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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Wednesday, December 24, 2008

GAZAL

फ़िराक़ गोरखपुरी



बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी ! हम दूर से पहचान लेते हैं

जिसे कहती है दुनिया कामयाबी वाए1 नादानी
उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इन्सान लेते हैं

तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं

खुद अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं

जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत2 का
इबारत देखकर जिस तरह मा’नी जान लेते हैं

तुझे घाटा न होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तिरा ऐ दोस्त हर नुक़सान लेते हैं

ज़माना वारदात-ए-क़ल्ब सुनने को तरसता है
इसी से तो सर-आँखों पर मिरा दीवान लेते हैं

1.हाय-हाय, 2.स्वभाव

2 comments:

ss December 24, 2008 at 8:41 PM  

ये सुकूत-ऐ-यास ये दिल की रगों का टूटना,
खामोशी में कुछ शिकस्त-ऐ-साज़ की बातें करो|

कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा,
कुछ फजा कुछ हसरत-ऐ-परवाज़ की बातें करो|

फिराक की याद दिलाने का शुक्रिया|

जाओ न तुम इन खुश्क आंखों पर हम रातों को रो ले हैं........

Prakash Badal December 25, 2008 at 3:10 AM  

बढिया ग़ज़ल किस किस शेर की तारीफ करूं।

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