दलित लेखन : साहित्य में जातीय सम्प्रदायवाद का संक्रमण
डॉ० हरेराम पाठक
साहित्य विचार संप्रेषण का सबसे सशक्त माध्यम है। साहित्य का इतिहास इस बात का साक्षी है कि समाज में जब-जब विघटन की स्थिति की आशंका हुई है तब-तब साहित्य-मनीषियों ने आगे आकर अपनी लेखनी द्वारा सामाजिक विघटन में सामंजस्यता लाने का प्रयास किया है। कोई भी साहित्यिक कृति कालजयी नहीं हो सकती है जब उसमें चिंतन की व्यापकता एवं संवेदनशीलता की गहराई समाई हुई हो। इसी चिंतन की व्यापकता, उदात्तता एवं संवेदनशीलता की गहराई के चलते, कबीर लोक पुरुष कहलाये, तुलसीदास लोक नायक एवं समन्वयवादी कवि हुए, सूरदास साहित्य जगत् के सूर्य साबित हुए, भूषण, मैथिलीशरण गुप्त एवं दिनकर जी राष्ट्रकवि कहलाये और न जाने कितने कवि साहित्यकार एक विशेष संस्था के रूप में अपनी पहचान बनाने में सक्षम हुए।साहित्य में परस्पर विरोधी विचारों की आवाज भी गूँजती रही है। परन्तु यह विरोध हठधर्मिता एवं पूर्वाग्रह से प्रेरित न होकर एक सुनिश्चित सर्वमान्य तथ्य तक पहुँचने की सकारात्मक धारणा से प्रेरित रहा है।
सारांश यह है कि विरोध 'विरोध' मात्र प्रकट करने के लिए नहीं, बल्कि वैचारिक मंथन-मनन एवं सुनिश्चित निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए होता रहा है। संस्कृत साहित्य में रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, औचित्य आदि सम्प्रदाय वैचारिक मंथन के ही परिणामस्वरूप काव्यशास्त्रीय आलोचना के उत्कृष्ट मानक स्थापित कर पाये। हिन्दी साहित्य में वीर, भक्ति, रीति आदि कालों की अपनी अलग महत्ता रही है और इनमें भी काव्यशास्त्रीय शिल्पकला के साथ-साथ मानवीय मूल्यों की व्यापक अभिव्यक्ति हुई है। आधुनिक काल में छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और न जाने कितने वाद आये, सबमें विचारों की भिन्नता रही, पर अंततः सभीवाद मानव-मानव को जोड़ने में ही संलग्न रहे-'नदिया एक घाट बहुतेरे' के तर्ज पर।इन सब बातों को कहने का एकमात्र यही तात्पर्य है कि साहित्य में परस्पर विरोधी विचार भले हों, उसमें जाति-विरोधी अथवा जन-विरोधी विचार नहीं हो सकते। साहित्य में कलात्मक सम्प्रदाय स्वीकार्य है, परन्तु सामाजिक विद्वेष फैलाने वाले जातीय सम्प्रदाय बिलकुल नहीं।
आश्चर्य है कि आज दलित लेखन के नाम पर उन्हीं विरोधी विचारों को मान्यता मिलने लगी है जो साहित्य के कभी विषय रहे ही नहीं हैं। आधुनिक युग में जहाँ चिन्तन एवं विचार विमर्श हेतु अनेक मंच एवं संचार माध्यम विकसित हो चुके हैं वहाँ दलित पुस्तकों को जलाकर अपना विरोध प्रकट करने का 'फासीवादी' तरीका अपना रहे हैं। जुलाई २००४ में भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास 'रंगभूमि' की प्रतियाँ जला दी गयीं। दलित लेखक चमन लाल जी ने इसे 'फासीवादी' कर्म बताया।१ अगस्त में 'हंस' का दलित विशेषांक प्रकाशित हुआ परन्तु उसमें अकादमी के इस 'फासीवादी' कर्म पर किसी ने मुँह तक न खोली। उसी अंक में मैनेजर पाण्डेय का साक्षात्कार छपा था जिसमें उन्होंने कहा है कि ÷दलित साहित्य हिन्दी साहित्य का लोकतंत्रीकरण कर रहा है।'२
यदि दलित साहित्यकारों के ऐसे मंसूबों को लोकतंत्रीकरण कहेंगे जो अराजक तंत्र किसे कहा जायेगा, यह विचारणीय मुद्दा है।दलित साहित्यकारों का एक बहुत बड़ा अंश यह मानकर चलता है कि 'दलितों द्वारा, दलितों के जीवन पर दलितों के लिए लिखा साहित्य ही दलित साहित्य है।'३ अर्थात् गैर दलित दलितों की मार्मिक सच्चाई का चाहे जितनी भी ईमानदारी से वर्णन करें उसे दलित साहित्य नहीं कहा जा सकता। क्या ऐसे विचारों से साहित्य में जातीय अथवा वर्गीय सम्प्रदायवाद का जन्म नहीं होगा? क्या ऐसा साहित्य समाज में स्वस्थ मानसिकता का विकास कर पायेगा? यह विचारणीय मानसिकता का विकास कर पायेगा? यह विचारणीय प्रश्न है। दलित लेखक मुद्राराक्षस तो यहाँ तक कहते हैं कि ''आखिर गैर दलित 'दलित' पर बोलने का अधिकार क्यों चाहता है।''४ मेरी समझ से मुद्राराक्षस की दलित एवं गैर दलित लेखक संबंधी अवधारणाओं पर कटु प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए ताकि सामान्य पाठक का रुचि संस्कार हो सके तथा साहित्य अपने असली स्वरूप में जीवित रह सके। किसी समय साहित्य का दायरा इतना व्यापक था कि अध्यात्म, दर्शन एवं विज्ञान तक उसकी सीमा रेखा में आते थे, परन्तु आश्चर्य कि वही साहित्य आज संकीर्णता के गलियारे में भटकते हुए कहीं स्त्रीवादी एवं पुरुषवादी लेखन तो कहीं दलित एवं गैर दलित लेखन तथा कहीं शहरी एवं ग्रामीण लेखन के नारेबाजी में सिकुड़ता चला जा रहा है। निश्चय ही साहित्य का यह रूप स्वास्थ्य कर नहीं कहा जा सकता।
इधर दलित लेखन के नाम पर हठधर्मिता एवं पूर्वाग्रह पूर्ण लेखन को अधिक बल मिला है। दलित लेखक कंवल भारती की बौखलाहट देखने योग्य है-''यदि आप दलित साहित्य नहीं पढेंगे तो हम आपके प्रेमचन्द एवं निराला को क्यों पढें?''५ मतलब, प्रेमचन्द और निराला गैर दलितों के लेखक हो गये, वाह रे विचार! परन्तु वहीं प्रेमचन्द और निराला यदि दलित जाति में पैदा हुए होते तो क्या कंवल भारती उन्हें पढ़ने से इंकार करते? निश्चित रूप से नहीं करते। इसका स्पष्ट अर्थ है कि दलित लेखक विचार की उदात्तता के आधार पर किसी लेखक का मूल्यांकन न कर जाति के आधार पर करने लगे हैं। परिणामस्वरूप साहित्य में संकीर्ण सम्प्रदायवाद का प्राबल्य होने लगा है।रमणिका गुप्ता इस साहित्यिक सम्प्रदायवाद का समर्थन करती हुई असंगत तर्क प्रस्तुत करती है - ''यह तो सर्वविदित है कि साहित्य रसों के आधार पर भी बाँटा जाता रहा है, अन्यथा ये श्रृंगार रस या वीर रस साहित्य क्यों कहलाता? इतना ही नहीं, उस समय रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति एवं ध्वनि सम्प्रदायों में तीव्र आपसी खींचतान इसी विभाजन का नतीजा थी।''६ रमणिका जी को यह समझना चाहिए कि संस्कृत साहित्य में रीति, वक्रोक्ति, अलंकार, रस आदि सम्प्रदायों के चलन से काव्य शास्त्रीय समीक्षा संबंधी नये-नये तथ्य एवं विद्वतापूर्ण विचार सामने आये। उक्त सम्प्रदायों को स्थापित करने वाले विद्वानों ने साहित्य को वैचारिक समृद्धि प्रदान की। क्या दलित साहित्यकार अब तक कोई वैचारिक एवं उदात्तता से परिपूर्ण साहित्यिक क्रांति लाने में सफल हुए हैं? उत्तर होगा-नहीं। अतः साहित्य के अन्य खेमों से दलित साहित्य की बराबरी बैठाना असंगत है।उसी आलेख में रमणिका जी आगे लिखती है - ''शिष्ट साहित्य वही था जो विशिष्ट लोगों द्वारा विशिष्ट लोगों के लिए लिखा जाता रहा।''७
रमणिका जी को मालूम होना चाहिए कि भारतेन्दु, प्रेमचंद, निराला, दिनकर, नागार्जुन आदि शिष्ट साहित्य के ही रचनाकार रहे हैं, लेकिन उन लोगों ने विशिष्ट लोगों के लिए भी नहीं लिखा। गोदान का 'होरी', कफन के घीसू और माधव, तथा 'ठाकुर का कुआँ' का 'जोखू' क्या विशिष्ट पात्र हैं? और तो और, रमणिका जी की भक्तिकाल पर प्रहार करने से भी नहीं चूकती है। उनका तर्क देखिए - 'भक्तिकाल का साहित्य सीधे राजा से विद्रोह न कर पाने के कारण धर्म की आड़ लेकर खड़ा हो गया और वह जनता के दरबार में ऊँचा उठ गया।'८ रमणिका जी की यह उक्ति भक्तिकालीन साहित्य की अंतर्वस्तु से अनभिज्ञता को प्रमाणित करती है। वास्तव में भक्तिकालीन साहित्य का आधार राजा के प्रति विद्रोह करना था ही नहीं। यदि राजा के प्रति विद्रोह न कर सकने की प्रतिक्रिया राजनिंदा का प्राबल्य होता, भक्ति भावना की तल्लीनता नहीं आ पायी होती।
उनकी तो स्पष्ट घोषणा थी - ''संतन को कहाँ सीकरी सो काम।'' उनकी अगली पंक्ति देखिए - ''भक्तिकाल में मनुष्य की अहमियत कहीं नहीं थी, वह राजा या ईश्वर के ही निमित्त था।''९ यह सर्वविदित है कि नैतिकता एवं उच्च मानवीय आदर्शों की स्थापना करना भक्तिकाल की मुख्य विषय वस्तु रही है। क्या नैतिकता एवं आदर्श मनुष्य की अहमियत से जुड़े सवाल नहीं हैं? कबीर ने रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं जाति-पांति के आडम्बरों का विरोध किया था। क्या ये सब मनुष्य की अहमियत से जुड़े सवाल नहीं हैं?आश्चर्य की बात है कि जहाँ भक्तिकाल में रमणिका गुप्ता को मनुष्य की अहमियत ही दिखाई नहीं पड़ती है, वही दलित लेखक चमन लाल जी भक्तिकालीन संत कवियों को ही दलित आन्दोलन का प्रेरणा स्रोत मानते हैं। वे लिखते है - ''उत्तर भारत में संत कबीर, रविदास, मीराबाई, दयाबाई, सहजोबाई व अन्य अनेक भक्त कवि सेन, पोपा आदि हिन्दी के दलित साहित्य के प्रेरणा स्रोत बने।''१०
अतः इससे प्रमाणित होता है कि दलित साहित्य के लेखकों में अभी वैचारिक ताल-मेल नहीं हो पाया है। एक ओर कंवल भारती प्रेमचंद और निराला को पढ़ने से इंकार करते हैं, तो दूसरी ओर दलित समर्थक रूपचंद गौतम लिखते हैं कि ''प्रेमचंद पहले भारतीय लेखक हैं जो सवर्णों और अवर्णों के बीच रोटी-बेटी का संबंध स्थापित करते हैं।''११ क्या यही है दलित साहित्य की वैचारिक एवं सैद्धान्तिक एकरूपता? दलित लेखन को प्रोत्साहित करने वाले प्रगतिवादी चिंतक डॉ० नामवर सिंह भी कंवल भारती के बड़बोलेपन एवं उनकी टेढ़ी निगाह से नहीं बच पाते हैं।
वे कहते हैं - ''राम विलास शर्मा और नामवर सिंह सरीखे प्रगतिशील चिन्तकों ने भी मार्क्सवाद के नाम पर ब्राह्मणवाद को ही प्रस्तुत किया है।''१२तो यह है कि दलित साहित्यकारों का वैचारिक अंतर्विरोध प्रगतिवादी साहित्य की तो एक निर्दिष्ट आचार संहिता थी, परन्तु दलित साहित्य के जितने साहित्यकार हैं, वे अपनी-अपनी सुविधा के लिए अपनी वैचारिक जिद्द को साहित्यिक मंच पर प्रतिष्ठित करने में लगे हुए हैं। उनमें न वैचारिक सोच की गहराई है, न परंपरागत साहित्य के प्रति चिंतन-मनन का प्रयास ही। यही कारण है कि वेद, रामायण, महाभारत, मनुस्मृति आदि हिन्दू संस्कृति के आधार पर भूत ग्रन्थों को ब्राह्मणवादी एवं सवर्ण मनोवृत्ति के प्रचारक ग्रंथ के रूप में मानते हैं। उनसे पूछना चाहिए कि आदि रामायण के रचनाकार महर्षि बाल्मीकि, व्यास एवं कालिदास क्या सवर्ण थे? सच तो यह है कि हिन्दू धर्म के आधार भूत ग्रन्थों के रचनाकार भी दलित ही रहे हैं, वे धर्म के नियामक एवं प्रचारक रहे हैं, यदि उन्हें उत्पीड़ित किया गया होता तो उनकी रचनाओं में उसकी स्पष्ट झलक होती। यहाँ तक की बहुत से शूद्र ऋषियों ने उपनिषदों की भी रचना की है। 'तैत्तिरीय उपनिषद्' के रचयिता तितिर ऋषि शूद्र थे।दलित लेखकों ने 'स्वानुभूति' एवं 'सहानुभूति' का मुद्दा उठाकर साहित्य में जातीय आरक्षण की मुहिम चला रखी है। उनका कहना है कि दलित जाति के लेखक ही अपनी पीड़ाओं का यथार्थ अंकन कर सकते हैं क्योंकि ऐसा करते वक्त उनमें स्वानुभूति की गहराई होगी। उनकी दृष्टि में गैर-दलित पर स्वानुभूति नहीं, बल्कि सहानुभूति के आधार पर लिखते हैं जिनमें अनुभूति की सच्चाई नहीं होती है। आश्चर्य की बात है, एक ओर स्वानुभूति का प्रश्न उठाकर दलित-लेखक मात्र दलितों द्वारा लिखे साहित्य को ही दलित साहित्य मानते हैं, तो दूसरी ओर राज परिवार से आये गौतम बुद्ध को वे अपना पहला दलित नेता मानते हैं। जब एक दलित के यथार्थ की अनुभूति एक दलित ही कर सकता है तो राज परिवार में जन्म लेने वाले गौतम बुद्ध को दलित-उत्पीड़न की अनुभूति कैसे हो गई? और यदि गौतम बुद्ध को दलित उत्पीड़न की अनुभूति हो सकती है तो अन्य गैर-दलित लेखकों को उसकी अनुभूति क्यों नहीं हो सकती? क्यों, श्रीधर पाठक, निराला, प्रेमचंद, नागार्जुन आदि साहित्यकारों को 'स्वानुभूति' का मुद्दा उठाकर उन्हें सिरे से खारिज किया जा रहा है? साहित्यिक क्षरण के इस गहन पहलू पर विचार करना आवश्यक है। दूसरी ओर, स्वानुभूति के भी अपने दायरे हैं। कोई भी ऐसा दलित लेखक नहीं है जो एक ही साथ अपने सिर पर मैला ढोने का 'स्वानुभूति' रखता हो और लेखन भी करता हो। वह भी अपने बाप-दादों की अनुभूतिगत कथाओं को सुनकर अथवा पास पड़ोस के दलित मजदूरों की स्थिति देखकर ही अपनी कल्पना के सहारे साहित्य सृजन करता है। फिर, स्वानुभूति का सवाल खंडित हुआ कि नहीं।साहित्य लेखन में मुख्य बात संवेदनशीलता एवं कल्पना की उर्वरता की होती है। लेखक दलित ही हो परन्तु उसमें संवेदनशीलता एवं उर्वर कल्पना की कमी हो तो वह न तो दलित पात्रों के साथ न्याय कर पायेगा, न सवर्ण पात्रों के साथ ही। संवेदनशीलता की इसी व्यापकता को दलित लेखक 'सहानुभूति' का नाम देते हैं। परन्तु दोनों में काफी अन्तर है। 'सहानुभूति' में करूणा का भाव है, परन्तु 'संवेदनशीलता में सहानुभूति का भाव हैं। संवेदनशीलता का यही व्यापक भाव प्रेमचंद को 'दो बैलों की कथा' जैसी मार्मिक कहानी लिखने को प्रेरित करता है। उक्त कहानी में बैलों की मूल व्यथा एवं विवशता का मार्मिक चित्रण प्रेमचंद जैसे सहृदयता एवं संवेदनशीलता के पूर्ण साहित्याकार ही कर सकता है। जब कोई लेखक पशु एवं जड़ जगत का हृदयस्पर्शी एवं स्वानुभूति पूर्ण वर्णन कर सकता है तो भला दलित व्यक्ति के जीवन का दर्द भरा वर्णन स्वानुभूति एवं संवेदना के आधार पर क्यों नहीं कर सकता? क्या ईदगाह जैसी बाल मनोविज्ञान से सम्पन्न कहानी लिखने के लिए एक प्रौढ़ लेखक को पुनः बालक बनना होगा? यदि 'स्वानुभूति' शब्द को दलित लेखकों जैसा व्याख्यायित किया जाए तब तो बाल-साहित्य बच्चों द्वारा ही लिखा जायेगा, पशुओं की अंतर्व्यथा को पशुओं द्वारा लिखा जायेगा, तोता-मैना की कहानी गढ़ने के लिए तौता-मैना बनना पड़ेगा। इसका सीधा मतलब है कि हर लेखक को अपने समानधर्माओं के संबंध में लिखने का अधिकार होगा। ऐसी स्थिति में साहित्य साहित्य न होकर कुंठा ग्रस्थ बकवास का अखाड़ा बनकर रह जायेगा। दूसरी ओर इस प्रकार के लेखन को लेखन तो कह सकते हैं, साहित्य कतई नहीं कह सकते।दलित लेखकों की इसी हठधर्मिता का परिणाम है कि बहुत से दलित लेखक अपने आपको दलित विचारधारा से उसी प्रकार अलग करने लगे हैं जिस प्रकार सिद्धाचार्यों के अनगढ़पन तथा वामाचारों से तंग आकर कुछ सिद्धों ने नाथ पंथ अपना लिया था। यही कारण है कि दलित कुलोत्पन्न रत्न कुमार सांभरिया स्पष्ट रूप से घोषणा करते हैं कि 'मैं दलित साहित्य का विरोधी हूँ।'१३ हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा के लेखक माताप्रसाद कहते हैं - 'जहाँ ब्राह्मण वर्ग के बहुत से लोग इस बुराई को दूर करने में लगे हैं, वहीं दलित वर्ग के लोगों को भी प्राचीन काल की इस व्यवस्था के लिए, ब्राह्मणों या मनुस्मृति को कोसने से ही काम नहीं चलेगा। मनुस्मृति तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में दलित के विरुद्ध जो बातें लिखी गयी हैं, आज के संविधान में वे बेमानी हैं। उनका बार-बार उल्लेख करने से वातावरण विषाक्त होता है, गडे मुर्दे उखाड़ने से किसी का लाभ नहीं होने वाला है।'१४जिस प्रकार का प्रतिक्रियावादी दलित लेखन का चलन आजकल हो गया है वह यदि हजारों साल पहले हुआ होता तो उसकी प्रासंगिकता कुछ समझ में आती, परन्तु आज स्थिति बिल्कुल बदली हुई है। देश के संविधान द्वारा दलितों की राजनीति में भागीदारी सुनिश्चित हो चुकी है। दलित समाज के लोग भी आर्थिक एवं शैक्षणिक प्रगति कर रहे हैं। लेकिन आर्थिक एवं शैक्षणिक प्रगति होने मात्र से दलित चिंतन में बदलाव आ सकेगा, यह कोई आवश्यक नहीं हैं। दलितों में समग्र उत्थान लाने के लिए उन्हें अनावश्यक विवादों से ऊपर उठना होगा। दलित वर्ग की विभिन्न जातियों के बीच भावात्मक एकता स्थापित कर उसे सवर्णों से जोड़ना होगा। दलित लेखकों को यह दिखाई देता है कि उनके घर ब्राह्मण भोजन नहीं करता, परन्तु यह दिखाई नहीं देता कि डोम के यहाँ चमार नहीं खाता, चमार के यहाँ दुसाध नहीं खाता, धोबी के यहाँ से इनका खान-पान नहीं है। आखिर यह सब व्यवस्था कब और कैसे मिटेगी, यह चिंतनीय है। ब्राह्मणों में भी विभेद है। महापात्र ब्राह्मण को गाँव से होकर अभी भी बहुत से जगहों में गुजरने नहीं दिया जाता है। षटकर्म कराने के बाद भूले-भटके आदि वे गाँव से होकर गुजरते हैं तो उन पर ढेला फैंका जाता है। ये सब दृष्टान्त ये दर्शाते हैं कि ब्राह्मण समाज में ही ब्राह्मण अछूत हैं एवं दलित समाज के भीतर भी एक दूसरे के प्रति छूत-अछूत की भावना हैं प्रश्न उठता है, शिक्षा का इतना विकास हो जाने पर भी हमारे समाज की एक अभिशाप्त नियति अभी भी क्यों बरकरार है? उत्तर सिर्फ एक ही है कि हम दूसरे की जड़ काटने उसकी बुराई देखने आदि में ही अपनी सारी ऊर्जा खपा देते हैं, अपनी जड़ कितनी मजबूत अथवा कमजोर है, यह देखने से हम सदा कतराते रहे हैं। किसी भी आन्दोलन को हमने राजनीति में प्रवेश करने, तथा समाज में चाहें ग़लत तरीके से ही सही, धाक जमाने का जरिया बना लिया है। इस प्रकार के आन्दोलन हमें क्षणिक आत्मलीन सुख तो दे सकते हैं, परन्तु इससे हमारी सामाजिक समस्याओं का शाश्वत समाधान नहीं हो सकेगा। हमारी लड़ाई अवर्ण-सवर्ण के बीच नहीं वैचारिक प्रदूषण फैलाने वालों के खिलाफ होनी चाहिए चाहे वह प्रदूषण अवर्ण के झरोखे से आवे या सवर्ण के।
संदर्भ सूची
१. वर्तमान साहित्य, सितम्बर, २००४, पृ० ६
२. हंस, अगस्त २००४, पृ० २००
३. समकालीन भारतीय साहित्य, मई-जून, ९८, पृ० १५७
४. इंडिया टुडे, ६ दिसम्बर २०००
५. इंडिया टुडे, ६ दिसम्बर २०००
६. समकालीन भारतीय साहित्य, मई-जून ९
८, पृ० १५०७. वही, पृ० १५१८. वही, पृ० १५१
९. वही, पृ० १५११०. वही, पृ० १५५
११. समकालीन भारतीय साहित्य, अंक ५९, पृ० १९५
१२. दलित जन उभार, पृ० १८८१३. हंस, अगस्त २००४, पृ० ८४
१४. हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा, पृ० ३२
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