आयी हूँ अस्त होने...
-तसलीमा नसरीन
पूरब में तो जन्मी ही थी, पूरब में ही तो नाची थी, दिया था यौवन,
जो भी था उँड़ेलना, उँड़ेल दिया पूरब में !
अब, जब कुछ भी नहीं रहा, जब बाल हुए कच्चे-पक्के,
जब आँखों में मोतियाबिन्द, धूसर-धूसर नज़र;
जब सब कुछ खाली-खूली, चहुँओर भाँय-भाँय-
आयी हूँ ढलने को पश्चिम में।
अस्त होने दो ! अस्त होने दो ! होने दो अस्त !
अगर न होने दो, तो करो स्पर्श,
हौले से स्पर्श करो, स्पर्श करो ज़रा-सा,
रोम-रोम में, छाती पर,
स्पर्श करो पोर-पोर, झाड़कर जंग, चूम लो त्वचा को,
कसकर दबोच लो कंठदेश, मार डालो मृत्यु की चाह को,
उछालकर फेंक दो, सतमंज़िले से ! मुझे सपने दो ! मुझे बचा लो !
पूरब की साड़ी का आँचल बाँध रखो पश्चिम की धोती की चुन्नट से,
रंग लाने चली हूँ, आकाश पार,
चलेगा कोई ? पश्चिम से पूरब तक
दक्षिण से उत्तर तक करते हुए सैर !
लो, मैं तो चली, उत्सव का रंग लाने,
और कोई चाहे, तो चले मेरे साथ !
अगर कोई मिलाना चाहे दोनों आकाश, तो चले,
अगर हो गया मेल, तो मैं नहीं होऊँगी अस्त !
हरगिज नहीं होऊँगी अस्त, उस अखण्ड आकाश में !
सारे चोर-काँटे चुनकर, मैं सजाऊँगी गुलाबों का बाग़,
अस्त नहीं होऊँगी मैं !
लहलहाएँगे खेत-फ़सल इस पार से उस पार ! दिगन्तपार !
तैरते-तैरते मैं एकमेक कर दूँगी, गंगा, पद्मा, ब्रह्मपुत्र !
अस्त नहीं होऊँगी।
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