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Thursday, December 11, 2008

पराजित पीढ़ी का अपराजित नायक

प्रताप दीक्षित
हमारी नियति है कि हम इतिहास के उस कालखण्ड में रहने को विवश हैं जो एक ओर निरन्तर परिवर्तनशील और दूसरी ओर निपट निर्मम है। ऐसे समय में कबीर का पुनर्पाठ केवल अकादमिक दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण नहीं, इसलिए भी अपरिहार्य हो जाता है कि व्यवस्थाएँ भले ही अनेक बार बदल चुकी हों, परन्तु जातीय भेदभाव, साम्प्रदायिक विद्वेष, असमानता और अंधविश्वासों में उस काल की तुलना में वृद्धि ही हुई है, जब कबीर ने इनके विरोध में विद्रोह किया था।आज सुविधा साधनों के बाहुल्य होने पर भी मनुष्य दुश्चिन्ता, अवसाद और आतंक से ग्रस्त है। चारों ओर क्रूरता, प्रपंच, दुःरभि सन्धियों, सत्ता की विश्वासघाती आकांक्षाओं, संहारक अस्त्रा-शस्त्रों से घिरा मनुष्य आत्मविपन्न हो गया है। निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए जाति, धर्म, नस्ल और वर्ग के नाम पर कठपुतली की भाँति, उसका उपयोग किया जाना उसकी विडम्बना हो गई है। अतीत से वंचित और भविष्य के नाम पर आशंकित आम आदमी जितना अप्रासंगिक आज हो गया है, उतना कभी नहीं रहा।कबीर के युग में शासक वर्ग जाति और धर्म का विचार न करके राज्य लिप्सा के लिए परस्पर लड़ते रहते थे। तैमूर का सुल्तान तुगलक पर आक्रमण हो या लोदी द्वारा इटावा के सुल्तान मोहम्मद शर्की और जौनपुर के शासक मोहम्मद सुल्तान की पराजय आदि एक धर्म द्वारा दूसरे धर्म पर जिहाद नहीं बल्कि सत्ता और अर्थ लिप्सा की पूर्ति के लिए किया गया आक्रमण था।
अन्तः कलह और अराजकता चारों ओर व्याप्त थी। सामंती समाज द्वारा साधारण जन के आर्थिक और सामाजिक शोषण के लिए कर्मकाण्ड, तीर्थाटन, छुआछूत आदि बाह्याचारों के विधान मुल्लाओं, इमामों, पण्डितों और महंतों द्वारा रचे गए थे। इन्हें शासक वर्ग का प्रश्रय भी प्राप्त था। शायद हर युग में अतिवादी कट्टरपंथियों के साथ सत्ता का गठजोड़ रहता है।ऐसी स्थितियों में कबीर का स्वर, मानो उस पराजित, मूक, उपेक्षित और निरीह पीढ़ी का, विद्रोह था। कबीर की वाणी उनकी अस्मिता का संघर्ष थी। उनकी आवाज दबाने की बहुत कोशिशें की गईं। परन्तु यह आवाज दबती कैसे? यह आवाज तो उस जाति कुल विहीन आम मेहनतकश फक्कड़ इंसान की थी जिसे न तो राजदरबार में राजकवि के पद की चाहत थी ना ही अकादमियों के पुरस्कार, वाइसचांसलरी, विदेशी डेलीगेशनों की यात्रा की दरकार या अवकाश ग्रहण के बाद संस्थानों में सलाहकार बनने की जरूरत।
तभी तो वह कह सके - आधी अरु रूखी भली, सारी सो संताप।/जो चाहेगा चूपड़ी, बहुत करेगा पाप॥स्पष्ट कहने में उन्हें कोई भय या संकोच नहीं था। उन्होंने जनसामान्य को संबोधित करते हुए कहा - तुम अपनी हर छोटी बड़ी समस्या के लिए पण्डित और मुल्लाओं का मुँह क्यों जोहते हो? स्वयं कुछ क्यों नहीं करते? जैसे - पण्डित मुल्ला जो लिख दिया/वो ही रटा तुम किछु न किया।कबीर बाह्य आडम्बरों, पाखण्ड, सामंती वर्णाश्रम व्यवस्था पर लगातार व्यंग्य प्रहार करते रहे। असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं - मूड़ मुड़ाए हरि मिलै/संतो, पाण्डे निपुत कसाई/पेटहु काहु न वेद पढ़ावा/नारी गोचित गर्भ प्रसूती। आदि उक्तियों ने रूढ़ियों, अंधविश्वासों, जाति धर्म की दीवारों और अत्याचारियों की तलवारों तक को विचलित कर दिया था।
उनकी प्रखरता, कटाक्ष और व्यंग्य की धार ने पण्डित मुल्लाओं को ही नहीं सत्ता को भी चुनौती दी थी-झूठ रोजा, झूठी ईद-जैसी उक्तियों से क्रूद्ध होकर बादशाह सिकन्दर लोदी ने इन्हें गंगा में फिकवा दिया था । वह लिखते हैं - गंग गुसाइन गहिर गंभीर, जंजीर बाँधि करि डेर कबीर।तत्कालीन समाज में नारी को नर्क का द्वार मानने वाले वेद पुराण के पंडितों, चिन्तकों को उस अनपढ़ कबीर ने मानो आग ही लगा दी, जब कबीर ने कहा - जैसी मिस्त तैसी है नारी, राज पाठ सब गिनै उजारी।नारी के लिए बहिश्त का प्रयोग उन नारी विरोधियों को तिलमिला गया। परन्तु जनमानस बदलने लगा था। दबे कुचले लोगों में विद्रोह जागने लगा था। कबीर के शब्दों ने पुराने विश्वासों को झकझोर दिया था।
अक्खड़ कबीर भरी सड़क पर भीड़ के बीच गाने लगे थे - पेटहु काहु न वेद पढ़ाया, सुनति कराय तुरक नहिं जाया।/नारी गोचित गर्भ प्रसूती, स्वांग करे बहुतै करतूती।/ताहिया हम तुम एकै लोहू, एकै प्राण बिलायत मोहू।समाज के स्वयंभू कर्णधार पहले तो स्तब्ध रह गए फिर सामूहिक रूप से उन्हें पापी, काफिर, बुद्धिहीन जाने क्या-क्या कहना शुरू कर दिया। परन्तु उनकी आवाज मानव मात्रा एक समान के समर्थन में प्रचंड जन रव आ मिला था। क्योंकि उन्होंने जो कहा था वह जन-जन का, मनुष्य का और अपराजित मानव का सत्य था।सत्य देश काल से परे होता है। आज पाँच सौ वर्षों के बाद इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ में उनके संदेश को प्रासंगिकता चुकी नहीं है। आज भी जातीय आग्रह, साम्प्रदायिकता, वर्ग वैषम्य कम नहीं हुए हैं। आज यह सब सत्ता की लड़ाई में सबसे कारगर हथियार बन गए हैं। आर्थिक विषमताएँ, क्षेत्रीय समानता, बेरोजगारी चरम पर है। संकीर्ण विचार धाराओं, स्वयंभू धार्मिक गुरुओं और पैगम्बरों द्वारा स्थापित संवेदनहीन मान्यताओं और अवैज्ञानिक विचारधारा से समाज उसी तरह ग्रस्त है जिस तरह तर्कहीन मध्ययुग में था। मनुष्य के प्रति सहज करुणा के विरुद्ध प्रवृत्तियाँ आज भी मौजूद हैं।सबसे भयावह यह है कि आम आदमी पूरी व्यवस्था से कटा हुआ है।
वह बाड़ों में कैद है। जैसे पशुओं को चर कर आने के बाद किया जाता है। यह बाड़े प्रबल हो गए हैं। जाति के बाड़े, धर्म के बाड़े, वर्ग के बाड़े। एक बाड़े का मनुष्य दूसरे को भय और शंका से देख रहा है। भले ही उनके सरोकार एक हों। इतिहास गवाह है कि मनुष्य की चेतना को प्रसुप्त करने के प्रयास हर उस व्यवस्था में किए जाते हैं जिसे मनुष्य की मुक्ति में विश्वास नहीं होता। ऐसे में कबीर की याद प्रेम की तलाश है-कबीर की प्रेम की अलख सहज भी तो नहीं -यह तो घर है प्रेम का/ढाई आखर प्रेम का।''आज जब विवेक मर चुका है, विचार मृत हैं, आत्माएँ मृत हैं तो संसार को जीवन का राग सुनाने वाले कबीर की पुनः आवश्यकता महसूस होती है क्योंकि चारों ओर ध्वंस के ढेर पर कबीर ही तो मृत्यु से अमृत की ओर अग्रसर हैं- हम न मरे मरिहै संसारा, हमकू मिला जिआवन हारा।

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