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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Monday, March 30, 2009

खुदा की क़िताब

- शैफाली
वो दोनों चादर पर
सोये थे कुछ इस तरह
जैसे मुसल्ले पर
कोई पाक़ क़िताब खुली पड़ी हो
और खुदा अपनी ही लिखी
किसी आयत को उसमें पढ़ रहा हो

वक्त दोपहर का
खत्म हो चला था,
डूबते सूरज का बुकमार्क लगाकर
ख़ुदा चाँद को जगाने चला गया

उन्हीं दिनों की बात है ये
जब दोनों सूरज के साथ
सोते थे एक साथ
और चाँद के साथ
जागते थे जुदा होकर

दोनों दिनभर न जाने
कितनी ही आयतें लिखते रहते
एक की ज़ुबां से अक्षरों के सितारे निकलते
और दूजे की रूह में टंक जाते
एक की कलम से अक्षर उतरते
दूजे के अर्थों में चढ़ जाते

दुनियावी हलचल हो
या कायनाती तवाज़न
हसद का भरम हो
या नजरें सानी का आलम
अदीबों के किस्से हो
या मौसीकी का चलन
बात कभी ख़ला तक गूंज जाती
तो कभी खामोशी अरहत (समाधि) हो जाती

देखने वालों को लगता
दोनों आसपास सोये हैं
लेकिन सिर्फ खुदा जानता है
कि वो उसकी किताब के वो खुले पन्ने हैं
जिन्हें वही पढ़ सकता है
जिसकी आँखों में मोहब्बत का दीया रोशन हो

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2 comments:

डॉ. मनोज मिश्र March 30, 2009 at 10:01 AM  

देखने वालों को लगता
दोनों आसपास सोये हैं
लेकिन सिर्फ खुदा जानता है
कि वो उसकी किताब के वो खुले पन्ने हैं
जिन्हें वही पढ़ सकता है
जिसकी आँखों में मोहब्बत का दीया रोशन हो....
भावपूर्ण .

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) April 6, 2009 at 8:42 AM  

beshak hamaari aankh men to hai....aakhiri saans tak roshan rahega....!!

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