सामाजिक समरसता और कबीर
डॉ० वी.डी. गुप्ता
सामाजिक समरसता भारतीय संस्कृति की आत्मा है। धर्म सापेक्षीकरण, धर्म निरपेक्षीकरण, सर्वधर्म समभाव, मानवतावाद, बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय आदि अवधारणाएँ सामाजिक समरसता की पोषक व परिणाम रही हैं। विविधता में एकता की भावना समरसता का ही प्रतिनिधित्व करती है। संत, साहित्यकार, समाजवैज्ञानिक आदि सभी सामाजिक व्यवस्था एवं प्रगति हेतु - सामाजिक संगठन की स्थिरता हेतु सामाजिक समरसता की अपेक्षा करते रहे हैं। मानव संगठित हों, रागद्वेष, बैरभाव को त्यागकर परस्पर सहयोगी हों, समाज द्वारा निर्धारित कर्तव्यों - प्रस्थिति एवं भूमिका के अनुरूप कर्तव्यपालन करते हुए समृद्धि एवं समानता को प्राप्त करें; उनके चिन्तन उद्देश्य एवं भावनाओं में समरूपता हो साथ ही समाजकल्याण - सबके सुख के लिए प्रयत्नशील हों - समरसता की आधारभूमि के उर्वरक तत्त्व रहे हैं।
उपनिषद् का यह सूत्रा वाक्य समरसता का ही उन्नायक व परिचायक है - सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः/सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भाक्-भवेत्।मानवमात्र के हित की कामना, सुख समृद्धि एवं कल्याण की भावना ही सामाजिक समरसता है जो विभिन्न जाति, वर्ण, धर्म, सम्प्रदाय, भाषायी मानव को मन, वाणी और कर्म से समरूप हो अपनी प्रस्थिति एवं भूमिका का निर्वाह करते हुए लक्ष्य प्राप्ति की ओर प्रेरित करती है - समभाव एवं भावनात्मक एक्य का आदर्श बने।सामाजिक समरसता के पल्लवन् - प्रचार-प्रसार के प्रति साहित्यकार सदैव सजग रहा है। एक सामाजिक प्राणी के रूप में वह समाज का शिल्पकार ही नहीं शिक्षक, पथ-प्रदर्शक, विश्लेषक व सर्जक भी है एतदर्थ उसके सृजन में सामाजिक समरसता का सन्देश रहना स्वाभाविक ही है, संत कबीर भी इसके अपवाद नहीं। उनका सृजन मानव को दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से - सांसारिक दुख एवं क्लेशों से मुक्ति भाव पर केन्द्रित है। उनके सृजन का लक्ष्य मानव कल्याण ही है - हरिजी यहै विचारिया, साषी कहो कबीर।/भौ सागर में जीव हैं, जो कोइ पकडै तीर॥कबीर समाजदृष्टा थे।
मानव कल्याण - भवसागर के दुखों से छुटकारा पाना - दिलाना उनका लक्ष्य था जो जाति, वर्ण, कुल, धर्म, सम्प्रदाय आदि के संकीर्ण विचारों के विद्यमान रहते हुए सम्भव नहीं था। बाह्याडम्बरों, रूढ़िवादिता, पारस्परिक बैरभाव, अलगाव, व्यक्तिवादी विचारों से आक्रान्त समाज के लिए दुर्लभ ही था। कबीर की ईश्वरोन्मुख वाणी - समाजोन्मुखी भी है जिसमें सामाजिक समरसता का सन्देश है। लौकिक एवं पारलौकिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु संत के लक्षण प्रतिपादित करते हुए वे इस तथ्य को स्थापित करते हैं - निर बैरी निह कामता, साईं सेती नेह।/विषया सूं न्यारा रहै सन्तन का अंग एह।कबीर की वाणी एक भक्त की सहज अभिव्यक्ति है। भक्ति की एकान्तिक साधना को जनसामान्य के लिए सहज व सुलभ बनाने, लोकमानस के अनुरूप बनाने का प्रयास करती है - आडम्बरों एवं जटिलता से मुक्ति प्रदान कर ईश्वराधन की प्रक्रिया में साम्य लाकर भक्ति को समरसता के धरातल पर अधिष्ठित करती है।
एक प्रगतिशील विचारक के रूप में कबीर लोक-वेद-परम्परा से हटकर ज्ञान का आश्रय ग्रहण करते हैं, प्रेरित करते हैं - पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।/आगै थै सतगुर मिल्या दीपक दीया हाथि॥उनकी साखी ज्ञान की आँख हैं जो प्रत्यक्ष - अवलोकनजनित अनुभूति पर विश्वास करती है - मैं कहता हौं आंखिन देखी/तू कहता है कागज की लेखी/मैं कहता सुरझावन हारी/तू राख्यौ अरुझाइ रे/मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होइ रे!प्रत्यक्ष दृष्टा निश्चय ही समाज में विद्यमान समस्याओं - वैषम्य को परिस्थितियों के सन्दर्भ में सुलझाने का प्रयास करेगा न कि लोक परम्पराओं-मान्यताओं के आधार पर जिनका परिणाम वे हैं। कबीर एक समाज वैज्ञानिक के रूप में यथार्थ का अवलोकन करते हैं, सत्य से साक्षात्कार कर - उसका विश्लेषण कर अभिव्यक्त करते हैं। मानव व्यक्तित्व के साथ-साथ समाज के व्यक्तित्व को समरूप ढालने का प्रयास करते हैं - समरसता की भावना से अनुप्राणित कर उन्होंने सैद्धान्तिक मान्यताओं को व्यवहार में ढालकर मानव को इस ओर प्रेरित किया। कथनी-करनी के साम्य के अभाव में जीवन के आदर्श व्यर्थ हैं - कथणीं कथी तौ क्या भया, जे करणी नाँ ठहराइ।/कालबूत के कोट ज्यूँ देषतहीं ढहि जाइ॥सामाजिक समरसता का आधार समाज में हम भावना के प्राबल्य पर निर्भर करता है - व्यक्तिवादिता मैं की भावना पर नहीं।
राग-द्वेष की भावना से मुक्त होने पर ही हम भावना का विकास सम्भव है। कबीर अनुभव करते हैं कि व्यक्तिवादिता का प्राबल्य - परस्पर विद्वेष एवं घृणा, प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, प्रतिहिंसा आदि के रूप में समाज को प्रदूषित कर रहे हैं - प्रेम भावना - सहयोग, हम भावना का हृास कर - सब अपनी-अपनी आग में जल रहे हैं - हम भावना का लोप हो रहा है कबीर अनुभव करते हैं - ऐसा कोई ना मिलै जासों रहिये लागि।/सब जग जलतां देखिया अपनी आगि॥ऐसे में परस्पर सहयोग व सद्भाव सम्भव नहीं-पारस्परिक सन्देह एवं अविश्वास की वृद्धि सामंजस्य में बाधक ही बनती है। कबीर को ऐसे इंसान की तलाश है जो पलटवार न करे -ऐसा कोई ना मिलै जासों कहूं निसंक।/जासों हिरदै की कहूं सो फिर मारै डंक॥डंक मारकर समाज को विषाक्त करने वाले तत्त्वों को अमृतमय बनाने की आकांक्षा कबीर की समरस भावना का ही बोध कराती है - प्रेमी ढूंढत मैं फिरौ प्रेमी मिलै न कोय।/प्रेमी को प्रेमी मिलै तब सब विष अमृत होय॥विष को अमृत में बदलने - व्यष्टि को समष्टि में ढालकर समरसता की ओर प्रेरित करने की दृढ़ता कबीर के व्यक्तित्व में रही - जाके मन विश्वास है, सदा गुरु है संग।/कोटि काल झकझोर ही तऊ न होय चित भंग॥व्यक्तित्व की यही दृढ़ता एवं विश्वास कबीर को मानवतावादी - समरसतावादी महामानव के रूप में प्रतिष्ठित करती है। एक तटस्थ स्रष्टा की वाणी ही ऐसा कहने में सक्षम हो सकती है - कबिरा खड़ा बजार में सबकी मांगहि खैर।/ना काहू सों दोस्ती ना काहू सों बैर॥
कबीर की संकल्पना में ऐसा समरस समाज है जहाँ बारहमास वसंत है - सभी सुखी व नीरोग हैं, समान हैं - प्रेममय हैं - हम वासी उस देश के जहवां नहिं मास वसंत।/नीझर झरै महा अमी भीजत हैं सब संत॥ जाति, वर्ण, कुल आदि का भेद जहाँ नहीं है - हम वासी उस देश के, जहां जाति वरन कुल नाहीं।/शब्द मिलावा होय रहा देह मिलावा नाहिं॥ऐसी संकल्पना की पृष्ठभूमि तत्कालीन समाज में विद्यमान ऊँच-नीच, अस्पृश्यता, जाति, वर्ण, भेद, धर्म, सम्प्रदाय की विषमताएँ, संकीर्णताएँ एवं संघर्ष ही हैं जिनके प्रति कबीर सचेत करते हैं। उनके पदों और साखियों में ऐसे पर्याप्त साक्ष्य हैं जो सामाजिक समरसता के बाधक हैं। जाति-पांति, ऊँच-नीच की भावना कबीर को ग्राह्य नहीं - जौ पै करता वरण विचारै।/तौ जनमत तीन डांडी किन सारै॥ .... /नहिं कोउ ऊंचा नहिं कोउ नींचा, जाका प्यंड ताही का सींचा।/जे तूं बांभन बंमनी जाया, तो आँन बाट ह्नै काहे न आया॥धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर संघर्ष उन्हें बर्दाश्त नहीं। वे हिन्दू एवं मुसलमानों के इस पागलपन की भर्त्सना करते हैं - साधो, देखो जग बौराना।/सांची कहौ तौं मारन धावै झूँठे जग पतियाना।/आपस में दोउ लड़े मरतु हैं मरम कोइ नहिं जाना॥विविधता में एकता के भाव ही उन्हें गाह्य हैं - गहना एक कनक तें गढ़ना इनि मंह भाव न दूजा॥/कहन-सुनन को दुर कर पापिन इक निमाज इक पूजा॥आदि, आदि तथ्य इस ओर संकेत करते हैं कि कबीर सामाजिक समरसता के बाधक तत्त्वों के प्रति मानव को जागरूक करते हैं, उनकी समीक्षा करते हैं साथ ही समाजकल्याण - सर्वहित की ओर उन्मुख भी करते हैं - साईं इतना दीजिए जा मैं कुटुम समाइ।/मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाइ॥यथार्थतः समकालीन भारतीय समाज की पृष्ठभूमि में सामाजिक समरसता की आकांक्षा पूर्ति हेतु कबीर की वाणी में सार्थक सूत्र हैं। क्षेत्रीयता, साम्प्रदायिकता, भाषावाद, जातिवाद, अस्पृश्यता, धार्मिक उन्माद आदि के रहते हुए सामाजिक समरसता - समतामूलक समाज की स्थापना दिवास्वप्न ही रहेगी। नेतृत्व एवं जनता की कथनी-करनी के साम्य का सन्देश कबीर की वाणी में है। भ्रम में रहकर कागा हंस भले ही बने परन्तु यथार्थ यथार्थ ही रहेगा। अलगाव, प्रतिहिंसा, विषमता, संघर्ष, भेदभाव आदि के रहते सबकी सुख-समृद्धि-समता असम्भव ही है, इस तथ्य को-सार को, जानना जरूरी है, आवश्यकता है ज्ञान चक्षुओं के उन्मीलन की। कबीर ने सच ही कहा है - साखी आंखी ज्ञान की मत भरमा जग कोय।/सार शब्द जाने बिना कागा हंस न होय॥
1 comments:
बहुत ही सुंदर लेख।
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