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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Saturday, December 27, 2008

GAZAL

फ़िराक़ गोरखपुरी




किसको रोता है उम्रभर कोई,
आदमी जल्द भूल जाता है।

कुछ चौंक सी उठी हैं फ़ज़ा की उदासियाँ
इस दश्ते-बेकसी1 में सरे-शाम तुम कहाँ।

सोयी क़िस्मत जाग उठी है।
तुम बोले या जादू बोला।

एक मैं था और अब तो मैं भी कहाँ,
आ कि अब कोई दरमियान नहीं।

हम वहाँ हैं जहाँ अब अपने सिवा,
एक भी आदमी बहुत है मियाँ।

और ऐ दोस्त क्या कहूँ तुझसे,
थी मुझे भी इक आस टूट गयी।

इश्क़ के कुछ लम्हों की क़ीमत उजले-उजले आँसू हैं,
हुस्न से जो कुछ भी पाया था कौड़ी-कौड़ी अदा किया।

मैंने इस आवाज़ को पाला है मर-मर के ‘फ़िराक़’,
आज जिसकी नर्म लौ है शम्म-ए-महराबे-हयात।2

जिनकी तामीर3 इश्क़ करता है,
कौन रहता है उन मकानों में।

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1. मजबूर वातावरण 2. जीवन के मेहराब की दिया 3. निर्माण

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