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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Saturday, December 6, 2008

जख्म

सुनील ओझा

कहीं जख्म हो गये है कहीं छाले पड़ हुए है
अब भी मेरा दिल तरे हवाले पड़े हुए .
इश्क में मरकर भी यूं जिन्दा रहे हम
जैसे धूप में उका रंग है काले पड़े हुए .
उनके होठों का रंग है जैसे लाल किरण
है कश्मकश में देखने वाले पड़े हुए.
इश्क एक सजा है जिन्दगी जीने के लिए
जैसे मुहं में हो छाले पड़े हुए .
खामोश गुजर न यूं चमन से रूद्रपुरी
कांटे ही उठा ले कुछ हैं जो बिखरे पड़े हुए

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शब्दों की वादियाँ

SEEMA GUPTA

शब्दों की वादियों मे
विचरता ये मन ,
खोज रहा कुछ ऐसे कण ,
जो सजा सके मनोभावों को,
चाहत के सुंदर साजों को,
लुकती छुपती अभिलाषा को,
नैनो मे दुबकी जिज्ञासा को,
सिमटी सकुचाई आशा को,
निश्चल प्रेम की भाषा को,
शब्दों की वादियों मे
विचरता ये मन ,
खोज रहा कुछ ऐसे कण............

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निजीकरण और दलित

जसराम हरनोटिया
आजादी के उपरान्त भारत को शक्तिशाली बनाने, एकता और अखण्डता के लिए निजी सम्पत्तियों उदाहरणार्थ-बैंक, बड़े-बड़े कल-कारखानों आदि का राष्ट्रीयकरण राष्ट्र निर्माताओं सर्वश्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, सरदार पटेल, डॉ० बी०आर० अम्बेडकर, बाबू जगजीवन राम एवं श्रीमती इन्दिरा गाँधी आदि के द्वारा भारत की सपन्नता और उज्ज्वल भविष्य के लिए किया गया। जिसे राजीव गाँधी जैसे राष्ट्र सपूतों ने प्राणों की आहुति देते हुए भी फलीभूत किया। जिसके कारण गरीब, मजबूर, दलित सर्वहारा समाज के बच्चों को रोजगार मोहैया कराये गये। इस आर्थिक लाभ से निम्न वर्ग को गरीबी की रेखा से ऊपर उठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस कदम से कई लाभ दृष्टिगोचर हुए। लोगों को रोजगार मिले, गरीब से गरीब परिवार भी शिक्षा की ओर आकर्षित हुए जिससे देश में निरक्षरता की अपेक्षा साक्षरता आन्दोलन को बल मिला और दिन-प्रतिदिन शिक्षा के द्वार खुले तथा देश से अशिक्षा-तिमिर समाप्त होने लगा और राष्ट्र में शिक्षा आन्दोलन शिखर की ओर बढ़ने लगा, ज्ञान चक्षु खुलने लगे। प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा के प्रकाश से भविष्य को सुखदायक बनाने का मार्ग जो अवरुद्ध था, स्पष्ट दृष्टिगोचर होने से राष्ट्र चहुँमुखी प्रगति-पथ पर अग्रसर होने लगा।


पिछला जमाना याद आता है, जिसे बुद्ध कालीन युग कहा गया है, जब भारत में समता, भाईचारा और मैत्री का वातावरण स्थापित था, लेकिन रूढ़िवाद एवं अन्धविश्वास की संस्कृति इस सुखमय वातावरण को बरदाश्त (सहन) नहीं कर सकी और वर्ण व्यवस्था को पुनः लागू कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत को अनेक आक्रमणों को झेलते हुए गुलामी का मुँह देखते-देखते हजारों वर्ष बीते क्योंकि युद्ध में भारतीय समाज के सभी वर्णों को नहीं लड़ना पड़ता था, बल्कि तथाकथित क्षेत्रीय वर्ण को ही मुकाबला करना पड़ता था। उनके पराजित होने के उपरान्त क्षेत्र की सभी जनता स्वतः गुलाम मान ली जाती थी।


भारत में रूढ़िवादी व्यवस्था यह भूल गई कि स्वतन्त्रता संग्राम में भारत का प्रत्येक नर-नारी, बूढ़ा-जवान, विद्यार्थी, किसान एवं मजदूर शामिल था और आजादी के लिए प्रत्येक वर्ग, वर्ण ने फाँसी के फंदों को चूमने में तथाकथित उच्च वर्ण अथवा जाति से भी आगे यहाँ का दलित, सर्वहारा पहली पंक्ति में खड़ा था अर्थात्‌ आजादी की लड़ाई में ऊँच-नीच एवं एक-दूसरे से नफरत को दफनाकर भारत आजादी की लड़ाई लड़ रहा था। इस सामूहिक स्वतन्त्रता आन्दोलन के कारण ही परतन्त्रता की बेड़ियों को तोड़कर भारत को स्वतन्त्र कराने में सफलता मिली। राष्ट्र निर्माताओं ने भारत को पुनः हरा-भरा खुशहाल बनाने का स्वप्न देखा। उस स्वप्न को साकार करने के लिए अनेक योजनायें बनाई गईं। स्वतन्त्र भारत के संविधान का बाबा साहेब डॉ० अम्बेडकर द्वारा निर्माण हुआ।


भारत की चहुँमुखी प्रगति के लिए ऐसे संविधान का निर्माण किया गया जिसमें भारत का प्रत्येक नागरिक, नर-नारी, शूद्र-अतिशूद्र एवं वंचित वर्ग को भी स्वतन्त्रता का अनुभव हो सके। प्रजातांत्रिक प्रणाली द्वारा राष्ट्रीय नेताओं के चुनाव के समय छोटे-बड़े, फुटपाथ पर बसेरा करने वालों से लेकर महलों में निवास करने वालों तक को मत का समान अधिकार हो, कर्तव्य एवं अधिकारों में कोई अन्तर न हो। सबको अपने-अपने धर्म में आस्था का पूर्ण अधिकार हो, भारत के प्रत्येक निवासी को सम्पत्ति, शिक्षा, कृषि, व्यापार आदि में समान अधिकार हो। समता पथ पर लाने के लिए ऐसे समाज को आरक्षण का प्रावधान हो जिसके लिए आजादी से पहले शिक्षा के द्वार बन्द थे, सम्पत्ति रखने के अधिकार नहीं थे, वंचित एवं अछूत माने जाते थे। भारत की नारी भी सछूत होते हुए गुलाम भारत के अधिकारों के लिए उपरोक्त श्रृंखला में ही रखी गई थी जिसको बराबरी के अधिकार स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त संवैधानिक अधिकार मिले। यद्यपि अधिकांश नारी-वर्ग इस जानकारी से आज भी अनभिज्ञ हैं कि संवैधानिक अधिकार किसने दिलवाये, कौन इनके अधिकारों के लिए संघर्षरत रहे? इसका आभास होने के उपरान्त ही शोषण, भ्रष्टाचार एवं अनैतिकता का विनाश अवश्य है। क्योंकि सत्ता बहुजन समाज के हाथ में होगी जो भारत का नव-निर्माण समता भाईचारे के पैटर्न पर (चलने) में सक्षम होगा।


आरक्षण का प्रावधान संविधान की धारा ३३४ तथा ३३५ के अनुसार दो भागों में बाँटा गया। एक आरक्षण का आधार सामाजिक-आर्थिक समता पर आधारित है। जिसके माध्यम से भारत के सभी पब्लिक सैक्टर में नौकरियों तथा पब्लिक सैक्टर के सभी उपकरणों (जिसमें आर्थिक लाभ की व्यवस्था है) कल-कारखानों तथा राष्ट्रीय सम्पत्तियों में जन संस्था के आधार पर अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति को भागीदारी का प्रावधान है। यह प्रावधान तब तक लागू रहेगा जब तक कि अनुसूचित जाति/जनजाति का सामाजिक तथा आर्थिक स्तर भारतीय समाज के बराबर न हो जाये। सामाजिक स्तर का तात्पर्य सामाजिक समानता अर्थात्‌ उच्च वर्ग एवं निम्न वर्ग में सामाजिक समता का सामन्जस्य होकर ऊँच-नीच की खाई को पाटना।


दूसरा भाग राजनैतिक आरक्षण जो केवल दस वर्षों के लिए ही जिसका तात्पर्य था, दलित समाज में राजनैतिक चेतना का आभास होना तथा इस राजनैतिक चेतना के माध्यम से संविधान की रक्षा के लिए पूर्ण अधिकारों का ज्ञान होना। लेकिन दुर्भाग्यवश यह राजनैतिक आरक्षण सभी राजनैतिक दलों को ऐसा भाया कि प्रत्येक दस वर्षों के उपरान्त इसे संसद के माध्यम से बढ़ाते रहते हैं। जिसके कारण भारतीय समाज में एक घृणा एवं द्वेषात्मक वातावरण पनपता जा रहा है कि इनका आरक्षण क्यों बढ़ाया जा रहा है। लेखक को यह कहते हुए कुछ संकोच भी होता है लेकिन सत्य है कि इस राजनैतिक आरक्षण के कारण सभी दलों में अधिकांश दलित गुलामों की भीड़ बढ़ रही है। कुछ अपवाद भी हैं जो राजनैतिक चेतना एवं अधिकारों के माध्यम से दलितों के सामाजिक-आर्थिक अधिकारों से संवैधानिक अधिकारों के प्रति सजग रह कर संघर्ष भी करते रहे हैं और आज भी विद्यमान हैं। इस राजनैतिक आरक्षण को प्रत्येक दस वर्ष के बढ़ाने के कारण एक गहन चिन्तन का विषय भी बनता जा रहा है। सभी राजनैतिक दलों में यह भय भी दृष्टिगोचर होता है कि राजनैतिक आरक्षण समाप्त होने पर दलित वर्ग कहीं पुनः पृथक निर्वाचन की मांग करने के लिए इकट्ठा न हो जाये और अपनी राजनैतिक शक्ति के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक आरक्षण को प्रत्येक क्षेत्र में पूरा करने के लिए सक्षम हो जाये अथवा राजसत्ता पर अपना अधिकार न कर ले? इसलिए इनकी संगठन शक्ति को स्वार्थहित राजनैतिक आरक्षण के नाम पर बाँटकर अलग-थलग रखना ही राजनैतिक दलों के हित में अधिक श्रेयस्कर एवं लाभदायक है।

यहाँ यह स्पष्ट करना भी उचित समझता हूँ कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री श्री रमसे मैकडोल्ड के समक्ष भारत की एकता और अखण्डता के लिए दलित राष्ट्रभक्तों विशेषकर बाबा साहेब डॉ० बी०आर० अम्बेडकर जी ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त भारत के मूल निवासियों (आदिवासियों) के सामाजिक-आर्थिक तथा राजनैतिक हितों को सुरक्षित रखने के लिए अपना मांग पत्र रखा था। उस मांग-पत्र के माध्यम से भारत के कर्णधारों-महात्मा गाँधी एवं बाबा साहेब डॉ० अम्बेडकर के बीच एक समझौता हुआ। यह लिखित समझौता २४ सितम्बर, १९३२ को नर्वदा जेल में हुआ था जिसे इतिहासकारों ने पूना पैक्ट के नाम से उजागर किया। यद्यपि दूसरे धार्मिक एवं राजनैतिक दल अंग्रेजों की भारत विभाजन के प्रपंची जाल में फंसकर भारत को विभाजित करने में सफल रहे लेकिन भारत का दलित यह गौरव एवं स्वाभिमान से कह सकता है कि हमारे राष्ट्रभक्तों एवं कर्णाधारों ने अनेक बार अंग्रेजों द्वारा उकसाने के बावजूद भी अपनी जन्मभूमि को विभाजित करने की कभी भी मांग नहीं की तथा भारत को अनेक खण्डों में टूटने (बंटने) से बचा लिया। इसीलिए भारत का दलित (मूलनिवासी) स्वाभिमान से कहता है कि यह भारत, हमारा भारत है। इसकी एकता और अखण्डता के लिए जीवन बलिदान करने में सर्वदा पहली पंक्ति में रहेंगे। लेकिन अपनी भागीदारी का संघर्ष जारी रहेगा। यद्यपि मान्यवर जिन्ना ने भी बाबा साहेब डॉ० अम्बेडकर को उकसाने में कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने कहा था कि भारत में आप छुआछूत आदि की घृणा के शिकार हैं फिर भी आप बंटवारे की बात नहीं करते। बल्कि एकता अखण्डता के साथ केवल अधिकार की बात करते हो। इसका सरल एवं छोटा उत्तर बाबा साहेब ने अपने शब्दों में दिया था कि ''भारत मेरे पुरखों की जन्मभूमि हैं जिस पर हमारा पूर्ण अधिकार था, इसलिए मुझे भारत से प्यार हैं। मैं भारत की कोई धन-जन की हानि बरदाश्त नहीं कर सकता।''


भारत समाजवादी व्यवस्था से अतीत की भाँति पुनः समृद्ध राष्ट्र न बन जाये, विश्व में शान्ति एवं समता भाईचारे का सन्देश न दे सके, इसी षड्यन्त्रा के अनुसार पूँजीपति राष्ट्र भारत को निजीकरण की ओर प्रभावित ही नहीं कर रहे अपितु दबाव भी बना रहे हैं। क्योंकि भारत विश्व में एक ऐसा विचित्र राष्ट्र है जिसमें अनेक ऋतुएँ एवं इसके गर्भ में अनेक खनिज सम्पदा के भंडार तथा वैज्ञानिक दृष्टि से भी विलक्षण बुद्धि है। इतना ही नहीं इसके उत्तर में हिमालय, दक्षिण पश्चिम तथा अधिकांश पूर्वी भाग में विशाल सागर है जो सुरक्षा की दृष्टि से भी सक्षम है। इसलिए ही इसकी शक्ति को क्षीण करने के लिए निजीकरण नामक संक्रामक कीटाणुओं के बीज बोये जा रहे हैं।निजीकरण के नाम पर अरबों-करोड़ों रुपयों की संपत्तियों, कल-कारखानों को व्यक्ति विशेष अथवा समूह विशेष को बेचा जा रहा है। जिसमें उपनिवेश के रूप में विदेशी कम्पनियों को भी आमंत्रिात किया जा रहा है। जिसका आर्थिक लाभ राष्ट्र को न होकर व्यक्ति विशेष अथवा विदेशी कम्पनियों को ही होगा। पब्लिक सैक्टर की अपेक्षा प्राइवेट सैक्टर में बड़े-बड़े हॉस्पिटल खोले जा रहे हैं जहाँ पर भारत का ८० प्रतिशत निवासी अपना इलाज नहीं करा सकता, क्योंकि वहाँ का इलाज इतना महंगा है कि आम आदमी के काबू से बाहर है। इतना ही नहीं सरकारी विद्यालयों की अपेक्षा प्राइवेट स्तर पर मैडिकल कॉलिज, इंजीनियरिंग कॉलेज खोले जा रहे हैं। जिनकी फीस इतनी अधिक है कि पूँजीपतियों के अलावा साधारण भारत के किसान, मजदूर, दलित मध्यम वर्ग के नौकरीपेशा लोगों की पहुँच से बाहर है, क्योंकि अंग्रेजी मीडियम के नाम पर फीस इतनी अधिक है कि भारत के दस-पन्द्रह प्रतिशत घराने के लोग ही इन विद्यालयों में अपने बच्चों को शिक्षा देते हैं। इतना ही नहीं अधिकांश विद्यालयों में प्रवेश के समय बिना डोनेशन के प्रवेश भी नहीं मिलता है। कितनी बड़ी विडम्बना हैं कि दूसरी ओर सरकारी विद्यालयों तथा अस्पतालों को जनसंख्या के आधार पर बहुत कम खोला जा रहा है। जिससे कि दोनों ओर बहुजन समाज का शोषण बढ़ता चला जाये और भारत में पुनः जातिवाद एवं रूढ़िवाद की घृणा एवं द्वेष का जहर बढ़ता-फैलता जाये और और भारत पुनः आर्थिक गुलामी की ओर अग्रसर हो जाये?

निजी क्षेत्र में आरक्षण के अधिकार की मांग उठने पर सक्षम वर्ग अथवा निजीकरण के हिमायती यह कहते नहीं थकते कि निजीकरण में आरक्षण का प्रावधान होने के कारण क्वालिटी और प्रोडक्शन गिर जायेगी। क्योंकि अनुसूचित जाति/जनजाति एवं ओ०बी०सी० में कार्य क्षमता की कमी है। लेकिन निजीकरण के हिमायती क्षमता के नाम पर यह भूल जाते हैं कि स्पर्धा एवं कार्य क्षमता की जानकारी तब मिलती है जबकि उसे कार्य करने का सुअवसर प्राप्त हो तथा शिक्षा का माध्यम एक हो। एक विद्यार्थी को आगे बढ़ने के लिए अर्थात्‌ उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए सभी साधन उपलब्ध कराये जाते हैं और दूसरे विद्यार्थी को उपयुक्त समय पर पुस्तक भी उपलब्ध नहीं हो पाती अथवा एक विद्यार्थी पर शिक्षा के नाम पर इतना पैसा खर्च किया जाता है, जिसमें गरीब, मजदूर, दलित सर्वहारा बहुजन समाज का पूरा परिवार अपनी जीविका चलाता है। इतना ही नहीं निजी विद्यालयों में भी लाखों रुपया दान देकर प्रवेश के नाम पर डिग्रियाँ प्राप्त की जाती हैं। उस समय स्पर्धा एवं कार्यक्षमता कहाँ चली जाती है? कार्यक्षमता एवं विलक्षण बुद्धि का प्रदर्शन उचित अवसर प्राप्त होने पर पता चलता है। इसके ज्वलन्त उदाहरण बाबा साहेब डॉ० अम्बेडकर, बाबू जगजीवन राम जी हैं, जिन्होंने सु-अवसर प्राप्त होने पर अपनी विलक्षण बुद्धि एवं स्पर्धा का प्रदर्शन किया। बाबा साहेब डॉ० अम्बेडकर ने भारत के संविधान का निर्माण किया तथा दामोदर वैली (घाटी) पर बाँध बंधवाकर अपनी विलक्षण बुद्धि एवं राष्ट्र-निष्ठा का परिचय दिया। भारत जब भुखमरी के कगार पर खड़ा था, चारों ओर अन्नाभाव में हा-हा कार मचा हुआ था, पूर्णतः अमरीका तथा आस्ट्रेलिया से आयातित गेहूँ पर ही निर्भर था। तब इन्दिरा गाँधी जी द्वारा बाबू जगजीवन राम को कृषि मंत्रालय सौंपा गया। बाबूजी धरती पुत्र (कृषक पुत्र) होने के कारण पूर्णरूपेण विज्ञ थे कि कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए समय पर खाद, पानी और उच्च श्रेणी के बीज की आवश्यकता होती है। इसीलिए ही बाबू जी ने कृषि मंत्रालय के साथ-साथ खाद तथा सिंचाई विभाग लेकर समय पर खाद और पानी फसलों को उपलब्ध कराया था। नई दिल्ली के बड़े-बड़े बंगलों में गेहूँ तथा सब्जियाँ उगवाकर हरित क्रान्ति का उद्घोष किया। कुछ ही वर्षों में भारत अन्न, चीनी तथा दालों में आत्मनिर्भर ही नहीं हुआ बल्कि निर्यात करने की स्थिति में खड़ा हो गया था। वही स्थिति आज भी है। दूसरी ओर सदियों पहले से भारत विदेशी आक्रमणों के सामने हारता ही रहा, लेकिन भारत के रक्षा मंत्री पद का सुअवसर प्राप्त होने पर अपनी विलक्षण बुद्धि के बल से भविष्य दृष्टा की भांति भविष्यवाणी कर दी थी, ''यदि पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया तो युद्ध पाकिस्तान की भूमि पर ही होगा'' जो पूर्णतया सत्य सिद्ध हुआ। इतना ही नहीं पाकिस्तान पर विजय प्राप्त करके विश्व मानचित्रा पर पाकिस्तान को तोड़कर बंगलादेश स्थापित कर दिया।इतना ही नहीं भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में भी भारत के मूल निवासियों (दलितों) ने चाहे उधम सिंह जी रहे हों चाहे चेतराम जाटव, बांके चमार, वीरापासी, बल्लू महतर, बांके, मातादीन भंगी रहे हों, चाहे विरांगना झलकारी रही हो अथवा महावीरी भंगिनी रही हो, ऐसे लाखों दलित राष्ट्र दीवाने फाँसी के फंदों को चूमकर शहीद हुए लेकिन कभी भी पीठ नहीं दिखाई। यह किसी से छिपा नहीं बल्कि इतिहासकारों की कलम उनकी वीरता के इतिहास लिखते समय कुंठित-सी हो गई थी।

भारत के निजी विद्यालयों, इंजीनियरिंग कॉलिजों, मेडिकल कॉलिजों, अस्पतालों एवं कल-कारखानों को सस्ते दामों पर भूमि आबंटित की जाती है, भारतीय कोष से उनके निर्माण के लिए आसान किस्तों एवं सस्ते ब्याज पर धन दिया जाता है। सड़कें, बिजली, पानी आदि सुविधा उपलब्ध करायी जाती हैं, जिसमें सार्वजनिक धन का उपयोग होता है। कैसी विडम्बना है कि धन सरकार का जो सार्वजनिक और उसका लाभ व्यक्ति विशेष अथवा समूह विशेष को। अब बहुजन समाज अधिक समय तक इसे अनदेखा नहीं कर सकेगा। भारत की सम्पत्ति पर प्रत्येक भारतीय का अधिकार है। उसमें जनसंख्या के आधार पर भागीदारी होनी चाहिए। इसके अलावा अनछुए मुद्दों पर दृष्टि डालनी होगी। उदाहरण के तौर पर हाईकोट, सुप्रीम कोर्ट में नोमिनेशन नहीं सलेक्शन होना चाहिए। न्यायपालिका का प्राधिकरण होना चाहिए जिससे प्रत्येक भारतीय सुअवसर प्राप्त करके अपनी विलक्षण बुद्धि और कार्यक्षमता का प्रदर्शन राष्ट्रहित में कर सके।


राष्ट्रहित में तो यह अधिक लाभकारी एवं हितकर होगा कि शिक्षा का स्तर एक हो, सभी परीक्षाओं एवं उच्च शिक्षा के लिए एक भाषा माध्यम हो ताकि एक ही सैलेबस हो सके। विद्यालय प्रवेश के समय जाति/उपजाति तथा धर्म का कालम समाप्त कर दिया जाये और इनके स्थान पर राष्ट्रीयता को प्रबल समर्थन देकर राष्ट्र एकता, अखण्डता तथा भाईचारे का अत्यधिक सुदृढ़ मार्ग राष्ट्र के कर्णाधारों ने प्रसन्न नहीं किया तो विघटनकारी ताकतें राष्ट्र को हानि पहुँचाने के लिए मुँह उठा सकती हैं?

आजादी के वे दीवाने जो भारत को स्वतन्त्र कराने के लिए फांसी के फंदे चूमते हुए नींव के पत्थर बन गये, राष्ट्र निर्माताओं ने ऐसा कभी नहीं सोचा होगा कि टुकड़ों में (रियासतों में) बंटे भारत को विशाल भारत बनाने के उपरान्त, निजीकरण एवं विदेशी निवेश का नारा देकर उनका अपमान किया जायेगा अथवा किसी राष्ट्र विशेष के प्रभाव या दबाव में आकर ऐसे कदम उठाये जायेंगे जिससे राष्ट्र पुनः आर्थिक परतन्त्राता की बेड़ियों में जकड़ जाये और उन राष्ट्र निर्माताओं का अपमान हो? इस समय स्थिति बड़ी भ्रामक एवं भयावह है। यदि ऐसा हुआ तो उन राष्ट्रभक्तों एवं निर्माताओं के सपूत पुनः प्रताड़ना एवं अपमान सहकर किसी भी कुर्बानी के लिए तैयार हैं।इसकी गरिमा को किसी भी कीमत अथवा त्याग से सुरक्षित रखा जायेगा। किसी भी राजसत्ता राजनैतिक दल ने उन राष्ट्र भक्तों के विश्वास एवं निष्ठा के विरुद्ध कोई कदम उठाने की अनाधिकार चेष्टा की तो उसका परिणाम वही होगा जो अभी भूत में हुआ है?

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Tuesday, December 2, 2008

कबीर साहित्य का समाज-दर्शन

प्रो० रामकली सराफ
साहित्य-रचना उसका बोधात्मक स्वरूप बराबर अपने युग के सामाजिक-आर्थिक संदर्भों से प्रभावित होता रहा है। कबीर साहित्य में समाज कैसे प्रतिबिम्बित हुआ? उनकी दृष्टि क्या रही है? इसे हमें देखना है। समाज बहुत व्यापक सत्ता है, उसके सारे अन्तर्विरोधों, विसंगतियों को पूरी तरह प्रतिबिम्बित करना चुनौती भरा काम है। एक महाकाव्य रचयिता के लिए तो यह बहुत हद तक संभव है कि वह साहित्यिक-बोध की व्यापक सामाजिक प्रक्रिया को अपने में समेट ले, लेकिन एक मुक्तककार के लिए अपने दोहों, साखी, रमैनी, पदों में समाज की जटिलताओं, प्रक्रियाओं बहुआयामी प्रक्रियाओं को समेटना अपेक्षाकृत मुश्किल भरा काम है।
लेकिन व्यापक सामाजिक सम्बन्धों की सौन्दर्यबोधीय, नैतिक, आर्थिक और राजनैतिक जटिलता के ताने-बाने को कबीर ने रचनात्मक धरातल पर बखूबी स्वीकार किया। आध्यात्मिक चेतना तो निहायत वैयक्तिक अनुभूति है। आध्यात्मिक अनुभूतियों के मूल में समाज नहीं होता। पर सवाल खड़ा होता है कि क्या कोई साधना-पद्धति पूर्णतया समाज निरपेक्ष हो सकती है? तो नहीं, साधनात्मक दार्शनिक पद्धतियों का भी समाज के साथ सम्बन्ध होता है। विभिन्न प्रतिक्रियाओं, दार्शनिक पद्धतियों सबका समाजशास्त्र होता है। इसका कारण भी समाज के भीतर मौजूद रहता है। इसलिए समाज पर उनका प्रभाव भी पड़ता है। कबीरदास ने अद्वैत, बौद्धों, सिद्धों, नाथों, वैष्णव धर्म, सूफी धर्म सबके प्रभाव को ग्रहण किया। लेकिन सारी साधना पद्धतियों में सम्मिश्रण के बावजूद उनकी अनुभूति अपनी है, सभी कुछ कबीरमय है, सबकी जीवित अनुभूतियाँ हैं।यद्यपि कबीर की वाणी निगेटिव रुख लिये हुए है, यह उनकी खास शैली है।
इसलिए स्टाइल भले ही नगेशन की हो पर उनकी अवधारणाएँ सकारात्मक हैं। कबीर सीधे-सहज ढंग से सामाजिक विसंगतियों, अन्तर्विरोधों पर चोट करते हैं। नकार की यह चीख एक नये समाज के निर्माण की ललक लिए हुए थी। ऊँच-नीच, जाति-पाँति, सम्प्रदाय जैसे खाँचों में बँटे समाज की वाह्य और आन्तरिक असंगति उनकी चीख को तीव्र कर देती है, जहाँ वे तमाम मानवीय सम्बन्धों को नकारते नहीं वरन्‌ यह उनके विक्षुब्ध मन का उद्वेलन था, जो मनुष्य को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठा दिलवाने का संकल्प लिए हुए था।इस प्रकार कबीर का समाज-दर्शन और जीवन जीवन-दर्शन परस्पर अन्तर्सम्बद्ध है। दोनों के केन्द्र में मनुष्य जीवन है, जहाँ मनुष्यता और कबीर दोनों एक-दूसरे के पर्याय बन गये। ब्रह्म भी कबीर के यहाँ आध्यात्मिक चेतना मात्र का प्रतीक न बनकर सामाजिक जीवन-दर्शन बन जाता है। उन्होंने कर्मकाण्ड प्रधान धर्म की अपेक्षा सर्वव्यापक चैतन्य स्वरूप ब्रह्म की उपासना पर बल दिया, जो प्रत्येक प्राणी के भीतर मौजूद है।
इस आधार पर वे सब प्राणियों को एक मानकर समत्ववादी दृष्टि के हिमायती बन जाते हैं, जो मानव-मात्र से प्रेम करना सिखाता है। विशिष्ट वर्ग द्वारा अपनायी गई भाषा, ज्ञान, अनुभव और उपलब्धि सामान्य जन को पंगु बना रही थी, उनको लगता था मुक्ति के द्वार भी उनके लिए बंद हैं और दूसरी ओर मंदिर मस्जिद में पाखण्डी पंडित और मुल्ला जनसाधारण को अपने कर्मकाण्डी विधानों से बरगलाकर उल्लू सीधा करने में लगे हुए थे। उनका कबीर साहब ने डटकर विरोध किया, जनता में आत्मबल और आत्मविश्वास पैदा किया। अकर्मण्य साधना के स्थान पर कर्म करते हुए साधना मार्ग पर चलने की सलाह दी। आत्मज्ञान के भाव को भरकर आत्मविश्वास के कार्य द्वारा उन्होंने आम लोगों के पुरुषार्थ को, विश्वास और संकल्प को पुनर्जीवित किया। इस क्रान्तिकारी कृत्य के मूल में संत कबीर का निर्भीक व्यक्तित्त्व ही था।कबीर ने मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखते हुए जाति, वर्ण, वर्ग, सम्प्रदाय के ऊपर हो समाज दृष्टि से समाज को देखा - जाँति-पाँति पूछै नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई। बाह्याडम्बरों-पूजा-पाठ, जप, तीर्थ, गंगास्नान आदि का कबीर ने जमकर विरोध किया सीधे-सादे सहज तर्कों के माध्यम से उन्होंने इन पर प्रबल आघात किया।
इनके व्यंग्य बड़े चुभते हुए और जोरदार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनके व्यंग्यकार व्यक्तित्व को सटीक ढंग से उपस्थित किया। इनके व्यंग्य तत्कालीन सामंती समाज व्यवस्था पर तीखी चोट करते हैं। मूर्तिपूजा का खण्डन करते हुए लिखा - पाहन पूजै हरि मिलै तो मैं पुजू पहार।इसी प्रकार मुल्लाओं और काजियों की धार्मिक रूढ़िग्रस्तता पर करारा प्रहार करते हुए कबीर ने अपना निशाना बनाया - कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय/ता चढ़ि मुल्ला बांग दे बहरा हुआ खुदाय। अतः इन तंगदिल वैभिन्य पैदा करने वाले पागलों से स्पष्ट सवाल किया - दुई जगदीश कहाँ से आये, कहु कोने भरमाया/अल्लाह राम करीम, केशव, हरि हजरत नाम धराया।''
इन बातों का कोई जवाब तत्कालीन सामंती शासक वर्ग के पास नहीं था। कबीर का यह विद्रोह मूल्यहीन विद्रोह नहीं था, वरन्‌ निर्मल हृदय संत कवि के हृदय के सहज उद्गार थे। जहाँ वे सहज मार्ग से ईश्वर की निकटता पाने के हामी थे, जिन्ह सहजैं हरि मिलै विभेद बुद्धि का वहाँ क्या काम?वस्तुतः कबीर मानव मात्रा की एकता के कायल थे। विभेद की समस्त रेखाएं तो वर्ग-स्वार्थ से जन्मीं मनुष्य निर्मित है। विधाता के यहाँ कोई भेद नहीं - एक जाति से सब उत्पन्ना को बाभन को सूद्रा। निश्चित ही जब ब्राह्मणों ने समाज में नियन्ता का पद संभाला तो उसके मूल में श्रम-विभाजन ही रहा। वह अकर्मण्य बन अपने गूढ़ चिन्तन को जनता की समझ में न आने वाली भाषा के माध्यम से शासक वर्ग की हिमायत करते हुए रखता था, क्योंकि यही वर्ग उसका भरण-पोषण करता था, सम्मान देता था और उच्च पद पर आसीन करके पूजता था।
यही पुरोहित वर्ग गुरु के रूप में सामाजिक शिक्षा पद्धति का स्वरूप निर्धारित करता था, जिसमें जनता को राजा का सम्मान करने और पूजने की बात कहकर उनके ईश्वर होने का भ्रम फैलाता था। उन्होंने ब्राह्मणों की तथाकथित उच्चता और जनविरोधी रुख पर करारा व्यंग्य करते हुए लिखा - जो तू बांभन जाया, आन बाट हवै क्यू नहीं आया। ब्राह्मण धर्म की इस कर्मकाण्डी जड़ता पर प्रबल आघात बुद्ध ने भी किया। ब्राह्मणों के गढ़ काशी में रहकर सारे विरोधों को झेलते हुए कबीर अज्ञान और असत्य के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने से डरे नहीं, आस्था और विश्वास के दृढ़ स्वर में लिखा - सो बांभन जो ब्रह्म विचारै। उन्होंने मुल्लाओं को अपना निशाना बनाते हुए लिखा - जो तू तुरूक तुरूकिनी जाया, पेटे सुन्नत क्यू न कराया। मानव मात्र एक है, कहीं कोई भेद नहीं। ऊँच-नीच, छुआछूत को धर्म ने कब और कहाँ पैदा किया यह बात संत कबीर की समझ में नहीं आती - कहुँ धौं छूति कहाँ ते ऊपजी तकही छूत तू मानी।/एकै पाट सकल बैठाए, छूति लेत हौं काकी। वहाँ तो सब एक ही विधि से उत्पन्न हुए हैं। सभी की धमनियों में एक ही रक्त प्रवाहित हो रहा है। सभी हाड़-मांस के बने हुए हैं।
इस प्रकार उन्होंने जन्मना श्रेष्ठता को पाने के ऊँच-नीच वाले आचरण का विरोध कर सदाचरण पर बल दिया। हृदय साधना का यह प्रबल रूप उनकी मानवतावादी दृष्टि का चरम उत्स है। लोकधर्मी भक्ति का यह भास्कर रूप उन्हें जीव मात्रा के प्रति हो रहे अत्याचार और पीड़ा के खिलाफ खड़ा कर देता है। सबै जीव सांई के प्यारे जब सांई को सब जीव प्यारे हैं तो फिर हम सब घरि को एक मानकर क्यों न चलें?यही एक अहम्‌ सवाल खड़ा होता है कि मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद को नकारने वाले संत कबीर ने स्त्री और पुरुष में भेद क्यों किया? उनके साहित्य में नारी की रचना कहाँ ठहरती हैं? उसे मनुष्य के बाहर क्यों खड़ा किया? नारी के प्रति जो निषेधात्मकता का रुख संत कबीर में दीखता है, अन्य पक्षों की तरह उसका सकारात्मक पक्ष उभरकर सामने नहीं आता।
जबकि उनकी सामाजिक दार्शनिक चेतना निहायत प्रगतिशील है जो उनके युग का सच ही नहीं बाद के युग का सच भी बनी। आज भी उन पक्षों की सच्चाई को हम स्वीकार करते हैं, बल देते हैं। लेकिन कबीर के इस सच का जितना आकर्षण है, उससे ज्यादा हमारे नारी होने की प्रतिबद्धता है जो बराबर प्रश्न खड़ा कर रही है कि कबीर के नारी सम्बन्धी दृष्टिकोण का सकारात्मक पक्ष क्या है?दरअसल हमारे यहाँ वैरागी संत पुरुष का जो मूल दर्शन रहा है
कबीरदास भी लगभग उसी के कायल थे। उनके समकालिक सभी संतों ने नारी को माया के रूप में देखा है जो साधक के साधना मार्ग में रोड़ा बनकर खड़ी हो जाती है, भटका देती है। यद्यपि कबीरदास के बारे में यह भी धारणा प्रचलित है कि उन्होंने विवाह किया था। निश्चित ही नारी से सम्बद्ध गृहस्थ जीवन की जो अनुभूतियाँ थीं, नारी की उपयोगिता अनुपयोगिता के स्वयं भुक्तभोगी रहे होंगे। पग-पग पर बाधाएँ भी झेली होगी। कुछ लोग ये भी कहते हैं कि उन्होंने विवाह नहीं किया। यदि नहीं भी किया तो मनुष्य के प्रति जो उनकी खरी प्रतिबद्धता है उससे बाहर खड़े दिखने लगते हैं। नारी उनके मनुष्य से बाहर खड़ी है, ऐसा क्यों? इसके मूल में उनकी साधक की वैयक्तिकता प्रधान रूप से झलकती है। उन्होंने लिखा - एक कनक अरू कामिनी, विष्कल किएउ पाई/देखैं ही थैं विष चढ़ै, खाएँ सूँ मरि जाए।बड़ी सामान्य उक्ति है, जगत की वास्तविकता का निषेध कर रहे हैं। सोना और स्त्री दोनों त्यागी पुरुष को बाँधनी हैं। लेकिन यदि कहा जाये की स्त्री भी सोने के प्रति आकर्षित होती हैं तो सच है। पर कबीरदास धन-सम्पदा और स्त्री को समान रूप से देख रहे हैं। इसी प्रकार उन्होंने अन्यत्र लिखा - सुदूरि तैं सुनि भाले, बिरला बचै को।/लोहा निहाला अगनि में, जलिबिल कोइला होय।इस प्रकार का ऐकान्तिक एकांगी दार्शनिक चिन्तन प्रायः साधकों के भीतर प्रतिबिम्बित होता है।
कबीर के इस सामाजिक दर्शन की वैज्ञानिकता के बीच सच्चाई सिद्ध नहीं होती। दूसरे कबीर युग में सामंती समाज में पैठी भोग-विलास की अतिशयता भी नारी के खिलाफ खड़ा करती है। उन्होंने कामी नर कै अंग में लिखा - परनारी के राचणैं औगुण है गुण नाहिं।/ पार समंद में मछला केता बहि-बहि जाहिं।'' संत कबीर जब यह लिखते हैं - नारी की झांई पड़त अंधा होत भुजंग। तो निश्चित ही वे नारी को माया की भाँति सांसारिकता के प्रतीक के रूप में देख रहे हैं, जहाँ वह साधक को अपने लक्ष्य से भटकाती है, अपने आकर्षण के पाश में बाँधकर अंधा बना देती है, सच्चाई से अलग कर देती है तो इसमें नारी का जितना दोष नहीं है, उससे अधिक दोष उस भुजंग का है।
भुजंग अंधा हो सकता है, भुजांगिनी अंधी हो सकती है दोनों को दोष दें तो समाज बनेगा। काम नारी में नहीं है, काम कामी में है अपने में दोष देखना चाहिए। युगीन अनेक अन्तर्विरोधों से कबीर अपने को बचा नहीं सके। अन्यत्र उन्होंने शब्द रूपा स्त्री के द्वारा ज्योतित होती सृष्टि को भी देखा - अन्तर्जोत सबद इक नारि, हरि ब्रह्मा ताके त्रिपुरारि। जबकि पहले के लेखकों न शब्दब्रह्म की बात की। लेकिन कबीर ने शब्दशक्ति स्त्री को माना। ब्रह्म की जगह पर स्त्री को बैठाया माया नहीं माना। हरि के साथ लक्ष्मी अनन्य आबद्ध होती है। शिव के साथ भवानी जिसमें कारण उनकी पूजा होती है, शक्ति के स्पर्श से शिव होता है। यही स्त्री ब्राह्मणी भी है। ब्रह्म की पत्नी भी है, पुत्री भी है। सरस्वती यानी शब्द जब रूप लेगा मर्यादा को अतिक्रमित कर जायेगा।निश्चित ही यह कबीर के युग का अन्तर्विरोध था। साधक की ऊँचाई से देखें तो यह नारी ही नहीं सम्पूर्ण स्त्री-पुरुष जाति की सच्चाई हो जाती है।
स्पष्ट है नारी के प्रति कबीर नाथपंथी योगियों और सिद्धों से भिन्न दृष्टिकोण लेकर चल रहे थे, जबकि उनका साधनात्मक रहस्यवाद शून्य, अनाहत नाद, इड़ा-पिंगला, सुषुम्ना नाड़ी, अष्टचक्र, सहस्रदल कमल आदि को स्वीकार करता है। कबीर परम्परित शास्त्रीयतावादी चिंतन माया, जीव, ब्रह्म, जगत्‌ आदि से अत्यधिक प्रभावित रहे। यही वजह है नारी और माया दोनों ही कबीर के लिए भेद ज्ञान पैदा करते हैं। अतः इनसे स्वयं को दूर कर वे साधना की ऊँचाई को संस्पर्श करते हुए सर्वब्रह्म के ज्ञान की ओर मुड़ते हैं। ऐसा ब्रह्म जो किसी दार्शनिक विचारधारा से आबद्ध न होकर स्वानुभूतिपरक ही अधिक है, कहीं-कहीं वे सगुण व्यक्त ब्रह्म को भी स्वीकार करते हैं, पर ब्रह्म का सूक्ष्म रूप ही उनको ग्राह्य है जो भावनामूलक इन्द्रियातीत है। गुरु से प्रेम का मंत्रा ग्रहण करके ही वे भाव-साधना द्वारा भक्ति-साधना की ओर उन्मुख हुए। तन्मयावस्था को प्राप्त करने के लिए निरन्तर सुपथ की खोज में रत रहे। परमत्याग ही इस अवस्था का अधिकारी बनाता है - सीस उतारि पगतलि धरै, तब चखै प्रेम का स्वाद। इस प्रकार अन्तःकरण को शुद्ध कर साधक अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है, उसमें कोई भेदभाव स्वीकार नहीं। निःसन्देह कबीर की भक्ति प्रेममूलक भक्ति थी, जहाँ वे अपने को राम की बहुरिया कहकर पुकारते हैं। एक ऐसी बहुरिया जो कंत को अपनी आँखों में ढॉपकर रखती हैं, जिसे न कोई अन्य देखे और नहीं वह किसी को देखे नैना अंतर आव तू ज्यूँ हौ नैन झंपेउँ/ना हौं देखू और कू, ना तुझ देखन देऊँ।यह है सर्वव्यापक घट-घट वासी ब्रह्म जो सभी प्राणियों को एक स्तर पर स्थापित करता है। कबीर का सर्वब्रह्म ज्ञान का यह दर्शन जो हिन्दू-मुस्लिम सामंती प्रभुओं के वर्चस्व से अलग अपने एक भिन्न मार्ग का निर्माण करता है, जो अध्यात्म से जुड़े होने के बावजूद सबके सम होने के भाव से सम्पृक्त है। ऐसा उच्चतर मानवीय संस्पर्श, जहाँ मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद नहीं है।वस्तुतः कबीरदास जिस वैयक्तिक चिंतन की ओर झुके, उसका कारण तत्कालीन शासकों की निर्ममता, शोषकवृत्ति और हृदयहीनता ही रही। यही कारण है भौतिक-सामाजिक सत्य के स्थान पर उन्हें गुहृय साधना का आश्रय लेना पड़ा। सवाल खड़ा होता है कि वह प्रवृत्ति निम्न तबके से सम्बद्ध सिद्धों, नाथों एवं संतों में ही क्यों जन्मी।
इसकी वजह क्या है? इसका सामाजिक, मनोवैज्ञानिक कारण यही हो सकता है कि इस उत्पीड़ित वर्ग के पास कोई राजनैतिक विकल्प नहीं था, जिसके तहत वे अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलवा पाते। इसी कारण ये अपने अन्तर्निहित सत्य की ओर उन्मुख हो गुहृय साधना में रत हुए और ऐसे दर्शन को स्वीकार किया जो सामाजिक समत्व पर बल देता था, जिसके मूल में प्रेम था।
उन्होंने अपनी प्रेममूलक भक्ति के बल पर ही जनता की भावना को आत्मसात्‌ किया, उनके दुःख-दर्द को समझा। यह प्रेम ही उनके लिए समस्त वाह्यचारों से परे समाज के भेदभाव से लड़ने का धारदार औजार था। इसी प्रेमतत्व में समूचे भक्ति आंदोलन की आत्मा का बहाव देखा जा सकता है, सूर, तुलसी, मीरा, जायसी के यहाँ भी यही है। जाहिर है कि संत कबीरदास भक्ति आंदोलन की मूल्यवान विरासत है। जिस आन्दोलन का सामाजिक आधार दलित मानव का भौतिक जीवन रहा है, जो वैषम्यपूर्ण दौर में उत्पीड़ित और आन्दोलन हो उठा था। कबीर ने लोकमानस के भीतर उठते इस ज्वार को पहचाना और वाणी दी। उनकी भक्ति का मुख्य पक्ष सन्त अथवा जनकवि का है। काव्य चेतना और लोक-चेतना की अन्तर्सम्बद्धता ही उन्हें सामंती ढाँचे के प्रतिरोध में खड़ा करती है। साधना के धरातल पर उनका आध्यात्मिक जीवन अवश्य प्रत्यक्ष हुआ, लेकिन वे साधु समाज की चिन्ता तक ही अपने को समेट नहीं पाये वरन्‌ सामाजिक चिन्ता के धरातल पर वे सामन्ती अमानवीयता के शिकार जनसमूह के साथ खड़े हुए। धर्म के नाम पर होने वाले पाखंडों और अंधविश्वासों का तीव्र विरोध करते हुए मानवता के पक्षधर बने रहे।भक्ति आन्दोलन का उत्पीड़ित जाति पर गहरा असर पड़ा। अभावग्रस्त, उपेक्षित, अशिक्षित लोग निर्गुणवादी चिन्तन के साथ जुड़े। जबकि चिन्तन की दृष्टि से वह गूढ़, सूक्ष्म और ज्ञान की ऊँचाईयों का संस्पर्श करने वाला है। लेकिन निर्गुणवाद का दार्शनिक सत्य समत्वादी दर्शन प्रभुत्वशाली वर्ग की दार्शनिक मान्यताओं के विपरीत था, जो उन्हें रास नहीं आया। अतः युगीन सामाजिक संघर्षों की द्वन्द्वात्मकता के बीच सन्त कवियों ने निर्गुणवाद में दार्शनिक परितृप्ति पायी। शायद यही कारण है कि मुक्तिबोध ने सगुण को सवर्णों से सम्बद्ध कर लिखा कि इस आन्दोलन के भीतर से भक्तियुगीन वर्ग-संघर्ष प्रतिबिम्बित हो रहा है जिसके कारण निर्गुण काव्यधारा में निम्नवर्गीय भावबोध की प्रधानता है और सगुण भक्तिधारा में उच्चवर्गीय भावबोध की। इसी आधार पर उन्होंने तुलसी की अपेक्षा कबीर को क्रान्तिकारी कवि कहा। उनकी जनजीवन को पहचानने की क्षमता अद्भुत थी।दरअसल कबीर लोक जीवन की भाषा और रूपकों को लेकर अपनी बात को जनता के मर्म तक उतारने में सिद्धहस्त थे। निश्चित ही वे शास्त्रीय कोटि के आचार्य न होकर व्यापक जनता के आचार्य थे। कदाचित्‌ इसी कारण आचार्य शुक्ल ने उनको कवि की कोटि में नहीं रक्खा। लेकिन बार-बार वे निर्गुणपन्थी सन्त-महात्माओं के उपकार को सराहते रहे कि इन कवियों ने उच्च विषयों का कुछ आभास देकर आचरण की शुद्धता पर बल देकर बाह्याडम्बरों को नकारकर निम्न जाति के लोगों में आत्मगौरव का भाव जगाया। इसी सन्दर्भ में उन्होंने कबीर को समाजसुधारक भी स्वीकार किया। लेकिन भक्तिरस में मग्न कर देने वाली सरसता की कमी उन्हें बराबर खटकती रही जिसके परिणामस्वरूप उनका ध्यान सूर-तुलसी खींच लेते हैं। बावजूद इसके यह तो निर्विवाद है कि भले ही कबीर में हठयोगी सिद्धों और नाथपंथी योगियों के निर्गुण निराकार ब्रह्म को स्वीकार किया तो भारतीय अद्वैत दर्शन और सूफियों के प्रेमतत्त्व का समावेश अपने चिंतन में किया। फिर निवेदन सगुण के प्रति हो या निर्गुण के प्रति इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बड़ा सवाल है कि प्रेम मानवीय कितना है? तो क्या मानवीय पहलू सभी में अपने-अपने स्तर पर अभिव्यक्त हुआ। ब्रह्म को सर्वव्यापी मानकर जिस समत्ववादी दृष्टि की हिमायत कबीर ने की, उसके मूल में प्रेमतत्त्व ही मौजूद है। सर्वव्यापी चैतन्य स्वरूप ब्रह्म की उपासना, जो प्रत्येक प्राणी के भीतर वास करता है। मनुष्य-मनुष्य के बीच एकापन पाता है, प्रेम करना सिखाता है। सत्य है कि तद्युगीन शासक वर्ग के चारित्रिक वैशिष्ठ्य से यह एकदम भिन्न बात थी कि वे सभी को समभाव से देखें। लोकभावना और लोकजीवन से जुड़ी ये बातें विशिष्टजन के विपरीत सामान्य जन को प्रिय होंगी, इस प्रकार सामाजिक-सांस्कृतिक धरातल पर अपनी बानियों के माध्यम से विशाल जनसमूह को एकजुट करने का विराट प्रयत्न कबीर ने किया। उनकी वाणी की संघर्षशील चेतना और प्रखर विद्रोही तेवर आज के अन्तर्विरोधी माहौल में भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने जो कुछ भोगा उसमें केवल निज के अन्तर्विरोध को ही नहीं पहचाना वरन्‌ अपने निजी अनुभवों के आलोक में व्यापक लोक से रिश्ता कायम किया। इस प्रकार मानव-मात्र की एकता के पक्षधर कबीर साहेब ने समस्त जातिगत, साम्प्रदायिक विभेदों का खण्डन कर मनुष्य को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठा दी।निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि कबीर का समाज-दर्शन मूलतः अध्यात्म दर्शन होने के बावजूद समाज के जिन आयामों का संकेत करता है, वे संकेत आज की दुनिया में धर्मभेद, जातिभेद, देशभेद, राष्ट्रभेद और युद्ध की भयावहता से आक्रांत मानव जाति के लिए कितने प्रासंगिक, कितने ऊँचे, कितने गृहणीय और अर्थवान है, यह सहज ही स्पष्ट है।

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धीरे-धीरे उतर क्षितिज से

महादेवी वर्मा


धीरे-धीरे उतर क्षितिज से
आ वसन्ती-रजनी।
तारकमय नव वेणीबन्धन
शीश-फूल कर शशि का नूतन,

रश्मि-वलय सित घन-अवगुण्ठन,
मुक्ताहल अभिराम बिछा दे
चितवन से अपनी।
पुलकती आ वसन्त-रजनी।

मर्मर की सुमधुर नूपुर-ध्वनि,
अलि-गुंजित पद्मों की किंकिणि,
भर पद-गति में अलस तरंगिणि,
तरल रजत की धार बहा दे

मृदु स्मित से सजनी।
विहँसती आ वसन्त-रजनी।
पुलकित स्वप्नों की रोमावलि,
कर में हो स्मृतियों की अंजलि,

मलयानिल का चल दुकूल अलि।
घिर छाया-सी श्याम, विश्व को
आ अभिसार बनी।
सकुचती आ वसन्त-रजनी।

सिरह सिरह उठता सरिता-उर,
खुल खुल पड़ते सुमन सुधा-भर,
मचल आते पल फिर फिर,
सुन प्रिय की पद-चाप हो गयी

पुलकित यह अवनी।
सिरहती आ वसन्त-रजनी।

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Monday, December 1, 2008

तुम्हारे बिखराए हुए शब्द

RAJEEV THEPRA


तुम्हारे बिखराए हुए शब्दों के कणों को चुन रहा था मैं...
जो जमी में बेतरतीब थे धूल से सने हुए....
.बड़े प्यार से मैंने उन्हें उठाया वहां से...
हल्का-हल्का झाडा-पोंछा उन्हें...
और थोड़ा थपथपाया...
तभी तो उनका रूप निखर-कर
ऐसा सामने आया......
जमीं पे जब देखा था उन्हें..
कुछ चमकती हुई-सी वस्तू-से लगे थे..
हाथ में जब लिया,तब लगा...
अरे ये तो मोती हैं...
फिर बाहर नहीं छोडा उन्हें...
दिल के भीतर रखकर घर ले आया...
और अब उनका दीदार कैसे कराऊँ...
वो तो अब मेरे मन को मथ रहे हैं...
वो अब मेरी रूह को जज्ब कर रहे हैं....!!

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सरहदे-इश्क़

SEEMA GUPTA




है ये शो'ला के या चिंगारी है,
आतश-अंगेज़ बेक़रारी है ...
यूँ निगाहों से ना गिराएँ हमें,
चोट ज़िल्लत से भी करारी है ...
के शिकन आपके चेहरे पे पड़े
दिल पे अपने ये बात भारी है ...
सरहदें इश्क़ की न ठहराएँ
इश्क़ से काइनात हारी है ....
हमने क्या कर दिया जो क़ाइल हैं
आप पर जान ही तो वारी है ...
(आतश-अंगेज़ - आग भड़काने,
उत्तेजित करने वालीज़िल्लत - अपमान,
तिरस्कारकाइनात - दुनियाक़ाइल - अभिभूतवारी - न्योछावर )

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जीवन कि मंजिल का पता कैसे पायें !!

RAJEEV THEPRA


जीवन की मंजिल का पता हम कैसे पायें
इस मंजिल के पीछे जान निकल न जाए !!
आपस में भागा-दौडी,कितनी भागा-भागी,
डरते हैं कि हम रब को कहीं भूल न जाएँ !!
करता हूँ सबसे मुहब्बत,ये है सच्चा सौदा ,
मुहब्बत ही तो रब है,रब से क्या शर्मायें !!
भूखे हैं पेट जिनके,जो रहते हैं बे ठिकाने ,
सोचूं हूँ तो अक्सर ये आँखे हैं भर आयें !!
सोना-जागना-खाना-खेलना-सोचना-बतियाना,
जीवन गर यही है,जीवन से बाज आयें !!
जीने की खातिर करनी पड़े अगर बेईमानी ,
इससे तो बेहतर है कि आदम ही मर जाए !!
आदम के बारे में सोचूं,आदम की बातें करूँ,
जाना कहाँ आदम को,आदम जान ना पाए !!
जीवन की खातिर हैं हम,क्या है जीवन हमारा,
उम्र इक घुन है"गाफिल",उम्र भर खाती ही जाए !!

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Sunday, November 30, 2008

कबीरकालीन समाज

प्रो० शरद नारायन खरे
कबीर (शाब्दिक अर्थ - महान) का जन्म निराशा तथा हतोत्साह के वातावरण में हुआ था। उस समय विषमताएँ, नैराश्य, विश्वासघात तथा विसंगतियाँ व्याप्त थीं। समाज में कुत्सित-विचारों तथा बाह्य आडम्बरों का बाहुल्य था। धर्म के ठेकेदार मठाधीश बनकर अनाचार का जीवन व्यतीत कर रहे थे। सामाजिक विषमताओं से तंग आकर निम्न जाति के लोग धर्म-परिवर्तन पर उतारू हो गए थे। आर्थिक विपन्नता से सामान्य जनता की रीढ़ ही टूट गई थी। भावुक कबीर से समाज की यह दशा देखी न गई, इसीलिए कबीर आजीवन हिन्दुओं और मुसलमानों की कुरीतियों और आडम्बरों के विरुद्ध आवाज उठाते रहे। उनके काल में हिन्दू वर्ण-व्यवस्था अत्यन्त विकृत हो गई थी। हिन्दू जाति-पांति के बंधनों में बंधे रहना एक गौरव समझते थे। परस्पर ऊँच-नीच की भावना दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। ऐसी दशा में कबीर ने समस्त हिन्दू जाति को समानता का संदेश सुनाया।डॉ० युसुफ हुसैन के अनुसार-उत्तरी भारत के विभिन्न वर्ण और धार्मिक समुदायों के मतभेदों का मान्य उपायों द्वारा अंत करना कबीर का प्रमुख उद्देश्य था। वे वर्णाश्रम प्रथा के साथ ही अंधविश्वासों पर आधारित धर्मों की शत्रुता का अथवा दूसरों की मूर्खता से लाभ उठाकर उन्हें भ्रष्ट करने वाले एक अल्पसंख्यक समुदाय का उन्मूलन करना चाहते थे। साथ-साथ रहने वाले लोगों के बीच एक सामाजिक एवं धार्मिक शांति स्थापित करने के आकांक्षी थे, क्योंकि धर्म ने उन्हें एक-दूसरे से अलग कर दिया था।

उस काल में बाह्य आडम्बरों का बोलबाला था। अंधविश्वासों का आधिक्य था। परन्तु कबीर ने किसी भी र्धार्मिक विश्वास लोक तथा वेद के अंधानुकरण को स्वीकार नहीं किया, बल्कि विवेकपूर्वक उन धर्मों, विश्वासों तथा पाखण्डों को अपनी ध्वंसात्मक भूमिका से तहस-नहस करके ही दम लिया। उन्होंने हिन्दू धर्म के आचारों यथा-पूजा, उत्सव, वेदपाठ, तीर्थयात्रा, व्रत, छुआछूत, अवतारोपासना तथा कर्मकाण्डों पर कबीर ने कस-कसकर व्यंग्य किया। वे बाह्याडम्बरों को अंधकार की संज्ञा देते थे।

वस्तुतः तत्कालीन समाज साम्प्रदायिकता से परिपूर्ण था। वह काल दो धर्मों, दो संस्कृतियों एवं सभ्यताओं के संघर्ष का था। दोनों के मध्य टकराव, भेद व झगड़े के हालात थे, इसीलिए कबीर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच समानता का प्रतिपादन करके उन्हें एकता के सूत्र में बाँधना चाहते थे। उनका यह समन्वयवादी दृष्टिकोण सापेक्ष नहीं निरपेक्ष है। उन्होंने अपने युग की गलत विचारधाराओं की निडरतापूर्वक आलोचना की तथा निराकार ब्रह्म की उपासना की।
डॉ० ताराचंद के अनुसार-प्रेम के ऐसे धर्म का जो सभी धर्मों और जातियों को संगठित कर दे, का प्रचार करना ही कबीर के जीवन का लक्ष्य था। उन्हें हिन्दुत्व एवं इस्लाम के उन तत्त्वों को जो कि आध्यात्मिक कल्याण के लिए नहीं थे, अस्वीकार कर दिया।
यथार्थ तो यह है कि कबीरकालीन समाज पाखण्डों से परिपूर्ण था। जप, तप, संयम, स्नान, ध्यान आदि का बोलबाला था। परन्तु कबीर की मान्यता थी कि जब तक आराध्य के प्रति भक्तिभाव नहीं है, तब तक सब कुछ व्यर्थ है। उस काल में कर्म मार्ग तथा ज्ञान मार्ग का प्रचलन था, पर कबीर भक्ति मार्ग को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। लेकिन उनकी भक्ति-साधना में वेदशास्त्र, ज्ञान, यज्ञ, तीर्थ, व्रत तथा मूर्तिपूजा के लिए कोई स्थान नहीं था। उनका भक्ति भाव शक्ति में निहित था। वे न तो मंदिर की आवश्यकता महसूस करते थे और न ही मस्जिद की। वे तीर्थस्थानों को भी गैर-जरूरी मानते थे। पर उनके अनुसार इस हेतु गुरु की कृपा आवश्यक है। उनकी भक्ति में गुरु का स्थान सर्वोच्च था। वे कहते थे कि गुरु वह साधु है जिसे ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त है।
वस्तुतः कबीर के काल में सामाजिक विकार अपने चरम पर थे। उस काल में हिंदू समाज की जाति प्रथा, नारी वर्ग का नैतिक अवमूल्यन, परदा प्रथा, बाल-विवाह आदि का व्यापक अस्तित्व था। निम्न जातियों पर उच्च वर्ग का घोर अत्याचार शिक्षा के अभाव में जादू-टोना, शकुन-अपशकुन, जीव हिंसा, मांस-भक्षण, वेश्यागमन, अंधविश्वास आदि के कारण समाज की जड़ें खोखली हो रही थीं। इसीलिए कबीर ने तटस्थ होकर सामाजिक तथा आर्थिक विषमताओं को निहारा था और अपने प्रबल व्यक्तित्व से इन्हें मिटाकर एकत्व की स्थापना का निश्चय किया था।
मध्यकालीन समाज-सुधारकों में कबीर पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने समाज के आर्थिक ढांचे को समझने का प्रयास किया। कबीर धन को समाज के लिए एक सीमा तक ही जरूरी मानते थे।क्रांतिकारी व्यक्तित्व के धनी कबीर के बारे में यह कहना पूर्णतः सही है कि उन्होंने तटस्थ होकर सामाजिक तथा आर्थिक विषमताओं को निहारा था और अपने प्रबल व्यक्तित्व से इन्हें मिटाकर एकत्व की स्थापना का निश्चय किया था। वास्तव में कबीरकालीन युग सामाजिक व धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक जटिलताओं का था। उस काल में धर्म, जाति, पूँजी आदि के आधार पर अनेक सम्प्रदाय थे, वे समस्त संप्रदाय एक-दूसरे के कट्टर विरोधी थे। कबीर का चिन्तन था कि व्यक्ति को सच्चा, ईमानदार तथा द्वेष रहित होना चाहिए। वे विचारों की पवित्रता व मन की शुद्धता को प्रधानता देते थे। उन्होंने मानवतावादी दृष्टिकोण को महत्त्व दिया।
वस्तुतः कबीर मानवतावादी विचारधारा के प्रति गहन आस्थावान्‌ थे। वह युग अमानवीयता का था, इसीलिए कबीर ने मानवता से परिपूर्ण भावनाओं, संवेदनाओं व चेतना का प्रसार करने का प्रयास किया। हकीकत तो यही है कि कबीर वर्ग-संघर्ष के विरोधी थे। वे समाज में व्याप्त शोषक-शोषित का भेद मिटाना चाहते थे। जाति प्रथा का विरोध करके वे मानव जाति को एक-दूसरे के समीप लाना चाहते थे।वास्तव में कबीर ने युग-युग से प्रताड़ित, पीड़ित समाज के निम्न वर्ग को अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा ऊपर उठाया तथा उनमें आत्मसम्मान जगाया। इसीलिए डॉ० ताराचंद का कथन था- कबीर के शिष्यों की संख्या उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितनी कि उनका प्रभाव। यथार्थ तो यह है कि विषम परिस्थितियों में कबीर के जन्म ने उन्हें हिन्दू-मुसलमानों की समान रूप से आलोचना करने में समर्थ बनाया था।डॉ० ताराचंद का कहना था- प्रेम के ऐसे धर्म का जो सभी धर्मों और जातियों को संगठित कर दें, का प्रचार करना ही कबीर के जीवन का लक्ष्य था। उन्होंने हिन्दुत्व एवं इस्लाम के उन तत्त्वों को जो कि आध्यात्मिक कल्याण के लिए नहीं थे, अस्वीकार कर दिया।
कबीर भावुक थे, इसीलिए उनसे समाज की दशा देखी नहीं गई। बाह्य आडम्बर, असत्य, अनाचार, व्यभिचार तथा वर्ण भेद के प्रति उनकी प्रतिक्रिया एवं क्रांति के समान थी। वे अहिंसक क्रांति की भावना द्वारा राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक सभी क्षेत्रों में एक क्रांति पैदा करना चाहते थे, उनके पास क्रांति का अस्त्र व्यंग्य था। इसीलिए डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार -हिन्दी में आज तक ऐसा जबरदस्त व्यंग्य लेखक पैदा ही नहीं हुआ। वस्तुतः कबीर ने तत्कालीन समाज में व्याप्त धर्म की अकर्मण्यता से समाज को हटाकर उसे सहज बनाकर जन साधारण के लिए ग्रास बनाया। सच्चे अर्थों में कबीर एक क्रांतिकारी समाज सुधारक व प्रखर विचारक थे।

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बीती बातें

VIJAY KUMAR SAPPATTI


दिल बीती बातें याद करता रहा
यादों का चिराग रातभर जलता रहा
नज़म का एक एक अल्फाज़ चुभता रहा
दिल बीती बातें याद करता रहा

जाने किसके इन्तेजार मे
शब्बा ऐ सफर कटता रहा
जो गीत तुमने छेड़े थे
रात भर मैं वह गुनगुनाता रहा
दिल बीती बातें याद करता रहा

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आने वाला.......!!

RAJEEV THEPRA


तकते-तकते राह आँख थक गई होगी....
रूह जिस्म से निकल ........
कर ......
कहीं और चली गई होगी.....
आने वाले के कदम.....
किसी और दिशा में......
मुड़ गए होंगे.....
रात भी थक कर....
सो गई होगी.....
सुबह किसी बच्चे-सी निकल,मचल गई होगी.....
आने वाला कुछ सोचता...
होगा....
सबा बहकती हुई-सी ......
कानों में कुछ कहती-सी होगी....
जिस्म से इक......
धुंआ-सा निकलता होगा....
सोच में कुछ......
.पिघलता...
.हुआ-सा होगा....
आने वाला आता ही होगा....
साँस भी थम-सी गई होगी...
आने वाला बस.....
अभी ही आने को है......
दिल की हर धड़कन...
सुबक कर रह गई होगी....
आने वाला..........
बस आया ही आया.....
मगर ...
.ऐ.....
दिल......
आने वाले को गर....
आना ही होता...
तो अब तक......
आ ही ना जाता...!!

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