आप सभी का स्वागत है. रचनाएं भेजें और पढ़ें.
उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Saturday, December 27, 2008

GAZAL

बशीर बद्र





मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती ने मिला,
अगर गले नहीं मिलता, तो हाथ भी न मिला

घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे,
बहुत तलाश किया, कोई आदमी न मिला

तमाम रिश्तों को मैं, घर में छोड़ आया था,
फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला

ख़ुदा की इतनी बड़ी कायनात1 में मैंने,
बस एक शख़्स को माँगा, मुझे वही न मिला

बहुत अजीब है यें कुर्बतों2 की दूरी भी,
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला
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1.ब्रह्माण्ड, संसार। 2.समीपताओं।

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तू जो मिल जाए

SEEMA GUPTA


कब से ढूढा है तुझे ,

गलियों में चोराहों पर,

तु जो मिल जाए तो ...

इस शहर को अपना कह दुं

जा रहा है ये रवां वक़्त

जनाजे जैसा.....

दो ज़रा वक़्त के फिर से

तुम्हें मिलना कह दुं,

मेरी जान याद तेरीआ के है तडपाती बहुत

तु जो मिलती है हकीकत है

"की सपना कह दुं "

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GAZAL

फ़िराक़ गोरखपुरी




किसको रोता है उम्रभर कोई,
आदमी जल्द भूल जाता है।

कुछ चौंक सी उठी हैं फ़ज़ा की उदासियाँ
इस दश्ते-बेकसी1 में सरे-शाम तुम कहाँ।

सोयी क़िस्मत जाग उठी है।
तुम बोले या जादू बोला।

एक मैं था और अब तो मैं भी कहाँ,
आ कि अब कोई दरमियान नहीं।

हम वहाँ हैं जहाँ अब अपने सिवा,
एक भी आदमी बहुत है मियाँ।

और ऐ दोस्त क्या कहूँ तुझसे,
थी मुझे भी इक आस टूट गयी।

इश्क़ के कुछ लम्हों की क़ीमत उजले-उजले आँसू हैं,
हुस्न से जो कुछ भी पाया था कौड़ी-कौड़ी अदा किया।

मैंने इस आवाज़ को पाला है मर-मर के ‘फ़िराक़’,
आज जिसकी नर्म लौ है शम्म-ए-महराबे-हयात।2

जिनकी तामीर3 इश्क़ करता है,
कौन रहता है उन मकानों में।

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1. मजबूर वातावरण 2. जीवन के मेहराब की दिया 3. निर्माण

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Friday, December 26, 2008

GAZAL

बशीर बद्र




वो
चाँदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है,
बहुत अज़ीज़ हमें है, मगर पराया है

उतर भी आओ कभी
आसमाँ के ज़ीनों से,
तुम्हें
खुदा ने हमारे लिए बनाया है

उसे किसी की
मोहब्बत का एतबार नहीं,
उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है

महक रही है ज़मीं चाँदनी के फूलों से,
ख़ुदा किसी की मोहब्बत पे मुस्कराया है

कहाँ से आयी ये ख़शुबू, ये घर की ख़ुशबू है,
इस अजनबी के अँधेरे में कौन आया है

तमाम उम्र मिरा दम उसी धुएँ में घुटा
वो इक चिराग़ था मैंने उसे बुझाया है

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Thursday, December 25, 2008

GAZAL

फ़िराक़ गोरखपुरी




ग़ज़ल है या कोई देवी खड़ी है लट छिटकाये,
ये किसने गेसू-ए-उर्दू1 को यूँ सँवारा है।

नयी मंजिल के मीरे-कारवाँ2 भी और होते हैं,
पुराने ख़िज्रे-रह3 बदले, वो तर्ज़े-रहबरी4 बदला।

क़लम का चंद जुम्बिशों5 से और मैंने क्या किया,
यही कि खुल गए हैं कुछ रमूज़-से हयात के6।

ये कहाँ से बज़्में- ख़याल7 में उमड़ आयीं चेहरों की नद्दियाँ,
कोई महचकाँ8, कोई ख़ुरफ़ेशाँ9 कोई ज़ोहरावश10, कोई शोलारू11।

तुम हो पसमाँदगाने-दौरे-‘फ़िराक़’12
बख़्श दो सब कहा-सुना मेरा।

आम मेयार13 से इसे परवा,
ख़ूब समझा ‘फ़िराक़’ को तूने।

हमसे क्या हो सका मुहब्बत में,
खैर तुमने तो बेवफ़ाई की।

अब दौरे-आस्माँ है न दौरे –हयात है,
ऐ दर्दे-हिज्र14तू ही बता कितनी रात है।

छिड़ते ही ग़ज़ल बढ़ते चले रात के साये,
आवाज़ मेरी गेसू-ए-शब15 खोल रही है।

—————————————
1. उर्दू की केश राशि को 2. कारवाँ का सरदार,3 पथ प्रदर्शक, 4 पथ प्रदर्शन की पद्धति, 5. हरकत 6. जीवन के रहस्य 7. विचारों की सभा, 8. चन्द्रमा का प्रकाश, 9. सूर्य का प्रकाश फैलानेवाला, 10 वृहस्पति ग्रह के समान (उज्जवल के भाव में प्रयुक्त (11. अग्नि के रंग जैसा चेहरा, 12. फ़िराक़ के युग के बाद बचने वाले, 13 स्तर, 14 वियोग की पीड़ा, 15 रात की ज़ुल्फ,

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GAZAL

फ़िराक़ गोरखपुरी



मेरी हर ग़ज़ल की ये आरज़ू, तुझे सज-सजा के निकालिए,
मेरी
फ़िक्र हो तेरा आइना, मेरे नग्में हों तेरे पैरहनन1।

जब से देखा है तुझे मुझसे है मेरी अनबन.
हुस्न का रंगे-सियासत, मुझे मालूम न था।

चलती है जब नसीमे-ख़याले-ख़रामें-नाज़2,
सुनता हूँ दामनों की तेरे सरसराहटें।

बस इक दामने-दिल3 गुलिस्ताँ-गुलिस्ताँ4,
गरीबाँ-गरीबाँ बयाबाँ-बयाबाँ6

इसको भी इक दिल का भरम जानिए,
हुस्न कहाँ,
इश्क़ कहाँ, हम कहाँ।

कोई सोचे तो
फ़र्क कितना है,
हुस्न और इश्क़ के फ़सानों में।

रात गए कैफ़ियते-हुस्ने-यार7
ख़्वाब8 से मिलती हुई बेदारियाँ9।

कहाँ से आ गयी दुनिया कहाँ, मगर देखो,
कहाँ-कहाँ से अभी कारवाँ गुज़रता है।

......................................................................
1. वस्त्र, 2. प्रिय के चाल के ख़याल रूपी हवा, 3. दिल रूपी दामन 4. बाग़-बाग़, 5. परदेस-परदेस, 6. जंगल-जंगल, 7 प्रिय के सौन्दर्य की स्थिति, 8. नींद, 9 जागरण

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Wednesday, December 24, 2008

GAZAL

फ़िराक़ गोरखपुरी



बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी ! हम दूर से पहचान लेते हैं

जिसे कहती है दुनिया कामयाबी वाए1 नादानी
उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इन्सान लेते हैं

तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं

खुद अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं

जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत2 का
इबारत देखकर जिस तरह मा’नी जान लेते हैं

तुझे घाटा न होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तिरा ऐ दोस्त हर नुक़सान लेते हैं

ज़माना वारदात-ए-क़ल्ब सुनने को तरसता है
इसी से तो सर-आँखों पर मिरा दीवान लेते हैं

1.हाय-हाय, 2.स्वभाव

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फिर उसी शाख़ पर

Seema Gupta


गीत कोई आज, यूँ ही गुनगुनाया जाए,
शब्दों को सुर-ताल से सजाया जाए
बेचैनियों को करके दफ़्न
दिल के किसी कोने में,
रागिनियों से मन को बहलाया जाए
ख़ामोशी के आग़ोश से
दामन को छुड़ा कर, ज़रा,
स्वर को अधरों से छलकाया जाए
शक्वों के मौसम को
करके रुख़सत दर से
मोहब्बत की चाँदनी में नहाया जाए
उजालों के आँचल में
सज कर सँवर कर
आईने में ख़ुद से ही शरमाया जाए
परदए-नाज़ो-अंदाज़
उनको दिखलाकर,
ख़िरामा ख़िरामा चल कर आया जाए
बर्क़ को न देकर के
ज़रा भी मोहलत,
फिर उसी शाख़ पर नशेमन बनाया जाए

(शक्वों = शिकायतों
ख़िरामा = आहिस्ता
बर्क़ = बिजली
नशेमन = घोंसला )

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Tuesday, December 23, 2008

GAZAL

बशीर बद्र


सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा
इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जायेगा

हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जायेगा

कितनी सच्चाई से मुझसे ज़िन्दगी ने कह दिया
तू नहीं मेरा तो कोई दूसरा हो जायेगा

मैं खुदा का नाम लेकर पी रहा हूँ दोस्तों
ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जायेगा

सब उसी के हैं हवा, ख़ुशबू, ज़मीन-ओ-आसमाँ
मैं जहाँ भी जाऊँगा, उसको पता हो जायेगा

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ज़रा-सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है

-वसीम बरेलवी




ज़रा-सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है

खुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते
कोई तो है, जो हवाओं के पार कतरता है

शराफ़तों की यहां कोई अहमियत1 ही नहीं
किसी का न बिगाड़ों, तो कौन डरता है

यह देखना है कि सहरा2 भी है, समन्दर भी
वह मेरी तश्नालबी3 किसके नाम करता है

तुम आ गये हो, तो कुछ चांदनी-सी बातें हों
ज़मीं पे चांद कहां रोज़-रोज़ उतरता है

ज़मीं की कैसी वकालत हो, फिर नहीं चलती
जब आसमां से कोई फ़ैसला उतरता है

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1. महत्ता2. मरुस्थल3. प्यास

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Monday, December 22, 2008

kavita

नरेश मेहता

किरणमयी ! तुम स्वर्ण-वेश में

स्वर्ण-देश में !!
सिंचित है केसर के जल से
इन्द्रलोक की सीमा
आने दो सैन्धव घोड़ों का
रथ कुछ हल्के-धीमा,
पूषा के नभ के मन्दिर में
वरुणदेव को नींद आ रही
आज अलकनन्दा
किरणों की वंशी का संगीत गा रही
अभी निशा का छन्द शेष है अलसाये नभ के प्रदेश में !!
विजन घाटियों में अब भी
तम सोया होगा फैला कर पर
तृषित कण्ठ ले मेघों के शिशु
उतरे आज विपाशा-तट पर
शुक्र-लोक के नीचे ही
मेरी धरती का गगन-लोक है
पृथिवी की सीता-बाँहों में
फसलों का संगीत लोक है
नभ-गंगा की छाँह, ओस का उत्सव रचती दूब देश में !!
नभ से उतरो कल्याणी किरनो !
गिरि, वन-उपवन में
कंचन से भर दो बाली-मुख
रस, ऋतु मानव-मन में
सदा तुम्हारा कंचन-रथ यह
ऋतुओं के संग आये
अनागता ! यह क्षितिज हमारा
भिनसारा नित गाये
रैन-डूँगरी उतर गये सप्तर्षी अपने वरुण-देश में !!

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Sunday, December 21, 2008

कलियों से




हरिवंशराय बच्चन


‘अहे, मैंने कलियों के साथ,

जब मेरा चंचल बचपन था,
महा निर्दयी मेरा मन था,
अत्याचार अनेक किए थे,
कलियों को दुख दीर्घ दिए थे,
तोड़ इन्हें बागों से लाता,
छेद-छेद कर हार बनाता !
क्रूर कार्य यह कैसे करता,
सोंच इन्हें हूँ आहें भरता।
कलियो, तुमसे क्षमा माँगते ये अपराधी हाथ।’
‘अहे, वह मेरे प्रति उपकार !
कुछ दिन में कुम्हला ही जाती,
गिरकर भूमि समाधि बनाती।
कौन जानता मेरा खिलना ?
कौन, नाज़ से डुलना-हिलना ?
कौन गोद में मुझको लेता ?
कौन प्रेम का परिचय देता ?
मुझे तोड़ की बड़ी भलाई,
काम किसी के तो कुछ आई,
बनी रही दे-चार घड़ी तो किसी गले का हार।’
‘अहे, वह क्षणिक प्रेम का जोश !
सरस-सुगंधित थी तू जब तक,
बनी स्नेह-भाजन थी तब तक।
जहाँ तनिक-सी तू मुरझाई,
फेंक दी गई, दूर हटाई।
इसी प्रेम से क्या तेरा हो जाता है परितोष ?’
‘बदलता पल-पल पर संसार
हृदय विश्व के साथ बदलता,
प्रेम कहाँ फिर लहे अटलता ?
इससे केवल यही सोचकर,
लेती हूँ सन्तोष हृदय भर—
मुझको भी था किया किसी ने कभी हृदय से प्यार !

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आयी हूँ अस्त होने...

-तसलीमा नसरीन



पूरब में तो जन्मी ही थी, पूरब में ही तो नाची थी, दिया था यौवन,
जो भी था उँड़ेलना, उँड़ेल दिया पूरब में !
अब, जब कुछ भी नहीं रहा, जब बाल हुए कच्चे-पक्के,
जब
आँखों में मोतियाबिन्द, धूसर-धूसर नज़र;
जब सब कुछ खाली-खूली, चहुँओर भाँय-भाँय-
आयी हूँ ढलने को पश्चिम में।

अस्त होने दो ! अस्त होने दो ! होने दो अस्त !
अगर न होने दो, तो करो स्पर्श,
हौले से स्पर्श करो, स्पर्श करो ज़रा-सा,
रोम-रोम में, छाती पर,
स्पर्श करो पोर-पोर, झाड़कर जंग, चूम लो त्वचा को,
कसकर दबोच लो कंठदेश, मार डालो मृत्यु की चाह को,
उछालकर फेंक दो, सतमंज़िले से ! मुझे सपने दो ! मुझे बचा लो !

पूरब की साड़ी का आँचल बाँध रखो पश्चिम की धोती की चुन्नट से,

रंग लाने चली हूँ, आकाश पार,
चलेगा कोई ? पश्चिम से पूरब तक
दक्षिण से उत्तर तक करते हुए सैर !
लो, मैं तो चली, उत्सव का रंग लाने,
और कोई चाहे, तो चले मेरे साथ !
अगर कोई मिलाना चाहे दोनों आकाश, तो चले,
अगर हो गया मेल, तो मैं नहीं होऊँगी अस्त !
हरगिज नहीं होऊँगी अस्त, उस अखण्ड आकाश में !
सारे चोर-काँटे चुनकर, मैं सजाऊँगी गुलाबों का बाग़,
अस्त नहीं होऊँगी मैं !
लहलहाएँगे खेत-फ़सल इस पार से उस पार ! दिगन्तपार !
तैरते-तैरते मैं एकमेक कर दूँगी, गंगा, पद्मा, ब्रह्मपुत्र !
अस्त नहीं होऊँगी।

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