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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Saturday, December 13, 2008

कबीर के काव्य में कृषक-जीवन की त्रासदी का वर्णन

डॉ० शगुफ्ता नियाज
कृषक जीवन अभावों का जीवन रहा है। उसकी आवासीय व्यवस्था व निर्माण की प्रक्रिया उसके अभावों की द्योतक रही है। वह जिस तरह की झोपड़ी में रहता आ रहा है वह मौसम की मार झेलने में असमर्थ रही है। बरसात कृषक जीवन में कृषि संदर्भ में जहाँ उसके लिए संजीवनी है वहीं उसके गार्हस्थिक जीवन के लिए विषम परिस्थितियाँ लेकर आती है। कबीर ने कृषक जीवन की इस दशा को स्वयं देखा है, अनुभूत किया है। कवि ने अपनी इस दारूण अनुभूति और बरसात से बचने के लिए एक किसान द्वारा किए गए प्रयासों से अपने काव्य में रूपक संरचना की है। कबीर के कृषक जीवन से संबंधित रूपक जहाँ एक ओर कृषक जीवन की त्रासदी का मार्मिक वर्णन करते हैं वहीं गूढ़ परमतत्त्व की सत्ता के रहस्य का उद्घाटन भी करते हैं - जुगिया न्याय मरै मरि जाइ।/घर जाजरौ बलीडों टेढ़ौ, औलौति(अरराई) उरराई।/मगरी तजौ प्रीति पाषै सूं, डांडी देहु लगाई।/छीको छोड़ि उपराहिड़ो बांधो, ज्यूं जुगि जुगि रही समाइ।/बैसि परहड़ी द्वार मुंदावे, ल्यावो पूत घर घेरी।/जेठी धीय सांसरे पठवौं ग्यूँ बहुरि न आवै फेरी।/लुहरी धीय सबै कुल खोयौ, तब ढिग बैठन जाई।/कहै कबीर भाग बपरी कौ, किलकिल सबै चुकाइ।१वलींडो-ये छप्पर को आधार प्रदान करने के लिए बल्ली रूप में प्रयुक्त होती है जिसे जीव के शाश्वत ज्ञान के रूप में लिया गया है। औलौती-यह वर्षा के पानी को दूर फेंकने के लिए होता है जिसे काल के प्रभाव से रोकने की क्षमता के रूपक में लिया गया है। पाषा-ये मिट्टी या कच्ची ईंटों की ढलावदार दीवार के रूप में होता है जिस पर बलींडा रखा जाता है जो कि भक्ति ज्ञान व साधना के रूप में ग्रहण किया गया है। कृषक जीवन में छींका भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जो छप्पर में लटका होता है जिसमें बचा हुआ खाद्य पदार्थ रखा होता है जिसे संचित पुण्य कर्मों के रूप में लिया गया है। मगरी-बल्ली रखने की जगह होती है जो कि आसक्ति व अहंभाव का रूपक है। परहड़ी जल रखने का स्थान होता है जिसे आनंदस्वरूप माना गया है व उपराहड़ी परम तत्त्व या शून्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन प्रतिमानों से एक सुन्दर रूपक की रचना करते हुए कबीर जीव की स्थिति का निरूपण करते हैं। कृषक के जर्जर छप्पर की भाँति ही जीव के शरीर की भी दशा हो गई है और कृषक तेज वर्षा से छप्पर के गिरने की स्थिति से जिस प्रकार भयभीत रहता है, वैसे ही जीव की भी दशा ज्ञान व साधना के अभाव में क्षीण होती जा रही है।जीव का शरीर रूपी घर तो जर्जर है ही और उसका आधार (मेरूदण्ड) विषयों के बोझ से टेढ़ा पड़ गया है। इस छप्पर की कच्ची दीवारों की वर्षा के जल से रक्षा करने वाला औलौती भी छिन्न-भिन्न होकर डगमगाने लगी है अर्थात्‌ काल के प्रभाव को रोकने की उसकी सामर्थ्य भी क्षीण होती जा रही है। छप्पर बलींडे रखने का स्थान (मगरी) का ध्यान छोड़कर उसको मोटा करने और सजाने का ध्यान छोड़कर उसके पाखों को मजबूत करने और सजाने का ध्यान छोड़कर उसके पाखों को मजबूत करने के लिए सहारा दो, ताकि वे गिरने से बचें। छींका बाँधने में सतर्कता बरतने की अपेक्षा छप्पर के ऊपरी हिस्से को मजबूती से बाँधो ताकि वह युगों तक बना रह सके अर्थात्‌ भोगेच्छा से प्रेरित होकर विषयों के संचय और संरक्षण की आकांक्षा छोड़कर अपने मन के उच्चतम परम तत्त्व से अथवा गगन से बाँध दो ताकि उसमें तदाकार होकर अनन्त काल तक बने रह सको। इसके ऊपर का छप्पर भी सुराखों से पूर्ण एवं टूटा हुआ है। किसान के जर्जर घर में ऐसी अवस्था में पानी भर जाता है उसी प्रकार सुराखों से मृत्यु रूपी जल भीतर जाना चाहता है। बादल जब गरजते हैं तो जो दशा गरीब कृषक के टूटे मिट्टी के घर में रहने वालों की होती है कि वह उस गर्जना से बार-बार अपने को बेघर व असहाय अनुभव करने के लिए बाध्य हो जाता है। वही स्थिति काल की है जिसकी गर्जना कबीर ने सुनी व इस जीर्ण-शीर्ण मिट्टी रूपी काया के क्षणिक अस्तित्त्व का भान होते ही भय उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व में समा गया।इस प्रकार उक्त रूपक के माध्यम से कृषक जीवन की दुर्दशा और उसकी अर्थव्यंजना से आध्यात्मिक साधना को स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया गया है।कबीर ने ग्रामीण जीवन जो मूलतः कृषक जीवन ही माना जा सकता है को एक नहीं अनेक स्थलों पर अपने रूपक का विषय बनाया है। कबीर के इन रूपकों से एक ओर सामाजिक स्थिति का बोध होता है तो दूसरी ओर इस स्थिति से व्यंजित आध्यात्मिक जीवन बोध की अनुभूत्यात्मक दिशा खुलती है। कबीर के रूपकों के लिए यह सामग्री कृषक जीवन की दयनीय व्यवस्था से मिली है।
उदाहरण स्वरूप- इब न रहूँ माटी के घर में।/इब मैं जाइ रहूँ मिलि हरि मैं।/छिनहर घर अस झिरहर टाटी, धन गरजत कंपै मोरी छाती।/दसवैं द्वारि लागि गई तारि, दूरि गवन आवन भयो भारी।/चहुँ दिसि बैठे चारि पहरिया, जागत मुसि गए मोर नगरिया।/कहै कबीर सुनो रे लोई, भानण घड़ण संवारण सोई।२
जब आकाश में बादल गरजते हैं तो किसानों के हृदय में प्रिय की वियोग की पीड़ा व भावुकता के आँसू नहीं उमड़ते बल्कि उनकी छाती काँप उठती है और वे अपने मिट्टी के कच्चे घर में रहने से इंकार कर देते हैं कहीं वह कच्चा घर चू-चू कर ढह न जाए। इस मिट्टी के घर को कबीर ने आध्यात्मिक संदर्भ में काया कहा है व इसमें रहने से इंकार किया है कि यह शरीर रूपी घर अत्यन्त जीर्ण है।
घर की क्षणिकता व तुच्छता जीवन संदर्भों को अध्यात्म से जोड़ते हुए सफल अभिव्यंजना प्रस्तुत की है - काल के बादल जब गरजते हैं तब कबीर का आध्यात्मिक भय धन गरजत कंपे मोरी छाती' में पूर्ण रूप से परिलक्षित है। परन्तु ये भय कबीर के निजी जीवन से कदापि नहीं। क्योंकि कबीर के भीतर गाँव का आम आदमी है जो समाज की मारो को चुपचाप झेलता है। कबीर की ये महानता ही है कि उन्होंने परब्रह्म को एकान्त में न खोजकर समाज की भयानक परिस्थितियों में खोजा है और यही कबीर के चरित्रा का वह अंतर्विरोध है जिसे अधिकांशतः विद्वान समझ नहीं पाए हैं कि वह कर्म जगत में पूर्णतः सामाजिक है वहीं आतंरिक जगत में एकान्तिक है परन्तु कबीर की समग्रता का ये सशक्त प्रमाण है कि परमतत्त्व को पाने के सारे प्रयास धरती से ही प्रारम्भ होते हैं।
धरती के आम आदमी से छिपी दिव्यता को निकालकर ही कबीर ने अपने काव्य रूपकों की संरचना की है।मध्यकाल में कबीर ने उस संत परंपरा का प्रवर्त्तन किया, जो आत्मबोध के साथ समाज बोध को भी साथ लेकर चलता है। कबीर भीतर से परमसत्ता की तलाश में ही नहीं वरन्‌ सामाजिक क्रांति के लिए भी बेचैन रहते हैं। इन्हीं दोनों में सामंजस्य बैठाते हुए कबीर ने अपनी काव्य रचना की सुन्दर सृष्टि की, जिसका एक प्रमुख तत्त्व रूपक विधान है।कबीर ने आध्यात्मिक सत्य की अवधारणा कृषक जीवन के लौकिक उपादानों के माध्यम से की है। सूक्ष्म अनुभूतियों के लिए कबीर ने रूपक का आश्रय लिया है व कृषक जीवन के उपादानों जैसे-किसानी, खेती, बीज, फल-फूल आदि के उपादानों से परमार्थ बोध की अभिव्यक्ति कराई है।
यथा-कालर खेत कृषक जीवन का अनुपयोगी भाग है, उसे भक्ति विहीन हृदय से सम्पृक्त कर कबीर ने अपने रूपकों में नवीन दृष्टि प्रदान की है। अच्छे व बुरे कर्मों से फल प्राप्ति को उपजाऊ व कालर दोनों भूमियों के अंतर को आध्यात्मिक संदर्भ में स्पष्ट किया है। इसी संदर्भ में कुदार, बीज व नय को क्रमशः ज्ञान, नाम व ध्यान के रूपकों में सफल प्रस्तुसित कबीर ने की है।कबीर की भावनाएँ एक किसान की भावनाओं के अत्यन्त निकट हैं। निचाई खेत के माध्यम से कबीर ने इस तथ्य की पुष्टि की है कि सांसारिक सुखों में आसक्ति ढूँढना हृदय को सूखाग्रस्त क्षेत्रा में परिवर्तित करना है और उसे विपरीत दिशा में मोड़ना अध्यात्म से जोड़ना है जो निचाई खेत की भाँति अवश्य ही अंकुरित होगा।कृषक की सुरक्षा के उपायों को जीवन में अनियन्त्रिात विषय विकारों के साथ जोड़ते हुए कबीर ने इस तथ्य का उद्घाटन किया है कि जीव को भी सजग होकर अपने जीवन रूपी खेत में भक्ति तत्त्व रूपी उपज की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिए।कृषक जीवन प्रकृति से भी अन्यन्तम रूप से जुड़ा है इस तथ्य को कबीर ने रूपक के रूप में ढाल कर सफल प्रस्तुतियाँ की है कि जहाँ एक ओर वृक्ष के द्वारा जीवन व सृष्टि का स्वरूप प्रस्तुत हुआ है वहीं जागतिक बेल से परब्रह्म के गुणों की अर्थवत्ता की गई है। प्रकृति में ÷वर्षा' का अपना महत्त्व है, जिसे भगवद् कृपा रूपी घटा के माध्यम से आध्यात्मिक जीवन बिम्ब की प्रस्तुति की है।कृषक जीवन के सामाजिक पक्ष जैसे-सामंती जीवन और जमींदारी व्यवस्था के कुशासन से पीड़ित जनता की पीड़ा को अनुभूत कर कबीर ने रूपक विधान के लिए प्रतिमान ग्रहण किए। यथा-शरीर के लिए गाँव व पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को सहायक किसान मानते हुए सामाजिक व आध्यात्मिक दोनों पक्षों पर प्रकाश डाला है।कृषक जीवन के अभावों का वर्णन करते हुए (घर जाजरौ बलींडो टेढ़ो औलोती अरराई) के रूप में जहाँ एक ओर उसकी आवासीय व्यवस्था का वर्णन किया गया है वहीं जीव के शाश्वत ज्ञान के आधारों को भी बताने का उद्देश्य निहित है।
संदर्भ-ग्रन्थ
१. डॉ० जयदेव सिंह, वासुदेव सिंह, कबीर वाङ्मय, सबद, पद-२२, पृ. २००
२. (सं.) डॉ० श्याम सुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली, पद-२७३, पृ. १३५

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Friday, December 12, 2008

ग़ज़ल

महताब हैदर नक़वी

सुबह की पहली किरन पर रात ने हमला किया
और मैं बैठा हुआ सारा समां देखा किया

ऐ हवा ! दुनिया में बस तू है बुलन्द इक़बाल1 है
तूने सारे शहर पे आसेब2 का साया किया

इक सदा ऐसी कि सारा शहर सन्नाटे में गुम
एक चिनगारी ने सारे शहर को ठंण्डा किया

कोई आँशू आँख की दहलीज़ पर रुक-सा गया
कोई मंज़र अपने ऊपर देर तक रोया किया

वस्ल3 की शब को दयार-ए-हिज्र4 तक सब छोड़ आए
काम अपने रतजगों ने ये बहुत अच्छा किया

सबको इस मंजर में अपनी बेहिसी पर फ़ख़ है
किसने तेरा सामना पागल हवा कितना किया

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1. तेजस्वी 2. प्रेत-बाधा 3. मिलन 4. विरह-स्थल

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मधुशाला

हरिवंशराय बच्चन



भूल गया तस्बीह नमाजी,

पंडित भूल गया माला,
चला दौर जब पैमानों का,
मग्न हुआ पीनेवाला।
आज नशीली-सी कविता ने
सबको ही बदहोश किया,
कवि बनकर महफ़िल में आई
चलती-फिरती मधुशाला।
रूपसि, तूने सबके ऊपर
कुछ अजीब जादू डाला
नहीं खुमारी मिटती कहते
दो बस प्याले पर प्याला,
कहाँ पड़े हैं, किधर जा रहे
है इसकी परवाह नहीं,
यही मनाते हैं, इनकी
आबाद रहे यह मधुशाला।
भर-भर कर देता जा, साक़ी
मैं कर दूँगा दीवाला,
अजब शराबी से तेरा भी
आज पड़ा आकर पाला,
लाख पिएँ, दो लाख पिएँ,
पर कभी नहीं थकनेवाला,
अगर पिलाने का दम है तो
जारी रख यह मधुशाला।

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Thursday, December 11, 2008

कविता

रवीन्द्रनाथ टैगोर
अनुवादक -डॉ. डोमन साहु ‘समीर


लगी हवा यों मन्द-मधुर इस
नाव-पाल पर अमल-धवल है;
नहीं कभी देखा है मैंने
किसी नाव का चलना ऐसा।
लाती है किस जलधि-पार से
धन सुदूर का ऐसा, जिससे-
बह जाने को मन होता है;
फेंक डालने को करता जी
तट पर सभी चाहना-पाना !
पीछे छरछर करता है जल,
गुरु गम्भीर स्वर आता है;
मुख पर अरुण किरण पड़ती है,
छनकर छिन्न मेघ-छिद्रों से।
कहो, कौन हो तुम ? कांडारी।
किसके हास्य-रुदन का धन है ?
सोच-सोचकर चिन्तित है मन,
बाँधोगे किस स्वर में यन्त्र ?
मन्त्र कौन-सा गाना होगा ?

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पराजित पीढ़ी का अपराजित नायक

प्रताप दीक्षित
हमारी नियति है कि हम इतिहास के उस कालखण्ड में रहने को विवश हैं जो एक ओर निरन्तर परिवर्तनशील और दूसरी ओर निपट निर्मम है। ऐसे समय में कबीर का पुनर्पाठ केवल अकादमिक दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण नहीं, इसलिए भी अपरिहार्य हो जाता है कि व्यवस्थाएँ भले ही अनेक बार बदल चुकी हों, परन्तु जातीय भेदभाव, साम्प्रदायिक विद्वेष, असमानता और अंधविश्वासों में उस काल की तुलना में वृद्धि ही हुई है, जब कबीर ने इनके विरोध में विद्रोह किया था।आज सुविधा साधनों के बाहुल्य होने पर भी मनुष्य दुश्चिन्ता, अवसाद और आतंक से ग्रस्त है। चारों ओर क्रूरता, प्रपंच, दुःरभि सन्धियों, सत्ता की विश्वासघाती आकांक्षाओं, संहारक अस्त्रा-शस्त्रों से घिरा मनुष्य आत्मविपन्न हो गया है। निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए जाति, धर्म, नस्ल और वर्ग के नाम पर कठपुतली की भाँति, उसका उपयोग किया जाना उसकी विडम्बना हो गई है। अतीत से वंचित और भविष्य के नाम पर आशंकित आम आदमी जितना अप्रासंगिक आज हो गया है, उतना कभी नहीं रहा।कबीर के युग में शासक वर्ग जाति और धर्म का विचार न करके राज्य लिप्सा के लिए परस्पर लड़ते रहते थे। तैमूर का सुल्तान तुगलक पर आक्रमण हो या लोदी द्वारा इटावा के सुल्तान मोहम्मद शर्की और जौनपुर के शासक मोहम्मद सुल्तान की पराजय आदि एक धर्म द्वारा दूसरे धर्म पर जिहाद नहीं बल्कि सत्ता और अर्थ लिप्सा की पूर्ति के लिए किया गया आक्रमण था।
अन्तः कलह और अराजकता चारों ओर व्याप्त थी। सामंती समाज द्वारा साधारण जन के आर्थिक और सामाजिक शोषण के लिए कर्मकाण्ड, तीर्थाटन, छुआछूत आदि बाह्याचारों के विधान मुल्लाओं, इमामों, पण्डितों और महंतों द्वारा रचे गए थे। इन्हें शासक वर्ग का प्रश्रय भी प्राप्त था। शायद हर युग में अतिवादी कट्टरपंथियों के साथ सत्ता का गठजोड़ रहता है।ऐसी स्थितियों में कबीर का स्वर, मानो उस पराजित, मूक, उपेक्षित और निरीह पीढ़ी का, विद्रोह था। कबीर की वाणी उनकी अस्मिता का संघर्ष थी। उनकी आवाज दबाने की बहुत कोशिशें की गईं। परन्तु यह आवाज दबती कैसे? यह आवाज तो उस जाति कुल विहीन आम मेहनतकश फक्कड़ इंसान की थी जिसे न तो राजदरबार में राजकवि के पद की चाहत थी ना ही अकादमियों के पुरस्कार, वाइसचांसलरी, विदेशी डेलीगेशनों की यात्रा की दरकार या अवकाश ग्रहण के बाद संस्थानों में सलाहकार बनने की जरूरत।
तभी तो वह कह सके - आधी अरु रूखी भली, सारी सो संताप।/जो चाहेगा चूपड़ी, बहुत करेगा पाप॥स्पष्ट कहने में उन्हें कोई भय या संकोच नहीं था। उन्होंने जनसामान्य को संबोधित करते हुए कहा - तुम अपनी हर छोटी बड़ी समस्या के लिए पण्डित और मुल्लाओं का मुँह क्यों जोहते हो? स्वयं कुछ क्यों नहीं करते? जैसे - पण्डित मुल्ला जो लिख दिया/वो ही रटा तुम किछु न किया।कबीर बाह्य आडम्बरों, पाखण्ड, सामंती वर्णाश्रम व्यवस्था पर लगातार व्यंग्य प्रहार करते रहे। असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं - मूड़ मुड़ाए हरि मिलै/संतो, पाण्डे निपुत कसाई/पेटहु काहु न वेद पढ़ावा/नारी गोचित गर्भ प्रसूती। आदि उक्तियों ने रूढ़ियों, अंधविश्वासों, जाति धर्म की दीवारों और अत्याचारियों की तलवारों तक को विचलित कर दिया था।
उनकी प्रखरता, कटाक्ष और व्यंग्य की धार ने पण्डित मुल्लाओं को ही नहीं सत्ता को भी चुनौती दी थी-झूठ रोजा, झूठी ईद-जैसी उक्तियों से क्रूद्ध होकर बादशाह सिकन्दर लोदी ने इन्हें गंगा में फिकवा दिया था । वह लिखते हैं - गंग गुसाइन गहिर गंभीर, जंजीर बाँधि करि डेर कबीर।तत्कालीन समाज में नारी को नर्क का द्वार मानने वाले वेद पुराण के पंडितों, चिन्तकों को उस अनपढ़ कबीर ने मानो आग ही लगा दी, जब कबीर ने कहा - जैसी मिस्त तैसी है नारी, राज पाठ सब गिनै उजारी।नारी के लिए बहिश्त का प्रयोग उन नारी विरोधियों को तिलमिला गया। परन्तु जनमानस बदलने लगा था। दबे कुचले लोगों में विद्रोह जागने लगा था। कबीर के शब्दों ने पुराने विश्वासों को झकझोर दिया था।
अक्खड़ कबीर भरी सड़क पर भीड़ के बीच गाने लगे थे - पेटहु काहु न वेद पढ़ाया, सुनति कराय तुरक नहिं जाया।/नारी गोचित गर्भ प्रसूती, स्वांग करे बहुतै करतूती।/ताहिया हम तुम एकै लोहू, एकै प्राण बिलायत मोहू।समाज के स्वयंभू कर्णधार पहले तो स्तब्ध रह गए फिर सामूहिक रूप से उन्हें पापी, काफिर, बुद्धिहीन जाने क्या-क्या कहना शुरू कर दिया। परन्तु उनकी आवाज मानव मात्रा एक समान के समर्थन में प्रचंड जन रव आ मिला था। क्योंकि उन्होंने जो कहा था वह जन-जन का, मनुष्य का और अपराजित मानव का सत्य था।सत्य देश काल से परे होता है। आज पाँच सौ वर्षों के बाद इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ में उनके संदेश को प्रासंगिकता चुकी नहीं है। आज भी जातीय आग्रह, साम्प्रदायिकता, वर्ग वैषम्य कम नहीं हुए हैं। आज यह सब सत्ता की लड़ाई में सबसे कारगर हथियार बन गए हैं। आर्थिक विषमताएँ, क्षेत्रीय समानता, बेरोजगारी चरम पर है। संकीर्ण विचार धाराओं, स्वयंभू धार्मिक गुरुओं और पैगम्बरों द्वारा स्थापित संवेदनहीन मान्यताओं और अवैज्ञानिक विचारधारा से समाज उसी तरह ग्रस्त है जिस तरह तर्कहीन मध्ययुग में था। मनुष्य के प्रति सहज करुणा के विरुद्ध प्रवृत्तियाँ आज भी मौजूद हैं।सबसे भयावह यह है कि आम आदमी पूरी व्यवस्था से कटा हुआ है।
वह बाड़ों में कैद है। जैसे पशुओं को चर कर आने के बाद किया जाता है। यह बाड़े प्रबल हो गए हैं। जाति के बाड़े, धर्म के बाड़े, वर्ग के बाड़े। एक बाड़े का मनुष्य दूसरे को भय और शंका से देख रहा है। भले ही उनके सरोकार एक हों। इतिहास गवाह है कि मनुष्य की चेतना को प्रसुप्त करने के प्रयास हर उस व्यवस्था में किए जाते हैं जिसे मनुष्य की मुक्ति में विश्वास नहीं होता। ऐसे में कबीर की याद प्रेम की तलाश है-कबीर की प्रेम की अलख सहज भी तो नहीं -यह तो घर है प्रेम का/ढाई आखर प्रेम का।''आज जब विवेक मर चुका है, विचार मृत हैं, आत्माएँ मृत हैं तो संसार को जीवन का राग सुनाने वाले कबीर की पुनः आवश्यकता महसूस होती है क्योंकि चारों ओर ध्वंस के ढेर पर कबीर ही तो मृत्यु से अमृत की ओर अग्रसर हैं- हम न मरे मरिहै संसारा, हमकू मिला जिआवन हारा।

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Wednesday, December 10, 2008

दलिताएं खुद लिखेगीं अपना इतिहास

अनिता भारती
आईए हम कल्पना करें भारत की आजादी के आन्दोलन की और हम उसमें गांधी का नाम भूल जाएं। चलिए हम दूसरी कल्पना करें, दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत लोगों के मुक्ति संघर्ष की और उसमें हम नेल्सन मंडेला का नाम छोड़ दे। शायद आपको मेरी बात सुनकर गुस्सा आ सकता है, शायद आप यह भी कह सकते हैं कि ये क्या बेवकूफी भरी बात है? जब हम इन शोषित-पीड़ित और दमितों के आन्दोलन और इतिहास की कल्पना उनके नेताओं के बिना नहीं कर सकते तो हम भारतीय महिला आन्दोलन व इतिहास लेखन की कल्पना सावित्रीबाई फूले और डॉ० अम्बेडकर के बिना कैसे कर सकते हैं।
यह भारतीय महिला मुक्ति आन्दोलन की विडम्बना ही है कि भारतीय महिला आन्दोलन पर जो पुस्तकें लिखी जा रही हैं उन लेखिकाओं द्वारा दलित आदिवासी पिछड़े व अल्पसंख्यक वर्ग के आन्दोलन व उनके नेताओं के प्रति गहरी उपेक्षा बरती जा रही है। कुछ पुस्तकों में तो उनके नाम, उनके कार्यों तक का जिक्र नहीं है। हम इस लेख में भारतीय महिला आन्दोलन में दलित स्त्रियों के मुद्दों, सवालों और समस्याओं के प्रति बरती जा रही उपेक्षा की चर्चा करेंगे।भारतीय महिला इतिहास आन्दोलन के लेखन में अनेक समस्याएं हैं। आज जिस वर्ग, जाति और समाज की लेखिकाएं लेखन करती हैं। उनके लेखन में उनकी वर्गजातिगत व समाजगत प्रवृत्तियां व रुचियां झलकती हैं। ये लेखिकाएं समाज में प्रचलित व प्रसिद्ध व्यक्तियों, धाराओं तथा वादों में बंधी हैं। अतः इनका लेखन भी उन्हीं धाराओं, वादों और व्यक्तियों से प्रतिबद्धता दर्शाता है। एक ही तरह की स्रोत सामग्री इस्तेमाल करने से समाज के कई अनछुए, अनजान पहलू, व्यक्ति व आन्दोलन पर इनका ध्यान नहीं गया।
कारण कुछ भी हो परन्तु यह बात नकारी नहीं जा सकती कि सम्पूर्ण भारतीय महिला लेखन में दलित और अति दलित महिलाओं की भागीदारी या उपस्थिति कहीं दिखती ही नहीं है। हालांकि उनके उद्धरण, उनके नाम, उनके आन्दोलन दलित अल्पसंख्यकों द्वारा लिपिबद्ध किये जा चुके हैं और किये भी जा रहे हैं। आज जिस तरह से पुरुषों द्वारा रचित इतिहास लेखन में महिलाओं के आन्दोलन, उनके अनुभव, उनकी समस्याएं, उनके मुद्दों को नजरअंदाज कर दिया गया है उसी तर्ज पर महिला लेखन में भी दलित आदिवासी, पिछड़ी अल्पसंख्यक महिलाओं के आन्दोलन, समस्याओं मुद्दों विचार धारा और सवालों को उपेक्षित किया जा रहा है।कुछ समय पहले हिन्दी में अनुवाद होकर आई राधा कुमार की पुस्तक ''स्त्री संघर्ष का इतिहास १८००-१९९०'' पढ़ने को मिली। हमारी दलित लेखिकाओं और दलित महिला आन्दोलन से जुड़ी कार्यकर्ताओं की शिकायत थी, कि राधा कुमार जी ने स्त्री आन्दोलन में दलित स्त्रियों के आन्दोलन के साथ न्याय नहीं किया है। मैं स्वयं दलित महिला आन्दोलन से कुछ वर्षों से जुड़ी रही हूं। इसी वजह से मैंने इस पुस्तक को ध्यानपूर्वक पढ़ना शुरु किया। मेरे आश्चर्य और दुःख की सीमा न रही जब मैंने राधा कुमार जी की पुस्तक में दलित महिला आन्दोलन की रीढ़ ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारतीय महिला आन्दोलन की जनक सावित्री बाई फूले का नाम पूरी तरह से उपेक्षित पाया।क्या कारण है कि नारीवादी इतिहासकार सावित्री बाई फूले के योगदान को भारतीय महिला आन्दोलन में शामिल न करते हुए दलित महिलाओं के आन्दोलन व योगदान के सबसे महत्त्वपूर्ण आधारस्तम्भ को स्वीकार करने से नकारती हैं। सावित्री बाई फूले दलित महिला आन्दोलन की रीढ़ ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतीय महिला आन्दोलन की भी आदर्श है। सावित्रीबाई ने उस समय घर से बाहर निकल दलित/गैर दलित बालिकाओं को पढ़ाना शुरु किया जब औरत का घर से बाहर निकलना अपराध माना जाता था। जब वे घर से बाहर लड़कियों को पढ़ाने निकलती थीं तो उन पर गोबर-पत्थर फेंके जाते थे। उन्हें रास्ते में रोककर उच्च जाति के गुण्डों द्वारा भद्दी-भद्दी गाली दी जाती थी तथा उन्हें जान से मारने की लगातार धमकियां दी जातीं थीं।
ऐसी ही विपरीत और कठोर परिस्थितियों में सावित्रीबाई फूले ने समाज सेवा का प्रण लिया। वो बिना रुके, बिना थके 'स्त्री मुक्ति' के पथ पर आगे बढ़ती रहीं। सावित्रीबाई फूले भारत में स्त्री-शिक्षा की जननी के साथ-साथ सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता, समाज सुधारक तथा दलित/गैर दलित स्त्रियों की मुक्ति के संघर्ष की प्रतीक, प्रतिनिधि और अमिट योद्धा हैं।सावित्रीबाई फूले ने लड़कियों के लिए १८४८ में बुधवार पेठ (पूना) में पहला स्कूल खोलकर भारतीय स्त्रियों के जीवन में शिक्षा द्वारा आमूल-चूल परिवर्तन लाने का प्रयास किया तथा स्त्री शिक्षा के द्वार खोल दिये। यह कदम एक दलित स्त्री द्वारा दलित व गैर दलित स्त्रिायों के लिए शिक्षा के क्षेत्रा में उठाया गया अभूतपूर्व कदम था। सावित्रीबाई फूले ने १८४९ में पूना में ही उस्मान शेख के यहाँ मुस्लिम स्त्री-बच्चों के लिए प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र खोला। १८४९ में ही पूना, सतारा व अहमद नगर जिले में पाठशाला खोली। स्त्रिायों की दशा सुधारने के लिए १८५२ में सावित्रीबाई फूले ने 'महिला मंडल' का गठन किया। इस महिला मंडल ने बाल विवाह, विधवा होने के कारण स्त्रियों पर किए जा रहे जुल्मों के खिलाफ स्त्रियों को तथा अन्य समाज को मोर्चाबन्द कर सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष किया।हिन्दू स्त्री के विधवा होने पर उसका सिर मूंड दिया जाता था। विधवाओं के सर मुंडने जैसी कुरीतियों के खिलाफ लड़ने के लिए सावित्रीबाई फूले नाइयों से विधवाओं के 'बाल न काटने' का अनुरोध करते हुए आन्दोलन चलाया जिसमें काफी संख्या में नाइयों ने भाग लिया तथा विधवा स्त्रियों के बाल न काटने की प्रतिज्ञा ली। भारत क्या पूरे विश्व में ऐसा सशक्त आन्दोलन नहीं मिलता जिसमें औरतों के ऊपर होने वाले शारीरिक और मानसिक अत्याचार के खिलाफ स्त्रियों के साथ पुरुष जाति प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हो, नाइयों के कई संगठन सावित्रीबाई फूले द्वारा गठित महिला मण्डल के साथ जुड़े। सावित्रीबाई फूले और 'महिला मंडल' के साथियों ने ऐसे ही अनेक आन्दोलन वर्षों तक चलाये उनमें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।भारतीय समाज में स्त्री के विधवा होने पर उसके परिवार के पुरुष जैसे देवर, जेठ, ससुर व अन्य सम्बन्धियों द्वारा उसका दैहिक शोषण किया जाता था। जिसके कारण वह कई बार माँ बन जाती थी। बदनामी से बचने के लिए विधवा या तो आत्महत्या कर लेती थी, या फिर अपने अवैद्य बच्चे को मार डालती थी। अपने अवैध बच्चे के कारण वह खुद आत्महत्या न करें तथा अपने अजन्मे बच्चे को भी ना मारें, इस उद्देश्य से सावित्रीबाई फूले ने भारत का पहला 'बाल हत्या प्रतिबंधक गृह' खोला तथा निराश्रित असहाय महिलाओं के लिए अनाथाश्रम खोला। स्वयं सावित्रीबाई फूले ने आदर्श सामाजिक कार्यकर्ता का जीवन अपनाते हुए एक विधवा स्त्री के बच्चे को गोद लिया तथा उसे पढ़ा-लिखा कर योग्य डॉक्टर भी बनाया। ऐसे क्रांतिकारी कार्य करने वाली तथा समाज की धारा के विपरीत जाकर काम करने वाली सावित्रीबाई फूले का नाम इतिहास से गायब करने में सरासर षड्यन्त्रा की बू नजर आती है।सावित्रीबाई फूले जीवन पर्यन्त अन्तर्जातीय विवाह आयोजित व सम्पन्न कर जाति व वर्ग विहिन समाज की स्थापना के लिए प्रयासरत रहीं।
सावित्री बाई फूले ने लगभग ४८ वर्षों तक दलित, शोषित, पीड़ित स्त्रियों को इज्जत से रहने के लिए प्रेरित किया उनमें शिक्षा का दीप जलाया। अपने जैसे अनेक कार्यकर्ता तैयार किये जिनमें तारा बाई शिन्दे, सगुणाबाई, फातिमा शेख, सावित्रीबाई रोडे, मुक्ता आदि जिनका नाम आज भी भारतीय महिला आन्दोलन में अमर है। अपना पूरा जीवन अर्पण करने वाली सावित्रीबाई फूले के योगदान को नकारना क्या भारतीय नारी मुक्ति आन्दोलन का अपमान नहीं है?राधा कुमार ने ऐसी शख्सियत को नारी इतिहास के पन्नों में जगह न देकर सावित्रीबाई फूले के साथ-साथ दलित महिला आन्दोलन का भी घोर अपमान किया है। जब हम भारतीय स्त्री आन्दोलन या संघर्ष की बात करते हैं तो उसमें सभी जाति, वर्ग, धर्म, भाषा की स्त्रियों के योगदान की चर्चा होनी चाहिए। उसमें उन्हें उपयुक्त जगह मिलनी चाहिए। लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है। दलित महिलाओं ने हमेशा संघर्ष किया है, विरोध प्रकट किया है और करती रहेगी। चाहे उसने ये विद्रोह या संघर्ष स्वतन्त्र रूप से किया हो या किसी के नेतृत्व में। ये संघर्षशील दलित नायिकाएं जिनमें वीरांगना झलकारी बाई, रानी शिरोमणि, रानी दुर्गावती हो या उदादेवी पासी, झानो और फूलो या सावित्रीबाई फूले ये सब महिला आन्दोलन में संघर्ष, त्याग और बलिदान की प्रतीक हैं। डॉ० अम्बेडकर के नेतृत्व में चले दलित महिला आन्दोलन में भी अनेक अनाम, मूक, मुखर संघर्षशील दलित औरतें शामिल हुईं जिन्होंने अपनी अस्मिता, अपनी पहचान या फिर अपनी स्वतन्त्रता बनाए व बचाए रखने के लिए जुझारू होकर जातीय दंभ से पूर्ण ब्राह्मणवादी पुरुष सत्तात्मक समाज को कड़ी टक्कर दी है।दलित महिलाओं की प्रतिभा उनकी क्षमता उनके योगदान की उपेक्षा हमेशा से ही सवर्ण मानसिकता से ग्रसित समाज में होती आई है। परन्तु नारीवादी आन्दोलन से जुड़ी लेखिकाएं व कार्यकर्ता भी ऐसा पक्षपात पूर्ण इतिहास लेखन करेंगी तो दलित महिला आन्दोलन को सोचना पड़ेगा कि आज वे स्त्रीवादी आन्दोलन में जुड़ें अथवा अलग रहें। समाज में हमेशा कुछ वर्ग जातियाँ ऐसी रहती हैं जो मुख्यधारा की न होकर भी उसका नेतृत्व करती हैं। असल सच तो यह कि दलित आदिवासी पिछड़ी शोषित दमित जातियां ही मुख्यधारा होती हैं। अगर आज ऐलिट तथा उच्च जाति जो अपने मन में मुख्यधारा होने का भ्रम पाले हुए है, अगर वे इस भ्रम को नहीं तोड़ते तो आज मजदूरों, किसानों, दलितों, शोषितों, जो कि वास्तविक मुख्यधारा हैं, वो मुख्यधारा आज नहीं तो कल ऐसे लोगों को ठोकर की नोक पर उड़ा देगी। इस भ्रमित धारा को दलित आदिवासियों के साथ उनकी शर्त पर ही जुड़ना पड़ेगा।आज जिस तरह महिला आन्दोलन व महिला लेखन में दलित महिलाओं के मुद्दों व उनकी समस्याओं को उपेक्षित कर उच्चवर्गीय महिलाओं के (स्त्री देह) छद्म मुद्दों को महत्त्व दिया जा रहा है वह अपने आप में महिला मुक्ति के औचित्य पर प्रश्नचिह्र है। सावित्रीबाई फूले का नाम इतिहास से गायब है या गायब कर दिया गया, कारण जो भी हो पर उसकी पड़ताल होना आवश्यक है। महिला आन्दोलन इतिहास लेखन में सवर्ण कुमारी देवी से लेकर सरला देवी घोषाल, मैडम भीकाजी रूस्तमकामा, ऐनी बेसेंट, कमला देवी चट्टोपाध्याय, सरोजिनी नायडू, अरुणा आसफ अली आदि अनेक उच्च वर्गीय सभ्रांत समाजिक कार्यकर्ताओं की पूरी कहानी व उनके कार्यों का ब्यौरा होता है, पर दलित महिलाओं के नाम व योगदान पर गहरी चुप्पी साध ली जाती है। सावित्रीबाई फूले से लेकर झलकारीबाई, फूलों और झानों, फातिमा बेग, उदा देवी पासी जैसी प्रसिद्ध दलित स्त्रियों तक के नाम को भुला दिया जाता है।राधा कुमार अपनी इतिहास पुस्तक में पंडिता रमाबाई और ज्योतिबा फूले का भी उदाहरण दो-तीन जगह देती है पर तब भी वे सावित्रीबाई फूले के योगदान को याद नहीं करती। आखिर इस घोर उपेक्षा का कारण क्या है? क्या सावित्रीबाई का नाम इतिहास इसलिए हटा दिया गया कि वो शूद्र जाति की थीं और दलित/शूद्र स्त्रियों की उन्नति के लिए कार्य कर रही थीं जिनका उच्च वर्ग की सभ्रांत लेखिकाओं और नारीवादियों की दृष्टि में कोई मूल्य नहीं है। हमारे कुछ नारीवादी महिला नेता या लेखिकाएं दलित महिलाओं के प्रति अन्य सवर्ण महिलाओं द्वारा किये गये भेदभाव, उत्पीड़न व उनके द्वारा बरती जा रही उपेक्षा पर शायद इसलिए चुप रह जाती हैं कि कहीं महिला आन्दोलन दो हिस्सों में न बंट जाये? वे दलित महिलाओं द्वारा लड़े गये अस्मिता संघर्ष को अलग से जगह देने को तैयार नहीं है या फिर दलित महिलाओं के नेतृत्व में आने से उनका नेतृत्व खतरे में पड़ जायेगा। क्या यही वे कारण है या अन्य कोई कारण है कि वे सावित्री के योगदान को महत्त्व नहीं देती। अन्य कारणों में एक कारण यह भी हो सकता है कि उनके पति ने उन्हें पढ़ाया और समाज के लिए शिक्षित किया। अगर लेखिका ऐसा मानती है तो यह तो और नाइंसाफी की बात है। अक्सर हमारा समाज महिलाओं की योग्यता, क्षमता को पुरुषवादी चश्मे से देखता है, अगर सावित्रीबाई फूले ज्योतिबा फूले की मद्द से पढ़ पाईं तो क्या उनका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था? क्या किसी को, जब तक की उसमें खुद लगन, जज्बा व जागृति न हो तब तक उसे किसी भी कार्य करने को बाध्य किया जा सकता? अगर सावित्रीबाई फूले अपने पति की मद्द से पढ़ पाईं और उनकी मद्द से सामाजिक क्षेत्रा में जुड़ीं तो इसी तर्ज पर हम यह भी कह सकते हैं कि भारत की आजादी के आन्दोलन में जो भी सभ्रांत व उच्च जाति की शिक्षित वर्ग की महिलायें जुड़ी उनमें से अधिकांश अपने पतियों, भाइयों व पिताओं के प्रयास से आयीं थीं। फिर भी ऐसी महिलाओं का नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता है और सावित्रीबाई फूले का नाम नगण्य हो जाता है। यह एक गंभीर बात है कि शूद्र जाति की सावित्रीबाई फूले सामाजिक कार्य करते हुए इस भेदभाव सकीर्णता से पूर्ण समाज से चौतरफा वार सह रहीं थी फिर भी अपना कार्य लगन और धैर्य से कर रहीं थीं और बिना डरे लगातार कर रही थीं। ऐसी सशक्त क्रांतिकारी, स्त्री शक्ति की प्रतीक महिला के योगदान को अनदेखा करना इतिहासकारों व आन्दोलनकारियों की नीयत पर शक पैदा करता है। जब दलित महिला आन्दोलन का इतिहास लिखा जायेगा तब ऐसे भेदभावपूर्ण लेखन व उनकी भेदभाव लेखनी को कदापि बक्शा नहीं जायेगा।सावित्रीबाई फूले की तरह ही भारतीय महिला आन्दोलन के दूसरे आधार स्तम्भ हैं डॉ० भीमराव अम्बेडकर जिन्हें भारतीय स्त्रिायों के मुक्तिदाता के रूप में जाना जाता है। राधा कुमार की पुस्तक 'स्त्री संघर्ष का इतिहास' तथा दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा द्वारा लिखित पुस्तक भारतीय महिला आन्दोलन कल, आज और कल' में डॉ० अम्बेडकर और उनके नेतृत्व में चला दलित महिला आन्दोलन के विषय में एक भी शब्द नहीं है। 'हिन्दूकोड बिल' जिसका मुख्य आधार ही भारतीय नारी को कानूनी न्याय दिलाते हुए उन्हें उनके कानूनी अधिकार दिलाना था। उसका भी वर्णन राधा कुमार ने अपनी पुस्तक में मात्र-चार-पांच पंक्तियों में किया गया है। इस पुस्तक की विडम्बना यह कि लेखिका ने केवल एक तरह के आन्दोलन का ही वर्णन किया है और एक खास विचारधारा की स्रोत सामग्री का इस्तेमाल किया है, अगर वो समाज की मुख्यधारा के संघर्ष को शामिल करती तो यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी हो सकती थी।
डॉ० अम्बेडकर जो कि स्त्रियों की स्वतन्त्रता के बहुत बड़े हिमायती थे जिनके नेतृत्व में असंख्य दलित औरतें अन्याय के खिलाफ लड़ने सड़कों पर उतर आईं थीं। महाड़ के सार्वजनिक चावदार तालाब के पानी की लड़ाई में हजारों की संख्या में दलित महिलाएं शामिल हुईं। २५ दिसम्बर को अम्बेडकर द्वारा 'मनुस्मृति दहन' भारतीय महिला इतिहास की तारीख में भी अपूर्व व अनोखा दिन है। इससे पहले किसी ने भी महिलाओं के हक में धार्मिक कानूनों की सीधी-सीधी धज्जियां उड़ाते हुए मनुस्मृति को नष्ट करने का प्रयास तो क्या कभी सपने में भी नहीं सोचा था। इस घटना ने भारतीय स्त्रिायों के हक में क्रांतिकारी भूमिका अपनाई। इस मनुस्मृति दहन तथा चावदार तालाब आन्दोलन में २५०० दलित महिलाओं ने भाग लिया। डॉ० अम्बेडकर के साथ दलित महिला आन्दोलन में वेणुबाई भटकर और रंगबाई शुभरकर ने कई वर्षों तक काम किया। प्रत्येक जाति व वर्ग को मन्दिर प्रवेश का अधिकार है। दलितों को भी मन्दिर प्रवेश का अधिकार चाहिए, इस विषय पर पार्वती मन्दिर व कालाराम मन्दिर पर दलित स्त्रियों ने हजारों धरने दिए, प्रदर्शन किए तथा घायल भी हुई। दलित स्त्रियों के इस अस्मितावादी आन्दोलन में भी हजारों दलित स्त्रियां जुड़ी। इन महिलाओं में सीताबाई, गीताबाई, रमाबाई, नानबाई कावंलो ने सक्रिय भूमिका निभाई। इस पूरे दलित महिला आन्दोलन को या फिर अम्बेडकर कालीन इतिहास १९२७ से ३० तक (अभी हम केवल ३ वर्ष की बात कर रहे हैं जबकि अम्बेडकर कालीन दलित महिला इतिहास १९२४ से लेकर ५६ तक है।) आंकड़े जुटाने का तात्पर्य यही है कि यह सब आंकड़े आसानी से उपलब्ध हैं और अब स्वयं दलित सामाजिक कार्यकर्ता जगह-जगह घूमकर अपने इतिहास को खोजकर, प्रकाशित करवा रहे हैं।सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि आज तक दलित महिलाएं जिन मुश्किलों से रात-दिन जूझती हैं। पानी व आवास, शिक्षा व गरीबी, सामाजिक व जातीय हिंसा आदि समस्याएं तथाकथित नारीवादी आन्दोलन का हिस्सा भी नहीं है। भारतीय नारीवादी आन्दोलन ने हमेशा मध्यम वर्गीय व उच्चवर्गीय, उच्चजाति की औरतों के मुद्दों को ही प्राथमिकता दी है क्योंकि आन्दोलन का नेतृत्व हमेशा इन्हीं महिलाओं के हाथ में रहा है।दीप्ति प्रिया महरोत्रा अपनी पुस्तक 'भारतीय महिला आन्दोलन' में जहाँ पर्यावरण से मुद्दों तथा उनके नेता सुंदर लाल बहुगुणा से लेकर नर्मदा बचाओ जैसे जन आन्दोलन तक को अपने नारीवादी आन्दोलन में जोड़ लेती हैं, वहीं दलित महिलाओं द्वारा पानी और मन्दिर प्रवेश के लिए दो दशक तक चले प्रतीकात्मक विद्रोही आन्दोलन की इन पुस्तकों में गहरी कमी या सरासर उपेक्षा मन को व्यथित कर देती है। इन पुस्तकों में दलिताओं के ऐसे सक्रिय और जुझारू आन्दोलनों का जिक्र तक नहीं किया गया है। पानी जो कि जीवन और सम्मान का आधार है। मन्दिर जिसमें प्रवेश करने का हरेक को बराबर अधिकार है। दलित महिलाओं द्वारा वर्षों तक चलाये गये पानी और मंदिर प्रवेश का अधिकार इन सभ्रांत परिवारों की उच्च शिक्षित, विदुषी महिलाओं द्वारा नारीवादी आन्दोलन व इतिहास में शामिल न करने का एक ही अर्थ निकलता है कि उन्हें दलित महिलाओं के मुद्दों की समझ नहीं है तथा वे स्वयं उच्च जाति की हैं। इसीलिये उन्हें यह अधिकार जन्मजात ही मिल गये। यही कारण है कि दलित महिलाओं द्वारा लड़ी गयी अपने सम्मान और अधिकार की लड़ाई इन इतिहास लेखिकाओं की दृष्टि में शून्य है।चावदार तालाब जो कि सर्वसाधारण के लिए खोल दिया गया था। उसके बावजूद उसमें कुत्ते बिल्ली से लेकर पशु-पक्षी तक पानी पी सकते थे पर दलित नहीं अर्थात्‌ दलितों को पशुओं से भी कम अधिकार थे और दलित समाज में महिलाओं को और कम। वे निरीह, गरीब, दलित, शोषित औरतें दिन भर पानी के लिए इधर-उधर भटकतीं, ऊँची जात की कृपा पर निर्भर रहतीं। गिड़गिड़ाती, रोती पर पानी एक बूंद न पातीं। आखिर में थककर जब उन्होंने इस अन्याय के खिलाफ विद्रोह किया तो, बदले में लाठी, डण्डे खाए। पर वे हिम्मत न हारकर संघर्ष करती रहीं। घर बार छोड़कर बच्चों को कंधे पर लादे असंख्य दलिताएं चावदार तालाब से पानी पीने के लिए कटिबद्ध रहीं। ऐसा जुझारू और मूल्यवान आन्दोलन जो कि नारीवादी इतिहासकारों की दृष्टि से छूट गया या छोड़ दिया गया। ऐसे आन्दोलन की बागडोर दलित महिलाओं के हाथ में थी।डॉ० अम्बेडकर भारतीय स्त्री खासकर, हिन्दू स्त्री जिसमें सवर्ण तथा दलित दोनों की सामाजिक आर्थिक और धार्मिक दुर्दशा को देखकर हमेशा पीड़ित रहते थे। उनकी दशा सुधारने के लिए वो एक ऐसा कानून बनाना चाहते थे जो विशुद्ध रूप से उनकी सामाजिक, कानूनी स्थिति सुधारने में संजीवनी बूटी की तरह काम करें। इसलिए उन्होंने सौ फीसदी औरतों के हक में हिन्दू कोड बिल बनाया। इस हिन्दू कोड बिल को और डॉ० अम्बेडकर, दोनों को कट्टरपंथियों का भयंकर विरोध सहना पड़ा। हिन्दू कोड बिल के विरोध में डॉ० अम्बेडकर को कई बार व्यक्तिगत अपमान झेलना पड़ा। उनके घर पर भी पत्थर बरसाये गये और संसद में भी उनका बहिष्कार किया गया। हिन्दू कोड बिल पास कराने के लिए डॉ० अम्बेडकर के साथ-साथ अनेक दलित गैर दलित महिलाओं ने भारतीय महिलाओं की सामाजिक व आर्थिक लड़ाई लड़ी है। किन्तु अफसोस की बात है कि हिन्दू कोड बिल पर चलाया जाने वाला आन्दोलन भी तथाकथित नारीवादियों के द्वारा उपेक्षित कर दिया गया। हिन्दू कोड बिल पर दुर्गाबाई देशमुख और उनके महिला जत्थे ने डॉ० अम्बेडकर के साथ गांव-गांव, नगर-नगर घूमकर सभा और जनसभाओं में भारतीय महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक दुर्दशा के चित्र खिंचे।हिन्दू कोड बिल के समर्थन में दुर्गाबाई देशमुख ने तो साक्षात्‌ दुर्गा या चन्डी का रूप धारण कर लिया था। एक महिला जो पुरानी रूढ़िवाद की पोषक थी, उन्होंने कहा कि हमारा आदर्श सीता, सावित्री और द्रौपदी है।
हम सवर्ण नारियों को तलाक जैसी निन्दनीय पद्धति पर चलता नहीं देखना चाहते। हिन्दू नारी कोई आम सड़क नहीं है, जिस पर प्रत्येक व्यक्ति मनमाने ढंग से खुलेआम चल सके। दुर्गाबाई ने उनकी खूब खबर ली और कहा कि द्रौपदी के एक समय में ही पाँच पति थे। क्या हम हिन्दू नारियों का भी यही आदर्श होना चाहिए? दुर्गाबाई देशमुख का मानना था कि भारत की स्वाधीनता केवल पुरुषों के लिए ही प्राप्त नहीं की गई है, बल्कि इसमें नारी जाति के कल्याण का महान उद्देश्य और उनके कल्याण का ध्येय भी शामिल है। दुर्गाबाई देशमुख मीटिंग में ऐसे अकाट्य तर्क रखतीं जिससे कट्टरवादियों के मुंह बंद हो जाते थे तथा सारी गोष्ठी पर उनकी धाक छा जाती थी। अक्सर डॉ० अम्बेडकर और महिला साथियों द्वारा आयोजित हिन्दू कोड बिल चर्चा सभाओं में कट्टर पंथियों द्वारा सीधा हमला कर दिया जाता था और चर्चा सभाओं को जबरदस्ती बंद करा दिया जाता था। उस समय के अखबार भी हिन्दू कोड बिल के खिलाफ अनेक भड़काउ लेख छाप रहे थे उस समय देश का माहौल डॉ० अम्बेडकर और उनकी महिला साथियों के खिलाफ विषाक्त हो गया था। परन्तु ये सब डटे रहे। आखिर में जब हिन्दू कोड बिल संसद में पास न हो सका तब डॉ० अम्बेडकर ने विरोध स्वरूप संसद से त्यागपत्र दे दिया।हिन्दू कोड बिल पर डॉ० अम्बेडकर का मानना था कि वे हिन्दू कोड बिल पास कराकर भारत की समस्त नारी जाति का कल्याण करना चाहते थे। उन्होंने हिन्दू कोड बिल पर विचार होने वाले दिनों में अनेक सवर्ण जाति से सम्बन्ध रखने वाली क्रूर अत्याचारी, शराबी, कबाबी, एैबी पतियों द्वारा परित्यक्ता अनेक युवतियों और प्रौढ़ महिलाओं को देखा था, जिन्हें उनके पतियों ने त्यागकर उनके जीवन-निर्वाह के लिए नाममात्रा का चार-पाँच रुपया मासिक गुजारा-भत्ता बांधा हुआ था। अक्सर तो पति इतना भत्ता नहीं देते थे। ये परित्यक्ता औरतें गुलामी और दरिद्रता भरा जीवन जीने को मजबूर थीं। इन औरतों की ऐसी दयनीय दशा को देखकर इनके माता-पिता, भाई-बन्धु भी दुःखी रहते थे। क्योंकि इन परित्यक्ता औरतों के दुःख को खत्म करने वाला, कोई कानून नहीं था। हिन्दू कोड बिल ही वह कानून हो सकता था जो ऐसी दीनहीन, दुःखी-सताई औरतों के पक्ष में खड़ा हो सकता था। कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दू कोड बिल भारतीय स्त्रियों की सोचनीय दशा में आमूल-चूल परिवर्तन लाने वाला कानून था। जिसमें समाज में किसी भी रूप व परिस्थिति में सताई गई औरतों के हक में दोषियों के लिए दण्ड का प्रावधान था। इस बिल के द्वारा डॉ० अम्बेडकर और उनकी महिला साथी महिलाओं की स्थिति में कानूनी सुधार व हक के लिए प्रयास कर रहे थे।यह आन्दोलन लगभग ५ सालों तक चला जिसमें अनेकों-अनेक दलित व गैर दलित महिलाएं जुड़ीं। इस आन्दोलन का मकसद ही सामाजिक न्याय दिलाना था जिसका वर्षों से हनन होता आ रहा था। ऐसे क्रांतिकारी मूल्यपरक आन्दोलन पर चुपी साध लेना या मात्र सतही जानकारी देना न तो दलित महिला आन्दोलन के साथ न्यायपरक और न ही भारतीय महिला आन्दोलन के लिए लाभदायक। सच्चा इतिहास वही है जो तटस्थ हो परन्तु मुख्यधारा के प्रति अति संवदेनशील हो अगर ऐसा नहीं होता है तो वह समय दूर नहीं जब मुख्यधारा के लोग ऐसे एकांगी पक्षपाती दुर्भावना से प्रेरित होकर लिखे गये इतिहास को फाड़कर फेंकने से नहीं हिचकेंगे।

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कबीर और जायसी की प्रेम व्यंजना

डॉ० आशुतोष पार्थेश्वर

कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरष्या आइ।
अंतरि भीगी आत्माँ हरी भई बनराइ॥
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मुहमद कवि जो प्रेम का ना तन रकत न मांसु।
जेई मुख देखा तेइ हंसा सुना तो आये आँसु॥
यदि विकास के वर्तमान मॉडल और भक्तिकाव्य को आस-पास रखें तो भक्तिकालीन कविता हमें मुँह चिढ़ाती नजर आती है, हम पर हँसती हुई मालूम होती है। उसकी हँसी में हम पर व्यंग्य है और दया भी। वह हमारी ऐतिहासिक निष्फलता को बयाँ करती है। हमारे आगे दर्पण रख देती है ताकि हम अपने को पहचान सकें। हमें मालूम हो सके कि हम जितना आगे बढ़ रहे हैं, उतना ही स्वकेन्द्रित हो रहे हैं। व्यवस्था से असहमति वाला वह साहस अब नहीं, उसकी जगह एक घुन्नापन है स्वार्थपरता है। कहना न होगा ऐसे में भक्तिकाल के चारों बड़े रचनाकार अपनी सीमाओं के बावजूद अपनी निष्कलुष मानवता, अकुंठ संवेदना और अपने प्रति संसार के साथ निरंतर प्रासंगिक होते जा रहे हैं। उनकी पूरी यात्रा संवेदना की यात्रा है। कबीर के उक्त दोहे का मर्म इसी में है।
कबीर प्रेम का बादल होना चाहते हैं, कौंध पैदा करना नहीं, बिजली चमकाना नहीं, बरसना चाहते हैं, ताकि आत्मा भींगे, हर कोई भींगे, कलुषता खत्म हो, मैल दूर हो, घृणा न रहे, ओछापन हटे, क्षुद्रता, लोभ-लालच न बचे, और हरियाली आए। नयापन आए। जीवन आए। पूरी प्रकृति प्रेम के रंग में रंग जाए। एक निष्ठुर समाज में यह कबीर की इच्छा है और यह जायसी की भी।भक्ति काव्य जागरण का काव्य है। स्मरण रहे, यहाँ भक्ति और जागरण अलग-अलग नहीं है। अपने ईश्वर की पहचान, उससे लगाव, उससे प्रेम ही उन्हें यह ताकत देती है जिससे कि वे मौजूदा संसार से अपनी असंतुष्टि दिखाते हैं और प्रतिसंसार की अपनी परिकल्पना प्रस्तुत कर पाते हैं। यह जागरण ठस्स बुद्धिवाद नहीं है। यहाँ तो सारा खेल, सारी पहचान, सभी घेरे प्रेम के हैं। हृदय के हैं।
इसलिए भी कि भक्त कवि अपने समय में सबसे उपेक्षित इसी हृदय को पाते हैं। इसी से सबसे अधिक बल प्रेम पर है। आपसदारी पर है। भक्त कवियों के अपने अंतर्विरोध हैं, पर उनके प्रतिसंसार का जो मॉडल है वह इन अंतर्विरोधों और सीमाओं से काफी बड़ा है।
कबीर जिस हरेपन की बात करते हैं, वह जिन्दगी का उल्लास है, आत्मा की तृप्ति है। स्पष्ट है कि यह गैर बराबरी के रहते संभव नहीं। कबीर इसी गैर बराबरी के खात्मे के लिए लाठी लेकर चलते हैं। यह कबीर का काल-यथार्थ है जो इतने ही तीखेपन के साथ जायसी में भी है।विजयदेव नारायण साही ने जायसी में इसका उल्लेख किया है कि पद्मावत केवल प्रेम का नहीं, युद्ध का भी ग्रन्थ है। संघर्ष, युद्ध और आतंक यह जायसी के समय का यथार्थ है। पद्मावत में जितना प्रेम है, उतना ही युद्ध है; जितना मन के भीतर दिपता हुआ सिंहल लोक है, उतना ही टूटे हुए दुर्गों की धूल उड़ाती हुई वीरानगी है, जितना अपने हाथ से सिर उतार कर जमीन पर रख देने की तड़प है, उतना ही वैभव का प्रदर्शन है; सत है, साका है। जायसी अपने समय से मुँह नहीं छिपाते। दिल्ली और शेष भारतीय समाज के बीच जो खाई है और उस खाई को युद्धों के माध्यम से, आतंक के रास्ते पाटने की जो कोशिश है; पद्मावत उसी का गवाह है और प्रतिकार भी।पद्मावती का आकर्षण ही दोनों को बाँधता है - रत्नसेन को भी और अलाउद्दीन को भी। पर दोनों विपरीत भूमिकाओं में हैं। रत्नसेन प्रेम के लिए भिखारी बनता है तो अलाउद्दीन आक्रमणकारी। चित्तौड़ की विजय तो होती है, पर पद्मावती कहाँ?
जायसी लिखते हैं - आइ साहि सब सुना अखारा। होइगा राति देवस जो बारा।/छार उठाइ लीन्हि एक मूठि। दीन्हि उड़ाइ पिरिथिमी झूठी॥/जौहर भइ सब इस्तिरी, पुरुष भए संग्राम।/बादसाह गढ़ चूरा चितउर भा इस्लाम॥पद्मावती कहाँ ? वह तो राख है। वह रूप कहाँ गया ? पद्मावती कहाँ गई? पद्मावती राख हो गई। चित्तौड़ टूटा। गढ़ टूटा। अलाउद्दीन जीता। रत्नसेन हारा। पर सच कहें तो जीतती केवल पद्मावती ही है। स्वयं को राख कर देना। यह स्वाधीनता की आकांक्षा है, अपने प्रेम की रक्षा है। हम अतिरिक्त शाबासी न दें, पर पद्मावती और पद्मावती के स्रष्टा जायसी दोनों की मनः स्थिति को समझने की कोशिश करें।अलाउद्दीन को इतनी बड़ी विजय भी व्यर्थ मालूम होती है - पृथ्वी झूठी है। बगैर प्रेम के झूठी है। जायसी इसी से कहते हैं - मानुस पेम भयउ बैकुंठी। नाहिं त काह छार एक मूठी।/पेम पंथ जौं पहुँचै पाराँ। बहुरि न आइ मिलै एहि छाराँ॥यह बैकुंठ प्रेम से अलग नहीं है, धरती से अलग नहीं है। अगर प्रेम है तब ही मनुष्य-मनुष्य है। धरती-धरती है और कहें कि तब धरती ही बैकुंठ है।प्रेम का यह जो ताना-बाना है जायसी के यहाँ, कबीर इसी प्रेम से अपनी चदरिया बनाते हैं। दुनिया वालों को केवल और केवल प्रेम पर भरोसा करने को कहते हैं - पोथि पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय।/ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय॥प्रेम के अतिरिक्त सभी शास्त्रा बेकार हैं, प्रेम से शून्य सारे शास्त्रा शून्य हैं। सारा ज्ञान बोझ है, मझधार में डुबोने वाला है, पार-लगाने वाला नहीं है। यह प्रेम दुनिया के बाहर की चीज नहीं है इसे जायसी भी मानते हैं और कबीर भी।
यह प्रेम मध्य युग में भी आवश्यक था और आज भी है। बिना रक्त, माँस और तन के जायसी जब खुद का परिचय प्रेम के कवि के रूप में देते हैं और आँसू की बात करते हैं तो इसलिए कि वह कवि के काव्य का विषय मात्र नहीं है, कवि के समय का अभाव भी है।पद्मावती में रूप की कौंध जरूर है, पर महत्त्वपूर्ण रूप की गाथा का प्रेम की गाथा में अंतरण है। क्योंकि वहाँ प्रेम केवल रक्त, माँस और तन का नहीं रह जाता; वहाँ आँसू का खेल है, करूणा का संसार है, संवेदना की एक विराट दुनिया है जो शारीरिक सौन्दर्य को धता बताते हुए मन की खूबसूरती को केन्द्रत्व देता है। रूप की हिंसक तृष्णा बेकार है, जायसी पद्मावत से यही बोध कराते हैं - जौ लहि ऊपर छार न परै। तौ लहि यह तिस्ना नहिं मरै॥बेशक, कबीर और जायसी दोनों ही ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रेम की भाषा बोलते है और सुनना भी चाहते हैं।कबीर और जायसी दोनों ही में रहस्यवाद को स्वीकारा जाता है, हम इस रहस्यवाद को तत्काल स्थगित कर, कबीर और जायसी में प्रेम की ठेठ देशज और लौकिक उपस्थिति को महसूसने की कोशिश करें। यों प्रेम अध्यात्म का पेटेंट माल है भी नहीं। दोनों कवियों के यहाँ प्रेम की जितनी छवियाँ हैं वह आम जन जीवन के अनुभवों से उपलब्ध हुई हैं।प्रेम के धरातल पर खड़े होते ही दोनों कवि भारतीय नारी के पास खींचे चले आते हैं। जायसी अपनी संपूर्ण भावुकता के स्त्री जीवन के अनुभवों कष्टों का परिचय देते हैं तो कबीर स्वयं को एक स्त्री के साथ रूप में ही ढाल लेते हैं।
नामवर सिंह ने लिखा है - कबीर के लोकप्रिय पद वे हैं जहाँ वे एक भारतीय नारी की तरह अपने नैहर और ससुराल की बातें करते हैं। पिया का घर प्यारा तो लगता है, लेकिन पिता के घर का छूटना भी कम दुखद नहीं। मध्यकालीन गीत काव्य में भारतीय नारी की ऐसी जीती जागती तस्वीर शायद ही कहीं मिले। स्त्री जीवन की इस चित्रावली में स्त्री हृदय की गहरी वेदना के साथ कुछ सुहाने सपने भी हैं। वेदना अधिक सपने कम। सपनों में ऐंद्रिय सुख की तलाश है, तो यथार्थ में विरह की आन्तरिक टीस और जल्द से जल्द मिलने की उत्कट तड़प। ऐसा ही एक पद देखें - ए अँखियाँ अलसानी पिया हो सेज चलो।/खंभ पकरि पतंग अस डोलै, बोलै मधुरी बानी।/फूलन सेज बिछाइ जो राख्यौ, पिया बिना कुम्हलानी।/धीरे पाँव धरौ पलंग पर, जागत ननँद जिठानी।/कहत कबीर सुनो भई साधो, लोक-लाज बिछलानीमिलने की बेचैनी भी और लाज की ललाई भी। इच्छा और संकोच के बीच जो चीज कौंधती है-जागत ननँद जिठानी। यह समूचे पद को भारत के ग्रामीण परिवारों का एक सहज, सुलभ चित्र बना देता है। ये दृश्य कबीर से भी पहले विद्यापति में मिलते हैं। वस्तुतः एक क्लासिक कवि की यह पहचान है कि वह अपने समाज को, उसकी बनावट और बुनावट को कितने गहरे जाकर पकड़ पाता है।कबीर के काव्य का श्रेष्ठांश वही है जहाँ वह अपने प्रिय के विरह में तड़पते नजर आते हैं और बकौल नामवर सिंह जहाँ से भारतीय नारी के जीवन की अनगिनत नाजुक स्थितियों की पहचान हो जाती है। अकेली स्त्री की पीड़ा देखें - कै विरहिन को मीचु दै कै आपा दिखलाय।/आठ पहर का दाझना मोपै सहा न जाय।'
अथवा - यह तन जालौ मसि करौं लिखौं राम का नाउँ।/लेखणि करुँ करंक की, लिखि लिखि राम पठाऊँ॥कबीर के प्रेम में पूर्ण समर्पण है, अपने राम के प्रति, अपने प्रिय के प्रति; किसी दूसरे का सवाल ही कहाँ उठता है? राम में ही रमना है - कबीर रेख सिंदूर की काजल दिया न जाइ।/नैनूं रमइया रमि रइया, दूजा कहाँ समाइ॥इसे ही घनानंद ने कहा है - यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।'' सर्वस्व राम का। मेरेपन का बोध और प्रेम रस का पान साथ-साथ नहीं हो सकता। राम नाम से भक्ति की जो गूज सुनाई पड़ती है। उसे सुनने से पहले हम उस प्रक्रिया को निथारें जिसके तहत कबीर उस बेचैनी, तड़प, प्रेम की उत्कटता और एकनिष्ठता को पा सके थे। निस्संदेह, यह एक भारतीय स्त्री के अनुभव हैं। कबीर पर राम से प्रेम की बेलि चढ़ गई है, और जिस पर प्रेम की बेलि चढ़ गई, जायसी के अनुसार उस पर कुछ और नहीं चढ़ सकता - प्रीति अकेली बेलि चढ़ि छावा। दूसरि बेलि न संचरै पावाप्रेम ईश्वर प्राप्ति का सबसे सुलभ और विश्वसनीय मार्ग है, पर यह एकदम आसान नहीं है। कबीर और जायसी दोनों ही इसे मानते हैं - कबीर यह घर प्रेम का खाला का घर नाँहि।/सीस उतारे हाथि करि सो पैसे घर माँहि।/पेम पहाड़ कठिन विधि गढ़ा।/सो पै चढ़ा सौ सीस चढ़ा।गौरतलब है कि प्रेम की यह उपस्थिति समाज की उपेक्षा करके नहीं है। आचार्य शुक्ल ने उचित ही पद्मावत में फारसी मसनवियों का प्रभाव और उससे कहीं अधिक भारतीयता देखी थी। फारसी परंपरा में प्रेम लगभग लोक विमुख होता है, जबकि भारतीय कहानियाँ लोकपक्ष का तिरस्कार नहीं करती हैं।
भारतीय कहानियों में प्रेम वायवीय नहीं होता, वह धरती के किसी कोने का ही होता है। वहाँ लोक-जीवन के चित्र और चेतना दोनों होते हैं। वहाँ जीवन और मर्यादा दोनों का परिपाक मिलता है। इन कहानियों में अपने समय को सँभालने वाली एक कोशिश होती है, दृष्टि होती है। प्रेम कितना भी उदात्त हो जाए, अशरीरी हो जाए, उसमें आध्यात्मिक संस्पर्श हो, पर यदि वह अपने काल-यथार्थ से कटा हो; तो भले वह प्रशंसनीय हो जाए, हमारे जीवन-संबंधो, आवेगों-संवेगों की अनुकृति नहीं हो सकता। यहाँ हम विद्यापति, बिहारी और घनानंद को देखें। विद्यापति प्रसंग में आचार्य शुक्ल ने आध्यात्मिक रंग के चश्मे की बात ही है और एक तरह से विद्यापति की पदावली की आध्यात्मिक व्याख्याओं को नकारा है। ध्यान रहे, विद्यापति के समूचे काव्य में नायकत्व कृष्ण को नहीं, राधा को प्राप्त है और यह राधा उत्तर बिहार में रहने वाली एक आम औरत से अलग नहीं है। जिसका पति रोजी-रोटी के लिए निरंतर परदेश ही रहता है। पलायन की समस्या विद्यापति के सात सौ साल बाद भी जस की तस है, अकारण नहीं कि विद्यापति आज भी मिथिला में जीवित हैं। अपने पदों में समायी वेदना और करूणा के जरिए।रीतिकाल के दो बड़े कवि घनानंद और बिहारी को लें तो आचार्य शुक्ल की दृष्टि में घनानंद का पलड़ा थोड़ा नहीं, बहुत भारी है। वहाँ प्रेम की पीड़ा, स्वाभाविकता, उदात्तता सब है जबकि बिहारी में केवल एक दर्शक है। जो मध्यवर्ग से आता है और सामंती संस्कार ओढ़ता है, जिसके पास अपूर्व सौंदर्यग्राहिणी दृष्टि है, पर जो दरबारी माँग के चित्र दिखलाने में ही थक जाती है। बावजूद हम कह सकते हैं कि घनानंद में प्रेम के तमाम स्वाभाविक और करूण चित्रों के होते हुए भी तत्कालीन समय और समाज की यथार्थ पहचान बिहारी से ही होती है। ऐसे में विद्यापति की दुर्लभता, कबीर का महत्त्व और जायसी की विशिष्टता स्पष्ट हो जाती है, जहाँ प्रेम की ऊँचाई भी है, देह का स्वीकार भी और भारतीय जन-जीवन की अभिव्यक्ति है।जायसी प्रबंधात्मक प्रतिभा के कवि हैं और उनके पास इसका पर्याप्त अवसर है कि मार्मिक प्रसंगों की व्यंजना कर सकें। नागमती का विरह वर्णन तो ख्यात ही है। आचार्य शुक्ल उचित ही उस पर मुग्ध है, वियोग का समाजीकरण उसे विश्वसनीय मार्मिक देता है। शुक्ल जी ने लिखा है - रानी नागमती विरह दशा में अपना रानीपन भूल जाती है और अपने को केवल साधारण स्त्री के रूप में देखती है।... यह आशिक माशूकों का निर्लज्ज प्रलाप नहीं है, यह हिन्दू-गृहिणी की विरह वाणी है। जायसी नागमती के पक्ष में खड़े होकर नागरता की आलोचना करते हैं - नागरि नारि काहुँ बस परा। तेइँ बिमोहि मोसौं चितु हरा।इस विरह वर्णन में ÷काम' की उपस्थिति भी है - पिउ बियोग अस बाउर जीऊ। पपिहा तस बोलै पिउ पीऊ॥/अधिक काम दगधै सो रामा। हरि जिउ लै सो गएउ पिय नामा॥तो, सुख सुविधाओं की लालसा से अलग अत्यन्त नम्र शीतल प्रेम की भी झलक है - हमहु वियाही संग ओही पीऊ। आपुहि पाई, जानु पर जीऊ॥/मोहिं भोग सौं काज न बारी। सौंह दिस्टि के चाहनहारी॥और अंत में नागमती और पद्मावती का जौहर परकीया प्रेम के उस युग में गार्हस्थिक प्रेम की मर्यादा की रक्षा के लिए है, जहाँ जायसी भावुक हो उठते हैं - गिरि समुद्र ससि मेघ रवि, सहि न सकहिं वह आगि।/मुहमद सती सराहिए, जर्रे जो अस पिउ लागि।शिव कुमार मिश्र ने उचित लिखा है कि जायसी पद्मावत लिखते नहीं, रचते हैं और जैसा कि साही ने कहा है कि पद्मावत का पूर्वार्द्ध ही नहीं उत्तरार्द्ध भी जायसी की कल्पना है, तो हम जायसी की पीड़ा को समझें कि अपनी सबसे सुंदर परिकल्पना को आग में झोंकते हुए वे क्या महसूस कर रहे होंगे ? इसे इतिहास की विडंबना कहें या समकाल का दबाव। पर सच है कि कथा का यह त्रासद अंत मध्यकाल के चेहरे को और चिथरा कर देता है।मध्यकाल के ये दोनों कवि अपनी प्रतिबद्धता सहिष्णुता और स्वतंत्राता के प्रति स्थिर करते हैं। अपने समय की चिन्ता और भविष्य के सपने दोनों ही इनके पास हैं। तिरस्कार है तो क्षुद्रता का, कृतित्रामता का। स्वीकार है मनुष्यता का, विवेक का, प्रेम का। कबीर और जायसी दोनों ही कवियों के यहाँ प्रेम दर्शन की चीज नहीं, जीवन की वस्तु है। विराट सांस्कृतिक चेतना और उदार मानवता की उपस्थिति प्रेम की जमीन पर खड़े होने से संभव हो सकी है।

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Tuesday, December 9, 2008

नारी शोषण की अनंत कथा

- डॉ. सुनीता गोपालकृष्णन‘

अनादि अनंत' उपन्यास का कलेवर छोटा है लेकिन इसमें एक भारतीय नारी के उत्पीड़ित से उत्पीड़क बनने की लंबी कथा कही गई है। ‘कालचक्र' और ‘ज्वार' के बाद मधु भादुड़ी का यह तीसरा उपन्यास है। मूल समस्या स्त्री की है जो उपन्यास में शुरू से अंत तक बनी हुई है। नारी-लेखन मुख्यतः नारी समस्या पर ही तो केन्द्रित है। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा शादी का रहा है जो प्रायः नारी जीवन की दुर्दशा का मेरुदण्ड बनता है। क्योंकि अक्सर शादी का अर्थ होता है ‘एक दासी लाकर घर में बिठाना और उस पर मनमानी हुकूमत करना। कमली के माध्यम से मधु भादुड़ी जिस स्त्री-दुख को अनावृत्त करती है वह नारी-विमर्श का बिल्कुल ही नया संदर्भ है। एक ओर नारी का वह पतिव्रता और आदर्श रूप सामने आता है जो शोषण की चक्की में पिसती और घुटती है। तो दूसरी ओर वही शिक्षा के बल पर और युग के बदलाव के अनुरूप प्रबल और सशक्त रूप धारण करती है। स्त्री-उत्थान की बात जब भी उठाई जाती है तब पुरुष वर्ग पर लांछन लगाई जाती है। लेकिन इस उपन्यास में युग-युग से प्रताड़ित नारी ही नारी व्यक्तित्व का बदला ले रही है। अतः नारी के संदर्भ में जिन साहित्यिक मान्यताओं को आज तक स्वीकृति मिली है उन पर यह उपन्यास बड़ा आघात पहुँचाने वाला साबित होता है।कमली की शादी बहुत ही कच्ची उम्र में एक निकम्मे, कायर, कमजोर आदमी से होती है। घर पर उसके तीन भाई और बाप थे। सास की कमी को ससुर पूरा करते थे। घर में एक अकेली औरत थी। इसलिए घर का सारा भार उसे अकेला ढोना पड़ा। पड़ोस की स्त्रियों से घुलने मिलने की इजाजत भी नहीं थी। अकेली लड़की को चौधरी परिवार के ‘भूतों' और ‘भैंसों' के बीच गुजारा करना पड़ा। खूब काम करके रात को जब वह नींद के आलस्य में डूब जाती है तब चौधरी का खून उबलता है। वह तो मर्द था और भला अपनी शारीरिक भूख को क्यों रोकता। पुरुष नपुंसक और स्वयं सामर्थ्यहीन होते हुए भी स्त्री को उपभोग्या से बढ़कर नहीं समझता। वह उनकी भावनाओं का आदर नहीं करता और अपनी पत्नी को पीटकर या बलात्कार करके अपने पराजयबोध और हीनताग्रंथि को छिपाते है। चौधरी की क्रूरता को लेखिका इस प्रकार व्यक्त करती है - ‘भैंस पालते-पालते चौधरी परिवार न जाने कैसे बन गया था। यद्यपि भैंसे अपने साथी संगियों पर बेबात प्रहार नहीं करती लेकिन चौधरी कमला पर अक्सर प्रहार करता था।''१ पति के प्रताड़नाओं के बावजूद वह हमेशा अपने मान-सम्मान को पति के मान-सम्मान के साथ जोड़कर देखती थी। कमली की असहाय हरकतें चौधरी को अपनी ताकत का सुखद एहसास प्रदान करती थीं। लेखिका ने यशपाल चौधरी के माध्यम से पुरुष के अस्तित्वहीन चरित्र को दिखाया है तो दूसरी ओर उसकी सामंती मानसिकता को। समाज में स्त्री-पुरुष असंतुलन का मूल कारण एक वर्ग द्वारा दूसरे के विरुद्ध अपनायी जाती है। इस तरह लेखिका ने उन परिस्थितियों का विश्लेषण किया है जो स्त्री को अंतर्मुखी, अमूर्त और ऋतु बना देती है।बेटियों के अवमूल्यन की शुरुआत मायके से होती है। वे खुद लड़कियों को अवांछित मानते हैं। तीन-चार जवान बेटियों को घर पर बिठा रखने से माँ-बाप के ऊपर बोझ होता है। इसलिए उसकी शादी तय हो जाती है। नतीजा यह कि अपनी पसंद या रुचि का जिक्र वह खुद से भी नहीं कर पाती और उसके लिए अपने जीवन की पूर्व निर्धारित दिशा को स्वीकारने के अलावा कोई सवाल ही नहीं उठता। कमली एक मामूली परिवार की छः या सात बेटियों में तीसरी या चौथी थी। वह पढ़ाई में अपने सहपाठियों में सबसे होशियार लड़की थी। यही नहीं उसे घर के कामकाज या रसोई में कोई लगाव न रहकर किताबों में ज्यादा रुचि थी। लेकिन विडम्बना यह कि सत्राह वर्ष की अवस्था में वह निरीह बालिका एक क्रूर और हीन मनोग्रंथि वाले पुरुष से जुड़कर भविष्यहीन भविष्य में बंध जाती है। इसके फलस्वरूप उसके जीवन में प्रेम, समर्पण, त्याग आदि भावनाएँ मौजूद नहीं रहतीं जो दाम्पत्य जीवन का आधार होती हैं। इसी कारणवश शादी के बाद कमली तीन बच्चों की माँ बनती है। लेकिन इस अन्याय से बेखबर रह जाती है। लेखिका के शब्दों में ‘जिसकी आँखों ने सावन की फुहार न देखी हो उसे अनायास उस फुहार से उठती महक की लहर ताजा कर जाती है या उसकी भीगी हवाओं का स्पर्श सहला जाता है। कमली उस लहर के अनोखे जादुओं से अपरिचित रही।'२ लेखिका की राय में कमली सम्पन्न कंगाली में जा पड़ी थी। लेकिन वह अपने भीतर की कसक को बाहर की सम्पन्नता के नीचे दबा लेती है। वह रोती हुई किसी ईश्र्वर के शरण में नहीं जाती। इस तरह मधु भादुड़ी यह स्पष्ट करती है कि स्त्रियों द्वारा अपनी अस्मिता की सही खोज शिक्षा और उसके द्वारा प्राप्त जीविकोपार्जन की क्षमता से ही संभव है।जीवन की विपरीत परिस्थितियाँ कमली को सक्षम्‌ बनाती हैं। वह अपने पति के भाइयों को ठिकाना लगाने के लिए डेरी खोलने का निश्चय करती है। समय निकालकर वह अखबार पढ़ने लगती है। कम पैसों पर घर चलाने की क्षमता हासिल करती है। घर के बाहर खुली हवा के झोंके उसे एक नया उत्साह और ताज+गी प्रदान करते हैं। कमली पुरुष वर्चस्व के दमन और शोषण से मुक्ति का आग्रह करने लगती है। स्वावलंबन के उच्च शिखर पर पहुँचकर जब कमली निर्णय लेती है तब पुरुष मानसिकता उस पर साजिश का आरोप लगाती है। लेकिन वह हार मानने को तैयार नहीं है। असंतोष और विद्रोह की भावना कमली को राजनीतिक रूप से भी सक्रिय बनाती है। वह एक सामान्य विवाहिता और माँ के स्तर से ऊपर उठकर बुनियादी मूल्यों और वसूलों वाली नारी बन जाती है। बेटे का फिजूलखर्च इतना बढ़ जाता है कि वह खुद कमाऊ बहू का एहसास करती है। वह चाहती है कि बहू ऊँचे कुल की हो ताकि नकद में ज्यादा पैसे मिले। इस तरह शोषित होते-होते स्वयं जब वह परिवार का पालनहार बनती है तो शोषक की भाषा बोलने लगती है। यहाँ से उपन्यास की कथा एक नया मोड़ लेती है।कमली जब ससुराल आयी थी तब उसे अपना घर समझकर सारा बोझ ढोना शुरू कर दिया था जबकि उनकी बहुएँ रेनू और वीणा ससुराल को अपना घर नहीं समझ पाई। रेनू कामकाजी औरत थी और कमली उससे घर का सारा काम करवाती थी। उसे अपनी तनख्वाह सास को सौंप देना पड़ा। पति-पत्नी के बीच जब झगड़ा या मारपीट होती तो रेनू की चीख सुनाई देती। कमली को इससे और गुस्सा आती। ‘यह रोना कैसा? इन्हीं दीवारों ने घुट-घुटकर आँसू पिए थे। तो उस चुडैल को सिसककर रोने की छूट किसने दी।'३ यानि कि शोषण का सिलसिला कभी नहीं बदला। औरत-औरत के प्रति ईर्ष्या का कारण पुरुष-ईर्ष्या ही हो सकती है।जब रेनू ने एक बच्ची को जन्म दिया तब पहले कमली उसे देखना नहीं चाहती थी। लेकिन धीरे-धीरे माँ की ममता और स्नेह उसमें कुछ बदलाव लाया। तब तक दोनों बहुएँ सास के व्यवहार के प्रति प्रतिक्रिया करने लगीं। पोती के प्रति कमली के अपार प्रेम को देखकर रेनू अपने गुस्से को उस पर उतारने लगी। जब कमली बीमार पड़ गई तब दोनों बहुएँ उसकी सेवा से विरत हो गईं। प्रदीप की नजर तकिए के आसपास मंडरा रही थीं जहाँ कमली की आलमारी की चाबियाँ होने की संभावना थी। उसे कुछ पैसों की जरूरत थी। जब अस्पताल ले जाने के लिए कमली को उठाया जाता है तब उसकी क्षीण आवाज सुनाई दी - ‘मुझे मत उठाओ, यहीं रहने दो। उसे पता नहीं कि मुझे भी भीष्म पितामह का वरदान मिला है।''४ इतना कहकर कमली के हाथ टाँग के प्लास्टर के अंदर रखी चाबियाँ धीरे से निकलकर मुट्ठी में बंद कर दी। यह कोई दुर्बल या असहाय वाणी प्रतीत नहीं होती, न ही वह कोई बेहोशी का बड़बड़ाना है। यह शोषण की अवचेतन धारा है जो सदियों बहती आ रही है और अनन्त तक बहती चली जाएगी। यह निश्चय ही किसी शोषक या सत्ताधारी का कथन है कि उसे स्वच्छंद मरण का वरदान मिला है। चाहे उसे ‘वरदान' कहे या ‘अभिशाप'। उसे प्रारब्ध के बहाव से कभी छुटकारा नहीं मिलता। शोषण का बहाव निरन्तर बना रहेगा चाहे वह पुरुष का नारी के प्रति हो या औरत का औरत के प्रति।सम्पूर्ण उपन्यास कमली की शोषित से शोषक बनने की कथा पर केन्द्रित है। आरम्भ में कमली एक परम्परावादी स्त्री और पत्नी की हैसियत से अपने पति के कोप और ताड़ना को निःशब्द सहती है और उसके आत्मसम्मान और इज्जत को बचाती रहती है। लेकिन इस शोषण में वह घुट-घुटकर मरती नहीं बल्कि इससे मुक्ति चाहती है। वह अपनी कर्तव्यपरायणता, मानसिक वेग और प्रेरणा के प्राबल्य से अपने परिवार का पालनकर्ता बन जाती है। इस प्रकार जब स्त्री पुरुष के दबाव से ऊपर उठती है, तब उसके व्यक्तित्व का विकास हो पाता है और वह पारिवारिक और सामाजिक जीवन की धुरी बन जाती है।उपन्यास में स्त्री-चरित्रऔर विश्लेषण नारी-मनोविज्ञान का सहारा लेकर किया गया है। घरेलू जिम्मेदारियाँ और निरन्तर उपेक्षा उसके लिए मानसिक तनाव का कारण बन जाती हैं। इसके फलस्वरूप वह अस्वाभाविक रूप से क्रूर, हृदयहीन और विद्रोहिणी बन जाती है। इसलिए कमली के जीवन का उत्तरार्द्ध उसके पूर्वार्द्ध की प्रतिक्रिया बनता है। पुरुष के कोप और प्रताड़ना को सहने के कारण उसके मन में पुरुष, ईर्ष्या जागृत होती है जिसके फलस्वरूप वह औरत के साथ अन्याय करती है।भारतीय विदेश सेवा में कार्यरत और प्रायः विदेश में ही रहने वाली लेखिका ने तेजी से बदलती भारतीय परिवेश और संस्कृति के यथार्थ पर पैनी नजर रखी है। अपने रचनाकर्म से उसने यह साबित भी किया है। ‘अनादि अनंत' में लेखिका ने अनादि से अनंत तक बहती जाने वाली नारी शोषण पर प्रकाश डाला है और इस शोषण से मुक्ति की कामना भी की है। राजनीतिक, सामाजिक और पारिवारिक जीवन की विसंगतियाँ उपन्यास को समकालीनता से अंतर्ग्रन्थित करती हैं।

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नई सदी में कबीर

शिवकुमार मिश्र
तमाम सारी चुनौतियों और सवालों से घिरे, टूटे और फिर से बन रहे सपनों तथा वर्तमान और भविष्य की ढेर सारी आशाओं-आशंकाओं के साथ आज हम २१ वीं सदी की दहलीज पर हैं। पिछली सदी और सदियों का बहुत कुछ हम छोड़ आए हैं, उस सदी और पहले की सदियों के खाते में। किन्तु पिछली सदी और पहले की सदियों का तमाम कुछ हमारे साथ नई सदी में आया भी है, लाया गया है।
यह जो हमसे बहुत कुछ छूटा या छोड़ा गया है, अथवा हमारे साथ आया अथवा लाया गया है, वह हमारे जाने भी हुआ है और अनजाने भी। इस नई सदी में हमारे विचार का मुद्दा-महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि हम इस आना-जाना की परख और पहचान करें। जो कुछ नई सदी के हमारे सरोकारों के अनुकूल है उसे हम सहेजें, छूट गया हो तो उसे लाएँ तथा जो नई सदी के हमारे सरोकारों से मेल नहीं खाता, उससे सावधान रहें, नई सदी के दायरे में उसे आने से रोकें।एक पूरी सदी की यात्रा हमारे सामने है। जरूरी हो जाता है कि हम अपने विवेक के तहत ग्रहण और त्याग से जुड़ी अपनी उक्त चिन्ताओं का हल खोजें।संप्रति हम ग्रहण और त्याग के इस परिप्रेक्ष्य को मध्यकाल और खासतौर से कबीर के अध्ययन तक सीमित रखना चाहेंगे। वस्तुतः विरासत या परंपरा से हमें जो कुछ मिलता है, उसके ग्रहण या त्याग का निर्णय हम अपने उस विवेक के तहत ही करते हैं, जो हम अपने पूरे जीवन अर्जित करते हैं।
तमाम सारी सजगता और परिपक्व विवेक-चेतना के बावजूद विरासत या परंपरा का बहुत कुछ अवांछित और अहेतुक भी, हमारे संस्कारों का हिस्सा बनकर या समय में आ जाता है। फलतः समूचे जीवन हमारी विवेक-चेतना तथा संस्कारों के बीच एक समर चलता रहता है। इस समर में कभी जीतते, कभी हारते, हम अपनी जीवन-यात्रा पूरी करते हैं।जहाँ तक कबीर का सवाल है, कबीर का सच भी वस्तुतः यही है। कबीर को उनकी समग्रता में जानने समझने के लिए जरूरी है कि हम उन्हें ग्रहण और त्याग के उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में ही जानें-समझें। कबीर से संबंधित, इस नई सदी में हमारी चिन्ता इस बात को लेकर है कि कबीर का कितना कुछ इस नई सदी में हम अपने साथ लेकर चलें, और कितना कुछ, जो नई सदी के हमारे सरोकारों की संगति में नहीं हैं, उनके जाने-अनजाने उनके संस्कारों का हिस्सा बनाकर उनकी सोच में मौजूद है, उसे पुरानी सदी या उनकी अपनी सदी के खाते में ही रहने दें। कबीर को इस बिन्दु पर न केवल हमें समग्रता में पढ़ने की जरूरत है, उन्हें उनकी अंतर्विरोधी जटिलता में भी जानने-समझने की जरूरत है।
कबीर की देवमूर्ति गढ़ने के बजाय, भावुकता या अंध-श्रद्धा से उन्हें देखने-समझने के बजाय, बेहतर होगा कि हम उन्हें अपने उस विवेक की कसौटी पर देखें-परखें-जो हमने अर्जित की है-नई सदी के हमारे सरोकार जिसके तहत ही तय और निश्चिय किए गए हैं।कबीर में उनके कहे हुए में, जब हम अंतर्विरोधों की बात करते हैं, तो उस कहे हुए के साक्ष्य पर ही करते हैं।हम सब जानते हैं कि कबीर को जो विद्रोही, क्रांतिकारी, अक्खड़ आदि कहा जाता है, तो इस नाते कि कबीर ने अपने समय में परंपरा से चले आते हुए तमाम-कुछ को नकार दिया था, छोड़ दिया था। बावजूद इसके, परंपरा से आया हुआ तमाम कुछ जाने-अनजाने उनके संस्कारों का हिस्सा बनकर उनकी सोच में मौजूद भी था। इसी नाते कबीर अंतर्विरोध के शिकार हुए। इसीलिए हमने कबीर को समग्रता में उनके अंतर्विरोधों के साथ पढ़ने और समझने की बात की है। हम न तो उस ब्राह्मणवादी सवर्ण मानसिकता के साथ हैं, जो पूरे के पूरे कबीर को नकारती है और उस अंध आस्थावादी दलित-सोच के साथ, जो कबीर के अंतर्विरोधों को नजरअंदाज कर उन्हें उनके पूरेपन में ढोने की हिमायत करती हैं। कबीर स्वयं देवमूर्तियों के खिलाफ थे और हम भी इसी नाते कबीर की किसी देवमूर्ति गढ़ने के पक्ष में है। कबीर को समग्रता में, वस्तुनिष्ठता में और अंतर्विरोधों के साथ पढ़ने और उनके बीच में उनके तेजस्वी अंश को स्वीकार करने में ही हमारी रुचि है।आइए, पहले कबीर को उनके व्यक्तित्व के पूरेपन में पहचानने का प्रयास करें। कबीर को विद्रोही, क्रांतिकारी, अक्खड़, आक्रामक, न जाने क्या-क्या कहा गया है, जिसके साक्ष्य उनकी बानियों में हैं किन्तु यह कबीर के व्यक्तित्व का एक पहलू है।
कबीर के व्यक्तित्व का दूसरा पहल वह है, जिसके तहत वे एक नितांत, सौम्य, कातर, आर्त्त, विनीत, मृदु और तरल रूप में हमारे सामने आते हैं-खासतौर से अपनी भक्ति के स्तर पर जहाँ वे कभी राम के 'कूता' हैं, कभी अपने हरि के बालक, या फिर जब वे यह कहते है कि ''सुखिया सब संसार है, खावे और सोवे, दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवै''। कबीर के इन दोनों व्यक्तित्वों में अंतर्विरोध नहीं है। वे एक दूसरे के पूरक हैं। कबीर अपने जिन बेधक व्यंग्यों के लिए ख्यात हैं-वे व्यंग्य हों या व्यंग्य का कोई अन्य रूप-व्यंग्य का बीज भाव हमेशा हमारी मानवीय करुणा ही होता है। कबीर रात-रात भर जागकर-जो रोते हैं, उसका कारण यही है कि रात-रात भर जागकर वे जो कुछ देख रहे थे, उसे देखकर वे रो ही सकते थे। खा-पीकर सुख से सोने वाले सपने देखते हैं जागने वाला यथार्थ देखता है। कबीर का देखा भोगा यथार्थ उन्हें रूला ही सकता था। यही कबीर इस रूदन के नाते ही संतृप्त मनुष्यता के यथार्थ जीवन को देखकर उपजे इस रूदन के नाते-जब सुख से सोने वालों पर वज्र बरसाता है, अपने व्यंग्यों से उन्हें छलनी करता है, तब उसका आक्रामक-विद्रोही रूप सामने आता है। वाल्मीकि पहले क्रौंच-मिथुन में से एक की हत्या पर पसीजे थे, अनंतर उनकी करुणा ही बहेलिए पर शाप बनकर फूटी थी। हमारी गुजारिश है कि कबीर को पूरेपन में समझने के लिए उनके व्यक्तित्व के इन दोनों रूपों को समझा जाये। ये दो रूप एक-दूसरे के पूरक हैं, अंतर्विरोधी नहीं,
अब आइए कबीर के दो अंतर्विरोधी रूपों का जायजा लें।कबीर को हम जब भी वस्तुनिष्ठता से और समग्रता से देखने का प्रयास करते हैं, हमें कबीर की बानियों के भीतर से दो कबीर दिखाई पड़ते हैं। कबीर को जिस तरह सृष्टा के-दो रूपों ने परेशान किया था-हिन्दू-मुसलमानों द्वारा अपने-अपने ढंग से रखे गए उनके नाम के नाते-और परेशान होकर झुंझलाते हुए कबीर को पूछना पड़ा था कि 'दुइ जगदीश कहाँ से आए?'-उसी तरह कबीर में ही कबीर के ये दो रूप हमें परेशान करते हैं। अंतर यह है कि वहाँ स्रष्टा के वे दोनों रूप एक और तत्त्वतः अभिन्न हैं, कबीर के ये दो रूप एक और अविरोधी नहीं हैं। उनका एक रूप दूसरे के विरोध में है-हमारी परेशानी का कारण यही है।कबीर के इन दो रूपों में उनका एक रूप 'अस्वीकार' के कबीर के रूप हैं-जिसके तहत कबीर परंपरा से चले आ रहे तमाम कुछ को अस्वीकार करते हैं, विद्रोही के रूप में सामने आते हैं। कबीर के इसी रूप को लक्ष्य करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी किताब में लिखा था कि 'कबीर अपने समय में 'अस्वीकार' का बहुत बड़ा साहस लेकर सामने आए थे।'कबीर का दूसरा रूप, इसके विपरीत 'स्वीकार' के कबीर का रूप है, जिसके तहत परंपरा से चले आते तमाम कुछ का जाने-अनजाने उनके द्वारा किया गया स्वीकार है-जो उनके व्यक्तित्व में संस्कारों के रूप में मौजूद है, उनकी सोच को, पहले रूप की सोच के बरकस क्षतिग्रस्त करता है, अंतर्विरोधों की सृष्टि करता है।हमारे सामने सवाल है कि नई सदी के हमारे सरोकारों के अनुरूप कबीर का कौन सा रूप है, जिसे लेकर इस सदी में हम आगे बढ़ें। दिलचस्प तथ्य है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और उनकी स्थापनाओं के प्रबल विरोधी, कबीर के दलित-दावेदार, डॉ० धर्मवीर, इस बिन्दु पर एक ही जमीन पर खड़े हैं। दोनों कबीर को-उनके दोनों रूपों के साथ-साथ चलना चाहते हैं-अपने-अपने तर्कों के आधार पर दोनों ही कबीर के अंतर्विरोध को नजरअंदाज करते हैं। दोनों ही आस्था और श्रद्धा की निगाह से ही कबीर को देखते हैं - आलोचनात्मक विवेक के तहत नहीं।
कहना न होगा कि हमारी दृष्टि इन दोनों से भिन्न है।हम जिस बात को कहना चाहते हैं, पूरे जोर और पूरे वजन के साथ, वह यह कि कबीर के इन दोनों रूपों में जहाँ-'अस्वीकार' के कबीर का रूप उन्हें अपने समय से बहुत आगे उन्हें समकालीन हमारे अपने समय में हमारा हमसफर, नई सदी के सरोकारों की दृष्टि से हमारा मार्गदर्शक बनाता है, उनका जाग्रत और तेजस्वी रूप है, वहाँ उनका दूसरा 'स्वीकार' वाला रूप उन्हें अपनी शक्ति और सीमाओं के साथ उन्हें मध्ययुग में उनके अपने समय तक सीमित रखता है, उससे आगे उन्हें नहीं ले जा पाता। उन्हें मध्य युग के सगुण भक्तों के साथ, कुछ भिन्नताओं के बावजूद विवेच्य बनाता है-उन्हें कोई खास पहचान नहीं देता। यही कारण है कि कबीर के निर्गुण-पंथ की अपनी कुछ खास विशिष्टताओं के बावजूद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनमें और सुगण भक्तों में कुछ ऐसे समान अंतः सूत्र खोज लिए हैं जो दोनों को एक करते हैं।डॉ० धर्मवीर के यहाँ तो कबीर के 'अस्वीकार' और 'स्वीकार' का सवाल ही नहीं उठा। उन्हें कबीर में कोई अंतर्विरोध नहीं दिखाई पड़ा। कबीर में जो कुछ उन्हें अपने प्रतिकूल लगा, उसे उन्होंने ब्राह्मणवाद की साजिश या प्रक्षिप्त कहकर खारिज कर दिया और जो कुछ अनुकूल मिला उसे उन्होंने प्रामाणिक करार दिया। अध्ययन का यह वैज्ञानिक तरीका नहीं है। बेहतर होता कि कबीर की चर्चा करने के पहले, डॉ. धर्मवीर मेहनत करके कबीर का प्रामाणिक पाठ लाते और उसके आधार पर बात करते। ऐसा न करके-कबीर का जो कुछ है उसी को मनोनुकूल स्वीकार या अस्वीकार करते हुए वे आगे बढ़े हैं।बहरहाल, हम अपनी बात पर आएँ।क्या है, कबीर का 'अस्वीकार'-जिसके नाते वे आधुनिक और समकालीन हैं, नई सदी के हमारे सरोकारों के अनुरूप हमारे मार्गदर्शक कबीर के इस अस्वीकार में है-धर्म और धर्मशास्त्रा आधारित निहायत अमानवीय और आदमी और आदमी में वर्ण और जात के स्तर पर भेद करने वाली, हमारी सामाजिक संरचना का विरोध धर्म के बाह्याचारों और उससे जुड़े अंध श्रद्धावाद की भर्त्सना, सामाजिक-धार्मिक पाखण्ड पर कबीर का व्रज प्रहार। ऊँच-नीच, छूत-अछूत, हिन्दू-मुसलमान के स्तर पर आदमीयत में फर्क करने वाली मानसिकता के खिलाफ बगावत। सारे धर्मों को हाशिए पर डालते हुए-एक-मानव धर्म की बात जहाँ आदमी की शिनाख्त का पैमाना उसकी आदमीयत हों।
एक ही खाल से सबके रचे सिरिजे जाने की बात। बहुत कुछ है कबीर के इस अस्वीकार में जो हमारे समय में उन्हें जोड़ता है।और क्या है, कबीर का 'स्वीकार' जो उन्हें मध्ययुग में सीमित किए हुए है-उससे आगे नहीं आने देता।कबीर के इस स्वीकार में शामिल है-ब्रह्म, जीव, माया का प्रपंच, उनका रहस्य चिंतन, गगन-गुहा, इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना, सृष्ट दल, सहस्र दल कमल और नाना-चारों का उनका हठ योग, उनका अध्यात्म, उनकी उलटबाँसियाँ, पूवर्जन्म-पुनर्जन्म पर उनका विश्वास, भाग्य-नियति पर उनकी आस्था, जीवन की क्षणभंगुरता पर उनका विश्वास, उनकी भक्ति, आदि का अपनी भक्ति में निःसंदेह कबीर बहुत ऊँचे और बहुत मार्मिक है, परन्तु है वह परंपरा से चले आज का स्वीकार ही। इस 'स्वीकार' के बिन्दु पर कबीर मध्यकाल के सगुण भक्तों से तुलनीय बनते हैं-मध्ययुग के दायरे में विवेच्य बनते हैं। अपनी कोई खास पहचान नहीं बना पाते।यह एक अस्वीकार है, उससे जुड़ी उनकी सामाजिक सोच हैं, जो उन्हें सगुण भक्तों से अलग, मध्ययुग में भी एक खास पहचान देती है और उन्हें आधुनिक और समकालीन भी बनाती है।व्यवस्था और शासन सत्ता ने हमेशा कबीर की उपेक्षा की। समय के बदले माहौल में वही व्यवस्था और वही सत्ता अपने स्वार्थ के लिए कबीर का इस्तेमाल करना चाहती है उनकी जयैंतियां आयोजित हो रही हैं, कबीर मेले हो रहे है-ताकि अपनी राजनीतिक पकड़ को उस वर्ग में मजबूत किया जाये, जो कबीर का अपना वर्ग है।परन्तु व्यवस्था कबीर के 'अस्वीकार' वाले पहलू से घबराती है। इस नाते उसे हाशिए पर डालकर उनके 'स्वीकार' वाले पहलू को गौरवान्वित कर रही हैं, जो उसके हितों के अनुरूप हैं। 'अस्वीकार' वाले पहलू को वह हाशिए पर तो डाले ही हुए है। उसे भी विरूद्ध और डाइल्यूट करने का प्रयास कर रही है। व्यवस्था चाहती है कि सारे कवि ब्रह्म, जीव, माया के प्रपंच में उलझे रहें और उसका रथ आगे बढ़ता रहे। कुमार गंधर्व कबीर के निर्गुण गा रहे हैं-अवकाश भोगी मध्यवर्ग खा पीकर उनके संगीत का आस्वाद कर रहा है। किसे फुरसत है यह जानने-सोचने की कि वो कुछ गाया जा रहा है। वह है क्या? गगन-मंडल में गाये-बगाएँ उससे समाज और दलितों का कोई हित नहीं होता, परन्तु यही निर्गुण गाए जा रहे है। डॉ० धर्मवीर तक की निगाह व्यवस्था के इस पहलू पर नहीं है, यही विडम्बना है।सवाल यही है, हमारे सामने कि व्यवस्था की इस साजिश को कैसे बेनकाब करें। दायित्व यही है कि हमारा कि नई सदी के अनुरूप हम 'अस्वीकार' के कबीर के तेज को मद्धिम न होने दें। नई सदी के हमारे सफर में 'अस्वीकार' के ये कबीर ही हमारे मार्गदर्शक हैं। हम उन्हें लेकर आगे बढ़ें। 'स्वीकार' के कबीर को हम अकादमिक चर्चाओं के लिए, शोध के लिए, मध्ययुग के खाते में विवेच्य होने के लिए छोड़ दें। कबीर होते तो यही चाहते भी। कबीर ने भी अपने समय में बहुत कुछ छोड़ा था। उन्हीं के मार्गदर्शन में यदि हम कबीर का एक पहलू छोड़ते हैं, तो कबीर के किए घरे का ही अनुसरण करते हैं।

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Monday, December 8, 2008

कविता

रवीन्द्रनाथ टैगोर

अनुवादक -डॉ. डोमन साहु समीर



विविध वासनाएँ हैं मेरी प्रिय प्राणों से भी
वंचित कर उनसे तुमने की है रक्षा मेरी;
संचित कृपा कठोर तुम्हारी है मम जीवन में।
अनचाहे ही दान दिए हैं तुमने जो मुझको,
आसमान, आलोक, प्राण-तन-मन इतने सारे,
बना रहे हो मुझे योग्य उस महादान के ही,
अति इच्छाओं के संकट से त्राण दिला करके।
मैं तो कभी भूल जाता हूँ, पुनः कभी चलता,
लक्ष्य तुम्हारे पथ का धारण करके अन्तस् में,
निष्ठुर ! तुम मेरे सम्मुख हो हट जाया करते।
यह जो दया तुम्हारी है, वह जान रहा हूँ मैं;
मुझे फिराया करते हो अपना लेने को ही।
कर डालोगे इस जीवन को मिलन-योग्य अपने,
रक्षा कर मेरी अपूर्ण इच्छा के संकट से।।

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सामाजिक - सांस्कृतिक क्रांति के सम्वाहक : कबीर

डॉ० जगत सिंह बिष्ट

कबीर हिंदी के संत काव्य परंपरा के प्रतिनिधि और प्रवर्तक कवि हैं। संत काव्य धारा के सांस्कृतिक एवं दार्शनिक आधार व्यापक हैं, वे आधार है : उपनिषद्, शंकराचार्य का अद्वैत-दर्शन, नाथपंथ, इस्लाम धर्म और सूफी दर्शन। यही कारण है कि हिंदी संत काव्य परंपरा वस्तुपरकता की दृष्टि से अत्यंत व्यापक है। इसी अर्थ में संत काव्य विश्व धर्म बन जाता है। एक ऐसा विश्व धर्म, जिसमें सब प्रकार के जीवों का कल्याण विद्यमान है। वह इसलिए भी कि संत कवियों ने अपने द्वारा गृहीत सांस्कृतिक और दार्शनिक आधारों के, केवल उन पक्षों का सार ग्रहण किया है, जो मानव समेत समस्त प्राणियों के लिए उपयोगी और कल्याणकारी है। यही कारण है कि हिंदी के विद्वान एकमत से संत काव्य का महत्त्व साहित्यिक दृष्टि की अपेक्षा सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक दृष्टि से मानते हैं-संत काव्य का जो महत्त्व सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दृष्टि से है; वह साहित्यिक दृष्टि से नहीं है।१ किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि संत काव्य का महत्त्व साहित्यिक दृष्टि से नगण्य है। इतना अवश्य है कि संत काव्य में वैचारिक क्रांति की अतिशयता से, उसका साहित्यिक पक्ष दब सा गया है फिर भी संत कवि अपनी कविताओं के द्वारा, जिस सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति को व्यक्त करते हैं; वह साहित्यिकता के बिना संभव नहीं है।

कबीर संत काव्य परंपरा के सर्वाधिक प्रभावशाली कवि हैं। वे अपने काव्य में एक साथ भक्त, कवि, विचारक एवं समाज सुधारक की भूमिका में दिखाई देते हैं। कहना यह है कि संत कबीर के काव्य में भक्ति, ज्ञान और वैचारिकता का अद्भुत सामंजस्य है। उनकी वैचारिक और समाज सुधारक की भूमिका ही, उन्हें सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति का सम्वाहक बनाती है। मूलतः एक भक्त कवि होते हुए भी; उन्हें अपने समाज की पर्याप्त चिन्ता थी। उनके काव्य के दो वर्ग हैं-इनमें से प्रथम रचनात्मक है तथा द्वितीय आलोचनात्मक। रचनात्मक विषयों के अन्तर्गत सतगुरु नाम, विश्वास, धैर्य, दया, विचार, औदार्य, क्षमा, संतोष आदि व्यावहारिक शैली में भाव व्यक्त किए गए हैं। यहाँ उनकी आलोचनात्मक प्रतिभा के दर्शन नहीं होते हैं अर्थात्‌ यहाँ मानव की हीनताओं का दिग्दर्शन नहीं कराया गया है। प्रतिपाद्य के दूसरे विषय में कबीर की आलोचनात्मक प्रतिभा व्यक्त हुई है। यहाँ वे आलोचक, सुधारक, पथ-प्रदर्शक और समन्वय कर्ता के रूप में दृष्टिगत होते हैं - चेतावनी, भेष, कुसंग, माया, मन, कपट, कामिनी आदि।२ यद्यपि संत कबीर के रचनात्मक और आलोचनात्मक दोनों ही प्रतिपाद्य विषयों में सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के स्वर विद्यमान हैं। फिर भी उनके रचनात्मक प्रतिपाद्य विषय उपदेश एवं नीतिपरक होने के कारण, उसमें सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रांति के स्वर दब से गए हैं। जबकि आलोचनात्मक प्रतिपाद्य विषयों में संत कबीर क्रांतिकारी दिखाई देते हैं इसलिए तो हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-फिर व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानते। पंडित और काजी, अवधू और जोगिया, मुल्ला और मौलवी - सभी उनके व्यंग्य से तिलमिला जाते हैं।३ कहने में संकोच नहीं है कि संत कबीर कालजयी कवि हैं क्योंकि उनकी साखियों, पदों एवं रमैनियों में तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक विकृतियों के प्रति विरोध मुखरित हुआ है। उससे कवि की संवेदना असीम हो गई है। सब बाहरी धर्माचारों को अस्वीकार करने का अपार साहस लेकर कबीरदास साधन के क्षेत्र में अवतीर्ण हुए।...उन्होंने अटल विश्वास के साथ अपने प्रेम मार्ग का प्रतिपादन किया। रूढ़ियों और कुसंस्कारों की विशाल वाहिनी से वह आजीवन जूझते रहे।४हिंदी साहित्य जगत में जब संत कबीर का अवतरण हुआ, उस समय भारत की सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थिति अच्छी नहीं थी। तब भारतीय समाज हिन्दू, मुस्लिम, जैन और बौद्ध आदि प्रमुख सम्प्रदायों में विभक्त था। समाज का प्रत्येक व्यक्ति इन सम्प्रदायों में व्याप्त रूढ़ियों, अंधविश्वासों, मिथ्या प्रदर्शनों, अमानवीय, अप्रासंगिक रीति-रिवाजों के मकड़जाल में बुरी तरह उलझा था। सभी सम्प्रदायों से सम्बद्ध लोग, अपने-अपने सम्प्रदायों की श्रेष्ठता के प्रतिपादन में कटिबद्ध थे। अपने मत की प्रतिष्ठा के सवाल से समूचे समाज में तनाव का माहौल बना हुआ था। संत कबीर ने ऐसे अराजक वातावरण में प्रत्येक सम्प्रदाय की अप्रासंगिक एवं अमानवीय रीति-रिवाजों का खुलकर विरोध किया था। उनके आलोचना के केन्द्र में प्रमुख रूप से हिंदू और मुस्लिम सम्प्रदाय थे। क्योंकि उस समय ये दोनों सम्प्रदाय सबसे बड़े थे और इन दोनों में ही प्रतिष्ठा के सवाल बराबर खड़े होते थे। फलतः सामाजिक समरसता को खतरा उत्पन्न हो रहा था। उस समय हिंदू समाज में भी नाना प्रकार की साधनाएँ प्रचलन में थीं। इन साधनाओं में शाक्त, शैव, वैष्णव आदि प्रमुख थे। इनमें भी परस्पर घोर अंतर्विरोध था। छोटी-छोटी बातों में खून-खराबा आम बात थी। इनकी उपासना पद्धतियों में कई प्रकार की विकृतियाँ प्रविष्ट हो चुकी थीं। फलतः संत कबीर ने विविध उपासना पद्धतियों से युक्त समाज में पारस्परिक समरसता के लिए प्रेम भक्ति की साधना का उच्चादर्श प्रस्तुत किया और हिंदू समाज में प्रचलित विविध उपासना पद्धतियों के आडम्बरों के प्रति घोर विरोध व्यक्त किया था। उनके समय में शक्ति की उपासना में मांस और मदिरा का चलन था। वे स्वयं सातात्त्विक प्रवृत्ति के थे। यही कारण है कि उन्होंने शक्ति के उपासकों को खूब फटकार लगाई थी। उन्हें शक्ति के उपासक सन की रस्सी के समान लगते थे, जो भीग कर अधिक कठोर हो जाती है-साबित सण का जेबड़ा, भीगाँ सू कठ्ठाइ। (कबीर समग्र; २८/११) संत कबीर का शाक्तों से विरोध केवल अपवित्रा एवं जीव विरोधी उपासना को लेकर था। क्योंकि उनकी उपसना में हिंसा, मदिरा एवं मांस का चलन था-पापी पूजा बैसि करि भषै मांस मद दोइ। (कबीर समग्र; २९०/१३) हिंदू समाज में प्रचलित मूर्तिपूजा, जप, तप, तीर्थस्नान और माला फेरने को ढकोसला मानते थे। उन्होंने हिन्दुओं की मूर्तिपूजा पर कई स्थलों पर खिल्ली उड़ाई है- पाहन पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार।/तातै यह चाकी भली, पीसि खाए संसार॥(कबीर समग्र, ४४१/०१)

वस्तुतः संत कबीर का मूर्तिपूजा के प्रति विरोध अकारण नहीं था। बल्कि यह विरोध गहरे यथार्थ बोध से उपजा था, जिसमें वर्षों से परिचालित हिंदुओं की जड़ एवं अप्रासंगिक मानसिकता के खिलाफ प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी आह्‌वान था। इसके अतिरिक्त उन्होंने पत्थर की मूर्ति का धंधा और समाज को दिग्भ्रमित करने वाले लोगों को भी बेनकाब किया था-मूरित धरि धंधा रचा, पाहन का जगदीश। (कबीर समग्र; ४४५/३) उन्होंने हिन्दुओं में माला फेरने की परंपरा का भी खंडन किया क्योंकि वे माला पहनने की अपेक्षा हृदय में पड़ी वासना की गाँठों को खोलना हितकर समझते थे-माला पहरयौ कुछ नहीं गाँठि, हिरदा की खोल (कबीर समग्र; २९४/९) इसी प्रकार संत कबीर ने बालों को मुड़ाकर वैष्णव भक्त बनने की आडम्बरपूर्ण प्रवृत्ति पर भी दो टूक बात की थी। वे बालों को मुड़ाने की अपेक्षा मन का संस्कार करना ठीक समझते हैं-कैसों कहा बिगाडिया, जे मूँडै सौ बार/मन कौं काहे न मूँडिए, जामै विषै विकार॥ (कबीर समग्र; २९४/१२) इतना ही नहीं, उन्होंने संन्यासी की वेश-भूषा धारण करने वाले वैष्णवों को भी नहीं छोड़ा और उन्हें आडम्बरपूर्ण वेश-भूषा के बजाय विवेकपूर्ण आचरण को आत्मसात्‌ करने की ओर प्रेरित किया-बसनों भया तौ का भया, बूझा नहीं विवेक।/छाया तिलक बनाइ करि, दगध्या लोक अनेक॥ (कबीर समग्र; २९५/१६)कबीर पोथी ज्ञान को भी अव्यावहारिक मानते हैं, उनका मानना है कि पोथियों को पढ़ने वालों को आत्मज्ञान न होकर आत्मनाश होता है। संसार में सारे पंडित पुस्तकें पढ़-पढ़कर मर गए किंतु किसी को भी आत्मज्ञान नहीं हुआ-पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा पंडित भया न कोइ। (कबीर समग्र; २८४/४) कहने की आवश्यकता नहीं है कि कबीर का यह मन्तव्य अकारण नहीं है। यह भी उनके गहरे यथार्थ बोध से उपजा है। आज के समय में जितनी भी प्रकार की विसंगतियाँ दिखाई देती हैं। उनमें से अधिकांश पोथी पाठी विद्वानों से उत्पन्न हुई हैं। चाहे जातिवाद हो, क्षेत्रवाद या फिर भाषावाद आदि।संत कबीर के समाज में हिंदू समाज में वर्ण व्यवस्था अपनी चरम सीमा में थी। समाज में ऊँच-नीच का बोल बाला था, जिससे समाज में अनेक प्रकार की विकृतियाँ पैदा हो चुकी थीं। स्वयं संत कबीर समाज में व्याप्त ऊँच-नीच और भेदभाव के भुक्तभोगी थे। अतः उन्होंने एक समाज सुधारक के रूप में हिंदू धर्म में प्रचलित वर्णों में ऐक्य स्थापित करने का प्रयत्न किया क्योंकि उनका मानना था कि विधाता ने सभी को एक ही प्रकार की मिट्टी से बनाया है उसी प्रकार जिस प्रकार कुम्हार एक ही मिट्टी से विविध प्रकार के बर्तनों का निर्माण करता है-माटी एक एकल संसारा, बहु विधि भाँडे, घडै कुम्हारा'' (कबीर समग्र; ५४६/५३) इनके अतिरिक्त वे हिंदू धर्म में प्रचलित पिंडदान प्रथा की विडम्बना पर भी कटाक्ष करते हैं। आडम्बर पूर्ण प्रदर्शनों की अपेक्षा लोकोचार को श्रेष्ठ मानते हैं। इसीलिए वे पितरों को पिण्डदान की अपेक्षा जीवित अवस्था में सेवा करने पर बल देते हैं-ताथै कहिए लोकोचार; वेद कतेब कथैं ब्यौहार।/जारि बारि काई आवै देहा, मूवाँ पीछै प्रीति स्नेहा॥/जीवित पित्राहि मारहि डंडा, मूवाँ पित्रा ले घालै गंगा।/जीवत पित्रा कूँ अन न ख्वावैं, मूवाँ पाछे प्यंड भरावै।/जीवत पित्रा कूँ बौले अपराध, मूँवाँ पीछे देहि सराध॥ (कबीर समग्र; ६७०/३५३)

संत कबीर ने हिंदू समाज में व्याप्त आडम्बरपूर्ण लोकाचारों के साथ-साथ मुस्लिम समाज के आडम्बरपूर्ण प्रदर्शनों की भी आलोचना की है। उन्होंने निर्भीक होकर दिन में पांच बार नमाज एवं बंदगी को व्यर्थ तथा असत्य कहा है-यह सब झूटी बंदनी, वरिया पंच निवाज (कबीर समग्र; २८९/५) वे हलाल को भी अनुचित मानते हैं क्योंकि वे हलाल को पूर्णतः हिंसा ही मानते हैं। वे हज यात्रा को भी व्यर्थ मानते हैं और वे हज यात्रा की अपेक्षा मन में संतोष उत्पन्न करने के पक्षधर थे-सेष सबूरी बाहिरा, क्या हज काबै जाई (कबीर समग्र; २९०/१) उन्होंने मुस्लिम सम्प्रदाय के द्वारा मस्जिद में बांग देने की परंपरा का भी मखौल उठाया है। वे मस्जिद में चढ़कर बांग देने को आडम्बरपूर्ण प्रदर्शन मानते हैं-ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाई (कबीर समग्र; ४४५/१३) क्योंकि कबीर का मत था कि मुल्ला जिसको बांग देता है वह सब जीवों के अंदर विद्यमान है- जिस कारण तू बांग दै, सो दिलहि अन्दर जोय। (कबीर समग्र; ४४५/१४) उन्होंने हिंदू एवं मुस्लिम समाज में प्रचलित हिंसा का घोर विरोध किया था। वे समान रूप से, इन दोनों सम्प्रदायों से सम्बद्ध लोगों को जीव हत्या के लिए फटकारते हैं -बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।/जो बकरी को खात है, तिनका कौन हवाल॥ (कबीर समग्र; ४८६/१८) अथवा दिन को रोजा रहत है, रात हनत है गाय।/यह खून वह बंदगी, कहुं क्यों खुशी खुदाय॥ (कबीर समग्र; ४८७/३३)वस्तुतः दो सम्प्रदायों में प्रचलित विविध बाह्याचारों के खिलाफ जिस प्रकार से कबीर ने लेखनी चलाई थी वह कम साहस का काम नहीं है। जबकि वह ऐसा समय था जब छोटी सी बात पर खून-खराबा होना आम बात हो गई थी। इसी अर्थ में जहाँ एक ओर कबीर प्रगतिशील कवि सिद्ध होते हैं। वहीं उनकी साखी, सबद और रमैनियाँ सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रांति की सम्वाहक दिखती हैं। उन्होंने एक पद में हिंदू और मुस्लिम सम्प्रदाय में प्रचलित नाना प्रकार के आडम्बरों की व्यर्थता सिद्ध करते हुए लिखा है-धरती से मिट्टी उठाकर मूर्ति बनाने और उसी मूर्ति को स्नान कराने में क्या फायदा? जप और मंजन करने और मस्जिद में सिर झुकाने से क्या? रोजा रखने, नमाज अदा करने, हज के लिए काबा जाने से क्या? ब्राह्मण चौबीस एकादशी करता है। काजी एक माह रमजान रखता है। तब ग्यारह माह प्रभु को अलग क्यों रखते हो?...अगर खुदा मस्जिद में निवास करता है तो अन्य स्थानों में कौन? तीर्थों एवं मूर्तियों में राम का निवास है यह भी ठीक नहीं है...हरि पूर्व में अल्लाह पश्चिम में रहता है। यह भी ठीक नहीं है। (कबीर समग्र; ६३०/२५९) कहने की आवश्यकता नहीं है कि इससे अधिक क्रांति के सम्वाहक स्वर और क्या हो सकते हैं? जिनको कवि एक परंपरा की तमाम प्रकार की रूढ़ियों और अंधविश्वास से जकड़े समाज में रहकर भी निर्भीकतापूर्वक ललकारता है।

एक क्रांतिधर्मी के रूप में संत कबीर ने तत्कालीन भारतीय समाज में हिंदू और मुस्लिम सम्प्रदायों के बीच उत्पन्न वैमनस्य की खाई को पाटने का भारी श्रम किया था। वस्तुतः तब इन दोनों सम्प्रदायों के बीच उत्पन्न वैमनस्य, इनके परस्पर विरोधी आचार-व्यवहार से उपजा था। वे दोनों सम्प्रदायों के वैमनस्य के बीच एक मध्यस्थ के रूप में खड़े दिखते हैं। उन्होंने दोनों सम्प्रदायों के बीच ऐक्य के लिए राम, रहीम, करीम, केशव, अल्लाह आदि सभी के सत्य का प्रतिपादन किया था। इसीलिए कबीर ने घोषणा की थी कि बिस्मिल्लाह और विशम्भर एक हैं। काजी, मुल्ला, पीर, पैगम्बर, राजा, पश्चिम दिशा में नमाज पढ़ना, पूर्व में एकादशी व्रत, गंगा में दीपदान सब एक हैं। मस्जिद एवं मंदिर दोनों स्थानों में ईश्वर है। हिंदू-मुसलमानों का सृष्टिकर्त्ता एक ही प्रभु है- हमारे राम रहीम करीमा केसो अल्लाह राम सति सोई।/बिसमिल मेटि विसंभर एकै, और न दूजा कोई।.../हिंदु तुरक का करता एकै, ता गति लखि न जाई। (कबीर समग्र; ५४८/५८)

इसके लिए संत कबीर ने हिंदू-मुस्लिम के बीच द्वैत उत्पन्न करने वालों को भोंदू (मूर्ख) कहा था क्योंकि उनका मानना था कि - यौनियाँ, दो धरती और अलग-अलग धर्म ये सब बीच के काम हैं। मूलतः राम रहीम एक ही हैं बोलने वाला प्रभु न हिंदू और न मुसलमान (कबीर समग्र; ५४७/५६) संत कबीर ने उसी हिंदू एवं मुसलमान को ठीक कहा है जिसका इमान ठीक है-सो हिन्दु सो मुसलमौंन, जिसका दुरस रहे ईमान। (कबीर समग्र; ६७०/३५५)

वस्तुतः संत कबीर संत काव्य परंपरा का नहीं अपितु सम्पूर्ण हिंदी साहित्य का बेजोड़ व्यक्तित्व हैं। मूलतः वे भक्त कवि हैं फिर भी वे कम विचारक एवं चिंतक नहीं हैं। इसी अर्थ में वे सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के सम्वाहक कवि सिद्ध होते हैं। उन्होंने भक्ति एवं चिंतक के रूप में वर्षों से विविध प्रकार के मानवता विरोधी अप्रासंगिक परंपरा से जकड़े समाज को नई दृष्टि दी। वह किसी क्रांतिकारी विद्रोही कवि से कम नहीं हैं। उन्होंने भक्ति और समाज में प्रचलित बाह्याचारों के विरोध में जिन क्रांतिकारी स्वरों को व्यक्त किया था। वह कम जोखिम का काम न था किन्तु संत कबीर ने हिंदू-मुस्लिम सम्प्रदाय की परवाह किए वगैर इनकी दोषपूर्ण भक्ति भावना और बाह्याचारों की खुलकर आलोचना की थी। संत कबीर ने प्रेम भक्ति, सादगी, अहिंसा और समदृष्टि के द्वारा उदात्त मानवीय मूल्यों की सद्भावना की थी। इसीलिए तो हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही लिखा है-हिंदी साहित्य के हजारों वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई उत्पन्न नहीं हुआ।५ अतः कहने में संकोच नहीं है कि संत कबीर के द्वितीय वर्ग का आलोचनात्मक साहित्य अपनी वस्तुपरकता में सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से क्रांति का वाहक है। ऐसी क्रांति जो आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक है। आज भी जब कभी सम्प्रदाय के नाम पर फसाद होते हैं, राजनेता इन फसादों के द्वारा कुर्सी की राजनीति में सक्रिय दिखते हैं और भ्रष्ट निष्कृष्ट कार्यों में लिप्त धर्माचार्यों एवं मठाधीशों के कारनामें उजागर होते हैं। तब संत कबीर की वाणी याद आती है। इस संबंध में कबीर के साहित्य के अध्येता डॉ० नजीर मुहम्मद का कथन समीचीन जान पड़ता है-कबीर एक सफल साधक प्रभावशाली उपदेशक, महान नेता और युगद्रष्टा थे। उन्होंने कविता के सहारे अपने विचारों को युगान्तर के लिए अमरता प्रदान की।६ वस्तुतः कबीर के विचारों की युगान्तर के लिए अमरता ही, उनके काव्य की प्रासंगिकता है। ऐसी प्रासंगिकता जिसकी आज के जटिल विविध जीवन संदर्भों के साथ पूर्ण संगति है। इसके अतिरिक्त कबीर काव्य के मूर्धन्य समीक्षक डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन कि - कबीर वाणी के डिक्टेटर ७ भी कहीं न कहीं संत कबीर के काव्य की प्रासंगिकता को ही व्यक्त करता है और कबीर का वाणी डिक्टेटर होना कुछ और नहीं बल्कि पुराणपंथियों, धर्म के ठेकेदारों और धर्मोन्माद फैलाने वाले तथाकथित मठाधीशों के प्रति क्रांति के स्वरों का वाहक है, जिसका लक्ष्य समाज में समरसता, अहिंसा, भाईचारा, सुख-शांति एवं समृद्धि की स्थापना करना है
संदर्भ-ग्रन्थ
१. डॉ० नगेन्द्र, हिंदी साहित्य का इतिहास; मयूर पेपर बैक्स, नोएडा, १९९७; पृ० १२४.
२. वही; पृ० १२८
३. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, १९७१; पृ० १८५
४. वही; पृ० १५९
५. वही; पृ० १८५
६. डॉ० नजीर मुहम्मद, कबीर के काव्य रूप; भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़, १९७१; पृ० 1
७. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर; पृ० १८५

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Sunday, December 7, 2008

दलित महिलाएं एवं उनका सशक्तिकरण

डॉ. तारा परमार
मानव सभ्यता के इतिहास में महिला अस्मिता, उसके समान अधिकार और स्वतंत्रता का प्रश्न सदा से ही उलझनपूर्ण रहा है। महिला को लेकर जितनी भी व्यवस्थाएं बनी उनमें उसे प्रायः दोयम दर्जे का स्थान ही दिया गया है। महिलाएं दलितों में भी दलित मानी गई है। इसके लिये हमारी सामाजिक व्यवस्था और पुरुष प्रधान समाज की सोच पूर्णतः उत्तरदायी है। सामाजिक असमानता, निरक्षरता, अंधविश्वास, दहेज, जातिप्रथा, लिंग-भेद आदि मुद्दों के विरुद्ध आवाज उठती रही हैं और निरंतर उठ रही हैं। परंतु इन सब से पूरी तरह मुक्ति पाना अभी शेष है। घरेलू महिलाएं घर से बाहर निकलकर घर-परिवार की आवश्यकताओं के अनुरूप परंपरागत मान्यताओं और सामाजिक प्रतिबन्धों से कड़ा मुकाबला कर रही है और पुरानी पीढ़ी द्वारा आरोपित रूढ़ियों को तोड़कर खुश हो रही है। कुछ नया करने के लिए दुस्साहसिक कदम भी उठा रही है। भारतीय महिलाएं पुरुष निरपेक्ष नहीं बनना चाहती, अपनी अस्मिता बनाना और बचाना चाहती है - लेकिन पूरे अधिकार और सम्मान के साथ। हमारे यहाँ महिलाओं के मनोवैज्ञानिक संस्कार ही अधीनस्थता के हो जाते हैं। त्याग, सहिष्णुता और करुणा अतिवादी स्वरूप धीरे-धीरे महिलाओं को भीरू, असहाय और पराजित बनाते चले जाते हैं।
भारतीय संविधान ने महिला व पुरुष दोनों को समकक्ष रखकर उनके विकास के लिए समान अवसरों की गारंटी दी। अनेक प्रावधानों द्वारा महिला को सुरक्षा तथा संरक्षण प्रदान करने की व्यवस्था की गई। पर इन सबके बावजूद महिला की स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया, क्योंकि सामाजिक रवैये में बुनियादी बदलाव नहीं हुए। समाज ने महिला के प्रति अपने दायित्व के निर्वहन में कोताही बरती। दरअसल दुनिया के तमाम उत्पादन के साधनों पर उत्तराधिकार कानूनों के माध्यम से पुरुषों का स्वामित्व है और उत्पादन के साधनों पर वर्चस्व बनाये-बचाये रखने के लिए पुर्नोत्पादन के साधनों (यानी महिला की देह और कोख) पर भी संपूर्ण नियंत्रण अनिवार्य हैं जो विवाह संस्था के माध्यम से बनाया गया है। उत्तराधिकार के लिए वैद्य संतान और वैद्य संतान के लिए विवाह संस्था अनिवार्य है। विवाह संस्था से बाहर जन्मे बच्चे अवैद्य, नाजायज, हरामी हैं। इसलिये पिता की संपत्ति में कानूनी वारिस नहीं माने जाते। कानून और न्याय की नजर में वैद्य संतान पुरुष की और अवैद्य महिला की होती है। विवाह संस्था अनिवार्य है सो पुरुष की सम्पत्ति के असली (कानूनी) उत्तराधिकारी तो बेटे ही होंगे क्योंकि बेटियाँ तो परायाधन है और कन्यादान के बाद दहेज लेकर ससुराल चली जाएगी। संयुक्त हिन्दू परिवारों में सम्पत्ति का स्वामित्व केवल पुरुषों के नाम। बंटवारा करवाने का अधिकार केवल पुरुषों को। बेटा गर्भ में आते ही संपत्ति का हकदार लेकिन बेटियाँ भूण-हत्या की शिकार। परिवार या विवाह संस्था के मूल ढांचे में समता और समाज में न्याय (सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक) की नींव डाले बिना न कन्या भूण हत्या रोकना संभव होगा और न टूटते-बिखरते परिवार को बचाना। निःसन्देह पितृसत्ता को सिरे से दुबारा सोचना-समझना पड़ेगा। संपत्ति और सत्ता में महिलाओं को बराबर हिस्सा दिये बिना परिवार बचाना मुश्किल है। बेटियाँ नहीं होंगी तो बहू कहाँ से आएगी? वंश कैसे चलेगा? परिवार संरचना में आमूलचूल परिवर्तन की मांग को और अधिक टालना खतरे से खाली नहीं है।

महिला के लिए पहली चुनौती तो यही है कि बदलते परिवेश में सामाजिक मान्यताओं का सम्मान करते हुए वह समाज के दृष्टिकोण को बदल डाले कि 'स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी शत्रु हैं।' महिलाओं की समस्याओं के हल हेतु महिलाओं को ही आगे आकर महिलाओं को समझना पड़ेगा, यह भी एक चुनौती है पर सबसे बड़ी चुनौती यही है कि महिलाएं अपने अनेक रूपों को (बहन, बेटी, पत्नी आदि) सहज रूप में बनाए रखकर अपनी लड़ाई लड़ सकती है या नहीं; क्योंकि अति उच्छृखलता, अतिउन्मुकता, अति परकीयकता भारतीय महिलाओं, भारतीय परिवेश और पारिवारिकता के विरुद्ध है। यदि रचनात्मक जीवन उसे जीना है और समाज में अपनी पहचान बनानी है तो उसे पुरुष समाज द्वारा खीची गई लक्ष्मण रेखा को लांघना ही होगा और समाज में जो भी स्थितियाँ, चुनौतियाँ आएगी, उनका डटकर मुकाबला करना होगा। कोई जरूरी नहीं यह लक्ष्मण रेखा लांघने के बाद उसे सब कुछ आसानी से मिल जायेगा। जिनसे पाना है या जिनके बीच से होकर गुजरना है वह आज जहाँ खड़ी है कही उससे अधिक भयानक स्थितियाँ उसके सामने आ सकती है लेकिन इसी के बीच से अपना सफर तय करना और अपनी पहचान भी बनानी है। क्या यह सत्य नहीं है कि निर्धन-कमजोर-गरीब लोगों एवं सभी प्रकार की महिलाओं का विराट जनता जनार्दन तो केवल उस ज्ञान पर आश्रित रहा जो उसे वांछित परंपरा द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी मिलता रहा और शस्त्रा एवं साहित्य शताब्दियों तक इस देश में राजा-महाराजाओं, सामंतो-उमरावों, धनवानों-उच्च कुलीनो के प्राधिकार में रहे? महिला कामगारों में चाहे घास काटने वाली हों, तेंदूपत्ते जमा करने वाली हो, बीड़ियाँ, अगरबत्ती आदि बनाने वाली हों, मिट्टी के बर्तन बनाने वाली हों, मछलियाँ ढोने और बेचने वाली हों या कपड़ा बुनने वाली हों इन सभी क्षेत्रों में उन्हें पुरुषों से अधिक मेहनती काम करने के बाद भी उनसे कम मजदूरी मिलती है, उन महिलाओं को प्रसूतिकाल की मजदूरी नहीं मिलती, क्या महिला साक्षरता अभियान से उनमें अपने अस्तित्व के संकट को पहचानने का सोच-विचार पैदा होगा और उनमें असमानता को समूल नष्ट करने के संघर्ष की चेतना जागृत हो सकेगी? इन सब बातों को महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में सोचना-विचारना बहुत आवश्यक है।

यद्यपि यह भी उल्लेखनीय है कि महिलाओं की बेहतरी के लिए कुछ विशेष योजनाएं बनाई गई। सर्वप्रथम ग्रामीण क्षेत्रों में महिला तथा बाल विकास कार्यक्रम (डी.डब्ल्यू.सी.आर.ए.) समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम (आई.आर.डी.पी.) की एक उपयोजना के रूप में 1 सितम्बर १९८२ में प्रारंभ किया गया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य गरीबी की रेखा से नीचे बसरकर रहे ग्रामीण परिवारों की महिलाओं के लिए स्वरोजगार के उपयुक्त अवसर प्रदान करना है। तत्पश्चात्‌ निर्धन महिलाओं की ऋण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए १९९२-९३ में एक राष्ट्रीय महिला कोष की स्थापना की गई। इसके साथ ही ग्रामीण महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने व उनमें बचत की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने के लिए महिला समृद्धि योजना की शुरुआत २ अक्टूबर १९९३ से की गई। राज्य सरकारों द्वारा चलाए जा रहे महिला विकास कार्यक्रमों की सूची भी लंबी होती जा रही है। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 1 नवंबर १९९१ से विशेषतः ग्रामीण एवं आदिवासी क्षेत्रों की महिलाओं के कल्याण एवं विकास हेतु 'पंचधारा योजना' शुरू की गई। इस कार्यक्रम के तहत वात्सल्य योजना, ग्राम्य योजना, आयुस्मति योजना, सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना और कल्पवृक्ष योजना सन्निहित है। हरियाणा सरकार ने अनुसूचित जाति व जनजातियों की बालिकाओं के लिए 'अपनी बेटी अपना धन योजना' प्रारंभ की गई। गुजरात सरकार द्वारा चलाई जा रही 'कुंवरबाई नु मामेरू योजना', 'महाराष्ट्र में प्रचलित काम धेनु योजना', आंध्रप्रदेश में 'बालिका संरक्षण योजना' आदि इस दिशा में किए जा रहे प्रयास हैं। बीस सूत्रीय कार्यक्रम के कुछ प्रावधानों और परिवार नियोजन कार्यक्रम को जो कुछ भी सीमित सफलता प्राप्त हुई उसका सीधा लाभ सबसे पहले महिलाओं को मिला। काहिरा सम्मेलन (१९९४) व बीजिंग में महिलाओं पर चतुर्थ विश्व सम्मेलन (१९९५) ने महिला व बाल स्वास्थ्य सुधार और महिलाओं के यौन स्वास्थ्य व अधिकारों जैसे अन्य मुद्दों को भारतीय नीतियों में दाखिल कर दिया। भारत सरकार सोची और तय की हुई नीतियों के साथ विदेशी हलकों से आयातित विचारों और सलाहों के चलते हुए कुछ आशाजनक स्थिति निर्मित हुई। साथ ही महिलाओं के पक्ष में किए गए कानूनी सुधारों ने भी महिलाओं की पैरवी की। लेकिन समितियों, रपटों, योजनाओं और सुधारों से परे हटकर यदि वास्तविकता देखी जाए तो महिलाओं से संबंधित मोटे-मोटे तथ्य ही उनकी स्थिति की पोल खोलते हैं। वर्ष १९९१ की जनगणना के अनुसार स्त्री-पुरुष अनुपात ९२७ महिलाएं प्रति हजार पुरुष रहा। वैवाहिक स्थिति के आंकड़े बताते हैं कि १५ से १९ वर्ष के आयु समूह में ७ प्रतिशत लड़कों और ३९ प्रतिशत लड़कियों का विवाह हो जाता है। कम आयु में विवाह और मातृत्व के बोझ के अलावा सामान्य तौर पर भी माताओं में कुपोषण, उनकी अस्वस्थता और मृत्यु दर के मुख्य कारण है। गर्भावस्था के दौरान और प्रसूति के बाद स्वास्थ्य की उपेक्षा आम बात है। यह परिस्थितियाँ ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक व्याप्त है। बालक की चाह आज भी अत्यंत तीव्र है और विज्ञान की दया से मादा भू्रण हत्याएं निरंतर वृद्धि पर है। बालिकाओं के साथ भेदभाव को भी कई स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है। टीकाकरण व पोषण के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं। बालिकाओं और महिलाओं पर यौन अत्याचार ने अकल्पनीय आयाम ग्रहण कर लिए हैं। स्वास्थ्य के अलावा मानव कल्याण के सबसे सशक्त माध्यम शिक्षा की भी हालत दयनीय हैं स्कूलों में नामांकन अनुपात शाला में उपस्थिति दर और विद्यालय त्याग अनुपात में लिंग-भेद के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। विद्यालयीन, सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत कारणों के चलते यह प्रवृत्ति स्कूली शिक्षा के आगे भी यथावत्‌ बनी रहती है। पुरुषों में साक्षरता दर ६४.१३ प्रतिशत तथा महिलाओं में ३९.२९ प्रतिशत है। साक्षरता और शिक्षा के अभाव में स्त्रियाँ जिन अनेक लाभों से वंचित रहीं उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है रोजगार। १९९१ की जनगणना के आंकड़े दर्शाते हैं कि कार्यशील जनसंख्या का ७१.४२ प्रतिशत पुरुष थे और मात्रा २८.५८ प्रतिशत महिलाएं थीं जबकि असलियत यह थी कि ऊंची निरक्षरता दर के बावजूद अधिकांश महिलाएं काम करती थीं। इसी सांख्यकीय प्रमाण के पीछे बहुलता के कारण उनके कार्य की गणना नहीं की जाती। श्रम कानूनों के दायरे से बाहर ये महिलाएं कई प्रकार के शोषण का शिकार होते हुए भी आर्थिक तंगी के कारण इस क्षेत्र में अशिक्षित और सकल राष्ट्रीय उत्पाद के लगभग एक चौथाई हिस्से के बराबर योगदान करती हुई महिलाओं का कार्य पारिवारिक श्रम के रूप में विलीन हो जाता है। इसके अलावा कई महिलाएं तथाकथित स्त्री सुलभ नौकरियों, अंशकालिक कार्यों और स्व-रोजगार के कुछ क्षेत्रों तक सीमित रह जाती है। भारत के लिंग आधारित श्रम बाजार की एक विशेषता यह भी है कि इसके एक सिरे पर यदि अदृश्य आर्थिक योगदान करती उपेक्षित महिलाएं हैं तो दूसरे सिरे पर सफेद पोश नौकरियों, व्यवसायों व उच्च पदों पर आसीन महिलाएं भी हैं। ये बात अलग है कि व्यावसायिक शिक्षा की सीढ़ियाँ चढ़कर इन स्थितियों में पहुंचने के बाद भी ये महिलाएं कैरियर की प्रतिकूल मांगों और संस्कृतिजन्य पारिवारिक दायित्व के बीच सामंजस्य बैठाने में पिसती रहती हैं ऐसी महिलाओं की संख्या कम होते हुए भी स्त्री दशा में नाटकीय परिवर्तन दर्शाने के लिए पर्याप्त हो जाती है साथ ही दूसरे क्षेत्रों में महिलाओं के कार्य की अदृश्यता को ये आंकड़े ढांक लेते हैं। फलस्वरूप स्त्रियों की आर्थिक भूमिका को कम आंके जाने के दूरगामी परिणाम योजनाओं और विकास कार्यक्रमों की रूपरेखा तक देखे जा सकते हैं। इसीलिए यह आवश्यक हो जाता है कि महिला विकास कार्यक्रमों को पुनः परिभाषित किया जाए। भारतीय महिलाओं के संस्कारों की अच्छी विशेषताओं को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता प्रदान की जाए। साथ ही प्राथमिक शिक्षा से ही लैंगिक समानता के मुद्दों पर जोर डालना जरूरी हो जाता है। मानसिकता में बुनियादी परिवर्तन के बाद ही महिला सबलीकरण के अन्य बाह्‌य तरीके सफल हो सकते हैं।

यह बात भी उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश पांच साल पहले लागू की गई अपनी महिला नीति का आकलन किसी स्वतंत्रा एजेंसी से करवाना चाहती है, ताकि गत अनुभवों और इस अध्ययन-आकलन के निष्कर्षों के प्रकाश में नई नीति को सुदृढ़ आधार मिल सकें। सिद्धांततः प्रदेश में महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए किए गए कार्यों की एक प्रभावशाली सूची है। संस्थागत प्रजातांत्रिक ढांचे में नारी को नारायणी बनाने के प्रयास के फलस्वरूप तीस प्रतिशत पंच-सरपंच महिलाएं हैं। अब यह बात अलग है कि कुछ महिला सरपंचों के पतियों की जरूरत से ज्यादा सक्रियता ने एस पी यानी सरपंच पति नामक एक नया शब्द राजनीतिक मुहावरे में जोड़ दिया है। अन्य बातों के अलावा यहाँ शिक्षा-सहकारिता, नौकरियों आदि में महिलाओं के आरक्षण के साथ-साथ भूमि स्वामित्व में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने से नारी उत्थान के आर्थिक स्वावलंबन पक्ष, को निश्चय ही मजबूती मिलेगी। महिलाओं की स्थिति में सिद्धांततः सुधार के दावों के बावजूद व्यवहारतः मैदानी हालात में कोई निर्णायक अंतर शायद ही आया हो। अगर प्रदेश के उत्तरी जिलों में बालिका के जन्म को अभी भी इतना हतोत्साहित किया जाता है कि वहाँ स्त्री-पुरुष अनुपात डगमगा गया है। क्या बालिका शिशु की हत्या गोहत्या से कम पाप हैं? हो सकता है कि इस वर्ष के जनगणना के आंकड़े इस बिंदु पर आंखे खोलने वाले साबित हों। जहाँ दतिया, देवास या रायसेन जिले महिला आई.ए.एस. और आई.पी.एस. अधिकारियों की पदस्थिति के लिए जाने जाते हैं, वहीं स्वयं मुख्यमंत्री से संबंधित राजगढ़ और गुना जिले महिला उत्पीड़न के लिए रेखांकित है। स्थिति का व्यंग्य यह है कि खुद मुख्यमंत्री महिला जागरण और सशक्तीकरण के प्रबल प्रतिबद्ध पक्षधर हैं। इसका साफ मतलब है कि महिला उत्थान की तमाम योजनाओं को समाज की अपेक्षित स्वीकृति अभी भी मिलने को है। आखिर क्या कारण है कि दहेज, मौतों और बलात्कारों जैसे जघन्य अपराधों के मामले में मध्यप्रदेश देश के शीर्षस्थ प्रदेशों में से है? कहीं ऐसा तो नहीं कि महिला सशक्तीकरण की योजनाएं शासकीय दावों के कलश-कंगूरों की श्रृंगारिक शोभा बनकर रह गई है जबकि सामाजिक चेतना की नींव से उनका कोई नहीं है। महिलाओं के लिए मगर के आंसू बहाने से कुछ नहीं होगा। नारी को नारायणी बनाने के लिए उसके 'आँचल में है दूध और आंखों में है पानी' वाले हालात बदलने होंगे।

शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और अन्य सभी अवसरों में सामाजिक विभेद उनके विवेक और चेतना को पंगु कर देते हैं। ऐसी स्थिति में सशक्तीकरण के सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों से औपचारिक शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और साख व रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाना आवश्यक है, परंतु इन अवसरों से लाभ उठाकर भी महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन आए यह आवश्यक नहीं है, इसलिए महिलाओं के आंतरिक सोच में परिवर्तन लाने के लिए प्रचार-प्रसार भी आवश्यक है। आत्मिकरूप से निर्भीक, बचपन से ही शारीरिक रूप से शक्तिशाली और आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाना, महिला सशक्तीकरण के चरण हो सकते हैं। इसके साथ ही विधिक साक्षरता और सहायता से इस जागृति को सही दिशा में गति दी जा सकती है जिससे सूक्ष्म से वृहद स्तर तक हो रहे प्रत्येक प्रकार के अन्याय और अपराध का सशक्त विरोध महिलाएं कर सके। पुलिस, प्रशासन और विधि से जुड़े संपूर्णतंत्र को इस संबंध में संवेदनशील बनाना सार्वजनिक नीतियों की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। इन सभी प्रयासों की सफलता समाज के और सबसे ज्यादा स्वयं महिलाओं के दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन पर निर्भर करती है स्वयं के प्रति आस्था और मानवीय मूल्यों में दृढ़ विश्वास से ही महिला सशक्तिकरण संभव है।

महिला सशक्तिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें न केवल संसाधनों पर उनको अधिकार दिलाने होंगे वरन्‌ इस विचारधारा को भी बदलना होगा, जो भेदभाव के विचारों, दृष्टिकोण और विश्वास के जरिए लिंग-भेद को बनाये रखते हैं। इस विचारधारा वाले बिन्दु को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए क्योंकि इसमें परिवर्तन न होने के कारण ही सरकार की अनेक सशक्तिकरण योजनाएं निष्प्रभावी सिद्ध हुई हैं। तमाम सशक्तिकरण योजनाओं में संसाधनों के पुनर्वितरण, संसाधनों के पुनर्वितरण, संसाधनों पर समान पहुंच और अधिकार के जरिए महिला पुरुष के शक्ति संबंधों में और साथ ही ऐसे विचारों को आगे बढ़ाने वाली संस्थाओं व संरचनाओं में परिवर्तन लाना आवश्यक है। अतः सशक्तिकरण का प्रारंभ उस वैचारिक परिवर्तन पर आघात करके किया जाना चाहिए जो कि भेदभाव को आगे बढ़ाते हैं। इसके लिये महिला-पुरुष की समानता के विचारों को समाज में प्रसारित किया जाना चाहिए। महिलाओं के लिए शिक्षा अनिवार्य हो और शिक्षा के पाठ्यक्रमों में असमानता के मूल्यभारित अंशों को हटाया जाना भी आवश्यक है दूसरे, महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्म निर्भर बनाकर सशक्त किया जाएं। विभिन्न सेवाओं एवं क्षेत्रों में आरक्षण और दूसरी सुविधाएं देकर उन्हें आगे लाने के प्रयासों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए लागू की गई विभिन्न योजनाओं की समीक्षा कर बेहतर क्रियान्वयन की व्यवस्था की जाए। महिलाओं की स्थिति को सुधारने-संवारने के लिए अनेक कानून बनाये गये लेकिन इसके ठीक से क्रियान्वयन नहीं होने से वे अप्रभावी है। अतएव उनमें संशोधन एवं उनके क्रियान्वयन के लिए उत्तरदायी एजेन्सियों विशेषकर पुलिस और प्रशासन के साथ ही साथ न्यायपालिका को अधिक संवेदनशील बनाया जाना आवश्यक है।

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तुम बिन

SEEMA GUPTA


हर गीत अधुरा तुम बिन मेरा,
साजों मे भी अब तार नही..
बिखरी हुई रचनाएँ हैं सारी,
शब्दों मे भी वो सार नही...
जज्बातों का उल्लेख करूं क्या ,
भावों मे मिलता करार नही...
तुम अनजानी अभिलाषा मेरी,
क्यूँ सुनते मेरी पुकार नही ...
हर राह पे जैसे पदचाप तुम्हारी ,
रोकूँ कैसे अधिकार नही ...
तर्ष्णा प्यासी एक नज़र को तेरी,
मिलने के मगर आसार नही.....

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