रोज़ी
अमृता प्रीतम
नीले आसमान के कोने में
रात-मिल का सायरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
सफ़ेद गाढ़ा धुआँ उठता है
सपने जैसे कई भट्ठियाँ हैं
हर भट्ठी में आग झोंकता हुआ
मेरा इश्क़ मज़दूरी करता है
तेरा मिलना ऐसे होता है
जैसे हथेली पर कोई
एक वक़्त की रोज़ी रखता है...
जो खाली हँडिया भरती है
राँध-पका कर अन्न परस कर
वह हाँडी उलटा रखता है
बची आँच पर हाथ सेंकता है
घड़ी पहर को सुस्ता लेता है
और ख़ुदा का शुक्र मनाता है
रात-मिल का सायरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
धुँआ इस उम्मीद पर निकलता है
जो कमाना है वही खाना है
न कोई टुकड़ा कल का बचा है
न कोई टुकड़ा कल के लिए है...
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