लोक-वेदनाओं की उपज : कबीर
डॉ० बलदेव वंशी
लोक है क्या? किसे कहें लोक? लोक की सीमाएँ क्या हैं?हमारी दृष्टि में वह सब लोक हैं, जो पर-लोक नहीं हैं। हमारे यहाँ दो ही विभाजन हैं-एक लोक हैं इहलोक और दूसरा परलोक है। लोक के परे पर-लोक है। अतः जो कुछ इस धरा पर है, ब्राह्मण में है, वह सब लोक है। पेड़-पौधे, पत्थर-पहाड़, नदियाँ-झरनें, आकाश-नक्षत्र, धरती-सागर, पशु-पक्षी, जीवन-जन्तु और मनुष्य-ये सब मिल कर बनता है हमारा लोक। इस सब में प्राण चेतना का प्रसार है। कहीं कम, कहीं अधिक। जब इन में सोयी हुई चेतना जगा दी जाती है तब ये सब अपनी मृत्तिका-धर्म भूल कर, ऊर्जस्वित होकर चैतन्य-धर्म में जाग उठते हैं और हल्के बन जाते हैं। मृत्तिका-भार तिरोहित हो जाता है। पत्थर तक चैतन्य हो जाने पर हल्के हो समुद्र पर तैरने लगते हैं। लंका जाने हेतु समुद्र पर बनाया गया पुल-उसके पत्थरों का पानी पर तैरना इसी से संभव हुआ क्योंकि राम ने उनके चैतन्य को जगा दिया। इन्हीं अर्थों में चैतन्य होकर गिलहरी भी राम-काज में जुट गयी। राम के प्रेम-सिक्त स्पर्श-उसकी पीठ पर हाथ फिरा देने से उंगलियों से पड़ी धारियाँ आज तक उस याद को बनाये हुए हैं। यह बात कितनी भी अयथार्थ लगे, किन्तु है कितनी भावनापूर्ण! लोक-विश्वास में पगी। भालू, वानर, पेड़, पौधे-सब चैतन्य हो वनवासियों, आदिवासियों के साथ रामकाज में जुट गये! तो यह है हमारा लोक। लोक की जाग्रत चेतना ही आलोक है!
वर्तमान समाज को लोक तथा उसकी चेतना से जुड़ना होगा : आज मनुष्यों के समाज अपने सम्पूर्ण परिवेश से कटे-अपने प्राकृतिक दाय की पहचान व चेतना से प्रायः शून्य हैं। मनुष्यों ने अपने विकास, जो मात्र भौतिक सुख-सुविधा के विकास हैं, के क्रम में अपने पूरक तत्त्वों और घटकों को भुला दिया है। नतीजा सामने है। मनुष्यों की सभ्यताओं का विकास अलग है और पर्यावरणों का विकास अब जाकर बीसवीं शती के उत्तर में चिंता का विषय बना है। वह भी अधूरे सोच और अधूरे मन से। भारत तो और भी फिसड्डी दशा में है। यहाँ बडे-बड़े बाँध बनाने के लिए समूचा परिवेश उजाड़ा जा रहा है। पर्यावरण शब्द पुनः अधूरे सोच का शब्द है। इससे भी पहले वातावरण शब्द चलता था। भारतीय सोच का वास्तविक शब्द परिवेश है। यह मात्र आवरण नहीं, जो हमें चारों ओर से ढके है। परिवेश हमारा अभिन्न है। जैसे आत्मिक-मानसिक अस्तित्वों को दैहिक अस्तित्व आवेष्टित किए हुए है, ऐसे ही हमारे सामूहिक अस्तित्व को आवेष्टित किये है हमारा परिवेश।
आधुनिकता अपनी ज्ञान-विज्ञान की सारी उपलब्धियों, सुविधाओं के रहते जिन समाजों का निर्माण कर पायी है, वे सब अपने आप में अधूरे, अपूर्ण, एकायामी, खोखले साबित हो रहे हैं। इसीलिए सारी विचारधाराएँ भी चरमरा कर गिर गयी हैं। वे अपने आशयों में कितनी ही मानव-हितैषी हों, पर हैं अधूरी। मनुष्य के बाहर की चिंता से जुड़ी। ये विचारधाराएँ ऐसे मॉडल प्रस्तुत करती हैं, जो मूलतः प्रायोगिक हैं। कारखानों में बने उत्पाद की तरह मनुष्य को लेती हैं। कारखानों में किसी उत्पाद के अलग-अलग अंगों की र्निर्मिति और भिन्न-स्थान पर उन अंगों का एकत्रीकरण होता है। अलग-अलग पुर्जे। अलग-अलग बनाने वाले। यानी सारे कौशल पृथक-पृथक विशेषीकृत। परस्परता के बोध से वंचित। भिन्न पुर्जे तक की कोई जानकारी नहीं दूसरे को। समूचापन कहीं नहीं। उत्पाद बनकर तैयार हो गया। उपभोक्ता-मूल्य चुकाने वाले के अधिकार की वस्तु बन गया उत्पाद। बनाने वाले की कहीं झलक नहीं। पहचान नहीं। छुअन नहीं। सब मशीनी, यांत्रिक। यों द्वन्द्व, दौड़, दुराव जहाँ पहुँचाता है, वहीं खड़ा मिलता है-समाज। लोक नहीं। लोक अपनी निर्मितियों में, अपने संघर्षों में, संकल्पों में, अभियानों में जुड़ी निम्नतम् इकाई तक सदैव अपनी पहचान, स्पर्श, झलक पाता है। एक स्थान पर कबीर ने कहा भी है कि मैं साधारण लौकिक और वैदिक मान्यताओं के अनुसार अन्य जनों की भाँति चल रहा था उन मान्यताओं के पीछे घूम रहा था -पीछै लागा जाए था, लोक वेद के साथि।/आगै थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि॥
लोक वेद की सामान्य परिपाटी और विश्वासों के साथ चलने का अभिप्राय प्रायः परम्परा के विश्वासों को निभाना है। चलने में सम्मिलित होना है। जरूरी नहीं कि इससे सत्य की अनुभूति भी उपलब्ध हो। यह कार्य सतगुरु ने किया। मर्म समझा दिया। प्रकाशित दीपक हथेली पर रख दिया। चैतन्य की प्रकाश की अनुभूति करा दी। अज्ञान-अंधकारभरी भटकन समाप्त हो गई। सब कुछ साफ-साफ दीखने लग गया। लोक में प्रचलित वैदिक परम्पराएँ, जो वैदिक-सत्यों से मेल नहीं खाती थीं, उन का ज्ञान भी कबीर को हुआ। वह लोक की सत्य, सहज की मूल अनुभूतियों को भी पहचान पाये। पशु-बलि, शूद्र-घृणा की प्रचलित अवधारणाओं से कटे और कहा-संतों पाण्डे निपुण कसाई। अतः बाद में कबीरपंथियों ने पृथक वेद-स्वसंवेद की अवधारणा को अपनाया।
लोक में ही चैतन्य-संभावनाएँ निहित रहती हैं। प्राकृत संभावनाएँ। शेष तो धीरे-धीरे मिट्टी के, बनावटी अ-प्राकृत हाथों बने संसार में खो जाता है। लोक की चेतना से दूर हो जाता है। लोक की चेतना में दूर हो जाता है। विस्मृति के गर्त्त में चला जाता है।तो इस लोक में बड़ी संभावनाएँ लुकी-छिपी-धरी हैं। यह प्राकृत खजाना है शक्तियों का। सभी प्रकार की शक्तियों का। शक्ति के सारे आयाम सुरक्षित पड़े रहते हैं यहाँ। अक्षय। आखुट। लोकनायक कभी बाहर से नहीं आया करते। भीतर से ही उत्पन्न होते हैं सदा। हुए हैं। प्राकृत शक्तियों को जानने-समझने वाले। इन के गर्भ से ही वे उत्पन्न होते हैं। नाभिनाल बद्ध। कबीर भी कोई अलग नहीं थे। वह लोक चेतना के ही संवाहक थे। लोकचेतस थे। लोक को चेतना देने वाले लोक वेदनाओं की उपज। विद धातु से बना वेद शब्द ज्ञान का अर्थवाह है। इसी वेद से वेदना शब्द का विकास है। अर्थ हुआ वह ज्ञान जो लोक की पीड़ाओं की पहचान हो-पीड़ाओं के गर्भ से जन्मा हो : वेदना है। समूची भाव सत्ता का वाचक। लोकनायक इसी भाव-सत्ता-वेदना की वैध संतान होते हैं। इसी सोचे हुए महाकार वेदना-भाव और कंस की भी। दोनों पक्ष अपनी-अपनी वेदना के सच्चे होने का दावा करते हैं। तब, किस की वेदना सच्ची है? प्रकृत है? लोकमयी है? या सत्तामयी, स्वार्थसनी है? वेदना के अन्तः-सत्ता स्वरूप-प्रकृति को जानने के उपाय हैं। हमारे यहाँ जितने भी मूल्यधर्मी शब्द हैं, वे लोकधर्मी शब्द भी हैं।
उनकी बनावट ही अपने में लोकधर्मिता के भी अर्थों-आशयों-आयामों को छिपाये हुए है। अतः कबीर को वैदिक मान्यताओं का विरोधी मानने का कोई कारण सामने नहीं आता। वैदिक मान्यताओं के विकृत प्रयोग और बाद में आयी व्यावहारिक विकृतियों के विरूद्ध वह जरूर थे। अन्यथा वह वेदों में उल्लिखित अध्यात्म अनुभूति, मानवीय समता, प्रकृति-सत्यों को ही आगे बढ़ाने वाले, विकृतियों को शोधित कर अधिष्ठित करने वाले मानववादी महान संत हैं।एक उपसर्ग है सम् । इस सम् उपसर्ग के द्वारा उक्त लोकधर्मी-मूल्यधर्मी अर्थ-आयाम निर्धारित होते हैं और यह उपसर्ग ही वेदना की प्रकृति, स्वरूप और सत्यता को खोलता है। सम्+वेदना=संवेदना शब्द हमें सिर्फ वेदना से नहीं, लोकधर्मी वेदना से जोड़ता है। सम् परार्थमुखी, समता वाचक सापेक्षता बोधक है, जो आत्मा, चेतना के धरातल पर हमें पर से-लोक से, समाज से जोड़ देता है; हमारी सोच, बोध, ज्ञान को, वैयक्तिकता की सीमाओं में सीमित न बनाये रखकर संवेदना अन्य पर, भिन्न, दूसरे से जोड़ देती है। लोक से जोड़ देती है। अतः सम्बन्ध, संवेग, सम्बुद्धि, संयोग, आदि अनेक शब्द हैं जो बन्ध, वेग, बुद्धि, योग आदि की एकांगिता, वैयक्तिता के सीमित, (मनमानेपन, कुछ अर्थों में लोक-समाज निरपेक्षता) के विपरीत व्यापक, प्राकृत, सत्य अर्थों से जोड़ देते हैं। अतः लोकनायक इस संवेदना से युक्त होकर लोक से स्वयं भी जुड़ता है और लोक के विभिन्न घटकों को परस्पर जोड़ कर लोक शक्ति को बढ़ाता है। बिखरी हुई लोक-शक्ति का संग्रह करके उन्हें परस्परता के सूत्रा में पिरोता, संगठित करता है। इन्हें धार्मिक अर्थों में कहें तो लोक में सोयी हुई चेतना को परस्पर के संवेदनामय ज्ञान के द्वारा जगाकर संग्रह करना, फिर संग्रहित चेतना को संगठित करके लोकहित में उसका प्रयोग कर लोक को त्राण देना है। अतः कहना न होगा कि संवेदना, चेतना, शक्ति लोक में ही निहित है।
लोकनायक उसको लक्ष्य करता, जगाता, संग्रह करके संगठित करके अन्याय, असत्य से भिड़ा देता है। अन्याय-अत्याचार को परास्त कर के त्राण दिलाता है।उक्त संदर्भों के प्रकाश में कबीर भी लोकनायक हैं। उन्होंने भी समाज की सोयी, शक्तियों को जगाया। प्रभु वर्ग द्वारा उपेक्षित-अपमानित, बिखरी शक्तियों को एकजुट किया और अपने युग की बर्बर राजसत्ता के सामने चट्टान की तरह अड़ा दिया। इस चट्टान को सल्तनत और उसकी समूची सैन्य शक्ति हिला नहीं पायी। दूसरी ओर हिंदू और मुस्लिम समाज की श्रेष्ठ-वर्गीय, प्रभुवर्गीय शक्ति-चाहे वे मुल्लाओं की हो या ब्राह्मणों की, उसके विरूद्ध भी कबीर ने एक जबरदस्त तेजस्वी मोर्चा खोल दिया। कहाँ तो पिसे-कुचले-दबे वर्ग श्रेष्ठी-वर्ग के लोगों से त्रस्त रहते थे-भयभीत और त्रिणवत काँपते हुए और फिर कबीर के संसर्ग में आकर इन श्रेष्टियों पर मुस्कुराने, इनकी मूर्खताओं पर हँसने लगे। उनकी मुस्कुराहट और हँसी के पीछे कबीर के वे तर्क होते जो पंडित मुल्ला-दोनों की हँसी उड़ाते-कहु पंडित सूचा कवन ठांउ।/जहाँ बैसि हउं भोजन खांऊ॥/मामा जूठा, पिता भी जूठा, जूठे ही फल लागे अथवा क्या अजू जप मंजन कीएं क्या मसीति सिंरू नाएँ।/दिल महिं कपट निवाज गुजारै क्या हज काबै जांए॥
कबीर ने कुचले मरे हुए लोगों में साहस, निर्भयता, आत्मविश्वास के भाव और आत्म-गौरव की भावना भर दी। लोक की पहचान और ढूँढ आरम्भ होती है उस निम्नतर इकाई की अस्मिता के स्वीकार से और उसे महत्त्व देने से, जो अपनी अस्तित्व-सत्ता से धरती पर विद्यमान है। जिससे स्वयं को लोक में स्थित उस निम्नतम इकाई के स्तर पर उतार कर जो प्राणीमात्र की पीड़ा से जो सहज उत्साह में जुड़ा हो। संतो और भक्तों के साम्य की इस दिशा को घटित किया। जिसे समाज आज खोये दे रहा है। मात्रा दैहिक-भौतिक साम्य के परिवर्तन और दावे आज जिस तरह टूट-बिखर कर निरस्त हुए जा रहे हैं, उन्हें देखते यह और भी स्पष्ट और सुनिश्चित हो गया है कि अध्यात्म की उस सार-स्थली पर घटित होने वाली परिवर्तन की प्रक्रिया को अपनाया जाये। इस पुख्ता, सदियों से आजमाये हुए, सर्व सिद्ध आधार पर वास्तविक साम्य आता है, परिवर्तन घटित होता है, जिस चट्टानी मजबूती के शिखर पर कबीर ने खड़े होकर अकेले ही तत्कालीन राजशाहियों, धार्मिक रूढ़ियों, आडम्बरों, अमानवीयताओं की अंध महाशक्तियों को ललकारा था। लोकशक्ति उनके साथ जुट आयी थी। लोक-विश्वास उन्होंने अर्जित किया था। वह लोक मानस के गहरे पारखी थी। उनकी भाषा भी लोक-चेतना की गहरी पकड़ का प्रमाण देती है। उन्होंने लोक में प्रचलित प्रतीक, घटनाएँ, क्रियाएँ, दृष्टांत, रूपक और शब्दावली ग्रहण की। अपनी बात सीधे-सीधे लोक हृदय में उतारी। लोकवाणी में प्रचलित शब्दावली-सूली, चक्की, धोबी, साबुन, तलवार, म्यान, ठगिनी, चदरिया, चोला, कुम्हार, खाल, लोहार, कुंभ, ओस, प्यास, कतना, बुनना, पासा, चौपड़ आदि लोक-प्रसिद्ध मुहावरों, लोक-उक्तियों तक का प्रयोग इस तरह किया कि उनकी मार्मिक बातें अपने मूल आशय के साथ सीधे लोक-चित्त पर अपना असर करें।
वैदिक युग (कृत युग) पूर्व की प्रकृति, सत्य, प्रकाश, जो वैदिक वाङ्मय का आधार है, चैतन्य ज्योति के मूल स्रोतों को कबीर ने लक्ष्य किया और वाणी दी। बाद में आये कृत्रिाम परिवर्तनों के कारण कबीर ने कागज की लेखी को अस्वीकार किया और मूल-चैतन्य की अनुभूति से जुड़ने की राह दिखाई। इस कारण कबीर वाणी को स्वसंवेद भी कहा जाता है। वेद सत्य एवं तथ्य को समक्ष रखते हैं। उनकी अनुभूति तो व्यक्ति की अपनी क्षमताओं पर निर्भर करती है या गुरु कृपा पर। यह तथ्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है कि कबीर का सारा बल इस धरती पर विद्यमान जीवन पर और स्वसंवेद पर है। जीवन को लेकर ज्ञान की अनुभूति पर। वेद मात्रा ज्ञान ही नहीं, अध्यात्म ज्ञान है। सम्यक् अर्थ में। ज्ञान का अर्थ सांसारिक जानकारियाँ या सूचनाएँ मात्र नहीं। यह ज्ञान मानसिक धरातल से जुड़ा रहता है इसलिए मिथ्या या झूठ एवं भ्रामक होता है। कबीर या संत जिस ज्ञान की बात करते हैं वह मन के तिरोहित होने पर आंतरिक अनुभूति के साक्षात्कार से उत्पन्न होता है। मन से नहीं, स्व और अस्तित्व से जुड़ा होने से स्वानुभूत होता है। यह ज्ञान बांधता नहीं, भ्रमित नहीं करता, मुक्त करता है। भ्रमों का निवारण करता है। ज्ञान, कर्म और भक्ति के तीन मार्गों के ज्ञान के अतिरिक्त कर्म और भक्ति को भी इन्हीं अर्थों में लेना होगा। वे भी तभी मुक्तिदायी बनते हैं।
युग पुरुष सदा ही अपने युग की दैहिक, मानसिक, आत्मिक-तीनों अस्तित्वों की व्याधि को पहचानता, समझता है तभी उपयुक्त निदान-उपचार भी कर पाता है। जड़ता (यथास्थिति) को गतिशीलता में बदलकर रूढ़ियों (मनोरोगों) को मिटाकर धार्मिक आडम्बरों (अमानवीय-व्यवहारों) का खण्डन करके समूचे राष्ट्र जीवन को पुनः स्वस्थ (स्व में स्थित) बनाता है। इसे ही युगीन परिवर्तन की संज्ञा दी जाती है। ये आमूल एवं समग्र परिवर्तन ही वास्तविक प्रगतिशीलता लाते हैं। कबीर भी ऐसी ही प्रगतिशीलता को लाये।कहना न होगा कि आज पुनः लोक का मार्ग अवरूद्ध है। शोषण, छद्म, अन्याय, हिंसा, हत्या की सामूहिक कार्यवाहियों से समूचे लोक का उच्छेदन, विनाश हो रहा है। लोक हत्यारी शक्तियाँ लोकविरूद्ध, लोक-विद्वेषी नीतियों से तरह-तरह की विनाश लीला रच रही है। नैसर्गिक प्रकृति से लेकर प्राणिमात्र और मानवी प्रकृति तक सब संत्रस्त है। उत्पीड़ित हैं। किन्तु बिखरे हुए। इन स्थितियों का पुनः राजनीतिक स्वार्थमय दोहन करने के लिए अनेक राजनीतिक गिद्धदृष्टि लगाये रहते हैं। इनमें कुछ हितैषी बनने-होने के मुखौटे लगाकर या टुच्ची बक्शीशनुमा रियायतें देकर युगों से उत्पीड़ित, पिसे, शोषित लोक को भ्रमित करते रहते हैं। इन बिखरी लोक शक्तियों को आज एकत्रा होना है। भारत में सबसे पहले इन बिखरी शक्तियों को एकजुट करने वाले नायक कबीर की शिक्षाओं को पुनः अपने कर्म का हिस्सा बनाना है। तरह-तरह की विभेदकारी पूजा पद्धतियों के दलदल से बाहर आना है। इन व्यर्थ के जंजालों को छोड़ना और मुक्त होकर अस्तित्व की लड़ाई लड़नी है। स्वाभिमान, न्याय और बराबरी की लड़ाई लड़नी है।
सभी वर्तमान कबीरपंथी, आचार्यों पर यही दायित्व जाता है कि वे मिलकर पूजापद्धतियों की भिन्नताओं के संकीर्ण दायरों की धुंध से कबीरपंथियों को बाहर लायें। उन्हें आज की, तेजी से बदलती परिस्थितियों के अनुसार अपने सोच-व्यवहार को बदलने की शिक्षाएँ दें। सच्चा कबीरी नेतृत्व प्रदान करें। अन्यथा भ्रष्ट राजनीतिक स्वार्थी नेतृत्व इन्हें कहीं का न रहने देगा। न घर का, न घाट का,। न राम का, न रहीम का। न दुनिया का न दीन का!
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