आप सभी का स्वागत है. रचनाएं भेजें और पढ़ें.
उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Saturday, November 29, 2008

कोई तो मेरे देश को बचा ले

VIJAY KUMAR SAPPATTI



आज मेरा देश जल रहा है , कोई तो मेरे देश को बचा ले .

आज सुबह देखा तो मुबई की घटनाओ ने दिल दहला दिया . मुझे ये बात समझ नही आती है कि कोई भी आतंकवादी , हमारे जैसा सामर्थ्यवान देश में कैसे बार - बार चले आतें है , शायद दुनिया में भारत ही अकेला ऐसा देश है जो इतना सामर्थ्यवान होने के बावजूद इन हमलों को रोक नही पाता है.

अच्छा ,एक बात और ..; अगर बाहर के आतंकवादी हमलों से हमारा पेट नही भरता , जो आपस में ही धर्म, भाषा, जाती , इत्यादि के नाम पर लड़ लेते है . और इन सारी बातों में सिर्फ़ बेक़सूर लोग मरते है ...

मेरा देश अब पूरी तरह से banana country बन गया है ... किसी को क्या दोष दे...
...आईये दोस्तों मेरे साथ प्रार्थना करें...

आज मेरा देश जल रहा है ,
कोई तो मेरे देश को बचा ले.
कौन है ये ?
कोई हिंदू ,कोई मुस्लिम, कोई सिख या कोई ईसाई ;
क्या इनका कोई चेहरा भी है ?
क्या ये इंसान है ....
क्यों ये मेरे देश की हत्या करतें है ,
क्यों ये मेरी माँ का सीना छलनी करतें है ..
हे प्रभु ;
कोई कृष्ण ,कोई बुद्ध ,कोई नानक , कोई ईसा ;
पैगम्बर बन कर मेरे देश आ जाए ..
मेरे देश को जलने से बचाए .
मेरे देश को मरने से बचाए..

आओं दोस्तों , मिल कर हम सब,
इंसानियत का धर्म आपस में फैलाएं
मिल कर हम सब मेरे देश को बचाएँ ...
मेरे देश को बचाएँ

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मुंबई में आतंक

अविनाश वाचस्पति



दंगे दुख देते हैं
सुख को हर लेते हैं
जाने कौन सी खुशी देते हैं
हर आतंकी को ?

खुशी पर लगता पहरा
दुख बढ़ता जाता गहरा
हर कोई है डरा डरा सा
अब आतंकी भी है सहमा।

मर्ज कोई दवा कोई हो
जांच शरीफ की हर दफा हो
आतंकी फिर बच निकलता है
या फिर नया ही पनपता है।

बम फटता है कहीं दूर तो
सहमता है सज्‍जन हर कहीं
डरता है ठिठकता है पर फिर
दुगने जोश से जिंदगी को जीने।

चढ़ जाता है अगला जीना
चाहे हो जाये पसीना पसीना
दुख कभी ठहरता नहीं देख लो
जमता है पर पिघलता है तेज।

सुख जमता है फिर भी थमता है
मुंबई जो थमता नहीं कभी भी न
थमा इस दफा न थमेगा कभी
जिंदगी से कैसे हो सकता है कोई खफा।

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दोषी कौन

SEEMA GUPTA


मैं ताज .....
भारत की गरिमा
शानो शौकत की मिसाल
शिल्प की अद्भुत कला
आकाश की ऊँचाइयों को
चूमती मेरी इमारतें ,
शान्ति का प्रतीक ...
आज आंसुओं से सराबोर हूँ
मेरा सीना छलनी
जिस्म यहाँ वहां बिखरा पढा
आग की लपटों मे तडपता हुआ,
आवाक मूक दर्शक बन
अपनी तबाही देख रहा हूँ
व्यथित हूँ व्याकुल हूँ आक्रोशित हूँ
मुझे कितने मासूम निर्दोष लोगों की

कब्रगाह बना दिया गया...
मेरी आग में जुल्स्ती तडपती,
रूहें उनका करुण रुदन ,
क्या किसी को सुनाई नही पढ़ता..
क्या दोष था मेरा ....
क्या दोष था इन जीवित आत्माओं का ...
अगर नही, तो फ़िर दोषी कौन....
दोषी कौन, दोषी कौन, दोषी कौन?????

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Friday, November 28, 2008

डैमोक्रैसी

अशोक चक्रधर


एकाएक मंत्री जी
कोई बात सोचकर
मुस्कुराए,
कुछ नए से
भाव उनके चेहरे पर आए।
उन्होंने अपने पी.ए. से पूछा—
क्यों भई,
ये डैमोक्रैसी
क्या होती है ?
पी.ए. कुछ झिझका सकुचाया, शर्माया।
-बोलो, बोलो
डैमोक्रैसी क्या होती है ?
-सर, जहां
जनता के लिए
जनता के द्वारा
जनता की
ऐसी-तैसी होती है,
वहीं डैमोक्रैसी होती है।

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Wednesday, November 26, 2008

सिलवटों की सिहरन

VIJAY KUMAR SAPPATTI


अक्सर तेरा साया
एक अनजानी धुंध से चुपचाप चला आता है
और मेरी मन की चादर में सिलवटे बना जाता है …..

मेरे हाथ , मेरे दिल की तरह
कांपते है , जब मैं
उन सिलवटों को अपने भीतर समेटती हूँ …..

तेरा साया मुस्कराता है और मुझे उस जगह छु जाता है
जहाँ तुमने कई बरस पहले मुझे छुआ था ,
मैं सिहर सिहर जाती हूँ ,कोई अजनबी बनकर तुम आते हो
और मेरी खामोशी को आग लगा जाते हो …

तेरे जिस्म का एहसास मेरे चादरों में धीमे धीमे उतरता है
मैं चादरें तो धो लेती हूँ पर मन को कैसे धो लूँ
कई जनम जी लेती हूँ तुझे भुलाने में ,
पर तेरी मुस्कराहट ,
जाने कैसे बहती चली आती है ,
न जाने, मुझ पर कैसी बेहोशी सी बिछा जाती है …..

कोई पीर पैगम्बर मुझे तेरा पता बता दे ,
कोई माझी ,तेरे किनारे मुझे ले जाए ,
कोई देवता तुझे फिर मेरी मोहब्बत बना दे.......
या तो तू यहाँ आजा ,
या मुझे वहां बुला ले......

मैंने अपने घर के दरवाजे खुले रख छोडे है ........

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एक शाम और ढली

SEEMA GUPTA

राह पे टकटकी लगाये ..
अपने उदास आंचल मे
सिली हवा के झोकें ,
धुप मे सीके कुछ पल ,
सुरज की मद्धम पडती किरणे,
रंग बदलते नभ की लाली ,
सूनेपन का कोहरा ,
मौन की बदहवासी ,
तृष्णा की व्याकुलता,
अलसाई पडती सांसों से ..
उल्जती खीजती ,
तेरे आहट की उम्मीद ,
समेटे एक शाम और ढली ....

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लोक-वेदनाओं की उपज : कबीर

डॉ० बलदेव वंशी

लोक है क्या? किसे कहें लोक? लोक की सीमाएँ क्या हैं?हमारी दृष्टि में वह सब लोक हैं, जो पर-लोक नहीं हैं। हमारे यहाँ दो ही विभाजन हैं-एक लोक हैं इहलोक और दूसरा परलोक है। लोक के परे पर-लोक है। अतः जो कुछ इस धरा पर है, ब्राह्मण में है, वह सब लोक है। पेड़-पौधे, पत्थर-पहाड़, नदियाँ-झरनें, आकाश-नक्षत्र, धरती-सागर, पशु-पक्षी, जीवन-जन्तु और मनुष्य-ये सब मिल कर बनता है हमारा लोक। इस सब में प्राण चेतना का प्रसार है। कहीं कम, कहीं अधिक। जब इन में सोयी हुई चेतना जगा दी जाती है तब ये सब अपनी मृत्तिका-धर्म भूल कर, ऊर्जस्वित होकर चैतन्य-धर्म में जाग उठते हैं और हल्के बन जाते हैं। मृत्तिका-भार तिरोहित हो जाता है। पत्थर तक चैतन्य हो जाने पर हल्के हो समुद्र पर तैरने लगते हैं। लंका जाने हेतु समुद्र पर बनाया गया पुल-उसके पत्थरों का पानी पर तैरना इसी से संभव हुआ क्योंकि राम ने उनके चैतन्य को जगा दिया। इन्हीं अर्थों में चैतन्य होकर गिलहरी भी राम-काज में जुट गयी। राम के प्रेम-सिक्त स्पर्श-उसकी पीठ पर हाथ फिरा देने से उंगलियों से पड़ी धारियाँ आज तक उस याद को बनाये हुए हैं। यह बात कितनी भी अयथार्थ लगे, किन्तु है कितनी भावनापूर्ण! लोक-विश्वास में पगी। भालू, वानर, पेड़, पौधे-सब चैतन्य हो वनवासियों, आदिवासियों के साथ रामकाज में जुट गये! तो यह है हमारा लोक। लोक की जाग्रत चेतना ही आलोक है!

वर्तमान समाज को लोक तथा उसकी चेतना से जुड़ना होगा : आज मनुष्यों के समाज अपने सम्पूर्ण परिवेश से कटे-अपने प्राकृतिक दाय की पहचान व चेतना से प्रायः शून्य हैं। मनुष्यों ने अपने विकास, जो मात्र भौतिक सुख-सुविधा के विकास हैं, के क्रम में अपने पूरक तत्त्वों और घटकों को भुला दिया है। नतीजा सामने है। मनुष्यों की सभ्यताओं का विकास अलग है और पर्यावरणों का विकास अब जाकर बीसवीं शती के उत्तर में चिंता का विषय बना है। वह भी अधूरे सोच और अधूरे मन से। भारत तो और भी फिसड्डी दशा में है। यहाँ बडे-बड़े बाँध बनाने के लिए समूचा परिवेश उजाड़ा जा रहा है। पर्यावरण शब्द पुनः अधूरे सोच का शब्द है। इससे भी पहले वातावरण शब्द चलता था। भारतीय सोच का वास्तविक शब्द परिवेश है। यह मात्र आवरण नहीं, जो हमें चारों ओर से ढके है। परिवेश हमारा अभिन्न है। जैसे आत्मिक-मानसिक अस्तित्वों को दैहिक अस्तित्व आवेष्टित किए हुए है, ऐसे ही हमारे सामूहिक अस्तित्व को आवेष्टित किये है हमारा परिवेश।

आधुनिकता अपनी ज्ञान-विज्ञान की सारी उपलब्धियों, सुविधाओं के रहते जिन समाजों का निर्माण कर पायी है, वे सब अपने आप में अधूरे, अपूर्ण, एकायामी, खोखले साबित हो रहे हैं। इसीलिए सारी विचारधाराएँ भी चरमरा कर गिर गयी हैं। वे अपने आशयों में कितनी ही मानव-हितैषी हों, पर हैं अधूरी। मनुष्य के बाहर की चिंता से जुड़ी। ये विचारधाराएँ ऐसे मॉडल प्रस्तुत करती हैं, जो मूलतः प्रायोगिक हैं। कारखानों में बने उत्पाद की तरह मनुष्य को लेती हैं। कारखानों में किसी उत्पाद के अलग-अलग अंगों की र्निर्मिति और भिन्न-स्थान पर उन अंगों का एकत्रीकरण होता है। अलग-अलग पुर्जे। अलग-अलग बनाने वाले। यानी सारे कौशल पृथक-पृथक विशेषीकृत। परस्परता के बोध से वंचित। भिन्न पुर्जे तक की कोई जानकारी नहीं दूसरे को। समूचापन कहीं नहीं। उत्पाद बनकर तैयार हो गया। उपभोक्ता-मूल्य चुकाने वाले के अधिकार की वस्तु बन गया उत्पाद। बनाने वाले की कहीं झलक नहीं। पहचान नहीं। छुअन नहीं। सब मशीनी, यांत्रिक। यों द्वन्द्व, दौड़, दुराव जहाँ पहुँचाता है, वहीं खड़ा मिलता है-समाज। लोक नहीं। लोक अपनी निर्मितियों में, अपने संघर्षों में, संकल्पों में, अभियानों में जुड़ी निम्नतम्‌ इकाई तक सदैव अपनी पहचान, स्पर्श, झलक पाता है। एक स्थान पर कबीर ने कहा भी है कि मैं साधारण लौकिक और वैदिक मान्यताओं के अनुसार अन्य जनों की भाँति चल रहा था उन मान्यताओं के पीछे घूम रहा था -पीछै लागा जाए था, लोक वेद के साथि।/आगै थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि॥

लोक वेद की सामान्य परिपाटी और विश्वासों के साथ चलने का अभिप्राय प्रायः परम्परा के विश्वासों को निभाना है। चलने में सम्मिलित होना है। जरूरी नहीं कि इससे सत्य की अनुभूति भी उपलब्ध हो। यह कार्य सतगुरु ने किया। मर्म समझा दिया। प्रकाशित दीपक हथेली पर रख दिया। चैतन्य की प्रकाश की अनुभूति करा दी। अज्ञान-अंधकारभरी भटकन समाप्त हो गई। सब कुछ साफ-साफ दीखने लग गया। लोक में प्रचलित वैदिक परम्पराएँ, जो वैदिक-सत्यों से मेल नहीं खाती थीं, उन का ज्ञान भी कबीर को हुआ। वह लोक की सत्य, सहज की मूल अनुभूतियों को भी पहचान पाये। पशु-बलि, शूद्र-घृणा की प्रचलित अवधारणाओं से कटे और कहा-संतों पाण्डे निपुण कसाई। अतः बाद में कबीरपंथियों ने पृथक वेद-स्वसंवेद की अवधारणा को अपनाया।

लोक में ही चैतन्य-संभावनाएँ निहित रहती हैं। प्राकृत संभावनाएँ। शेष तो धीरे-धीरे मिट्टी के, बनावटी अ-प्राकृत हाथों बने संसार में खो जाता है। लोक की चेतना से दूर हो जाता है। लोक की चेतना में दूर हो जाता है। विस्मृति के गर्त्त में चला जाता है।तो इस लोक में बड़ी संभावनाएँ लुकी-छिपी-धरी हैं। यह प्राकृत खजाना है शक्तियों का। सभी प्रकार की शक्तियों का। शक्ति के सारे आयाम सुरक्षित पड़े रहते हैं यहाँ। अक्षय। आखुट। लोकनायक कभी बाहर से नहीं आया करते। भीतर से ही उत्पन्न होते हैं सदा। हुए हैं। प्राकृत शक्तियों को जानने-समझने वाले। इन के गर्भ से ही वे उत्पन्न होते हैं। नाभिनाल बद्ध। कबीर भी कोई अलग नहीं थे। वह लोक चेतना के ही संवाहक थे। लोकचेतस थे। लोक को चेतना देने वाले लोक वेदनाओं की उपज। विद धातु से बना वेद शब्द ज्ञान का अर्थवाह है। इसी वेद से वेदना शब्द का विकास है। अर्थ हुआ वह ज्ञान जो लोक की पीड़ाओं की पहचान हो-पीड़ाओं के गर्भ से जन्मा हो : वेदना है। समूची भाव सत्ता का वाचक। लोकनायक इसी भाव-सत्ता-वेदना की वैध संतान होते हैं। इसी सोचे हुए महाकार वेदना-भाव और कंस की भी। दोनों पक्ष अपनी-अपनी वेदना के सच्चे होने का दावा करते हैं। तब, किस की वेदना सच्ची है? प्रकृत है? लोकमयी है? या सत्तामयी, स्वार्थसनी है? वेदना के अन्तः-सत्ता स्वरूप-प्रकृति को जानने के उपाय हैं। हमारे यहाँ जितने भी मूल्यधर्मी शब्द हैं, वे लोकधर्मी शब्द भी हैं।

उनकी बनावट ही अपने में लोकधर्मिता के भी अर्थों-आशयों-आयामों को छिपाये हुए है। अतः कबीर को वैदिक मान्यताओं का विरोधी मानने का कोई कारण सामने नहीं आता। वैदिक मान्यताओं के विकृत प्रयोग और बाद में आयी व्यावहारिक विकृतियों के विरूद्ध वह जरूर थे। अन्यथा वह वेदों में उल्लिखित अध्यात्म अनुभूति, मानवीय समता, प्रकृति-सत्यों को ही आगे बढ़ाने वाले, विकृतियों को शोधित कर अधिष्ठित करने वाले मानववादी महान संत हैं।एक उपसर्ग है सम्‌ । इस सम्‌ उपसर्ग के द्वारा उक्त लोकधर्मी-मूल्यधर्मी अर्थ-आयाम निर्धारित होते हैं और यह उपसर्ग ही वेदना की प्रकृति, स्वरूप और सत्यता को खोलता है। सम्‌+वेदना=संवेदना शब्द हमें सिर्फ वेदना से नहीं, लोकधर्मी वेदना से जोड़ता है। सम्‌ परार्थमुखी, समता वाचक सापेक्षता बोधक है, जो आत्मा, चेतना के धरातल पर हमें पर से-लोक से, समाज से जोड़ देता है; हमारी सोच, बोध, ज्ञान को, वैयक्तिकता की सीमाओं में सीमित न बनाये रखकर संवेदना अन्य पर, भिन्न, दूसरे से जोड़ देती है। लोक से जोड़ देती है। अतः सम्बन्ध, संवेग, सम्बुद्धि, संयोग, आदि अनेक शब्द हैं जो बन्ध, वेग, बुद्धि, योग आदि की एकांगिता, वैयक्तिता के सीमित, (मनमानेपन, कुछ अर्थों में लोक-समाज निरपेक्षता) के विपरीत व्यापक, प्राकृत, सत्य अर्थों से जोड़ देते हैं। अतः लोकनायक इस संवेदना से युक्त होकर लोक से स्वयं भी जुड़ता है और लोक के विभिन्न घटकों को परस्पर जोड़ कर लोक शक्ति को बढ़ाता है। बिखरी हुई लोक-शक्ति का संग्रह करके उन्हें परस्परता के सूत्रा में पिरोता, संगठित करता है। इन्हें धार्मिक अर्थों में कहें तो लोक में सोयी हुई चेतना को परस्पर के संवेदनामय ज्ञान के द्वारा जगाकर संग्रह करना, फिर संग्रहित चेतना को संगठित करके लोकहित में उसका प्रयोग कर लोक को त्राण देना है। अतः कहना न होगा कि संवेदना, चेतना, शक्ति लोक में ही निहित है।
लोकनायक उसको लक्ष्य करता, जगाता, संग्रह करके संगठित करके अन्याय, असत्य से भिड़ा देता है। अन्याय-अत्याचार को परास्त कर के त्राण दिलाता है।उक्त संदर्भों के प्रकाश में कबीर भी लोकनायक हैं। उन्होंने भी समाज की सोयी, शक्तियों को जगाया। प्रभु वर्ग द्वारा उपेक्षित-अपमानित, बिखरी शक्तियों को एकजुट किया और अपने युग की बर्बर राजसत्ता के सामने चट्टान की तरह अड़ा दिया। इस चट्टान को सल्तनत और उसकी समूची सैन्य शक्ति हिला नहीं पायी। दूसरी ओर हिंदू और मुस्लिम समाज की श्रेष्ठ-वर्गीय, प्रभुवर्गीय शक्ति-चाहे वे मुल्लाओं की हो या ब्राह्मणों की, उसके विरूद्ध भी कबीर ने एक जबरदस्त तेजस्वी मोर्चा खोल दिया। कहाँ तो पिसे-कुचले-दबे वर्ग श्रेष्ठी-वर्ग के लोगों से त्रस्त रहते थे-भयभीत और त्रिणवत काँपते हुए और फिर कबीर के संसर्ग में आकर इन श्रेष्टियों पर मुस्कुराने, इनकी मूर्खताओं पर हँसने लगे। उनकी मुस्कुराहट और हँसी के पीछे कबीर के वे तर्क होते जो पंडित मुल्ला-दोनों की हँसी उड़ाते-कहु पंडित सूचा कवन ठांउ।/जहाँ बैसि हउं भोजन खांऊ॥/मामा जूठा, पिता भी जूठा, जूठे ही फल लागे अथवा क्या अजू जप मंजन कीएं क्या मसीति सिंरू नाएँ।/दिल महिं कपट निवाज गुजारै क्या हज काबै जांए॥

कबीर ने कुचले मरे हुए लोगों में साहस, निर्भयता, आत्मविश्वास के भाव और आत्म-गौरव की भावना भर दी। लोक की पहचान और ढूँढ आरम्भ होती है उस निम्नतर इकाई की अस्मिता के स्वीकार से और उसे महत्त्व देने से, जो अपनी अस्तित्व-सत्ता से धरती पर विद्यमान है। जिससे स्वयं को लोक में स्थित उस निम्नतम इकाई के स्तर पर उतार कर जो प्राणीमात्र की पीड़ा से जो सहज उत्साह में जुड़ा हो। संतो और भक्तों के साम्य की इस दिशा को घटित किया। जिसे समाज आज खोये दे रहा है। मात्रा दैहिक-भौतिक साम्य के परिवर्तन और दावे आज जिस तरह टूट-बिखर कर निरस्त हुए जा रहे हैं, उन्हें देखते यह और भी स्पष्ट और सुनिश्चित हो गया है कि अध्यात्म की उस सार-स्थली पर घटित होने वाली परिवर्तन की प्रक्रिया को अपनाया जाये। इस पुख्ता, सदियों से आजमाये हुए, सर्व सिद्ध आधार पर वास्तविक साम्य आता है, परिवर्तन घटित होता है, जिस चट्टानी मजबूती के शिखर पर कबीर ने खड़े होकर अकेले ही तत्कालीन राजशाहियों, धार्मिक रूढ़ियों, आडम्बरों, अमानवीयताओं की अंध महाशक्तियों को ललकारा था। लोकशक्ति उनके साथ जुट आयी थी। लोक-विश्वास उन्होंने अर्जित किया था। वह लोक मानस के गहरे पारखी थी। उनकी भाषा भी लोक-चेतना की गहरी पकड़ का प्रमाण देती है। उन्होंने लोक में प्रचलित प्रतीक, घटनाएँ, क्रियाएँ, दृष्टांत, रूपक और शब्दावली ग्रहण की। अपनी बात सीधे-सीधे लोक हृदय में उतारी। लोकवाणी में प्रचलित शब्दावली-सूली, चक्की, धोबी, साबुन, तलवार, म्यान, ठगिनी, चदरिया, चोला, कुम्हार, खाल, लोहार, कुंभ, ओस, प्यास, कतना, बुनना, पासा, चौपड़ आदि लोक-प्रसिद्ध मुहावरों, लोक-उक्तियों तक का प्रयोग इस तरह किया कि उनकी मार्मिक बातें अपने मूल आशय के साथ सीधे लोक-चित्त पर अपना असर करें।

वैदिक युग (कृत युग) पूर्व की प्रकृति, सत्य, प्रकाश, जो वैदिक वाङ्मय का आधार है, चैतन्य ज्योति के मूल स्रोतों को कबीर ने लक्ष्य किया और वाणी दी। बाद में आये कृत्रिाम परिवर्तनों के कारण कबीर ने कागज की लेखी को अस्वीकार किया और मूल-चैतन्य की अनुभूति से जुड़ने की राह दिखाई। इस कारण कबीर वाणी को स्वसंवेद भी कहा जाता है। वेद सत्य एवं तथ्य को समक्ष रखते हैं। उनकी अनुभूति तो व्यक्ति की अपनी क्षमताओं पर निर्भर करती है या गुरु कृपा पर। यह तथ्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है कि कबीर का सारा बल इस धरती पर विद्यमान जीवन पर और स्वसंवेद पर है। जीवन को लेकर ज्ञान की अनुभूति पर। वेद मात्रा ज्ञान ही नहीं, अध्यात्म ज्ञान है। सम्यक्‌ अर्थ में। ज्ञान का अर्थ सांसारिक जानकारियाँ या सूचनाएँ मात्र नहीं। यह ज्ञान मानसिक धरातल से जुड़ा रहता है इसलिए मिथ्या या झूठ एवं भ्रामक होता है। कबीर या संत जिस ज्ञान की बात करते हैं वह मन के तिरोहित होने पर आंतरिक अनुभूति के साक्षात्कार से उत्पन्न होता है। मन से नहीं, स्व और अस्तित्व से जुड़ा होने से स्वानुभूत होता है। यह ज्ञान बांधता नहीं, भ्रमित नहीं करता, मुक्त करता है। भ्रमों का निवारण करता है। ज्ञान, कर्म और भक्ति के तीन मार्गों के ज्ञान के अतिरिक्त कर्म और भक्ति को भी इन्हीं अर्थों में लेना होगा। वे भी तभी मुक्तिदायी बनते हैं।

युग पुरुष सदा ही अपने युग की दैहिक, मानसिक, आत्मिक-तीनों अस्तित्वों की व्याधि को पहचानता, समझता है तभी उपयुक्त निदान-उपचार भी कर पाता है। जड़ता (यथास्थिति) को गतिशीलता में बदलकर रूढ़ियों (मनोरोगों) को मिटाकर धार्मिक आडम्बरों (अमानवीय-व्यवहारों) का खण्डन करके समूचे राष्ट्र जीवन को पुनः स्वस्थ (स्व में स्थित) बनाता है। इसे ही युगीन परिवर्तन की संज्ञा दी जाती है। ये आमूल एवं समग्र परिवर्तन ही वास्तविक प्रगतिशीलता लाते हैं। कबीर भी ऐसी ही प्रगतिशीलता को लाये।कहना न होगा कि आज पुनः लोक का मार्ग अवरूद्ध है। शोषण, छद्म, अन्याय, हिंसा, हत्या की सामूहिक कार्यवाहियों से समूचे लोक का उच्छेदन, विनाश हो रहा है। लोक हत्यारी शक्तियाँ लोकविरूद्ध, लोक-विद्वेषी नीतियों से तरह-तरह की विनाश लीला रच रही है। नैसर्गिक प्रकृति से लेकर प्राणिमात्र और मानवी प्रकृति तक सब संत्रस्त है। उत्पीड़ित हैं। किन्तु बिखरे हुए। इन स्थितियों का पुनः राजनीतिक स्वार्थमय दोहन करने के लिए अनेक राजनीतिक गिद्धदृष्टि लगाये रहते हैं। इनमें कुछ हितैषी बनने-होने के मुखौटे लगाकर या टुच्ची बक्शीशनुमा रियायतें देकर युगों से उत्पीड़ित, पिसे, शोषित लोक को भ्रमित करते रहते हैं। इन बिखरी लोक शक्तियों को आज एकत्रा होना है। भारत में सबसे पहले इन बिखरी शक्तियों को एकजुट करने वाले नायक कबीर की शिक्षाओं को पुनः अपने कर्म का हिस्सा बनाना है। तरह-तरह की विभेदकारी पूजा पद्धतियों के दलदल से बाहर आना है। इन व्यर्थ के जंजालों को छोड़ना और मुक्त होकर अस्तित्व की लड़ाई लड़नी है। स्वाभिमान, न्याय और बराबरी की लड़ाई लड़नी है।

सभी वर्तमान कबीरपंथी, आचार्यों पर यही दायित्व जाता है कि वे मिलकर पूजापद्धतियों की भिन्नताओं के संकीर्ण दायरों की धुंध से कबीरपंथियों को बाहर लायें। उन्हें आज की, तेजी से बदलती परिस्थितियों के अनुसार अपने सोच-व्यवहार को बदलने की शिक्षाएँ दें। सच्चा कबीरी नेतृत्व प्रदान करें। अन्यथा भ्रष्ट राजनीतिक स्वार्थी नेतृत्व इन्हें कहीं का न रहने देगा। न घर का, न घाट का,। न राम का, न रहीम का। न दुनिया का न दीन का!

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Tuesday, November 25, 2008

दर्द

VIJAY KUMAR SAPPATTI


जो दर्द तुमने मुझे दिए ,
वो अब तक संभाले हुए है !!
कुछ तेरी खुशियाँ बन गई है
कुछ मेरे गम बन गए है
कुछ तेरी जिंदगी बन गई है
कुछ मेरी मौत बन गई है
जो दर्द तुमने मुझे दिए ,
वो अब तक संभाले हुए है !!

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आंसू

VIJAY KUMAR SAPPATTI

उस दिन जब मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ा ,
तो तुमने कहा..... नही..
और चंद आंसू जो तुम्हारी आँखों से गिरे..
उन्होंने भी कुछ नही कहा... न तो नही ... न तो हाँ ..
अगर आंसुओं कि जुबान होती तो ..
सच झूठ का पता चल जाता ..
जिंदगी बड़ी है .. या प्यार ..इसका फैसला हो जाता...

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दलित लेखन : साहित्य में जातीय सम्प्रदायवाद का संक्रमण

डॉ० हरेराम पाठक
साहित्य विचार संप्रेषण का सबसे सशक्त माध्यम है। साहित्य का इतिहास इस बात का साक्षी है कि समाज में जब-जब विघटन की स्थिति की आशंका हुई है तब-तब साहित्य-मनीषियों ने आगे आकर अपनी लेखनी द्वारा सामाजिक विघटन में सामंजस्यता लाने का प्रयास किया है। कोई भी साहित्यिक कृति कालजयी नहीं हो सकती है जब उसमें चिंतन की व्यापकता एवं संवेदनशीलता की गहराई समाई हुई हो। इसी चिंतन की व्यापकता, उदात्तता एवं संवेदनशीलता की गहराई के चलते, कबीर लोक पुरुष कहलाये, तुलसीदास लोक नायक एवं समन्वयवादी कवि हुए, सूरदास साहित्य जगत्‌ के सूर्य साबित हुए, भूषण, मैथिलीशरण गुप्त एवं दिनकर जी राष्ट्रकवि कहलाये और न जाने कितने कवि साहित्यकार एक विशेष संस्था के रूप में अपनी पहचान बनाने में सक्षम हुए।साहित्य में परस्पर विरोधी विचारों की आवाज भी गूँजती रही है। परन्तु यह विरोध हठधर्मिता एवं पूर्वाग्रह से प्रेरित न होकर एक सुनिश्चित सर्वमान्य तथ्य तक पहुँचने की सकारात्मक धारणा से प्रेरित रहा है।
सारांश यह है कि विरोध 'विरोध' मात्र प्रकट करने के लिए नहीं, बल्कि वैचारिक मंथन-मनन एवं सुनिश्चित निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए होता रहा है। संस्कृत साहित्य में रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, औचित्य आदि सम्प्रदाय वैचारिक मंथन के ही परिणामस्वरूप काव्यशास्त्रीय आलोचना के उत्कृष्ट मानक स्थापित कर पाये। हिन्दी साहित्य में वीर, भक्ति, रीति आदि कालों की अपनी अलग महत्ता रही है और इनमें भी काव्यशास्त्रीय शिल्पकला के साथ-साथ मानवीय मूल्यों की व्यापक अभिव्यक्ति हुई है। आधुनिक काल में छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और न जाने कितने वाद आये, सबमें विचारों की भिन्नता रही, पर अंततः सभीवाद मानव-मानव को जोड़ने में ही संलग्न रहे-'नदिया एक घाट बहुतेरे' के तर्ज पर।इन सब बातों को कहने का एकमात्र यही तात्पर्य है कि साहित्य में परस्पर विरोधी विचार भले हों, उसमें जाति-विरोधी अथवा जन-विरोधी विचार नहीं हो सकते। साहित्य में कलात्मक सम्प्रदाय स्वीकार्य है, परन्तु सामाजिक विद्वेष फैलाने वाले जातीय सम्प्रदाय बिलकुल नहीं।
आश्चर्य है कि आज दलित लेखन के नाम पर उन्हीं विरोधी विचारों को मान्यता मिलने लगी है जो साहित्य के कभी विषय रहे ही नहीं हैं। आधुनिक युग में जहाँ चिन्तन एवं विचार विमर्श हेतु अनेक मंच एवं संचार माध्यम विकसित हो चुके हैं वहाँ दलित पुस्तकों को जलाकर अपना विरोध प्रकट करने का 'फासीवादी' तरीका अपना रहे हैं। जुलाई २००४ में भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास 'रंगभूमि' की प्रतियाँ जला दी गयीं। दलित लेखक चमन लाल जी ने इसे 'फासीवादी' कर्म बताया।१ अगस्त में 'हंस' का दलित विशेषांक प्रकाशित हुआ परन्तु उसमें अकादमी के इस 'फासीवादी' कर्म पर किसी ने मुँह तक न खोली। उसी अंक में मैनेजर पाण्डेय का साक्षात्कार छपा था जिसमें उन्होंने कहा है कि ÷दलित साहित्य हिन्दी साहित्य का लोकतंत्रीकरण कर रहा है।'२
यदि दलित साहित्यकारों के ऐसे मंसूबों को लोकतंत्रीकरण कहेंगे जो अराजक तंत्र किसे कहा जायेगा, यह विचारणीय मुद्दा है।दलित साहित्यकारों का एक बहुत बड़ा अंश यह मानकर चलता है कि 'दलितों द्वारा, दलितों के जीवन पर दलितों के लिए लिखा साहित्य ही दलित साहित्य है।'३ अर्थात्‌ गैर दलित दलितों की मार्मिक सच्चाई का चाहे जितनी भी ईमानदारी से वर्णन करें उसे दलित साहित्य नहीं कहा जा सकता। क्या ऐसे विचारों से साहित्य में जातीय अथवा वर्गीय सम्प्रदायवाद का जन्म नहीं होगा? क्या ऐसा साहित्य समाज में स्वस्थ मानसिकता का विकास कर पायेगा? यह विचारणीय मानसिकता का विकास कर पायेगा? यह विचारणीय प्रश्न है। दलित लेखक मुद्राराक्षस तो यहाँ तक कहते हैं कि ''आखिर गैर दलित 'दलित' पर बोलने का अधिकार क्यों चाहता है।''४ मेरी समझ से मुद्राराक्षस की दलित एवं गैर दलित लेखक संबंधी अवधारणाओं पर कटु प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए ताकि सामान्य पाठक का रुचि संस्कार हो सके तथा साहित्य अपने असली स्वरूप में जीवित रह सके। किसी समय साहित्य का दायरा इतना व्यापक था कि अध्यात्म, दर्शन एवं विज्ञान तक उसकी सीमा रेखा में आते थे, परन्तु आश्चर्य कि वही साहित्य आज संकीर्णता के गलियारे में भटकते हुए कहीं स्त्रीवादी एवं पुरुषवादी लेखन तो कहीं दलित एवं गैर दलित लेखन तथा कहीं शहरी एवं ग्रामीण लेखन के नारेबाजी में सिकुड़ता चला जा रहा है। निश्चय ही साहित्य का यह रूप स्वास्थ्य कर नहीं कहा जा सकता।
इधर दलित लेखन के नाम पर हठधर्मिता एवं पूर्वाग्रह पूर्ण लेखन को अधिक बल मिला है। दलित लेखक कंवल भारती की बौखलाहट देखने योग्य है-''यदि आप दलित साहित्य नहीं पढेंगे तो हम आपके प्रेमचन्द एवं निराला को क्यों पढें?''५ मतलब, प्रेमचन्द और निराला गैर दलितों के लेखक हो गये, वाह रे विचार! परन्तु वहीं प्रेमचन्द और निराला यदि दलित जाति में पैदा हुए होते तो क्या कंवल भारती उन्हें पढ़ने से इंकार करते? निश्चित रूप से नहीं करते। इसका स्पष्ट अर्थ है कि दलित लेखक विचार की उदात्तता के आधार पर किसी लेखक का मूल्यांकन न कर जाति के आधार पर करने लगे हैं। परिणामस्वरूप साहित्य में संकीर्ण सम्प्रदायवाद का प्राबल्य होने लगा है।रमणिका गुप्ता इस साहित्यिक सम्प्रदायवाद का समर्थन करती हुई असंगत तर्क प्रस्तुत करती है - ''यह तो सर्वविदित है कि साहित्य रसों के आधार पर भी बाँटा जाता रहा है, अन्यथा ये श्रृंगार रस या वीर रस साहित्य क्यों कहलाता? इतना ही नहीं, उस समय रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति एवं ध्वनि सम्प्रदायों में तीव्र आपसी खींचतान इसी विभाजन का नतीजा थी।''६ रमणिका जी को यह समझना चाहिए कि संस्कृत साहित्य में रीति, वक्रोक्ति, अलंकार, रस आदि सम्प्रदायों के चलन से काव्य शास्त्रीय समीक्षा संबंधी नये-नये तथ्य एवं विद्वतापूर्ण विचार सामने आये। उक्त सम्प्रदायों को स्थापित करने वाले विद्वानों ने साहित्य को वैचारिक समृद्धि प्रदान की। क्या दलित साहित्यकार अब तक कोई वैचारिक एवं उदात्तता से परिपूर्ण साहित्यिक क्रांति लाने में सफल हुए हैं? उत्तर होगा-नहीं। अतः साहित्य के अन्य खेमों से दलित साहित्य की बराबरी बैठाना असंगत है।उसी आलेख में रमणिका जी आगे लिखती है - ''शिष्ट साहित्य वही था जो विशिष्ट लोगों द्वारा विशिष्ट लोगों के लिए लिखा जाता रहा।''७
रमणिका जी को मालूम होना चाहिए कि भारतेन्दु, प्रेमचंद, निराला, दिनकर, नागार्जुन आदि शिष्ट साहित्य के ही रचनाकार रहे हैं, लेकिन उन लोगों ने विशिष्ट लोगों के लिए भी नहीं लिखा। गोदान का 'होरी', कफन के घीसू और माधव, तथा 'ठाकुर का कुआँ' का 'जोखू' क्या विशिष्ट पात्र हैं? और तो और, रमणिका जी की भक्तिकाल पर प्रहार करने से भी नहीं चूकती है। उनका तर्क देखिए - 'भक्तिकाल का साहित्य सीधे राजा से विद्रोह न कर पाने के कारण धर्म की आड़ लेकर खड़ा हो गया और वह जनता के दरबार में ऊँचा उठ गया।'८ रमणिका जी की यह उक्ति भक्तिकालीन साहित्य की अंतर्वस्तु से अनभिज्ञता को प्रमाणित करती है। वास्तव में भक्तिकालीन साहित्य का आधार राजा के प्रति विद्रोह करना था ही नहीं। यदि राजा के प्रति विद्रोह न कर सकने की प्रतिक्रिया राजनिंदा का प्राबल्य होता, भक्ति भावना की तल्लीनता नहीं आ पायी होती।
उनकी तो स्पष्ट घोषणा थी - ''संतन को कहाँ सीकरी सो काम।'' उनकी अगली पंक्ति देखिए - ''भक्तिकाल में मनुष्य की अहमियत कहीं नहीं थी, वह राजा या ईश्वर के ही निमित्त था।''९ यह सर्वविदित है कि नैतिकता एवं उच्च मानवीय आदर्शों की स्थापना करना भक्तिकाल की मुख्य विषय वस्तु रही है। क्या नैतिकता एवं आदर्श मनुष्य की अहमियत से जुड़े सवाल नहीं हैं? कबीर ने रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं जाति-पांति के आडम्बरों का विरोध किया था। क्या ये सब मनुष्य की अहमियत से जुड़े सवाल नहीं हैं?आश्चर्य की बात है कि जहाँ भक्तिकाल में रमणिका गुप्ता को मनुष्य की अहमियत ही दिखाई नहीं पड़ती है, वही दलित लेखक चमन लाल जी भक्तिकालीन संत कवियों को ही दलित आन्दोलन का प्रेरणा स्रोत मानते हैं। वे लिखते है - ''उत्तर भारत में संत कबीर, रविदास, मीराबाई, दयाबाई, सहजोबाई व अन्य अनेक भक्त कवि सेन, पोपा आदि हिन्दी के दलित साहित्य के प्रेरणा स्रोत बने।''१०
अतः इससे प्रमाणित होता है कि दलित साहित्य के लेखकों में अभी वैचारिक ताल-मेल नहीं हो पाया है। एक ओर कंवल भारती प्रेमचंद और निराला को पढ़ने से इंकार करते हैं, तो दूसरी ओर दलित समर्थक रूपचंद गौतम लिखते हैं कि ''प्रेमचंद पहले भारतीय लेखक हैं जो सवर्णों और अवर्णों के बीच रोटी-बेटी का संबंध स्थापित करते हैं।''११ क्या यही है दलित साहित्य की वैचारिक एवं सैद्धान्तिक एकरूपता? दलित लेखन को प्रोत्साहित करने वाले प्रगतिवादी चिंतक डॉ० नामवर सिंह भी कंवल भारती के बड़बोलेपन एवं उनकी टेढ़ी निगाह से नहीं बच पाते हैं।
वे कहते हैं - ''राम विलास शर्मा और नामवर सिंह सरीखे प्रगतिशील चिन्तकों ने भी मार्क्सवाद के नाम पर ब्राह्मणवाद को ही प्रस्तुत किया है।''१२तो यह है कि दलित साहित्यकारों का वैचारिक अंतर्विरोध प्रगतिवादी साहित्य की तो एक निर्दिष्ट आचार संहिता थी, परन्तु दलित साहित्य के जितने साहित्यकार हैं, वे अपनी-अपनी सुविधा के लिए अपनी वैचारिक जिद्द को साहित्यिक मंच पर प्रतिष्ठित करने में लगे हुए हैं। उनमें न वैचारिक सोच की गहराई है, न परंपरागत साहित्य के प्रति चिंतन-मनन का प्रयास ही। यही कारण है कि वेद, रामायण, महाभारत, मनुस्मृति आदि हिन्दू संस्कृति के आधार पर भूत ग्रन्थों को ब्राह्मणवादी एवं सवर्ण मनोवृत्ति के प्रचारक ग्रंथ के रूप में मानते हैं। उनसे पूछना चाहिए कि आदि रामायण के रचनाकार महर्षि बाल्मीकि, व्यास एवं कालिदास क्या सवर्ण थे? सच तो यह है कि हिन्दू धर्म के आधार भूत ग्रन्थों के रचनाकार भी दलित ही रहे हैं, वे धर्म के नियामक एवं प्रचारक रहे हैं, यदि उन्हें उत्पीड़ित किया गया होता तो उनकी रचनाओं में उसकी स्पष्ट झलक होती। यहाँ तक की बहुत से शूद्र ऋषियों ने उपनिषदों की भी रचना की है। 'तैत्तिरीय उपनिषद्' के रचयिता तितिर ऋषि शूद्र थे।दलित लेखकों ने 'स्वानुभूति' एवं 'सहानुभूति' का मुद्दा उठाकर साहित्य में जातीय आरक्षण की मुहिम चला रखी है। उनका कहना है कि दलित जाति के लेखक ही अपनी पीड़ाओं का यथार्थ अंकन कर सकते हैं क्योंकि ऐसा करते वक्त उनमें स्वानुभूति की गहराई होगी। उनकी दृष्टि में गैर-दलित पर स्वानुभूति नहीं, बल्कि सहानुभूति के आधार पर लिखते हैं जिनमें अनुभूति की सच्चाई नहीं होती है। आश्चर्य की बात है, एक ओर स्वानुभूति का प्रश्न उठाकर दलित-लेखक मात्र दलितों द्वारा लिखे साहित्य को ही दलित साहित्य मानते हैं, तो दूसरी ओर राज परिवार से आये गौतम बुद्ध को वे अपना पहला दलित नेता मानते हैं। जब एक दलित के यथार्थ की अनुभूति एक दलित ही कर सकता है तो राज परिवार में जन्म लेने वाले गौतम बुद्ध को दलित-उत्पीड़न की अनुभूति कैसे हो गई? और यदि गौतम बुद्ध को दलित उत्पीड़न की अनुभूति हो सकती है तो अन्य गैर-दलित लेखकों को उसकी अनुभूति क्यों नहीं हो सकती? क्यों, श्रीधर पाठक, निराला, प्रेमचंद, नागार्जुन आदि साहित्यकारों को 'स्वानुभूति' का मुद्दा उठाकर उन्हें सिरे से खारिज किया जा रहा है? साहित्यिक क्षरण के इस गहन पहलू पर विचार करना आवश्यक है। दूसरी ओर, स्वानुभूति के भी अपने दायरे हैं। कोई भी ऐसा दलित लेखक नहीं है जो एक ही साथ अपने सिर पर मैला ढोने का 'स्वानुभूति' रखता हो और लेखन भी करता हो। वह भी अपने बाप-दादों की अनुभूतिगत कथाओं को सुनकर अथवा पास पड़ोस के दलित मजदूरों की स्थिति देखकर ही अपनी कल्पना के सहारे साहित्य सृजन करता है। फिर, स्वानुभूति का सवाल खंडित हुआ कि नहीं।साहित्य लेखन में मुख्य बात संवेदनशीलता एवं कल्पना की उर्वरता की होती है। लेखक दलित ही हो परन्तु उसमें संवेदनशीलता एवं उर्वर कल्पना की कमी हो तो वह न तो दलित पात्रों के साथ न्याय कर पायेगा, न सवर्ण पात्रों के साथ ही। संवेदनशीलता की इसी व्यापकता को दलित लेखक 'सहानुभूति' का नाम देते हैं। परन्तु दोनों में काफी अन्तर है। 'सहानुभूति' में करूणा का भाव है, परन्तु 'संवेदनशीलता में सहानुभूति का भाव हैं। संवेदनशीलता का यही व्यापक भाव प्रेमचंद को 'दो बैलों की कथा' जैसी मार्मिक कहानी लिखने को प्रेरित करता है। उक्त कहानी में बैलों की मूल व्यथा एवं विवशता का मार्मिक चित्रण प्रेमचंद जैसे सहृदयता एवं संवेदनशीलता के पूर्ण साहित्याकार ही कर सकता है। जब कोई लेखक पशु एवं जड़ जगत का हृदयस्पर्शी एवं स्वानुभूति पूर्ण वर्णन कर सकता है तो भला दलित व्यक्ति के जीवन का दर्द भरा वर्णन स्वानुभूति एवं संवेदना के आधार पर क्यों नहीं कर सकता? क्या ईदगाह जैसी बाल मनोविज्ञान से सम्पन्न कहानी लिखने के लिए एक प्रौढ़ लेखक को पुनः बालक बनना होगा? यदि 'स्वानुभूति' शब्द को दलित लेखकों जैसा व्याख्यायित किया जाए तब तो बाल-साहित्य बच्चों द्वारा ही लिखा जायेगा, पशुओं की अंतर्व्यथा को पशुओं द्वारा लिखा जायेगा, तोता-मैना की कहानी गढ़ने के लिए तौता-मैना बनना पड़ेगा। इसका सीधा मतलब है कि हर लेखक को अपने समानधर्माओं के संबंध में लिखने का अधिकार होगा। ऐसी स्थिति में साहित्य साहित्य न होकर कुंठा ग्रस्थ बकवास का अखाड़ा बनकर रह जायेगा। दूसरी ओर इस प्रकार के लेखन को लेखन तो कह सकते हैं, साहित्य कतई नहीं कह सकते।दलित लेखकों की इसी हठधर्मिता का परिणाम है कि बहुत से दलित लेखक अपने आपको दलित विचारधारा से उसी प्रकार अलग करने लगे हैं जिस प्रकार सिद्धाचार्यों के अनगढ़पन तथा वामाचारों से तंग आकर कुछ सिद्धों ने नाथ पंथ अपना लिया था। यही कारण है कि दलित कुलोत्पन्न रत्न कुमार सांभरिया स्पष्ट रूप से घोषणा करते हैं कि 'मैं दलित साहित्य का विरोधी हूँ।'१३ हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा के लेखक माताप्रसाद कहते हैं - 'जहाँ ब्राह्मण वर्ग के बहुत से लोग इस बुराई को दूर करने में लगे हैं, वहीं दलित वर्ग के लोगों को भी प्राचीन काल की इस व्यवस्था के लिए, ब्राह्मणों या मनुस्मृति को कोसने से ही काम नहीं चलेगा। मनुस्मृति तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में दलित के विरुद्ध जो बातें लिखी गयी हैं, आज के संविधान में वे बेमानी हैं। उनका बार-बार उल्लेख करने से वातावरण विषाक्त होता है, गडे मुर्दे उखाड़ने से किसी का लाभ नहीं होने वाला है।'१४जिस प्रकार का प्रतिक्रियावादी दलित लेखन का चलन आजकल हो गया है वह यदि हजारों साल पहले हुआ होता तो उसकी प्रासंगिकता कुछ समझ में आती, परन्तु आज स्थिति बिल्कुल बदली हुई है। देश के संविधान द्वारा दलितों की राजनीति में भागीदारी सुनिश्चित हो चुकी है। दलित समाज के लोग भी आर्थिक एवं शैक्षणिक प्रगति कर रहे हैं। लेकिन आर्थिक एवं शैक्षणिक प्रगति होने मात्र से दलित चिंतन में बदलाव आ सकेगा, यह कोई आवश्यक नहीं हैं। दलितों में समग्र उत्थान लाने के लिए उन्हें अनावश्यक विवादों से ऊपर उठना होगा। दलित वर्ग की विभिन्न जातियों के बीच भावात्मक एकता स्थापित कर उसे सवर्णों से जोड़ना होगा। दलित लेखकों को यह दिखाई देता है कि उनके घर ब्राह्मण भोजन नहीं करता, परन्तु यह दिखाई नहीं देता कि डोम के यहाँ चमार नहीं खाता, चमार के यहाँ दुसाध नहीं खाता, धोबी के यहाँ से इनका खान-पान नहीं है। आखिर यह सब व्यवस्था कब और कैसे मिटेगी, यह चिंतनीय है। ब्राह्मणों में भी विभेद है। महापात्र ब्राह्मण को गाँव से होकर अभी भी बहुत से जगहों में गुजरने नहीं दिया जाता है। षटकर्म कराने के बाद भूले-भटके आदि वे गाँव से होकर गुजरते हैं तो उन पर ढेला फैंका जाता है। ये सब दृष्टान्त ये दर्शाते हैं कि ब्राह्मण समाज में ही ब्राह्मण अछूत हैं एवं दलित समाज के भीतर भी एक दूसरे के प्रति छूत-अछूत की भावना हैं प्रश्न उठता है, शिक्षा का इतना विकास हो जाने पर भी हमारे समाज की एक अभिशाप्त नियति अभी भी क्यों बरकरार है? उत्तर सिर्फ एक ही है कि हम दूसरे की जड़ काटने उसकी बुराई देखने आदि में ही अपनी सारी ऊर्जा खपा देते हैं, अपनी जड़ कितनी मजबूत अथवा कमजोर है, यह देखने से हम सदा कतराते रहे हैं। किसी भी आन्दोलन को हमने राजनीति में प्रवेश करने, तथा समाज में चाहें ग़लत तरीके से ही सही, धाक जमाने का जरिया बना लिया है। इस प्रकार के आन्दोलन हमें क्षणिक आत्मलीन सुख तो दे सकते हैं, परन्तु इससे हमारी सामाजिक समस्याओं का शाश्वत समाधान नहीं हो सकेगा। हमारी लड़ाई अवर्ण-सवर्ण के बीच नहीं वैचारिक प्रदूषण फैलाने वालों के खिलाफ होनी चाहिए चाहे वह प्रदूषण अवर्ण के झरोखे से आवे या सवर्ण के।
संदर्भ सूची
१. वर्तमान साहित्य, सितम्बर, २००४, पृ० ६
२. हंस, अगस्त २००४, पृ० २००
३. समकालीन भारतीय साहित्य, मई-जून, ९८, पृ० १५७
४. इंडिया टुडे, ६ दिसम्बर २०००
५. इंडिया टुडे, ६ दिसम्बर २०००
६. समकालीन भारतीय साहित्य, मई-जून ९
८, पृ० १५०७. वही, पृ० १५१८. वही, पृ० १५१
९. वही, पृ० १५११०. वही, पृ० १५५
११. समकालीन भारतीय साहित्य, अंक ५९, पृ० १९५
१२. दलित जन उभार, पृ० १८८१३. हंस, अगस्त २००४, पृ० ८४
१४. हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा, पृ० ३२

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Monday, November 24, 2008

बंजारा मन

SEEMA GUPTA


ये मन फ़िर बंजारा हुआ,
भटकने को बेकरार ,
उन्ही रास्तों पर ,
जहाँ दरख्तों के साये ,
कुछ सूखे टूटे पत्ते ,
पहचानी एक महक ,
उडता हुआ धुल का गुब्बार ,
दूर तक फैला सन्नाटा ,
यादों की किरचे ,
भीगे हुए से पल ,
फीके क़दमों के निशाँ ,
बिखरे पडे हैं लावारिस से,
उन्हें फ़िर से समेट लाने को ,ये मन फ़िर बंजारा हुआ,

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Sunday, November 23, 2008

परायों के घर

VIJAY KUMAR SAPPATTI



कल रात दिल के दरवाजे पर दस्तक हुई ;
नींद की आंखो से देखा तो ,
तुम थी ,
मुझसे मेरी नज्में मांग रही थी
, उन नज्मों को, जिन्हें संभाल रखा था , मैंने तुम्हारे लिए ,
एक उम्र भर के लिए ...
आज कही खो गई थी , वक्त के धूल भरे रास्तों में ......
शायद उन्ही रास्तों में ..
जिन पर चल कर तुम यहाँ आई हो....
क्या किसी ने तुम्हे बताया नही कि,
परायों के घर भीगी आंखों से नही जाते.....

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डॉ० श्योराज सिंह बेचैन से मिर्जा गौहर हयात की अन्तरंग बातचीत

सबसे पहले श्योराज सिंह बेचैन जी आपके मुँह से पाठकों के लिए आपकी पारिवारिक और साहित्यिक पृष्ठभूमि जनना चाहेंगे?

गौहर साहब समझ में नहीं आता कि कहाँ से शुरु करूँ? मैं आज दिल्ली में अध्यापक हूँ, लेकिन मैंने जिन्दगी कहाँ से शुरू की और कैसे शुरु की यह बहुत लम्बी दास्तान है। मैं उत्तर प्रदेश के एक बहुत ही पिछड़े हुए गाँव नन्दरौली(बदायूँ) में पैदा हुआ। मेरे पूर्वज चर्मकार का काम किया करते थे। मुर्दा मवेशी उठाना, उनका चमड़ा उतारना, उसको शुद्ध करके समाज के उपयोगी बनाना, यह सब हुआ करता था। लेकिन आप देखिए कि ऐसी दुर्घटना घटी जिसने मेरे बचपन को एक संकट कालीन स्थिति में डाल दिया। मसलन, जब मैं लगभग ५-६ वर्ष का था एक दुर्घटना में मेरे पिता जी की मृत्यु हो गयी। माँ अशिक्षित थीं। मेरे बाबा का एक पैर टूट चुका था। उनके छोटे भाई नाबीना थे और मेरे ताऊ भी नेत्राहीन थे। ऐसी स्थिति में हम बेघर हो गये और उसी समय से मेरी यात्रा दूसरों के सहारे शुरु होनी थी शुरु हुई।

आज श्योराज सिंह बेचैन आप दलित विमर्श के एक जाने-पहचाने नाम हैं। साहित्य के परिप्रेक्ष्य में आपके जीवन के प्रमुख पड़ाव?

मेरे जीवन का प्रमुख पड़ाव, साहित्य और जीवन दोनों परिप्रेक्ष्य में बड़ा साम्य। मैं बचपन में बिना किसी प्रशिक्षण के और बिना किसी गुरु के यह कहें, किसी चिंहित किये गये प्रशिक्षक के मैं कविताएँ करने लगा था। ये कविताएँ अपने परिवेश से अपने वातावरण से, अपने अनुभव से लिखी जा रही थीं। मैं विद्यार्थी था और विद्यार्थी कैसा था कि बालश्रम के क्रम में विद्यार्थी बना था। मैं बचपन में दिल्ली आ गया था। मौसा-मौसी के पास रहकर कभी नीबू बेचकर, कभी अण्डे बेचते हुए तो कभी अखबार डालते हुए, मैंने गा-गाकर अपनी कविता शुरु की। बाहर रहकर शिक्षा ग्रहण करना, खुले वातावरण से सीखना तो मिल गया, उससे सीखते रहना और अनौपचारिक शिक्षा की तरफ बढ़ना ये सब बाल संघर्ष के दिन थे और उस समय किसी निश्चित विचारधारा में बँधकर कोई कविता करना न सम्भव था, न स्वाभाविक था। जो मन में आता था, जो अनुभव से निकलता था वह लिख लिया करता था। लेकिन जब मैं कक्षा-८ का विद्यार्थी हुआ गाँव में, दिल्ली में मेरे मौसेरे भाई जो कि मौलाना आजाद मेडीकल कालेज में एम.बी.बी.एस. के छात्र थे, उन्होंने दिल्ली के कई लेखकों से मेरा परिचय करवाया। उर्दू के शायरों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। कैफी आजमी, शाहिर लुधियानवी मेरे दिमाग पर छाने लगे। उनके गीत जो रेडियो पर सुनने को मिलते थे वह गीत मुझे खींच कर अपनी तरफ करते गए। उनकी किताबों को मैंने दिल्ली में ढूँढ-ढूँढकर पढ़ीं। हिन्दी ने मुझे बहुत कम प्रभावित किया। कारण ये है कि उसमें गेयता बहुत कम मिलती थी और उसमें गीत बहुत कम मिलते थे तो इसलिए मेरी सरल उर्दू में लिखे गये गीतों ने मदद की और मैं गीतकार हो गया। गेय कविताएँ लिखते हुए छात्र जीवन से लोक जीवन में प्रसिद्ध होने लगा। उसी समय यानी कि छात्र जीवन से बाल सभा का अध्यक्ष रहा और उसके बाद जब चन्दौसी में ग्रेजुएशन करने आया तो आल इण्डिया स्टूडेण्ट फैडरेशन की जिला कमेटी के अध्यक्ष पद पर काम किया और उसी दौरान मिर्जापुर में एक मुशायरा हुआ जिसमें कि कैफ़ी आजमी, अली सरदार जाफरी जैसी हस्तियाँ भी थीं। मुझे एक छात्र के रूप में कविता रखने का मौका मिला। इससे पहले अपने कालेज के एक कवि सम्मेलन में एक छोटी-सी कविता सुनायी थी लेकिन उससे लगा कि बात अधिक दूर तक नहीं गयी। अखबारों में लेखन का काम छात्र जीवन से ही शुरु हुआ और पत्रिकाओं में मेरी कविता छपना शुरु हुई। किसान आन्दोलन की यूनियन और दलित आन्दोलन में भी कार्य किया। इसी के साथ सफाई मजदूरों के लिये शोषित समाज संघर्ष समिति की स्थापना करके वहाँ के वाल्मीकि नौजवानों को जोड़ा, कई बार ऐसी स्थितियाँ आयीं जहाँ जोखिम था। उस समय जोखिम उठा लेने के जज्बे के बारे में मैं खुद हैरान हूँ कि उस समय मैं क्या था और आज कैसा हूँ? कितना किताबी होता चला जा रहा हूँ। इसके बाद अब मेरे गीत-संग्रह नई फसल, फूलन की बारह मासी आने शुरु हुए। दलित विमर्श या दलित साहित्य ८७ के आसपास से शुरु हुआ था। इससे पहले मैं मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित था। जनवादी लेखकसंघ प्रगतिशील लेखकसंघ के असर में था और १९८७ में ही जब मैंने पी.एच.डी. का इरादा बनाया, इन्हीं धाराओं से सम्बन्धित काम के लिये सोचा था परन्तु अच्छा यह हुआ कि इस क्रम में हिन्दी दलित पत्रकारिता में पत्रकार अम्बेडकर का प्रभाव', इस विषय को लेकर अपना पी.एच.डी. कार्य शुरु किया और ये काम और ज्यादा सार्थक इसलिए हो पाया कि वीरेन्द्र अग्रवाल जैसे सुलझे हुए कवि मेरे निर्देशक बने। तो बुनियादी काम मैं दलित चिन्तन के संदर्भ में यह कर पाया कि मैंने बाबा साहब अम्बेडकर के मूक नायक, बहिष्कृत भारत, समता-जनता जो मराठी में निकले हुए अखबार थे, इनका करीब ५ साल तक अध्ययन और अनुवाद किया। कई किताबों में वह आया। मूर्खों जो विवाद रहेगा, यह अन्याय कोई परम्परा नहीं', दलित क्रांति का शायर इत्यादि किताबें इस क्रम में छपकर आयीं। अखबारों में लिखना शुरु किया, यह मेरे लिए एक नया क्षेत्रा था। सहारा में मेरा एक कालम चलता रहा और हिन्दुस्तान में लिख ही रहा हूँ। जनसत्ता में लिखा है, मराठी पत्रों में लिखा है और अमर उजाला में १९८७ से ही लिख रहा था। जनसत्ता, अमर उजाला के लिए कवर स्टोरी लिखी, आवरण कथा लिखी और फिर धीरे-धीरे मैं आलोचना के फील्ड में उतर गया, कविता मेरी छूटती गयी इसका मुझे दुख हुआ। अब भी कई बार सोचता हूँ कि मैं तो कवि था आलोचना के जंगल में कैसे फँस गया? अब बहुत सारे लोग इधर-उधर मुझे आलोचक के रूप में जानने लगे लेकिन जब मैं अपने कर्म क्षेत्र की तरफ लौटता हूँ किसानों, मजदूरों, दलितों और अपने पुराने मित्रों में लौटता हूँ तो वह मुझमें अपना पुराना कवि ढूँढना चाहते हैं। मुझसे उन्हीं गीतों की, उन्हीं कविताओं की मांग करते हैं जो मैं उनके बीच गाया करता था तो इस तरह यह पड़ाव चलते रहे, मैं चलता रहा, वक्त चलता रहा, स्थितियाँ बदलती रहीं, जिम्मेदारियाँ बदलती रहीं और आज मैं यहाँ खड़ा हूँ तो मैं सोचता हूँ कि साहित्य में अब बहुत कुछ नये तरीके से सोचने की जरूरत है।

आपकी नजरों में दलित कौन है?

दलित क्या है? व्यवस्था में दलित कौन है? हमने शुरु से इस बात को साफ करने की कोशिश हमारी नजर में वे सब लोग दलित हैं जो किसी न किसी रूप में अस्पृश्यता के शिकार हैं, अब बहुत सारे लोग कहते हैं कि एक अफसर बन गया या किसी की अच्छी नौकरी लग गयी, तो वह दलित नहीं रहा, यह सतही और बहुत ही सरलीकृत सोच है, बात यह है कि मान लीजिए मैं अपनी स्थिति जद्दोजहद के बाद थोड़ा बहुत सुधार लेता हूँ। लेकिन क्या मेरी बहन की स्थिति मेरी जैसी हो गयी? क्या मेरी बुआ की स्थिति मेरी जैसी हो गयी? क्या मेरी माँ की स्थिति एक गैरदलित जैसी हो गयी? क्या मेरे दादा की स्थिति संभल गयी? या मेरी मौसी और मौसा की स्थिति संभल गयी, हजारों लोग जुड़े हुए हैं इससे। नाते-रिश्तेदार, घर वाले, परिवार वाले फिर पूरी जाति वाले। अब देखिए जिस गाँव में से निकल कर आया हूँ उस गाँव में चार बच्चे भी सरकारी नौकरी में नहीं है और सारे के सारे आते हैं शाहदरा, दिल्ली में दिनभर मजदूरी करके चले जाते हैं या बाहर चले जाते हैं तो आप बताइए कि गाँव में जिनके पास जमीनें नहीं हैं शहरों में उद्योग नहीं है तो आर्थिक दृष्टि से भी यह प्रताड़ित है, उपेक्षित है, माली हालत खराब है और सामाजिक दृष्टि से यह कोई एक पान की दुकान तक नहीं खोल सकते क्योंकि कोई पान लेगा ही नहीं। यह कहना कि हर आदमी दलित है सही नहीं है। अब जितने मन्द बुद्धि ब्राह्मण हैं सबको दलित मान लिया जाए यह दृष्टि नहीं होनी चाहिए। बात यह है कि जन्म के आधार पर, जाति के आधार पर, जिन लोगों ने अपने आपको श्रेष्ठ मान कर रखा है वे कभी दलित नहीं हो सकते हैं और वे जब दलित कहलवाना चाहते हैं तो उसके पीछे आप देखिए कि जो एक योजना है। इसमें दलितों के लिए आयी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ हड़प लेने की नियति होती है।अभी दिल्ली में कुछ दिन पहले एक खबर छपी है कि एक व्यक्ति ने छत्तीस साल पहले एक फर्जी जाति प्रमाण पत्र इस्तेमाल किया और किसी दलित को अपना बाप बना लिया और उसने मेडीकल में दाखिला ले लिया और वह आज हेड आफ डिपार्टमेंट बन गया, अब सरकार उसकी तलाश कर रही है पता कर रही है। सवाल यह उठता है कि मध्य प्रदेश में जाकर क्या वह दलित बाप के पास जाकर कभी रहा या नहीं रहा। दिल्ली में अभी तीस प्रतिशत फर्जी सर्टिफिकेट पाये गये। सभी अनुसूचित जाति के बनना चाहते हैं। जो संविधान में न्याय करने की कोशिश हुई, जिन लोगों की क्षति हुई है उन लोगों की कुछ आंशिक क्षति की पूर्ति की जाए क्योंकि वह तमाम लाभों से वंचित रह गया है, यह एक नैतिक जिम्मेदारी है। उसको हड़प लेना और जो गैर सरकारी संस्थाएँ है उस संस्था में उसे घुसने नहीं देना और सरकारी संस्थाओं का आरक्षण और दूसरी जो कल्याणकारी योजनाएँ हैं वह फर्जी जाति प्रमाण पत्र के आधार पर हड़प लेना यह साजिश है। इसके तहत हर कोई दलित बनना चाहता है, तो वास्तव में दलित वह है जो अछूत रहे हैं, जिनके साथ अस्पृश्यता बरती जाती है। इस देश में मनु महाराज ने जो वर्ण व्यवस्था बनाई थी उसका साहित्य पर, विचार पर बहुत बड़ा असर है। अभी भी जो हिन्दुओं का सारा साहित्य है, इसके बावजूद मार्क्सवाद आ गया और फ्रायडवाद आ गया, तरह-तरह के वाद आ गए, अंग्रेज भी काफी समय तक राज कर गए, फिर भी यह जो लिखते हैं उस पर मनुस्मृति का पूरा असर है। महाभारत, रामायण यह जो हिन्दुओं के ग्रन्थ है उसके भावानुवाद हिन्दी की कहानियों, हिन्दी की कविताओं और उपन्यासों में भरे पड़े हैं। इसलिए यह कहीं आगे बढ़ ही नहीं रहे हैं। यह विकास कर ही नहीं रही हैं। कोल्हू के बैल की तरह घूम रहे हैं। चूँकि दलित साहित्य अपनी मौलिक तकलीफें ले आया है और उसका समाधान चाह रहा है इसलिए उसका पात्र वही हो सकता है जिसके पास मौलिक अनुभव है उसको कोई दूसरा काल्पनिक ढंग से व्यक्त कर ही नहीं सकता। करेगा तो सब फर्जी होगा। इस बात को श्वेत साहित्य ने साबित कर दिया। इस बात को महिलाएँ भी साबित कर रही हैं तो फिर कौन दलित है, कौन नहीं दलित है, सीधी सी बात है जो अस्पृश्यता के शिकार रहे हैं वही दलित हैं।
सम्पूर्णता में आप दलित विमर्श को कैसे परिभाषित करेंगे?
सम्पूर्णता से मतलब?
दलित विमर्श के तमाम क्षेत्रों में?
दलित विमर्श एक समान्तर विमर्श के रूप में आया है। वह राजनीति में अपने नेतृत्व की बात करता है, साहित्य में भी अपने नेतृत्व की बात कर रहा है, मीडिया में भी हिस्सेदारी माँग रहा है, आर्थिक क्षेत्रों में भी उसकी माँग चल रही है, बड़ी तार्किक माँग चल रही है और कला संस्कृति के तमाम क्षेत्रों में दलित ने एक लोकतांत्रिाक मांग की है और मैं यह समझता हूँ कि अगर देश को लोकतांत्रिक बनाना चाहेंगे तो दलित विमर्श को नकार कर कोई संस्था, कोई इंस्टीट्यूट, कोई भी माध्यम लोकतांत्रिक नहीं हो सकता। कारण यह है कि दलित कोई दो-चार है नहीं, छोटे-मोटे देश आस्ट्रेलिया और इंग्लैण्ड के बराबर ये लोग हैं, तो फिर इतनी बड़ी आबादी को आप नकार कर कहे कि हां, देश का विकास हो जाएगा! बहुत सारे दलितों का स्वयंभू नेता बनने की कोशिश करते हैं। गोलमेज सम्मेलन हुआ तो गाँधी जी ने दलितों का नेता बनने की कोशिश की थी। उन्होंने अपना दावा ठोका था और कहा था कि मैं दलितों का भी प्रतिनिधि हूँ, जिन्ना साहब मुसलमानों के प्रतिनिधि हुए। यदि डॉ० अम्बेडकर वहाँ उपस्थित न होते तो वही हो जाते दलितों के प्रतिनिधि। लेकिन डॉ० अम्बेडकर ने साबित किया कि, भाई गाँधी जी को कुछ लेना-देना नहीं। ये हिन्दुओं के प्रतिनिधि ही हैं। उन्हीं की ही बात सोचते हैं और उन्हीं के नुमाइंदे हैं। मैं दलितों का नुमाइंदा हूँ और यह बात उन्हें साबित करनी पड़ी। स्वामी अछूतानन्द जैसे जागरूक, जो दलित नेता, जो बुद्धिजीवी, साहित्यकार व पत्राकार भी थे, उन्होंने आदि हिन्दू अखबार निकाला था। कविताएँ और कहानियाँ लिखी थी, उन्होंने बड़ा काम किया। उन्होंने यह गलतफहमी दूर करने के लिये बहुत काम किया कि गाँधी जी दलितों के नेता हैं। साहित्य, राजनीति, कला व मीडिया में भी यही स्थिति होनी चाहिए कि दलितों के विचार का प्रतिनिधित्व गैरदलित नहीं कर सकता है। जाहिर सी बात है इसलिए साहित्य में भी एक अलग धारा आ गई। चूँकि आप मानने के लिए तैयार नहीं थे। आज हर अखबार, हर पत्रिाका, हर चैनल यह बात दबाने में खुशी महसूस नहीं करता बल्कि बताने में और आगे बढ़कर लाने के लिए मजबूर है तो उसका कारण यही है कि अब यह धारा धीरे-धीरे इतनी विकसित हो गयी कि एक समानान्तर साहित्य एक समानान्तर विचारधारा के रूप में आ गया। इससे देश का विकास होगा, इससे संस्कृति की सोच का विकास होगा, क्योंकि जो पक्ष समाज का अब तक दबा हुआ था वह इस माध्यम से आगे आ रहा है। कमजोर हिस्से अगर मजबूत हो जाते हैं तो पूरा देश मजबूत हो जाता है। हमारा देश बार-बार गुलाम क्यों हुआ? इसलिए कि २५ प्रतिशत लोगों को यहाँ किसी काम का रहने ही नहीं दिया गया। उन्हें शिक्षा नहीं दी गयी। विद्यालय की बात छोड़िए, वे रास्ता तक नहीं चल सकते थे। इस तरह से इस देश में अत्याचार हुए और आज तक उनका क्रम गोहाना तक दोहराया जा रहा है। पूरे देश में ये हो रहा है। कसम-कश बढ़ी है, दलित जब बर्दाश्त कर लेता या मार दिया जाता था और बैठ जाता था। बलात्कार हो जाता था तो कोई केस करने के लिए भी नहीं उठते थे, उस वक्त कहते थे कि व्यवस्था सब सही चल रही है। अब जब उसने जवाब देना शुरु कर दिया, उसमें खुद्दारी जागृत हुई और अधिकार बोध की चेतना आई तो लोगों को आपत्तियाँ होने लगीं। दलित चेतना जिन-जिन क्षेत्रों में आ रही है वह-वह क्षेत्र तेजी से डेमोक्रेटिक बन रहे हैं और जहाँ नहीं है वही आलोकतांत्रिाक हैं और समाज सामंती मूल्य से जकड़ा हुआ है। वही बीमार क्षेत्र है और स्वास्थ्य उसका तभी ठीक होगा जब सारे लोग आये। इसीलिए उदारीकरण भूमण्डलीयकरण से दलित परेशान नहीं हो रहा है। अंग्रेजों ने यहाँ आकर रेलवे लाइन डाली, नई पद्धति की शिक्षा व्यवस्था की शुरुआत की, ऐसी-ऐसी चीजें हैं जो बहुत मजबूत है। पुल बना दिया तो आज भी नहीं टूटे और हमारे देश के ठेकेदार कैसे देश भक्त हैं? उनकी बनाई हुई इमारत टूटती है पहले, बनती हैं बाद में, तो इस तरह से है तो दलित विमर्श केवल साहित्य और समाज का विमर्श नहीं है। सारे विषय में उसकी उपस्थिति, उसका हस्तक्षेप असर डाल रहा है।
दलित आन्दोलन को मैं इस तरह सफल मानता हूँ कि यह दलित को विमर्श के रूप में स्थापित करने में सफल रहा है, और दलित विमर्श की एक धारा समाज में प्रचलित हुई तो इसके परिप्रेक्ष्य में मैं आपसे यह जानना चाहूँगा कि साहित्य में दलित विमर्श क्या है? साहित्य में यह कब प्रारम्भ हुआ और वर्तमान में उसकी क्या स्थिति है?
देखिए, जब दलित लिखने की स्थिति में नहीं था तो बोलता था, तब भी अपनी वाणी से कहता था। कबीर के मुँह से निकलने वाला शब्द तो साहित्य की एक अच्छी परम्परा दलितों को मिली साहित्य में। कबीर की, रैदास की, अछूतानन्द की और बाद में डॉ० अम्बेडकर उस परम्परा में जुड़ते हैं। जो यह परम्परा है उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि यह परम्परा हिन्दुओं से बिल्कुल अलग है। हमने यह बात सामने रखी थी कि इस्लाम का ज्यादा सम्मान करना चाहिए। चूँकि इस्लाम आने से कबीर आये, इसाईयत को ज्यादा सम्मान करना चाहिए क्योंकि ईसाई ने जगह-जगह स्कूल खोले, गरीबों, अछूतों को पढ़ाने का काम किया तो उनका ऋण है। हिन्दुओं ने जगह-जगह उनको रोका। आर्य समाज जैसी संस्थाएँ या सुधार की हिन्दुओं की जितनी संस्थाएँ बनी, तब जब सामने यह दिखाई पड़े कि सारे दलित हिन्दू धर्म को छोड़कर भाग रहे हैं, इसाई बन रहे हैं या मुस्लिम बन रहे हैं या अपना कोई अलग धर्म तलाश कर रहे हैं या कुछ बौद्ध बन रहे हैं और ऐसा हुआ कि खुद डॉ० अम्बेडकर के जमाने में एक दिन में पाँच लाख दलितों ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया और बहुत सारे धर्मों में गए, इस्लाम में बहुत सारे लोग गए, तो इसलिए हम मानकर चलते रहे हैं कि इन दलित की दृष्टि में हिन्दू-मुस्लिम और जैन यह सब इसके लिए बराबर हैं। हिन्दू इसके लिए श्रेष्ठ नहीं हैं, क्योंकि उसी ने इसके अधिकारों को छीना और जहाँ तक आपने कहा साहित्य वाली बात है, आप देखिए कि अछूतानन्द ने १९०५ ई० में एक अखबार निकाला था अछूत जिसकी प्रतियाँ ढूँढे नहीं मिलती हैं और १९२७ ई० में उनका ये जो आदि हिन्दू, आदि से मतलब यह नहीं था कि जो आर.एस.एस. वाला हिन्दू है या विश्व हिन्दू परिषद वाला हिन्दू है। ये वे कहते थे कि हिन्दुस्तान के पहले निवासी-सीधा इसका अर्थ था - हिन्दुस्तान के पहले निवासी यानी हम इस देश के मूल वाशिन्दे। वहाँ उस कॉन्सेप्ट को लेकर चले थे। अछूत को भी उन्होंने कहा था - छूत का मतलब यह नहीं है कि हेय है। हमको आप नहीं छू सकते, गरिमा को, हमारी श्रेष्ठता को, श्रम को। आप देख सकते हैं कि उन्होंने नाटक लिखे, उपन्यास लिखे, कविताएँ लिखीं, अखबार चलाया, उत्तर प्रदेश के कई सारे अखबार निकले। ढेर सारी पत्रिकाएँ निकली इस संदर्भ में, चूँकि दलित के पास साधन मुख्य धारा के नहीं थे। पत्रिकाएँ निकलती थीं बन्द हो जाती थीं। आर्थिक संकट में लोग रहते थे। बहुत कम दूरी तक ये चलती थीं। इसी के साथ कविताएँ लिखी गयीं, कहानियाँ लिखी गयीं और इस क्रम में आप देखिए कि डॉ० धर्मवीर का साहित्य आ गया। कबीर पर एक जबरदस्त काम उन्होंने किया। मोहनदास नैमिशराय, ओम प्रकाश वाल्मीकि, सूरज पाल चौहान, जय प्रकाश कर्दम का अच्छा खासा साहित्य आ गया। साहित्य की सभी विधाओं में लोग काम कर रहे हैं। देखिए अच्छी बात यह हुई कि उसी देश में मण्डल कमीशन का आन्दोलन जोर पकड़ गया। इस आन्दोलन को सबसे ज्यादा दलितों ने शक्ति दी क्योंकि दलित बाबा साहब अम्बेडकर की चेतना से लैस थे और वे सामाजिक न्याय की लडाई अपने लिए लड़ रहे थे। उस क्रम में उन्होंने यह माना इसमें पिछड़ी या पिछड़ी जातियाँ भी बढ़ेंगी, उसमें एक आवाज और मिलेगी तो हम मजबूत हो जाएँगे या अलग बात है कि पिछड़ों ने दलितों के साथ क्या किया और आगे हम कोई बात नहीं करना चाहेंगे लेकिन उस समय उस आन्दोलन ने जो वातावरण बनाया उसके राजनीतिक परिणाम आप सब लोगों की नजर में हैं ही, साहित्यिक परिणाम भी हुए। हंस जैसी पत्रिका जिसमें दलित के लिए कोई जगह नहीं थी, सारे गैर दलित, मार्क्सवादी छपते थे। इस पत्रिका के सम्पादक को दलित चेतना ने झकझोरा और एक रास्ता दिखाया।ओम प्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, कँवल भारती खुद उस पत्रिका में काफी दिन छपे, बल्कि मुझे दलित अंक को सम्पादित करने का मौका भी मिला। इस पत्रिका का चूँकि राष्ट्र व्यापी प्रभाव था और यह पत्रिाका साहित्य में एक प्रमुख पत्रिका है। इसलिए दलित आन्दोलन के साहित्यिक आन्दोलन को काफी मजबूती दी, इस बात को ध्यान में रखने की जरूरत है।

आपने मार्क्सवादियों की बात की। मार्क्सवादियों के साथ दलित अन्तर्विरोध पर कुछ बात करें?
अन्तर्विरोध वर्ग और वर्ण के लिए है, क्योंकि मार्क्सवादियों ने शुरु से ही जाति की समस्या को एक ऊपरी समस्या माना और वर्ग संघर्ष को प्रमुखता दी, इसमें मुझे ऐसा लगता है कि उनके पास जाति उत्पीड़न के न अनुभव थे, न स्वीकारोक्ति थी, इसलिए कि मार्क्सवादी आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले जो लोग थे वह सभी कथाकथित उच्च जाति के लोग जाते थे। सम्पन्न परिवार के थे। बहुत सारे लोग शौकिया मार्क्सवादी बनते थे, तो उनके शौक में चिन्तित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। सोवियत यूनियन से सुविधाएँ लेनी थीं। दलितों के जो प्रश्न थे वे इसलिए भी छूटे क्योंकि दलितों की ओर से वहाँ नेतृत्व करने वाला कोई नहीं था। उनके आन्दोलनों का आधार आर्थिक था। बाबा साहब अम्बेडकर को उन्होंने कभी महत्त्व नहीं दिया, पढ़ना नहीं चाहा, समझना नहीं चाहा, उन्हें एक जाति का नेता बनाने की कोशिश की। जबकि भारत के लिए एक बड़े अर्थशास्त्री के रूप में बाबा साहब अम्बेडकर को लिया जाना चाहिए था। ये अर्थशास्त्रा के बहुत बड़े विद्वान थे। दास कैपिटल बेशक मार्क्स का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ था, लेकिन अम्बेडकर उस जमाने में अर्थशास्त्र में पी.एच.डी. थे और वे भारत की योजना आयोग में जाना चाहते थे लेकिन उन्हें नहीं दिया गया। अगर उन्हें आर्थिक क्षेत्र में काम करने का अवसर मिलता तो भारत की तस्वीर बहुत पहले बदल गयी होती। कानून बनाने का मौका मिला तो लोकतांत्रिक संविधान बनाया जिसमें बहुत कुछ बदला, धर्म निरपेक्षता की अवधारणा दी। समता स्वतंत्रता और जनता के पक्ष को सामने लेकर आए, लेकिन मार्क्सवादी जिस तरह की क्रांति की बात करते रहे वो सब किताबी और सैद्धान्तिक अभिव्यक्ति है। वे भ्रम में इसी तरह रहते थे कि पूजा पाठ भी चलता था, शादी विवाह भी अपनी जाति में चलते थे, तिलक जनेऊ भी चलते थे, बेटा और बेटी का विवाह भी इसी तरह होते थे, अपनी ही जाति ढूँढी जाती थी और जाति तोड़ो और जाति जोड़ो का नारा दिया जाता था। असल में जाति तब तोड़ने में लगे जब जाति के आधार पर दलितों की सुविधा निश्चित होने लगी तब उनको भी इस जाति को तोड़ो उससे दलितों को सुविधाएँ मिल रही है इसलिए वह जाति को तोड़ना नहीं चाहते थे, कहते थे कि धर्मविहीन समाज बनाना चाहते थे। वे आज तक नहीं बना, उनकी जरूरत नहीं है जिनकी जरूरत होती है वह बनाता है, तो जब जाति व्यवस्था में उनको फायदे हैं। आप देखिए कि साहित्य के जितने संस्थान है उन पर सब ब्राह्मण और उच्च जाति के लोग हैं जितने पाठ्यक्रम बनाये जाते हैं उनमें सब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और कायस्थ लोग हावी हैं। उसमें कोई दलित नहीं होता है और जितने मीडिया संस्थानों में सारे सम्पादक उच्च जातियों के लोग हैं। जब ज्ञान के सारे क्षेत्र में ये लोग काबिज हैं, तो ऐसी स्थिति में यह कहना कि भाई मार्क्सवादियों ने क्रांति कर दिया, मार्क्सवादियों का विचार पक्ष सही था, गलत बात है। वहाँ हिस्सेदारी नहीं हुई है। जहाँ हिस्सेदारी नहीं होती है वह क्षेत्रा डेमोक्रेटिक नहीं होता है। दलित आन्दोलन के अगुआओं को दलितों का जातिवादी कहा गया। दलितों में बहुत सारे लोगों के नाम के साथ जातियाँ हटी लेकिन किसी ब्राह्मण का, चाहे वे मार्क्सवाद का सबसे बड़ा नेता हो, काम नहीं चलता।दलित ने सीधा विभाजन किया, ब्राह्मण है तो ब्राह्मण है, चाहे किसी भी पार्टी में है। क्षत्रिय है तो क्षत्रिाय है, चाहे किसी भी पार्टी में हो। जो वर्ण व्यवस्था उन्होंने बनाई है उसी वर्ण व्यवस्था के अनुसार इसका विश्लेषण किया जाना है। दलितों ने कोई व्यवस्था नहीं बनाई, वे तो समता क्षमता की बात करते हैं लेकिन समता मिल ही नहीं सकती जब तक इस विभाजन को समझा नहीं जाएगा।
अब तक की हल्की फुल्की बातचीत के पीछे एक भारी सवाल? शब्द दलित क्यों और कब प्रचलन में आया और हरिजन कहे जाने पर मतभेद की वस्तुस्थिति क्या है?
देखिए, दलित शब्द के संबंध में यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि यह कैसे प्रचलन में आ गया था और इसके अलग-अलग आशय लोगों के लिए है। शब्द कोश में भी दलित शब्द है, आपके रामायण में मिल जाएगा या महाभारत में मिल जाएगा। मराठी के तमाम साहित्य में मिल जाएगा। बाबा साहब अम्बेडकर ने इस शब्द का बहुत कम इस्तेमाल किया बल्कि मराठी में ये शब्द १९६० ई० के बाद आया, बाबा साहब जो शब्द इस्तेमाल करते थे वह बहिष्कृत था और दरअसल जब अमेरिका में ब्लैक पेन्थर शब्द चला तो मराठी में दलित पैंथर बन गया। वहाँ से ये दलित शब्द ले लिया गया। दलित शब्द से कई विचारकों को एतराज था। आज तक यह द्वन्द्व चलता है। हम अपने आपको दबा, कुचला अपने आपको क्यों माने? कुछ लोग तो हमें बुद्धि से भी दलित कहना शुरु करते हैं और जहाँ तक हरिजन वाली बात थी उसको तो डॉ० अम्बेडकर ने ही खारिज कर दिया था। हरिजन शब्द नरसी भगत की कविता से गाँधी जी ने लिया था और उन्होंने कहा जितने लोग जो सताए जाते हैं, जो अनुसूचित जाति थी उनको हरिजन कहना शुरु किया और वे कहते हैं कि वे सब भगवान के बच्चे हैं तो उनसे सवाल किया गया कि क्या आप भगवान के बच्चे नहीं? कौन भगवान का बच्चा नहीं है, अम्बेडकर ने यह बात भी बताई कि दक्षिण में जो देव दासियों के बच्चे होते हैं, जिनके कोई माँ-बाप नहीं होते है, अवैध सन्तानों को हरिजन कहा जाता है। इसका मतलब है हरामी की औलाद। ये एक तरह से गाली के रूप में होता है तो क्या आप सभी को गाली देना चाहते हैं। यहाँ तक कि गाँधी जी ने अपने अखबार का नाम हरिजन रख दिया। डॉ० अम्बेडकर ने एतराज किया। उन्होंने कहा कि ईश्वर की सन्तान कहना बिल्कुल गलत है। इस शब्द को अवैध करार दिया गया और आप ये समझिए कि अभी पिछले दस साल या समझिए कि अभी तक लोग हरिजन शब्द का इस्तेमाल कर देते हैं। कई अखबार के सम्पादक थे उनको चिट्ठियाँ लिख-लिखकर समझाया, लेख लिखकर समझाया लेकिन चूँकि उन्हें आनन्द आता था वे जब जान लेते थे कि हरामी की औलाद है तो वे और ज्यादा लिखते थे चूँकि दलित वहाँ अखबारों में थे नहीं, तो इसलिए इस शब्द को दलितों पर गाली के रूप में पर फेंका गया और एक तरह का प्रहार किया गया दलितों पर। अब और एक विभाजन कर लिया गया कि अनुसूचित जातियों में जो सफाई करने वाली जातियाँ हैं चलो उनको हरिजन कहें और बहुत सारे लोगों ने उसे स्वीकार भी कर लिया। जैसे वाल्मीकि समुदाय ने और यह सब मानने लगे कि हम हरिजन हैं, लेकिन जैसे ही अम्बेडकर विचारधारा पहुँची, जैसे ही दलित साहित्य का स्वर पहुँचा तो उनको एहसास हुआ तो उन्हें लगा यह तो गाली है, तो एक तरह से बेचैनी पैदा हुई और आज की स्थिति में कोई अपने आपको हरिजन कहलवाता है तो यह तो इसके पास वह विचार नहीं पहुँची थी। साहित्य में, समाज में, बल्कि साहित्य समाज ही क्या? राजनीति में भी इस शब्द को बहुत तेजी से खारिज किया। मायावती का तो बहुत लम्बा विवाद रहा है इस शब्द को लेकर सारे अखबारों में इस मसलों को उठाया गया। आज भी कोई भी दलित हरिजन शब्द को स्वीकार नहीं कर रहा है, लेकिन हम आपको बताएँ कि हम दलित शब्द पर भी बहुत बार सोचते हैं यह शब्द भी पर्याप्त नहीं है, समता बोधक नहीं है और ये समता बोधक शब्द होना चाहिए लेकिन जब हम शब्द के माध्यम से चीजें आ रही हैं और सभी आन्दोलन तेज हैं तो एक शब्द के लिए दूसरी लड़ाई लड़ना शुरु कर दिया जाए तो आन्दोलन कमजोर हो जाएगा। जब समय आयेगा तो हम सब मिल बैठकर दलित लेखक दलित विचारक, दलित-चिन्तक यह तय करेंगे कि दलित शब्द को छोड़कर ऐसा समता बोधक शब्द लिया जाए जिसे सारी दुनिया में सुना जाए चूँकि आज दलित शब्द केवल बात नहीं है, आज अमेरिका में दलित आत्मकथा पढ़ाई जा रही है। कनाड़ा में दलित आत्मकथा पढ़ाई जा रही है। सारे विश्व में दलित सम्मेलन हो रहा है। मैं खुद कनाड़ा के सम्मेलन में था। सूरीनाम में भी दलित मसले को लेकर सम्मेलन हुआ उसमें भी में था। इंग्लैण्ड में सन्‌ २००० में जो दलित सम्मेलन हुआ, उसमें भी मैं था तो सारे विश्व में दलित साहित्य पहुँच रहा है। शब्द कोश के आधार पर जो लोग बात कर रहे हैं वे उसी ब्राह्मणी परम्परा में ही बात करते हैं कि प्रभु का दीनहीन है इस तरह का। तो यह बात नहीं है। दीनहीन काहे के? एक मनुष्य है दूसरा मनुष्य है संघर्ष कर रहा है, लड़ाई हो रही है, किसी को पीट दिया तो दीनहीन थोड़े ही हो गया या किसी को दबा लिया या किसी का घर जला दिया या उसकी बेइज्जती कर दी, बहन-बेटियों के साथ बलात्कार कर दिया तो इसमें आप बहादुर थोड़े ही हो गये। आप अमानवीय कर्म करने के बाद सोचते हैं कि आप दलित नहीं हैं। जिसको आपने दबा लिया है वह दलित हो गया, दबाने वाले भी आप ही हैं उसको दबा के उसके ऊपर एक कविता लिख दें आप ही ने सताया, आप ही ने दबाया, आप ही ने घर से बाहर किया फिर उपन्यास लिख दिया, कविता लिख दिया, तो जालिम ही कालित का मसीहा बनकर जजमेन्ट दे रहा है तो यह ज्यादा चलने वाला नहीं है।

प्रेमचन्द की रंगभूमि जलायी गयी, यह दलित आन्दोलन की क्रांतिकारिता थी या दलित उग्रवाद?
प्रेमचंद की रंगभूमि जलाने का मैंने उस वक्त भी समर्थन नहीं किया था और आज भी नहीं। यह कोई तरीका नहीं है, ऐसा तभी करते हैं लोग जब उनके पास लिखने के लिए कुछ नहीं होता। साहित्य की अभिव्यक्ति में अपने आपको कमजोर पाते हैं, साहित्य का जवाब साहित्य में देना चाहिए, कलम का जवाब कलम है। इसमें कोई आगजनी या किसी शारीरिक बल का नहीं, विवेक और बुद्धि का क्षेत्र है, ज्ञान का क्षेत्र है। ज्ञान की लड़ाई ज्ञान के साथ होती है, रही गलत शुरुआत हमने इसकी निन्दा की थी। लेकिन इसी क्रम में एक अच्छी बात यह हुई है कि प्रेमचंद सामंत का मुंशी दूसरी किताब आई। अब आपको जलाना पसन्द नहीं है तो पढ़ना पसन्द कीजिए। अब यह किताब किसी के गले नहीं उतर रही है तो हो यह नहीं सकता कि दलित वे शब्द कहे जो अच्छा लगे, मीठा लगे, स्वादिष्ट लगे ऐसा हो नहीं सकता कि उसको इतना कटु अनुभव दिया है, उसको आपने इतना सताया है, अन्याय किया है कि उसकी अभिव्यक्ति वैसे हो ही नहीं सकती जैसी आप अपेक्षा रखते हैं। प्रेमचन्द का दलित से कोई व्यक्तिगत झगड़ा नहीं, चूँकि प्रेमचंद ने दलितों के बारे में लिखा और कोई भी किसी के बारे में लिखता है अनाधिकृत ढंग से। मैं इसाईयों के बारे में बहुत कम जानता हूँ और अधिकार से लिखने लगूं और वह उस पर न बोलें तो यह गलत बात होगी। उनका अधिकार है वह उस पर बोलें और दलितों के बारे में प्रेमचंद ने लिखा है या कोई भी लिखेगा तो दलितों का हक बनता है कि वह कहें कि सही है या गलत है। मैं स्त्रियों के बारे में लिखने लगूं, मैं प्रजनन की पीड़ा पर कविता लिख दूँ और मैं जानता हूँ नहीं कि प्रजनन की पीड़ा होती क्या है? यह कोई जननी ही ठीक ढंग से बता सकती है, मेरे कान पकड़ सकती है, दर्द का एहसास यह नहीं है जो आपने लिखा है। यह बता रहे हो यह इसके अनुभव है प्रमाणिकता उसी के पास है।

दलित आन्दोलन दलित नारियों के उत्थान के लिये क्या कर रहा है?
यह बहुत महत्त्वपूर्ण सवाल है और चिन्ता का सवाल भी है, क्योंकि जो वैचारिक आन्दोलन या साहित्यिक आन्दोलन है या कहें ज्ञान का क्षेत्र है उसमें दलित स्त्रियों की हिस्सेदारी बहुत कम हुई है, पुरुष से वे ज्यादा पीछे हैं। जहाँ तक रही बात यह कि दलित क्या कर रहे हैं तो यह अच्छी शुरुआत हिन्दू कोट बिल बनाते हुए बाबा साहब ने कर दी। संविधान में स्त्रियों को वोट देने का अधिकार देकर बराबर कर दिया। उसी का परिणाम है कि आज छोटे-मोटे निकायों में दलित स्त्रियाँ आ रही हैं, स्कूल कालेजों में आ रही हैं, अब साहित्य में इसलिए नहीं आई थीं कि क्योंकि वे शिक्षित नहीं थी, अनपढ़ लोग तो साहित्य लिखेंगे नहीं, किसी सामाजिक आन्दोलन में नहीं निकल पा रही थीं। आज स्थितियाँ बदली हैं, वे नैतिक आन्दोलन में हैं, सामाजिक आन्दोलन में हैं, शिक्षा के क्षेत्र में हैं, किसी दिन मीडिया के क्षेत्रा में भी आयेंगी और स्कूल कालेजों में ये लोग निकलेंगे। जरूरी नहीं है कि सारी प्रतिभाएँ गांव से ही आए। अब चूँकि ये युग ऐसा है जिसमें वैचारिक क्रांति पर सूचना क्रांति का बड़ा प्रभाव है तो उसमें दलित स्त्रिय़ां सूचनायें हासिल कर रही हैं, अपना अधिकार समझ रही हैं, उसमें बड़ी बात यह है कि अब स्त्रियो की चरित्र हनन की प्रक्रिया रूकती चली जा रही है। वे लड़ रही है, अत्याचार होता है तो एक्शन भी होता है। इसलिए संभावनाएँ बढ़ी हैं। कई लेखिकाएँ आयी हैं। हालांकि उनकी संख्या १० करोड़ में, मैं अगर दस नाम गिना दूँ तो स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। पुरुषों की भी स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है लेकिन आशाजनक है। काम बहुत तेजी से हो रहा है।
बिना भाषा की सीमा के ये बताइए कि दलित विमर्श का साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा?
साहित्य पर यही प्रभाव है कि अब कोई पत्रिका, कोई अखबार, कोई साहित्यिक गोष्ठी दलित विमर्श को नकार कर आगे नहीं बढ़ पा रही है। यह सब जगह जरूरी हो गया है। यहाँ तक कि एन.सी.ई.आर.टी. के पाठ्यक्रम में भी दलित साहित्य आ गया है। दिल्ली विश्वविद्यालय में भी दलित साहित्य पढ़ाया जाना इसी वर्ष शुरू हुआ। पटना के एक विश्वविद्यालय में दलित साहित्य आया। अभी ये कहा जा सकता है कि दलित साहित्य जो पाठ्यक्रम का हिस्सा बनता जा रहा है। अब उसमें जिस तरह से कबीर को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रक्षिप्त कर दिया था वैसा भी सिलसिला दलित साहित्य के साथ चल रहा है। उसका कारण यह है कि अभी पाठ्यक्रम बनाने वाले लोगों में बड़ी संख्या गैर दलितों की ही है। जब वहाँ दलितों का प्रतिनिधित्व होगा और अधिकारी लोग वहाँ पहुंचेंगे तभी सही स्थिति बन पायेगी, क्योंकि मैंने पी.एच.डी. किया है मनुस्मृति में और संविधान की बात करने बैठ जाएं तो फिर यह विरोधाभाषी बात है, यही हो रहा है। किसी ने सूरदास पर काम किया है और बैठ जाए धर्मवीर पर विचार करने या फिर किसी ने तुलसीदास पर काम किया है और बैठ जाए ओम प्रकाश वाल्मीकि की कविताओं पर बात करने के लिए, तो इस तरह से जब साहित्यकार अपने अधिकार क्षेत्र से इतर हस्तक्षेप करेंगे तो गड़बड़ तो होगी ही। पाठ्यक्रम में दलित साहित्य की बात सबसे पहले मैंने ही उठायी। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की गोष्ठी में जब ये बात कहता तो जाने-माने साहित्यकार यही बात कहते कि पाठ्यक्रम में वही आता है जो मर जाता है, जीते जी नहीं आता है, तब मैं बहुत सारे उन साहित्यकारों का नाम गिनाता जो जिन्दा भी है पाठ्यक्रम में भी है। लेकिन अब वे जानते हैं कि भविष्य दलित साहित्य का है, मुझे लगता है कि सारे विश्वविद्यालय में दलित स्टडी के अलग विभाग खोलने पड़ेंगे। अमेरिका भी जानना चाहता है, इंग्लैण्ड भी जानना चाहेगा कि दलित साहित्य क्या है? तो उसके लिए अलग विभाग खोलने पड़ेंगे। बाकी अध्ययन अब हो चुके हैं। ब्राह्मणों से संबंधित अध्ययन आवश्यकता से अधिक हो चुका है। अब उसकी जरूरत नहीं रही चूँकि दलित साहित्य नया है इसलिए उसमें ५०-६० साल तक काम तो होगा ही। अच्छी बात है कि अब साधन आधुनिक हैं काम होगा तो तेजी से होगा। आज का दलित साहित्य सूचना माध्यमों से पूरे विश्व के स्तर पर प्रसारित होता है। जब अछूतानन्द बात करते थे तो उस समय कानपुर से दिल्ली तक बात आने में बड़ा समय लग जाता था। तो संचार माध्यमों के कारण उनको फायदा मिलेगा और एक नया साहित्यिक वातावरण तैयार होगा। आप स्वयं जब जय प्रकाश कर्दम जी, ओम प्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम जी जैसे नाम जहाँ कबीर और रैदास की परम्परा को विकसित करते दिखते हैं। वही राजनीति में जो आज का दलित नेतृत्व है ऐसा लगता है कि उसके द्वारा अम्बेडकर की परम्परा का क्षय हो रहा है।
इस पर मैं आपका विचार जानना चाहता हूँ?
नहीं, राजनीति में उतार-चढ़ाव आते हैं। राजनीति अपने तरीके से होती है। साहित्य में भी बहुत सारे लोग ब्राह्मणों से फैसले करवाने लग जाते हैं। ब्राह्मणों से भूमिकाएँ लिखवाने लगते हैं, ब्राह्मणों के पत्रों को पाकर समझते हैं कि बड़ी बात हो गयी। ये जो मनोवैज्ञानिक बीमारी है। जब साहित्य में है तो राजनीति में स्वाभाविक है। राजनीति बोध का मामला है कोई एक जाति राज्य नहीं कर सकती और भारत का एक मनोविज्ञान यह है भी कि अगर दलित पिछड़ी जातियों को साथ लाना चाहे तो वह चाहेगा कि ब्राह्मण पहले आ जाए तभी वह आयेगा तो इसलिए राजनीतिज्ञ, सामाजिक, मनोविज्ञान के आधार पर ये रणनीति पर काम करते हैं। बाबा साहब अम्बेडकर के सामने भी मजबूरियाँ थीं ऐसी। जब बाबा साहब ने दलितों के अखबार निकाले तो उन्हें ढूढे से दलित सम्पादक नहीं मिले। बहिष्कृत भारत के सम्पादक नियुक्त करने के लिए उन्हें ब्राह्मणों के पास जाना पड़ा तो इसका अर्थ यह नहीं है कि आज की राजनीति में मायावती जी ब्राह्मणों के पास जाती हैं और आगे बढ़ती हैं वह गलत है। वामपंथी और दक्षिणपंथी दो प्रकार के ब्राह्मण है। मायावती दक्षिणपंथी के साथ दो बार सीट पर बैठती हैं तब भी वे आलोचना करते हैं, लड़ती हैं तब भी करते हैं। ज्यादा बौद्धिक लोग अगर राजनीति में जायेंगे तो बाबा साहब के विचारों को ज्यादा फैलायेंगे। मायावती ने उतना गहरा अध्ययन नहीं किया। बाबा साहब की मोटी-मोटी बातें उनके पास हैं जितना है उसी हिसाब से अपना काम कर रही हैं। मैं समझता हूँ कि राजनीति से साहित्य को ज्यादा प्रभावित नहीं मानना चाहिए।
दलित इतिहास पर अभी तक समुचित कार्य नहीं हुआ है, इस दिशा में क्या प्रगति हो रही है?
देखिए, जो हमने पत्रकारिता पर कार्य किया था, वह पत्रकारिता पर पूरा इतिहास उसमें लगभग आ चुका है। मुझे नहीं लगता है कि उसमें कुछ जोड़ने की जरूरत है। हिन्दी दलित कथा पर जो रजत रानी मीनू का शोध हुआ है उसमें कथा का इतिहास आ रहा है। कहानी का इतिहास पूरी तरह से आ रहा है और साहित्य के विस्तृत परिप्रेक्ष्य में इतिहास की बहुत सारी सूचनायें आ रही हैं। लेकिन एक स्वतंत्रा इतिहास लिखने की अब आवश्यकता जो अभी बनी हुयी है उसके लिए मैं अपनी तरफ से प्रयास कर रहा हूँ। मैंने एक परियोजना भी दी है, वह परियोजना समकालीन दलित साहित्य इतिहास की खोज और सृजन शीर्षक है। अगर मुझे अवसर मिलता है और परियोजना स्वीकृति होती है तो मैं अपनी तरफ से इतिहास लिखकर देने का वायदा करता हूँ। मुझे उम्मीद है कि यह मौका मिलेगा और तीन साल में इतिहास लिखकर दूँगा। अगर मुझे परियोजना का मौका नहीं मिला तो उसमें यह हो सकता है कि अपनी आत्मकथा जो अभी-अभी मेरे सामने काम है उसको जैसे ही पूरा करूंगा और मैं इतिहास पर लग जाऊँ। इतिहास के लिए जो कच्ची सामग्री है मैं समझता हूँ कि मुझसे ज्यादा हिन्दी के क्षेत्र में किसी के पास शायद नहीं है क्योंकि पत्राकारिता पर पी.एच.डी. करते समय यह सामग्री जुटा ली थी।

हिन्दी की अपेक्षा दूसरी अन्य भाषाओं पर विशेषकर तेलुगू भाषा में बहुत कम काम हुआ। इन भाषाओं की अनुवाद पर क्या स्थिति है?
दलितों का स्वतंत्र मंच अनुवाद के लिये नहीं है, लेकिन गैर दलित जो अनुवाद करा रहे हैं, उसमें पूरा न्याय नहीं हो रहा है। जब अनुवादक दलित होते हैं, लेखक दलित होते हैं लेकिन प्रकाशकों के अभाव में दलितों का शोषण होता है। उन्हें अनुवाद का पैसा नहीं मिलता। यहाँ तक पंजाबी दलित साहित्य का अनुवाद हुआ, तेलुगू का भी कुछ कविताओं का अनुवाद हुआ। यहाँ की एक फाउण्डेशन ने लेखकों को किराया तक नहीं दिया, संकट बहुत है। कविता, कहानियाँ जो भी इस दौर में सबसे महत्त्वपूर्ण चीज मानी है उसके लिए कुर्बानी दे रहे हैं लोग, लेकिन अभी अच्छे अनुवादकों की समस्या है। गैर दलितों में ही लोग अभी मिल रहे हैं। चूँकि हमारे देश में जो सारी क्षेत्रीय भाषाएँ हैं उसमें चार-पांच भाषाएँ सीखने का न वक्त है न सामर्थ्य है। जो रोजगार की कैरियर दृष्टि से भाषा आकर्षित करती है वह अंग्रेजी भाषा है। इसलिए अपनी मातृ भाषा के अलावा जो लोग दूसरी भाषा को सीखते हैं वह अंग्रेजी ही है तो अंग्रेजी में जो भाषा आ जाती है वह दूसरी भाषाओं में आसानी से आ जाती है।

श्योराज जी आप खुद भी पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं अभी हाल में आपके मित्र चन्द्रभान का एक कालम दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुआ जिसमें मीडिया के सालाना २२५ अरब के कारोबार में तथा लगभग ६ लाख नौकरियों में उन्होंने दलितों की संख्या नगण्य बताई और उनका कहना है कि जरा गहराई से देखें तो १७ करोड़ दलित के बीच में १७ दलित के नाम भी मुख्य धारा में नहीं हैं। ये दोनों ही प्रश्न इस कॉलम में अनुत्तरित ही रह गए हैं। उनके उत्तर में आपसे जानना चाहूँगा कि इन दो तथ्यों के बीच क्या प्रमुख कारण है ?
देखिए, गौहर साहब मैं और चन्द्रभान जी बहुत पहले पिछले १०-१५ साल से मीडिया वाले प्रश्नों पर सोचते रहे हैं, वे मेरे मित्र हैं, हम लोगों ने मीडिया पर पेपर आज से १० साल पहले जारी किया था उसमें हम सब लोगों ने... की थी आप को जानकर हैरानी होगी कांशीराम जी का मीडिया के साथ विवाद हुआ था और मीडिया एक तरफा तस्वीरें दे रहा था, खबरें दे रहा था। उस समय एक विदेशी पत्रिका ने आकर कोशिश की थी कि वह दलित पत्रकारों का भी पक्ष जाने तो उसमें उसने सारे संस्थान छान मारे, सारी रिपोर्ट देखी, सारे सूचना केन्द्र तलाश किये लेकिन उन्हें कहीं दलित पत्रकार नहीं मिला। मैं उन दिनों एक कॉलम लिखा करता था - दलित विवाद। यह सहारा में आया करता था। हमारे मित्र चन्द्रभान जी के अलावा कोई दूसरा स्थाई स्तम्भकार नहीं है। वे अंग्रेजी में लिखते हैं। उनका कॉलम नियमित आ रहा है। मैं अस्थाई लिख रहा हूँ। हिन्दुस्तान भी छाप रहा है और भी अखबार छाप रहे हैं लेकिन कोई अखबार इस तरह से कॉलम देने के लिये तैयार नहीं है जो दलितों के लिए हो, दूसरे लोगों का एक सप्ताह में अगर आना है तो आयेगा ही। पन्त जी का कॉलम आना है या कमलेश्वर का कॉलम आना है या किसी और का कॉलम आना है तो आयेगा ही, चाहे वे कुछ भी लिखें। भारद्वाज का कॉलम छपना है हंस में तो वे छपेगा चाहे वे कुछ भी लिख दें। ऐसी स्थिति दलितों के लिये अभी नहीं है और इसीलिए हम कहते हैं कि मीडिया में अभी लोकतांत्रिक भागीदारी की बहुत सख्त जरूरत है और अब ये निर्भर इस बात पर करता है, इनके स्वामी सम्पादक उन्हें जगह देंगे या नहीं देंगे। दलितों के पक्ष बहुत कट-छट के, बहुत आंशिक तौर पर और वे कई बार समय गुजर जाने के बाद आता है। उसका सीधा-सा कारण यह है कि अगर बाबा साहब अम्बेडकर उस समय जब आजादी की लड़ाई के समय ही निजी क्षेत्रों में अगर आरक्षण की बात स्थापित कर जाते और कानून बना जाते तो आज मीडिया में भी लोग होते। लेकिन उन्होंने सरकारी क्षेत्रों के लिए आरक्षण की लम्बी लड़ाई लड़ी और बहुत सारा विरोध हुआ। आज निजी क्षेत्रा में जो २५ प्रतिशत आरक्षण देने की जो बात हो रही है तो अब देखते हैं कि निजी क्षेत्रा कौन से होंगे, मीडिया में कितना होगा, सिनेमा का क्षेत्र कितना होगा, उद्योग का क्षेत्रा कितना होगा, केवल स्कूल ही होंगे या कुछ और भी होगा ये देखना होगा। अब दबाव है चूँकि सारे क्षेत्रा लोकतंत्रीकरण हो रहा है। अब भूमण्डलीयकरण का दौर है सारी दुनिया एक हो रही है। सारी दुनिया आधुनिक हो रही है तो कोई संस्थान अकेले विचार को लेकर एक जाति, एक ही धर्म का बोल बाला लेकर डेमोक्रेटिक नहीं हो सकता। ये बात तो जाहिर हो गयी है और अब कोई आदमी लोकतांत्रिाक नैतिकता का दावा तभी कर सकता है जब उसके पास प्रतिस्पर्धा के लिये स्थान है। प्रतिनिधित्व लोगों का है तभी विभिन्न तरीके के विचार आ सकते हैं, विविधता की कमी के कारण आप समझिए कि हिन्दुस्तान का मीडिया पिस रहा है, हिन्दुस्तान का साहित्य दो कौड़ी का हो गया है, हिन्दुस्तान की शिक्षा को कोई नहीं पूछ रहा है क्योंकि स्पर्धा है ही नहीं। लोग मूल्यांकन करते हैं अपने एक पक्ष को लेकर करते हैं इसलिए हम पिछड़ते चले जा रहे हैं। अमेरिका, इंग्लैण्ड की तरफ हमारी प्रतिभा भाग रही है, ये क्यों भाग रही है? इसलिए कि हमारे यहाँ स्तर बहुत ही निम्न है और वो इसलिए है कि कोई कम्पटीशन नहीं है। कुछ लोग शुरू से ही कोशिश करते हैं शिक्षा के क्षेत्र में आए ही नहीं, ज्ञान के क्षेत्रा में ही नहीं, मीडिया के क्षेत्रा में न आएँ चूँकि मीडिया का क्षेत्र सीखने नहीं देंगे तो वे कैसे आप के जमाने में पत्रकार बनेगा। ये तो सुविधा उन्हीं लोगों को थी जो मालिक थे, सम्पन्न थे, बड़े घरानों से आये और खुद ही अखबार निकालना शुरू कर दिया। आजादी के आन्दोलन का फायदा लेते हुए सम्पादक बन गए, मालिक बन गए, आज के युग में तो पूरा प्रशिक्षित पत्रकार चाहिए, पूरा सीखा हुआ पढ़ा-लिखा पत्रकार चाहिए और दलित को तो अतिरिक्त योग्यता का पत्रकार होना चाहिए, लेखक होना चाहिए क्योंकि उसको ज्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इसलिए तुरन्त ये कहना कि मीडिया में बहुत जल्दी कुछ सुधार हो जाएगा ये संभव नहीं है। हम लोगों ने उस समय कहा था जो आदमी कहीं चपरासी बनने योग्य नहीं होता वो ब्राह्मण होने के नाते किसी भी अखबार का सम्पादक बन गया। आप देखिए कि ये बात नहीं है कि पत्रिका नहीं है, वाइस चांसलर कितने है, प्रो. कितने हैं, आपको हीरो कितने दिखाई पड़ते हैं, अभिनेता कितने, नेता कितने हैं, फिल्म इण्डस्ट्री में कितने लोग हैं, उद्योगपति कितने हैं, क्षेत्र तो सारे खाली पड़े हैं। आरक्षण से कुछ आई०पी०एस० और पी०सी०एस० बनकर गए। इतने से २५ करोड़ जनता का बदलाव होता है? कुछ लाख दो लाख नौकरियों से करोड़ों लोगों का भला हुआ है? जमीन उनसे छीन ली, मकान उनके पास नहीं है। उद्योग में कुछ नहीं करने दिया जाता है तो ये जो अत्याचार के उत्पीड़न का सिलसिला है अब आप कल्पना कीजिए कि आजादी के बाद ये हो रहा है तो आजादी के पहले क्या होता होगा। इसलिए ये कहना कि मीडिया में लोग नहीं हैं, क्यों नहीं है तो सवाल ये उठता है। इसका सीधा-सीधा कारण है जब दूसरी जगह शिक्षा नहीं मिली, साहित्य में नहीं तो मीडिया में कहाँ से हो, आप देख रहे हैं कि पब्लिक स्कूल का जो हाल है जिस तरह से सरकारी संस्थाएँ कार्य कर रही है उनमें तो पढ़ाई-लिखाई बंद सी हो गयी है। गांव-गांव तक स्कूल खोल दिए गये प्राइवेट और उनमें लूट मचा दी गयी पैसों की और उसमें कोई गरीब या मजदूर दलित का बच्चा पढ़ सकता है और पढ़ाई कर भी ली हो कोई या एम.ए. तक पढ़ाई कर ले, मगर उसमें … तो उसको और ज्यादा मार दिया जाता है। ये लोग तो कोशिश करते हैं कि दलितों को खूब पढ़ाओ लेकिन अच्छी शिक्षा न दो। वह एम.ए. पास भी पाँचवी से पिट जाएगा ऐसे करने की कोशिश करते हैं। वे तो अतिरिक्त श्रम करने के कारण उसकी बौद्धिक क्षमता अधिक होने के कारण चूँकि उसने हमेशा श्रम किया है, मेहनत करता है तो उस चीजों को पकड़ लेता है। हमारे जैसे लोगों को कब का मसलकर रख दिया होता। इसलिए जो व्यवस्था है उसको बदलना पड़ेगा और वे दबाव से बदलेंगी, शिक्षा से नहीं बदलेंगी।

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