Saturday, December 20, 2008
कबीर की समाज सम्बन्धी विचारधारा
Friday, December 19, 2008
राही मासूम रजा का रचनात्मक व्यक्तित्व
सन् १९२७ का वर्ष जब कि, एक तरफ राष्ट्रीय आन्दोलन अपनी तीव्रता पर था, दूसरी तरफ साम्प्रदायिकता की अग्नि पूर्ण रूप से प्रज्ज्वलित हो चुकी थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में जिला गाजीपुर उत्तर प्रदेश के बुधही नामक गाँव में सैयद मासूम रजा का जन्म हुआ। बुधही मासूम रजा के मातृ पक्ष का गाँव था। ददिहाल के गाँव का नाम गंगौली है जो कि ग़ाजीपुर शहर से लगभग १२ किमी० की दूरी पर स्थित है, वास्तव में मासूम रजा के दादा आजमगढ़ स्थित ठेकमा बिजौली नामक गाँव के निवासी थे। दादी गंगौली के राजा मुनीर हसन की बहन थी। अपने दुहाजू पति यानी कि मासूम के दादा के साथ गंगौली में बस गयी। तदोपरान्त धीरे-धीरे परिवार में गंगौली का रंग रचता-बसता गया। मासूम रजा की निगाहें गंगौली में ही खुली ठेकमा बिजौली से कोई सम्बन्ध न रहा।
मासूम रजा के पिता श्री बशीर हसन आब्दी ग़ाजीपुर जिला कचहरी के प्रसिध्द वकील थे इसलिए पूरे परिवार का रहना-सहना और शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई, परन्तु मुहर्रम और ईद के द्वारा आब्दी परिवार मजबूरी के साथ गंगौली से जुड़ा हुआ था। श्री बशीर हसन आब्दी के वर्षों तक गाजीपुर में एक ख्याति प्राप्त अधिवक्ता के रूप में कार्य करने के कारण परिवार में सुख वैभव की कोई कमी नही इस लेख का शेष भाग राही विशेषांक में पढ़े.... http://rahimasoomraza.blogspot.com/2008/10/blog-post_7125.html इस पर क्लिक करें .और जानकारी प्राप्त करें.
कर्त्तव्य की उदात्तीकृत चेतना के संवाहक : कबीर
कबीर की कविता में भाव-लोक की समृद्धि उनके गहन अनुभवों तथा सुस्पष्टवादिता के कारण है। किसी भी प्रकार का दौर्बल्य कबीर को मान्य न था, तभी तो उनके काव्य में वक्रता में भी चारुता का दुर्लभ गुण है। भक्त कवियों में अकेले कबीर ऐसे हैं, जो कथ्य की उदात्त प्रवृत्ति के साथ संतुलन बनाए हुए हैं। उनका कथ्य ही इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसमें अवगाहन करते ही हृदय-तन्त्री के तार झंकृत हो उठते हैं, मन की वासनाएँ तार-तार हो जाती हैं, मनुष्यता का भाव-लोक लहलहा उठता है। कबीर के सम्बन्ध में काव्य-मर्मज्ञ त्रिालोचन का निम्नलिखित कथन बड़े महत्त्व का है - हिन्दी में कबीर अकेले ऐसे कवि हैं जो अपने ही कथ्य के कारण महत्त्वपूर्ण हैं। शास्त्र वे जानते नहीं थे और लोक के अनुबंधों की उन्होंने चिंता नहीं की। भाषा उनके द्वारा ऐसे रूप में आई है जिसे अनियमित पाकर पंडितों को खीझ होती है पर यह भाषा कथ्य के लिए इस प्रकार अनिवार्य है कि उसमें जरा भी संशोधन कथ्य को निस्तेज कर देगा। अनियमित हिन्दी के विभिन्न प्रदेशों के, विभिन्न नगरों में, भिन्न-भिन्न रूप सुनाई पड़ते हैं जिनका समर्थ उपयोग करने वाला कहीं एक भी कवि नहीं। यानी इतने सारे वादों विवादों के बाद भी हिन्दी के सिर चढ़ा मर्यादाबाद ज्यों का त्यों है।१
त्रिलोचन, कबीर के कथ्य की प्रशंसा ही नहीं करते, अपितु उनकी भाषा से भी अभिभूत होते हैं। आधुनिक हिन्दी-कवियों तथा मर्यादावादियों को त्रिलोचन की यह ललकार ध्यान से सुननी चाहिए।कबीर ने उन समस्त कुरीतियों का प्रतिरोध किया, जिन्होंने मनुष्यता का गला घोंट रखा है। आज के युग में जब व्यक्ति कर्त्तव्यच्युत तथा पथभ्रष्ट होकर निरन्तर पतनोन्मुख है, तो भी उनकी काव्य-धारा की वेगमयी लहरें कर्त्तव्य की उदात्तीकृत चेतना को प्रतिपादित कर रही हैं। वस्तुतः कबीर एक महामानव थे, जो मनुष्यता का समाज देखना चाहते थे। आज हिन्दू और मुसलमानों के बीच विभाजक रेखा खिंचती जा रही है, जिससे राष्ट्रीय एकता का यक्षप्रश्न भी उत्तर की प्रतीक्षा में है। आए दिन होने वाले साम्प्रदायिक दंगों ने भारतीय विचारकों को निराश-हताश किया है। कबीर ने हिन्दू-मुसलमानों को उनके रूढ़िगत विचारों के लिए न केवल फटकारा है, बल्कि इस बात पर भी चिन्ता प्रकट की है कि ये दोनों अभी सन्मार्ग पर क्यों नहीं हैं? निश्चय ही उनकी स्पष्टवादिता को साधुवाद देना होगा, क्योंकि उन्होंने पूर्ण प्रवेग तथा त्वरा के मध्य कथ्य का अद्भुत साम×जस्य प्रस्तुत किया। आत्म-सम्मोहन से ग्रस्त हिन्दुओं तथा मुसलमानों की विकृत जीवन-शैली को उन्होंने जमकर लताड़ा है - अरे इन दोहुन राह न पाई।/हिंदू अपनी करे बड़ाई गागर छुवन न देई।/वेस्या के पाइन-तर सोवै यह देखो हिंदुआई।/मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।/खाला केरी बेटी ब्याहैं घरहि में करै सगाई।/बाहर से इक मुर्दा लाये धोय-धाय चढ़वाई।/सब सखियाँ मिलि जेंवन बैंठी घर-भर करै बड़ाई।/हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।/कहैं कबीर सुनो भाई साधो कौन राह ह्वै जाई। २
धर्म के नाम पर पाखण्ड-प्रियता उन्हें प्रिय न थी। धर्म के नाम पर पाखण्ड करने वालों को उनकी दया का आश्रय नहीं मिला, बल्कि पाखण्डों को देखकर कबीर की आक्रामक शैली, व्यंग्य के नए तेवर के साथ प्रमुदित हुई। अपनी दृढ़ता के बल पर उन्होंने हर तरह के पाखण्ड का प्रखर विरोध किया। गंगा नहाने वालियों की आचरण-पद्धति को लक्ष्य कर उन्होंने व्यंग्य की धार में तीक्ष्णता ला दी है - चली है कुलबोरनी गंगा नहाय।/सतुवा कराइन बहुरी भुँजाइन, घूंघट ओटे भसकत जाय।/गठरी बाँधिन मोटरी बाँधिन, खसम के मूंड़े दिहिन धराय।/बिछुवा पहिरिन औंठा पहिरिन, लात खसम के मारिन धाय।/गंगा न्हाइन जमुना न्हाइनउ नौ मन मैल लिहिन चढ़ाय।/पाँच-पचीस कै धक्का खाइन, घरहुँ की पूँजी आई गँवाय।/कहत कबीर हेत कर गुरु सों, नहीं तोर मुकुती जाइ नसाय॥३
आज समाज में जातिवादी दुराग्रह ने हर बुद्धिजीवी को परेशान कर रखा है। स्थान-स्थान पर जातिवादी संकीर्णता की दुर्गन्ध मनुष्यता की सुरभि को पद दलित किए हुए है। ऐसे में हमारा ध्यान अनायास ही कबीर की ओर जाता है। ऊँच-नीच का भेद-भाव उनको मान्य न था। वे तो कर्त्तव्य की शुचिताजन्य उच्चता का उद्घोष करते हैं, जिससे जनजीवन का मार्ग सुगम और सरस होता है। सुरा से आपूरित स्वर्ण-पात्रा को निन्द्य ठहराने के पीछे उनका ध्येय कर्त्तव्य की उदात्तीकृत चेतना को पुष्ट करना ही है - ऊँचे कुल क्या जनमियाँ, जे करणीं ऊँच न होइ।/सोवन कलस सुरे भर्या, साधूँ निंद्या सोइ॥४संत कवियों में उनकी भाव-बोधिनी तथा विचार-प्रबोधिनी शक्ति अनूठी है। गुरु-शिष्य की सम्बन्धशीलता के महत्त्व से परिचित कबीर ने उन गुरु-शिष्यों को कठघरे में खड़ा किया है, जो अन्ध श्रद्धाजनित आस्था से परिचालित हैं तथा विवेकहीन हैं अथवा गतानुगतिकता के संजाल से मुक्त नहीं हैं। ऐसे गुरु-शिष्यों को उनकी इस साखी का आभार मानना चाहिए - जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।/अंधा अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत।''५
कबीर की साधना-पद्धति भी प्रयोग पर आधारित है। इसका अर्थ है कि कबीर जीवन के व्यावहारिक पक्ष को ही सर्वश्रेष्ठ मानते थे। उन्होंने धर्म से उत्पन्न उन खतरों से भी जनमानस को सावधान किया था, जो जीवन में प्रदूषण का कार्य करते हैं। कबीर, जीवन-पर्यावरण के शोधक हैं, अन्वेषक हैं, आविष्कारक हैं। असल में उनकी प्रासंगिकता पहले से भी अधिक है। यदि मनुष्यता को जीवित रखना है, तो हमें एक बार नहीं, सौ बार कबीर के काव्य में अवगाहन करना होगा, तभी हम सभ्य और शिष्ट मनुष्यता का साक्षात्कार कर सकेंगे।
कलकत्ता का प्रेम
-तसलीमा नसरीन
तुम सिर्फ़ तीस के लगते हो, वैसे तुम हो तिरसठ के !
बहरहाल, तिरसठ के हो या तीस के, किसी को क्या फ़र्क़ पड़ता है ?
तुम, तुम हो; तुम जैसे; ठीक वैसे, जैसा तुम्हें फबता है।
जब-जब झाँकती हूँ, तुम्हारी युगल आँखों में
लगता है, पहचानती हूँ उन आँखों को दो हज़ार वर्षों से !
होठ या चिबुक, हाथ या उँगलियाँ,
जिस पर भी पड़ती है निगाह, लगता है पहचानती हूँ इन्हें।
हो हज़ार क्यों, इससे भी काफ़ी पहले से पहचान है मेरी,
इतनी गहरी है पहचान कि लगता है, जब चाहूँ छू सकती हूँ उन्हें,
किसी भी वक़्त,
रात या दोपहर, यहाँ तक कि आधी-आधी रात को भी !
यह भी लगता है जैसे चाहूँ, उनमें पुलक जगा सकती हूँ,
रात जगा सकती हूँ,
चिमटी काट सकती हूँ, चूम सकती हूँ, मानो वे सब मेरे कुछ लगते हैं।
तीस-तीस साल के लगनेवाले मेरे अहसासों की तरफ तुमने,
देखा है कई-कई बार,
लेकिन कुछ कहा नहीं !
जब मैं फुर्र हो रही थी, सिर्फ़ तभी
तुमने मेरे दोनों हाथों में भर दिए गुलाब ही गुलाब !
अब कैसे लगाऊँ गुलाबों का कोई अलग अर्थ ?
गुलाब तो आजकल, महज रस्म के तौर पर नज़र करता है,
हर कोई किसी को भी !
लेकिन मुझे तो तुम्हारे कुछ कहने का इन्तज़ार था,
लेकिन कुछ नहीं कहा तुमने,
मैं परखती रही, शायद मन ही मन कुछ कहो,
लेकिन नहीं, तुमने कुछ भी नहीं कहा !
क्यों ?
उम्र गुज़र जाए, तो क्या प्यार नहीं किया जाता ?
Thursday, December 18, 2008
कबीर पंथ और सदगुरु कबीर
डॉ० एम. फ़ीरोज
भाषा विज्ञान की दृष्टि से पंथ शब्द के सन्दर्भ में उपर्युक्त तीनों शब्दों पर विचार किया जाय तो पंथ शब्द का मूल रूप पथिन और पंथिक से विकसित हुआ जान पड़ता है।भक्तिकालीन साहित्य में पंथ शब्द विभिन्न अर्थ में प्रयोग हुआ है। सूफियों ने इस शब्द को जीवन के अर्थ में प्रयुक्त किया है। सूफी कवि जायसी भी पद्मावत में पंथ शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में करते हैं। जैसे - निरमन पंथ कीन्ह ते, जेई दिया किहु हाथ,/किहु न कोई ले जाई, दिया जाई पै साध।५ इस पंक्ति में जायसी ने दान की महत्ता बताते हुए पंथ शब्द का प्रयोग जीवन पथ या जीवन पद्धति के अर्थ में करते हैं।पंथ शब्द का सामान्य प्रयोग मार्ग के अर्थ में ही हुआ है। गोस्वामी तुलसी दास जी ने मार्ग के पर्याय के रूप में पंथ शब्द का प्रयोग बहुलता से किया है। जैसे - अगम पंथम बन भूमि पहारा/केरि केहरि सर सरित अपारा।६
पंथ शब्द का प्रयोग सन्तों ने भी अपने साहित्य में जगह-जगह पर प्रयोग किया है। इसके साथ-साथ पथ शब्द का प्रयोग भी कहीं-कहीं पर देखने को मिल जाता है। इन सन्तों ने पंथ और पथ शब्दों को जीवन की आध्यात्मिक दिशा के अर्थ में भी प्रायः प्रयोग किया है। जैसे - हम नाथ पथ प्रकाश करि है। जीवन धोखा लावई।सन्त कबीर दास ने पंथ शब्द का प्रयोग आध्यात्मिक मार्ग के अर्थ में ही करते हैं। जैसे - अगम पंथ को पग धरै,/गिरै तो कहा समाय।७साहित्य और समाज में पंथ शब्द अपने विभिन्न अर्थ सन्दर्भों में प्रयुक्त होते हुए संत साहित्य के पड़ाव तक आते-आते पारिभाषिक स्वरूप ग्रहण कर लिया। सन्त परम्परा में पंथ शब्द विशेष साधना मार्ग की ओर संकेत करता हुआ एक विशिष्ट जीवन पद्धति को स्पष्ट करता है एवं धार्मिक मत या सम्प्रदाय के अर्थ में रूढ़ हो गया। कोई ऐसा धार्मिक मत या सम्प्रदाय जिसमें किसी विशिष्ट प्रकार की उपासना या साधना पद्धति प्रचलित हो, पंथ कहलाता है।८ जैसे - नानक पंथ, दरिया पंथ, दादू पंथ, रैदास पंथ, कबीर पंथ आदि।
पंथ या सम्प्रदाय विशेष के अन्तर्गत बाह्याचार और साधना पद्धति - मुख्य रूप से होती हैं। आचार पक्ष में पंथ की रहनी, दैनिक क्रियाएं आदि का समावेश पाया जाता है तथा साधना पद्धति में ईश्वरोन्मुख दृष्टि एवं उसे प्राप्त करने के साधन वर्णित होते हैं। पंथ के दार्शनिक सिद्धान्तों में ब्रह्म का निरूपण, माया, जीव एवं जगत की व्याख्या भी पंथ के अनुसार ही होती है।प्रायः यह देखा जाता है कि किसी पंथ विशेष के धर्माचार्य को अपने सिद्धान्तों और नियमों के प्रचार-प्रसार की इच्छा जाग्रत हो जाती है, वह चाहता है कि उसके सिद्धान्तों से समाज अधिकाधिक प्रभावित हो। इसलिए वह अपने सिद्धान्तों के प्रचार के लिए संगठन तैयार करता है और किसी योग्य उत्तराधिकारी को नियुक्त करता है, जो उस पंथ विशेष के सिद्धान्तों का समाज में प्रचार-प्रसार करता है और पंथ के अनुयायियों में वृद्धि करता है। इस प्रकार पंथ के प्रचार-प्रसार की सम्भावनायें बढ़ जाती है।कबीर के साहित्य के अध्ययन से यह आभास होता है कि कबीर किसी पंथ की स्थापना के पक्ष में नहीं थे न ही उन्होंने अपने जीवन में किसी पंथ का सूत्रापात अपने नाम पर होने दिया और न ही किसी मत के प्रचार-प्रसार की योजना का प्रयास किया। उन्होंने स्वयं उल्लेख किया है - मत कबीर काहू को थापै/मत काहू को मेरै हो।९
इस धारणा की पुष्टि कबीर के बीजक से भी हो जाती है। कबीर पंथ का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण धार्मिक ग्रन्थ बीजक माना जाता है। इस ग्रन्थ में कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं जिसके आधार पर विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि कबीर पंथ रचना के जबरदस्त विरोधी रहे होंगे। वे कहते हैं - ऐसो जोग न देखा भाई। भूला किरै लिए गफिलाई।/महादेव को पंथ चलावै। ऐसों बड़ो महन्त कहावै॥१०इस पंक्ति से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपने नाम पर उन्हीं के द्वारा पंथ चलाये जाने की बात असम्भव-सी है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि कबीर पंथ की स्थापना कबीर के मृत्यु के बाद हुई होगी। विद्वान कबीर पंथ की स्थापना कबीर के बाद उनके शिष्यों द्वारा ही मानते हैं।११ उपर्युक्त सन्दर्भ में इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि कबीर पंथ की स्थापना कब और कैसे हुई?प्रमाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता है कि कबीर के निधनोपरांत ही उनके समर्थकों ने कबीर पंथ की स्थापना की होगी। ऐसा माना जाता है कि सबसे पहले सन्तों में गुरु नानक ने ही पंथ-रचना का सूत्रापात किया था और उन्होंने उसके कुछ नियम भी बनाये थे। संभवतः नानकदेव के अनन्तर ही कबीर पंथ की स्थापना हुई होगी। भक्तमाल में धर्मदास को कबीर का शिष्य कहा है। इसलिए हो सकता है कि धर्मदास ने ही पंथ को व्यापक बनाने के लिए सर्वप्रथम ठोस कदम उठाया होगा।
ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जिसके आधार पर कबीर पंथ की प्रारम्भिक अवस्था पर प्रकाश डाला जा सके। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि धर्मदास ने ही सर्वप्रथम १७ वीं शताब्दी में किसी समय कबीर पंथ का संगठन किया होगा, जिससे प्रेरणा पाकर कबीर पंथ की कतिपय अन्य संगठन और व्यवस्था का भाव पैदा हुआ। धर्मदास ने कबीर के निधन के अनन्तर होने वाली बात का समर्थन स्वामी युगलानंद बिहारी के श्री भक्तमालन्तर्गत कबीर कथा से भी होता है, जिसमें कहा गया है कि कबीर ने मगहर में अन्तर्द्वान होने के पश्चात् धर्मदास को दर्शन दिया था। (कबीर और कबीर पंथ)ऐसा ज्ञात होता है कि धर्मदास के पूर्व कबीर के किसी भी शिष्य ने पंथ-निर्माण की विशेष आवश्यकता न समझी थी। कबीर पंथ को सुदृढ़ बनाने के लिए संभवतः धर्मदास ने अथक प्रयास किया होगा और १८ वीं शताब्दी में कबीर पंथ में अनेक साहित्य भी लिखे जाने लगे।कबीर पंथी साहित्य में इस बात की चर्चा की जाती है कि उन्होंने अपने चार शिष्यों को चारों दिशाओं में अपने मत के प्रचार के लिए भेजा था। जिनके नाम क्रमशः चतुर्भुज, वेकेजी, सहतेजी और धर्मदास। चतुर्भुज, वेकेजी और सहतेजी के विषय में कुछ ज्ञात नहीं होता अर्थात् पता नहीं चलता है। केवल धर्मदास के लिए प्रसिद्ध है कि उन्होंने इस पंथ की धर्मदासी शाखा का मध्यप्रदेश के अन्तर्गत प्रवर्तन किया था और यह भी अपनी विविध उपशाखाओं के रूप में प्रचलित है।१२घट रामायण और कबीर मन्शूर नामक ग्रन्थों से यह जान पड़ता है कि ये नाम क्रमशः नारायण दास, भागोदास, प्राणनाथ, जगजीवन दास, तत्वाजी तथा गरीब दास के हैं और इनके पंथ आज भी भिन्न-भिन्न प्रदेशों में प्रसिद्ध है।१३
कबीर पंथ की शाखाओं में से तीन शाखाओं का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। जैसे - काशी शाखा, छत्तीसगढ़ी शाखा एवं घनौती शाखा।कबीर पंथ की विशेष रूप से सर्वप्रसिद्ध शाखा काशी शाखा मानी जाती है। जिसके संस्थापक सुरतगोपाल कहे जाते हैं, जिनका नाम महान सन्त कवि कबीर दास के प्रमुख शिष्यों में भी लिया जाता है लेकिन संस्थापक के जीवन का कोई जीवन परिचय उपलब्ध नहीं है और न ही इस शाखा के मठ कबीर चौरा में मिलने वाली शिष्य परम्परा की सूची द्वारा ही उस पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस शाखा के अन्तर्गत उसके निकटवर्ती लहरतारा के मठ तथा बस्ती (उ०प्र०) के मगहर वाले मठ के भी नाम लिए जाते हैं तथा उसी के महन्त की अधीनता गया (बिहार) के कबीर बागवाले मठ तथा उड़ीसा के कुछ मठों वाले महन्त भी स्वीकार करते हैं।१४
कबीर पंथ की दूसरी प्रसिद्ध शाखा छत्तीसगढ़ी शाखा या धर्मदासी शाखा मानी जाती है। इसके संस्थापक धर्मदास कहे जाते हैं। धर्मदास को कबीर दास का एक प्रमुख शिष्य ही बताया जाता है।१५ जिस प्रकार सुरतगोपाल का जीवनवृत्त नहीं मिलता उसी प्रकार धर्मदास जी का भी। एक ग्रन्थ से पता चलता है कि खुद कबीर दास ने ही दो सौ वर्ष बाद पुनः धर्मदास के रूप में जन्म लिया था, कण्ठी तोड़ दी थी और कबीर पंथ चलाया था।१६ जो आगे चलकर १२ उपशाखाएं हुई। धर्मदासी या छत्तीसगढ़ी शाखा के एक प्रमुख केन्द्र घामखेड़ा तथा दूसरी का खरसिया है। छत्तीसगढ़ी की उपशाखाओं में ही कबीर चौरा मठ, जगदीशपुरी कबीर मठ हटकेसर और कबीर निर्णय मन्दिर तथा फतुहा मठ आदि है।उपर्युक्त दोनों प्रसिद्ध पंथ के बाद घनौती शाखा का नाम लिया जाता है। इसके संस्थापक भगवान गोसाई माने जाते हैं। इस शाखा को भगताही शाखा भी कहा जा सकता है। इसके संस्थापक को पिशौरा (बुन्देलखण्ड) का निवासी बताया जाता है। जिस प्रकार उपरोक्त दोनों संस्थापकों का जीवन परिचय का कोई प्रमाण नहीं मिलता है उसी प्रकार इनका भी नहीं मिलता है। एक विद्वान का अनुमान है कि कबीर दास के भ्रमण काल में सदा उनके साथ रहा करते थे और उनके समय-समय पर दिये गए उपदेशों को लिख लिया करते थे और उन्हें सुरक्षित भी रखते थे। फिर भी इनकी शिष्य परम्परा वाली सूची से ऐसी बात सिद्ध नहीं होती। इस शाखा का प्रमुख केन्द्र दानापुर (बिहार) में था लेकिन कुछ समय बाद घनौती चला गया। इसकी एक उपशाखा का लढ़िया स्थान में भी बताया जाता है।इन तीनों प्रमुख शाखाओं के अतिरिक्त कई और शाखाएं भी हैं जैसे - कबीर वंशी पंथ, रामकबीर पंथ, ऊदा पंथ, पनिका कबीर पंथ, द्वादश पंथ, साहेब दासी पंथ, मूल निरंजन पंथ, टकसारी पंथ, जीवा पंथ आदि ये पंथ भी पूरे देश में कहीं-कहीं पर दिखाई पड़ते हैं।
गुरु की महिमा का उल्लेख भारतीय साहित्य परम्परा में आरम्भ में ही दिखाई देता है। इस परम्परा ने सिद्धों और नाथों के यहाँ से आते-आते मध्ययुगीन साहित्य में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। भक्ति साहित्य में मनुष्य को मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले मार्गदर्शक और परमात्मा से आत्मा का साक्षात्कार कराने वाली दिव्य शक्ति के रूप में गुरु का स्मरण किया गया है। गुरु के दिव्य ज्ञान प्रकाश के समक्ष अज्ञानता एवं माया का तिमिर परास्त हो जाता है। गुरुत्व की महिमा का उल्लेख करते हुए मनु ने कहा है कि बालोऽपि विप्रो वृहस्य पिताभवति धर्मतः१७ यदि पुत्र ज्ञानी है, उसे विद्या के वास्तविक रूप का परिचय प्राप्त है तो वह गुरुत्व के कारण पिता से श्रेष्ठ है। स्पष्ट है कि गुरुत्व की महिमा से मण्डित होने के लिए आयु की अपेक्षा ज्ञान की अनिवार्यता है। परम ज्ञानी होने के कारण अह्यवज्र के प्रेमपंचक में गुरु को इती कहा गया है जो प्रज्ञा तथा उपाय की मध्यस्थता कर दोनों का मिलन कर देता है।१८ कौल साधना में गुरु का होना आवश्यक बताया गया है वह पथप्रदर्शक है। उसके अभाव में साधक सही मार्ग की ओर गमन करने में असमर्थ है। रुद्रमाल में वर्णित है कि - गुरुदेव परोमंत्रों गुरुरेव परो जपः/गुरुरेव परा विद्या नास्त्रिकिंचित गुरुं बिना।/यस्य तुष्टा गुरुदेव तस्य तुष्टा महेश्वरी।/येन सन्तोषितों देवि गुरु सं हि सदाशिवः॥१९
सन्त साहित्य में गुरु द्वारा उस सर्वव्यापी निर्गुण ब्रह्म के साक्षात्कार पर विशेष बल दिया गया है विशेषकर सन्त साहित्य की निर्गुण धारा ब्रह्म के स्वरूप को पहचानने के लिए गुरु के सहयोग को आवश्यक मानती है। यहाँ पर ज्ञान और भक्ति से मिश्रित गुरुमुख ज्ञान को विशेष रूप से स्वीकृति प्रदान की गयी है। इनका सद्गुरु सम्पूर्ण अध्यात्म और योग के समुद्र मंथन द्वारा प्राप्त सन्तों और भक्तों के लिए ग्राह्य सद्ज्ञान का ही ज्ञाता है। इनका दावा है कि सम्पूर्ण ज्ञानियों और भक्तों में से उनका सद्गुरु ज्ञान और भक्ति के सारतत्त्व के, उपयोगी स्वरूप को निकाल कर अब तक असाध्य एवं अनाविकृति में ज्ञान स्वरूप को संसार के सामने रखने में समर्थ हुआ है। गुरु की भक्ति का वास्तविक रहस्य कोई प्राणी क्या जान सकता है। यह तो ब्रह्मा, इन्द्र तथा महेश के लिए भी अगम्य है। वह जिस किसी को चाहे अलख कर दर्शन करा सकता है।निर्गुण साहित्य की सन्तधारा योग दर्शन से कतिपय प्रभावित दृष्टिगोचर होती है। गोरखनाथ आदि योगियों के यहाँ सद्गुरु की परम्परा प्राप्त होती है। गोरख के पदों को पढ़ने पर ज्ञात होता है कि गोरखनाथ जी के यहाँ सतगुरु शब्द का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। उनके गुरु के हृदय में सरस्वती स्वयं विराजमान हो प्रत्यक्ष ज्ञान को उच्चरित करती हैं। (बिनपुस्तक वंचिता पुरान सृर्स्वती उचारे ब्रह्मा गियान गो०वा०पृ० १७६) कहीं अरा सदगुरु जीवों का इस भवसागर से उद्धार करने वाला नाविक दिखाई पड़ता है। (गुरु हमारा नांवगर कहिये में हैं करम वियोग। गो०वाणी १६ पृ० २१२) गुरु की महिमा के विषय में गुरु नानक कहते हैं कि -गुरु का उपदेश सुनोगे तो तुम्हारी सोच हीरे मोती के गुणों से सम्पन्न होगी। (मति विचि रत्न जवाहर माणिक जो इस इक गुरु की सीख सुणी। जपुजी पृ० ५६) प्रत्येक मनुष्य के भीतर सदगुण निहित है परन्तु अज्ञानतावश बुद्धि उन सदगुणों का परिचय प्राप्त नहीं कर पाती ऐसे में गुरु का उपदेश ज्ञानलोक से उन सद्गुणों का परिचय कराता है इस प्रकार जीव आत्म परिचय प्राप्त कर पाने में समर्थ होता है।संत कबीर के यहाँ गुरु को परमात्मा से भी श्रेष्ठ सम्मान प्रदान किया गया है। क्योंकि उस परमसत्ता का परिचय कराने वाला तथा उस तक पहुँचाने वाला सतगुरु ही है। कबीर ने हरि रूठै गुरु ठौर है गुरु रूठै नहिं ठौर कहकर गुरु की महत्ता स्थापित की है। डॉ० राम कुमार वर्मा ने लिखा है कि -कबीर का गुरु में अटल विश्वास था। उन्होंने गुरु की वंदना अनेक प्रकार से की है। अपनी गुरु सेवा से ही उन्होंने भक्ति प्राप्त की थी। गुरु की प्राप्ति को वह ईश्वर कृपा के फलस्वरूप ही समझते थे।२० कबीर कोरे शास्त्रों, पुराणों या मात्र पुस्तकीय ज्ञान में विश्वास नहीं करते थे उनका मानना था -पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पण्डित भया न कोय। उनके यहाँ गुरु द्वारा दिये जाने वाले सदोपदेश ही वास्तविक ज्ञान हैं। गुरु के शब्दोपदेश से जीव का तत्त्व साक्षात्कार सम्भव होता है।
कबीर का मानना है सदगुरु के समान कोई अपना नहीं है क्योंकि वही हमें अज्ञान के तिमिर-गह्यर से बाहर निकाल सकता है। उसके समान कोई दानी भी नहीं है वह परम हितैषी परमात्मा का परिचय कराता है। उस ईश्वर के समान कोई दूसरा हितैषी नहीं हैं और भक्त से ऊँची कोई जाति नहीं हैं। जैसे - सतगुरु संवान को सगा, सोंधी सई नदाति।/हरिजी संवान को हितू हरिजन सई न जाति।२१कबीर योगमार्ग की ओर झुके हुए थे। उनके कुल में और कुल गुरु परम्परा में वह मार्ग प्रतिष्ठित था। बाद में उनका समागम रामानंद से हुआ। जिस दिन से महागुरु रामानन्द ने कबीर को भक्ति रूपी रसायन दी उस दिन से उन्होंने सहज समाधि की दीक्षा ली आँख मूंदने और नाक सूंघने के टंटे को नमस्कार कर लिया, मुद्राओं आसन की गुलामी को सलामी दे दी उनका चलना ही परिक्रमा हो गया काम का यही सेवा हो गये सोना ही प्रणाम बन गया बोलना ही नाम जप हो गया और खाने पीने ने ही पूजा का स्थान ले लिया। हठयोग के टंटे से दूर हो गये खुली आँखों से ही उन्होंने मधुर मादक रूप को देखा, खुले कानों से ही अनहद नाद सुना उठते बैठते सब समय, समाधि का आनन्द पाया और उत्पन्न उल्लास में आवेग में उन्होंने घोषित किया-साधो सहज समाधिभली/गुरु प्रताप जा दिन से उपजो, दिन-दिन अधिक चली।२२इस भ्रम जगत को सत्य मानकर जीव निरन्तर इसके आकर्षण में बंधता जाता है। जगत् नश्वर है, अतः उसके हाथों निराशा, दुःख, पीड़ा मात्रा ही आती है फिर भी अज्ञानतावश वह संसार की माया में बंधता जाता है यद्यपि सतगुरु के द्वारा बार-बार संसार के मिथ्या होने का संकेत मिलता है पर कुछ ही लोग है जो गुरु के इस ज्ञान को आत्मसात् कर पाते हैं और संसार के मायावी रूप को पहचान लेते हैं। उनके भीतर से इच्छायें समाप्त हो जाती हैं और वह इस जीवन मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं-माया दीपक नर पतंग भ्रमि-भ्रमि इवै पडंत/कहै कबीर गुरु ज्ञान थै एक आध उबरंत।२३
कबीर की दृष्टि में सच्चे गुरु से बढ़कर कोई भी वीर नहीं हैं। गुरु के लिए वैरागी शिष्य गर्म लोहे के समान है। जिस प्रकार गर्म लोहे पर प्रहार कर लोहार उसे आकृति प्रदान करता है उसी प्रकार सदगुरु ज्ञान की अग्नि में तपाकर शिष्य को कंचन बना देता है -सतगुरु साँचा सुरिवॉ तातै लोहि लुहार/कसणी से कंचन किया ताई लिया तत्सार।२४
कबीर अपने गुरु के प्रति हृदय से कृतज्ञ हैं। वह कभी उसे फकीर कभी साहब कभी सतगुरु कहकर सम्बोधित करते हैं फकीर इसलिए कहते हैं कि वह सांसारिक चिन्ता से मुक्त हैं वह परमात्मा से अपनी लौ लगा चुका है। ऐसे ही सच्चे गुरु ने उनकी सो रही आत्मा को शब्द से संगीतमय स्पर्श से जगा दिया है। अज्ञानता के कारण भवसागर में डूब रही जीवात्मा को समझाते हुए बॉह पकड़कर इस संसार सागर में डूबने से बचा लिया है। परमगुरु जिसका प्रत्येक शब्द मूल्यवान था उसने अपने मात्र एक ज्ञानयुक्त वचन से आत्मा को बंधन मुक्त कर दिया। सज्जनों से कबीर कहते हैं कि ऐसे ज्ञानी परमात्मा को प्राप्त कर चुके गुरु ने मेरे प्राण को इस सागर में डूबने से बचाते हुए पार लगा दिया -तोहि मोरि लगन लगाये रे फकीरवा।/सोवत ही मैं अपने मंदिर में सब्दन मारि जगाये रे फकीरवा॥/एकै बचन नहीं इजा तुम मोसे बंद छुड़ाये रे फकीरवा।/कहै कबीर सुनौ भई साधौ, प्रानन प्रान लगायै रे फकीरवा।२५कबीर ने गुरु को परमात्मा से भी बड़ा स्थान दिया है। उन्होंने यह स्पष्ट कह दिया कि सातों दीप और नौ खण्ड में खोज कर मैंने देख लिया मुझे सतगुरु से बड़ा कोई भी नहीं मिला। बहुत सम्पन्न और सब कुछ कर लेने वाला भी जिस कार्य को नहीं कर सकता वह कार्य गुरु द्वारा सम्पन्न किया जाना संभव है - तीन लोक नौ खण्ड में गुरु ते बड़ा न कोई।/करता करैन करिसकै गुरु करै सो होई।२८
यहाँ कर्ता से आशय ईश्वर से भी लिया जा सकता है कि वह परम सत्ता भी जो न कर सके वह कार्य गुरु द्वारा किया जाना संभव है अर्थात् परमात्मा के स्वरूप का स्पष्टीकरण गुरु ही करता है वही परम ब्रह्म तक जाने का मार्ग भी दिखाता है। कबीर ने सतगुरु के द्वारा प्राप्त होने वाले ज्ञान की उपयोगिता के साथ-साथ एक आदर्श शिष्य के गुणों पर भी विचार किया है यदि जीव जागना ही नहीं चाहेगा तो गुरु क्या कर सकता है वह अयोग्य शिष्य के संबंध में कहते हैं- सतगुरु बपुरा क्या करै जे सिषही मांहै चूक/भावै त्यं प्रमोघि ले, ज्यूं बंसि बजाई फूक।२७
सतगुरु की महिमा का बखान करने के साथ-साथ कबीर ने अयोग्य शिष्य और अयोग्य गुरु दोनों का उल्लेख किया है। अज्ञानता के वाहक दोनों ही विनाश की ओर अग्रसर होते हैं। जिसका गुरु अंधा है अर्थात् जिसने अन्तर्मन से साक्षात्कार नहीं किया है और शिष्य पूरी तरह अज्ञानी होने के कारण अंधा है ऐसे अज्ञानी गुरु और शिष्य की स्थिति एक दूसरे को ठेलते हुए अंधे कुएं में जाने वाली है -जाका गुरु भी अंधला चेलौ खरा निरंध/अंधौ अंधा ठेलिया ठूल्यूं कूप पडेत।२८कबीर अपने सतगुरु की महिमा और उसके लक्षण का उल्लेख करते हुए संसार के साधुजनों से कहते हैं कि मुझे तो सतगुरु भा गया, जो सत्नाम का प्याला पीता है और मुझे भी पिलाता है ब्रह्मरस को प्राप्त कर लिया है, मेरा सतगुरु सांसारिक ढकोसलों से दूर है न वह किसी धार्मिक मेले में जाता है, न महंत आदि की उपाधि से मण्डित है, न ही पूजा पाठ सम्पन्न कर उपहार की सामग्रियाँ लाता है। वह तो नेत्रों पर पडे भ्रम के परदे को सहज ज्ञान द्वारा हटाकर जीवात्मा में निवासरत् ब्रह्म का दर्शन कराता है, जिसके सहयोग से जीवात्मा परमात्मा का दर्शन प्राप्त करती है, वह समस्त सृष्टि में अनायास गुंजायमान ब्रह्म शब्द को सुनाता है। वह परम ब्रह्म अहिर्निंश शरीर के भीतर ही सत्संग रचाता है और ब्रह्म में प्रेम को समाहित करता है। कबीर दास जी कहते हैं कि वह ज्ञान मण्डित है सत्य का ज्ञाता है। अतः किसी प्रकार का भय नहीं - साधोरनो सतगुरु मोहि भावै/सत्नाम का भरभरा प्याला आप पिवें मोंहि प्यावै/मेले जाय न महंत कहावै पूजा भेंट न लावै/परदा दूर करे आंखिन का निज दासा दिखनावै/जाके दरसन साहब दासै अनहद शब्द सुनावै/निसि दिन सत संगति में राचै शब्द में सुरति समावै/कह कबीर ताकौ भय नाहीं निरमय पद परसावैं।२९
कबीर के पदों में सुरति निरति शब्द का प्रयोग अनेकानेक स्थान पर हुआ है यह शब्द पारिभाषिक है। निरति जब सुरति में और सुरति जब निरति में मिलती है और सुरति जब शब्द में मिलती हैं तो हँस देह की प्राप्ति होती है। निरति बाहरी प्रवृत्ति की निवृत्ति को और सुरति अन्तर्मुखी वृत्ति को कहते हैं। जब बाह्यमुखी वृत्ति अन्तर्मुखी वृत्ति में लीन होती है तो जीव को जीव और ब्रह्मा के अभेद की प्रतीति होती है।३० सतगुरु की दया के साथ सुरति की लौ लगता या उसकी प्राप्ति का उल्लेख कबीर के यहाँ स्थान-स्थान पर मिलता है -सतगुरु सोइन्दया करि दीन्हा/चंद नसूर दिवस नहीं रजनी, तहाँ सुरत लौलाई/बिना अन्न अमृत-रस-भोजन-बिन-जल-तृषा बुझाई॥३१
कबीर का मत है कि इस भव सागर में मुक्ति हेतु गुरु का होना अनिवार्य है। जिसे मुक्ति की चाह होगी उसे सदगुरु प्राप्त होगा। जिसके हृदय में व्याकुलता होगी वह गुरु के वचनों का आदर करेगा।भक्तिकालीन साहित्य में नानक, दादू, रैदास, जायसी, सूर, तुलसी सभी के यहाँ गुरु की महिमा का उल्लेख किया गया है। परन्तु सगुण भक्ति साहित्य की अपेक्षा निर्गुण भक्ति साहित्य में और विशेषकर निर्गुण की ज्ञान मार्गी धारा में गुरु को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। क्योंकि गुरु ही परमात्मा का परिचय कराने वाला है जीव को इस भवसागर से उबारने वाला है। जिसकी कृपा से मन की कलुषता और चंचलता नष्ट हो जाती है, प्रतिबिम्ब बिम्ब में मिल जाता है और सारे बंधन कट जाते हैं।३२ गोरखनाथ जी द्वारा कहा गया है कि गगन मण्डल में औंधा कुअन्तह अमृत का बासा। सगुणाहोइ सो भरभर पिवै निर्गुण जाइ पियासा और सब भले ही प्यासे रह गये हों पर कबीर ने सद्गुरु को पा लिया था और गगन मण्डल में औंधे कुए का जलपान जी भर कर किया था। सतगुरु के उपकार के कारण कबीर के अन्तर्मन की आँखें खुल गई थीं चेतना जाग्रत हो गई थी। अतः उन्होंने उस अनन्त स्वरूप का साक्षात्कार कर लिया। सतगुरु की महिमा अपरम्पार है जिसकी कृपा से कबीर और अनेक सद्जनों का उद्धार हुआ - सतगुरु की महिमा अनंत अनंत किया उपगार/लोचन अनंत उघाड़िया अनंत दिखावणहार।३३
बातें
अमृता प्रीतम
आ साजन, आज बातें कर लें...
तेरे दिल के बाग़ों में
हरी चाह की पत्ती-जैसी
जो बात जब भी उगी,
तूने वही बात तोड़ ली
हर इक नाजुक बात छुपा ली,
हर एक पत्ती सूखने डाल दी
मिट्टी के इस चूल्हे में से
हम कोई चिनगारी ढूँढ़ लेंगे
एक-दो फूँफें मार लेंगे
बुझती लकड़ी फिर से बाल लेंगे
मिट्टी के इस चूल्हे में
इश्क़ की आँच बोल उठेगी
मेरे जिस्म की हँडिया में
दिल का पानी खौल उठेगा
आ साजन, आज पोटली खोल लें
हरी चाय की पत्ती की तरह
वहीं तोड़-गँवाई बातें
वही सँभाल सुखाई बातें
इस पानी में डाल कर देख,
इसका रंग बदल कर देख
गर्म घूँट इक तुम भी पीना,
गर्म घूँट इक मैं भी पी लूँ
उम्र का ग्रीष्म हमने बिता दिया,
उम्र का शिशिर नहीं बीतता
आ साजन, आज बातें कर लें...
Wednesday, December 17, 2008
आवाज़
अमृता प्रीतम
बरसों की राहें चीर कर
तेरी आवाज़ आयी है
सस्सी के पैरों को जैसे
किसी ने मरहम लगाई है...
आज किसी के सिर से
जैसे हुमा गुज़र गया
चाँद ने रात के बालों में
जैसे फूल टाँक दिया
नींद के होठों से जैसे
सपने की महक आती है
पहली किरण रात की
जब माँग में सिन्दूर भरती है...
हर एक हर्फ़ के बदन
तेरी महक आती रही
मुहब्बत के पहले गीत की
पहली सतर गाती रही
हसरत के धागे जोड़ कर
हम ओढ़नी बुनते रहे
बिरहा की हिचकी में भी हम
शहनाई सुनते रहे...
उषस् (एक)
नरेश मेहता
नीलम वंशी में से कुंकम के स्वर गूँज रहे !!
अभी महल का चाँद
किसी आलिंगन में ही डूबा होगा
कहीं नींद का फूल मृदुल
बाँहों में मुसकाता ही होगा
नींद भरे पथ में वैतालिक के स्वर मुखर रहे !!
अमराई में दमयन्ती-सी
पीली पूनम काँप रही है
अभी गयी-सी गाड़ी के
बैलों की घण्टी बोल रही है
गगन-घाटियों से चर कर ये निशिचर उतर रहे !!
अन्धकार के शिखरों पर से
दूर सूचना-तूर्य बज रहा
श्याम कपोलों पर चुम्बन का
केसर-सा पदचिह्न ढर रहा
राधा की दो पंखुरियों में मधुबन झीम रहे !!
भिनसारे में चक्की के सँग
फैल रहीं गीतों की किरनें
पास हृदय छाया लेटी है
देख रही मोती के सपने
गीत ने टूटे जीवन का, यह कंगन बोल रहे !!
Tuesday, December 16, 2008
सामाजिक समरसता और कबीर
किरन-धेनुएँ
नरेश मेहता
उदयाचल से किरन-धेनुएँ
हाँक ला रहा वह प्रभात का ग्वाला।
पूँछ उठाए चली आ रही
क्षितिज जंगलों से टोली
दिखा रहे पथ इस भूमा का
सारस, सुना-सुना बोली
गिरता जाता फेन मुखों से
नभ में बादल बन तिरता
किरन-धेनुओं का समूह यह
आया अन्धकार चरता,
नभ की आम्रछाँह में बैठा बजा रहा वंशी रखवाला।
ग्वालिन-सी ले दूब मधुर
वसुधा हँस-हँस कर गले मिली
चमका अपने स्वर्ण सींग वे
अब शैलों से उतर चलीं।
बरस रहा आलोक-दूध है
खेतों खलिहानों में
जीवन की नव किरन फूटती
मकई औ’ धानों में
सरिताओं में सोम दुह रहा वह अहीर मतवाला।
रोज़ी
अमृता प्रीतम
नीले आसमान के कोने में
रात-मिल का सायरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
सफ़ेद गाढ़ा धुआँ उठता है
सपने जैसे कई भट्ठियाँ हैं
हर भट्ठी में आग झोंकता हुआ
मेरा इश्क़ मज़दूरी करता है
तेरा मिलना ऐसे होता है
जैसे हथेली पर कोई
एक वक़्त की रोज़ी रखता है...
जो खाली हँडिया भरती है
राँध-पका कर अन्न परस कर
वह हाँडी उलटा रखता है
बची आँच पर हाथ सेंकता है
घड़ी पहर को सुस्ता लेता है
और ख़ुदा का शुक्र मनाता है
रात-मिल का सायरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
धुँआ इस उम्मीद पर निकलता है
जो कमाना है वही खाना है
न कोई टुकड़ा कल का बचा है
न कोई टुकड़ा कल के लिए है...
Monday, December 15, 2008
ग़ज़ल
अहमद फ़राज
अब वो झोंके कहाँ सबा1 जैसे
आग है शहर की हवा जैसे
शब सुलगती है दोपहर की तरह
चाँद, सूरज से जल बुझा जैसे
मुद्दतों बाद भी ये आलम है
आज ही तो जुदा हुआ जैसे
इस तरह मंज़िलों से हूँ महरूम2
मैं शरीके-सफ़र3 न था जैसे
अब भी वैसी है दूरी-ए-मंज़िल
साथ चलता हो रास्ता जैसे
इत्तफ़ाक़न भी ज़िन्दगी में फ़राज़
दोस्त मिलते नहीं ज़िया4 जैसे
1 पुरवाई, समीर, ठण्डी हवा 2. वंचित, 3. सफ़र में शामिल 4 ज़ियाउद्दीन ज़िया
कबीर और जायसी का रहस्यवाद : तुलनात्मक विवेचन
Sunday, December 14, 2008
धूप का टुकड़ा
अमृता प्रीतम
मुझे वह समय याद है-
जब धूप का एक टुकड़ा
सूरज की उँगली थाम कर
अँधेरे का मेला देखता
उस भीड़ में कहीं खो गया...
सोचती हूँ-सहम का
और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस खोये बच्चे ने
मेरा हाथ थाम लिया
तुम कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है
एक नन्हा-सा गर्म साँस
न हाथ से बहलता है,
न हाछ को छोड़ता है
अँधेरे का कोई पार नहीं
मेले के शोर में भी
एक खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह
जैसे धूप का एक टुकड़ा....
कहानी, लेख,कविता,गजल,समीक्षा
राही मासूम रज़ा विशेषांक निकालने के बाद अब सामान्य अंक निकलने जा रहा है. आप साहित्य से सम्बंधित रचनाएं भेज(कहानी, लेख,कविता,गजल,समीक्षा आदि) सकते है. अंक जल्द ही छपेगा. धन्यवाद
सम्पादक: वाङ्मय (त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका)
बी-4,लिबटी होम्स ,
अलीगढ,
उत्तरप्रदेश(भारत),
202002,
मोब: +91 941 227 7331
ग़ज़ल
अहमद फ़राज
तू पास भी हो तो दिले-बेक़रार अपना है
कि हमको तेरा नहीं इन्तज़ार अपना है
मिले कोई भी तेरा जिक्र छेड़ देते हैं
कि जैसे सारा जहाँ राज़दार अपना है
वो दूर हो तो बजा तर्के-दोस्ती1 का ख़याल
वो सामने हो तो कब इख़्तियार2 अपना है
ज़माने भर के दुखो को लगा लिया दिल से
इस आसरे पे कि एक ग़मगुसार3 अपना है
बला से जाँ का ज़ियाँ4 हो, इस एतमाद5 की ख़ैर
वफ़ा करे न करे फिर भी यार अपना है
फ़राज़ राहते-जाँ भी वही है क्या कीजे
वो जिसके हाथ से सीना फ़िगार6 अपना है
1. दोस्ती छोड़नी 2. वश 3. दुख सहने वाला 4. नुकसान 5. विश्वास, भरोसा, 6 घायल, आहत