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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Thursday, December 25, 2008

GAZAL

फ़िराक़ गोरखपुरी




ग़ज़ल है या कोई देवी खड़ी है लट छिटकाये,
ये किसने गेसू-ए-उर्दू1 को यूँ सँवारा है।

नयी मंजिल के मीरे-कारवाँ2 भी और होते हैं,
पुराने ख़िज्रे-रह3 बदले, वो तर्ज़े-रहबरी4 बदला।

क़लम का चंद जुम्बिशों5 से और मैंने क्या किया,
यही कि खुल गए हैं कुछ रमूज़-से हयात के6।

ये कहाँ से बज़्में- ख़याल7 में उमड़ आयीं चेहरों की नद्दियाँ,
कोई महचकाँ8, कोई ख़ुरफ़ेशाँ9 कोई ज़ोहरावश10, कोई शोलारू11।

तुम हो पसमाँदगाने-दौरे-‘फ़िराक़’12
बख़्श दो सब कहा-सुना मेरा।

आम मेयार13 से इसे परवा,
ख़ूब समझा ‘फ़िराक़’ को तूने।

हमसे क्या हो सका मुहब्बत में,
खैर तुमने तो बेवफ़ाई की।

अब दौरे-आस्माँ है न दौरे –हयात है,
ऐ दर्दे-हिज्र14तू ही बता कितनी रात है।

छिड़ते ही ग़ज़ल बढ़ते चले रात के साये,
आवाज़ मेरी गेसू-ए-शब15 खोल रही है।

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1. उर्दू की केश राशि को 2. कारवाँ का सरदार,3 पथ प्रदर्शक, 4 पथ प्रदर्शन की पद्धति, 5. हरकत 6. जीवन के रहस्य 7. विचारों की सभा, 8. चन्द्रमा का प्रकाश, 9. सूर्य का प्रकाश फैलानेवाला, 10 वृहस्पति ग्रह के समान (उज्जवल के भाव में प्रयुक्त (11. अग्नि के रंग जैसा चेहरा, 12. फ़िराक़ के युग के बाद बचने वाले, 13 स्तर, 14 वियोग की पीड़ा, 15 रात की ज़ुल्फ,

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