ज़रा-सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
-वसीम बरेलवी
ज़रा-सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है
खुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते
कोई तो है, जो हवाओं के पार कतरता है
शराफ़तों की यहां कोई अहमियत1 ही नहीं
किसी का न बिगाड़ों, तो कौन डरता है
यह देखना है कि सहरा2 भी है, समन्दर भी
वह मेरी तश्नालबी3 किसके नाम करता है
तुम आ गये हो, तो कुछ चांदनी-सी बातें हों
ज़मीं पे चांद कहां रोज़-रोज़ उतरता है
ज़मीं की कैसी वकालत हो, फिर नहीं चलती
जब आसमां से कोई फ़ैसला उतरता है
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1. महत्ता2. मरुस्थल3. प्यास
3 comments:
अद्भुत गजल है...मेरी प्रिय गजलों में से एक. और वसीम साहब जब तरन्नुम में सुनाते हैं तो गजब लगता है.
ज़रा-सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है
रोचक गजल प्रस्तुति .धन्यवाद्
'वो मेरी तश्नालबी…'
बहुत ख़ूब!
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