पास आकर रुक गयी रुकय्या का गला सूख गया था। वह थूक घूटना चाहती थी। परन्तु इस डर से थूक नहीं घूंट रही थी कि कहीं बाबा देख न लें।
पल भर के बाद चाप दूर चली गयी।

दूसरे दिन रजिया ने स्कूल में अपनी सहेलियों को यह बात बतायी कि उसकी आपा की शादी होनेवाली है किसी शम्सुल मियां के साथ।
''क्या वे कोई बहुत बड़े आदमी है?'' किसी साथी ने पूछा।
''बहुत बड़े आदमी है जनाब,''रजिया ने गर्दन अकड़ा कर कहा, ''बाबा से भी चार साल बड़े हैं।''
रजिया बहुत खुश थी कि उसकी आपा का ब्याह होनेवाला है। अपनी खुशी में उसने इस बात को कोई महत्त्व नहीं दिया कि रुकय्या को चुप लग गयी है या यह कि जब देखीं तब अम्मां की आँख में कुछ न कुछ पड़ जाता है या यह कि बाबा ने डांटना बिल्कुल बंद कर दिया है। वह तो स्कूल से आती और मत्तो के पास बैठ कर आपा की शादी की बातें करने लगती। वह यह सोच -सोच कर खुश हुआ करती कि दूल्हा भाई को वह कैसे-कैसे छकायेगी।
पास ही चटाई पर बैठा बीड़ी बनाता हुआ शौकत ये बातें सुनता रहता और कहीं-कहीं बोल पड़ता।

शौकत को खड़े नाक नक्शेवाली यह सांवली-सी रजिया बहुत अच्छी लगती थी। रजिया उसे हमेशा से पसंद थी। वह कोई छह -सात साल का था। और मत्तो नहलाने-धुलाने के बाद उसे ईद का जोड़ा पहना रही थी। तब उसकी बड़ी बहन जीनत फेकू मियां के लड़के के साथ पाकिस्तान नहीं भागी थी। उसने कहा था, ''तैं त अइसा सजा रही सौकतवा के कि जना रहा कि ई अभई जय्यहे और पंचफुल्ला रानी को बिआह लिअय्यहे!'' यह सुन कर उसने अपनी बहन की तरफ बड़ी हिकारत से देखकर कहा था। ''हम पंचफुल्ला रानी ओनी से बिआह ना करे वाले है। हम न भय्या रजिया बहिनी से बिआह करेंगे।'' यह सुन कर कंघी करता हुआ मत्तो का हाथ रुक गया था। उसने एक तमाचा मारा था। आठ साल बाद भी रजिया को देखकर वहां अब भी हल्का-हल्का दर्द होने लगता था। जहां मत्तो का तमाचा पड़ा था।
शौकत ने कनखियों से रजिया की तरफ देखा वह अपनी ओढ़नी का साफा बांधे रुकय्या का दूल्हा बनी बैटी थी। फिर वह खुद ही मौलवी बन कर निकाह पढ़ने लगी। सिकहर पर दही निकाह भया सही...
जाहिर है कि सिकहर पर दही कहने से निकाह नहीं हो जाता। रुकय्या का निकाह तो बाकायदा दो मौलवियों ने अरबी में पढ़वाया।
शम्सू मियां बड़े ठाठ की बरात लाये। चढ़ावा देख कर मुहल्लेवालों की आँख खुल गयी। पांच मन मेवा। इक्कीस मन चीनी इक्यावन जोड़े। एक जोड़ा मुरस्सा। जड़ाऊ नथ।
रजिया का जी चाहा कि वह खुद शम्सू मियां से ब्याह कर ले। छोटा-सा घर उसकी सहेलियों से भरा हुआ था। मिरासनें गालियों गा रही थीः
सुन रे वन्नो तेरी बहिना को आख़िर,
ले भागा थानेदार।
डुग्गी बाजे।
गालियों के भीड़-भड़क्के में रजिया लोगों की आँखें बचा-बचा कर खूब पान खा रही थी।
सड़क पर रायसाहब के हाते में बरात शार्मियाने के नीचे खिलौनों की किसी दुकान की तरह सजी हुई थी। शम्सू मियां भारी सेहरे में मुँह छिपाये जापानी बबुए की तरह मौलाना की बात सुन कर सिर हिलाने लगे। शौकत उस जापानी बबूए की तरफ टकटकी बांधे देख रहा था। उसे दूल्हा मियां बिल्कुल पसंद न आये। वह बड़ी बहिनी को बहुत चाहता था। और जब मौलाना रुकय्या से शम्सू मियां का निकाह पढ़ रहे थे, वह यह सोच रहा था कि कहीं मीर साहब छोटीओं बहिनी को कोई बुड्ढे से न बियाह दें... परन्तु शादी के हंगामों में यह कौन सोचता है कि एक पुश्तैनी नौकरानी का छोकड़ा शौकत क्या सोच रहा है। और शौकत के सोचने या न सोचने से फ़र्क ही क्या पड़ सकता है। शौकत का घबराना पिछली तीन शताब्दियों से मीर साहब के घराने में नौकरी करता चला आ रहा था। मीर जामिन अली के घराने का कोई न कोई आदमी काम कर रहा था। सच्ची बात यह है कि अब इन लोगों की है हैसियत केवल नौकरी की नहीं थी। ये बराबर बैठ नहीं सकते थे परन्तु घरवालों में गिने जाते थे। इन लोगों को तनखाह भी नहीं मिलती थी। इन्हें जेब खर्च मिलता था। और साल में दो बार जब घरवालों के कपड़े-लत्ते बनते थे, तो इनके लिए भी जोड़े तैयार होते। यही कारण है कि मीर साहब के घराने की औरतें शौकत के घराने के मर्दों से पर्दा भी नहीं करती थी। और इसीलिए शौकत को यह हक था कि रुकय्या और शम्सू मियां की शादी पर दिल बुरा करे। और इसीलिए जब बरात चली गयी और घर में सन्नाटा हो गया, तो शौकत ने मीर साहब से दिल की बात कह दी। ''ए मियां, बड़की बहिनी के वास्ते ए से अच्छा दुलहा ना मिल सकता रहा का?''
मीर जामिन अली का रात का खाना खाने के बाद हुक्का पीने की तैयारी कर रहे थे। हुक्के की नय की तरफ बढ़ता हुआ उनका हाथ रुक गया। उन्होंने शौकत की तरफ देखा। शौकत झुका हुआ गट्टा दबा रहा था। परन्तु उनकी आँखों का रंग देख कर मत्तो का दिल धक से हो गया।
''उसे क्या घूर रहे हो?'' आमेना आड़े आ गयी, ''सारी दुनिया यही कह रही है। शम्सू मियां का छोटा बेटा अपनी रुकय्या से चार साल बड़ा है। इस ब्याह से अच्छा तो यह होता कि हम उसे चुपके कुछ खिला कर सुला देते।''
रजिया जरा दूर थी। उसने केवल यह सुना कि रुकय्या को कुछ चुपके से खिलाने की बात हो रही है तो वह जहां थी वहीं से चिल्लायी, ''हम भी खायेंगे।''
''मैंने तो खैर रुकय्या की शादी कर दी है। तुम चाहो तो रजिया को कुछ खिला दो।'' यह कहते हुए उन्होंने हुक्के की नय सीधी कर दी और बेटी की तरफ देखे बिना उठ कर बाहर चले गये।
और यूं मर्दाने में ज्यादा समय बिताने के दिन शुरू हो गये। अब जो मीर साहब ज्यादातर बाहर रहने लगे तो घर में रजिया और अकेली हो गयी। उसकी समझ में नहीं आता था कि इस छोटे से एक्के मकान में वह सुबह को शाम और रात को दिन में कैसे बनाये।
नीचे तो उसे वह रत होती थी। इसलिए वह ज्यादातर ऊपरवाले कमर में रहती। आमेना डाँटती रहती परन्तु वह जब भी मौका मिलता आँखें बचा कर ऊपर सरक जाती।
ऊपरवाला कमरा उसी की तरह छोटा था और छोटी-छोटी दो खिड़कियों की आँखों से हर वक्त सड़क को देखता रहता था। यही दोनों खिड़कियां रजिया की आत्मा में खुल गई। कभी-कभी तो उसे ऐसा लगता जैसे सड़क उसके दिल के बीचोंबीच से गुजर रही है। वह बहुत से लोगों की आवाजें पहचानने लगी थी। इन आवाजों पर वह रिऐक्ट भी करती थी क्योंकि इन आवाजों से उनका एक तरफ का नाता हो गया था। कई आवाजों का तो उसे इंतजार-सा रहता था। एक तो वह बुड्ढ़ा था। जिसके गले में बदलगम की गिरह पड़ती थी। वह खिड़की के नीचे आने से जरा एक पहले गला साफ़ करता था। उसकी खांसी की आवाज सुनकर रजिया का जी गंगना जाया करता था। फिर व ऐन खिड़की से नीचे, सड़क के उस पार रुक जाया करता था। दोपहर का समय होता। सड़क वीरान होती। पहले व दाहिने-बायें देखता और निगाह को दाहिने से बायें ले जाने में वह चुपके से यह भी देख लेता कि वह खिड़की पर है या नहीं। पूरा इत्मीनान करके व आँखे झुकाये-झुकाये हुए खिड़की की तरफ मुँह किये हुए कमरबन्द खोलने लगता। उसके हाथों की जुंबिश के साथ-साथ रजिया का मुँह लाल होने लगता। फिर उसे ऐसा लगता। जैसे उसके कान की लवें फट जायेंगी और वह अपने खून से लथ-पथ हो जायेगी। परन्तु वह उस खांसते हुए बूढ़े से अपनी निगाह न हटाती। फिर भी एक पल ऐसा आता जब उसकी निगाह झुक जाती वह बूढ़ा मुंह फेर कर नाली के किनारे उकड़ू बैठ जाता। रजिया चुपचाप वही बैठी रहती और उस बढ़े की पीट की तरफ देखती रहती। कोई मिनट डेढ़ मिनट के बाद वह उठता। यदि कोई आता जाता दिखाई देता तो वह जल्दी चल देता और जो सड़क पर सुनसान रहती तो वह काफी देर लगाता और दाहिने-बायें देखता रहता और दाहिने से बायें जाने में उसकी चिपचिपाती हुई निगाहें रजिया के चेहरे पर अपनी निगाहों का लस छोड़ जाती। वह चला जाता और रजिया के गाल देर तक चिपचिपाते रहते। सड़क फिर वीरान हो जाती और वह रीगल टाकीज के इश्तहारवाले रिक्शे की राह देखने लगती। लाउडस्पीकर पर गूंजती हुई आवाज+ उसके खून की रफ़तार बढ़ा देती।
आज देखिए महबूब प्रोड्क्शन की आन दिलीप कुमार, निम्मी, नादिरा, नौशाद का म्यूजिक जो आपके दिल में बरसों गूजता रहेगा... रोजाना तीन शो फ्री पास बिल्कुल बंद...''
पहले आवाज दूर से पास आती। फिर बिल्कुल खिड़की के नीचे-नीचे आ जाती और फिर दूर जाते-जाते बिल्कुल गायब हो जाती। और वह यह सोचती रह जाती कि आख़िर यह दिलीप कुमार कौन है। निम्नी क्या चीज है... स्कूल में किसी से पूछने की हिम्मत। दिलीप कुमार, राजकपूर देवानन्द... कैसे अजीब नाम है। जैसे कोई दूर से नाम ले कर पुकार रहा हो...इन नामों के बारे में सोचते-सोचते न जाने कितना समय बीत जाता। वह उस लड़के की आवाज+ सुन कर चौंकती, जो रोज खिड़की के नीचे आकर रुक जाया करता था और उसकी तरफ देख कर कहा करता था...जो कुछ वह कहा करता था उसे याद कर के भी वह पसीने-पसीने हो जाया करती थी। इसलिए उसकी आवाज सुनते ही वह एक बार तो उनकी तरफ देखती और फिर बगटुर नीचे भागती...
रात को वह अजीब-अजीब ख़वाब देखती और लाउडस्पीकर की आवाज आती रहतीं। उसने कभी लाउड स्पीकार को ख़वाब में नहीं देखा।

उसकी आँख खुल जाती। हलक में कांटें पड़ चुके होते। जबान सूख कर ऐंठी हुई मिलती। वह पानी पीने के लिए उठती। पलंग चरचराता। वह डर कर फिर बैठ जाती। फिर बहुत धीरे-धीरे उठती और घड़ौंची के पास जा कर खड़ी हो जाती और खबर सोये हुए शौकत की तरफ देखने लगती...
दिलीप कुमार, राजकपूर और देव आनंद तो पता नहीं कौन थे। और कैसे थे। परन्तु शौकत तो शौकत ही था। सामने पड़ा बेखबर सो रहा था। गहरा सांवला रंग। बड़ी-बड़ी बंद आँखें, गोल नाक। अच्छे खासे मोटे होंठ। ऊपरी होंठ पर नर्म सुर्मइ रोयें की एक लकीर। मैला बनियान। चारखानेदार बैंगनी लुंगी...
रजिया को पता भी न चला कि जागती हुई आवाजें सुनते-सुनते और सोये हुए शौकत को देखते-देखते वह कब जवान हो गई। वह यह तो जानती थी कि उसमें कोई परिवर्तन हो रहा है। परन्तु उसे यह मालूम नहीं था कि इस परिवर्तन का नाम क्या है।
इसीलिए यह कहना ठीक नहीं कि रजिया को शौकत से प्यार हो गया था। रजिया तो यह सोच भी न सकती थी कि वह अपनी मत्तो बुआ के लड़के शौकत से प्यार कर सकती है। परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं कि वह शौकत से बेख़बर थी। वह उसे दिन को तो नौकर दिखाई देता, परन्तु रात को जब वह घड़ौंची के
उधर सोता दिखाई देता तो उसमे कुछ और ही बात पैदा हो जाया करती थी। वह दिलीप कुमार, राजकपूर और देवआनन्द हो जाया करता था। और वह देर तक भरा हुआ कटोरा हाथ में संभाले उसकी तरफ देखती रहा करती थी। भरा हुआ कटोरा संभाले इसलिए कि जो कोई जाग पड़े तो यह देख सके कि वह पानी पीने उठी है।
जाड़े की रातें अलबत्ता बहुत परेशान करती थीं। क्योंकि उन रातों में वह सोता तो उसी दालान में था जिसमें घड़ौंची हुआ करती थी,परन्तु जाड़े की रातों में हर रात प्यास जो नहीं लग सकती। फिर भी गयी रात को उसकी आँख जरूर खुलती। वह बाहर निकलती। लोटा उठाती और गुसलखाने की तरफ चली जाती। वहाँ पानी बहा कर फिर लौट आती। परन्तु शौकत में एक बुरी आदत यह थी कि वह मुँह छिपा कर सोया करता था। तो जी कड़ा करके वह लोटा उठाने और फिर लोटा रखने में खास शोर करती, कि शायद शौकत की आंख खुल जाये और वह सिर से लिहाफ सरका के देखे। परन्तु वह तो जैसे हाथी घोड़े बेच कर सोया करता था। वह लाख कोशिश करती परन्तु शौकत की आँख न खुलती तो उसे मजबूरन कमरे में जाकर लेट जाना पड़ता। वह जाकर लेट जाती। परन्तु देर तक जागती रहती और लाउडस्पीकर गूंजनेवाली आवाज सुनती रहती।
रजिया में होनेवाली इस परिवर्तन की खबर घर में किसी को नहीं थीं। रुकय्या होती तो शायद उसके बदन में मचलती हुई अंगड़ाईयों की आहट सुन लेती। परन्तु वह तो शम्सू मियां के साथ पाकिस्तान जा चुकी थीं। जहाँ शम्सू मियां का बड़ा बेटा किसी बड़ी नौकरी पर था। शम्सू मियां मांगे का चढ़ावा लाये थे। पाँच हजार का कर्ज छोड़ कर एक रात चुपचाप चले गये थे।
तो रजिया किसे बताती कि एक अजीब प्यास लगती है और वह प्यास उसे गयी रात को जगा देती हैं। वह घर में अकेली थी। उसके दिल की भाषा समझने वाला कोई नहीं था। और शायद उसकी जिदंगी इसी बेजबानी में कट गई होती। परन्तु एक दिन एक बड़ी साधारण-सी बात ने सुबह की नर्म हवा की तरह उसे छू दिया और उसका सारा बदन जवान बन गया।
हुआ यह कि मत्तो बावर्चीखाने के दर पर बैठी मसाला पीस रही थी आमेना शाम की नमाज पढ़ रही थी। रजिया दालान में एक खुरें पलंग पर लेटी कुछ गुनगुना रही थी कि शौकत आया उसके हाथ में कई चीजें थीं।
''छोटी बहिनी तनी इ पान ले ल्यो'' शौकत ने यह कह कर वह हाथ उसकी तरफ बढ़ाया, जिसमें पान था, वह कोई खास बात न थी। कई बार यह हो चुका था कि जब मत्तो किसी काम में फसी होती वह बाजार से लाई हुई चीजें रजिया को दे देता। परन्तु शाम को खास बात यह हुई कि पान लेते वक्त रजिया का हाथ शौकत के हाथ से छू गया। पलभर से भी कम की बात थी। शौकत मुड़कर बावर्चीखाने की तरफ चला गया। परन्तु रजिया जहां की तहां खड़ी रह गयी। उसका सारा बदन झनझना रहा था। और व पान के हरे-हरे पत्तों की तरफ यूँ देख रही थी। जैसे उन्होंने कोई शरमा देने वाली बात कह दी हो।
उस शाम के बाद से ऐसा होने लगा कि व शौकत के बाज+ार से आने की राह देखने लगी। शौकत को आता देख कर वह चीजें लेने के लिए झटपटाती। इस बात पर न तो मत्तो ने ध्यान दिया और न आमेना ने। इसलिए शौकत चीजें लेकर आता रहा। रजिया वह चीजें लेती रही। हाथ से हाथ टकराहट रहा। बदन झनझनाता रहा और तब वह एक दिन वह यह जान कर शरमा गई कि शौकत अब चीजें लेकर ऐसे समय पर लेकर आता है, जब मत्तो मसाला पीस रही होती और आमेना नमाज+ पढ़ रही होती है। वह जो शरमाई तो शौकत ने उसकी उगंलियां जरा-सी दबा दी। और पहली बार उसने रजिया की तरफ देखा। ठीक उसी वक्त रजिया ने उसी तरफ देखा। वह मुस्करा दिया।
अभी तक इन दोनों को वह यह मालूम था कि वह एक दूसरे से प्यार करने लगे हैं। रजिया को तो खैर यह मालूम ही नहीं था कि प्यार होता क्या है। मगर शौकत हिन्दी फ़िल्में देखता रहता है। तो उसे उन फ़िल्मों पर बड़ा भरोसा होता था। वह अक्सर रजिया को कामिनी कमसिन और मधुबाला और नर्गिंस के सपनें देखता और खुद दिलीप कुमार, विनोद कपूर बनता। इसलिए उसे यकीन था कि उसे रजिया से प्यार नहीं हुआ है, क्योंकि उसने तो रूपहरे पर्दे पर प्यार से लबरेज सीन देखे थे। जो हाथ छूने में इतने दिन लगने लगें तो हो चुकी मुहब्बत परन्तु इसमें शक नहीं कि उसे रजिया का हाथ छूने में बड़ा मजा आता था। वह उस एक पल की उम्मीद में सारा दिन गुजारा करता था। इसीलिए किसी दिन जो उसका हिसाब जरा ग़लत हो जाता और मत्तो साली मिलती तो उसका मुँह उतर जाता और शायद दिलो की बात आगे न बढ़ती यहां से, क्योंकि यह दोनों ही इस बात से बेख़बर थे कि उन्हें एक दूसरे से प्यार हो गया है। परन्तु गर्मी की एक शरीर दोपहर ने दोनों को जो धक्का दिया तो दोनों टकरा गये।
हुआ यह कि मीर जामिन अली खाना खाकर लेट गये थे। आमेना भी पंखा झेलने के लिए पास ही लेट गयी थी। मत्तो कोठरी में थी। आंगन में लू चल रही थी।
रजिया चुपके से अपने कमरे का दरवाजा खोल कर बाहर आ गयी। वह दबे पांव बावर्चीखाने की तरफ चली, जहां एक छीके पर हरी-हरी अमियां रखी थी। रजिया के मुँह में पानी आ गया। दो अमियें उतार कर उसने जल्दी-जल्दी कुचला बनाया। और फिर वहीं बैठ कर चटखारे ले-लेकर खाने लगी।
सच्ची बात यह है कि उस समय उसके दिमाग़ में शौकत नहीं था। परन्तु शौकत आ गया। और यह भी सच्ची बात है कि उस समय उसके दिमाग़ में भी रजिया नहीं थी। परन्तु एक छोटे-से घर में एक दूसरे को न देख लेना संभव नहीं हैं। दोनों ने एक दूसरे को देखा-दोनों के हलक एकदम से सूख गये। वह बावर्चीखाने की चौखट पर रुक गया। उसने बोलना चाहा परन्तु आवाज गोंद की तरह सूख गयी थी। तो उसने कुचले के लिए हाथ बढ़ा दिया। रजिया ने उसी उंगली पर थोडा-सा कुचला उठाया जिससे वह खुद अब तक चाट रही थी। कुचले समेत उसने वह उंगली शौकत की खुली हुई हथेली पर रख दी।
''छोटी बहिनी।'' उसके हलक़ से एक अजीब-सी आवाज+ निकली।
''का है।'' रजिया के लिए भी अपनी आवाज को पहचान लेना मुश्किल हो गया।
तो शौकत ने उसकी वह उंगली पकड़ ली। फिर वह उस उंगली को अपने होंठों की तरफ ले चला। अब बात उसकी समझ में आने वाली लगी थी। यह तो फ़िल्मी पर्दे जैसी बात है। उसने वह उंगली चाट ली बैक ग्राउंड म्यूजिक शुरू हो गया। रजिया बावर्चीखाने से दालान की तरफ भागी। मुहम्मद रफी ने गाना शुरू कर दिया। अपने कमरे का दरवाजा बंद करने से पहले रजिया पल भर के लिए ठिठकी। शौकत अब भी वहीं खड़ा था। रजिया मुस्करा दी और शौकत तक लता मंगेशकर की आवाज आने लगी-उसे यकीन हो गया कि वह रजिया से प्यार करने लगा है। यह यकीन दिल हिलानेवाला था। पता नहीं इस फ़िल्म का अंजाम क्या होगा। अभी तो के०एन०सिंह आयेगा। फिर मीर जामिन अली हीरोइन के बापों की तरह मरने की धमकी देंगे। फिर जैसे फ़िल्मों में आता है, समाज आयेगा। शौकत बेचारे ने बहुत सिर मारा परन्तु उसकी समझ में यह न आया कि आख़िर यह समाज क्या होता है।

उस रात शौकत बहुत देर तक जागता रहा और सोचता रहा। फिर वह उठा और सोचता रहा। फिर वह उठा और बाहर की ड्योढ़ी में चला गया और लालटैन की सहमी हुई रोशनी में दिलीप कुमार को खत लिखने लगा। वह कोई पढ़ा लिखा आदमी नहीं था। बड़ी बहिनी ने उसे उल्टा-सीधा पढ़ना और टेढ़ा-सीधा लिखना सिखा दिया था। उसने दिलीप कुमार को एक छोटा-सा खत लिखने में लगभग सारी रात लगा दी। उसने लिखाः
मेरे भाई दिलीप कुमार को बाद अस्सलामालेकुम के मालूम हो कि मैं खैरियत से हूँ और खैरियत उनकी खुदावंदे करीम से नेक चाहता हूँ।
यहाँ तक लिख कर रुक गया। क्योंकि यहां तक की बात उसे जबानी याद थी। यह तो हर खत में लिखा जाता है। परन्तु बात आगे कैसे बढ़े उसने फिर शुरू कियाः
गुजारिश अहवाल यह है कि मुझे छोटी बहिनी से प्यार हो गया। आप छोटी बहिनी को नहीं जानते। मगर खुदा की कसम यह आपकी हीरोइन से कहीं ज्यादा खूबसूरत हैं आप हिन्दू है तो क्या हुआ। बाकी आपके सीने में भी दिल होगा। आप एक प्यार करने वाले की मदद कीजिए। खुदा आपको इसका बदला देगा और आपको के०एन०सिंह के हाथ से बचायेगा। कसम अल्लापाक की जब वह आपको मारता है तो मेरा मगर फिर जाता है और जी चाहता है कि मैं उसकी बोटियां नोच कर चील कौवों की खिला दूं। आप ई मत सोचिए कि मैं मुस्लमान हूँ तो पाकिस्तान चला गया हूंगा और आप कोई पाकिस्तानी की मदद काहे को करें। हम पाकिस्तान ना गये हैं। हम तो बस अपने गांव से निकलकर शहर में आ गये है। और हम यहां बीड़ी बनाते हैं। और साढ़े चार रुपया रोज कमा ले रहें। हमारे लायक कोई काम हो तो जरुर लिखिए। बाक़ी आप बड़े भाई हैं और हर फ़िल्म में कोई न कोई से प्यार जरुर करते हैं। एह मारे ई जरुर बताइए कि अब हम को क्या करना चाहिए। थोड़े लिखे को बहुत जानिए और खत को तार जान कर जवाब दीजिए। एक बात हमारी समझ में नहीं आती कि के०एन०सिंह वगैरह से तो हम समझ ले। बाकी ई समाज का होता है? आज तक कोई फिलिम में एकी शकल ना देखाई दी हैं। काई समाज बहुत तगड़ा होता है।
आपका नाचीज खादिम
शौकत अली

यह बात लिखकर वह थक गया। उसे लगा कि दो हजार बीड़ी बनाना एक खत लिखने के मुकाबले में बहुत आसान काम होता है।
खत को लिफ़ाफे में रखने के बाद वह पता लिखने लगा।
दर शहर बंबई पहुंच कर
आली जनाब भाई दिलीप कुमार, मशहूर हीरो को मिले।
फिर वह थक कर सो गया। दूसरे दिन उसने पहला काम यह किया कि इस खत को लेटर बक्स में डाल आया। उसे पक्का यक़ीन था कि दिलीप कुमार खत का जवाब अवश्य देगा।
अब यह तो नहीं मालूम कि दिलीप कुमार को यह खत मिला या नहीं और यदि मिला तो उन्होंने उसे समाज की क्या परिभाषा दी। परन्तु यह मुझे अवश्य मालूम है कि शौकत-रजिया-पे्रम की कहानी हिन्दी फिल्मों के ढ़र्रों पर नहीं चली। क्योंकि हिन्दी फिल्मों में यह अवश्य दिखला दिया जाता है कि विजय समाज की हुई या नायक की। परन्तु इस कहानी के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। दूसरी परेशानी यह है कि हमारे देश में हिन्दू सोशल और मुस्लिम सोशल फिल्में बनाते हैं जैसे कि देश हिन्दू और मुस्लमान समाजों में बंटा हुआ हो और यदि सोसाइटी एक ही है तो कोई मुझे बतलाये कि यह हिन्दू सोशल और मुस्लिम सोशल क्या होता है? मजे की दूसरी बात यह है कि हिन्दू सोशल' फिल्में देखिए तो पता चलेगा कि भारत में केवल हिन्दू रहते है और 'मुस्लिम सोशल' देखिए तो पता चले कि इस देश में मुस्लमानों के सिवा कोई रहता ही नहीं। मुस्लिम सोशल फिल्मों की एक खसूसियत और होती है कि उसका हीरो यदि नवाब नहीं होता तो कवि अवश्य होता है। और अपना शौकत न नवाब था और न कवि। वह नमाज+ पढ़ता था। रोजे रखता था। परन्तु मुस्लिम सोशल फ़िल्मों के गज ;या मीटरद्ध से नापा जाये तो वह मुस्लमान ही नहीं था। इन बातों से अलग रह कर भी देखा जाये तो शौकत किसी कोने से हीरो नहीं दिखाई देता था। बीड़ी बनाने वाला एक बीड़ी मजदूर भला हीरो कैसे हो सकता है। उसे तो जब पता चला कि उसे रजिया से प्रेम हो गया है, तो उसका कलेजा धक से हो गया। उसे यकीन ही नहीं आ रहा था। छोटी बहिनी और शौकत! यह तो कोई बात ही नहीं हुई। परन्तु हुआ यह कि रजिया की माँ आमेना और अपनी माँ मत्तो की आँखें बचा-बचा कर रजिया की तरफ देखने लगा और वह जब भी रजिया की तरफ देखता उसके सारे बदन में जैसे हजारों-हजार दिल धड़कने लगते और इन हजारों हजार दिलों में लाखों लाख चिराग जल जाते और उसकी रग-रग में उजाला हो जाता और छोटे-छोटे अनगिनत ख़वाब हंसते हुए रंगों की गलियों में दौड़ने लगते और वह शोर होता कि कान पड़ी आवाज न सुनायी देती।
कई बार ऐसा हुआ कि उसने अपनी माँ की आवाज न सुनी। माँ का दिल थक से हो गया। इकलौते बेटे यूँ भी बड़े कीमती होते है और जब से पाकिस्तान बना है तब से इकलौते मुस्लमान बेटों का दाम इतना बढ़ गया है कि कभी-कभी ममता दिल में मसोस कर रह जाती है, क्योंकि सौदा नहीं पटता, इसीलिए मत्तो हील खाने लगी। एक दिन वह चुपके से मस्जिद के मुल्ला के पास गई। उसने कहा कि शौकत पर एक परी का साया हो गया है। मुल्ला को मालूम था कि मत्तो मीर जामिन अली की नौकरानी है, और मुल्ला को यह भी मालूम था कि जमींदारी ख़त्म हो चुकी है। इसलिए उसने केवल आधे तोले सोने,एक काले मुर्ग और एक तोले जाफरान की मांग की, यदि वह मत्तो के हाथों में सोने की चार चूड़ियाँ न देख लेता तो शायद सोने की मांग न करता। परन्तु चूड़ियां उसके सामने थी। मत्तो ने एक चूड़ी उसके हवाले की। मुर्ग और केसर का दाम दिया। एक शुक्रवार को मुल्ला ने उसे दो ताबीज दिये। एक ताबीज शौकत के पलंग के पाये के नीचे दबाने के वास्ते और दूसरा घोल कर पिलाने के लिए। मत्तो उस दिन मस्जिद से बहुत खुश लौटी। एक ताबीज उसने पलंग के पाये के नीचे दबा दिया और दूसरा ताबीज उसने शौकत की दाल में घोल दिया। ताबीजों के साथ-साथ उसने हाथ उठा-उठा कर उस परी को खूब कोसने भी दिये जिसने उसके इकलौते बेटे पर अपना साया डाल दिया था।

जाहिर है कि शौकत को ये बातें नहीं मालूम थी। वह तो रजिया के ख़याल में मगन था। पहले वह बाहर की ड्योढ़ी में बैठकर बीड़ी बनाया करता था। अब उसने दालान में अपनी चटाई डाल ली थी।
छोटे दालान से सदर दालान साफ दिखाई देता था। वह बोड़ी बनाता रहता और चुपके-चुपके कोई ग़जल गुनगुनाता रहता।
घर में इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि अब रजिया ने ऊपरवाले कमरे में समय बिताना छोड़ दिया है।
रजिया जब स्कूल में न होती तो सदर दालान में होती और एक पलंग पर लेटी पांव के अंगूठे हिलाती रहती और इस्मत चुगताई या मंटो या कृष्ण चंदर की कहानियां पढ़ती रहती और कनखियों से बीड़ी बनाते हुए शौकत को देखती रहती। कभी-कभार दोनों की आँखें मिल जाती तो दोनों मुस्करा देते। इस मुस्कराहट की ओस से दोनों के बदन नम हो जाते।
एक दिन मत्तो ने शौकत की मुस्कराहट पकड़ ली। उसने बावर्चीखाने में मसाला पीसते-पीसते उस मुस्कान का पीछा किया। वह मुस्कान रजिया की आँखों से उसके दिल में उतर गयी। मत्तो को अपनी आँखों पर यकीन न आया। यह एक अनहोनी बात थी। यह और वह है कि वह खुद दिल में मीर जामिन अली को पूज चुका थी। परन्तु वह नौकर नहीं थी, नौकरानी थी। नौकरी का पूरा इतिहास नौकरानियों और मालिकों के बदन के टकराव की कहानियों से भरा हुआ था। परन्तु आज तक किसी नौकर से मालिक की लकड़ी की तरफ देखकर मुस्कराने का हौसला नहीं किया था। अनारकली हो तो दीवार में चुनवा दी जाती है। परन्तु अनारकली की जगह कोई शौकत हो तो क्या अंजाम होता है। वह कांप गयी।
उस रात जब घर में सोता पड़ गया तो वह शौकत के सिर में तेल डालने बैठ गयी। वह इस उघेड़-बुन में थी कि बात शुरू कैसे करे कि खुद शौकत ने बात शुरू कर दी।
''अब तू बूढ़ी हो गयी है अम्मा जाओ आराम करो।''
स्त्र्''हां, बेटा बूढ़ी त ज+रूर हो गयी हौं। बाकी तौरे सिर में तेलो पड़ना त जरूरी है ना। ए ही मारे सोच रहें कि तोरा बिआह कर के चांद अय्यसी दुल्हिन लिआये।''
''हम त छोटी बहिनी से बिआह करेंगे।'' शौकत ने कहा। यह बात उसने दस-बारह साल बाद कहीं थी। और अब मत्तो उसे चांटा भी नहीं मार सकती थी। उसे कोसने भी नहीं दे सकती थी।
''अय्यसी बात ना करे को बेटा!''
वह उठ कर बैठ गया।
''काहे न करें अय्यसी बात।''
ऊ मालिक है।''
''का तनखाह देते हैं तो को?''
''तनखाह से का होता है!''
''...हम बदमाशी करें की बात ना कर रहें। बिआह करे की बात कर रहे।''
''बरब्बर की बात ना है ना बेटा। एह मारे बिआहो की बात बदमाशीय की बात है।''
''का हम शम्सूओं मियां से गये गुजरे हैं, तू हम्में इ बता द्यो कि हमरे में का खराबी है?''
उसमें कोर्ई खराबी होती तब भी मत्तो को दिखाई न देती क्योंकि मत्तो माँ थी। तो वह शौकत के इस सवाल का क्या जवाब देती। वह चुपचाप सिर में तेल मलने लगी। परन्तु बैठे हुए शौकत का सिर उसे बहुत ऊँचा लगा।
''अच्छा तनी लेट के जट से तेल त लगवा ले।'' मत्तो की आवाज+ जैसे उसके कान से चिपक गयी। उसकी आवाज इस इश्क की आंच से पिघल गयी थी। वह लेट गया। सन्नाटा छा गया।
''अच्छा जो मैं इ मानों ल्यों कि मियां छोटी बहिनी से तोरा बिआह करे पर राजी हो जय्यहें त तैं हम्में ई बता कि मैं छोटी बहिनी से अपना पांव दबवय्यहो?''
''काहें ना दबावय्यहों?''
हमरें बाप दादा जेके बाप दादा का नमक खाइन हैं हम ओसे अपना पांव ना दबवा सकते।'' मत्तो की आवाज में फैसले की खनक थी।
''अच्छा मत दबवय्यहो बस। हम दबावेंगे तोरा पांव। और अब हम्में सोये द्यो। अब हम्में नींद आ रही।'' उसने करवट ले ली।
थोड़ी देर तक मत्तो उसका सिर सहलाती रही। पर जब शौकत आँखें बंद किये पड़ा ही रहा तो वह उठ कर अपने बिस्तर पर चली गयी।

गर्मी की रात थी। बांस का पंखा झलती हुई मत्तो तारों भरे आसमान की तरफ देखती रही। खटोलना घर की छत पर था। उसकी आँखें उसी खटोलने पर जम गयीं और वह शौकत के बारे में सोचने लगी। का मैं ओको बित्ते भर से एक लाठी का एह मा किये हौं कि ऊ छोटी बहनी के वास्ते मोरी बात टाल दें?
परन्तु यह बात ऐसी थी कि वह मुंह से निकाल भी नहीं सकती थी। कई दिन तक वह यही सोचती रही और बावर्चीखाने के दर पर बैठी अपने शौकत की मुस्कान को छोटी बीबी की आँखों से दिल में उतरते देखती रही और हौल खाती रही कि छोटी बीबी का क्या है। बरस-दो बरस में कोई बाजे-गाजे के साथ आकर उसे बिदा करवा ले जायेगा। परन्तु शौकत का क्या होगा?
मत्तो सोच रही थी।
शौकत मुस्करा रहा था।
रजिया इस्मत की टेढ़ी लकीर पढ़ रही थी।
समय रेंग रहा था।
दोपहर का वक्त था। आंगन में लू दौड़ रही थी। रजिया एक टीकोरा खा रही थी कि शौकत आया। रजिया को देखकर वह बावर्चीखाने में चला गया।
''हमहूं को चखा दीजिए जरा-सा सा।''
रजिया मुस्करा दी। उसने अपना जूठा टिकोरा उसकी तरफ बढ़ा दिया। यही मौका था। शौकत ने हजार बार दिलीप कुमार को कामिनी कौशल, नलिनी जयवंत या मधुबाला का हाथ पकड़ते देखा था। उसने रजिया का हाथ पकड़ लिया।
कोई देख लीहों रजिया की आवाज प्यार के बोझ से लचक गयी।
''दुपहरिया में कौन खड़ा है दखें वाला।''
शौकत ने छोटी बहिनी को अपनी बांहो में कस लिया। और ठीक उसी वक्त नाइन कहीं से हिस्सा लेकर आ गयी। रजिया तड़प कर अलग हो गयी। शौकत मटके से पानी निकालने लगा। नाइन सिर से सेनी उतार कर वहीं बावर्ची खाने में बैठ गयी।
''सेख जी इ आम भे जिन हैं। पहिली फसिल आयी है।'' नाइन ने १२ आम निकाल कर बावर्चीखाने के फ़र्श पर रख दिये। रजिया ने सेनी में कोई आध सेर आटा सिर भारी का डाल दिया। नाइन ने सेनी पर रख ली।
''बड़ी गर्मी है।'' नाइन ने रजिया से कहा।
रजिया ने सिर हिला दिया। नाइन चली गयी।
''अ जो ऊ देख लिहिस होय तब का होगा'' उसने सवाल किया।
''हमरे ख़याल में त ना देखिस है।'' शौकत ने कहा। डर तो उसे भी यही था कि नाइन ने देख लिया होगा तो क्या होगा। परन्तु वह छोटी बहिनी को परेशान करना नहीं चाहता था।
दोनों को शाम होते-होते इस प्रश्न का जवाब मिल गया।
नाइन मीर जामिन अली के घर से उठकर समीउल्ला खां के घर गयी। हिस्सा देकर जमीन पर पलंग की पट्टी से लग कर बैठ कर पान का इंतजार करने लगी। खां साहब की बीवी पान लगा रही थी।
यह बोली।
''बाप रे बाप। का जमाना आ गया है!''
''का भया?''
''अब मैं का बताओं बीबी कलजुग है। जो न हो जाये ऊ थोड़ा है।''
''तनी एक देखे कोई।'' पठानी झल्ला गयी। ''टरटराये जा रही और मुंह से ई ना फूटती कि आख़िर भया का।''
''बाइस्कोप भया। बीबी और का भया!'' नाइन सिनेमा की शौकीन थी। पठानी भी कभी कभार सिनेमा देख आया करती थी। सुन कर उनका माथा ठनका। वह संभल कर बैठ गयीं।
''मैं निखौंदी चली गयी दनदनाती मीर साहब के घर हिस्सा देवे। बाकी अब हुआ पुकार के जाय को चाहिए बीबी।''
नाइन ने यह कहानी सुनाते-सुनाते तीन पान खाये। पठानी इस कहानी को अमृत की चाट गयीं। एक-एक शब्द को उन्होंने खूब-खूब निचोड़ा कि कोई बूंद रह न जाये। नाइन तो कहानी सुना कर चली गयी। परन्तु पठानी के लिए घर में बैठना-मुश्किल हो गया और दिन था कि ढ़लने का नाम नहीं लेता था। वह इस कदर जल्दी में थी कि अस्र की नमाज उन्होंने समय से पढ़ डाली।
पठानी के साथ यह कहानी सारे मुहल्ले में फैल गयीं। बीबियों ने दांतों में उंगलियों दबा ली। पठानी सारे मुहल्ले का चक्कर लगा कर आख़िर में मीर जामिन अली के घर पहुंची। आमेना को तो कुछ मालूम नहीं था। उसने पठानी को हाथों-हाथ लिया। परन्तु पठानी बैठती ही बड़े राजदाराना लहजे में बोली कि मुहल्ले में क्या बातें हो रहीं...
''अब मैं बेचारी केहका केहका मुँह बंद करौ?''
आमेना सन्नााटा में आ गयी। पठानी आमेना को सन्नााटे में छोड़ कर चली गयी। उनके जाने के बाद आमेना ने बावर्चीखाने की तरफ देखा। मत्तो दाल बघार रही थी। फिर उन्होंने छोटे दालान की तरफ देखा। शौकत बैठा लालटैन की रोशनी में बीड़ी बना रहा था। फिर उन्होंने सदर दालान की तरफ देखा। सड़ी हुई गर्मी में रजिया एक पलंग पर लेटी न जाने क्या पढ़ रही थी और पैर के अंगूठे नचा रही थी। आमेना के तन बदन में आग लग गयी। वह उठी सदर दालान में जाकर उन्होंने रजिया को एक दोथप्पड़ मारा और फिर वह उसे कोसने लगी।
उनके कोसने इतने साफ थे कि बात मत्तो, शौकत और रजिया की समझ में आ गयी। आमेना रोती जा रही थी और बेटी के मरने की दुआएं मांगती जा रही थी और नमक हरामों को शाप देती जा रही थी।
पोर-पोर गल के गिर जाये नमक हरामन की। मरते वक्त कोई मुँह में पानी चुआवेवाला ना जुड़े। या अल्लाह माटी मिला वे निशान उठ जावे। कबुर पर दिया बत्ती करनेवाला ना रह जाये...''
अपनी झल्लाहट में वह यह भी भूल गयी कि यह मीर साहब के खाने का वक्त हैं। मीर साहब यह कोसने सुन कर सन्नाटे में आ गये।
''क्या हो गया भई।''
'' अरे इ पुछिए कि का ना हो गया। बता अपने बाप को ही कलमूंही।''
कलमूंही! यह शब्द एक पत्थर की तरह मीर साहब के माथे पर लगा। उनकी आत्मा लहू लहान हो गयी। वह किसी छतनार बूढ़े पेड़ की तरह इस आंधी में टूट गयी...
''इस मत्तो हलामजादी से कहो कि अपने नमक हराम बेटे को ले कर इसी वक्त जाये मेरे घर से।''
आमेना आंसू पोंछती हुई पांयती बैठ गयी। रजिया वहीं दालान में थी और रो नहीं रही थी। शौकत अपने दालान में था। परन्तु उसने बीड़ी का सूप नीचे रख दिया था। मत्तो बावर्चीखाने में थी। वह मीर साहब के लिए खाना निकाल रही थी। मीर साहब का हुक्म सुनते ही वह कफगीर को पतीली में छोड़ कर शौकत के पास गयी। अपनी जूती उतार कर उसने शौकत को मारना शुरू किया। शौकत चुपचाप मार खाता रहा। उसने बचने की भी कोई कोशिश न की।
''बाकी जो एह सभन को निकाल दिया गया त महल्लेवाले ई जरूर कहिएं कि जो कउनो बात ना होती त आप एह तरे से इन सभन को कभई ना निकालते।''
आमेना ने कहा।
यह बात भी ठीक थी।
मीर साहब ने अपना फैसला बदल दिया परन्तु यह हुक्म हो गया कि अब शौकत अंदर नहीं आयेगा। शौकत बीड़ी का सूप उठाये, सिर झुकाये बाहर ड्योढ़ी में चला गया।
दूसरे ही दिन में मुहल्ले में खुसुर-फुसुर होने लगी।
''अरे साहब निकाल कैसे दें। चार साढ़े चार रुपया रोज कमा रहा है। लड़का।''
''और हर्ज ही क्या है। इस्लाम ऊंच-नीच तो मानता नही।''
''मैं तो कह रह्मूं भाउज कि इ तो बैगतीं की हद हो गयी। ऊ साफ फंसी है। ओसे!''
शौकत सांप के मुंह की छछूंदर बन गया था। न उगला जा रहा था न निगला जा रहा था। मीर साहब ने बाहर निकालना छोड़ दिया। क्योंकि वह बाहर निकलते तो लोग गला साफ करने लगते।
और घर के अंदर एक गंभीर सन्नाटा था। आमेना बुत बनी एक पलंग पर बैठी रहती। रजिया उसी पलंग पर लेटी कोई किताब पढ़ती रहती। मत्तो खाना पकाती रहती, झाड़-पोंछ करती रहती और रोती रहती। शौकत ड्योढ़ी में बैठा बीड़ी बनाता रहता। मीर साहब हुक्का पीते रहते और अपनी छोटी-छोटी मूंछो को दांतो से चबाते रहते। कोई किसी से नहीं बोलता था। ऐसा लगता था कि घर खाली हो गया है और घर को खाली देख कर कुछ परछाइयां आ बसी हैं।
जमींदारी के खात्मे ने मीर साहब को परेशान किया था। किया था परन्तु बूढ़ा नहीं किया था। मगर रजिया के इश्क़ की गर्म हवा ने उन्हें बिल्कुल झुलस दिया था। वह आत्महत्या भी नहीं कर सकते थे क्योंकि इसका मतलब भी यही निकलता कि उनकी छोटी बेटी उनकी नौकरानी के लड़के से फंसी हुई है। चारा केवल एक था कि जल्द से जल्द रजिया का ब्याह कर दिया जाये-परन्तु अब प्रश्न यह था कि लड़की वाले खुद अपनी बेटी के लिए कहीं पैगाम कैसे दें। मीर साहब ने यह काम करने से नकार कर दिया।
''मार गैरते देखाये को है त ऊहे माटी मिले शौकतवे से दू बोल पढ़वा दिजिए। लड़की वाले बने का मुंहो रह गया है हम लोगन का!''
मीर साहब बल खा कर रह गये। परन्तु बात आमेना ठीक कह रही थी। तो रिश्ते के किसी भाई भतीजे को लिखा गया कि फलां साहब के लड़के से रजिया की बात चलाओ। चक्कर चल गया।
अब ऐसा तो है नहीं कि सारे ही मुस्लमान लड़के पाकिस्तान चल गये हों, कई जगह से खतों का चक्कर चला। एक जगह बात पक्की हो गयी। लड़का पी०डब्ल्यू०डी० में ओवरसियर था। तनखाह तो कुछ ज्यादा न थी। परन्तु ऊपर की आमदनी अल्लाह के करम से काफी थी। लड़के के खानदान में कहीं-कहीं इक्का दुक्का पैबंद लगे हुए थे। परन्तु पाकिस्तान बनवाने की इतनी कीमत तो देनी ही पड़ेगी कि खानदानी लड़कियां खोटे खानदानों में ब्याही जायें। तो साहब मरता क्या न करता। बड़ी ऊंची नाकवाले मीर जामिन अली ने यह रिश्ता मान लिया। बड़े धूम-धड़क्के से तैयारियां शुरू हुई। परन्तु बरात आने के दिन से कोई दो महीने पहले ओवरसियर के बाप का खत आया कि लड़की में खोट है। यह बात इशारे में कहीं गयी थी। साफ साफ यह लिखा गया था कि लड़का ठना हुआ है कि जो दहेज में एक हिंदुस्तान गाड़ी न मिली तो ब्याह करने से फायदा ही क्या। फायदा-यह शब्द भी किन-किन दीवारों पर ठुंका दिखाई देता हैं।
मीर साहब कोई पागल नहीं थे कि इस खत का मतलब न समझ लेते। मतलब साफ था कि लड़की शौकत से फंसी हुई है। उसका ब्याह करना हो तो एक मोटर दो! इसीलिए यह खत पढ़ कर मीर साहब की आंखों में खून उतर आया और आमेना हाथ उठा-उठा कर मुहल्ले वालों को कोसने लगी। ''हे पाक परवर दिगार। जय्यसा इ लोग हमरी बेटी के वास्ते कर रहें इनहूं लोगन के सामने आवे...''
परन्तु कोसनों से क्या होता हैं। रिश्ता टूट गया क्योंकि मीर साहब में कार देने की सकत न थी। उधर सारे मुहल्लेवालों को मालूम था कि बात पक्की हो गयी है और तारीख पड़ गयी है। और यदि उसी तारीख पर बरात न आयी तो मर जाने के सिवा कोई चारा न रह जायेगा।
लड़के के लिए फिर जाल डाला जाने लगा। जो लड़का मिला वह बासठ साल का एक टांठा बुड़ढा था। रिटायर्ड थानेदार था। रंडुवा था। पांच बेटियों और चार बेटों को ब्याह चुका था। परन्तु पांचों दामाद और चारों बेटे पाकिस्तान में थे। इसलिए वह अपनी बूढ़ी तनहाई दूर करने के लिए एक नौजवान लड़की से ब्याह करने को तैयार हो गया।
इस बार मुहल्लेवालों को कानों-कान खबर न होने दी गयी। मत्तो मस्जिद के मुल्ला के पास गयी कि वह कोई ऐसी तरकीब करें कि यह ब्याह हो जाये। मत्तो की समस्या यह थी कि वह यह नहीं भूल सकती थी कि उसकी रगों में दौड़नेवाला लहू वास्तव में रजिया के बाप दादा का नमक है। वह रजिया से पांव दबाने के लिए नहीं कह सकती थी। मुल्ला से भी वह यही रोयी-गायी, क्योंकि दाई से पेट और मुल्ला से बात नहीं छिपायी जाती। सोने की दो चूड़ियों पर बात पक्की हो गयी। मुल्ला ने एक जलाली तावीज लिख दिया और एक जलाली चिल्ला खींचने का वादा किया और वह मत्तो को यह यकीन दिलाने में सफल हो गया कि मीर निजाकत हुसैन बरात ले कर अवश्य आयेंगे। मीर निजाकत हुसैन उस लड़के का नाम था जिससे रजिया की निस्बत लगी थी।
मीर साहब के घर में तो शादी की तैयारियां पहले ही हो चुकी थी। इसलिए उन मियां बीबी का तो केवल यह काम रह गया था कि हर नमाज में यह दुआ मांगें कि ब्याह साथ खैरियत के हो जाये। समधियाने से कोई खत आता तो घड़कते हुए दिल के साथ पढ़ा जाता। और मत्तो आमेना के चेहरे पर इतमिनान की चमक देखकर मुतमइन हो जाती। हर बार मत्तो खुदा का शुक्र अदा करती पर एक दिन जब वह फिर दाल की बघार रही थी। उसने आमेना के कोसनों की आवाज सुनी। हे पाक परवरदिगार। जय्यसा ई लोग हमरी बेटी के वास्ते कर रहें इनहूं लोगन के सामने आवे...
मत्तो के हाथ से बघार का कर्छुल गिर गया। मीर निजाकत हुसैन ने बरात लाने से इनकार नहीं किया था। परन्तु उन्हें चूंकि रजिया और शौकत की कहानी मालूम हो चुकी थी। इसलिए वह रजिया की एक तस्वीर मांग रहे थे।
मीर जामिन अली गुस्से में कांपने लगे। मीर निजाकत हुसैन ने यह नहीं लिखा था कि वह रजिया और शौकत को कहानी सुन चुके परन्तु यूं ऐन वक्+त पर तस्वीर मांगने का और मतलब हो क्या ही सकता है? मीर जामिन अली ने निजाकत हुसैन साहब रिटायर्ड थानेदार को लिखा दिया कि आखिर वह भी पांच बेटियां ब्याह चुके हैं। क्या उन्होंने समधियाने वालों की बेटी की तस्वीरें सप्लाई की थी? इस खत के जवाब में मीर निजाकत हुसैन रिटायर्ड थानेदार ने एक बड़ा सादा-सा खत लिखा। उस खत में सलाम दुआ के बाद लिखा थाः
...खादिम ने अपने समधियानेवालों को बेटियों की तस्वीरें इसलिए नहीं भेजी थी कि उनमें से किसी ने घर के किसी पालक से फंसने की ग़ल्ती नहीं की थी। आपको इत्तला के लिए कुछ खत रवाना कर रहा हूं...
इस खत के साथ चार खत और थे। उनमें से हर खत में रजिया और शौकत की कहानी लिखी थी। वह चारों खत रजिया की तहरीर में थे।
मीर जामिन अली पहली बार यह भूल गये कि हर एक शरीफ आदमी हैं। पहली बार उन्होंने रजिया पर हाथ उठाया। वह उसे केवल मार रहे थे। चूंकि उन्होंने रजिया से बोलना छोड़ रक्खा था इसलिए वह उसे डांट रहे थे। रजिया ने भी चूंकि उनसे बोलना छोड़ रक्खा था इसलिए वह यह भी बताना नहीं चाहती थी कि उसे चोट लग रही है! मीर साहब मारते-मारते थक गये। और तब उन्होंने बेटी की तस्वीर खिंचवाने की बेगैरती करने का फैसला किया।
परन्तु बेटी की तस्वीर खिंचवाना कोई आसान काम नहीं है। वह रजिया को लेकर फ़ोटोग्राफर की दूकान तक जा नहीं सकते थे। घर में फोटोग्र्राफर को बुलाते तब भी वही बात होती। इसलिए एक रिश्तेदार की बीमारी की खबर उड़ा कर मीर साहब बीबी और बेटी को ले कर बनारस चले गये। वहां तस्वीर खिंची और वहीं से मीर निजाकत हुसैन के पास भेज दी गयी। मीर निजाकत हुसैन रजिया पर लहलोट हो गये। वह चार दिन पहले बरात लाने पर तैयार थे। उनका यह जवाब पाकर मीर जामिन अली ने इतमिनान का सांस लिया। मत्तो लपकी लपकी मस्जिद गयी और सवा रुपया मुल्ला को भेंट कर आयी।
मीरासनें ढोल ठोकने लगी।
जिन दिन ढोल ठोंका गया उस रात को सब के सो जाने के बाद रजिया पलंग से उठी। चुपके-चुपके चोरों की तरह वह बाहरी ड्योढ़ी तक चली गयी।
शौकत जाग रहा था।
''अब तोरा का इरादा है शौकत?''
''तूं जो कहो छोटी बहिनी।''
छोटी बहिनी ने कुछ नहीं कहा। सदर दरवाजा खोल कर छोटी बहिनी सड़क पर निकल गयी। अंधेरी रात ने उसे गले लगा लिया। ड्योढ़ी में शौकत के चेहरे पर लालटैन की रोशनी पड़ रही थी। उसने पहले उस दरवाजे की तरफ देखा जिसे खोल कर रजिया ड्योढ़ी में आयी थी। फिर उसने उस दरवाजे की तरफ देखा जिसे खोल कर रजिया सड़क पर निकल गयी थी। और फिर उसने उस परछाई की तरफ देखा जो सड़क पर खड़ी उसकी राह देख रही थी।
वह भी परछाई बन गया।

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