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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Saturday, November 22, 2008

साम्प्रदायिक सद्भाव के आदर्श सदगुरु कबीर साहब

डॉ० नजीर मुहम्मद
वर्तमान साम्प्रदायिक संकीर्णता के विषम वातावरण में संत-साहित्य की उपादेयता बहुत है। संतों में शिरोमणि कबीर दास भारतीय धर्म निरपेक्षता के आधार पुरुष हैं। संत कबीर एक सफल साधक प्रभावशाली उपदेशक, महान नेता और युग-दृष्टा थे। उनका समस्त काव्य विचारों की भव्यता और हृदय की तन्मयता तथा औदार्य से परिपूर्ण है। उन्होंने कविता के सहारे अपने विचारों को भारतीय धर्म निरपेक्षता के आधार को युग-युगान्तर के लिए अमरता प्रदान की। कबीर ने धर्म को मानव धर्म के रूप में देखा था। सत्य के समर्थक कबीर हृदय में विचार-सागर और वाणी में अभूतपूर्व शक्ति लेकर अवतरित हुए थे। उन्होंने लोक-कल्याण कामना से प्रेरित होकर स्वानुभूति के सहारे काव्य-रचना की। वे पाठशाला या मकतब की देहरी से दूर जीवन के विद्यालय में मसि कागद छुयो नहि की दशा में जीकर सत्य, ईश्वर विश्वास, प्रेम, अहिंसा, धर्म-निरपेक्षता और सहानुभूति का पाठ पढ़ाकर अनुभूति मूलक ज्ञान का प्रसार कर रहे थे। कबीर ने समाज में फैले हुए मिथ्याचारों और कुत्सित भावनाओं की धज्जियाँ उड़ा दीं। स्वकीय भोगी हुई वेदनाओं को आक्रोश से भरकर समाज में फैले हुए ढोंग और ढकोसलों, कुत्सित विचारधाराओं के प्रति दो टूक शब्दों में जो बातें कहीं उससे समाज की आँखें फटी की फटी रह गयीं और साधारण जनता उनकी वाणियों से चेतना प्राप्त कर उनकी अनुगामिनी बनने को बाध्य हो उठी।

देश की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान वैयक्तिक जीवन के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न संत कबीर ने किया। उन्होंने बाँह उठाकर बलपूर्वक कहा - कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ। जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ॥धार्मिक आडम्बरों और विषमताओं का उन्होंने खुलकर विरोध किया। बाह्याडम्बरों का त्याग तथा सदाचारी सत्य जीवन उनके पथ का सम्बल था वह धर्म निरपेक्षता के प्रबल समर्थक थे।आज से लगभग छः सौ साल पूर्व संत कबीर ने साम्प्रदायिकता की जिस समस्या की ओर ध्यान दिलाया था, वह आज भी प्रसुप्त ज्वालामुखी की भाँति भयंकर बनकर देश के वातावरण को विदग्ध करती रहती है।

देश का यह बड़ा दुर्भाग्य है कि यहाँ जाति, धर्म, भाषागत, ईर्ष्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना समय-असमय भयंकर ज्वालामुखी के रूप में भड़क उठती है। दस बीस हताहत होते हैं, लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। भय, त्रास और अशांति का प्रकोप होता है। विकास की गति अवरूद्ध हो जाती है।कबीर हिन्दू-मुसलमान में, जाति-जाति में शारीरिक दृष्टि से कोई भेद नहीं मानते। भेद केवल विचारों और भावों का है। इन विचारों और भावों के भेद को बल धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता से मिलता है। हृदय की चरमानुभूति की दशा में राम और रहीम में कोई अंतर नहीं। अन्तर केवल उन माध्यमों में है जिनके द्वारा वहाँ तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाता है। इसीलिए कबीर साहब ने उन माध्यमों-पूजा-नमाज, व्रत, रोजा आदि का विरोध किया। अल्लाह, भगवान, कृष्ण, करीम, खुदा, राम आदि जन-प्रचलित ईश्वर वाचक सब शब्दों का अपनी वाणियों में प्रयोग करके सबका ईश्वर एक है, यह दिखाने का प्रयत्न किया - कहै कबीर मैं हरि गुन गाऊँ, हिन्दू तुरक दोउ समझाऊँ।/हिन्दू तुरक का करता एकै, ता गति लखी न जाई॥समाज में एकरूपता तभी संभव है जबकि जाति, वर्ण, वर्ग, भेद न्यून से न्यून हो। संतों ने मंदिर-मस्जिद, जाति-पाँति के भेद में विश्वास नहीं रखा। सदाचार ही संतों के लिए महत्त्वपूर्ण है। कबीर ने समाज में व्याप्त बाह्याडम्बरों का कड़ा विरोध किया और समाज में एकता, समानता तथा धर्म निरपेक्षता की भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने धर्म के नाम पर होने वाले व्यर्थ के झगड़ों और हिन्दू-मुसलमानों की परस्पर विरोधी भावनाओं का खुलकर विरोध करते हुए कहा- हिन्दू कहे मोहि राम पियारा, तुरक कहै रहमाना।/आपस में दोउ लरि लरि मुए, मरम न काहू जाना॥

कबीर ने सामाजिक व्यवस्था को विकृत करने वाली रूढ़ियों, पाखण्ड, रीति-रिवाजों और मिथ्याचार के विरूद्ध जनता में विद्रोह की भावना उत्पन्न कर दी। संत कबीर ने हिन्दू तुरक का करता एकै और राम-रहीम सबनु में दीठा कहकर हिन्दू- मुसलमान के भेद को मिटाने तथा दोनों को समीप लाने का प्रयास किया। कबीर ने अनेक व्यावहारिक उदाहरण समाज के सम्मुख प्रस्तुत कर भजन-पूजन, नमाज, रोजा आदि साधनों की अनेकता और साध्य की एकता का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए धर्म निरपेक्षता को आधार प्रदान करते हुए कहा है - पूरब दिशा हरी को बासा, पश्चिम अल्लह मुकामा।/दिल में खोजि दिलहि मा खोजो, इहै करीमा रामा॥

कबीर विश्व-धर्म-मानवता के समर्थक थे। वे ज्ञान-भक्ति, वैराग्य, एकता तथा मानव धर्म के प्रेरक थे। अपने-अपने अहं में डूबे हुए एक-दूसरे के धर्मों को बुरा बताने वाले हिन्दू-मुसलमानों से उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा - अव्वल अलह नूर उपाया, कुदरत के सब बन्दे।/एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले को मन्दे॥संतों ने विविध धर्मों को ईश्वर तक पहुँचाने के विभिन्न मार्ग बताया-नारायण औ नगर के रज्जन पंथ अनेक/कोऊ आवै केहि दिसि आगे स्थल एक। सच्चा धार्मिक कभी सम्प्रदायवादी नहीं हो सकता। उसकी दृष्टि में तो विश्व विशम्भर का ही रूप है।

कबीर के काल में जितना भयंकर हिन्दू-मुसलमान का भेद था, उतना ही भयंकर ब्राह्मण और शूद्र का भी भेदभाव था। भारतवर्ष में वर्णव्यवस्था, जाति-प्रथा और ऊँच-नीच की भावना प्राचीनकाल से चली आ रही है। हिन्दू विचारों में उदार लेकिन व्यवहार में कट्टर रहे, वसुधैव कुटुम्बकम्‌ की दुहाई देकर भी आठ कनौजिया नौ चूल्हे बनाये रहने का व्यवहार रहा। ज्यों कला के पात में पात, पात में पात, त्यों हिन्दुन की जात में जात, जात में जात का प्रचलन रहा। यह देश की बड़ी विडम्बना है कि किसी जाति में जन्म लेने से कितने भी उच्च आचरण करने वाले व्यक्ति को केवल जन्म के कारण इतना नीच समझा जाये कि उनके छूने मात्र से छूत लगने और पापी बनने का भय हो। इस घातक प्रभाव को कबीर की आँखें बड़ी करूणा और क्षोभ से देख रही थीं। उन्होंने अहंकारी ब्राह्मण को फटकारा और हीनता की भावना से पराभूत शूद्र को झकझोर कर जगाते हुए कहा - काहे को कीजै पांडे छोत विचारा।/छोत ही से उपजा सब संसारा॥/हमारे कैसे लोहू तुम्हारे कैसे दूध।/तुम कैसे ब्राह्मण पांडे हम कैसे सूद॥

संत प्रवर सद्गुरु कबीर की विवेकधारा के समक्ष तात्कालिक सम्पूर्ण ज्ञान दंभी समाज निरूत्साहित सा जान पड़ता है। उन्होंने सबकी उत्पत्ति को समान बताते हुए उसमें ईश्वरीय सत्ता का आभास कराते हुए कहा है - एक बूँद एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा।/एक जोति थे सब जग उतपना, को ब्राह्मन को सूदा॥तथा उच्च स्वर से उद्घोषित किया - ऊँचे कुल का जनमियाँ, करनी ऊँच न होय।/सुवरन कलस सुरा भरा, साधू निन्दा सोय॥

पहले वर्ण व्यवस्था केवल कामों का बँटवारा थी। वर्ण को लेकर आपस में छूआछूत और ऊँच-नीच का भाव न था। जबसे वर्ण व्यवस्था उत्तरोत्तर कठोर होती गयी और मोटा काम करने के प्रति तथा कथित उच्च वर्ण वालों के मन में घृणा पनपती गयी। तब से मोटा काम करने वालों के प्रति अछूत होने की भावना बढ़ती गयी। मोटा काम करने वाले कर्मकारों के कर्मफलों का समाज ने भरपूर उपयोग किया, लाभ उठाया, पर इन मोटे कामों के करने वालों को अछूत समझा, हेय माना कपड़ा, ठाठ से पहनकर कपास पैदा करने वाले किसान, रूई धुनने वाले धुना, कपड़ा बुनने वाले कोली या जुलाहा, रंगने वाले रंगरेज, सीने वाले सूजी या दर्जी, धोने वाले, धोबी सभी तो निम्न जाति जन्मा है अछूत हैं। सब्जी उगाने वाले, फल-फूल उगाने वाले, तेल तैयार करने वाले, बर्तन बनाने वाले, सफाई करने वाले, चमड़े का काम करने वाले, मकान बनाने वाले सभी निम्न जन्मा अछूत हैं। कर्मकार जिनके परिश्रम से समाज सुखी है, उन्हीं को हमने घृणा की दृष्टि से देखा। संत कबीर ने इन त्रुटियों को परखकर कर्मकारों की पक्षधरता की। कबीर ने कर्मकार ज्ञानियों की विशाल वाहिनी का सूत्रापात किया। जिनमें सदन कसाई, धना जाट, नानक खत्री, दादू धुनियाँ, रैदास, चरनदास, पीपा, सेन, गुलाल साहब आदि निर्गुणियाँ संतों की धारा ही चल पड़ी।

इन निर्गुणियाँ संतों ने अपने हाथों से अपना काम करके जीविकोपार्जन को ही श्रेष्ठ समझा। मन से वैरागी होते हुए भी उन्होंने किसी मठ-मंदिर का सहारा लेकर जीवन यापन नहीं किया। वे समाज के कांधों पर बोझा कभी नहीं बने। कपड़ा बुनने, मजदूरी करने और जूते गाँठने में भी उन्होंने बुरा नहीं माना। ईमानदारी के साथ किसी भी कार्य को करना ही उन्होंने श्रेष्ठ बताया। कबीर साहब ने कहा - कोई धंधा कीजै। चौखो काज करीजै॥कर्मों के प्रति निष्ठा एवं सामंजस्य बिठाकर कबीर ने सम्पूर्ण मानव जाति के प्रति आदर और प्रेम-भाव के साथ ही व्यक्ति, समाज एवं देश में धर्म निरपेक्षता की स्रोतास्विनी प्रवाहित की। हम सभी मानव हैं और मूलतः एक हैं। मानव की केवल एक ही जाति है और परिश्रम ही उन्नति का पथ है। प्रेम ही महान धर्म है यह महामंत्र सदगुरु कबीर साहब ने समाज में फूँका। उन्होंने तत्कालीन उपेक्षित समाज, शोषित दलित जनमानस के दुःख को अपने काव्य का आलम्बन बनाया। उन्होंने प्रगतिशीलता परिवर्तन, परिवर्द्धन, विकास रिनेसाँ ही उपस्थित कर दिया। समाज में जाति-पांति की पूँछताछ अधिक होने के कारण ही उन्होंने झुँझलाकर कहा - जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ग्यान।/मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान॥

संत कबीर के इस प्रयत्न से दो स्वतः संभव लाभ हुए। एक-अभिजात वर्ग का अहंकार दमित हुआ, दूसरे पतित समाज में सांस्कृतिक चेतना और क्रांति उपस्थित हुई। जिससे धार्मिक एकता का सूत्रपात हुआ। कबीर साहब ने धार्मिक और सामाजिक वैमनस्य के उस संक्रामक युग में दृढ़ता के साथ मनुष्य-मनुष्य के बीच समानता की घोषणा करके एकता और भ्रातृत्व भावना का प्रसार किया।कबीर कभी किसी धर्म विशेष से बँधकर नहीं रहे। वे प्रेम का ढाई आखर पढ़ाकर मानव को मानव के सन्निकट लाना चाहते हैं। सच्चे मानव धर्म का प्रसार करना चाहते हैं।

भारत जैसे कृषि प्रधान देश में आय का मुख्य साधन कृषि ही रहा है। यहाँ की आर्थिक विषमता का एक मुख्य कारण भूमि का असमान वितरण भी रहा है। जागीरदार और बड़े किसानों के पास अधिक भूमि रही और छोटे किसान तथा मजदूर भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों पर ही गुजारा करने को मजबूर रहे। बड़े किसान छोटे किसानों को हड़पने में मत्स्य न्याय चलाते रहे। भूमि वितरण की इस असमान पद्धति और उससे उत्पन्न समस्याओं की ओर आज के कुछ सच्चे समाज सेवकों का ध्यान गया। सौभाग्य से वे भी संत ही थे-संत बिनोवा भावे। इस दुर्दशा की ओर आज से लगभग छः सौ साल पहले संत कबीर का ध्यान गया। उन्होंने सशक्त शब्दों में कहा कि भूमि का वितरण व्यक्तियों की संख्या और आवश्यकता के आधार पर होना चाहिए - जेते जिब तेजी भुइ दीजै।

इस प्रकार समस्त अभावों के मध्य जीवन व्यतीत करने वाले कबीर ने कार्ल मार्क्स से लगभग चार सौ साल पहले भारतवर्ष में समानता और समाजवाद के भावों की बुनियाद डालने का स्तुल्य प्रयत्न किया। जहाँ सभी धर्मावलम्बियों के पास समान साधन तथा भूमि होती तो धर्म निरपेक्षता और एकता की भावना को पर्याप्त बल मिलता। कबीर का समाजवाद वसुधैव कुटुम्बकम्‌ की भावना से ओत-प्रोत था। जिसमें ईश्वर में आस्था, शांति, सत्य, धर्म निरपेक्षता और सरलता का रसामृत भरा हुआ था। उनके द्वारा बताये गये कुछ आदर्श आज भारत में ही नहीं अपितु विश्व में भी अपनाये जा रहे है। कबीर साहब ने व्यावहारिक योग साधना पर बल दिया। आज योगा विश्व प्रसिद्ध हो गया है।

इस प्रकार संत कबीर दास के द्वारा स्थापित किये गये एकता, समता धर्म निरपेक्षता के आधार पर देश के भव्य भवन का निर्माण कार्य अब होने लगा है। डॉक्टर अम्बेडकर ने छूत-अछूत के भेद-भाव को मिटाकर सबको समान स्थान दिलाने का प्रयत्न किया था। हम देखते हैं कि देश में छूत-अछूत की भावना का ह्रास हुआ है। समाज में अब स्पृश्य-अस्पृश्य की भावना उतनी नहीं रहीं। संत विनोवा भावे ने भूमिहीन कृषकों को भू-वितरण कराने के लिए भू-दान यज्ञ चलाया था। उनका यह मिशन अधूरा ही रहा। महात्मा गाँधी ने धर्म निरपेक्षता और हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए जीवन उत्सर्ग कर दिया। लेकिन यह एकता कायम न हो सकी। बड़े दुख के साथ कहना पड़ता है कि यह फूट देश को बर्बाद कर रही है। बुद्धिजीवियों का परम कर्तव्य है कि एकता, समानता, धर्म निरपेक्षता और भ्रातृत्व भावना का समाज में अधिकाधिक प्रचार-प्रसार करें। मौलाना रूमी ने फरमाया था - तू बराये बस्ल करदन आमदी।/ने बराये फस्द करदन आमदी॥ऐ इन्सान! तू संसार में प्रेम मुहब्बत का प्रसार करने के लिए आया है। झगड़ा और फसाद फैलाने के लिए नहीं।

धर्म निरपेक्षता के प्रतीक नजीर अकबराबादी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने के लिए कहा है कि - झगड़ा न करें मिल्लतो मजहब का कोई याँ।/जिस राह में जो आन पड़े खुश रहे वो वाँ॥/जुन्नार गले या कि बगल बीच हो कुरआँ।/आशिक तो कलन्दर है न हिन्दू न मुसल्माँ॥आज मानवीय मूल्य एवं विश्व मान्यताएँ परवर्तित हो रही हैं। देश से देश की दूरियाँ कम होती जा रही हैं। और विश्व के सभी मानव एक दूसरे के अति समीप आते जा रहे हैं। आज दिल से दिल की दूरियाँ समाप्त कर मानव-धर्म अपनाने और समस्त विश्व को एक परिवार के रूप में लाने की आवश्यकता है - मेरे विचार से शांति, समन्वय, सामंजस्य का, एक सुखी संसार बने।/मानव सब सदस्य हों इसके, विश्व एक परिवार बनें॥

कबीर साहब महान हैं। उनकी विचारधारा महान है। महानता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचकर कबीर साहब ईर्ष्या, द्वेष, निजत्व, परत्व, छूत-अछूत, ऊँच-नीच की संकीर्ण भावनाओं से दूर होकर भारतीय धर्म निरपेक्षता के प्रतीक बनकर उच्चादर्श तक पहुँच जाते हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव के स्वरूप बन जाते हैं - सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया।/सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्‌॥इसलिए वे शांत भाव से कहते हैं - कबिरा खड़ा बाजार में, सबकी माँगे खैर। ना काहू सों दोसती, ना काहू से बैर॥




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Friday, November 21, 2008

कबीर-एकल संस्कृति की अमर प्रस्तावना

डॉ० भवदेव पाण्डेय
कबीर की छाती पर जब रामानन्द का अकस्मात पाँव पड़ा तब उन्हें लगा कि उनको एक अद्भुत गुरु मिल गया है। एक ऐसा गुरु जो बहुजन समाजोन्मुख एकल संस्कृति का प्रवक्ता था, जो सार्वभौम और एकात्मक दर्शन का व्याख्याता था और जो अतीतवादी अभिजात परम्परा के विरुद्ध समतावादी समाज का दार्शनिक था। कबीर के लिए इस गुरु का पांव मध्यकालीन समाज का आईना साबित हुआ। उन्होंने पहले स्तर पर गुरुत्व के विराट आईने में अपने को देखा। आईने का रुख समाज की ओर मोड़ा। तमाम बिम्बों-प्रतिबिम्बों के साथ तदयुगीन समाज का समूचा चेहरा उभरकर सामने आया। उनकी विवेक की आँखें खुली और देखा कि अनेक धार्मिक सम्प्रदायों के छद्म गुरु भिन्न-भिन्न पंथों में लोगों को दीक्षित करके आदमी-आदमी में नफरत पैदा कर रहे थे, काल सत्य की खुली अवमानना हो रही थी। कुछ थोड़े से राजशाहों और सामंतों की गिरफ्त में इतिहास छटपटा रहा था। वर्णवाद और वर्गवाद की कारा में कैद समाज गतिशीलता के लिए आतुर तो था, परन्तु मुक्ति का कोई रास्ता नहीं दिखलाई पड़ रहा था क्योंकि हिन्दू और तुरुक धर्मों की बेड़ियों से उनके पाँव बंधे हुए थे और यह सब कुछ शहंशाहों और सामन्तवादियों के इशारे पर चल रहा था। ये ही परिदृश्य थे जिनमें कबीर ने अपनी रचनात्मक भूमिका का निर्धारण किया।

भूमिका के वरीयता क्रम में कबीर ने अपने समय के ठहरे हुए इतिहास को गतिशील बनाने का बीड़ा उठाया। उस समय गुरुतावाद, कर्मकांडवाद और अभिजातीय वर्ग द्वारा आम जनता को शोषित करने की बाढ़ आई थी। सृजन क्षेत्रा में भी खोटे सिक्केबाजों के बाजार गर्म थे। दुकानों पर बहुवादी मुखौटाधारियों का आधिपत्य था। सबसे बड़ी दुकान छद्म गुरुओं द्वारा संचालित की जा रही थी। इसलिए कबीर ने सदगुरु और असदगुरु की परख करने के लिए कुछ निकष तैयार किए। दोनों के चित्र बनाए। इन्हें गुरुदेव के अंग पर अलग-अलग इस प्रकार चस्पा कर दिया कि उन पर लोगों की दृष्टि पड़े और उनमें परख करने की स्वयं चेतना विकसित हो। अगर गौर किया जाये तो यह कबीर का क्रांतिकारी कबीरत्व था। उन्होंने उपदेश देने और शिष्य मूड़ने की प्रवृत्ति के बर-अक्स लोगों में आत्म चेतना जगाने और परीक्षण करने की मौलिक क्षमता विकसित करने को अधिक संगत समझा। कहै कबीर दीवाना का यही मर्म था। इसी मर्म के चलते उन्होंने पारदर्शी शैली अपनाई और कहा कहै कबीर चेतहु रे भौंदू, बोलनहारा तुरक न हिन्दू। वे भोंदू-समाज को बदल कर उत्तरदायी समाज बनाना चाह रहे थे। उत्तरदायी समाज में ही एकल-संस्कृति की कल्पना की जा सकती थी। एकल-संस्कृति के लिए सदगुरु की पहचान करना जरूरी था।

असदगुरु से बचना भी जरूरी था। कबीर ने गुरु-प्रत्यभिज्ञा के लिए विस्तृत वार्तिक लिखें। कालजयी अर्थ-ज्ञान के लिए निर्ष्णात वार्तिक लिखना कबीर के ही बूते की बात थी। मिसाल के तौर पर उन्होंने लिखा -चेतनि चौकी बैसि करि सतगुरु दीन्हाँ धीर।/निरभै होई निसंक भजि केवल कहै कबीर।यहाँ अस्पष्ट नहीं रह जाता कि मध्ययुगीन इतिहास की अदालत का फैसला केवल कबीर सुना सकते थे। उन्होंने सदगुरु के लिए कुछ नियामक तत्त्व निर्धारित किये यानी जो व्यक्ति शंकाहीन तथा निर्भीक हो, चेतना की चौकी पर बैठा हो, वही सदगुरु होने का अधिकार हो सकता था, ऐसा ही गुरु दीपक दीया तेल भरि बाती दई अघट्ट की जिम्मेदारी सँभाल सकता था। उन्होंने सद्गुरु के कृतित्व का परिचय देते हुए लिखा -कबीर गुरु गरवा मिल्या रलि गया आटैं लूण।/जाति पाँति कुल सब मिटै, नांव धरौवो कूण॥

देखा जा सकता है कि कबीर ने दूध और पानी की तरह मिलकर एक होने के परम्परागत कथन से भिन्न रले गए आटा और नमक की तरह एक होने का दर्शन पेश किया। यह उनका नया अप्रस्तुत था। उन्होंने इस अप्रस्तुत द्वारा सांस्कृतिक सौन्दर्यशास्त्र की नयी अवधारणा अंकुरित की। यह कबीर के रसत्व-विवर्धन की सौंदर्य-चेतना थी। वे भली भाँति जानते थे कि दूध और पानी के मिलने के बाद दूध का भाव घटता है परन्तु आटा और नमक के मिलने से भाव चढ़ता है। आस्वाद में भी अंतर पड़ता है । दूध और पानी मिलकर आस्वाद का विघटन करते हैं, जबकि आटा और नमक मिलकर आस्वाद का विवर्धन। मिले हुए दूध और पानी में अलगाव की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। सूरदास ने लिखा है-हम जातहि वह उघरि परैगी दूध दूध पानी सो पानी। इसके विपरीत रलने की कला में कुशल गुरु द्वारा मिलाए हुए आटा और नमक को अलग नहीं किया जा सकता। साखी'में रलि शब्द का प्रयोग भी अनूठा है। रलन (ललन) सौन्दर्य शास्त्रीय शब्द है। कबीर द्वारा प्रस्तुत रलि शब्द का प्रयोग परवर्ती कवियों द्वारा आमोद के अर्थ में किया जाने लगा। कबीर के समकालीन सूरदास ने ही लिखा-चली पीठ दै दृष्टि फिरावत अंग आनन्द रली।

यानी जिस प्रकार किसी सुन्दर नारी के अंग और लावण्य में अद्वैत सौन्दर्य सम्बन्ध होते हैं, उसी प्रकार कबीर के आँटा-लूण के सौन्दर्य शास्त्रीय सम्बन्ध थे। कबीर की यह मौलिक एकलता थी जिसकी कल्पना सूर, तुलसी और जायसी ने नहीं की थी।कबीर के समय में सामासिक संस्कृति' जैसा समस्वित पद व्यवहार में नहीं था। अगर होता भी तो कबीर अपने समय के इतिहास के लिए नाकाफी समझते क्योंकि सामासिक संस्कृति में एकपदीयता के अद्वैत की संभावना नहीं की जा सकती थी। इसमें पूर्वपद और उत्तरपद के अस्तित्व बने रहते हैं। कबीर पूर्व और उत्तर दोनों को मिलाकर एकाकार करना चाहते थे। यह उपलब्धि एकल संस्कृति द्वारा ही संभव थी। इसलिए उन्होंने लिखा -वेद पुरान कुरान कितेवा नाना भाँति बखानी/हिन्दू तुरक जैन अरु जोगी एकल काहु न जानी।

स्पष्ट है कि वे धर्म, संस्कृति, राजनीति, समाज और उपासना के हर स्तर पर नानात्व का विखंडन करके एकलता की स्थापना करना चाहते थे। उनका रचना कर्म नानात्व को एकल बनाने का संघर्ष था। उनकी सृजन-यात्रा का अंतिम पड़ाव था, एकल-भाव की चरम उपलब्धि। अपने राह भटकते समाज को उन्होंने बार-बार समझाया- एक बूँद एकै मलमूतर एक चाम एक गुदा।/ एक जोति तै सब उपजा कौन ब्राहमन कौन सूदा।/.../एकै पवन एक ही पानी एक जोति संसारा/एक ही खाक घडे सब भाँडा एक हील सिरजन हारा।/.../इनमें आप आप सबहिन में आप आप सुखेलै/नाना भाँति गढे+ सब भाँडे रूप धरै हरि मेलै।''गौर करने पर अज्ञात नहीं रहेगा कि कबीर काल-विवेक के समुच्चय थे। उनके समुच्चय के केवल एक अंश ने ही उनकी कविता का रूप धारण किया था न कि सम्पूर्ण ने । संपूर्ण तो उनका व्यावहारिक जीवन था जो इतिहास के अज्ञात फैलाओं में ही कहीं तूर्यमान हो रहा था। परन्तु इतना सत्य है कि उनकी समुच्चयता का जितना भाग काव्य-रूप में परिणत हुआ वह मध्य काल के सभी रचनाकारों के सम्पूर्ण के बराबर था। इस रहस्य को उन्होंने बड़ी सांकेतिक शैली में व्यक्त किया था-हेरत हेरत हे सखी रहा कबीर हेराय/बूँद समानी समुद्र में सो कत हेरी जाय।

देखा जाय तो मध्यकाल के अभिजातीय इतिहास की पोथियों ने कबीर को हेरने की कोई प्रक्रिया नहीं शुरू की। यहॅां प्रश्न यह उठता है कि कबीर ने अपने को जितना हेरा जाने दिया उसको हम किन माध्यमों उपादानों और उपकरणों द्वारा ढूढें आज कबीर के व्याख्याताओं के सामने सबसे दुरूह प्रश्न यही है। अब तो केवल उन संकेत माध्यमों से ही संतोष करना पड़ेगा जो कबीर की रचनाओं में इधर-उधर बिखरे हैं।कबीर की समुद्र में बूँद के मिल कर एक हो जाने की ऐतिहासिक संवेदना का पाठ अध्यात्म और दर्शन के परिपे्रक्ष्य में ही नहीं किया जाना चाहिए बल्कि उनके जैसे रचनाकार द्वारा समुद्रवत विस्तृत समाज को आत्मसात्‌ कर लेने के समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में भी किया जाना चाहिए। आज यह जानना बहुत जरूरी हो गया है कि वे अपने समय का कितना हिस्सा ढूँढ़ पाए और कितने को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उसी में खप-पच गए। इतिहास अन्वेषियों के समक्ष यह एक बड़ा सवाल खड़ा होता है जिस पर गहराई के साथ विमर्श शुरू किया जा सकता है। यदि किन्हीं स्रोतों द्वारा कबीर द्वारा अनन्वेषित रह गए कालांश पर प्रकाश डाला जा सके तो एक नये कबीर की तस्वीर तैयार की जा सकती है ।

ऐसा लगता है कि नये कबीर के मीमांसकों के सामने महत्त्वपूर्ण समस्या उपस्थित हो सकती है। (कबीर) द्वारा प्रयुक्त ÷राम' पद को ठीक-ठीक समझने की राम कबीर के अध्यात्म दर्शन, साधना, उपासना और काल चेतना सब कुछ हो सकते हैं। बार-बार राम पद का प्रयोग करते हुए उन्होंने तमाम ऐसे संकेत दिए हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उन्होंने राम का प्रयोग अपने समय के प्रतीक रूप में किया था। जब वे पूछते हैं कि राम बड़ा कि रामहिं जानै तब ऐसा लगता है कि वे रामज्ञ ( समय के ज्ञाता) को राम (समय) से बड़ा प्रमाणित करना चाहते थे क्योंकि उनका समय (इतिहास) एक नये समय में बदल रहा था। वे समयज्ञ को ही कालजयी मानते थे। कबीर का सारा सृजन-संघर्ष राम को जान कर राम से बड़ा हो जाने के लिए था। मध्यकालीन राम-भक्ति शाखा में राम से बड़ा होने की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। तुलसीदास ने रामचरितमानस के प्रारंभ में लिख दिया था -बन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामरव्यमीशं हरिम।' राम भक्ति शाखा में राम सगुण और निर्गुण दोनों दशाओं में नेति थे सारद सेस महेश विधि आगम निगम पुरान नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरन्तर गान। राम भक्ति वादियों में राम बड़ा अथवा राम को जानने वाला बड़ा का द्वन्द्व नहीं था।परन्तु कबीर का सम्पूर्ण रचना-द्वन्द्व इस रहस्य को जान लेने का था। इसलिए कबीर को लिखना पड़ा - झगरा एक निबेरो राम। वेद बड़ा कि जहाँ थे आया?

तुलसीदास की तरह कबीर राम को अपरिवर्तनशील चेतना नहीं मानते थे। वे गतिशील समय में राम के परिवर्तित होते चलने के विचार को ही संगत और प्रासंगिक समझते थे। इसी संदर्भ में उन्होंने लिखा - काबा फिर कासी भया राम भया रहीम।/मोट चून मैदा भया बैठि कबीरा जीम।यह राम का निर्गुण आस्वाद था, न ही सगुण बल्कि राम का रहीम में बदल कर मोटे अनाज के मैदा हो जाने की तरह था। कोई भी राम भक्त कबीर के इस रूपक से सहमत नहीं हो सकता। वह यह बर्दाश्त तक नहीं कर सकता कि राम मोटे अनाज की तरह थे जो काल की चक्की में पिस कर रहीम (मैदा) हो गए थे। यही कबीर की एकल संस्कृति थी यानी मैदा-संस्कृति जिसमें पूर्व पद राम और उत्तर पद रहीम दोनों मिलकर एक हो गए थे। आधार और आधेय की चरम एक रूपता ही कबीर की एकल संस्कृति थी। आज कबीर के परिवर्तनशील राम को तद्युगीन इतिहास की चेतना के निकष पर ही परखा जा सकता है। कबीर के काव्य में राम के इस रूप को अभी नहीं समझा गया है। कबीर के राम को काल-पर्याय के रूप में अन्वेषित करने के बाद ही नये कबीर की प्रतिमा खड़ी की जा सकती है। इसी क्रम में हेरत-हेरत हे सखी कबीरा गया हेराय की प्रासंगिकता भी समझी जा सकती है।

अनन्त काल के रामत्व को ढूंढ़ने का लक्ष्य लेकर वे रचना और साधना के क्षेत्र में उतरे थे। काफी कुछ कृत मनोरथ हुए थे। अन्वेषण-प्रक्रिया के दरम्यान खो जाने की नियति केवल उनकी ही नहीं थी। बहुत लोग तो उतना ही नहीं तलाश कर सके जितना उन्होंने किया था। अन्तर इतना था कि उन्होंने खो जाने का सत्य स्वीकार कर लिया था, जबकि दूसरे लोग इसे छिपा ले जाते हैं। जड़तावादी तथा परिवर्तन विरोधी वर्ग द्वारा काल-सत्य की उपेक्षा करना कबीर के लिए असह्‌य था। जड़ परम्परावाद की पूँछ पकड़कर सार्थक समाज की वकालत करने वालों पर उनका व्यंग्य-बाण निरन्तर चलता रहता था। वे भारतीय समाज को समुद्र की तरह विस्तृत देख रहे थे क्योंकि यहाँ अनेक धर्म, अनेक पंथ, अनेक भाषाएँ और अनेक सांस्कृतिक प्रथाएँ अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचलित थीं, परन्तु कबीर इन अनेकताओं में एकता का ही बोध बाँट रहे थे यानी समुद्र एक परन्तु लहरें अनेक के दर्शन का बोध। रहन-सहन, रीति-रिवाज, खान-पान और पहनावा-ओढ़ावा ऊपरी अनिवार्यताएँ थीं परन्तु सबकी अन्तरात्मा एक थी। वे इसी अन्तरात्मा की खोज कर रहे थे। इस अभेद की तलाश का लक्ष्य लेकर उन्होंने लिखा - व्यापक ब्रह्म सबनि में एकै को पंडित को जोगी/राणा रंक कवन सु कहिए कवन वैद को रोगी।/इनमें आप आप सबहिन में आप आप सु खेलै/नाना भाँति गढ़े सब भाँडे रूप धरै हरि मेलै।

कबीर के इस कथन को उनके अद्वैत ब्रह्मवाद तक सीमित नहीं किया जा सकता। यह उनका सामाजिक दर्शन भी था। दर्शन और संस्कृति दोनों धरातलों पर वे विवर्त्तवादी बोध के मध्ययुगीन साधु थे। तत्त्वज्ञान का उद्घोष करने से वे कभी नहीं थके। उन्होंने लिखा - कबीर इस संसार को समझाऊँ कै बार,/पूँछ जो पकड़ै भेद की उतर्‌या चाहे पार।कबीर के लिए समुद्र की तरह फैले भारतीय समाज और संस्कृति का संतरण केवल अभेद भाव द्वारा संभव था। हालांकि वे भाववादी नहीं थे, परन्तु उन्होंने अभाववादी ज्ञान को मान्यता कभी नहीं दी। चारों वेद के ज्ञानवाद में उरझि पुरझि कर मरने वालों को वे साहस पूर्वक धिक्कारते थे। उनके अनुसार जिहि घटि प्रीति न प्रेम रहा उसे वे समाज का निरर्थक अस्तित्त्व मानते थे। इसीलिए कबीर के समय में बिरले लोग ऐसे थे जो उनके दोस्त बन सके। वे अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति करते हुए कहा करते थे, भाई रे बिरले दोसत कबीरा के हालांकि वे भलीभाँति जानते थे कि उनके दोस्तों की संख्या क्यों कम थी, परन्तु उन्होंने क्यों से समझौता बिल्कुल नहीं किया। समाज को सही रास्ते पर लाने के लिए उन्हें जो जब सही सूझा, उसका प्रयोग किया। उन्होंने छद्म सिद्धान्तों की गाँठ कभी नहीं बाँधी। वे विविध होकर भी विधेय के एकत्व की खोज कर रहे थे।

सिद्धान्तवादियों को इस प्रकार का कबीरत्व चुभता था। यही कारण था कि वे उनसे दूर करना चाहते थे। सिद्धान्तवादी वेद और दर्शन द्वारा निरूपित सत्य को परम मानते थे। कबीर का सत्य काल-सापेक्ष सत्य था। काल-सापेक्ष सत्य की पक्षधरता के कारण ही उन्हें योगी और जंगम दोनों असत्य प्रतीत हुए - कहै कबीर जोगी और जंगम ए सब झूठी आसा।कबीर के सृजन का प्रत्येक क्षण लुआठी की तरह सुलगता रहता था। सुलगते रहना उनके रचनात्मक तनाव का ही प्रतीक था। वे अपने सृजन की लुआठी लेकर बीच बाजार में खड़े हो गए और पुकार-पुकार कर कहने लगे - कबिरा खड़ा बाजार में लिये लुआठी हाथ,/जो घर जारै आपनो चले हमारे साथ।

कबीर द्वारा लगाई गई यह शर्त तद्युगीन समाज के लिए काफी कठोर थी। उस समय का पूरा समाज छद्म घरों और घरानों के भारी भ्रम में जी रहा था। अभिजातों के अपने घर थे जो उपयोग के केन्द्र बने हुए उपभोक्ता वर्ग की वकालत में लगे थे, धर्मावलंबियों के अपने घर थे जो लोगों में पंथगत भेद पैदा कर अंधतावाद फैलाने की भूमिका रच रहे थे, मायावादियों के भी निजी घर थे जिनमें सगुण-निगुर्ण के झगड़े मचे थे, पैगंबरवादियों के घरों में हिंसा और तांत्रिकों के घरों में नग्न मैथुनवाद का बोलबाला था। कबीर की सृजन-यात्रा इंसानपरस्ती की अभियान यात्रा थी। इस अभियान-यात्रा में उन्हें मत-मतान्तर वादियों की जरूरत नहीं थी। ये ही कारण थे कि उन्होंने जो घर जारै आपनो चले हमारे साथ' जैसी कठिन शर्त लगाई थी। उन्होंने सदगुरु के आइने में देखकर अनुभव किया था - कबीर भेष अतीत का कर तूति करै अपराध/बाहर दीसे साध गति माँहै महा असाध।कबीर को अतीतवादी वेश-भूषा के प्रचारक घरों की क्षुद्र सीमाएँ अज्ञात थीं। उन्हें बाहरी आडम्बरों से चिढ़ थी और अपराधियों से घृणा थी। ऐसे लोगों को सामाजिक मान्यता देकर एकल-संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती थी। इसलिए वे बीच बाजार में खड़े होकर मोहासक्त घरों को जला देने का ऐलान करने लगे।

यहाँ यह कहना कि कबीर का बाजार मायालीन असार संसार का रूपक था, उनकी रचनात्मक यात्रा को नजर-अंदाज करना होगा। सही तो यह कहना होगा कि उनका बाजार दलित, शोषित और अभिजातीय वर्ग द्वारा उपेक्षित जनों की अभिव्यक्ति -भूमि था। उपेक्षितों की अभिव्यक्ति-भूमि पर खड़े होकर और हाथ की लुआठी फहराकर कबीर ने उपभोक्तावादियों को खुली चेतावनी दी कि एक दिन दलित वर्ग के लोग रूई लपेटी आगि की तरह प्रज्ज्वलित होकर शोषकों की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को खाक कर देंगे। उन्होंने छद्म कुलीनतावादियों को चेतावनी दी थी ऊजल कपड़ा पहिर कर पान सुपरी खाहिं' का वर्ग जल्दी ही विनष्ट होने वाला था। उन्होंने साफ-साफ कहा - मीयां तुम सौ बोल्यां बणि नहीं आवै।/हम मसकीन खुदाई बंदे तुम्हारा जस मन भावै।/अलह अवलि दीन का साहिब जोर नहीं फुरमाया।/मुरसिद पीर तुम्हारै है को कहौ कहाँ थे आय।

कबीर ने अपने आक्रामक सवालों द्वारा उन लोगों को गहरी चोट पहुँचाई थी जो धर्म का विपणन कर रहे थे अथवा जो राजा राणा छत्रपति बने हुए अपने ऊँचे महलों के मद में ग़ाफिल थे। एक तरफ कबीर के इन सवालों ने सामन्तों और मनसबदारों को आहत किया था तो दूसरी तरफ दासों, निर्धनों और शोषितों में आत्मनिष्ठा जगाई थी, उनको अपना वजूद पहचानने की शक्ति दी थी और अवरोधों को तोड़कर आगे बढ़ने का हौसला बुलन्द किया था।

इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कबीर आत्म प्रक्षेपण के संत कवि थे। तमाम असंतों के दबाओ के बावजूद उन्होंने अपनी संतई नहीं छोड़ी थी। उनकी संतई में विनम्रता तो थी परन्तु आत्म समर्पण नहीं था। रचना की लुआठी लेकर बाजार के बीचो बीच खड़े कबीर का झुकना कैसा! वे अपनी बनारसी अक्खड़ता को दोनों हाथों लुटा रहे थे। उन्होंने जिन दलितों-शोषितों को कबीर बना दिया था, उनको हिम्मत दिलाते हुए कहा - कबीर तू काहे डरै, सिर परि हरि का हाथ।/हस्ती चढ़ि नहीं डोलिए कूकर मुकैं लाख।यह कम आश्चर्य की बात नहीं थी कि अकेले कबीर ने अपने समय के दलित-वर्ग को स्वाभिमान के हाथी पर बैठाने की जिम्मेदारी महसूस की थी। ये ही हथिचढ़े कबीर के साधो, संतों और अवधू बने जिन्हें समझाते हुए उन्होंने कहा, संतो सो अनभै पद गहिए। शैली अपनाई द्विअर्थी। यह उनकी आवश्यक विवशता थी। पहला अर्थ अध्यात्मवादियों के लिए था जो दूसरा समाज के निम्न और मध्यवर्ग के लिए। २०वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक कबीर के दूसरे अर्थ को पर्दे के पीछे डाल देने की साजिश चलती रही, परन्तु ज्वलंत कब तक चुप बैठता।

आज कबीर के सृजन का दूसरा अर्थ लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा है।मध्यकाल में कबीर को परम्परावादी अभिजातीय वर्ग के अनेक प्रहार झेलने पड़े थे। हालांकि वे झेलने के कवच थे परन्तु जब तब चोट लग ही जाती थी, दर्द भी होता था। ऐसे ही किसी दर्द की अभिव्यक्ति करने के लिए उन्हें लिखना पड़ा था - अभिअंतरि मन रंग समाना लोग कहै कबीर बौराना,/रंग न चीन्है मूरख लोई जिहि रंग रंग रह्‌या सब कोई॥आखिर कौन लोग थे जो कबीर को पागल साबित करना चाहते थे? उत्तर अस्पष्ट नहीं है। कबीर को पागल कहने वालों में हिन्दू भी थे मुसलमान भी, वैष्णव भी, गोरखपंथी भी तथा ब्रह्मवादी भी यानी समय को मुट्ठियों में बंद कर अपनी-अपनी दुकान चलाने वाले सभी धर्मों-सम्प्रदायों के लोग थे। कबीर ने इन सभी को झेला और जो सत्य समझा उसे दबंगई के साथ कहा। कबीर बौराना कहने वालों को उलटकर उत्तर भी दिया, रंग न चीन्हें मूरख लोई यानी कबीर को विक्षिप्त कहने वाले वे लोग थे जो समय के रंग की परख करने में असमर्थ थे और अपनी मूर्खता को ही काल-सत्य मान रहे थे। कबीर को इसी मूर्ख समूह से लोहा लेना पड़ा था। उन्होंने देखा कि तदयुगीन मूर्खों का समूह नानात्ववादी था। उन्हें मनुष्य मात्र में विद्यमान एकत्व का अन्तः सूत्र नहीं दिखलाई पड़ रहा था।

वास्तव में तदयुगीन समाज का यह अनर्थकारी दृष्टि-रोग था। इसकी शल्यचिकित्सा जरूरी थी। इस दृष्टि-रोग के चलते लोग अन्धे होते जा रहे थे। उन्होंने देखा कि अंधै अंधा ठेलिया दून्यूं कूप पड़न्त की महामारी फैली हुई थी। आपरेशन जरूरी था। इसके लिए उन्होंने तमाम औजारों का परीक्षण किया। उन्हें जो सबसे अधिक कारगर औजार दिखलाई पड़ा, वह था राम। यह उनका सहज चिकित्सा उपकरण था। अपनी पहचान पर उन्हें खुद आश्चर्य हुआ। उन्होंने लिखा, सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं लोग। परन्तु उन्होंने चीन्ह लिया। इसी उपकरण को लेकर उन्होंने तमाम अन्धों को आँखें दीं। देखने और पहचानने का अभ्यास कराया, समझाया - कबीर औगुंण ना गहै, गुण ही कौं ले बीति।/घट घट महु के मधुप ज्यूँ पर आतम ले चीन्हि।
उन्होंने उन्हें भी दृष्टि दान किया जो उन्हें पागल कह रहे थे। यदि वे बीनने और चीन्हने में समर्थ हुए तो उन्हें भी अपने अवधू वर्ग में सम्मिलित कर लिया। उनसे स्पष्ट रूप से कहा - सीतलता तब जाणियें समिता रहै समाइ/पष छाडै निरपष रहै, सबद न दूष्या जाय।कबीर ने दृष्टि यानी विचारों में व्याप्त जलन दूर करने के उपचार सुझाये उनका उपचार था प्रत्येक मनुष्य को समता की नजर से देखना हठवादी पक्षधरता का परित्याग करना और समता की भावना रखते हुए निष्पक्ष बने रहने का सामाजिक जीवन जीना। उन्हें लगा कि भारतीय समाज शब्दों के प्रदूषण से आक्रान्त था। सामन्तों और कुलीनतावादियों द्वारा दलितों और दासों के प्रति शब्द-न्याय तक नहीं किया जा रहा था। पादस्थ वर्ग के लिए अपमान जनक भाषा का प्रयोग किया जा रहा था। तथाकथित पंडितों की भाषा कूप-जल की तरह प्रवाहहीन हो गई थी। इसलिए कबीर ने सांस्कृतिक समत्त्व की स्थापना के लिए नया सबद-धर्म चलाने का संकल्प किया। कुशब्द और सुशब्द की संहिताएँ लिखीं। भाषाई परिष्कार की जंग छेड़ी। कुशब्दों की चोट से घायल वर्ग की ओर से गवाहियाँ देते हुए भाषा के एक पक्षीय न्यायालय को ललकारा। जैसे - अणी सुहेली सेल की पंडता लेइ उसास।/चोट सहारै सबद की तास गुरु मैं दास।
मध्यकालीन इतिहास लेखकों ने शब्दों के अनुशासनहीन वर्गवाद पर ज्यादा प्रकाश नहीं डाला है। उस काल के प्रायः सभी रचनाकारों ने भाषा की उच्छृंखलता की ओर संकेत किया था। तुलसीदास तक ने लिखा-बूँद अघात सहैं गिरि कैसे, खल के वचन संत सह जैसे। यह भाषाई समतावाद की लड़ाई थी जिसके कमांडर कबीर थे।अगर आज कबीर के सम्पूर्ण रचना दर्शन की ब्योरेवार व्याख्या की जाये तो हमें एक ऐसा कबीर मिलेगा जो आगे आने वाले हजार वर्षों के समाज को जीवन जीने के नये साधन प्रस्तुत करेगा। उन्होंने महत्त्व प्रधान सामाजिक दर्शन और सार्वभौम एकल-संस्कृति के बीज बोकर रचना का एक ऐसा उद्यान तैयार किया जिसमें फल तो विभिन्न रंग के खिले परन्तु सब में प्रभाव का अभिन्नत्व था।

इसी संदर्भ में उन्होंने लिखा था, रंग न चीन्हें मूरख लोई जिहि रंग रंग रह्‌या सब कोई। भक्ति, उपासना, हठयोग-दर्शन, अद्वैत, निर्गुण, सगुण, माया, जीव, जगत, धर्म, कर्म, ज्ञान, विज्ञान, गुरु, शिष्य, निन्दा, स्तुति, उलटबासी, रहस्य-कथन और अपने समय के यथार्थ का उद्घाटन आदि उनके आनुषंगिक प्रसंग थे। इन सभी प्रसंगों में उनकी आधारिक चेतना थी एकल-संस्कृति। उन्होंने अपने समय को आधार बनाकर जिस अन्तः बोध का अन्वेषण किया था, उसके केन्द्र में सम्पूर्ण आदमी की तलाश थी। इसलिए संसार में जब तक आदमी का अस्तित्व रहेगा तब तक कबीर की रचना भी जीवित रहेगी। स्पष्ट है न आदमी मरेगा न ही कबीर का काव्य मरेगा।

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Thursday, November 20, 2008

दलित-विमर्श, दलित-उत्कर्ष और दलित-संघर्ष

प्रो० शुकदेव सिंह
भाग्यफल, नियति, पुनर्जन्म, वर्ण एवं जाति, धर्म, धम्म और पंथ के जटिल संकुल पर प्रश्नवाचक लगाते हुए 'सभी मनुष्य, मनुष्य ही हैं', यह तर्क उचित हुआ। नया तर्क इस शताब्दी के दूसरे प्रहर अर्थात्‌ सन्‌ १९४५-१९४६ के बाद सुगबुगाता है। उसके पहले प्रश्न, जिज्ञासा या आलोचना के रूप में दलित-विमर्श की तलाश अणुव्रत इत्यादि लोकायतों, आजीवकों, सिद्धों, नाथों और संतों के आन्दोलन में की जा सकती है। इस अन्वेषण का कोई विशेष अर्थ नहीं है। दया, करुणा, प्रेम और न्याय के कारण निरन्तर इस तरह के विचार उदित होते हैं। वे अलंकारी होते हैं। भाषा की शोभा होते हैं। इसलिए ब्याध, रैक्व, वाल्मीकि, व्यास, शबरी से लेकर संत कबीर, रैदास, घासीदास, सतनामी तक दलित चेतना की जो पंक्ति बनती है, वह वाग्योग है। विद्या के संसार में अन्वेषणों और गवेषणाओं से, दलित चेतना का पक्ष ऐतिहासिक गरिमा प्राप्त करता है। उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। अगर ऐसा होता तो अणुव्रत इत्यादि लोकायत आजीवक गोशाल, अजित केशकम्बली, कात्यायन, कश्यप, संयज और निगण्ठ-पुत्त ने संसार के भारतीय हिस्से को बदल दिया होता। घृणा के आधार पर गठित समाज-तंत्र ध्वस्त हो गया होता। इन सारे प्रश्नों से हमारे अतीत का मंथन होता है। केवल यह पता चलता है कि जिस तरह आज हम जागृत हैं उसी तरह कभी पहले भी थे। आज के दलित जागरण से उसे जोड़ना बंद कर देना होगा। इतिहास और संस्कृति के मसले बड़े जटिल होते हैं। हर बर्तन में छेद किया जा सकता है और खोजा भी जा सकता है। इसलिए भारत के वर्तमान दलित जागरण के दो मुख-मुखौटों से बात शुरू होनी चाहिए।
१.महात्मा गांधी का दया विह्नल हरिजन आन्दोलन।
२.डॉ० अम्बेडकर का युयुत्सु शब्द-विविधता के सारे कौशल से सम्पन्न विद्यापटु आह्नान।महात्मा गांधी दलित-कर्म के साहस तक उतरकर यह बताना चाहते हैं कि छोटा-बड़ा कोई नहीं। अगर ओछे कसाब चमड़ा उतारना, चमड़ा राँधना, रंगना, मल साफ करना नीच कर्म है तो सबको इसे कर्तव्य मान लेना चाहिए। कर्म के साथ जुड़े हुए ऊँच-नीच को, उस कर्म को अपना कर्म मान लेने से घृणा खत्म हो जायेगी। मैला उठाओ, मुर्दा फूँको, सबके साथ उठो, बैठो, खाओ भी तो जन-समस्या हल हो जायेगी। गांधी जी के सद्भाव में कोई कमी नहीं है लेकिन उनका सद्भाव बड़ा ही सज्जन, गाँव की भाषा में कपड़े का अश्लील रूप है। डॉ० अम्बेडकर शास्त्र और मिथकों के उस बल को निर्बल करना चाहते थे, जो छोटे-बड़े की धारणा को पारम्परिक शक्ति देते हैं। डॉ० अम्बेडकर के पास एक ओर इतनी विद्या है कि वे अपने ढंग से शास्त्रा और मिथकों की डि कोडिंग कर लेते हैं। मनोनुकूल अर्थ और प्रतिवादी गवेषणा के द्वारा वे शिक्षित दुनिया को चुप करते हैं और अशिक्षितों को संगठित भी करते हैं। सुन्दर रूप और वेष के साथ वे दुनिया में अकेले चिंतक हैं, जो असुन्दर, कुरूप और मलिन के बीच अपने आदमी के रूप में खड़े हैं। वे अवतार और ईश्वर या देवता के रूप में नहीं खड़े होते। वे नायक या 'नेता' के रूप में खड़े होते हैं। वे दलित कहे जाने वाले जिस जाति-समूह के प्रवक्ता और प्रतिनिधि हैं, उस समाज की इतनी भी परवाह नहीं करते कि सारी घृणा का केन्द्र प्रबल ब्राह्मण जाति का एक सदस्य उनके घर में क्यों हैं? वे ब्राह्मणी के पति हैं। उनमें एक ऐसी निष्ठा है जिसके कारण कोई यह विचार नहीं कर सकता था कि उनके कपड़े कैसे हैं? चिथड़ा पहनने वाले भूखे, नंगे लोगों में वे कैसे इतने लोकप्रिय हो सकते हैं। वास्तव में वे जनाधार की चिंता ही नहीं करते। वे जानते थे कि गरीब, दलित, गाँव से बाहर एक निजी बस्ती में रहने वाला समाज उन्हें अपना मानेगा ही। इसलिए उनकी सारी ताकत शास्त्रों को खोलने, भारतीय नेताओं से मुठभेड़ की स्थिति बनाये रखने और अंग्रेज सत्ता का अघोषित समर्थन प्राप्त करने में लगी रहती थी। उनके पास धर्म-परिवर्तन करा लेने वाला एक प्रभावशाली ध्वज भी था। उस समय के अनेक नेताओं को यह डर था कि यदि डॉ० अम्बेडकर चाहेंगे तो बड़ी संख्या में दलित जातियों के लोग दूसरे धर्म इस्लाम या क्रिश्चियन पट्टी में चले जायेंगे। हिन्दू बहुलता खण्डित हो जायेगी। इसीलिए डॉ० अम्बेडकर को ऊपर से राष्ट्रीय और भीतर से कांग्रेसी या लीगी नेताओं पर अपनी पकड़ बनानी पड़ी और उन्हें, उन्होंने राजनीतिक कला और विद्वता के साथ भयभीत बनाकर रखा। वे युगपुरुष थे। महान विभूति थे। उस समय के स्वतंत्रता आन्दोलन की कई महत्त्वपूर्ण चाभियाँ उनके पास थीं। वे खास तरह की सामंती अकड़ के आदमी थे। अंग्रेजी पढ़े-लिखे गुजरात, महाराष्ट्र दक्षिण भारत और बंगाल के नेता भारतीय विश्वसनीयता के लिए अपने कपड़े और रहन-सहन को भी बदल रहे थे। कुर्ता-टोपी, चप्पल, खान-पान सबकी एक यूनीफार्म बनती जा रही थी। डॉ० अम्बेडकर ने नेता वेश नहीं बनाया। डॉ० अम्बेडकर का यह भी महत्त्व है कि उन्होंने 'विक्टोरियन-गार्व' और 'खान पान' तथा रहन-सहन में कोई परिवर्तन नहीं किया। उनका पाखण्ड में विश्वास नहीं था। यही कारण है कि भारतीय राजनीति में जनता के आदमी के रूप में तेजस्वी और प्रतिभाशील नेता बाबू जगजीवन राम का उदय हुआ, जिन्होंने तथाकथित दलित संसार को वे सारी सुविधाएँ दिलाईं, जिनके लिए डॉ० अम्बेडकर सपना देखते थे। शायद भीतर-भीतर बाबू जगजीवन राम को धोती, कुर्ता, टोपी के साथ गाँधी जी के अधिक विश्वसनीय दलित नेता के रूप में सामने लाया गया। वैसे बाबू जी निन्यानबे प्रतिशत निजी प्रतिभा, त्याग और वाग्मिता के कारण ही आरक्षण को सुरक्षित कर पाये। वे राष्ट्रीय नेता थे। दलित समाज के साथ सम्पूर्ण भारतीयता पर उनके अनेक ऋण हैं। हरित क्रान्ति, बांग्ला देश विजय के साथ ही उनकी प्रतिभा ने देश को बहुत कुछ दिया है। अब यह कहने से कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि डॉ० अम्बेडकर की राजनीति की तुलना में बाबू जगजीवन राम को भारतीयजन नेताओं का अधिक समर्थन प्राप्त था। जिस तरह वैदिक काल से लेकर संत कबीर, रैदास और घासीदास के समय तक का सम्पूर्ण आन्दोलन दलित अस्मिता का इतिहास है और सुन्दर प्रतिपक्षी धारणा का गौरव है। उसी तरह आधुनिक दलित-विमर्श की दृष्टि से डॉ० अम्बेडकर और बाबू जगजीवन राम का स्मरण सुन्दर पुण्य-स्मृति है। इतिहास में डॉ० अम्बेडकर और बाबू जगजीवन राम की स्मृति अलंकारी हो चुकी है।आधुनिक दलित-विमर्श तीसरे तरह का जागरण है। आत्मकथाएँ, उपन्यास, कविता और जनान्दोलन के द्वारा यह बात सामने लायी गई कि इस देश में मनुष्य, मनुष्य को किस सीमा तक हीन समझता है। यह एक वैचारिक आन्दोलन है। इसमें पुरानी परम्पराओं का उल्लेख, संतों का स्मरण या डॉ० अम्बेडकर का पूजन केवल माध्यम हैं। इसमें आजादी के बाद तक के दलित चिंतन का आधुनिक विमर्श से सीधा वास्ता नहीं है। यह दलित-विमर्श मुख्य रूप से उन पढ़े-लिखे लोगों का कमाया हुआ सच है, जिन्हें डॉ० अम्बेडकर और बाबू जगजीवन राम के कारण आरक्षण मिला, शिक्षा तथा नौकरी मिली और बराबरी वाले समाज में बराबर उठने, बैठने की महिमा मिली। मैं जहाँ तक जानता हूं बाबू जगजीवन राम ने शिक्षा से अधिक प्रतिष्ठा के पदों पर आरक्षित लोगों को बिठाने का आरक्षण तय किया। बड़े सरकारी पद, विधान सभा से लेकर राज्य सभा तक प्रवेश का कोटा, राज्यपाल का पद, विदेशी शिक्षा आदि सब कुछ बाबू जगजीवन राम ने ही सोचा था। रविदास, दलित साहित्य अकादमी और आक्रामक दलित-विमर्श जैसे सारे मुहावरे बाबू जगजीवन राम की भाषा के अर्थोत्तर उपाय हैं। इन उपायों का एक बिन्दु बाबू जगजीवन राम की उपेक्षा और डॉ० अम्बेडकर के पूजन से भी सम्बद्ध है। मैं रैदास सम्बन्धी चेतना से भी पच्चीस साल से सम्बन्धित हूँ और 'अम्बेडकर एवार्डी' के रूप में डॉ० अम्बेडकर से जुड़े वाद, सिद्धान्त का दर्शन की गम्भीरता से भी हल्का, फुलका वास्ता रखता हूँ। इसलिए दलित-विमर्श खास तरह से हिन्दी भाषा में दलित-विमर्श के विषय में कुछ बातें कहना चाहता हूँ।
(क) हिन्दी का दलित-विमर्श, मराठी दलित विमर्श की प्रेरणा का ऋणी है।
(ख) हिन्दी दलित-विमर्श का साहित्य और चिंतन शिक्षित आरक्षण भोगी प्रायः सुविधा सम्पन्न दलित समाज का ही है।(ग) हिन्दी जनपद में व्यापक रूप से प्राप्त रामावतारी रामधारी संस्कृति और दलित लोक-ऊर्जा का खड़ी बोली के दलित-विमर्श से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है।
(घ) दलित विमर्श के समर्थक सवर्ण और शिक्षित अधिकांश कम्युनिस्ट हैं जिनके लिए दलित-विमर्श अपनी पार्टी को मजबूत करने का एक सहारा या बैसाखी है। दुर्भाग्य यह है कि अधिकांश दलित-प्रज्ञा के दलित लेखकों को यह पता नहीं है।
(ड़) दलित-विमर्श में मनुवाद, शूद्र धारणा, प्रत्याख्यान की भाषा, यह सारा कर्म समुच्चय उन लोगों के अज्ञान से सम्बन्धित हैं जो नहीं जानते कि मनु का शूद्र, कबीर का शूद्र, रैदास का शूद्र, तुलसीदास का वर्णाधम एक ही और अनवरत नहीं है। मनु से लेकर तुलसीदास तक शूद्र की धारणा में निरन्तर परिवर्तन हुआ है। चतुर्थ वर्ण की अनेक जातियाँ चौथे नम्बर से दूसरे-तीसरे नम्बर तक पहुंच गयी हैं।
(च) अंग्रेजों ने खास तरह से ब्रिग्स और सरकारी तंत्र ने अछूत, शूद्र, जरायम-पेशा, आदिवासी और घुमन्तू जातियों की जो सूची तैयार की है, उस सूची में बहुत फेरबदल की आवश्यकता है। इनमें कई जातियाँ इस्लाम से बचने के लिए ही घुमन्तू, भगोड़ा या जरायम-पेशा बनीं, लेकिन वे अब कुछ अंशों में धर्म से मुसलमान हो चुकी हैं। अब दलित-विमर्श की सूची में सी. (चमार) और नानसी (नान चमार) दुसाध-महार, दो खेमें बन चुके हैं। बाकी दलित जातियाँ न ठीक से गिनी गई हैं और न उन्हें दलित-विमर्श के भीतर पहचानने का प्रयत्न हुआ है।
(छ) जी०डब्ल्यू० ब्रिग्स ने १९०६ ई० में 'दि चमार्स' नामक किताब में बहुत गहन अध्ययन किया। अनजाने उन्होंने संकेत किया कि चमार, दुसाध अनेक दलित जातियों के अपने नायक हैं।मरे हुए जानवर का माँस खाने, प्रकारान्तर में गोमाँस सेवन के कारण ईसाई मिशनरी के लोगों ने एक चमार उपजाति को ईसाई समझ लिया। अगर सर्वेक्षण किया जाय तो पता चलेगा कि इसी उपजाति के लोग अधिक से अधिक संख्या में ईसाई बनें। सूअर पाल कर मुसलमानों से तो बच गये, लेकिन ईसाई बनना उनकी नियति हो गयी।
(ज) मनुवाद और डॉ० अम्बेडकर से जुड़े हुए श्रद्धा आंदोलनों में एक सशक्त दलित चेतना सामने आई है। इसी चेतना की एक इकाई धर्म-परिवर्तन के नाम पर बौद्ध शिविरों में प्रवेश कर गई है। जब हिन्दू रहते हुए आरक्षण की सभी सुविधाएं प्राप्त हैं तो 'नव बौद्ध' होने का मतलब क्या है? इसके पीछे कौन सी ताकतें हैं? प्रसिद्ध लेखक मोहनदास नैमिशराय के साथ सारनाथ जाकर मैंने नेपाल, श्रीलंका और तिब्बत के बौद्ध युवकों से 'नव बौद्धों' के बारे में पूछा - लड़के-लड़कियों ने बड़ी दबी आवाज में यह कहा कि 'बौद्ध' हमारे देश के समाज में सबसे ऊँचा है, जैसे यहाँ के समाज में ब्राह्मण को माना जाता था। हमें आश्चर्य है कि यहाँ 'नव बौद्ध' के नाम पर वे लोग आते हैं जो पूरे भारतीय समाज में सबसे नीचे होते थे। यहाँ दलित और पिछड़ा समाज के लोग ही ज्यादा 'नव बौद्ध' होते हैं। हमें उनके साथ उठने-बैठने में दिक्कत होती है। मेरा ख्याल है कि इस सच्चाई से 'नव बौद्ध' आंदोलन परिचित है। फिर भी 'नव बौद्ध' एक ऐसा छत्र है जिसके नीचे कई जातियाँ एकत्र हो खड़ी हो सकती हैं। खटिक, आखेटक, सोनकर को व्याध की, चमार, कोरी अनेक जातियों को रैदास या घासीदास की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। दुसाध को गोगापीर की आवश्यकता नहीं होगी। इसी तरह अन्य को अपने पूर्व-पुरुषों की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। तब शबरी, माण्डव ऋषि, रैक्व बाद में सुहेलदेव, झलकारी बाई की अलग से जाति-नायक के रूप में आवश्यकता नहीं होगी। 'बुद्ध' से काम चल जायेगा।दलित-विमर्श के ये छोटे से प्रश्नवाचक हैं। दलित-चेतना के भीतर अघोषित रूप से कई दरारें पड़ी हुई हैं। दलित-चेतना के राजनीतिकरण और हस्तिआसन मिलने के बाद अनेक सवर्ण भी इसमें उतर रहे हैं। ऐसी स्थिति में दलित-विमर्श का जो संगठित, उग्र एवं प्रभावशाली रूप है, वह रामनामी ओढ़कर माला जपता हुआ दिखाई पड़ सकता है।जाहिर है कि जब दलित बहुजन के बहुरंगीपन को एकाकार करना था तो कृष्ण-भक्ति के छत्र का प्रयोग किया गया था। आज बहुरंगीपन पर 'नव बौद्ध' का छत्र तान दिया गया है। मैं मानता हूँ कि कृष्ण छाते के नीचे केवल कुछ मठों, क्षेत्रों, आश्रमों में जाति-संकीर्णता एवं मनुष्य घृणा कम हुई थी। यह व्यापक नहीं थीं। भगवदभक्त छत्र भर थी। मैं पुराण को स्मरण करते हुए कालिक एवं सामयिक मानूँ तो इस पर विचार करना चाहिए और बहस होनी चाहिए। प्रश्न उठना चाहिए कि क्या नव बौद्ध हिन्दू हैं? या नहीं हैं? क्या दलित हैं? क्या सचमुच आपस में एक या अद्वितीय हैं?दलित-विमर्श की लिखित और वाचिक परम्पराओं का बड़ी तेजी से विकास हो रहा है। इसी तरह स्त्री-विमर्श भी समकालीन होने की पहचान बन चुका है। हिन्दी में स्त्री-विमर्श की बात पहले मैंने ही उठायी थी और प्रसिद्ध लेखक मृदुला गर्ग ने लेखन को स्त्री-पुरुष में बाँटने का विरोध किया था। उनके 'मस्जिद मोठ' वाले घर में अपनी छात्रा राक्सन के साथ हम तीनों ने गंभीर बातचीत की। बाद में एक प्रचार-प्रवीण उड़नशील पत्रिका में मृदुला जी ने स्त्री-विमर्श को महत्त्व दिया। उस बातचीत का स्मरण भी किया फिर प्रभा खेतान सहित सैकड़ों लेखिकाओं ने विमर्श के ताल में अपनी कागज की नैया बहायी। झिझिरी खेली। स्त्री-विमर्श रोग-हंसध्वनि में गूँजने लगा। 'दलित-विमर्श' के सन्दर्भ में भी एक बड़े दलित नेता ने मुझसे आपत्ति करते हुए कहा था कि फिर वही हर गाँव की बस्ती में एक दलित बस्ती, छूत-अछूत को अलग करने वाली डीह, ददनी वाली प्रेत-रेखा? हम तो सार्वजनिक बस्ती में प्रवेश कर रहे हैं। आप फिर नई चमटोल बनाना चाह रहे हैं। मैं चुप हुआ। अब तो चीखने पर भी कोई सुनने वाला नहीं है। नक्कारखाने में 'तिलक कामोद' का तराना छिड़ चुका है और बाबा तिलकधारी यादव दलित-विमर्श की बैसाखी पर बड़ी तेजी से चल रहे हैं। सोचना होगा कि 'दलित विमर्श' साहित्यिक आन्दोलन है, कला-चेतना है, धर्म है या धम्म है। क्या है? इस पक्ष की पहली टिप्पणी है कि प्रेमचन्द दलित विरोधी हैं। उन्होंने 'सद्गति', 'कफन' अपनी कई कहानियों में दलितों को विनोद, उपहास और मजाक का विषय बनाया है। क्या दलित इतना नीच हो सकता है कि घर में लड़की चीख-चिल्ला रही हो, मर रही हो और उसके पति और श्वसुर, पिता और पुत्र, घीसू और माधव एक साथ पकते हुए आलू के लिए ललचा रहे हों, घर में लड़की मर रही हो, एक साथ दायें-बायें पावों की तरह चलते हुए 'कफन' के लिए माल इकट्ठा कर रहे हों, घर में मुर्दा पड़ा हो, उसे छोड़कर एक साथ कफन खरीदने जा रहे हों? कफन न खरीद कर एक साथ शराब पी रहे हों, पूड़ी, मिठाई खा रहे हों, नाच रहे हों, निर्गुण गा रहे हों। क्रूरता की किसी भी सीमा पर अपने देश में पत्नी और पुत्रवधू के मुर्दे के साथ ऐसी नागवार क्रूरता असम्भव है। प्रेमचन्द की यह कहानी कसाई-झूठ है। इसमें क्रूर उपहास और सवर्ण मानसिकता का धतूरा-पुष्प हैं जिसमें रूप के बावजूद बदबू आती है। 'सद्गति' में पण्डित वर्षा में जिस तरह मुर्दे को घसीट रहा है उस तरह घसीटने वाले को गाँव के आदमी पत्थर से मार-मार कर थूक चटा देते और गाँव के देशी कुत्ते भोंककर, काटकर उसी बरसात में भर्ता बना देते। कोई गाय-बैल-सूअर को भी मुर्दा रस्सी में बाँधकर, घसीट कर नहीं चलता। यह कहानी भी प्रेमचन्द की ही दुर्गति करा देती है। दलित लेखक इसे घृणा का प्रचार करने वाली कहानी कहते हैं। शायद दिल्ली वाले भारद्वाज के पूर्वज बाबू श्रीनाथ सिंह ने भी इसे घृणा-प्रचारक कहा था। मोहनदास नैमिशराय ने अपनी एक कहानी में एक सवर्ण का मुर्दा उठाने के लिए दलित जमात का आह्नान करने वाले एक युवक को सामने किया है, जो कहता है कि सवर्णों का मुर्दा हमें ही उठाना पड़ेगा। संकेत है कि दलितों के मुर्दे कलम की नोंक पर घसीटे नहीं जायेंगे। 'अपने-अपने पिंजरे' में बंद उड़ने के लिए छटपटाते हुए मोहनदास नैमिशराय दलित लेखकों में ज्यादा संयत एवं प्रबुद्ध हैं। उनका भी मानना है कि दलितों की समस्या का सृजन दलित ही कर सकते हैं। क्या यह आकस्मिक है कि दलित-लेखन के नाम पर अधिकांश आत्मकथाएं लिखी गई हैं, क्या यह संयोग ही है कि इन 'आत्मकथाओं' में 'शेखर : एक जीवनी' और 'नदी के द्वीप' की रंगीनी नहीं है? दलित-लेखकों के लेखकीय विश्वास के आगे कई प्रश्न हैं। क्या वे लिखते समय दलित हैं? दलित यंत्राणा में हैं? उनका सम्बोधन, पाठक समुदाय केवल दलितों का ही है?
दलित विद्वानों में डॉ० धर्मवीर की काफी चर्चा हुई है। उन्होंने कबीर साहित्य के अध्येताओं को अध्येता नहीं, आलोचक माना और निंदक समझकर पण्डित हजारी प्रसाद द्विवेदी सहित कई प्रसिद्ध विद्वानों का विरोध किया। यहाँ भी प्रश्न है कि डॉ० धर्मवीर ने कबीर या रैदास को कितना पढ़ा। वे कबीर या रैदास को समझाना चाहते हैं या कबीर अथवा रैदास की पढ़ाई पर नाकेबंदी करना चाहते हैं। (मेरी किताब 'भये कबीर, कबीर-डॉ० धर्मवीर आई०ए०एस० को समर्पित है। भूमिकायें सविनय प्रश्न हैं। अन्त में एक पुस्तक सूची। इनमें कितनी पुस्तकें कलक्टर-कमिश्नर साहब ने देखी पढ़ीं। ईमानदारी से बताएँ।) यह स्पष्ट कर देना होगा कि उन्होंने कबीर या रैदास को बहुत कम पढ़ा है। उनके लेखन का महत्त्व उनके आरक्षित महत्त्व की तरह ही होगा। उनके पद और प्रोन्नति की तरह ही उनका लेखन ऊँचा है। सवाल यह है कि वे किसके लिए लिख रहे हैं? कबीर को पढ़ने वाली कोई जमात उनके पास है क्या? कबीर पर लिखने वालों से कोई उनका आमना-सामना है क्या? उनका सम्बोधन सवर्ण समाज के लिए है अथवा उनके विरोधियों का समाज है? उनके लेखकीय झुण्ड में गाँव-गाँव में, बस्ती-बस्ती में, भाई-बहन, माता-पिता, चाचा-चाची, मामा-मामी, बुआ, भौजी जैसी पारिवारिक शब्दावली के हिंसक 'कॉमरेड' तो नहीं हैं? जिनके लिए परिवार, जाति, धर्म, देश सबका पर्याय केवल एक शब्द है 'कॉमरेड'।
दलित लेखकों और विद्वानों, पाठकों और समर्थकों को अपनी निजी जमात पर नजर रखनी होगी और अपना कुरुक्षेत्र भारतीय हिन्दू भूगोल के भीतर ही बनाना होगा क्योंकि दलित-सत्ता और दलित अस्मिता हिन्दू जाति की नकारात्मक किन्तु निश्चित सीमा-रेखा के भीतर ही तय होगी, वर्ण के बाहर जाते ही दलित प्रश्न वर्ग के धुएँ में खो जायेगा। कोई समर्थक नहीं मिलेगा। गरीबों को गरीब मिल जायेंगे। साहबों को साहब नहीं मिलेंगे।
दलित समस्या पर बड़ी निष्ठा के साथ गाँव-गाँव, शहर-शहर, किताब-किताब, पन्ना-पन्ना समझ के भीतर से मेरा यह कहना है कि दूसरों का बोलना बंद करने से पहले बोलना सीखना पड़ेगा। यह रैदास से सीखिए। आरती का पद लिख रहे हैं। कह रहे हैं, गाय के दूध को बछड़े ने जूठा कर दिया, गंगा के जल को मछलियों ने मैला किया, फूलों को भौंरों ने अपवित्र किया। तुम्हारी पूजा कैसे करूँ?'मन ही पूजा, मन ही धूप।'रामहि पूजा कहाँ चढ़ाऊँ। फल अरु फूल न अनुपम पाऊँ।दूध त बछरयो थनहुं जुठारयो। पुहुये भँवर जलमीन बिगारयो।मलयागिरि बाँधियों भुवंगा। विष अमृत बसइ इक संगा।मन ही पूजा, मन ही धूप। मन ही से सेऊँ सहज सरुप।पूजा अरचा न जानूँ तोरी। कह 'रैदास' कवन गति मोरी।यह पाखण्ड का सतर्क विरोध है। आरती की लय में स्वसंवेद्य प्रज्ञा का विस्तार। इसी तरह कबीर अपनी महिमा से ही विकल हैं। वे चाहते हैं कि कबीर, कबीर रह जाएं। वे पूरी दलित-जमात को सम्बोधित करते हुए कहते हैं - मैं बिगड़ा, तुम न बिगड़ना। हरा-भरा पेड़ था, चंदन के संग चंदन होकर बिगड़ गया। निर्मल जल था, गंगा के संग गंगा होकर बिगड़ गया। लोहा था, पारस के संग सोना होकर बिगड़ा। कबीर था, ताना-बाना वाला जुलाहा। राम के संग राम होकर बिगड़ा।कबीर बिगरा राम दुहाई।तुम जनि बिगरयो मेरे भाई।चंदन के ढिक विरख, जु भैला। बिगरि-बिगरि सो चंदन ह्नैला।पारस को जो लोह छुवेगा। बिगरि-बिगरि सो कंचन ह्नैला।गंगा में जे नीर मिलेगा। बिगरि-बिगरि गंगोदक ह्नैला।कहे कबीर जो राम कहैला। बिगरि-बिगरि सो रामहि ह्नैला।कहना है कि कबीर अपनी सारी आध्यात्मिक उपलब्धियों के बावजूद अपनी बस्ती में रहना चाहते हैं - ''सुनिये सबकी, करिये मन की, रहिये अपने गाँवा जी।'' मैं कहना चाहता हूँ कि दलित-लेखकों को सारी प्रतिभा के बावजूद अपनी इयत्ता पर विश्वास करना होगा। अपने रहन और सहन में दलित-विश्वसनीयता प्राप्त करनी होगी। कुरीतियों और आसनों से उतर कर उस शब्द-विवेक के लिए जूझना पड़ेगा, जो कामगर, दस्तकार शब्दावली को, कर्घा को, राँपी को, ताना बाना को और कुल मिलाकर अपनी जूतों से भरी कठवत को अध्यात्म के शिखर तक उठाना होगा। 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'। शास्त्र, विद्या और ज्ञान से सँवारे शब्दों को छोड़कर मेहनत-मजदूरी-दस्तकारी के शब्दों का विश्वास करना होगा। दलित-दुःख लिखने के लिए दलित शब्दावली का अन्वेषण करना होगा।महिमा का तिरस्कार, काम करते हुए आदमी से पारिवारिक सम्बन्ध, शब्द और अर्थ तथा कामगार आत्मीयता को लेकर ही दलितों का लेखक बना जा सकता है, वरना सब कुछ चमक-दमक से छपा हुआ सवर्णों का लिपिक कर्म हो जायेगा। यह देखना हो तो दलितों के समारोह में आइये, जहाँ रैदास-चालीसा और कबीर-चालीसा, शिव-चालीसा और हनुमान-चालीसा से ज्यादा बिकते हैं। यहाँ रैदास और कबीर की पुस्तकों, तस्वीरों को लक्ष्मीविष्णु से ज्यादा खरीदा और आदर दिया जाता है। जहाँ भूख-प्यास की परवाह के बिना 'बाबा साहब अम्बेडकर की जय' बोलते हैं। जहाँ मैले-कुचैले, अस्त-व्यस्त कपड़ों में बनिहारिन औरतें बाबा साहब को चमक-दमक के बावजूद अपना आदमी मान लेती हैं और बाबा साहब में अपना रिश्ता न देखते हुए भी 'जय भीम' के नारे लगाती हैं। ऐसी मैली भीड़ के बीच से जो शब्द और अक्षर पैदा हो रहे हैं उन्हें 'कम्पोज' करने के लिए कुर्सीपरस्त अफसरों की उंगलियां नहीं, दस्तकारों की उंगलियों की जरूरत है। कोई विद्याधर दलित शब्दों के कारण नहीं, अपने संकल्प के कारण दलितों का सिपाही बन सकता है। यह कला-कर्म नहीं, मनुष्यमुक्ति और कलंक से हाथापाई का मोर्चाबन्द अभियान है।मैं मानता हूँ कि पिछले दस बारह वर्षों से लिखा हुआ दलित साहित्य, जागरूक, रचना के लिए समर्पित लोगों का साहित्य है, लेकिन इसे जनता का दुःख बाँटने के बजाय, विदेश एवं दिल्ली में लिखे हुए प्रो-दलित साहित्य पढ़कर लिखा गया है। उनके सारे प्रशंसक अपने घरों में दलितों के कवच स्लैंग शब्दों का प्रयोग करते हुए अपने क्रोध का मुहावरा तैयार करते हैं। ऐसे क्रोधी समर्थकों की भीड़ पर दलित कलम को अपनी नोंक घुसानी होगी और सारी स्याही छद्म समर्थकों के मुँह पर पोत देनी होगी।प्रज्ञा-चतुर नागरिक को दलित की पंक्ति में बैठकर पहले गाली सुनने का अभ्यास करना चाहिए यह नया पाठक दलित लेखकों को दलित रचनाकार बना सकता है। लेखन और सम्बोधन की ठीक-ठीक पहचान न होने के कारण अधिकांश दलित-साहित्य बदले और गुस्से का सत्तापोषित साहित्य बनकर रह जायेगा। जैसे पूँजीपति कंजूसों के क्षेत्रों में बँटने वाला भोजन भूख नहीं मिटाता, भूख को ही गालियाँ देता है।

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Tuesday, November 18, 2008

बदल रहा मनुष्य है

धर्मवीर भारती


ये जो पैर की धमक से काँप रहा है जहां
ये जो टूट-टूट कर बिखर रहा है आस्मां
चल रहा मनुष्य है !!
धूल जो उड़ी तो छा गया है आस्मान
मिट गये हैं आस्मान से प्रकाश के निशान
आज भूल कर विशाल स्वर्ग लोक को
भूमि के घृणा विषाद हर्ष शोक को
कुचल रहा मनुष्य है
कुचल रहा मनुष्य !!
है मनुष्य की न प्रेरणा परम्परा
हँस दिया मनुष्य स्वर्ग बन गयी धरा
हँस दिया मनुष्य छा गया नवल प्रभात
अब रही न भूख दासता न रक्त पात
बदल रहा मनुष्य है
बदल रहा मनुष्य !!
जिन्दगी की आग में सुलग रहा इन्सान
लाल रोशनी से भर रहा है ये जहां
औ धुआँ उमड़ के बन रहा है उफ़ान
पर निखर रहा मनु्ष्य स्वर्ण के समान
जल रहा मनुष्य है
जल रहा मनुष्य !!
पैर में मनुष्य के अतीत के निशान
सामने मनुष्य के भविष्य है महान्
चीरता मनुष्य है यथार्थ वर्तमान
और दोनों हाथ में दबा के आस्मान
चल रहा मनुष्य है
चल रहा मनुष्य !!!

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बिलखता दर्दाना

SEEMA GUPTA


हर स्वप्न एक बिलखता दर्दाना हुआ,

वक्त के छलावे से अपना याराना हुआ..

रूह सिसकती रही, जख्म मूक दर्शक ,

साँस लिए भी जैसे एक जमाना हुआ...

खूने- दिल से लिखा, अश्कों ने मिटा डाला,

तुझे भुलाने का क्या खूब बहाना हुआ....

पीडा मे नहा, ओढ़ कफ़न भटकती चाहतों का,
जिंदा जी जैसे ख़ुद को ही दफनाना हुआ..

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Monday, November 17, 2008

कबीर का सच 2

प्रो० रामदेव शुक्ल

अपने अनेक जन्मों की कथा कहते हुए भुशुंडि ने कलियुग का वर्णन भी किया और सतयुग का भी। कलयुग-सतयुग-वर्णन महाभारत और अनेक पुराणों में विस्तारपूर्व मिलते हैं। तुलसीदास वाले वर्णन भी उसी परम्परा में हैं। एक अन्तर है, जिसको ध्यान से देखने पर तुलसीदास की मौलिकता स्पष्ट हो जाती है। मानस के कलियुग वर्णन में काकभुशुंडि कहते हैं कि जो लोग सतमारग पर चलने वालों को सत्पथ से विरत करने के लिए तर्क कर करके वेदों को अस्वीकार करते हैं, वे एक-एक कल्प तक एक-एक नरक में रहेंगे। हैं कौन वे ? जे वरनाधम तेलि, कुम्हारा । स्वपच, किरात, कोल, कलवारा॥/नारि मुई गृहसंपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होंहि सन्यासी॥/निराचार सठ वृषली स्वामी॥/सूद्र करहिं जप तप व्रत नाना। बैठि वरासन कहहिं पुराना॥/सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा॥/भए वरन संकर कलि, भिन्न सेतु सब लोग।/करहिं पाप पावहिं दुख, भय रुज सोक वियोग॥/श्रुतिसम्मति हरिभक्तिपथ, संजुत विरति विवेक।/तेहिं न चलहिं नर मोहबस, कल्पहिं पंथ अनेक॥

रामचरित मानस की रचना कबीर की मृत्यु के सतहत्तर वर्ष बाद आरम्भ हुई। कबीर की मृत्यु सन्‌ १४९७ में मानी जाती हैं और रामचरित मानस का आरम्भ सन्‌ १५७४ ई० (संवत्‌ १६३१) में हुआ। कबीरदास अपने जीवनकाल में लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच चुके थे। वेद, पुराण, तीर्थ, कर्मकांड, बा्रह्मण की सर्वश्रेष्ठता आदि को अस्वीकार करने के कारण उनके अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी। जिसे हम संत काव्य के रूप में जानते हैं, उसके रचनाकारों में बाद के एक सुंदरदास को छोड़कर कोई सवर्ण नहीं था। सब के सब बरनाधम तेलि, कुम्हार, स्वपच, कलवार जुलाहा ही थे। वर्ण और आश्रम व्यवस्था के निष्प्राण हो जाने के बाद भी जिन्हें लगता था कि वहीं सदा-सदा के लिए श्रेष्ठ सामाजिक व्यवस्था हो सकती हैं, उन सबको इन वर्णाधर्मों की मुखरता-वाचालता पीड़ा पहुँचाती है। उनको यह लगता था कि वेद और ब्राह्मण की श्रेष्ठता को चुनौती देना सबसे बड़ा अपराध है। वे संत जिस जीवन पद्धति का खुला प्रचार कर रहे थे, वह श्रुतिविरुद्ध कल्पित लगता था।

काकभुशुंडि के उपर्युक्त कलयुग वर्णन में सबसे ज्यादा क्षोभ इसी व्यतिक्रम के प्रति प्रकट किया गया है कि अधर्मवर्ण वाले लोग धर्मचर्चा करने लगे हैं और श्रुतिसम्मत मार्ग छोड़ पंथ कल्पित करने लगे हैं। कबीरपंथ की बहुत चर्चा की जाती है। विचारणीय है कि क्या कबीर ने किसी पंथ की स्थापना की थी ? इसके कोई प्रमाण नहीं मिलते। यह अवश्य हुआ कि तुलसीदास के समय तक कबीर की लोकप्रियता से प्रभावित होकर असंख्य लोग वेद, ब्राह्मण, कर्मकाण्ड आदि का विरोध करने लगे थे। उनमें कबीर-रैदास की तरह सबके सब सच्चे साधु ही न रहे होंगे। उनके अराजक आचरण से वर्णाश्रम की क्षति को न सहन करने वाले तुलसीदास को कलियुग के कुप्रभाव का वर्णन करते समय वर्णाश्रम तेलि कुम्हारों की भूमिका को अलग से रेखांकित करने की आवश्यकता हुई।

वर्णाधमों को दी जाने वाली गालियों में एक हैं - गृहासक्त। इस पर विचार करने की आवश्यकता है। सभी तरह के कर्त्तव्य कर्मों से पलायन करके पाखंड के बल पर भोली-भाली गृहस्थ जनता की अंधश्रद्धा और अंधविश्वास को उकसाकर मालपुआ उड़ाने वालों की वास्तविकता को उजागर करने के साथ कबीर ने संत के लिए परजीवी बनने का स्पष्ट निषेध कर दिया। सभी संतकवि गृहस्थ थे। कपड़ा बुनकर, जूते बनाकर ये लोग अपनी गृहस्थी चलाते थे। कठिन श्रम से उपार्जित धन से अपने कुटंब और अतिथियों के पेट भरते थे। परमात्मा से यही माँगते थे कि - साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय।/मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥''ध्यान देने की बात है कि वर्णाश्रम पोषकों द्वारा श्रम से उपार्जित जीविका के प्रति निष्ठा को गृहासक्ति कहा गया।

काकभुशुंडि का दोष क्या था ? वे शूद्र थे, दरिद्र थे, अकाल पड़ने पर उज्जैन गये। कुछ सम्पति अर्जित की। एक ब्राह्मण ने कृपा करके उन्हें शिव का मंत्रा दिया। अपना दोष बताते हुए वे कहते हैं - जपौं मंत्र शिवमदिंर जाई। हृदयदंभ अहमिति अधिकाई॥/मैं खल मलसंकुल मति नीच जाति बस मोह।/हरिजन द्विज देखें जरौं, करौ विष्नु पर द्रोह॥

खल, मलसंकुल, नीच जाति में उत्पन्न, ब्राह्मणों को देखकर जलने वाले और विष्णु के प्रति द्रोहभाव रखनेवाले शिष्य को गुरु ने समझाया कि शिव की सेवा का फल है, राम के प्रति अविरल भक्ति। शिव स्वयं राम की उपासना करते हैं। शिव को राम का उपासक बताने वाले गुरु की अवज्ञा करने वाले नीच जाति के इस भक्त को स्वयं शिव ने अजगर होने का शाप दे दिया। उसी कृपालु की गुरु की प्रार्थना ने शिव से शाप की भयावहता कुछ कम करा दी। उसके बाद शिव ने चेतावनी देते हुए कहा - सुनु मम वचन सत्य अब भाई। हरि तोषन व्रत द्विज सेवकाई॥/अब जनि करहि विप्र अपमाना, जानेसु संत अनंत समाना॥/इन्द्र कुलिस मम सूल विसाला। कालदंड हरिचक्र कराला॥/जो इन्हकर मारा नहिं मरई। विप्रद्रोह पावक सो जरई॥
स्वयं शिव ने कहा कि भगवान को सन्तुष्ट करने वाला व्रत द्विजसेवा है।विप्र को अनंत संतों के समान जानो। इंद्र के वज्र, मेरे त्रिशूल कालदंड और विष्णु के चक्र से भी जो नहीं मरता, वह ब्राह्मण के क्रोध की आग में अवश्य जल मरता है। गोस्वामी जी ने अन्य अनेक स्थलों पर विप्रपूजा को सर्वोत्तम बताया है - पूजिय विप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुनगन सकल प्रवीना॥सौ सवा सौ वर्ष तक कबीर के प्रभाव में विप्र की श्रेष्ठता को जो गहरा धक्का लगा था, उसको कम करने के लिए तुलसीदास का यह प्रयास अपने दृष्टिकोण से अत्यंत आवश्यक और सामयिक कर्त्तव्य था। स्वाभाविक है कि विप्र प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने के लिए उन लोगों की बढ़ती हुई - लोकमान्यता को कम करना भी आवश्यक था, जिन्होंने विप्र प्रतिष्ठा को धक्का दिया था। इसीलिए गोस्वामी जी को कलयुग-वर्णन में वर्णाधर्म तेलिकुम्हार, स्वपचकलवार वाली बात जोड़नी पड़ी।

विप्रद्रोह और सगुण द्रोह ऊपर से देखने पर अलग दिखाई पड़ते हैं, किन्तु दोनों गहरे स्तर पर एक ही हैं। सगुण की स्वीकृति के लिए वेद पुराण शास्त्र का अध्ययन आवश्यक है। मंदिर में प्रतिष्ठित ईश्वरीय प्रतिमाओं की प्रातः जागरण आरती से लेकर कलेऊ, जलपान, भोजन, शयन आदि विधिविधान का ज्ञान अनिवार्य है, जो केवल विप्र वंशोदूभूतों के ही वश की बात है। अशिक्षित, गँवार, शूद्र आदि को पुजारी, पंडा, महंत बनने की अर्हता प्राप्त नहीं हो सकती। निर्गुण-निराकार परमात्मा को भेजने में किसी भी अर्हता, योग्यता, कुलगोत्रादि की आवश्यकता नहीं है। इसीलिए दार्शनिक स्तर पर कुछ न समझने वाले वरनाधम तेलिकुम्हार स्वपच कलवारों को निर्गुणोपासना अपने सर्वथा अनुकूल लगी और इसीलिए निर्गुण भक्ति की लोकप्रियता लगातार बढ़ती गयी।

दार्शनिक स्तर पर सगुणोपासक भक्त कवियों ने निर्गुण ब्रह्म का निषेध नहीं किया। बार-बार दोनों को एक ही कहा - अगुनहि सगुनहि नहि कुछ भेदा' किन्तु मनुष्य निर्गुण को समझने में समर्थ नहीं हो पाता, इसलिए सगुण के प्रति सहज आकृष्ट हो जाना श्रेयस्कर है। सूरदास ने बहुत स्पष्ट कह दिया - अविगति गति कछु कहत न आवे।/मन बानी को अगम अगोचर सो जाने सो पावै॥.../सबविधि आगम विचारहि ताते सूर सगुन लीला-पद गावैं॥

तुलसीदास ने अपने सभी ग्रंथों में अनेक युक्तियों और तर्कों से मनुष्य की सीमाओं की ओर संकेत किया और निष्कर्ष निकाला कि सगुण राम का भजन ही राजमार्ग पर चलने जैसा सुकर कार्य है - बहुमत सुनि बहुपंथ पुराननि, जहाँतहाँ झगरो सो,/गुरु कह्यो रामभजन नीको मोहि लगत राज डगरो सो॥''किन्तु वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा के लिए विप्रश्रेष्ठता और सगुण श्रेष्ठता के चलते, जब जहाँ अवकाश मिला, तुलसीदास ने अपनी बात कह दी - अन्तर जामिहुँ ते बड़ बाहिरजामी हैं राम जे नाम लिए ते।/पैज परे प्रहलादहु के प्रगटे प्रभु पाहन ते, न हिए ते॥अंतर्यामी (निर्गुण) राम की अपेक्षा बर्हियामी (सगुण) राम बड़े हैं। प्रहलाद की जरूरत पर वे (राम) पत्थर से (बाहर से) ही प्रकट हुए, हृदय (अंतर) से नहीं।इसलिए अलख (निर्गुण) को लखने की बात करने वालों को कड़ी फटकार लगाना जरूरी था - हम लखि, हमहि हमार लखि, हम हमार के बीच/तुलसी अलखहि का लखै, रामनाम जपु नीच॥प्रकृति-वर्णन-प्रसंग में भी अप्रस्तुत रूप में दंभियों के पाखंड विवाद से हुए अनर्थ को रेखांकित करने से वे नहीं चूकते - हरित भमितृनसंकुल, समुझि परहि नहिं पंथ।/जिमि पाखंड-विवाद ते, लुप्त होहिं सदग्रंथ॥ये सदग्रंथ वेदपुराणादि हैं, जो दंभियों द्वारा कल्पित पंथों और पाखंड-विवाद के कारण लुप्त होते लग रहे थे। तुलसी किन लोगों को दंभी कह रहे हैं, पहचान लेना कठिन नहीं है।

कबीर ने राम के महत्त्व और प्रभाव को स्वीकार किया, किन्तु उन्होंने मन्दिरों में प्रतिष्ठित मूर्ति को अस्वीकार करने के साथ साथ दशरथ के पुत्र राम के पौराणिक रूप को भी अस्वीकार किया। उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी कि - दशरथ सुततिहुँ लोक बरवाना। राम नाम का मरम है आना॥तुलसीदास ने रामचरित मानस में अनेक स्थलों पर पूर्वपक्ष से दशरथ-सुत राम के प्रति शंका प्रकट कराई। उत्तरपक्ष में राम पर शंका करने वालों को धूल चटाई।
पार्वती ने देखा कि शिव ने राम लक्ष्मण को आदरसहित प्रणाम किया। पार्वती के मन में संदेह हुआ कि जो ब्रह्म, अजन्मा, गुण, कला आदि से परे है, जिसे वेद भी नहीं जान पाते, वह नारी-विरह में इस तरह कातर होकर घूम रहा है। यह कैसे?शिव ने यह पहले ही कह दिया - अति विचित्रा रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।/जे मतिमंद विमोहबस हृदय धरहिं कछु आन॥मतिमंद लोग विमोहवश ही दशरथ सुत से भिन्न (आन) राम को अपने हृदय में धारण करते हैं। सौ वर्ष पहले कबीर कह चुके थे, कि राम ही ध्यातव्य हैं, हृदय में धारण करने योग्य हैं, पर दशरथ सुत नहीं, अन्य (आन)।उपनिषदकाल से ही अयोग्य ब्राह्मणों (जो केवल जन्म के आधार पर पूज्य बने रहना चाहते थे) के प्रति उपहास का भाव मिलने लगता है। ब्रह्मबंधु शब्द उनके लिए प्रचलित हो गया, जिनके आचरण में कुछ भी ब्राह्मणोचित नहीं था, केवल ब्राह्मण-पुत्र होने के कारण वे ब्राह्मण बने रहना चाहते थे। गौतम बुद्ध ने अपने प्रवचनों में जन्म के आधार पर ब्राह्मणत्व को खुली चुनौती दी। उसके बाद बौद्धों के प्रति विप्र-प्रवचन कैसे-कैसे हुए उसका एक उदाहरण डॉ० पांडुरंग बामन काणे ने धर्मशास्त्र का इतिहास में दिया है। एक श्लोक है - शुक्लदन्ताः जिताक्षश्च मुंडाः काषायवाससः।/शुद्धाधर्म वदिष्यन्ति शाठ्यबुद्धयोपजीविनः॥

सफेद दाँत वाले' से लेकर शठबुद्धि से जीविका चलाने वाले निन्दा और गाली के पात्रा हैं, वे शुद्धअधर्म की बात करते हैं, इन विशेषणों के साथ तुलसीदास द्वारा प्रयुक्त विशेषणों को रखकर देखें - शिव सती को समझाते हुए कहते हैं - एकबात नहिं मोहि सुहानी। जदपि मोहबस कहेउ भवानी॥/तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिमुनि ध्याना॥/.../अग्य अकोविद अंध अभागी। काई विषय मुकुरमन लागी॥/लंपट कपटी कुटिल विसेषी। सपनेहु संतसभा नहिं देखी॥/कहत ते बेद असम्मत बानी। जिन्हके सूझ न लाभ न हानी॥/.../हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। जिन्हहिं कहत कछु अघटित नाहीं॥/बातुल भूत विबस मतवारे। ते नहिं बोलत बचन सम्हारे॥/जिन्ह कृत महा मोहमद पाना। तिन्हकर कहा करिय नहिं काना॥

राम को दशरथ-सुत से भिन्न कहने वाले अज्ञ, अकोविद्, अंध, अभागे, लंपट, कपटी, कुटिल, सपने में भी संतसभा न देखनेवाले, वेदविरूद्ध वचन बोलने वाले, लाभहानि विवेकरहित, अंधे, अगुनसगुन-विवेकरहित, कल्पित वचन बकने वाले, मायाग्रस्त होकर घूमनेवाले, बातूनी, भूतग्रस्त, बिनाविचारे बोलनेवाले, महामोहरूपी मदिरा पीकर प्रमत्त हैं। इनको बातों पर कान नहीं दिया जाना चाहिए।बौद्धों को अन्य गालियों के साथ सफेद दाँत वाले कहने के पीछे उनका संयमित जीवन ही है। बौद्ध भिक्षु पान सुपारी नहीं खाते थे, इसलिए उनके दाँत साफ रहते थे। विप्रों और राजसामंतों के दाँत ताम्बूलरंजित होते थे। बल्लालकृत भोजप्रबन्ध में एक प्रसंग है। कवियों को अकूतधन देने वाले राजा भोज के दरबार में कविकर्म से रहित वेदशास्त्रज्ञाता विद्वान पहुँचे। द्वारपाल ने इन लोगों का सूक्ष्म निरीक्षण किया। दरबार में जाकर उसने उन वैदिक विद्वानों का परिचय इस प्रकार दिया - राजमाषनिभैर्दन्तैः कटिविन्यस्त पाणयः।/द्वरितिष्ठन्ति राजेन्द्र छादन्साः श्लोकशत्रावः॥हे राजा ! द्वार पर राजमा के समान दाँतों वाले, श्लोकशत्रु, वेदज्ञ कमर पर हाथ रखे खड़े हैं।जिन लोगों के दाँतों का रंग राजमा की तरह कत्थई हो वे साफ दाँत वालों को गाली ही तो देंगे।संत साहित्य पर विचार करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने स्पष्ट लिखा कि यह ऐतिहासिक सत्य है कि युक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के और मध्यप्रदेश के उन भागों में जहाँ की भाषा हिन्दी है, वैष्णव मतवाद के प्रचार के पूर्व सर्वाधिक प्रचलित मतवाद शैवधर्म था।४

डॉ० राजदेव सिंह ने अपनी पुस्तक संत साहित्य : पुनर्मूल्यांकन में इस बात को आगे बढ़ाते हुए लिखा है कि हठयोगी नाथों, बज्रयानियों और सहजयानी बौद्धों, त्रिपुरा सम्प्रदायों के तांत्रिकों, वीराचार्यों, दत्तात्रोय के सम्प्रदाय वालों, शैवों और परवर्ती सहजियों की इस साधनाभूमि में अपनी जड़ें जमाने में वैष्णव आचार्यों को पर्याप्त संघर्ष करने पड़े थे। इन बहुविधि संघर्षों में सबसे बड़ा संघर्ष ब्रह्म के निर्गुण और सगुण रूपों को लेकर था। सूर हों या तुलसी या कोई भी सगुण भक्तकवि, उनके साहित्य में इस संघर्ष के दस्तावेज आसानी से मिल जाते हैं। सूर की गोपियों द्वारा उपहसित उद्धव तथा मानस के सती, पार्वती और सगुण राम की भगवत्ता के प्रति जो संदेह व्यक्त करते हैं, वे इन्हीं समाजों द्वारा मुखरित सन्देह हैं।५एक ओर दक्षिण से आता हुआ वैष्णवभक्ति का तीव्र प्रवाह था, और दूसरी ओर उसकी सामन्ती, पुरोहिती और सगुणाधारित कर्मकांडी व्यवस्था को एक सिरे से नकार देने वाली उत्तरभारत की समूची सन्त-परम्परा थी। इस विरोध पक्ष का सबसे सबल व्यक्तित्व था कबीर, जिसने पहली बार दशरथ के पुत्रा राजा राम को ब्रह्म मनाने से साफ इनकार किया। ब्राह्मण श्रेष्ठता में अविश्वास करने वाले, वेद में निष्ठा न रखने वाले तथा वर्णाश्रम व्यवस्था को अस्वीकार करने वाले लोगों की परम्परा इस देश में काफी पुरानी है। लेकिन उपलब्ध साहित्य एवं अन्य सम्बद्ध सूचनाओं के हिसाब से दाशरथि राम की भगवत्ता को अस्वीकार करने वाले प्रथम व्यक्ति कबीर थे।६

कबीर ने केवल दशरथसुत राम को अस्वीकार किया हो, ऐसी बात नहीं। उन्होंने सामन्ती व्यवस्था को पुष्ट करने और मानव-मानव को विभाजित करने वाली आधारशिला को ही अपने कठोर प्रहारों से ध्वस्त कर दिया। उन्होंने मन्दिरों में स्थापित विग्रहों को राजा के समकक्ष समस्त विलासोपकरणों से परिपूर्ण देखा था और यह भी देखा था कि मन्दिर में विराजे महाराज के लिए उपलब्ध समस्त ऐश्वर्य का भोग करने वाले पुजारी और महंत एक प्रकार के सामंत ही थे। वंशानुगत राजाओं और सामंतों के प्रति सामान्य प्रजा के मन में असन्तोष आक्रोश की सम्भावना भी थी, तो राजाओं के राजा भगवान के निकटस्थ इन नवसामंतों के प्रति प्रजा के असंतोष की कोई भी सम्भावना छोड़ी नहीं गयी थी। इसीलिए कबीर ने मानवमात्रा की एकता के विरुद्ध मन्दिर-मस्जिद में विराजे ईश्वर को नकार कर उनकी असलियत सामान्यजन के सामने उजागर कर दी। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि राजाओं के राजा जिन सर्वशक्तिमानों से तुम आतंकित हो, उनकी औकात यह है - साधो ! यह मुरदों का गाँव।/पीर मरे पैगम्बर मर गये, मर गये जिंदा जोगी।/राजा मर गये, परजा मर गये, मर गये बैद औ रोगी।/चंदा मरिहैं, सूरज मरिहैं, मरिहैं धरति अकासा।/चौदह भुवन चौधुरी मरिहैं, इनहूँ की क्या आसा।/नौ भी मर गये, दस भी मर गये, मर गये सहस अठासी।/तैतीस कोटि देवता मरि गये, परी काल की फाँसी।/नाम अनाम रहत है जिनहीं, दूजा तत्व न कोई।/कहैं कबीर सुनो भई साधो, भटक मरो मत कोई॥

जिस मुक्ति का सस्ते से सस्ता व्यापार मन्दिरों, तीर्थों और धर्म के बाजारों में होता रहता है, वह कितनी दुर्लभ और अप्राप्य है, यह इससे जानिए कि ब्रह्मा-विष्णु भी उसे न पा सके - बरमा बिसुन महेसर कहिए, इन सिर लागी काई।/इनहिं भरोसे मति कोइ रहियो, इनहूँ मुकुति न पाई॥संकेत किया जा चुका है कि ब्रह्मा-विष्णु के धोखे में पड़े संसार को कबीर के अनुसार माया बनाती है। वह सबसे पहले मन को उत्पन्न करती है। वही मन सम्पूर्ण प्रपंच की रचना करता है। वही मन बन्धन का कारण है और वही मन मुक्ति का कारण भी है।

इसलिए मन को साधना ही मनुष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ उपाय है।मन को साधना कैसे सम्भव होगा? आचरण के जो श्रेष्ठतम प्रतिमान हैं, उनका पालन करके ही मन को साधा जा सकता है। इस सच में कोई मिलावट नहीं चलेगी। पहले उसी मन को जानने की कोशिश करो परन्तु उससे भी पहले यह निश्चयपूर्वक जान समझ लो कि ये जो व्रत, तीर्थ, देवदर्शन को पापों से मुक्ति दिलाने वाले बताकर धर्म का धंधा करते हैं, वे सबके सब लुटेरे हैं। इनकी बातों में आओगे तो मन की थाह नहीं पा सकोगे। सबसे पहले यह समझ लो कि जो परम सत्ता है, उसे चींटी के पावों की ध्वनि भी सुनाई पड़ती है। उससे कुछ भी बचता नहीं है, जिसे वह न देखे, न जाने। तुम उसे धोखा नहीं दे सकते। धन्धा करने वालों के हथकंडों से सावधान रहो और जान लो कि सृष्टि के सभी जीव एक ही हैं, इनमें से किसी एक की हिंसा उसी परमसत्ता के प्रति हिंसा होती है - जीव मति मारो बापुरा, सबका एकै प्रान।/हत्या कबहूँ न छूटिहैं, जो कोटिन सुनो पुरान॥/जीव घात ना कीजिए, बहुरि लेत वै कान।/तीरथ गये न बाँचिहौ, जो कोटि हीरा देहु दान॥/तीरथ गये तीन जन, चित चंचल मन चोर।/एकौ पाप न काटिया, लादिनि मन दस और॥/तीरथ गये ते बहि मुए, जूड़े पानि नहाय।/कहै कबीर सुनो हे संतों, राक्षस होय पछिताय॥/तीरथ भई विष बेलरी, रही युगन युग छाय।/कबिरन भूल निकन्दिया, कौन हलाहल खाय॥

धर्म का धन्धा करने वाले पंडे पुजारी आश्वासन देते रहते हैं कि अमुक तीर्थ में अमुक देवता के दर्शन करने से बड़े से बड़ा पाप कट जाता है। कबीर इस झूठ के व्यापार के धोखे से सामान्यजन को बचाने के लिए कहते हैं कि जीवहत्या का पाप करोगे तो तुम्हें उसका फल भोगना पड़ेगा। कोई तीर्थ-व्रत, देवदर्शन बचा नहीं सकता। ये तीर्थ राक्षस बना देते हैं, ये विष की बेल हैं। उनसे बचकर, हिंसा से बचे रहकर ही सच्चे मार्ग पर चल सकते हो।मजहब के नाम पर हिंसा करने वाले मुसलमानों से भी कबीर यही कहते हैं - काजी काज करहुँ, तुम कैसा। घर घर जबह करावहु भैंसा॥/बकरी मुर्गी किन फरमाया। किसके कहे तुम छुरी चलाया॥/दर्द न जानहु पीर कहावहु। बैता पढ़ि पढ़ि जग भरमावहु॥/दिन को रोजा रहत हैं, राति हनत हैं गाय।/यह तो खून वह बंदगी, कैसे खुसी खुदाय॥जीव पर दया, यह पहला पाठ है, सत्य, प्रेम और ईश्वर की ओर अग्रसर होने का।

महात्मा गाँधी का जीवन आधुनिक युग में इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि केवल सत्य को ठीक से पकड़ने पर ईश्वर, प्रेम, अहिंसा, अभय आदि सभी श्रेष्ठ मूल्यों की प्राप्ति हो जाती है। गाँधी ने बारबार कहा कि मैं सत्य की खोज में चला और उसी रूप में ईश्वर, प्रेम, अहिंसा सब मिल गये। सोचने की बात है कि जब हम समस्त प्राणियों में एक ही परमतत्त्व का प्रकाश अथवा परमात्मा का अंश जीवात्मा पायेंगे तो किसी के प्रति हिंसक कैसे हो सकते हैं। जब सब में उसी को पहचानेंगे और उससे प्रेम करने का दावा करेंगे तो घृणा किसी को भी कैसे कर सकेंगे? जब किसी को भिन्न नहीं मानेंगे तो भयभीत किससे होंगे?सत्य का निर्वाह तभी होगा, जब एषणाओं को बढ़ाने वाली वृत्तियों को रोक दिया जाय। गौतम बुद्ध ने तृष्णा को सभी दुखों का मूल माना। कबीर संतोष को सबसे बड़ा धन बताते हैं - गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतनधन खान।/जो आवे संतोषधन, सबधन धूरि समान॥ईसा मसीह ने जब कहा था कि सूई के छेद से ऊँट का निकल जाना सम्भव है किन्तु धनी व्यक्ति का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना असम्भव है तो वे संतोष और अपरिग्रह के इसी महत्त्व को रेखाँकित कर रहे थे। कबीर परमात्मा से इतना ही माँगते हैं - साईं उतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।/मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥वे धन की बाढ़ से डरने का इशारा कर रहे थे। इसी बात को आधुनिक युग के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि निराला अपनी दरिद्रता के सन्दर्भ में कहते हैं - जाना तो अर्थागमोपाय,/पर रहा सदा संकुचित काय,/क्षीण का न छीना कभी अन्न,/मैं लख सका न वे दृग विपन्न।/लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर/हारता रहा मैं स्वार्थ-समर॥७

बुद्ध, ईसा, कबीर, निराला और मुक्तिबोध धनोपार्जन के लिए अनर्थ की अनिवार्य शर्त के कारण ही धन के प्रति विरक्ति की बात करते हैं। इस तरह कबीर मनुष्य को नैतिक आचरण के आधार पर तैयार करने के लिए उसे भटकाने वाले धर्म के ठेकेदारों से बचाने का प्रयत्न करते हैं।हमारे तर्क प्रधान समय में स्वामी विवेकानन्द जैसे जनप्रतिबद्ध संन्यासी के प्रति न किसी के मन में अविश्वास है, न अस्वीकार। वेदान्त की बात भी विवेकानन्द आधुनिक विज्ञान के आलोक में ही समझाते हैं। आत्मा परमात्मा की एकता और आत्मा की अनश्वरता-अमरता के विषय में कबीर का यह दोहा अद्वितीय है - जल में कुंभ, कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी।/फूटा कुंभ, जल जलहिं समाना, यह तब कथ्यो गियानी॥आत्मा और परमात्मा एक ही हैं, मायारचित घट उसे अलग किए हुए है। बीच से ज्योहीं यह घड़ा फूटेगा, दोनों एक हो जायेंगे। एक हैं ही।

स्वामी विवेकानन्द इस भेद और अभेद को भौतिक विज्ञान की शब्दावली में समझाते हैं - समुद्र के ऊपरी भाग का बारी-बारी से उत्थान और पतन होता है, परन्तु आत्मा को - जो ज्योति की सन्तान है - उसके पतन में गंभीरता और समुद्र की थाह में मोती और मूँगे की तरह ही प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं। आना और जाना यह केवल भ्रम है। आत्मा न आती है, न जाती है। वह किस स्थान में जायेगी, जब सम्पूर्ण देश आत्मा में ही स्थित है। प्रवेश और प्रस्थान का कौन समय होगा, जब समस्त कोल आत्मा में ही है।८देश और काल के विषय में यह अवधारणा आईन्स्टीन के कारण भौतिक विज्ञान में मान्य हो गयी है। वेदान्त और विज्ञान की गम्भीर समझ रखने वाले स्वामी विवेकानन्द तीर्थों और पुजारियों के विषय में कहते हैं - कलिकाल के तीर्थ स्थानों और संन्यासियों को तो आप जानते ही हैं, वे कैसे हैं ? रुपये खर्च कीजिए और मंदिर के पुजारी आपके लिए जगह करने के निमित्त देवमूर्ति को भी हटा देंगे।९

कबीर का सच को ही सब कुछ मानना और उसके पक्ष में कठोर वाणी का प्रयोग करना आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को अच्छा नहीं लगा। जायसी ग्रंथावली में सूफियों की प्रेमपगी मसनवी शैली की कोमलता को उभारने के लिए शुक्ल जी ने लिखा कि कबीर आदि निर्गुण संतों ने जनता को जो कड़ी फटकार लगाई थी, उस पर सूफ़ियों की प्रेमपगी वाणी ने मरहम का काम किया। स्वामी विवेकानन्द ने एक दुराग्रही को डाँट दिया था। इस पर उनके हितैषियों ने असन्तोष प्रकट किया। स्वामी जी ने कुमारी हेल को लिखे पत्र में अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए लिखा, सत्य की तुलना मैं एक अनन्त शक्ति वाले क्षयकर पदार्थ से करूँगा। वह जहाँ भी गिरता है, जलाकर अपना स्थान बना लेता है - यदि नरम वस्तु पर गिरे तो तुरन्त ही; यदि कठोर पाषाण पर, तो धीरे-धीरे, परन्तु जलाता अवश्य है। ... मैं विवश हूँ बहन, कि प्रत्येक कलुषित असत्य के प्रति मैं मधुर और अनुकूल नहीं हो सकता हूँ।..... मुझे संसार से मधुर व्यवहार करने का समय नहीं है और मधुर बनने का प्रत्येक प्रयत्न मुझे कपटी बनाता है।१०कबीर अपने समाज के लोगों की दुर्दशा देख और भोग रहे थे। उसके कर्त्ता धर्म-व्यवसायी पाखंडियों से मधुर व्यवहार करने का समय उनके पास भी नहीं था और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उनका क्षयकर (कोरोसिव) सत्य सामान्यजन को नहीं छू रहा था। यह अधर्मियों और उनके अधर्म को ही जला रहा था। प्रश्न हो सकता है कि कबीर के सन्दर्भ में विवेकानन्द को स्मरण करने का क्या औचित्य है? औचित्य यह है कि दोनों अपने अपने समय में सत्यमार्ग पर चलकर असत्यवादी अधर्मियों को ललकार रहे थे। जो मानव मानव की एकता में बाधक है, वह कितना बड़ा क्यों न हो, उसे दोनों अस्वीकार कर रहे थे। विवेकानन्द ने स्पष्ट कहा-स्मृति और पुराण सीमित बुद्धिवाले व्यक्तियों की रचनाएँ हैं, और भ्रम, प्रमाद, भेद तथा द्वेषभाव से परिपूर्ण हैं। उनके कुछ अंश जिनमें मन की उदारता और प्रेम का अविर्भाव है, ग्रहण करने योग्य हैं और शेष सबका त्याग कर देना चाहिए। उपनिषद् और गीता सच्चे शास्त्रा हैं, और राम, कृष्ण, बुद्ध, चैतन्य, नानक, कबीर आदि सच्चे अवतार हैं, क्योंकि उनके हृदय आकाश के समान विशाल थे - और इन सब में श्रेष्ठ हैं रामकृष्ण। रामानुज, शंकर इत्यादि संकीर्ण हृदय वाले केवल पंडित मालूम होते हैं। वह प्रेम कहाँ है, वह हृदय जो दूसरों का दुख देखकर द्रवित हो? पंडितों का शुष्क विद्याभिमान - जैसे-तैसे केवल अपने आपको मुक्त करने की इच्छा। परन्तु महाशय! क्या यह संभव है? क्या इसकी कभी सम्भावना थी या हो सकती है? - मुझे एक और भाव दिखाई देता है - मेरे मन में दिनोंदिन यह विश्वास बढ़ता जा रहा है कि जाति का भाव सबसे अधिक भेद उत्पन्न करने वाला और माया का मूल है - सब प्रकार का जातिभेद, चाहे वह जन्मगत्‌ हो या गुणगत्‌ - बन्धन ही है।११

कबीर इसी भूमि पर खड़े होकर बामन-सूद और हिन्दू-तुर्क का भेद करके मनुष्यता को बाँटने वाले धर्म-व्यवसायियों को ललकार रहे थे। विडम्बना देखिये आज विद्वत्ता बिदग्ध आचार्यगण कबीर को हिन्दू और मुसलमान साबित करने में लगे हैं।दलित लेखन की ओर से सवाल उठाये जा रहे हैं कि गैरदलित हमारी पीड़ा को नहीं समझ सकते। इसी क्रम में डॉ० धर्मवीर की पुस्तक कबीर के आलोचक आजकल चर्चा में है। लेखक की इस मान्यता के प्रति अधिकांश लोग असहमति व्यक्त करते हैं कि ब्राह्मणवादी समीक्षों ने कबीर के दर्शन और सामाजिक सन्देश के प्रति तनिक भी सम्मान नहीं बरता। उन्होंने कबीर को नहीं, बल्कि कबीर के भीतर रामानन्द को बैठाकर उसकी प्रशंसा की है।१२

डॉ० धर्मवीर के दूसरे वाक्य के प्रति विश्वास करने के अनेक कारण हैं। कबीर के साधक और व्याख्याकार आलोचक अभिलाष दास अपनी पुस्तक 'कबीर : व्यक्तित्व और कर्तृत्व' में गुरु-विवाद शीर्षक के अन्तर्गत शेख तकी और रामानन्द दोनों के कबीर का गुरु होने, न होने पर विचार करते हैं। शेख तकी को फटकारने वाला दोहा - नाना नाच नचाय के, नाचे नट के भेख।/घट घट है अविनाशी, सुनहु तकी तुम शेख॥उद्धत करने के बाद अभिलाष दास लिखते हैं - स्वामी रामानन्द आपके गुरु हो सकते हैं। उनसे आपने बहुत कुछ सीखा-समझा होगा। परन्तु आपके स्वरूपबोध के गुरु वे भी नहीं थे। क्योंकि आपके और उनके सिद्धान्तों में काफी अन्तर है। आपका राम अन्तरात्मा और स्वामी रामानन्द का राम दशरथ पुत्र श्री राम हैं, अथवा परोक्ष ईश्वर। इसको लेकर आपने स्वामी रामानन्द को समझाया होगा। जब आपकी बात नहीं समझ सके होंगे तब आपने उलाहनापूर्वक उनके विषय में कह डाला - रामानन्द रामरस माते, कहहिं कबीर हम कहिं थाके। (बीजक)

'पूरे बीजक में केवल उपर्युक्त पंक्ति ही स्वामी रामानन्द के विषय में है।'१३अभिलाष दास का निष्कर्ष है कि समसामयिक सत्संग तथा शास्त्रों से पर्याप्त लाभ उठाते हुए भी आपको (कबीर को) सैद्धान्तिक संतोष नहीं हुआ। वेद-कितेबादि समस्त ग्रंथों की परम्परा या मतों में आपको पर्याप्त भ्रम दिखाई दिया। हिन्दू-मुसलमान दोनों मत में जड़-चेतन का शुद्ध विचार छोड़कर चराचर, व्यापक आत्मा, ब्रह्म, ईश्वर या खुदा माना गया है और अन्तिम उत्कर्ष में तो जड़ चेतन को एक मानकर अद्धैत निरूपण किया गया है, जो सर्वथा भ्रमपूर्ण है। आप (कबीर) नाना मत-मतान्तरों को देखकर सबसे उपराम हो गये, फिर स्वयं सत्य का शोधन किये।१४हनुमान की आरती लिखने गाने वाले वैष्णवमताब्जभाष्कर और श्रीरामार्चन पद्धति के रचयिता रामानन्द को कबीर का गुरु पूरी तरह तो आचार्य शुक्ल भी नहीं कहते। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि, कबीर को 'राम' नाम रामानन्द जी से ही प्राप्त हुआ, पर आगे चलकर कबीर के 'राम' रामानन्द के 'राम' से भिन्न हो गये।कबीर पर अनेक प्रकार के प्रभाव दिखाई पड़ते हैं, किन्तु यह उससे भी बड़ा सच है कि किसी को कबीर ने पूरा का पूरा स्वीकार नहीं किया है। नाथपंथी योगियों का कबीर पर प्रभाव स्पष्ट है किन्तु गोरखनाथ के लिए वे कहते हैं - झिलमिल झगरा झूलते, बाकी रही न काहु।/गोरख अटके कालपुर कौन कहावे साहु?गोरखनाथ जीवन का उद्देश्य वीर्यरक्षा मानते थे, इस हद तक कि स्त्रीयोनि का नाम लेकर कहते थे -भगुबाघिन रो, भगु बाघिन रो, बिनुदंता जग खाया।कबीर के प्रसिद्ध पद-मन न रँगाए, रँगाए जोगि कपड़ा में एक पंक्ति है - काम जराय जोगी, हो गइले हिजड़ा। कबीर न भोगवादी थे, न पलायनवादी। स्वस्थ, सरल और शुद्ध नैतिक जीवन गृहस्थ का ही हो सकता है, इस बात को कबीर ने अपनी रहनी से प्रमाणित कर दिया। साधु के वेश में संसार के गंभीर दायित्वों से पलायन करने वाले परजीवी वे नहीं थे। कठिन श्रम से जीविकोपार्जन करते हुए सबके हित की चिन्ता करना, सबके भ्रम जाल को काटने के लिये उनको समझाया और जो दलित सब ओर से वंचित शोषित हैं, उनके पक्ष में खड़े होकर बड़े से बड़े को चुनौती देना-यही कबीर का स्वभाव था। गृहस्थ का जीवन अपनाने के बावजूद गृहस्थी की माया को काटने का सतत्‌ प्रयास करने वाले कबीर ही कह सकते थे - मैं घर जारा आपना, लिये लुकाठा हाथ।/जो घर फूकै आपना, सो चले हमारे साथ॥स्वयं सत्य का शोधन करने की - आत्मदीपो भव की परम्परा हमारे यहाँ अपरिचित नहीं है। जे० कृष्णामूर्ति जैसे गंभीर विचारक मानते हैं कि कोई किसी का गुरु नहीं हो सकता, व्यक्ति को स्वयं सत्य तक - मुक्ति तक पहुँचना होता है।कबीर गुरु-महिमा को लोक में सर्वाधिक प्रतिष्ठित करने वाले साधक हैं - गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय।/कह कबीर गुरु अपने जिन गोविन्द दियो लखाय॥ऊपर से देखने पर लग सकता है कि निम्न श्रेणी की जनता का आत्मदीप होना और गुरु को गोविन्द से भी अधिक मानना परस्पर विरोधी बातें हैं, परन्तु गम्भीर विचार करने पर स्थिति स्पष्ट हो जाती है। पहली बात तो यह कि गुरु होने का धन्धा करने वालों से कबीर बचने की बात करते हैं - अंधे अंधा ठेलिया, दोऊ कूप पड़ंत।
वे सामान्य जन की तरह लोक और वेद के पीछे मुक्ति की तलाश करते घूम रहे थे कि सामने से आकर गुरु ने उनके हाथ में दीपक पकड़ा दिया - पाछे पाछे जाइया, लोक वेद के साथ।/आगे तें सदगुरु, दीपक दीया हाथ॥इससे यह दो बातें साफ प्रमाणित होती हैं - पहली तो यह कि शिष्य की यह क्षमता नहीं कि वह योग्य गुरु को खोजकर पा ले। नैतिक आचरण के साथ परम तत्त्व की खोज में लगा रहे तो गुरु स्वयं आकर शिष्य को खोज लेते हैं। दूसरी बात यह कि गुरु का काम शिष्य के हाथ में दीपक पकड़ा देना है, उसके प्रकाश में अपना मार्ग देखकर आगे की यात्रा शिष्य स्वयं करेगा।गोविंद से बड़ा गुरु को बताने का रहस्य यह है कि परमसत्ता के पास मन नहीं होता। मन माया की सृष्टि है। मनुष्य मन से ही जगत्‌प्रपंच की रचना कर सकता है। यह तुलसी और कबीर के साक्ष्य पर देखा जा चुका है। संत की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि उसके मन में किसी के लिए अपने पराये का भेद नहीं होता, उसका मन प्रपंच से ऊपर उठा होता है, सबके कल्याण की कामना से भरा होता है, अपने लिए उसकी कोई इच्छा नहीं होती, इसलिए वह परमसत्ता के अर्थात्‌ मूलतत्त्व के निकटतम होता है। यदि ऐसा संत गुरु - किसी व्यक्ति के कल्याण की बात जरा सा भी सोच ले तो उसका परम कल्याण होना ही है। परमतत्त्व-परमात्मा तक पहुँचना सम्भव नहीं, इसलिए मनुष्य के पास गुरु परमात्मा से भी बड़ा है।

डॉ० धर्मवीर की इस बात में सत्यांश है कि ब्राह्मणवादी समीक्षकों ने कबीर के दर्शन और सामाजिक संदेश के प्रति तनिक भी सम्मान नहीं बरता। यह ठीक न होता तो आज भी कबीर की जाति को लेकर आचार्यों के बीच बहस नहीं हो रही होती। दलित का क्षोभ और आक्रोश स्वाभाविक है। आज भी कबीर के व्यक्तित्व और कृतित्व का वास्तविक मूल्यांकन नहीं हुआ है तो इसका कारण समीक्षकों और इतिहासकारों की सीमित समझ है। जिनके लिए कबीर ने पूरी व्यवस्था को ललकार दिया, उनको आज तक इस व्यवस्था में उनकी असली जगह नहीं मिली तो उनका आक्रोश स्वाभाविक है। आक्रोश में बुद्धिमान व्यक्ति भी अतिश्योक्ति का शिकार हो जाता है, अन्यथा डॉ० धर्मवीर को रामचन्द्र शुक्ल की यह बात याद रहती कि मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में उन्होंने (कबीर ने) आत्मगौरव का भाव जगाया और भक्ति के ऊँचे से ऊँचे सोपान की ओर बढ़ने के लिए बढ़ावा दिया।16अभिलाष दास ने लिखा है कि (कबीर की दृष्टि में) यह चेतन जीव ही परम तत्त्व है। सारी कला कल्पनाएँ, सारे ज्ञान-विज्ञान इसी के हैं। जीव ही ईश्वर ब्रह्म, देवी-देवता तथा भूत-प्रेत की कल्पना करने वाला तथा वेद, बाइबिल, कुरान अनेक शास्त्रों का रचने वाला है। अतः जीव ही सर्वोपरि है। सद्गुरु (कबीर) पहली रमैनी में कहते हैं - एक जीव कित कहहुँ अखानी अर्थात्‌ एक जीव ही सत्य है, मैं विशेष वर्णन करके क्या कहूँ?17जैसे-जैसे मानव की विकास-यात्रा पूर्ण मनुष्यत्व की ओर अग्रसर होती जायेगी, कबीर वाणी का महत्त्व बढ़ता जायेगा। संसार को बेहतर बनाने की चिन्ता करने वालों के लिए कबीर की प्रासंगिकता भी बढ़ती जायेगी।
सन्दर्भ-ग्रन्थ
4. हिन्दी साहित्य की भूमिका, संस्करण १९५९, पृ० ६८
५. वही, पृ० २५-२६
६. वही, पृ० १५७. सरोजस्मृति
८. पत्रावली, प्रथम संस्करण, पृ० २८३
९. वही, प्रमदा दास मित्र को लिखे पत्र में, पृ० ४२
१०. वही, पृ० २८७ और २७१
११. वही, पृ० ७५
१२. वही, भूमिका
१३. बीजक, पृ० ७६
१४. वही, पृ० ७६
१५. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ० ७८
16. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ० ६७
17. कबीरःव्यक्तित्त्व और कर्तृव्य, पृ० १०७

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कबीर का सच

प्रो० रामदेव शुक्ल
आधुनिकता का एक शौक है, प्रत्येक सृजन की प्रासंगिकता की तलाश। मनोरंजक प्रश्न हो सकता है कि प्रासंगिकता की प्रासंगिकता क्या है? जो बात, विचार या वस्तु अभी हमारे लिए अतिउपयोगी अर्थात्‌ अतिप्रासंगिक दीख रही है, क्या पहले भी इसी रूप में स्वीकृत होने का उसका इतिहास है? जिसे हम क्लासिकल सृजन के रूप में शिरोधार्य करते हैं, उसका इतिहास तो प्रायः बताता है कि समकालीन विचारकों में उसे अप्रासंगिक सिद्ध करने की होड़ लगी हुई थी। इसका उल्टा भी होता आया है। जो एक समय प्रासंगिक माना गया, उसे आने वाले समय ने अप्रासंगिक करार देकर ठुकरा दिया। क्लासिक की प्रासंगिकता आने वाले प्रत्येक नये सन्दर्भ में, युग में, नये सिरे से रेखांकित की जाती रही है। कम होने के स्थान नर वह बढ़ती चली जाती है। वह क्या है जो हर पीढ़ी को अपना लगता है?कबीर कहते हैं - ''सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।/जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप॥''सच्चा होना, सच्चा बने रहना, इससे बढ़कर कोई तप नहीं है।

सच (सत्य) की दार्शनिक व्याख्या और परिभाषा और भी जटिल है। सत्य का मुख हिरण्यमय पात्र से आवृत रहता है। ईशावास्योपनिषद की इस घोषणा को लेकर कामायनी के इस कथन-सत्य ! आह ! यह एक शब्द ! तू कितना बड़ा हुआ है !/मेधा के क्रीड़ा-पंजर का पाला हुआ सुवा है। तक को ध्यान में रखें तो इस पर सोचने की हिम्मत नहीं होगी। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में जब सत्य को मेधा के खेल का पिंजरबद्ध तोता कहा था, तब उनकी कल्पना में यह कहाँ था कि राष्ट्रीय सम्पत्ति हजम कर जाने वाले अक्षम्य अपराधी उनके हित में खड़े वकीलों की सत्यक्रीड़ा के बल पर पलभर में छूट जाते हैं।अतः कबीर या किसी मध्यकालीन संत के सन्दर्भ में 'सच' या 'साँच' पर विचार करें तो मेधा के खेल से दूर रहकर ही करें। संतों का 'सच' खेल नहीं है, चाहे बुद्धि-वैभव का ही क्यों न हो। वह सच एक ओर शिशु का सच है जो सच के अतिरिक्त कुछ जानता ही नहीं, तो दूसरी ओर उस साहसी शूर का सच है, जिस पर चलकर वह हँसते-हँसते अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देता है। वह 'सच' इतना बड़ा है कि उसके बाहर कुछ है ही नहीं। जो 'सच' से इतर है, उसका अस्तित्व सम्भव नहीं। तब आज जो जगत्‌-व्यवहार झूठ पर ही चल रहा है, उसका क्या करें ? जरा सा सावधान होकर विचार करें, तो इसे 'मिथ्या-व्यवहार' का रहस्य खुल जायेगा। पहली बात तो यह कि 'सत्य और असत्य' ये दो स्थितियाँ नहीं होतीं। असत्य तो हो ही नहीं सकता, जो हो सकता है, वह केवल 'सच' ही होगा। इसी अर्थ में आदि शंकराचार्य ने ब्रह्म के अतिरिक्त सब कुछ को 'मिथ्या' कहा। ध्यातव्य है 'मिथ्या' कहा, 'असत्य' नहीं। 'मिथ्या' शब्द बड़े काम का है। 'मिथ्या' उस 'वस्तु या प्रतीति' को कहते हैं, जो जिस रूप में सच है, उससे भिन्न रूप में दिखाई दे रहा है। इसके परम्परागत उदाहरण रज्जु-सर्प, मृगवारि आदि हैं। आज की सुपरिचित उदाहरण सिनेमाटोग्राफी का है। पर्दे पर जो दिखाई पड़ रहा है, वह वही नहीं है, जिस रूप में वह हर समय हो रहा है। हमारी दृष्टिक्षमता की विशेषता यह है कि जो बिम्ब एक सेकेंड में बीस या उससे अधिक बार हमारी आँखों के सामने से गुजरेगा, उसे अनवरत रूप में ही हमारा मस्तिष्क ग्रहण करेगा। यह प्राकृतिक नियम जिसने समझ लिया, वह इस विज्ञान का आविष्कारक हो गया। सिनेमा निर्माता की कृति को देखकर दर्शक भावविभोर होकर रोता, हँसता है। जिस पात्र को ईश्वरावतार राम, कृष्ण के रूप में देखकर भोले दर्शक श्रद्धाभिभूत में रह जाते हैं, उसी समय वह अभिनेता कहीं बैठा शराब पी रहा होता है या किसी दूसरी फिल्म में किसी की हत्या कर रहा होता है।
यह सारा जगत्‌ प्रपंच इसी तरह चलता है। जो 'है' वह दिखता नहीं, जो दिखता है, वह 'हो' नहीं सकता। उसका होना सम्भव नहीं है। उसे सम्भव बनाती है टेक्नॉलाजी। मध्यकालीन शब्द 'माया'।कबीर का एक दोहा है - ''माया ते मन ऊपजे, मन ते दस अवतार।/बरमा बिसनू के धोखे में, भरम परा संसार॥''

संतो की दृष्टि में माया पर विचार करते हुए शोधकर्त्ताओं ने बहुत कुछ लिखा है। उस घटाटोप को छोड़ दें तो उपर्युक्त दोहे के आधार पर देखा जा सकता है कि कबीर माया को ही सब कुछ उत्पन्न करने वाली मानते हैं। सांख्य दर्शन माया को 'प्रसवधर्मिणी' मानकर कहता है कि सत्य, रजस्‌ तमस तीनो एकत्र होकर कार्यसम्पादन करते हैं।१ कबीर मानते हैं कि सारी सृष्टि माया से उत्पन्न हुई है। वे इसकी प्रक्रिया भी बताते हैं कि माया ने सबसे पहले 'मन' को उत्पन्न किया। इसी 'मन' से दस अवतार उत्पन्न हुए। संसार के सामान्य लोग इस धोखे में पड़े हुए हैं कि इस संसार को ब्रह्मा और विष्णु ने बनाया। अवतार की अवधारणा पर विचार करने वाले लोग भी यह मानते हैं कि मनुष्य अपने को ही सामने रखकर ईश्वर की कल्पना करता है। सौन्दर्य, शक्ति और शील के प्रति सभी आकृष्ट होते हैं। इन तीनों का परम उत्कर्ष जिस काल्पनिक 'व्यक्ति' में एकत्र दिखाई देता है, उसी को परमात्मा मान लिया जाता है। मनुष्य के 'मन' द्वारा सीमित अवतार मनुष्य रूप होते हैं, या भिन्न होकर भी कार्य मनुष्य के समान ही करते हैं। इसी सन्दर्भ में एक यूनानी दार्शनिक का कहना है कि यदि हम घोड़ों की भाषा और उनकी ईश्वर सम्बन्धी अवधारणा को समझ पाते तो जानते कि उनका ईश्वर एक सुन्दर शक्तिशाली घोड़ा है।
मन द्वारा सृष्टि-रचना को प्रायः संत और अधिकांश भक्त कवियों ने अपनी अपनी शैली में वर्णित किया है। तुलसीदास 'विनय पत्रिका' में कहते हैं - ''जौ निज मन परिहरे विकारा।/तौ कत द्वैतजनित संसृति दुख संशय शोक अपारा।/विटप मध्य पुतरिका, सूत मँह कंचुक बिनहिं बनाए।/मन मँह तथा लीन नाना तनु प्रकटत अवसर पाए॥''
वृक्ष की लकड़ी में सभी आकार छिपे होते हैं, जब जैसा चाहता है, बढ़ई उसमें से निकाल लेता है। सूत में सभी प्रकार के वस्त्रा छिपे हैं, बुनकर और दर्जी उसे जब जो रूप चाहें, दे देते हैं। उसी प्रकार 'मन' में अगणित शरीर छिपे रहते हैं। अगाध अथाह मन जब जैसा शरीर चाहे प्रकट कर लेता है। मनुष्य मन की इच्छा से ही सक्रिय होता है।
कबीर अन्यत्र 'माया' और 'मन' को एक बताते हुए 'मन' की अनन्तता, अगधता की बात कहते हैं - ई मन चंचल, ई मन चोर, ई मन सुद्ध ठगहार।/मन मन करते सुर नर मुनि जँहड़े, मन के लच्छ दुवार॥यह मन चंचल है, यह मन चोर है, यह मन शुद्ध ठगी करने वाला है। सुर, नर, मुनि मन-मन करते जकड़े हुए हैं, जबकि मन के लाखों द्वार हैं। यहाँ 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः' की व्याख्या देखी जा सकती है। सुर, नर, मुनि जिस मन के कारण जकड़े हुए हैं, उसी मन के लाखों द्वार भी हैं - मन माया तो एक है, माया मनहि समाय।/तीन लोक संसय परी, मैं काहि कहौं समुझाय॥
माया न सिर्फ मन की सृष्टि करती है, बल्कि वह मन से अभिन्न है। मन की रचना करके माया उसी में समा जाती है। इसी कारण तीनों लोकों के प्राणी संशय में पड़े रहते हैं। मैं किस-किस को इस संशय अर्थात्‌ माया-रचित सृष्टि का रहस्य समझाऊँ ?एक अन्य रूपक में कबीर मन को अगाध सागर और मनसा अर्थात्‌ इच्छाओं को लहरें बताते हुए कहते हैं कि अधिकांश तो डूब ही जाते हैं, वही तैर पाता है, जिसके हृदय में विवेक जाग्रत रहता है - मन सागर, मनसा लहरि, बूड़े बहुत अचेत।/कहैं कबीर ते बाँचि है, जाके हृदय विवेक॥
जगत संशयग्रस्त होकर खण्डित हो जाता है। संशय का खंडन कोई नहीं कर सकता है, संशय का खण्डन वही कर सकता है, जो शब्दविवेकी हो - संशय सब जग खण्डिया, संसय खण्डे कोय।/संशय खण्डे सो जना, जो सबदविवेकी होय॥
गुरुकृपा से संशय खण्डित करने वाला शब्दविवेक हो जाने पर जब सच का बोध हो जाता है, तब पता चलता है कि सारा जगत प्रपंच झूठा है। सभी लोग इसी झूठ के जाल में उलझे हुए हैं और मान रहे हैं कि वे ही ठीक हैं। कबीर बताते हैं कि - झूठ बँधायो आना, झूठी बात साँच कै जाना।/धंधे बंध कीन्हें बहुतेरा करम बिवरजित रहै न नेरा॥/खट आस्रम खट दरसन कीन्हां। खटरस बांटि करम संगि दीन्हां॥/चार वेद छ सास्त्रा बखानै। विद्या अनंत कथे को जाने॥/तप तीरथ कीन्हें ब्रत पूजा। धरम नेम दान पुनि दूजा॥/और अगम कीन्हें बेवहारा। नहिं गमि सूझै वार न पारा॥/माया मोह धन जोबना, इनि बंधे सब लोई॥/झूठै झूठै बेयापिया, अलख न लखई कोइ॥
माया, मोह, धन, यौवन इन्हीं को सच मानकर लोग भ्रम में पड़े हुए हैं, झूठ ही झूठ सर्वत्र व्याप्त हो गया है, जिस परम सत्य को, अलख को देखने से झूठ का यह फंदा कट जायेगा, उसे देखने का प्रयत्न कोई नहीं करता।ब्रह्म, जीव, माया, जगत्‌ इन सब पर संतसाहित्य में गंभीर विचार के लिए पूरी सामग्री भरी पड़ी है और शोधकर्त्ता बहुत कुछ लिखते पढ़ते रहते हैं।

संत साहित्य में, विशेषतः कबीर-बानी में अवगाहन करने पर एक बात का पक्का निश्चय हो जाता है कि वहाँ पुस्तकाधारित ज्ञान को महत्त्व नहीं दिया गया है, इसीलिए ब्रह्म, जीव, माया आदि का तात्विक विवेचन करने के लिए अलग से कुछ नहीं कहा गया है। कबीर की चिन्ता यह नहीं है कि लोग उन्हें ज्ञानी के रूप में जानें और मानें। कबीर की चिन्ता के केन्द्र में है, सामान्यजन, जो एक ओर अज्ञान के कारण झूठ की चक्की में पीसा जा रहा है और दूसरी ओर काजी, मुल्ला, पंडा, पुरोहित के जाल में उलझाया जाकर दम तोड़ रहा है। कबीर सबको ज्ञानी बनाने का संकल्प करके भी नहीं चल रहे थे। उनका उद्देश्य, मात्र इतना था कि इन दो पाटों के बीच पीसी जा रही साधारण जनता को काजी-मुल्ला, पंडा-पुरोहित द्वारा फैलाए गये अज्ञान से मुक्त कराकर सच्चाई से जोड़ दें। इसीलिए वे ब्रह्म जीव, माया आदि का रहस्य सामान्यजन को बताते चल रहे थे, उन्हीं की बोली बानी में। उन्हीं के घरेलू उपकरणों का प्रयोग करके उन्हें समझा रहे थे।
मूर्तिपूजा की व्यर्थता बताने के लिए वे दरिद्र से दरिद्र किसान मजूर के घर की चक्की का उपयोग करके अपनी बात कहते हैं - पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजूं पहार।/घर की चाकी काहे न पूजे, जासे पीस खाय संसार॥
औसत आदमी छल कपट करता हुआ जो चतुराई करता रहता है, उसे कबीर जला देना चाहते हैं - जारौं मैं या जग की चतुराई।/माया जोरि कै करै इकट्ठी, हम खैहें लरिका व्यौसाई।/सो धन चोर मूसि लै जइहें, रहा सहा लै जाइ जंवाई॥

अभावग्रस्त परिवारों में जामाता (दामाद) द्वारा ससुराल का दोहन करना गृहस्थ का सामान्य अनुभव है। कबीर कहते हैं कि छल प्रपंच करके जो धन कमाते हो, यह मानकर कि तुम भोगोगे, तुम्हारे बच्चे भोगेंगे, व्यवसाय करेंगे पर होगा यह कि चोर चुरा ले जायेंगे और जो बचेगा, उसे दामाद झटक ले जायेगा। तो जान लो, जिस धन के लिए तुम मनुष्यता छोड़ रहे हो उससे तुम्हें क्या मिलेगा ?जो मुक्ति भारतीय जीवन-पद्धति की सबसे बड़ी उपलब्धि बताई जाती है, उसी अलभ्य मुक्ति का कितना सस्ता सौदा प्रत्येक तीर्थ के पंडे करते है, उससे सबलोग परिचित हैं। किसी तीर्थ में स्नान करने से मुक्ति मिल जाती है, किसी में दान करने से मुक्ति मिल जाती है, किसी में सिर मुड़ाने से मिल जाती - इन सर्वथा झूठ बातों का प्रचार करके तीर्थपुरोहित साधारणजन का धन लूटते हैं। कबीर पूछते हैं, उसी गँवई किसान की भाषा में, कि सिर मुड़ाने से भगवान की प्राप्ति होती है, तो बार-बार मूड़ी जा रही भेड़ क्यों नहीं हरि को प्राप्त कर लेती ? जैसे - मूड़ मुड़ाये हरि मिले, तो सब कोई लेइ मुड़ाय।/बार बार के मूड़ते, क्यों भेड़ न बैकुंठ जाय॥

कबीर के ऐसे कथन लोक में बहुत प्रचलित हैं। इनका उल्लेख मैं इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि आप सबको इनसे परिचित कराना चाहता हूँ। परिचित तो आप हैं ही, इनका स्मरण करके मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि जो कबीर का सच है, जिसे वे सबसे बड़ा तप कहते हैं, वह दार्शनिक विवेचन से, शास्त्रार्थ से, तर्क से सिद्ध किया हुआ सत्य नहीं है। कबीर का सच शास्त्रज्ञान से अर्जित नहीं है। वह रोटी कपड़े के लिए संघर्ष कर रही जनता के दुख दर्द को हृदयंगम करने से उत्पन्न अनुभव के ताप से, आग में तपने से पाया हुआ सच है। इस सन्दर्भ में सर्वपल्ली डॉ० राधाकृष्णन की एक स्थापना स्मरणीय है। उनका मानना है कि शंकराचार्य तथा उनके परवर्ती आचार्यों के गंभीर दार्शनिक तत्त्वचिन्तन पांडित्य और तर्क की दृष्टि से अप्रतिम हैं किन्तु सामान्यजन द्वारा वे कभी गृहीत नहीं हो सके।२

इस बात को स्मरण रखना चाहिए कि कबीर और परवर्ती संतों ने, दार्शनिकों, धर्माचार्यों और शास्त्रविचक्षण पण्डितों का हमेशा मखौल उड़ाया है, क्योंकि उनकी कथनी और करनी में फर्क होता है।कबीर के सम्बन्ध में सदैव स्मरणीय तथ्य है कि वे सामान्यजन को मोहजाल से निकालने के लिए उन्हीं की बोली-बानी में, उन्हीं के मुहावरों-प्रतीकों में समझाते जरूर हैं, पर कभी न उन्हें फटकारते हैं, न उनका उपहास करते हैं, न उनको चुनौती देते हैं। कबीर सामान्यजन के बीच के हैं, उनके सुख-दुख परिचित हैं। उनको मोहजाल में फँसाए रखने वाले मुल्लामौलवी, पंडितपुरोहितों की असलियत अच्छी तरह जानते समझते हैं, इसलिए धर्म का धन्धा करने वाले आचरणभ्रष्ट मुल्लामौलवी और पंडेपुरोहितों को फटकारते भी हैं, उनका मखौल भी उड़ाते हैं और उनके ज्ञान को सदा चुनौती भी देते हैं - संतो राह दुहू हम दीठा।/हिन्दु तुरक हटा नहिं मानें, स्वाद सबन को मीठा॥/हिन्दु बरत एकादसि साधे, दूध सिंघारा सेती।/ .../इनको विहिस्त कहाँ से होवे, जो साँझे मुरगी मारे॥/हिन्दु की दया, मेहर तुरूकन की, दोनों घट से त्यागी।/ई हलाल, वे झटका मारें, आग दुनों घर लागी॥/हिन्दू तुरूक की एक राह है, सतगुरु सोई लखाई।/कहहि कबीर सुना हो सन्तों, राम न कहूँ खुदाई॥

सुगौती भोजपुरी में बकरे के माँस को कहते हैं। एकादशी के व्रत में दूध सिघाड़े का फलाहार करने वाले व्रत का पारण माँसाहार से करते हैं। मुल्ला जी अगले दिन रोजा रखने के लिए शाम को ही मुरगी हलाल करते हैं। दोनों स्वाद के गुलाम हैं, इंद्रियों के दास हैं - संतो पांड़े निपुन कसाई।/बकरा मारि भैंसा पै धावें, दिल में दर्द न आई।/करि असनान तिलक दै बैठें, विधि सों देव पुजाई।/ .../इन्हते दीक्षा सब कोई माँगे, हँसी आवै मोंहि भाई।/पाप कटन को कथा सुनावें, कर्म करावे नीचा।/हम तो दुवौ परस्पर देखा, जम लाए हैं धोखा।/गाय बधें से तुरूक कहिए, इनते वै क्या छोटे।/कहहिं कबीर सुनो हो संतो, कलि में बाभन खोटे॥वेद पुराण और कुरान का चाहे जितना पाठ करें, यदि आचार शुद्ध नहीं, तो नरक में जाना निश्चित - पंडित बेद पुराण पढ़ैं सब, मुसलमान कुराना।/कहें कबीर दोउ गए नरक में, जिन हरदम राम न जाना॥कसाई का काम करने वाले पंडित से वे कहते हैं - पंडित एक अचरज बड़ होई।/एक मरि मुए अन्न नहिं खाई, एक मरे सिझै रसोई।/करि असनान देवन की पूजा, नौ गुन कान्ह जनेऊ।/हँड़िया हाड़, हाड़ थरिया मुख, अब षटकरम बनेऊ।/धरम करे जहाँ जीउ बधतु है, अकरम करे मोर भाई।/जो तोहरा के बाभन कहिए, तो का को कहिए कसाई।

ऐसे क्रूरकर्मी ब्राह्मणों के प्रति जनसामान्य के मन में व्याप्त घृणा की यह अभिव्यक्ति है। ऐसा सोचा जाना अप्रासंगिक नहीं होगा कि आगे चलकर एक अति समर्थ कवि तुलसीदास को एक साथ कई मुद्दों पर लड़ना पड़ा। एक मुद्दा निर्गुण-सगुण का है। तुलसीदास घोषित करते हैं कि अगुनहि सगुनहिं नहिं कछु भेदा, उभय हरहि भव संभव खेदा।' किन्तु रामचरित मानस के उत्तरकांड में गरुण के मोह प्रसंग में मोहग्रस्त ज्ञानियों की चर्चा करते हुए कहते हैं - जे मतिमलिन विषयबस कामी। प्रभु पर मोह धरहिं इमि स्वामी॥/नयनदोष जा कँह जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई॥/जब जेहि दिसि भ्रम होई खगेसा। सो कह पच्छिम उगेउ दिनेसा॥/नौकारूढ़ चलत जग देखा। अचल मोहबस आपुहि लेखा॥/बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी। कहहि परसपर मिथ्यावादी॥/हरि विसइक अस मोह विहंगा। सपनेहुँ नहि अज्ञान प्रसंगा॥/मायाबस मतिमंद अभागी। हृदय जमनिका बहुविधि लागी॥/तो सठ हठबस संसय करहीं। निज अज्ञान राम पर धरहीं॥दूसरा दोहा देखिए - काम क्रोध मद लोभरत, गृहासक्त दुख रूप।/ते किमि जानहि रघुपतिहि, मूढ़ परे तम कूप॥/निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुन न जानहि कोइ।/सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनिमन भ्रम होइ॥३

मतिमलिन, विषयवश, कामी, मायावश, मतिमंद, अभागी, मिथ्यावादी, काम, क्रोध, मद, लोभरत, गृहासक्त, दुखरूप, मूढ़, तमकूप में पड़े हुए-ये विशेषण उन लोगों के लिए हैं, जो दशरथसुत राम के प्रति किसी तरह का संशय करते हैं। यहाँ कबीर का कथन स्मरण कर लेना चाहिए, दसरथ सुत तिहुलोक बखाना, रामनाम का मरम है आना। मानस के बालकाण्ड में सती को इसी तरह का भ्रम हुआ था कि पत्नी-वियोग में रुदन करने वाले राम परात्पर ब्रह्म कैसे हो सकते हैं? शिव ने उन्हें अज्ञानग्रस्त देखकर कह दिया कि जाकर परीक्षा ले लें। वे सीता का रूप धारण कर गयीं। राम ने उन्हें माता कहकर प्रणाम किया। शिव ने प्रतिज्ञा कर ली कि एहि तन सतिहि भेंट अब नाहीं। ठीक इसी तरह का भ्रम लंका के युद्धक्षेत्र में नागपाश काटने वाले गरुण को हो गया। भ्रम का निवारण काकभुशुंडि जी ने किया, यह बताकर कि उनसे भी इस तरह का प्रमाद हो गया था।
सन्दर्भ-
ग्रन्थ
१. सांख्य कारिका, १२, १३, २२
२. इण्डियन फिलॉस्फी, भाग-२, पृ० २२४-२५
३. उत्तरकांड, दो०, ९३

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Sunday, November 16, 2008

दिले-नामा

SEEMA GUPTA

इस दिल का दोगे साथ, कहाँ तक, ये तय करो !
फिर इसके बाद दर्ज, दिले-नामा-ए-बय करो !!
(दिले-नामा-ए-बय = दिल का विक्रय पत्र )(सेल डीड ऑफ हार्ट)

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