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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Saturday, December 20, 2008

कबीर

फीरोज
दुनिया और देश के वर्तमान परिदृश्य पर दृष्टिपात किया जाये तो दो विपरीत स्थितियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। एक तरफ विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में विश्व विकास के उच्चतम सोपानों को छूता हुआ दिखाई देता है और समाज भौतिक सुख-सुविधा का विस्तार निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। परन्तु विकास का नाकारात्मक पहलू यह है कि सुख-सुविधा के कारण जिस शान्ति भरे वातावरण की स्थापना होनी चाहिए वह प्रतिस्पर्धा, अहंकार, दम्भ, छल और अलगाव की मानसिकता की सक्रियता से भंग हो रही है। परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन के विकास की गति अवरुद्ध हो रही है। अवरोध नया-नया रूप धारण करके विभिन्न प्रकार की बाधाएँ खड़ी कर रहा है। धर्म, रंग, नस्ल, वर्ग और जाति के मध्य बढ़ते भेद के परिणाम स्वरूप उपजी गतिविधियों ने सामाजिक जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है। मानवता की भावना आधोगामी होकर तिरोहित सी हो गयी है। जब स्थितियों को सहज और सुगम होना चाहिए था तब भौतिक विकास के समान्तर अलगाव की बढ़ती खाई उसे और विकट बनाने पर आमादा-सी है। उपजे इस संकट से मात्रा स्थान विशेष ही नहीं कमोबेश विश्व के अधिकांश भू-भाग को विविध रूपों में सामना करना पड़ रहा है। यह संकट सामाजिक-आचरण, व्यवहार और नैतिकता को प्रभावित करते हुए पूरी दुनिया में अजीब-अजीब समस्याओं को जन्म दे रहा है। इन समस्याओं का प्रभाव अन्ततः जनमानस पर ही पड़ता है। उसकी समस्त विरूपताओं की जद में आवाम ही आता है।यह सच्चाई निर्विवाद है कि कबीर आवाम की वाणी के उद्घोषक हैं। उनकी वाणी का स्फुरण धर्म, वर्ग, रंग, नस्ल, समाज, आचरण, नैतिकता और व्यवहार आदि सभी क्षेत्र में हुआ है। यह स्फुरण किसी विशेष वर्ग, भू-भाग या देश के लिए नहीं अपितु मानव मात्र के लिए है। उन्होंने आवाम को खानों में विभक्त करने वाली अवरोधी दीवारों को गिराकर एकत्त्व स्थापित करने का प्रयास किया है। इसके लिए जितने शक्तिशाली प्रहार की आवश्यकता थी उसे करने में चूके नहीं। बेखौफ होकर, जहाँ जक जाना सम्भव था वहाँ तक जाकर असत्य का प्रतिच्छेदन करते हुए सत्य के शोधन के माध्यम से समाजों को प्रेम के सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। वस्तुतः प्रेम पर आधारित वैचारिक क्रान्ति उनका प्रमुख हथियार था। दरअसल कबीर साहब का मुख्य लक्ष्य मानव कल्याण की प्रतिष्ठा थी और इसके लिए वह युगानुकूल जैसे भी प्रयत्न सम्भव थे उनको प्रयोग करने में हिचकिचाये नहीं। उनके निडर व्यक्तित्त्व से जन्मे विश्वास की यही शक्ति उनको हर युग और प्रत्येक समाज में प्रासंगिक बनाए हुए है।कबीर के सन्दर्भ में उल्लेखनीय यह भी है कि उनके विरोध और समर्थन में प्रत्येक युग में अलग-अलग विचार धाराओं के पोषकों के मध्य वाद-विवाद अनवरत चलता ही रहा है। वर्तमान में भी विभिन्न स्तरों पर यह मुद्दा कभी हाशिये पर तो कभी केन्द्र में, कहीं न कहीं अपनी उपस्थिति बनाए ही है। यहाँ गौरतलब यह है कि बावजूद इस भेड़चाल के न तो उनकी प्रतिष्ठा और न उनका दाय ही प्रभावित हो रहा है। इसे यदि आम फहम भाषा में कहें, तो कह सकते हैं कि उनकी सेहत पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। हालांकि ऐसा दावा करने का भ्रम पालने वालों की भी कमी नहीं, लेकिन आवाम का उनसे न तो कुछ लेना-देना है न उनके दावों से कोई सरोकार ही। उसके लिए उनकी सहजता, सरलता और व्यापकता ही अहम है। यह सहजता, सरलता और व्यापकता अभिव्यक्ति में नहीं क्योंकि यदि अभिव्यक्ति को ही केन्द्र में रखें तो अभिव्यक्ति के स्तर पर कभी-कभी कबीर जटिल, रूढ़ और उलझे से दिखाई देते हैं। दरअसल सहजता, सरलता, व्यापकता उनके प्रभाव में निहित है। उनका प्रभाव न तो प्रशस्ति का मोहताज है, न ही किसी प्रकार का विरोध उनका बाल भी बाँका कर सकता है।कबीर पर आधारित इस संग्रह का उद्देश्य न तो कबीर की प्रासंगिकता पर विचार मंथन है, न ही उनके समर्थन अथवा विरोध के माध्यम से किसी विचारधारा विशेष को स्थापित करने का प्रयास। वस्तुतः हमारा लक्ष्य यह है कि उनके असीम विस्तार में प्रवेश करके प्रकाश पुन्ज से कुछ किरणों को ऊपर लाया जाए जो वर्तमान में व्याप्त अस्थिरता के कुहासे को छाँटने में सहायता करें।

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कबीर की समाज सम्बन्धी विचारधारा

डॉ० मेराज अहमद
भारत के इतिहास का मध्यकाल सामाजिक संक्रांति का युग था। समाज संगठन की दृष्टि से अस्त-व्यस्त था। धर्म दर्शन और संस्कृत की अनेक धाराएँ परस्पर संघर्षरत थीं। हिन्दू-समाज भेदभाव पर आधारित शास्त्रों द्वारा अनुमोदित वर्ण व्यवस्था से संचालित होता था परन्तु विद्रोह के स्वर भी उठते थे। बौद्धों, जैनों, नाथों और सिद्धों इत्यादि की विद्रोह में महती भूमिका होती थी। हिन्दू समाज के समानान्तर मुस्लिम समाज का धर्म इस्लाम जो कि सैद्धान्तिक आधार पर समानता का पोषक होते हुए विषमता की भावना से ग्रस्त हो रहा था। बाह्याचारों ने एक सीमा तक इसे अपने मूल से भटका दिया था। यद्यपि इनके बीच भी सूफी संत विद्रोही तेवर के साथ आ खड़े हुए थे परन्तु आम जनता कर्मकाण्डों द्वारा संचालित धर्म के दुष्चक्र में उलझी हुई थी। ऐसे समय में कबीर ने जटिल परिस्थितियों के मध्य अपनी स्वतंत्रा दृष्टि मानवतावादी चिन्तन पद्धति और दृढ़ संकल्पना शक्ति के द्वारा समाज में व्याप्त विषमता का न केवल विरोध ही किया अपितु अपनी वाणियों के माध्यम से समतामूलक समाज के लिए आधारभूमि भी प्रस्तुत की।सामाजिक विश्रृंखलता का केन्द्र व्यक्ति के लिए उच्च आदर्श उपस्थित करते हुए कबीर कहते हैं कि व्यक्ति को गुण ग्राही और आत्मज्ञानी होना चाहिए । यथा - तरूवर तास बिलविये, बारह मास फलंत।/सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत॥१कबीर के अनुसार वास्तव में व्यक्ति वही है जो सामाजिक साम्य, स्थापना हेतु अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर दे। द्रष्टव्य है - तन मन सीस समरपन कीन्हां, प्रगत जोति तंह आतम लीनां।२इसके अतिरिक्त कबीर ने व्यक्ति के आदर्श के रूप में निस्पृहता अहंकारहीनता एवं निर्विषयता इत्यादि के महात्म्य का उल्लेख किया है। देखिए - निरवेरी निहः कांमता, सांई सेती नेह।/विषिया सू न्यारा रहे, संतनि का अंग एह॥३सिद्धान्ततः नारी को व्यक्ति से इतर नहीं माना जाना चाहिए, परन्तु व्यवहार में नारी का विषय पृथक्‌ रूप से ही विचारणीय होता है। उल्लेखनीय है कि कबीर की नारी निन्दा सर्वविदित है परन्तु उसी के साथ सीमित संदर्भों में समाज में उनकी आदर्श नारी संबंधी विचारधारा के भी दर्शन होते हैं। वह नारी के लिए त्याग, निष्ठा, पतिव्रत एवं सतीत्व की आवश्यकता पर बल देते हुए कहते हैं कि उसे अपने पति के लिए जो कि उसके प्रेम का आधार होता है सब कुछ अर्पित कर देना चाहिए। यथा - इस मन का दीया करों, धरती मैल्यूं जीव।/लोही सींचो तेज ज्यूं, चित दैखौं तित पीव॥४ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि कबीर जैसा विद्रोही कवि नारी समाज के प्रति समाज के अन्य अंगों जैसे स्वस्थ मानसिकता नहीं रखता है, परन्तु उपर्युक्त संदर्भ के माध्यम से भारतीय समाज के पारिवारिक संबंधों में पति-पत्नी के संबंधों की पवित्राता का स्वरूप अवश्य सामने आ जाता है।विद्या ग्रहण करने वाला विद्यार्थी कहलाता है। समाज में विद्यार्थी की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। विद्यार्थी समाज का वह आवश्यक अंग हैं जो भविष्य के समाज की रूपरेखा का नियन्ता होता है। यद्यपि वर्तमान में विद्या और विद्यार्थी दोनों से संबंधित मान्यताएँ बदल चुकी हैं, परन्तु मध्यकाल तक शिक्षा के मूल उद्देश्यों में से एक एवं मुख्य उद्देश्य अध्यात्म और मानवानुकूल श्रेष्ठ गुणों का विकास था। गुरु एवं शिष्य संबंध सभी मानवीय संबंधों से उच्च एवं पवित्रा माने गये। कबीर तो इस संबंध की श्रेष्ठता के प्रबल समर्थक के रूप में सामने आते हैं। यथा - सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार।/लोचन अनन्त उघाड़िया, अनन्त दिखावणहार।५विद्यार्थी को सातात्त्विक गुरु प्राप्त करने के लिए अपना सम्पूर्ण अर्पित कर देने की बात करते हुए कबीर कहते हैं कि - मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।/ तेरा तुझको सौंपता, क्या लागे है मेरा॥६कबीर ने गुरु शिष्य दोनों के लिए श्रेष्ठता स्वनियंत्रण समदर्शिता एवं आत्म नियंत्रण को आवश्यक मानते हुए समाज के सर्व कल्याण के लिए सहायक माना है।यद्यपि साम्प्रदायिकता का जो भयावह स्वरूप समसामयिक संदर्भों में दृष्टिगत होता है वह आधुनिक युग का रूप है। मध्यकाल में साम्प्रदायिक वैमनस्व कारण साम्प्रदायिक श्रेष्ठता की होड़ की मानसिकता पर आधारित थी। वह कभी तो दो धर्मों के मध्य की होड़ के कारण दृष्टिगत होती थी तो कभी एक ही धर्म के विविध सम्प्रदायों के मध्य दिखाई देती थी। कबीर समाज में साम्प्रदायिक एकता स्थापित करने के क्रम में उभय धर्मों की आलोचना में मुखर हो उठते हैं। यथा - जौर खुदाय मसीति बसत है, और मुलिक किस केरा।/तीरथ मूरति राम निवासा, दुहु मैं किनहू न हेरा॥७साम्प्रदायिक साम्य की भावना से संचालित कबीर साहित्य में अनेक दोहे और पद देखे जा सकते हैं। जो समाज में एकता एवं भाईचारे के लिए मार्ग प्रशस्त करने में सहायक सिद्ध होते प्रतीत होते हैं। इसी भावना के समानातर वर्ण व्यवस्था के परिणाम स्वरूप समाज में उपजी अस्पृश्यता का विरोध कबीर द्वारा प्रस्तुत साम्यवादी समाज के संदर्भों की महती विशेषता है।समाज के विकास की प्रमुख बाँधाओं में आर्थिक वैषम्य के प्रभाव को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। कबीर आर्थिक विषमता के मूल धन संचय एवं वैभवपूर्ण जीवन पर कुठाराघात करते हुए कहते हैं - कबीर सो धन संचिये, जो आगे कूं होइ।/ सीस चढ़ाये पोठली, ले जात न देख्या कोइ॥८वास्तविक धन का संकेत करते हुए कबीर कहते हैं कि - निरधन सरधन दोनों भाई प्रभु की कला न मेरी जाई।/कहि कबीर निरधन है सांइ जाके हिदये नाम न होई॥९कबीर की मान्यता है कि धन संचय अध्यात्म और समाज दोनों के विरूद्ध है। यही कारण है कि वह आर्थिक वैषम्य के स्थान पर साम्य स्थापित करने के आकांक्षी रूप में सामने आते हैं।कबीर अपनी वाणियों के माध्यम से सामाजिक ढांचे को विश्रृंखलता से दूर करने के लिए मानवता की भावना की आवश्यकता पर विशेष बल देते हैं। मानवोचित गुणों का उल्लेख करते समय दया, क्षमा, उदारता और दानशीलता आदि को रेखांकित किया जाता है। कदाचित्‌ मनुष्यों के यही वह सद्व्यवहार है जो समाज को सुसंगठित रखने में अह्‌म भूमिका निभा सकते हैं। सद्व्यवहार से संबंधित कबीर काव्य में अनेक पद एवं दोहे बिखरे पड़े हैं। यथा- एते औरत मरदां साजे, ये सब रूप हमारे।/कबीर पंगुरा राम अलह का, सब गुरु पीर हमारे॥१०प्रस्तुत दोहे में कबीर सभी में यहाँ तक कि असह्रय तक में अपनी आत्मा को पहचानते हुए उनका सम्मान एवं सेवा करने की घोषणा करते हैं।प्राचीन काल से ही संसार के अधिकांश समाज में व्यवस्था के लिए जिस विशिष्ट नियमों और उपनियमों का पालन किया जाता है ऐसे सार्वजनीन एवं सार्वभौमिक नियम को धर्म की संज्ञा से अभिहीत किया जाता है। व्यवस्था, न्याय, सत्य, अहिंसा और प्रेम इत्यादि उदात्त भावों पर आधारित होती है। यही समाज को संगति प्रदान करती है। परन्तु जब अव्यवस्था या यूँ कहा जाये कि धर्म के स्थान अधर्म का जब समाज में प्रभाव बढ़ जाता है तब समाज में विसंगतियों का जन्म स्वाभाविक है। कबीर कालीन समाज की विसंगतियों के उल्लेख की आवश्यकता नहीं। कबीर अधर्म जन्य विश्रृंखल समाज का विरोध ही नहीं करते वरन्‌ सहज एवं सत्य धर्म के स्वरूप को निर्दिष्ट करते हुए कहते हैं कि उसका आधार चरित्रा, संयम एवं हृदय तथा मन की स्वच्छता है। यथा - जे मन नहि तजे विकारा, तो क्यूँ तिरिये भो पारा।/ जब मन छाड़े कुटिलाई तब आइ मिले राम राई॥११कबीर धर्म के अन्तर्गत सातात्त्विक, नैतिकता इत्यादि को भी महत्त्व देते हुए समाज के लिए ऐसे सहज धर्म का निर्देशन करते हैं जो साधक को स्तुति निन्दा, आशा एवं मान अभिमान से मुक्त कर देता है। यथा- असतुति निन्दा आसा छोड़ तजे मान अभिमाना।/लोहा कंचन समि करि देखे ते मूरति भगवाना॥१२भौतिक जगत में मानव समाज के अतिरिक्त जीव जन्तुओं का भी एक विशाल संसार है। मनुष्यों का साथ इनका घनिष्ठ संबंध भी होता है। इतना ही नहीं वनस्पति जगत की परिवर्तन-परिवर्धन एवं संवेदनशील होता है। भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा सर्वव्यापी है। यह संसार के सभी पदार्थों में व्याप्त है। अतः मानव जीव-जन्तु एवं वनस्पतियाँ आध्यात्मिक एकता से परिपूर्ण हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों धरातल पर इन सबको मिलाकर एक विशाल समाज की सृष्टि होती है। समाज के इस विशाल परिप्रेक्ष्य के प्रत्येक अंग के प्रति कबीर काव्य में संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। द्रष्टव्य है -भूली मालनि पाती तोड़े, पाती पाली जीव।/जा मूरति को पाती तोड़े, सो मूरति निरजीव।१३जीव-जन्तुओं के प्रति उनकी जागरूकता विलक्षण है यथा - जीव वधत अरू धरम कहते हो, अधरम कहाँ है भाई।/आपन तो मुनि जन हैं बैठे, कासनि कहौ कसाई॥१४प्रस्तुत तथ्यों के प्रकाश में यह स्पष्ट रूप से विदित होता है कि कबीर सुशिष्ट और संयत समाज के लिए समाज की अधिकांश इकाईयों से संबंधित स्पष्ट विचारधारा रखते हैं। समाज की आधारभूत इकाई व्यक्ति के लिए उन्होंने गुण ग्रहण की क्षमता से युक्त संयम और सदाचार के आदर्श को आवश्यक माना है। यद्यपि महिला कल्याण के विषय पर यथोचित विचार प्रस्तुत नहीं किये उसे कबीर की सीमा के रूप में उल्लेखित किया जाता है, परन्तु सामाजिक व्यवस्था में उनके लिए कुछ आवश्यक गुणों के रूप में चरित्रा पतिव्रत एवं सतीत्व का उल्लेख अवश्य किया है।कबीर साहित्य में आध्यात्मिक एवं सामाजिक दोनों संदर्भों में गुरु को विशेष महत्ता प्राप्त है। धार्मिक विभेद वर्ण व्यवस्था एवं साम्प्रदायिक वैमनस्य का विरोध करके धार्मिक एवं साम्प्रदायिक एकता को उन्होंने सामाजिक साम्य के मूल रूप में रेखांकित किया है। वर्ण भेद को कबीर समाज की विखण्डनकारी शक्ति के रूप में देखते हुए उसे समाप्त करने का आह्‌वान करते हैं। कबीर के अनुसार आर्थिक वैषम्य समाज में अव्यवस्था उत्पन्न करता है। अतः स्वस्थ समाज के लिए वैषम्य समाप्ति आवश्यक है। मानव के साथ उसके परिवेश को जोड़कर जिस विशाल समाज का सृजन होता है उसके अन्तर्सम्बंधों के संदर्भ में कबीर का दृष्टिकोण स्पष्ट एवं संरचनात्मक है।उपर्युक्त विवेचन-विश्लेषण के आलोक में कहा जा सकता है कि कबीर ने आध्यात्मिक क्षेत्र में जिस सहज सिद्धान्त को निर्धारित कर उसकी अनुभूति प्राप्त की उसी अनुभूति के आधार पर उन्होंने समाज में साम्य स्थापित करने हेतु समाज कल्याण की भावना से संचालित स्वस्थ एवं सुसंगठित समाज संबंधी विचारों का प्रतिपादन किया। समाज संबंधी यह वैचारिक प्रतिपादन कबीर साहित्य का आदम प्रतिपादन है।
संदर्भ-ग्रन्थ
१. डॉ० श्यामसुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली, पृ. ७७
२. वही, पृ. २२२
३. वही, पृ. ५०
४. वही, पृ. ९
५. वही, पृ. 1
६. वही, पृ. १९
७. वही, पृ. १७६
८. वही, पृ. ३३
९. वही, पृ. ३०२
१०. वही, पृ. २६७
११. वही, पृ. २६७
१२. वही, पृ. १५०
१३. वही, पृ. १५५
१४. वही, पृ. १०१

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Friday, December 19, 2008

राही मासूम रजा का रचनात्मक व्यक्तित्व

- डॉ० मेराज अहमद

सन्‌ १९२७ का वर्ष जब कि, एक तरफ राष्ट्रीय आन्दोलन अपनी तीव्रता पर था, दूसरी तरफ साम्प्रदायिकता की अग्नि पूर्ण रूप से प्रज्ज्वलित हो चुकी थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में जिला गाजीपुर उत्तर प्रदेश के बुधही नामक गाँव में सैयद मासूम रजा का जन्म हुआ। बुधही मासूम रजा के मातृ पक्ष का गाँव था। ददिहाल के गाँव का नाम गंगौली है जो कि ग़ाजीपुर शहर से लगभग १२ किमी० की दूरी पर स्थित है, वास्तव में मासूम रजा के दादा आजमगढ़ स्थित ठेकमा बिजौली नामक गाँव के निवासी थे। दादी गंगौली के राजा मुनीर हसन की बहन थी। अपने दुहाजू पति यानी कि मासूम के दादा के साथ गंगौली में बस गयी। तदोपरान्त धीरे-धीरे परिवार में गंगौली का रंग रचता-बसता गया। मासूम रजा की निगाहें गंगौली में ही खुली ठेकमा बिजौली से कोई सम्बन्ध न रहा।
मासूम रजा के पिता श्री बशीर हसन आब्दी ग़ाजीपुर जिला कचहरी के प्रसिध्द वकील थे इसलिए पूरे परिवार का रहना-सहना और शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई, परन्तु मुहर्रम और ईद के द्वारा आब्दी परिवार मजबूरी के साथ गंगौली से जुड़ा हुआ था। श्री बशीर हसन आब्दी के वर्षों तक गाजीपुर में एक ख्याति प्राप्त अधिवक्ता के रूप में कार्य करने के कारण परिवार में सुख वैभव की कोई कमी नही इस लेख का शेष भाग राही विशेषांक में पढ़े.... http://rahimasoomraza.blogspot.com/2008/10/blog-post_7125.html इस पर क्लिक करें .और जानकारी प्राप्त करें.

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कर्त्तव्य की उदात्तीकृत चेतना के संवाहक : कबीर

डॉ० राजेश कुमार
हिन्दी-साहित्य में सर्वतोभावेन प्रतिभा से सम्पृक्त महात्मा कबीर की जनरंजिनी तथा भाव-प्रमोदिनी चेतना का संस्पर्श पाकर उन लोगों को कर्त्तव्य-बोध का भान हुआ, जो जीवन को जड़ता की कारा में निरुद्ध कर रहे थे। समाज में तथाकथित रूढ़िवादी विचारकों तथा उनके अनुयायियों ने भारतीय जनजीवन को अस्त-व्यस्त तथा संत्रस्त कर दिया था। यत्र-तत्र सर्वत्र अन्ध विश्वास से परिव्याप्त भारतीय समाज को युगद्रष्टा विचारक कबीर की वैज्ञानिक एवं तर्कपुष्ट विचारधारा का सम्बल प्राप्त हुआ, जिसने न केवल तत्कालीन परिवेश को आलोकित किया, बल्कि आज तक के आस्थाशील बुद्धिवादियों को दूर-दूर तक प्रभावित किया। जब कोई समाज तर्कशीलता का परित्याग कर अन्धानुकरण की ओर अग्रसर होता है, तब उसमें प्रगति की संभावनाएँ भस्मसात्‌ हो जाती हैं। अन्धानुकरण करने वाला समाज जीवन को अधोगति दिलाता है, जबकि तर्क और विज्ञान का अवलम्ब ग्रहण करने वाला समाज जीवन को उच्च स्थान दिलाने में समर्थ होता है। कबीर का आगमन ऐसे समय में हुआ, जब भारतीय समाज दीन-हीन रुग्णावस्था से जर्जर था। यहाँ-वहाँ धर्मों के सिद्धान्तवक्ता मानवता को विध्वंस की आग में झोंक रहे थे। सर्वत्रा अराजकता का दौर था, जिसने कबीर जैसे क्रान्तदर्शी व्यक्ति को मर्मान्तक पीड़ा दी। कबीर की एकनिष्ठ, ध्येयनिष्ठ तथा धैर्यनिष्ठ आस्था ने जीवन को मुक्त कराने के लिए किसी की रत्ती भर परवाह नहीं की, क्योंकि वे कर्त्तव्य की उदात्तीकृत चेतना के संवाहक थे। इसीलिए उन्होंने हर किसी को कर्त्तव्य-कर्म की ओर चलने का सत्परामर्श दिया।कबीर ने मनुष्यता को जीवित रखने के लिए जिस साहस और पुरुषार्थ का परिचय दिया, उसकी मिसाल अन्यत्रा दुर्लभ है। उनकी दृष्टि में जीवन का असली तत्त्व है - प्रेम। प्रेम के बिना पाण्डित्य-प्रदर्शन और शास्त्र-ज्ञान उनके लिए महत्त्वहीन है। उन्होंने प्रेम के ढाई अक्षर के व्यावहारिक अनुप्रयोग को सार्थक माना है। कबीर को निरक्षर मानने वाले विद्वानों से मैं सहमत नहीं हूं। निश्चय ही कबीर साक्षर रहे होंगे, तभी तो उन्होंने प्रेम शब्द की शुद्ध व्युत्पत्ति प्रस्तुत की है। जो विद्वान्‌ उनको मसि कागद छूयौ नहीं, कलम गह्यो नहिं हाथ पंक्ति के आधार पर निरक्षर साबित करते हैं, उन्हें सावधान करने के लिए निम्नलिखित साखी पुष्ट प्रमाण है - पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोइ।/ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥जिन तर्कों के आधार पर कबीर को निरक्षर मानने की श्रृंखला अनवरत जारी है, लगभग ऐसे ही तर्कों के आधार पर महात्मा तुलसीदास की काव्य-प्रतिभा पर भी प्रश्न चिह्‌न लगाया जा सकता है। तुलसी ने रामचरित मानस में कहा है - कवित बिबेक एक नहिं मोरे। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे॥क्या तुलसीदास को काव्य-निर्माण का विवेक न था। मेरा स्पष्ट मत है कि इन भक्त कवियों में अहं-प्रदर्शन की उग्रता और व्यग्रता न थी। ऐसी स्थिति में इनकी आत्मपरक उक्तियों को अभिधा के अर्थ में न ग्रहण करना चाहिए।
कबीर की कविता में भाव-लोक की समृद्धि उनके गहन अनुभवों तथा सुस्पष्टवादिता के कारण है। किसी भी प्रकार का दौर्बल्य कबीर को मान्य न था, तभी तो उनके काव्य में वक्रता में भी चारुता का दुर्लभ गुण है। भक्त कवियों में अकेले कबीर ऐसे हैं, जो कथ्य की उदात्त प्रवृत्ति के साथ संतुलन बनाए हुए हैं। उनका कथ्य ही इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसमें अवगाहन करते ही हृदय-तन्त्री के तार झंकृत हो उठते हैं, मन की वासनाएँ तार-तार हो जाती हैं, मनुष्यता का भाव-लोक लहलहा उठता है। कबीर के सम्बन्ध में काव्य-मर्मज्ञ त्रिालोचन का निम्नलिखित कथन बड़े महत्त्व का है - हिन्दी में कबीर अकेले ऐसे कवि हैं जो अपने ही कथ्य के कारण महत्त्वपूर्ण हैं। शास्त्र वे जानते नहीं थे और लोक के अनुबंधों की उन्होंने चिंता नहीं की। भाषा उनके द्वारा ऐसे रूप में आई है जिसे अनियमित पाकर पंडितों को खीझ होती है पर यह भाषा कथ्य के लिए इस प्रकार अनिवार्य है कि उसमें जरा भी संशोधन कथ्य को निस्तेज कर देगा। अनियमित हिन्दी के विभिन्न प्रदेशों के, विभिन्न नगरों में, भिन्न-भिन्न रूप सुनाई पड़ते हैं जिनका समर्थ उपयोग करने वाला कहीं एक भी कवि नहीं। यानी इतने सारे वादों विवादों के बाद भी हिन्दी के सिर चढ़ा मर्यादाबाद ज्यों का त्यों है।१
त्रिलोचन, कबीर के कथ्य की प्रशंसा ही नहीं करते, अपितु उनकी भाषा से भी अभिभूत होते हैं। आधुनिक हिन्दी-कवियों तथा मर्यादावादियों को त्रिलोचन की यह ललकार ध्यान से सुननी चाहिए।कबीर ने उन समस्त कुरीतियों का प्रतिरोध किया, जिन्होंने मनुष्यता का गला घोंट रखा है। आज के युग में जब व्यक्ति कर्त्तव्यच्युत तथा पथभ्रष्ट होकर निरन्तर पतनोन्मुख है, तो भी उनकी काव्य-धारा की वेगमयी लहरें कर्त्तव्य की उदात्तीकृत चेतना को प्रतिपादित कर रही हैं। वस्तुतः कबीर एक महामानव थे, जो मनुष्यता का समाज देखना चाहते थे। आज हिन्दू और मुसलमानों के बीच विभाजक रेखा खिंचती जा रही है, जिससे राष्ट्रीय एकता का यक्षप्रश्न भी उत्तर की प्रतीक्षा में है। आए दिन होने वाले साम्प्रदायिक दंगों ने भारतीय विचारकों को निराश-हताश किया है। कबीर ने हिन्दू-मुसलमानों को उनके रूढ़िगत विचारों के लिए न केवल फटकारा है, बल्कि इस बात पर भी चिन्ता प्रकट की है कि ये दोनों अभी सन्मार्ग पर क्यों नहीं हैं? निश्चय ही उनकी स्पष्टवादिता को साधुवाद देना होगा, क्योंकि उन्होंने पूर्ण प्रवेग तथा त्वरा के मध्य कथ्य का अद्भुत साम×जस्य प्रस्तुत किया। आत्म-सम्मोहन से ग्रस्त हिन्दुओं तथा मुसलमानों की विकृत जीवन-शैली को उन्होंने जमकर लताड़ा है - अरे इन दोहुन राह न पाई।/हिंदू अपनी करे बड़ाई गागर छुवन न देई।/वेस्या के पाइन-तर सोवै यह देखो हिंदुआई।/मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।/खाला केरी बेटी ब्याहैं घरहि में करै सगाई।/बाहर से इक मुर्दा लाये धोय-धाय चढ़वाई।/सब सखियाँ मिलि जेंवन बैंठी घर-भर करै बड़ाई।/हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।/कहैं कबीर सुनो भाई साधो कौन राह ह्‌वै जाई। २
धर्म के नाम पर पाखण्ड-प्रियता उन्हें प्रिय न थी। धर्म के नाम पर पाखण्ड करने वालों को उनकी दया का आश्रय नहीं मिला, बल्कि पाखण्डों को देखकर कबीर की आक्रामक शैली, व्यंग्य के नए तेवर के साथ प्रमुदित हुई। अपनी दृढ़ता के बल पर उन्होंने हर तरह के पाखण्ड का प्रखर विरोध किया। गंगा नहाने वालियों की आचरण-पद्धति को लक्ष्य कर उन्होंने व्यंग्य की धार में तीक्ष्णता ला दी है - चली है कुलबोरनी गंगा नहाय।/सतुवा कराइन बहुरी भुँजाइन, घूंघट ओटे भसकत जाय।/गठरी बाँधिन मोटरी बाँधिन, खसम के मूंड़े दिहिन धराय।/बिछुवा पहिरिन औंठा पहिरिन, लात खसम के मारिन धाय।/गंगा न्हाइन जमुना न्हाइनउ नौ मन मैल लिहिन चढ़ाय।/पाँच-पचीस कै धक्का खाइन, घरहुँ की पूँजी आई गँवाय।/कहत कबीर हेत कर गुरु सों, नहीं तोर मुकुती जाइ नसाय॥३
आज समाज में जातिवादी दुराग्रह ने हर बुद्धिजीवी को परेशान कर रखा है। स्थान-स्थान पर जातिवादी संकीर्णता की दुर्गन्ध मनुष्यता की सुरभि को पद दलित किए हुए है। ऐसे में हमारा ध्यान अनायास ही कबीर की ओर जाता है। ऊँच-नीच का भेद-भाव उनको मान्य न था। वे तो कर्त्तव्य की शुचिताजन्य उच्चता का उद्घोष करते हैं, जिससे जनजीवन का मार्ग सुगम और सरस होता है। सुरा से आपूरित स्वर्ण-पात्रा को निन्द्य ठहराने के पीछे उनका ध्येय कर्त्तव्य की उदात्तीकृत चेतना को पुष्ट करना ही है - ऊँचे कुल क्या जनमियाँ, जे करणीं ऊँच न होइ।/सोवन कलस सुरे भर्‌या, साधूँ निंद्या सोइ॥४संत कवियों में उनकी भाव-बोधिनी तथा विचार-प्रबोधिनी शक्ति अनूठी है। गुरु-शिष्य की सम्बन्धशीलता के महत्त्व से परिचित कबीर ने उन गुरु-शिष्यों को कठघरे में खड़ा किया है, जो अन्ध श्रद्धाजनित आस्था से परिचालित हैं तथा विवेकहीन हैं अथवा गतानुगतिकता के संजाल से मुक्त नहीं हैं। ऐसे गुरु-शिष्यों को उनकी इस साखी का आभार मानना चाहिए - जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।/अंधा अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत।''५
कबीर की साधना-पद्धति भी प्रयोग पर आधारित है। इसका अर्थ है कि कबीर जीवन के व्यावहारिक पक्ष को ही सर्वश्रेष्ठ मानते थे। उन्होंने धर्म से उत्पन्न उन खतरों से भी जनमानस को सावधान किया था, जो जीवन में प्रदूषण का कार्य करते हैं। कबीर, जीवन-पर्यावरण के शोधक हैं, अन्वेषक हैं, आविष्कारक हैं। असल में उनकी प्रासंगिकता पहले से भी अधिक है। यदि मनुष्यता को जीवित रखना है, तो हमें एक बार नहीं, सौ बार कबीर के काव्य में अवगाहन करना होगा, तभी हम सभ्य और शिष्ट मनुष्यता का साक्षात्कार कर सकेंगे।
सन्दर्भ-ग्रन्थ
१. त्रिलोचन, काव्य और अर्थ-बोध, प्रकाशक : साहित्यवाणी, २८ पुराना अल्लापुर, इलाहाबाद - २११००६, प्रथम संस्करण : १९९५, पृष्ठ ६१
२. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, कबीर, प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, प्रा.लि. १-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली - ११०००२, नौवीं आवृत्ति : २००२, पृष्ठ : २७१
३. वही, पृष्ठ : १३५
४. (सं०) डॉ० श्यामसुंदर दास, कबीर ग्रंथावली, प्रकाशक : नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, २२वाँ संस्करण, संवत्‌ २०५८ वि०, कुसंगति कौ अंग, पृष्ठ : ३७
५. वही, गुरुदेव कौ अंग, पृष्ठ : २

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कलकत्ता का प्रेम

-तसलीमा नसरीन



तुम सिर्फ़ तीस के लगते हो, वैसे तुम हो तिरसठ के !
बहरहाल, तिरसठ के हो या तीस के, किसी को क्या फ़र्क़ पड़ता है ?
तुम, तुम हो; तुम जैसे; ठीक वैसे, जैसा तुम्हें फबता है।
जब-जब झाँकती हूँ, तुम्हारी युगल आँखों में
लगता है, पहचानती हूँ उन आँखों को दो हज़ार वर्षों से !
होठ या चिबुक, हाथ या उँगलियाँ,
जिस पर भी पड़ती है निगाह, लगता है पहचानती हूँ इन्हें।
हो हज़ार क्यों, इससे भी काफ़ी पहले से पहचान है मेरी,
इतनी गहरी है पहचान कि लगता है, जब चाहूँ छू सकती हूँ उन्हें,
किसी भी वक़्त,
रात या दोपहर, यहाँ तक कि आधी-आधी रात को भी !
यह भी लगता है जैसे चाहूँ, उनमें पुलक जगा सकती हूँ,
रात जगा सकती हूँ,
चिमटी काट सकती हूँ, चूम सकती हूँ, मानो वे सब मेरे कुछ लगते हैं।
तीस-तीस साल के लगनेवाले मेरे अहसासों की तरफ तुमने,
देखा है कई-कई बार,
लेकिन कुछ कहा नहीं !
जब मैं फुर्र हो रही थी, सिर्फ़ तभी
तुमने मेरे दोनों हाथों में भर दिए गुलाब ही गुलाब !
अब कैसे लगाऊँ गुलाबों का कोई अलग अर्थ ?
गुलाब तो आजकल, महज रस्म के तौर पर नज़र करता है,
हर कोई किसी को भी !
लेकिन मुझे तो तुम्हारे कुछ कहने का इन्तज़ार था,

लेकिन कुछ नहीं कहा तुमने,
मैं परखती रही, शायद मन ही मन कुछ कहो,
लेकिन नहीं, तुमने कुछ भी नहीं कहा !
क्यों ?
उम्र गुज़र जाए, तो क्या प्यार नहीं किया जाता ?

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Thursday, December 18, 2008

कबीर पंथ और सदगुरु कबीर





डॉ० एम. फ़ीरोज
अधिकांशतः विद्वान पंथ शब्द का मूलरूप पथ मानते हैं। शब्दकोशों में इसके तीन शब्द मिलते हैं। जैसे - पंथ, पथिन और पंथिक। पंथ शब्द की व्युत्पत्ति पथ्‌ धातु में अच्‌ प्रत्यय के योग से हुई है जिसका अर्थ-मार्ग है।१ मानक हिन्दी कोश में पंथ शब्द का अर्थ - मार्ग, कार्य, सम्पादन, आचार, व्यवहार आदि की निश्चित रीति, ऐसा द्वार या साधन जिसमें होकर कुछ आगे बढ़ता हो इत्यादि।२ वाचस्पत्यम्‌ में पथिन की व्युत्पत्ति पार्थन्‌ धातु में कन्‌ प्रत्यय के योग से हुई, जिसका अर्थ होता है - राहगीर, बटोही, घर से निकल कर मार्ग में जाने वाला।३ तीसरा शब्द पंथिक है जो पंथ शब्द के मूल तक जाने वाला है। इसकी व्युत्पत्ति भी पथिन्‌ धातु में इक प्रत्यय के योग से मानी जाती है। पंथिक शब्द का कोशपरक अर्थ राहगीर, बटोही, पथिक आदि मिलते हैं।४

भाषा विज्ञान की दृष्टि से पंथ शब्द के सन्दर्भ में उपर्युक्त तीनों शब्दों पर विचार किया जाय तो पंथ शब्द का मूल रूप पथिन और पंथिक से विकसित हुआ जान पड़ता है।भक्तिकालीन साहित्य में पंथ शब्द विभिन्न अर्थ में प्रयोग हुआ है। सूफियों ने इस शब्द को जीवन के अर्थ में प्रयुक्त किया है। सूफी कवि जायसी भी पद्मावत में पंथ शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में करते हैं। जैसे - निरमन पंथ कीन्ह ते, जेई दिया किहु हाथ,/किहु न कोई ले जाई, दिया जाई पै साध।५ इस पंक्ति में जायसी ने दान की महत्ता बताते हुए पंथ शब्द का प्रयोग जीवन पथ या जीवन पद्धति के अर्थ में करते हैं।पंथ शब्द का सामान्य प्रयोग मार्ग के अर्थ में ही हुआ है। गोस्वामी तुलसी दास जी ने मार्ग के पर्याय के रूप में पंथ शब्द का प्रयोग बहुलता से किया है। जैसे - अगम पंथम बन भूमि पहारा/केरि केहरि सर सरित अपारा।६

पंथ शब्द का प्रयोग सन्तों ने भी अपने साहित्य में जगह-जगह पर प्रयोग किया है। इसके साथ-साथ पथ शब्द का प्रयोग भी कहीं-कहीं पर देखने को मिल जाता है। इन सन्तों ने पंथ और पथ शब्दों को जीवन की आध्यात्मिक दिशा के अर्थ में भी प्रायः प्रयोग किया है। जैसे - हम नाथ पथ प्रकाश करि है। जीवन धोखा लावई।सन्त कबीर दास ने पंथ शब्द का प्रयोग आध्यात्मिक मार्ग के अर्थ में ही करते हैं। जैसे - अगम पंथ को पग धरै,/गिरै तो कहा समाय।७साहित्य और समाज में पंथ शब्द अपने विभिन्न अर्थ सन्दर्भों में प्रयुक्त होते हुए संत साहित्य के पड़ाव तक आते-आते पारिभाषिक स्वरूप ग्रहण कर लिया। सन्त परम्परा में पंथ शब्द विशेष साधना मार्ग की ओर संकेत करता हुआ एक विशिष्ट जीवन पद्धति को स्पष्ट करता है एवं धार्मिक मत या सम्प्रदाय के अर्थ में रूढ़ हो गया। कोई ऐसा धार्मिक मत या सम्प्रदाय जिसमें किसी विशिष्ट प्रकार की उपासना या साधना पद्धति प्रचलित हो, पंथ कहलाता है।८ जैसे - नानक पंथ, दरिया पंथ, दादू पंथ, रैदास पंथ, कबीर पंथ आदि।

पंथ या सम्प्रदाय विशेष के अन्तर्गत बाह्‌याचार और साधना पद्धति - मुख्य रूप से होती हैं। आचार पक्ष में पंथ की रहनी, दैनिक क्रियाएं आदि का समावेश पाया जाता है तथा साधना पद्धति में ईश्वरोन्मुख दृष्टि एवं उसे प्राप्त करने के साधन वर्णित होते हैं। पंथ के दार्शनिक सिद्धान्तों में ब्रह्‌म का निरूपण, माया, जीव एवं जगत की व्याख्या भी पंथ के अनुसार ही होती है।प्रायः यह देखा जाता है कि किसी पंथ विशेष के धर्माचार्य को अपने सिद्धान्तों और नियमों के प्रचार-प्रसार की इच्छा जाग्रत हो जाती है, वह चाहता है कि उसके सिद्धान्तों से समाज अधिकाधिक प्रभावित हो। इसलिए वह अपने सिद्धान्तों के प्रचार के लिए संगठन तैयार करता है और किसी योग्य उत्तराधिकारी को नियुक्त करता है, जो उस पंथ विशेष के सिद्धान्तों का समाज में प्रचार-प्रसार करता है और पंथ के अनुयायियों में वृद्धि करता है। इस प्रकार पंथ के प्रचार-प्रसार की सम्भावनायें बढ़ जाती है।कबीर के साहित्य के अध्ययन से यह आभास होता है कि कबीर किसी पंथ की स्थापना के पक्ष में नहीं थे न ही उन्होंने अपने जीवन में किसी पंथ का सूत्रापात अपने नाम पर होने दिया और न ही किसी मत के प्रचार-प्रसार की योजना का प्रयास किया। उन्होंने स्वयं उल्लेख किया है - मत कबीर काहू को थापै/मत काहू को मेरै हो।९

इस धारणा की पुष्टि कबीर के बीजक से भी हो जाती है। कबीर पंथ का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण धार्मिक ग्रन्थ बीजक माना जाता है। इस ग्रन्थ में कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं जिसके आधार पर विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि कबीर पंथ रचना के जबरदस्त विरोधी रहे होंगे। वे कहते हैं - ऐसो जोग न देखा भाई। भूला किरै लिए गफिलाई।/महादेव को पंथ चलावै। ऐसों बड़ो महन्त कहावै॥१०इस पंक्ति से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपने नाम पर उन्हीं के द्वारा पंथ चलाये जाने की बात असम्भव-सी है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि कबीर पंथ की स्थापना कबीर के मृत्यु के बाद हुई होगी। विद्वान कबीर पंथ की स्थापना कबीर के बाद उनके शिष्यों द्वारा ही मानते हैं।११ उपर्युक्त सन्दर्भ में इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि कबीर पंथ की स्थापना कब और कैसे हुई?प्रमाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता है कि कबीर के निधनोपरांत ही उनके समर्थकों ने कबीर पंथ की स्थापना की होगी। ऐसा माना जाता है कि सबसे पहले सन्तों में गुरु नानक ने ही पंथ-रचना का सूत्रापात किया था और उन्होंने उसके कुछ नियम भी बनाये थे। संभवतः नानकदेव के अनन्तर ही कबीर पंथ की स्थापना हुई होगी। भक्तमाल में धर्मदास को कबीर का शिष्य कहा है। इसलिए हो सकता है कि धर्मदास ने ही पंथ को व्यापक बनाने के लिए सर्वप्रथम ठोस कदम उठाया होगा।

ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जिसके आधार पर कबीर पंथ की प्रारम्भिक अवस्था पर प्रकाश डाला जा सके। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि धर्मदास ने ही सर्वप्रथम १७ वीं शताब्दी में किसी समय कबीर पंथ का संगठन किया होगा, जिससे प्रेरणा पाकर कबीर पंथ की कतिपय अन्य संगठन और व्यवस्था का भाव पैदा हुआ। धर्मदास ने कबीर के निधन के अनन्तर होने वाली बात का समर्थन स्वामी युगलानंद बिहारी के श्री भक्तमालन्तर्गत कबीर कथा से भी होता है, जिसमें कहा गया है कि कबीर ने मगहर में अन्तर्द्वान होने के पश्चात्‌ धर्मदास को दर्शन दिया था। (कबीर और कबीर पंथ)ऐसा ज्ञात होता है कि धर्मदास के पूर्व कबीर के किसी भी शिष्य ने पंथ-निर्माण की विशेष आवश्यकता न समझी थी। कबीर पंथ को सुदृढ़ बनाने के लिए संभवतः धर्मदास ने अथक प्रयास किया होगा और १८ वीं शताब्दी में कबीर पंथ में अनेक साहित्य भी लिखे जाने लगे।कबीर पंथी साहित्य में इस बात की चर्चा की जाती है कि उन्होंने अपने चार शिष्यों को चारों दिशाओं में अपने मत के प्रचार के लिए भेजा था। जिनके नाम क्रमशः चतुर्भुज, वेकेजी, सहतेजी और धर्मदास। चतुर्भुज, वेकेजी और सहतेजी के विषय में कुछ ज्ञात नहीं होता अर्थात्‌ पता नहीं चलता है। केवल धर्मदास के लिए प्रसिद्ध है कि उन्होंने इस पंथ की धर्मदासी शाखा का मध्यप्रदेश के अन्तर्गत प्रवर्तन किया था और यह भी अपनी विविध उपशाखाओं के रूप में प्रचलित है।१२घट रामायण और कबीर मन्शूर नामक ग्रन्थों से यह जान पड़ता है कि ये नाम क्रमशः नारायण दास, भागोदास, प्राणनाथ, जगजीवन दास, तत्वाजी तथा गरीब दास के हैं और इनके पंथ आज भी भिन्न-भिन्न प्रदेशों में प्रसिद्ध है।१३

कबीर पंथ की शाखाओं में से तीन शाखाओं का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। जैसे - काशी शाखा, छत्तीसगढ़ी शाखा एवं घनौती शाखा।कबीर पंथ की विशेष रूप से सर्वप्रसिद्ध शाखा काशी शाखा मानी जाती है। जिसके संस्थापक सुरतगोपाल कहे जाते हैं, जिनका नाम महान सन्त कवि कबीर दास के प्रमुख शिष्यों में भी लिया जाता है लेकिन संस्थापक के जीवन का कोई जीवन परिचय उपलब्ध नहीं है और न ही इस शाखा के मठ कबीर चौरा में मिलने वाली शिष्य परम्परा की सूची द्वारा ही उस पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस शाखा के अन्तर्गत उसके निकटवर्ती लहरतारा के मठ तथा बस्ती (उ०प्र०) के मगहर वाले मठ के भी नाम लिए जाते हैं तथा उसी के महन्त की अधीनता गया (बिहार) के कबीर बागवाले मठ तथा उड़ीसा के कुछ मठों वाले महन्त भी स्वीकार करते हैं।१४
कबीर पंथ की दूसरी प्रसिद्ध शाखा छत्तीसगढ़ी शाखा या धर्मदासी शाखा मानी जाती है। इसके संस्थापक धर्मदास कहे जाते हैं। धर्मदास को कबीर दास का एक प्रमुख शिष्य ही बताया जाता है।१५ जिस प्रकार सुरतगोपाल का जीवनवृत्त नहीं मिलता उसी प्रकार धर्मदास जी का भी। एक ग्रन्थ से पता चलता है कि खुद कबीर दास ने ही दो सौ वर्ष बाद पुनः धर्मदास के रूप में जन्म लिया था, कण्ठी तोड़ दी थी और कबीर पंथ चलाया था।१६ जो आगे चलकर १२ उपशाखाएं हुई। धर्मदासी या छत्तीसगढ़ी शाखा के एक प्रमुख केन्द्र घामखेड़ा तथा दूसरी का खरसिया है। छत्तीसगढ़ी की उपशाखाओं में ही कबीर चौरा मठ, जगदीशपुरी कबीर मठ हटकेसर और कबीर निर्णय मन्दिर तथा फतुहा मठ आदि है।उपर्युक्त दोनों प्रसिद्ध पंथ के बाद घनौती शाखा का नाम लिया जाता है। इसके संस्थापक भगवान गोसाई माने जाते हैं। इस शाखा को भगताही शाखा भी कहा जा सकता है। इसके संस्थापक को पिशौरा (बुन्देलखण्ड) का निवासी बताया जाता है। जिस प्रकार उपरोक्त दोनों संस्थापकों का जीवन परिचय का कोई प्रमाण नहीं मिलता है उसी प्रकार इनका भी नहीं मिलता है। एक विद्वान का अनुमान है कि कबीर दास के भ्रमण काल में सदा उनके साथ रहा करते थे और उनके समय-समय पर दिये गए उपदेशों को लिख लिया करते थे और उन्हें सुरक्षित भी रखते थे। फिर भी इनकी शिष्य परम्परा वाली सूची से ऐसी बात सिद्ध नहीं होती। इस शाखा का प्रमुख केन्द्र दानापुर (बिहार) में था लेकिन कुछ समय बाद घनौती चला गया। इसकी एक उपशाखा का लढ़िया स्थान में भी बताया जाता है।इन तीनों प्रमुख शाखाओं के अतिरिक्त कई और शाखाएं भी हैं जैसे - कबीर वंशी पंथ, रामकबीर पंथ, ऊदा पंथ, पनिका कबीर पंथ, द्वादश पंथ, साहेब दासी पंथ, मूल निरंजन पंथ, टकसारी पंथ, जीवा पंथ आदि ये पंथ भी पूरे देश में कहीं-कहीं पर दिखाई पड़ते हैं।

गुरु की महिमा का उल्लेख भारतीय साहित्य परम्परा में आरम्भ में ही दिखाई देता है। इस परम्परा ने सिद्धों और नाथों के यहाँ से आते-आते मध्ययुगीन साहित्य में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। भक्ति साहित्य में मनुष्य को मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले मार्गदर्शक और परमात्मा से आत्मा का साक्षात्कार कराने वाली दिव्य शक्ति के रूप में गुरु का स्मरण किया गया है। गुरु के दिव्य ज्ञान प्रकाश के समक्ष अज्ञानता एवं माया का तिमिर परास्त हो जाता है। गुरुत्व की महिमा का उल्लेख करते हुए मनु ने कहा है कि बालोऽपि विप्रो वृहस्य पिताभवति धर्मतः१७ यदि पुत्र ज्ञानी है, उसे विद्या के वास्तविक रूप का परिचय प्राप्त है तो वह गुरुत्व के कारण पिता से श्रेष्ठ है। स्पष्ट है कि गुरुत्व की महिमा से मण्डित होने के लिए आयु की अपेक्षा ज्ञान की अनिवार्यता है। परम ज्ञानी होने के कारण अह्यवज्र के प्रेमपंचक में गुरु को इती कहा गया है जो प्रज्ञा तथा उपाय की मध्यस्थता कर दोनों का मिलन कर देता है।१८ कौल साधना में गुरु का होना आवश्यक बताया गया है वह पथप्रदर्शक है। उसके अभाव में साधक सही मार्ग की ओर गमन करने में असमर्थ है। रुद्रमाल में वर्णित है कि - गुरुदेव परोमंत्रों गुरुरेव परो जपः/गुरुरेव परा विद्या नास्त्रिकिंचित गुरुं बिना।/यस्य तुष्टा गुरुदेव तस्य तुष्टा महेश्वरी।/येन सन्तोषितों देवि गुरु सं हि सदाशिवः॥१९
सन्त साहित्य में गुरु द्वारा उस सर्वव्यापी निर्गुण ब्रह्म के साक्षात्कार पर विशेष बल दिया गया है विशेषकर सन्त साहित्य की निर्गुण धारा ब्रह्म के स्वरूप को पहचानने के लिए गुरु के सहयोग को आवश्यक मानती है। यहाँ पर ज्ञान और भक्ति से मिश्रित गुरुमुख ज्ञान को विशेष रूप से स्वीकृति प्रदान की गयी है। इनका सद्गुरु सम्पूर्ण अध्यात्म और योग के समुद्र मंथन द्वारा प्राप्त सन्तों और भक्तों के लिए ग्राह्य सद्ज्ञान का ही ज्ञाता है। इनका दावा है कि सम्पूर्ण ज्ञानियों और भक्तों में से उनका सद्गुरु ज्ञान और भक्ति के सारतत्त्व के, उपयोगी स्वरूप को निकाल कर अब तक असाध्य एवं अनाविकृति में ज्ञान स्वरूप को संसार के सामने रखने में समर्थ हुआ है। गुरु की भक्ति का वास्तविक रहस्य कोई प्राणी क्या जान सकता है। यह तो ब्रह्मा, इन्द्र तथा महेश के लिए भी अगम्य है। वह जिस किसी को चाहे अलख कर दर्शन करा सकता है।निर्गुण साहित्य की सन्तधारा योग दर्शन से कतिपय प्रभावित दृष्टिगोचर होती है। गोरखनाथ आदि योगियों के यहाँ सद्गुरु की परम्परा प्राप्त होती है। गोरख के पदों को पढ़ने पर ज्ञात होता है कि गोरखनाथ जी के यहाँ सतगुरु शब्द का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। उनके गुरु के हृदय में सरस्वती स्वयं विराजमान हो प्रत्यक्ष ज्ञान को उच्चरित करती हैं। (बिनपुस्तक वंचिता पुरान सृर्स्वती उचारे ब्रह्मा गियान गो०वा०पृ० १७६) कहीं अरा सदगुरु जीवों का इस भवसागर से उद्धार करने वाला नाविक दिखाई पड़ता है। (गुरु हमारा नांवगर कहिये में हैं करम वियोग। गो०वाणी १६ पृ० २१२) गुरु की महिमा के विषय में गुरु नानक कहते हैं कि -गुरु का उपदेश सुनोगे तो तुम्हारी सोच हीरे मोती के गुणों से सम्पन्न होगी। (मति विचि रत्न जवाहर माणिक जो इस इक गुरु की सीख सुणी। जपुजी पृ० ५६) प्रत्येक मनुष्य के भीतर सदगुण निहित है परन्तु अज्ञानतावश बुद्धि उन सदगुणों का परिचय प्राप्त नहीं कर पाती ऐसे में गुरु का उपदेश ज्ञानलोक से उन सद्गुणों का परिचय कराता है इस प्रकार जीव आत्म परिचय प्राप्त कर पाने में समर्थ होता है।संत कबीर के यहाँ गुरु को परमात्मा से भी श्रेष्ठ सम्मान प्रदान किया गया है। क्योंकि उस परमसत्ता का परिचय कराने वाला तथा उस तक पहुँचाने वाला सतगुरु ही है। कबीर ने हरि रूठै गुरु ठौर है गुरु रूठै नहिं ठौर कहकर गुरु की महत्ता स्थापित की है। डॉ० राम कुमार वर्मा ने लिखा है कि -कबीर का गुरु में अटल विश्वास था। उन्होंने गुरु की वंदना अनेक प्रकार से की है। अपनी गुरु सेवा से ही उन्होंने भक्ति प्राप्त की थी। गुरु की प्राप्ति को वह ईश्वर कृपा के फलस्वरूप ही समझते थे।२० कबीर कोरे शास्त्रों, पुराणों या मात्र पुस्तकीय ज्ञान में विश्वास नहीं करते थे उनका मानना था -पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पण्डित भया न कोय। उनके यहाँ गुरु द्वारा दिये जाने वाले सदोपदेश ही वास्तविक ज्ञान हैं। गुरु के शब्दोपदेश से जीव का तत्त्व साक्षात्कार सम्भव होता है।

कबीर का मानना है सदगुरु के समान कोई अपना नहीं है क्योंकि वही हमें अज्ञान के तिमिर-गह्यर से बाहर निकाल सकता है। उसके समान कोई दानी भी नहीं है वह परम हितैषी परमात्मा का परिचय कराता है। उस ईश्वर के समान कोई दूसरा हितैषी नहीं हैं और भक्त से ऊँची कोई जाति नहीं हैं। जैसे - सतगुरु संवान को सगा, सोंधी सई नदाति।/हरिजी संवान को हितू हरिजन सई न जाति।२१कबीर योगमार्ग की ओर झुके हुए थे। उनके कुल में और कुल गुरु परम्परा में वह मार्ग प्रतिष्ठित था। बाद में उनका समागम रामानंद से हुआ। जिस दिन से महागुरु रामानन्द ने कबीर को भक्ति रूपी रसायन दी उस दिन से उन्होंने सहज समाधि की दीक्षा ली आँख मूंदने और नाक सूंघने के टंटे को नमस्कार कर लिया, मुद्राओं आसन की गुलामी को सलामी दे दी उनका चलना ही परिक्रमा हो गया काम का यही सेवा हो गये सोना ही प्रणाम बन गया बोलना ही नाम जप हो गया और खाने पीने ने ही पूजा का स्थान ले लिया। हठयोग के टंटे से दूर हो गये खुली आँखों से ही उन्होंने मधुर मादक रूप को देखा, खुले कानों से ही अनहद नाद सुना उठते बैठते सब समय, समाधि का आनन्द पाया और उत्पन्न उल्लास में आवेग में उन्होंने घोषित किया-साधो सहज समाधिभली/गुरु प्रताप जा दिन से उपजो, दिन-दिन अधिक चली।२२इस भ्रम जगत को सत्य मानकर जीव निरन्तर इसके आकर्षण में बंधता जाता है। जगत्‌ नश्वर है, अतः उसके हाथों निराशा, दुःख, पीड़ा मात्रा ही आती है फिर भी अज्ञानतावश वह संसार की माया में बंधता जाता है यद्यपि सतगुरु के द्वारा बार-बार संसार के मिथ्या होने का संकेत मिलता है पर कुछ ही लोग है जो गुरु के इस ज्ञान को आत्मसात्‌ कर पाते हैं और संसार के मायावी रूप को पहचान लेते हैं। उनके भीतर से इच्छायें समाप्त हो जाती हैं और वह इस जीवन मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं-माया दीपक नर पतंग भ्रमि-भ्रमि इवै पडंत/कहै कबीर गुरु ज्ञान थै एक आध उबरंत।२३

कबीर की दृष्टि में सच्चे गुरु से बढ़कर कोई भी वीर नहीं हैं। गुरु के लिए वैरागी शिष्य गर्म लोहे के समान है। जिस प्रकार गर्म लोहे पर प्रहार कर लोहार उसे आकृति प्रदान करता है उसी प्रकार सदगुरु ज्ञान की अग्नि में तपाकर शिष्य को कंचन बना देता है -सतगुरु साँचा सुरिवॉ तातै लोहि लुहार/कसणी से कंचन किया ताई लिया तत्सार।२४

कबीर अपने गुरु के प्रति हृदय से कृतज्ञ हैं। वह कभी उसे फकीर कभी साहब कभी सतगुरु कहकर सम्बोधित करते हैं फकीर इसलिए कहते हैं कि वह सांसारिक चिन्ता से मुक्त हैं वह परमात्मा से अपनी लौ लगा चुका है। ऐसे ही सच्चे गुरु ने उनकी सो रही आत्मा को शब्द से संगीतमय स्पर्श से जगा दिया है। अज्ञानता के कारण भवसागर में डूब रही जीवात्मा को समझाते हुए बॉह पकड़कर इस संसार सागर में डूबने से बचा लिया है। परमगुरु जिसका प्रत्येक शब्द मूल्यवान था उसने अपने मात्र एक ज्ञानयुक्त वचन से आत्मा को बंधन मुक्त कर दिया। सज्जनों से कबीर कहते हैं कि ऐसे ज्ञानी परमात्मा को प्राप्त कर चुके गुरु ने मेरे प्राण को इस सागर में डूबने से बचाते हुए पार लगा दिया -तोहि मोरि लगन लगाये रे फकीरवा।/सोवत ही मैं अपने मंदिर में सब्दन मारि जगाये रे फकीरवा॥/एकै बचन नहीं इजा तुम मोसे बंद छुड़ाये रे फकीरवा।/कहै कबीर सुनौ भई साधौ, प्रानन प्रान लगायै रे फकीरवा।२५कबीर ने गुरु को परमात्मा से भी बड़ा स्थान दिया है। उन्होंने यह स्पष्ट कह दिया कि सातों दीप और नौ खण्ड में खोज कर मैंने देख लिया मुझे सतगुरु से बड़ा कोई भी नहीं मिला। बहुत सम्पन्न और सब कुछ कर लेने वाला भी जिस कार्य को नहीं कर सकता वह कार्य गुरु द्वारा सम्पन्न किया जाना संभव है - तीन लोक नौ खण्ड में गुरु ते बड़ा न कोई।/करता करैन करिसकै गुरु करै सो होई।२८

यहाँ कर्ता से आशय ईश्वर से भी लिया जा सकता है कि वह परम सत्ता भी जो न कर सके वह कार्य गुरु द्वारा किया जाना संभव है अर्थात्‌ परमात्मा के स्वरूप का स्पष्टीकरण गुरु ही करता है वही परम ब्रह्म तक जाने का मार्ग भी दिखाता है। कबीर ने सतगुरु के द्वारा प्राप्त होने वाले ज्ञान की उपयोगिता के साथ-साथ एक आदर्श शिष्य के गुणों पर भी विचार किया है यदि जीव जागना ही नहीं चाहेगा तो गुरु क्या कर सकता है वह अयोग्य शिष्य के संबंध में कहते हैं- सतगुरु बपुरा क्या करै जे सिषही मांहै चूक/भावै त्यं प्रमोघि ले, ज्यूं बंसि बजाई फूक।२७

सतगुरु की महिमा का बखान करने के साथ-साथ कबीर ने अयोग्य शिष्य और अयोग्य गुरु दोनों का उल्लेख किया है। अज्ञानता के वाहक दोनों ही विनाश की ओर अग्रसर होते हैं। जिसका गुरु अंधा है अर्थात्‌ जिसने अन्तर्मन से साक्षात्कार नहीं किया है और शिष्य पूरी तरह अज्ञानी होने के कारण अंधा है ऐसे अज्ञानी गुरु और शिष्य की स्थिति एक दूसरे को ठेलते हुए अंधे कुएं में जाने वाली है -जाका गुरु भी अंधला चेलौ खरा निरंध/अंधौ अंधा ठेलिया ठूल्यूं कूप पडेत।२८कबीर अपने सतगुरु की महिमा और उसके लक्षण का उल्लेख करते हुए संसार के साधुजनों से कहते हैं कि मुझे तो सतगुरु भा गया, जो सत्‌नाम का प्याला पीता है और मुझे भी पिलाता है ब्रह्मरस को प्राप्त कर लिया है, मेरा सतगुरु सांसारिक ढकोसलों से दूर है न वह किसी धार्मिक मेले में जाता है, न महंत आदि की उपाधि से मण्डित है, न ही पूजा पाठ सम्पन्न कर उपहार की सामग्रियाँ लाता है। वह तो नेत्रों पर पडे भ्रम के परदे को सहज ज्ञान द्वारा हटाकर जीवात्मा में निवासरत्‌ ब्रह्म का दर्शन कराता है, जिसके सहयोग से जीवात्मा परमात्मा का दर्शन प्राप्त करती है, वह समस्त सृष्टि में अनायास गुंजायमान ब्रह्म शब्द को सुनाता है। वह परम ब्रह्म अहिर्निंश शरीर के भीतर ही सत्‌संग रचाता है और ब्रह्म में प्रेम को समाहित करता है। कबीर दास जी कहते हैं कि वह ज्ञान मण्डित है सत्य का ज्ञाता है। अतः किसी प्रकार का भय नहीं - साधोरनो सतगुरु मोहि भावै/सत्‌नाम का भरभरा प्याला आप पिवें मोंहि प्यावै/मेले जाय न महंत कहावै पूजा भेंट न लावै/परदा दूर करे आंखिन का निज दासा दिखनावै/जाके दरसन साहब दासै अनहद शब्द सुनावै/निसि दिन सत संगति में राचै शब्द में सुरति समावै/कह कबीर ताकौ भय नाहीं निरमय पद परसावैं।२९

कबीर के पदों में सुरति निरति शब्द का प्रयोग अनेकानेक स्थान पर हुआ है यह शब्द पारिभाषिक है। निरति जब सुरति में और सुरति जब निरति में मिलती है और सुरति जब शब्द में मिलती हैं तो हँस देह की प्राप्ति होती है। निरति बाहरी प्रवृत्ति की निवृत्ति को और सुरति अन्तर्मुखी वृत्ति को कहते हैं। जब बाह्यमुखी वृत्ति अन्तर्मुखी वृत्ति में लीन होती है तो जीव को जीव और ब्रह्मा के अभेद की प्रतीति होती है।३० सतगुरु की दया के साथ सुरति की लौ लगता या उसकी प्राप्ति का उल्लेख कबीर के यहाँ स्थान-स्थान पर मिलता है -सतगुरु सोइन्दया करि दीन्हा/चंद नसूर दिवस नहीं रजनी, तहाँ सुरत लौलाई/बिना अन्न अमृत-रस-भोजन-बिन-जल-तृषा बुझाई॥३१
कबीर का मत है कि इस भव सागर में मुक्ति हेतु गुरु का होना अनिवार्य है। जिसे मुक्ति की चाह होगी उसे सदगुरु प्राप्त होगा। जिसके हृदय में व्याकुलता होगी वह गुरु के वचनों का आदर करेगा।भक्तिकालीन साहित्य में नानक, दादू, रैदास, जायसी, सूर, तुलसी सभी के यहाँ गुरु की महिमा का उल्लेख किया गया है। परन्तु सगुण भक्ति साहित्य की अपेक्षा निर्गुण भक्ति साहित्य में और विशेषकर निर्गुण की ज्ञान मार्गी धारा में गुरु को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। क्योंकि गुरु ही परमात्मा का परिचय कराने वाला है जीव को इस भवसागर से उबारने वाला है। जिसकी कृपा से मन की कलुषता और चंचलता नष्ट हो जाती है, प्रतिबिम्ब बिम्ब में मिल जाता है और सारे बंधन कट जाते हैं।३२ गोरखनाथ जी द्वारा कहा गया है कि गगन मण्डल में औंधा कुअन्तह अमृत का बासा। सगुणाहोइ सो भरभर पिवै निर्गुण जाइ पियासा और सब भले ही प्यासे रह गये हों पर कबीर ने सद्गुरु को पा लिया था और गगन मण्डल में औंधे कुए का जलपान जी भर कर किया था। सतगुरु के उपकार के कारण कबीर के अन्तर्मन की आँखें खुल गई थीं चेतना जाग्रत हो गई थी। अतः उन्होंने उस अनन्त स्वरूप का साक्षात्कार कर लिया। सतगुरु की महिमा अपरम्पार है जिसकी कृपा से कबीर और अनेक सद्जनों का उद्धार हुआ - सतगुरु की महिमा अनंत अनंत किया उपगार/लोचन अनंत उघाड़िया अनंत दिखावणहार।३३
सन्दर्भ-ग्रन्थ
१. गणेश दत्त शास्त्री, पदमचन्द्र कोश, पृ० २९८
२. मानक हिन्दी कोश, भाग-२, पृ० ३८२
३. डॉ० तारानाथ वाचस्पत्यम्‌, पाँचवा भाग, पृ० ४२२३
४. मानक हिन्दी कोश, पृ० ३४८५. जायसी कृत पद्मावत
६. तुलसीदास कृत अयोध्या काण्ड, पृ० ४१७
७. (सं०) श्यामसुन्दर दास, मानक हिन्दी कोश, भाग-३, पृ० ३४८
९. (सं०) सरदार जाफरी, कबीर वाणी, पृ० १७३
१०. बीजक पाठ, पृ० ९४
११. डॉ० केदारनाथ दूबे, कबीर और कबीर पंथ, पृ० १६२
१२. परशुराम चतुर्वेदी, उत्तरी भारत की सन्त परम्परा, पृ० २६२
१३. उत्तरी भारत की सन्त परम्परा, पृ० २६३ पर उद्धरित।
१४. (सं०) धीरेन्द्र वर्मा, हिन्दी साहित्य कोश, भाग-१, पृ० १६६
१५. वही, पृ० १६६१६. सन्त दरिया साहब, ज्ञानदीप, पृ० १६०
१७. मनुस्मृति-२/५०, पृ० ५६
१८. धीरेन्द्र वर्मा, हिन्दी साहित्यकोश, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, पृ० २३४
१९. पुरुषोत्तम लाल जी, कबीर साहित्य का अध्ययन, १५९
२०. डॉ० रामकुमार वर्मा, संत कबीर, साहित्य भवन प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. १९५७, पृ० ७३
२१. (सं.) श्याम सुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली - (साखी), नागरी प्रचारिणी सभा, काशी चौदहवाँ संस्करण, पृ० 1
२२. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर लि० बम्बई, छठा संस्करण, सं. १९६०, पृ० १५१
२३. (सं.) श्याम सुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली, पृ० १९
२४. वही, पृ० ३२५. (सं.) हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृ० २३८
२६. अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, कबीर वचनावली, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, ग्यारहवाँ संस्करण, पृ० १२०२७. भगवत स्वरूप मिश्र, कबीर ग्रन्थावली (साखी-२१), पृ० ८
२८. (सं.) श्यामसुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली, पृ० २२८. वही, पृ० १४१
३०. हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृ० २४३-४४
३१. वही, पृ० २५४३२. डॉ० रघुनाथ प्रसाद चतुर्वेदी, मध्ययुगीन भक्तिकाल में गुरु, पृ० ९२
३३. (सं.) श्यामसुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली (साखी-३), पृ० 1

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बातें

अमृता प्रीतम



आ साजन, आज बातें कर लें...

तेरे दिल के बाग़ों में
हरी चाह की पत्ती-जैसी
जो बात जब भी उगी,
तूने वही बात तोड़ ली

हर इक नाजुक बात छुपा ली,
हर एक पत्ती सूखने डाल दी

मिट्टी के इस चूल्हे में से
हम कोई चिनगारी ढूँढ़ लेंगे
एक-दो फूँफें मार लेंगे
बुझती लकड़ी फिर से बाल लेंगे

मिट्टी के इस चूल्हे में
इश्क़ की आँच बोल उठेगी
मेरे जिस्म की हँडिया में
दिल का पानी खौल उठेगा

आ साजन, आज पोटली खोल लें
हरी चाय की पत्ती की तरह
वहीं तोड़-गँवाई बातें
वही सँभाल सुखाई बातें
इस पानी में डाल कर देख,
इसका रंग बदल कर देख

गर्म घूँट इक तुम भी पीना,
गर्म घूँट इक मैं भी पी लूँ
उम्र का ग्रीष्म हमने बिता दिया,
उम्र का शिशिर नहीं बीतता

आ साजन, आज बातें कर लें...

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Wednesday, December 17, 2008

आवाज़

अमृता प्रीतम




बरसों की राहें चीर कर
तेरी आवाज़ आयी है
सस्सी के पैरों को जैसे
किसी ने मरहम लगाई है...

आज किसी के सिर से
जैसे हुमा गुज़र गया
चाँद ने रात के बालों में
जैसे फूल टाँक दिया

नींद के होठों से जैसे
सपने की महक आती है
पहली किरण रात की
जब माँग में सिन्दूर भरती है...

हर एक हर्फ़ के बदन
तेरी महक आती रही
मुहब्बत के पहले गीत की
पहली सतर गाती रही

हसरत के धागे जोड़ कर
हम ओढ़नी बुनते रहे
बिरहा की हिचकी में भी हम
शहनाई सुनते रहे...

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उषस् (एक)

नरेश मेहता

नीलम वंशी में से कुंकम के स्वर गूँज रहे !!
अभी महल का चाँद
किसी आलिंगन में ही डूबा होगा
कहीं नींद का फूल मृदुल
बाँहों में मुसकाता ही होगा
नींद भरे पथ में वैतालिक के स्वर मुखर रहे !!
अमराई में दमयन्ती-सी
पीली पूनम काँप रही है
अभी गयी-सी गाड़ी के

बैलों की घण्टी बोल रही है
गगन-घाटियों से चर कर ये निशिचर उतर रहे !!
अन्धकार के शिखरों पर से
दूर सूचना-तूर्य बज रहा
श्याम कपोलों पर चुम्बन का
केसर-सा पदचिह्न ढर रहा
राधा की दो पंखुरियों में मधुबन झीम रहे !!
भिनसारे में चक्की के सँग
फैल रहीं गीतों की किरनें
पास हृदय छाया लेटी है
देख रही मोती के सपने
गीत ने टूटे जीवन का, यह कंगन बोल रहे !!

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Tuesday, December 16, 2008

सामाजिक समरसता और कबीर

डॉ० वी.डी. गुप्ता
सामाजिक समरसता भारतीय संस्कृति की आत्मा है। धर्म सापेक्षीकरण, धर्म निरपेक्षीकरण, सर्वधर्म समभाव, मानवतावाद, बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय आदि अवधारणाएँ सामाजिक समरसता की पोषक व परिणाम रही हैं। विविधता में एकता की भावना समरसता का ही प्रतिनिधित्व करती है। संत, साहित्यकार, समाजवैज्ञानिक आदि सभी सामाजिक व्यवस्था एवं प्रगति हेतु - सामाजिक संगठन की स्थिरता हेतु सामाजिक समरसता की अपेक्षा करते रहे हैं। मानव संगठित हों, रागद्वेष, बैरभाव को त्यागकर परस्पर सहयोगी हों, समाज द्वारा निर्धारित कर्तव्यों - प्रस्थिति एवं भूमिका के अनुरूप कर्तव्यपालन करते हुए समृद्धि एवं समानता को प्राप्त करें; उनके चिन्तन उद्देश्य एवं भावनाओं में समरूपता हो साथ ही समाजकल्याण - सबके सुख के लिए प्रयत्नशील हों - समरसता की आधारभूमि के उर्वरक तत्त्व रहे हैं।
उपनिषद् का यह सूत्रा वाक्य समरसता का ही उन्नायक व परिचायक है - सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः/सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भाक्‌-भवेत्‌।मानवमात्र के हित की कामना, सुख समृद्धि एवं कल्याण की भावना ही सामाजिक समरसता है जो विभिन्न जाति, वर्ण, धर्म, सम्प्रदाय, भाषायी मानव को मन, वाणी और कर्म से समरूप हो अपनी प्रस्थिति एवं भूमिका का निर्वाह करते हुए लक्ष्य प्राप्ति की ओर प्रेरित करती है - समभाव एवं भावनात्मक एक्य का आदर्श बने।सामाजिक समरसता के पल्लवन्‌ - प्रचार-प्रसार के प्रति साहित्यकार सदैव सजग रहा है। एक सामाजिक प्राणी के रूप में वह समाज का शिल्पकार ही नहीं शिक्षक, पथ-प्रदर्शक, विश्लेषक व सर्जक भी है एतदर्थ उसके सृजन में सामाजिक समरसता का सन्देश रहना स्वाभाविक ही है, संत कबीर भी इसके अपवाद नहीं। उनका सृजन मानव को दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से - सांसारिक दुख एवं क्लेशों से मुक्ति भाव पर केन्द्रित है। उनके सृजन का लक्ष्य मानव कल्याण ही है - हरिजी यहै विचारिया, साषी कहो कबीर।/भौ सागर में जीव हैं, जो कोइ पकडै तीर॥कबीर समाजदृष्टा थे।
मानव कल्याण - भवसागर के दुखों से छुटकारा पाना - दिलाना उनका लक्ष्य था जो जाति, वर्ण, कुल, धर्म, सम्प्रदाय आदि के संकीर्ण विचारों के विद्यमान रहते हुए सम्भव नहीं था। बाह्याडम्बरों, रूढ़िवादिता, पारस्परिक बैरभाव, अलगाव, व्यक्तिवादी विचारों से आक्रान्त समाज के लिए दुर्लभ ही था। कबीर की ईश्वरोन्मुख वाणी - समाजोन्मुखी भी है जिसमें सामाजिक समरसता का सन्देश है। लौकिक एवं पारलौकिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु संत के लक्षण प्रतिपादित करते हुए वे इस तथ्य को स्थापित करते हैं - निर बैरी निह कामता, साईं सेती नेह।/विषया सूं न्यारा रहै सन्तन का अंग एह।कबीर की वाणी एक भक्त की सहज अभिव्यक्ति है। भक्ति की एकान्तिक साधना को जनसामान्य के लिए सहज व सुलभ बनाने, लोकमानस के अनुरूप बनाने का प्रयास करती है - आडम्बरों एवं जटिलता से मुक्ति प्रदान कर ईश्वराधन की प्रक्रिया में साम्य लाकर भक्ति को समरसता के धरातल पर अधिष्ठित करती है।
एक प्रगतिशील विचारक के रूप में कबीर लोक-वेद-परम्परा से हटकर ज्ञान का आश्रय ग्रहण करते हैं, प्रेरित करते हैं - पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।/आगै थै सतगुर मिल्या दीपक दीया हाथि॥उनकी साखी ज्ञान की आँख हैं जो प्रत्यक्ष - अवलोकनजनित अनुभूति पर विश्वास करती है - मैं कहता हौं आंखिन देखी/तू कहता है कागज की लेखी/मैं कहता सुरझावन हारी/तू राख्यौ अरुझाइ रे/मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होइ रे!प्रत्यक्ष दृष्टा निश्चय ही समाज में विद्यमान समस्याओं - वैषम्य को परिस्थितियों के सन्दर्भ में सुलझाने का प्रयास करेगा न कि लोक परम्पराओं-मान्यताओं के आधार पर जिनका परिणाम वे हैं। कबीर एक समाज वैज्ञानिक के रूप में यथार्थ का अवलोकन करते हैं, सत्य से साक्षात्कार कर - उसका विश्लेषण कर अभिव्यक्त करते हैं। मानव व्यक्तित्व के साथ-साथ समाज के व्यक्तित्व को समरूप ढालने का प्रयास करते हैं - समरसता की भावना से अनुप्राणित कर उन्होंने सैद्धान्तिक मान्यताओं को व्यवहार में ढालकर मानव को इस ओर प्रेरित किया। कथनी-करनी के साम्य के अभाव में जीवन के आदर्श व्यर्थ हैं - कथणीं कथी तौ क्या भया, जे करणी नाँ ठहराइ।/कालबूत के कोट ज्यूँ देषतहीं ढहि जाइ॥सामाजिक समरसता का आधार समाज में हम भावना के प्राबल्य पर निर्भर करता है - व्यक्तिवादिता मैं की भावना पर नहीं।
राग-द्वेष की भावना से मुक्त होने पर ही हम भावना का विकास सम्भव है। कबीर अनुभव करते हैं कि व्यक्तिवादिता का प्राबल्य - परस्पर विद्वेष एवं घृणा, प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, प्रतिहिंसा आदि के रूप में समाज को प्रदूषित कर रहे हैं - प्रेम भावना - सहयोग, हम भावना का हृास कर - सब अपनी-अपनी आग में जल रहे हैं - हम भावना का लोप हो रहा है कबीर अनुभव करते हैं - ऐसा कोई ना मिलै जासों रहिये लागि।/सब जग जलतां देखिया अपनी आगि॥ऐसे में परस्पर सहयोग व सद्भाव सम्भव नहीं-पारस्परिक सन्देह एवं अविश्वास की वृद्धि सामंजस्य में बाधक ही बनती है। कबीर को ऐसे इंसान की तलाश है जो पलटवार न करे -ऐसा कोई ना मिलै जासों कहूं निसंक।/जासों हिरदै की कहूं सो फिर मारै डंक॥डंक मारकर समाज को विषाक्त करने वाले तत्त्वों को अमृतमय बनाने की आकांक्षा कबीर की समरस भावना का ही बोध कराती है - प्रेमी ढूंढत मैं फिरौ प्रेमी मिलै न कोय।/प्रेमी को प्रेमी मिलै तब सब विष अमृत होय॥विष को अमृत में बदलने - व्यष्टि को समष्टि में ढालकर समरसता की ओर प्रेरित करने की दृढ़ता कबीर के व्यक्तित्व में रही - जाके मन विश्वास है, सदा गुरु है संग।/कोटि काल झकझोर ही तऊ न होय चित भंग॥व्यक्तित्व की यही दृढ़ता एवं विश्वास कबीर को मानवतावादी - समरसतावादी महामानव के रूप में प्रतिष्ठित करती है। एक तटस्थ स्रष्टा की वाणी ही ऐसा कहने में सक्षम हो सकती है - कबिरा खड़ा बजार में सबकी मांगहि खैर।/ना काहू सों दोस्ती ना काहू सों बैर॥
कबीर की संकल्पना में ऐसा समरस समाज है जहाँ बारहमास वसंत है - सभी सुखी व नीरोग हैं, समान हैं - प्रेममय हैं - हम वासी उस देश के जहवां नहिं मास वसंत।/नीझर झरै महा अमी भीजत हैं सब संत॥ जाति, वर्ण, कुल आदि का भेद जहाँ नहीं है - हम वासी उस देश के, जहां जाति वरन कुल नाहीं।/शब्द मिलावा होय रहा देह मिलावा नाहिं॥ऐसी संकल्पना की पृष्ठभूमि तत्कालीन समाज में विद्यमान ऊँच-नीच, अस्पृश्यता, जाति, वर्ण, भेद, धर्म, सम्प्रदाय की विषमताएँ, संकीर्णताएँ एवं संघर्ष ही हैं जिनके प्रति कबीर सचेत करते हैं। उनके पदों और साखियों में ऐसे पर्याप्त साक्ष्य हैं जो सामाजिक समरसता के बाधक हैं। जाति-पांति, ऊँच-नीच की भावना कबीर को ग्राह्य नहीं - जौ पै करता वरण विचारै।/तौ जनमत तीन डांडी किन सारै॥ .... /नहिं कोउ ऊंचा नहिं कोउ नींचा, जाका प्यंड ताही का सींचा।/जे तूं बांभन बंमनी जाया, तो आँन बाट ह्नै काहे न आया॥धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर संघर्ष उन्हें बर्दाश्त नहीं। वे हिन्दू एवं मुसलमानों के इस पागलपन की भर्त्सना करते हैं - साधो, देखो जग बौराना।/सांची कहौ तौं मारन धावै झूँठे जग पतियाना।/आपस में दोउ लड़े मरतु हैं मरम कोइ नहिं जाना॥विविधता में एकता के भाव ही उन्हें गाह्य हैं - गहना एक कनक तें गढ़ना इनि मंह भाव न दूजा॥/कहन-सुनन को दुर कर पापिन इक निमाज इक पूजा॥आदि, आदि तथ्य इस ओर संकेत करते हैं कि कबीर सामाजिक समरसता के बाधक तत्त्वों के प्रति मानव को जागरूक करते हैं, उनकी समीक्षा करते हैं साथ ही समाजकल्याण - सर्वहित की ओर उन्मुख भी करते हैं - साईं इतना दीजिए जा मैं कुटुम समाइ।/मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाइ॥यथार्थतः समकालीन भारतीय समाज की पृष्ठभूमि में सामाजिक समरसता की आकांक्षा पूर्ति हेतु कबीर की वाणी में सार्थक सूत्र हैं। क्षेत्रीयता, साम्प्रदायिकता, भाषावाद, जातिवाद, अस्पृश्यता, धार्मिक उन्माद आदि के रहते हुए सामाजिक समरसता - समतामूलक समाज की स्थापना दिवास्वप्न ही रहेगी। नेतृत्व एवं जनता की कथनी-करनी के साम्य का सन्देश कबीर की वाणी में है। भ्रम में रहकर कागा हंस भले ही बने परन्तु यथार्थ यथार्थ ही रहेगा। अलगाव, प्रतिहिंसा, विषमता, संघर्ष, भेदभाव आदि के रहते सबकी सुख-समृद्धि-समता असम्भव ही है, इस तथ्य को-सार को, जानना जरूरी है, आवश्यकता है ज्ञान चक्षुओं के उन्मीलन की। कबीर ने सच ही कहा है - साखी आंखी ज्ञान की मत भरमा जग कोय।/सार शब्द जाने बिना कागा हंस न होय॥

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किरन-धेनुएँ

नरेश मेहता

उदयाचल से किरन-धेनुएँ
हाँक ला रहा वह प्रभात का ग्वाला।
पूँछ उठाए चली आ रही
क्षितिज जंगलों से टोली
दिखा रहे पथ इस भूमा का
सारस, सुना-सुना बोली
गिरता जाता फेन मुखों से
नभ में बादल बन तिरता
किरन-धेनुओं का समूह यह
आया अन्धकार चरता,
नभ की आम्रछाँह में बैठा बजा रहा वंशी रखवाला।
ग्वालिन-सी ले दूब मधुर
वसुधा हँस-हँस कर गले मिली
चमका अपने स्वर्ण सींग वे
अब शैलों से उतर चलीं।
बरस रहा आलोक-दूध है
खेतों खलिहानों में
जीवन की नव किरन फूटती
मकई औ’ धानों में
सरिताओं में सोम दुह रहा वह अहीर मतवाला।

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रोज़ी

अमृता प्रीतम



नीले आसमान के कोने में
रात-मिल का सायरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
सफ़ेद गाढ़ा धुआँ उठता है
सपने जैसे कई भट्ठियाँ हैं
हर भट्ठी में आग झोंकता हुआ
मेरा इश्क़ मज़दूरी करता है
तेरा मिलना ऐसे होता है
जैसे हथेली पर कोई
एक वक़्त की रोज़ी रखता है...
जो खाली हँडिया भरती है
राँध-पका कर अन्न परस कर
वह हाँडी उलटा रखता है
बची आँच पर हाथ सेंकता है
घड़ी पहर को सुस्ता लेता है
और ख़ुदा का शुक्र मनाता है
रात-मिल का सायरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
धुँआ इस उम्मीद पर निकलता है
जो कमाना है वही खाना है
न कोई टुकड़ा कल का बचा है
न कोई टुकड़ा कल के लिए है...

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Monday, December 15, 2008

ग़ज़ल

अहमद फ़राज


अब वो झोंके कहाँ सबा1 जैसे
आग है शहर की हवा जैसे

शब सुलगती है दोपहर की तरह
चाँद, सूरज से जल बुझा जैसे

मुद्दतों बाद भी ये आलम है
आज ही तो जुदा हुआ जैसे

इस तरह मंज़िलों से हूँ महरूम2
मैं शरीके-सफ़र3 न था जैसे

अब भी वैसी है दूरी-ए-मंज़िल
साथ चलता हो रास्ता जैसे

इत्तफ़ाक़न भी ज़िन्दगी में फ़राज़
दोस्त मिलते नहीं ज़िया4 जैसे

1 पुरवाई, समीर, ठण्डी हवा 2. वंचित, 3. सफ़र में शामिल 4 ज़ियाउद्दीन ज़िया

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कबीर और जायसी का रहस्यवाद : तुलनात्मक विवेचन

डॉ० ए.एल. अन्सारी
रहस्यवाद का अर्थ
काव्य की उस मार्मिक भावभिव्यक्ति को रहस्यवाद कहते हैं, जिसमें एक भावुक कवि अव्यक्त, अगोचर एवं अज्ञात सत्ता के प्रति अपने प्रेमोद्गार प्रकट करता है। काव्य की इस भावभिव्यक्ति के बारे में विद्वानों के विविध विचार मिलते हैं। जैसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि -जहाँ कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यन्त चित्रामयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है, उसे रहस्यवाद कहते हैं।१ डॉ० श्याम सुन्दर दास ने लिखा है कि -चिन्तन के क्षेत्रा का ब्रह्मवाद कविता के क्षेत्र में जाकर कल्पना और भावुकता का आधार पाकर रहस्यवाद का रूप पकड़ता है।२ महाकवि जयशंकर प्रसाद के अनुसार- रहस्यवाद में अपरोक्ष अनुभूति, समरसता तथा प्राकृतिक सौन्दर्य के द्वारा अहं का इदं से समन्वय करने का सुन्दर प्रयत्न है।३
सुप्रसिद्ध रहस्यवादी कवयित्री महादेव वर्मा ने - अपनी सीमा को असीम तत्त्व में खो देने को रहस्यवाद कहा है।४ डॉ० रामकुमार वर्मा का विचार है कि -रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल सम्बन्ध जोड़ना चाहती है और यह सम्बन्ध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता।५अतः यह कहा जा सकता है कि रहस्यवाद के अंतर्गत एक कवि उस अज्ञात एवं असीम सत्ता से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करता हुआ उसके प्रति अपने ऐसे प्रेमोद्गार व्यक्त करता है, जिसमें सुख-दुःख, आनन्द-विषाद, संयोग-वियोग, रूदन-हास आदि घुले मिले रहते हैं और वह अपनी अन्त होने वाली सत्ता को अनन्त सत्ता में विलीन करके एक व्यापक एवं अखण्ड आनन्द का अनुभव किया करता है।कबीर और जायसी के रहस्यवाद के सम्बन्ध में विद्वानों की रायकबीर और जायसी के रहस्यवाद के सम्बन्ध में हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वानों के मत एक-दूसरे से भिन्न हैं।
कोई कबीर को ही रहस्यवादियों में सर्वश्रेष्ठ मानता है, तो कोई जायसी के रहस्यवाद में ही रमणीयता और सौन्दर्य के दर्शन करता है। कोई कबीर के रहस्यवाद को प्रायः नीरस और शुष्क मानता है। निम्नलिखित उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जायेगा -डॉ० श्याम सुन्दर दास के अनुसार - रहस्यवादी कवियों में कबीर का ही आसन सबसे ऊँचा है। शुद्ध रहस्यवाद केवल उन्हीं का है। प्रेमाख्यानक कवियों का रहस्यवाद तो उनके प्रबन्ध के बीच-बीच में बहुत जगह थिगली सा लगता है और प्रबन्ध से अलग उनका अभिप्राय ही नष्ट हो जाता है।६आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार - कबीर में जो रहस्यवाद है वह सर्वत्र एक भावुक या कवि का रहस्यवाद नहीं है। हिन्दी के कवियों में यदि कहीं स्मरणीय और सुन्दर रहस्यवाद है तो जायसी में, जिनकी भावुकता बहुत ही उच्चकोटि की है। वे सूफियों की भक्ति भावना के अनुसार कहीं तो परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखकर जगत के नाना रूपों में उस प्रियतम के रूप-माधुर्य की छाया देखते हैं और कहीं सारे प्राकृतिक रूपों और व्यापारों को पुरुष के समागम हेतु प्रकृति के श्रृंगार, उत्कंठा या विरह-विकलता के रूप में अनुभव करते हैं।''७
डॉ० चन्द्रबली पाण्डेय के अनुसार -कबीर का रहस्यवाद प्रायः शुष्क और नीरस है, पर जायसी आदि का ऐसा नहीं ।8कबीर और जायसी- दोनों ही हिन्दी साहित्य के सुन्दर रहस्यवादी कलाकार हैं। दोनों ने अपनी-अपनी भावना रूपी बधुओं की झाँकी अपने-अपने ढंग पर सँवारी है। वे दोनों बधुएँ रहस्यात्मकता की दृष्टि से समान होते हुए भी आत्मा की दृष्टि से एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं।... कबीर की रहस्यात्मकता भारतीय हठयोग और औपनिषदिक विचारधारा के सुहाग से सम्भूत होने के कारण पूर्ण भारतीय हैं....यह बात दूसरी है कि उस पर चलते-चलते थोड़ा बहुत प्रभाव सूफी साधना का भी पड़ गया हो। किन्तु उसका सम्पूर्ण सौन्दर्य और निष्ठाएँ ठीक उसी प्रकार की हैं, जैसी आदर्श भारतीय बधुओं में पायी जाती है।....अभारतीय सूफी-साधना और भारतीय अद्वैतवाद के संयोग से उत्पन्न उनकी (जायसी की) रहस्य-भावना कुछ बातों में भारतीय और कुछ बातों में अभारतीय है।९तुलनात्मक विवेचनजायसी और कबीर के रहस्यवाद को पूर्ण रूप से देखने के लिए उनकी प्रकृति को समझना आवश्यक है। सभी रहस्यवादी कवियों के काव्यों में प्रायः ये सात अवस्थाएँ पायी जाती हैं : १. जिज्ञासा, २. महत्त्वदर्शन, ३. प्रयत्न, ४. विन एवं वेदना, ५. आभास, ६. अपरोक्ष अनुभूति और ७. चिरमिलन।
डॉ० रामकुमार वर्मा१० ने रहस्यवाद की तीन अवस्थाओं का उल्लेख किया है - प्रथम - स्थिति में आत्मा परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ने के लिए अग्रसर होती है, द्वितीय- स्थिति में आत्मा परमात्मा से प्रेम करने लगती है और तृतीय - स्थिति में आत्मा और परमात्मा का पूर्ण मिलन अथवा एकीकरण हो जाता है।अब तक कबीर और जायसी के रहस्यवाद की तुलनात्मक विवेचना करने वाले विद्वानों ने केवल नीरसता और माधुर्य की तुलना की है। कुछ विद्वान इस तथाकथित अन्तर का जायसी में प्रकृति के प्रति रुझान और कबीर में प्रकृति की उपेक्षा को माना है। विद्वानों ने जायसी के रहस्यवाद के पाँच प्रकार माने हैं -१. आध्यात्मिक रहस्यवाद २. प्रकृति-मूलक रहस्यवाद ३. प्रेम मूलक रहस्यवाद ४. भौतिक रहस्यवाद तथा ५. अभिव्यक्ति मूलक रहस्यवादइन रहस्यवादों में से प्रकृति मूलक रहस्यवाद को छोड़कर शेष सबका वर्णन कबीर के रहस्यवाद में मिलता है। कबीर ने प्रकृति-मूलक रहस्यवाद को नहीं अपनाया है। इसका कारण यह है कि कबीर में जहाँ प्रकृति अपने मिथ्यात्व के कारण तिरस्कृत है, वहाँ जायसी में वही परमात्मा के झलक का साधन बन गई है। कबीर में आत्मा और परमात्मा के सौन्दर्य का प्रकाश होने के कारण प्रकृति स्वयं परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित हो गई है।जायसी के रहस्यवाद की सबसे बड़ी विशेषता उनकी प्रेम की पीर है। इसी प्रेम-तत्त्व के कारण उनका रहस्यवाद मधुर से मधुरतम बन गया है और इसी कारण उसमें विलास की झाँकिया मिलती हैं।
जायसी का रहस्यवाद सर्वत्र समष्टिमूलक के रूप में प्रस्तुत हुआ है। सूफीमत और इस्लाम के प्रति पूर्ण आस्था रखने के कारण कहीं-कहीं उनका रहस्यवाद सूफी सिद्धान्तों से पूर्ण रूप से प्रभावित मिलता है। इसके अतिरिक्त समष्टिमूलक दृष्टिकोण होने के कारण उनके रहस्यवाद की अभिव्यक्ति प्रायः अन्योक्ति और समासोक्ति द्वारा हुई है। इसी कारण वह बहुत सांकेतिक और व्यंजनात्मक हो गया है।रहस्यवादी के लिए आस्तिक होना पहली शर्त है। कबीर पूर्ण आस्तिक हैं। उन्होंने नास्तिकों के शून्य को भी ब्रह्म बना दिया है परन्तु उनकी आस्तिकता परम्परा विश्वासों पर आधारित न होकर प्रत्यक्षानुभूति पर आश्रित है -देख्या है तो कस कहूँ, कहै तो को पतियाय।/गूँगे केरी सरकरा, खाये औ बैठा मुस्काय॥११जायसी भी पूर्ण आस्तिक हैं लेकिन उनकी आस्तिकता कबीर से भिन्न है। इस्लाम में प्रत्यक्षानुभूति पर विश्वास न कर इमान पर किया जाता है। इस कारण उनमें भावना और कल्पना का प्राधान्य है - निमिख न लाग कर ओहि सबइ कीन्ह पल एक।/गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिन्दु टेक॥१२उपास्य के मामले में दोनों के ही उपास्य सगुण और निर्गुण के समन्वित रूप वाले है। परन्तु जायसी की प्रेम-भावना समष्टिमूलक है, इसलिए वे अपने आराध्य का चिन्तन एक विराट सौन्दर्यमयी सत्ता के रूप में करते हैं। कबीर की भावना व्यष्टिमूलक है, इसलिए उसमें उस विराट सौन्दर्य के दर्शन नहीं होते। जायसी उसके सौन्दर्य वर्णन के लिए बाह्य साधनों का खुलकर उपयोग करते हैं, जबकि कबीर में बाह्य साधनों की अपेक्षाकृत न्यूनता है।
जायसी पद्मावती के सौन्दर्य में उसी विराट सौन्दर्य का प्रतिरूप देखते हैं - नयन जो देखा कमल भा, निर्मल नीर सरीर।/हँसत जो देखा हँस भा, दसन जोति नगहीर॥१३कबीर का ब्रह्म सुनि मण्डल बासी है -कोई ऐसा न मिले, सब विधि देहि बताय।/सुनि मण्डल में पुरुष एक, ताही रहै ल्यौं लाय॥१४दोनों ही तत्त्व रूप में ब्रह्म के उपासक हैं। दोनों ही शून्यवादी हैं। दोनों के उपास्य सौन्दर्य रूप हैं, किन्तु जायसी की सम्पूर्ण दृष्टि उसी आध्यात्मिक दिव्य सौन्दर्य से ओत-प्रोत है। उनका लक्ष्य सौन्दर्य की प्राप्ति है। इसके विपरीत कबीर के पास अपने आराध्य के सौन्दर्य को व्यक्त करने के साधन नहीं हैं। वे उसे केवल प्रकाश-स्वरूप कहकर ही संतोष कर लेते हैं। यदि उन्होंने कहीं प्रयत्न भी किया है तो उसमें जायसी का-सा भावात्मक सरस एवं ग्राह्य सौन्दर्य नहीं आ पाया है।ब्रह्म की अनुभूति के विषय में दोनों समान विश्वास करते हैं। परन्तु कबीर-औपे आप चिनारिया, तब केत होय आनन्द रे। कहकर उसे विचार प्रधान बना देते हैं। जायसी-आप पिछौनें आपै आप'' कहकर उसे भावना-प्रधान बना देते हैं। इस अनुभूति के लिए कबीर का विश्वास है कि - कुछ करनी कुछ करमगति, कछू पूरबला लेख।'' की सहायता से ही उस आलेख की अनुभूति की जा सकती है। इसके विपरीत जायसी - न जानौ कौन पौन लइे पाया। कहकर केवल आराध्य की कृपा पर ही विश्वास करते हैं।
कबीर और जायसी दोनों ने ही प्रेम रूपी अमृत का पान किया है, परन्तु जायसी के प्रेम में मादकता, कोमलता और भावुकता का प्राधान्य है। उनके अनुसार - प्रेम फाँद जो परा न छूटा। जिउ जाइ पै फाँद न टूटा। यह प्रेम की अग्नि बड़ी भयानक है, जो सारी सृष्टि में व्याप्त है। वह विरही और वह हृदय धन्य है, जिसमें यह समा जाती है - मुहम्मद चिनगी प्रेम की, सुनि महि गगन डराय।/धनि बिरही और धनि हिया, जहै अस अगिनि समाय।१५विरह और मिलन के वर्णन में दोनों में कोई मौलिक अन्तर नहीं दिखाई पड़ता। दोनों पर कुछ हद तक सूफी काव्य परम्परा का प्रभाव पड़ा है। दोनों को ही अपने प्रियतम का पता गुरु द्वारा मिलता है। कबीर को यह प्रेमतत्त्व के रूप में तथा जायसी को विरह-तत्त्व के रूप में प्राप्त होता है। कबीर को -गुरु ने प्रेम का अंग पढ़ाय दिया रे तथा जायसी को गुरु बिरह चिनङ्गी जो मेला। सो सुलगाई लेइ जो चेला।जायसी का प्रेम रूप-लिप्सा जनित है और कबीर का संस्कार-मूलक। यही कारण है कि सूफियों के प्रेम में अलौकिक भक्ति के साथ-साथ लौकिक रति को भी महत्त्व मिला है। जायसी का सम्पूर्ण काव्य सौन्दर्य और प्रेम की भावना से विभोर है। इस लौकिक सौन्दर्य और रति के कारण ही जायसी के रहस्यवाद में मादकता एवं विकास का पुट अत्यंत गहरा हो गया है।कबीर में इस प्रकार के वर्णन का अभाव है। जायसी और कबीर के प्रेम में विरह और मिलन के कुछ उद्धरण प्रस्तुत हैं -विरह -सब रग तंत रबान तन, विरह बजावै नित्त/और न कोई सुनि सकै, कै साँई के चित्त।१६ रकत ढरा माँसू गरा हाड़ भए सब संख।/धनि सारस होई ररि मुई आइ समेटहु पंख।१७मिलन -कहा मानसर चहा सो पाई। पारस रूप इहाँ लगि आई॥/भा निरमर तेन्ह पायन परसें। पावा रूप रूप के दरसें॥/मलै समीर बास तन आई। भा सीतल गै तपन बुझाई॥/न जनौं कौनु पौन लै आवा। पुन्नि दसा मैं पाप गँवावा॥१८ हरि संगति सीतल भया, मिटी मोह की ताप।/निज बासुरि सुख निधि लह्‌या, जब अन्तर प्रगट्या आप॥१९आध्यात्मिक अनुभूतिडॉ० त्रिगुणायत के अनुसार कुमारी अण्डरहिल नामक अंग्रेज महिला ने इस अनुभूति की पाँच अवस्थाएँ मानी हैं -१. आत्मा की जाग्रतावस्था - इसमें ब्रह्म-जिज्ञासा उत्पन्न होती है और साधक ज्ञान और वैराग्य की ओर उन्मुख होने लगता है।२. आत्मा के परिष्करण की स्थिति - इसमें साधक विविध प्रकार की साधनाओं में लग जाता है।३. आत्मा की आंशिक अनुभूति की स्थिति - साधक इसमें विविध ध्वनियाँ सुनता है और विविध दृश्य देखता है।४. रहस्यानुभूति के विनों की अवस्था-इसमें ईश्वरानुभूति में बाधाएँ पड़ने लगती है।५. तादात्म्क की स्थिति - यह आत्मा-परमात्मा के साक्षात्कार और तादात्म्य की स्थिति है।उपर्युक्त सभी स्थितियों का वर्णन सूफी तो बड़े विस्तार से करते हैं, किन्तु कबीर ने उनका वर्णन समान रूप से किया है। पहली स्थिति जो जाग्रतावस्था कहलाती है, में कबीर और जायसी ने गहरी जिज्ञासा और मिलन के लिए व्याकुलता दिखाई है। जायसी का रत्नसेन जब अपनी प्रियतमा के दिव्य सौन्दर्य की तन्मयता से जागता है तो सारा संसार उसे नीरस लगने लगता है और उसमें वैराग्य भावना उत्पन्न हो जाती है - जब भा चेत उठा बैरागा(जायसी)कबीर वैराग्य को महत्त्व नहीं देते। उनके लिए ज्ञान ही सब कुछ है - कबीर जाग्याहि चाहिए, क्या घर क्या वैराग।
(कबीर)साधना की दूसरी अवस्था में साधक विरह से व्यथित होने के साथ ही आराध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने लगता है। कबीर के विरह वर्णन में सूफी और भक्त दोनों पद्धतियों का प्रभाव है। भक्तों से प्रभावित होकर वे -जिन पर गोविन्द बीछुड़े, तिनको कौन हवाल। कहने लगते हैं और सूफियों का अनुसरण करते हुए कहते हैं - अंषड़िया झांई पड़ी, पंथ निहारि निहारि।/जीभड़िया छाला पड़या, राम पुकारि पुकारि।२०जायसी ने कबीर की यौगिक साधना की तरह सूफी-साधना अपनाई है। इसमें अपना कल्ब (हृदय) शुद्ध करके रूह को विकसित करना पड़ता है। इस शुद्धि के लिए साधक को सात मुकामात से होकर गुजरना पड़ता है। साथ ही उसे ईश्वर स्मरण और जप आदि भी करना पड़ता है। ये हालात कहलाते हैं। इस प्रकार साधक शुद्धाचरण आदि की सहायता से अपने शरीर और मन की शुद्धि कर साधना के मार्ग पर आगे बढ़ता है। इस मार्ग पर चार पड़ाव पड़ते है-शरीयत, तरीकत, हकीकत और मारफत। अन्तिम अवस्था हाल अर्थात्‌ भावातिरेक की चरम अवस्था होती है और यहीं आकर रूह फना होकर आराध्य से जा मिलती है।जायसी में उपर्युक्त सम्पूर्ण अवस्थाओं के चित्राण मिलते हैं। उन्होंने प्रियतमा की प्राप्ति-चार बसेरे सों चढैं, सत सों उतरे पार कहकर इसी सूफी साधना पद्धति का पालन किया है। जबकि कबीर ज्ञान, वैराग्य और योग द्वारा आत्म परिष्करण कर भक्ति में तन्मय हो साक्षात्कार करना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने स्थान-स्थान पर-जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है जैसे सिद्धान्त, वाक्य कहकर ज्ञान को प्रधानता दी है।साधना की तीसरी अवस्था में साधक को आराध्य की झलक-सी मिल जाती है। कबीर इस स्थिति का आभास पाकर हर्ष से उन्मत्त हो उठते हैं। यथा - जरा मरण व्यापै नहीं, युवा न सुनिये कोय।/चलि कबीर तेहि देसिडे, जहँ वैद विधाता होय॥२१इस वर्णन में तीव्रता तो है, मगर सरसता और कोमलता की रमणीयता नहीं आ पाई है। जायसी के ऐसे वर्णनों में पर्याप्त सरसता और माधुर्य है। प्रियतम की झलक का वर्णन करने के उपरांत जायसी उस लोक का चित्रण करते हैं - जहाँ न राति न दिवस है, जहाँ न पौन न पानि।/तेहि बन सुअटा चल बसा, कौन मिलावै आनि।२३चौथी अवस्था विन की अवस्था है। साधक के मार्ग में अनेक विन बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। कबीर इन बाधाओं को माया का रूप देते हैं। माया ठगिनी का रूप धारण कर अनेक विन बाधाएँ उत्पन्न करती है। इसी प्रकार जायसी ने भी अपने नायक के मार्ग में पड़ने वाली विविध कठिनाईयों का वर्णन बड़े विस्तार से किया है परन्तु जायसी ने कबीर के समान माया के विभिन्न जालों द्वारा उत्पन्न कठिनाईयों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया है। साधक की अंतिम स्थिति मिलन की अवस्था है। मिलन होने पर साधक पूर्ण सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है।
कबीर आराध्य से मिलन मात्रा की कल्पना से काँप उठते हैं। जायसी ने मिलन से पूर्व की इस रोमांचित अवस्था का चित्रण ऐसा ही किया है किन्तु उसमें लौकिकता का प्राधान्य है। जायसी के इस वर्णन में रमणीयता है, एक अलौकिक आनन्द है। इसकी तुलना में कबीर का वर्णन शुष्क और नीरस है। इसका कारण यह है कि कबीर उपनिषदों से प्रभावित हैं, जबकि जायसी सूफी सौन्दर्यवाद और प्रतिबिम्बवाद से प्रभावित है। पूर्ण मिलन ही दोनों साधकों की साधना की पूर्ण स्थिति है। इस स्थिति के परिणाम स्वरूप कबीर तो पूर्ण रूप से जीवनमुक्त हो जाते हैं और अमर हो जाते हैं - हम न मरे मरिहैं संसार, हमकू मिले जियावन हारा।रहस्यवाद एक आध्यात्मिक अनुभूति का परिणाम है। अतः इसकी अभिव्यक्ति साधारण रूप से नहीं हो सकती। कबीर और जायसी दोनों ने इसकी अभिव्यक्ति अलग अलग ढंग से की है। कबीर ने प्रतीक-पद्धति, रूपक पद्धति तथा उलटबाँसियों की सहायता से अपने रहस्यवाद की अभिव्यक्ति की है तो जायसी ने अपनी स्वानुभूति की अभिव्यक्ति के लिए प्रेम-कथा का सहारा लेकर उसमें असफल अन्योक्ति और सफल समासोक्ति का प्रयोग किया हैं। साथ ही उन्होंने प्रतीक पद्धति को भी अपनाया है।
अतः कहा जा सकता है कि जायसी और कबीर हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ रहस्यवादी कवि हैं। एक (कबीर) का रहस्यवाद आध्यात्मिक, एकान्तिक व्यष्टिमूलक, सजीव और वर्णनात्मक है, तो दूसरे (जायसी) का सरस, संकेतात्मक और समष्टिमूलक है।
सन्दर्भ-ग्रन्थ
१. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. ६६८
२. कबीर-ग्रंथावली (भूमिका), पृ. ५६
३. काव्य कला और अन्य निबन्ध, पृ. ६९
४. महादेवी का विवेचनात्मक गद्य, पृ. १३२
५. कबीर का रहस्यवाद, पृ. ७
६. डॉ० श्याम सुन्दर दास : कबीर ग्रंथावली की भूमिका (पंचम संस्करण), पृ. ७५१
७. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : जायसी ग्रन्थावली की भूमिका, पृ. १६४
८. चन्द्रबली पाण्डेय
९. डॉ० त्रिगुणायत
१०. डॉ० राम कुमार वर्मा : कबीर का रहस्यवाद, पृ. १२-१४
११. राजनाथ शर्मा, कबीर, पृ. १२५
१२. डॉ० श्रीनिवास शर्मा, जायसी ग्रंथावली, पृ. ६६
१३. वही, पृ. १२०
१४. डॉ० भगवत स्वरूप मिश्र, साखी-सरोवर, पृ. २१२
१५. डॉ० श्री निवास शर्मा, जायसी ग्रंथावली, पृ. २३६
१६. डॉ० भगवत स्वरूप मिश्र, साखी-सरोवर, पृ. ७२
१७. पदमावत, पृ. ३५९१८. वही, पृ. ६५
१९. डॉ० भगवत स्वरूप मिश्र, साखी-सरोवर, पृ. ९१
२०. कबीर ग्रन्थावली : पृ. ७२
२१. वही, पृ. १३२
२२. जायसी ग्रंथावली, पृ. २१३

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Sunday, December 14, 2008

धूप का टुकड़ा

अमृता प्रीतम

मुझे वह समय याद है-
जब धूप का एक टुकड़ा
सूरज की उँगली थाम कर
अँधेरे का मेला देखता
उस भीड़ में कहीं खो गया...

सोचती हूँ-सहम का
और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस खोये बच्चे ने
मेरा हाथ थाम लिया

तुम कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है
एक नन्हा-सा गर्म साँस
न हाथ से बहलता है,
न हाछ को छोड़ता है

अँधेरे का कोई पार नहीं
मेले के शोर में भी
एक खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह
जैसे धूप का एक टुकड़ा....

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कहानी, लेख,कविता,गजल,समीक्षा

राही मासूम रज़ा विशेषांक निकालने के बाद अब सामान्य अंक निकलने जा रहा है. आप साहित्य से सम्बंधित रचनाएं भेज(कहानी, लेख,कविता,गजल,समीक्षा आदि) सकते है. अंक जल्द ही छपेगा. धन्यवाद


सम्पादक: वाङ्मय (त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका)
बी-4,लिबटी होम्स ,
अलीगढ,
उत्तरप्रदेश(भारत),
202002,
मोब: +91 941 227 7331

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ग़ज़ल

अहमद फ़राज


तू पास भी हो तो दिले-बेक़रार अपना है
कि हमको तेरा नहीं इन्तज़ार अपना है

मिले कोई भी तेरा जिक्र छेड़ देते हैं
कि जैसे सारा जहाँ राज़दार अपना है

वो दूर हो तो बजा तर्के-दोस्ती1 का ख़याल
वो सामने हो तो कब इख़्तियार2 अपना है

ज़माने भर के दुखो को लगा लिया दिल से
इस आसरे पे कि एक ग़मगुसार3 अपना है

बला से जाँ का ज़ियाँ4 हो, इस एतमाद5 की ख़ैर
वफ़ा करे न करे फिर भी यार अपना है

फ़राज़ राहते-जाँ भी वही है क्या कीजे
वो जिसके हाथ से सीना फ़िगार6 अपना है

1. दोस्ती छोड़नी 2. वश 3. दुख सहने वाला 4. नुकसान 5. विश्वास, भरोसा, 6 घायल, आहत

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