मधुशाला
हरिवंशराय बच्चन
भूल गया तस्बीह नमाजी,
पंडित भूल गया माला,
चला दौर जब पैमानों का,
मग्न हुआ पीनेवाला।
आज नशीली-सी कविता ने
सबको ही बदहोश किया,
कवि बनकर महफ़िल में आई
चलती-फिरती मधुशाला।
रूपसि, तूने सबके ऊपर
कुछ अजीब जादू डाला
नहीं खुमारी मिटती कहते
दो बस प्याले पर प्याला,
कहाँ पड़े हैं, किधर जा रहे
है इसकी परवाह नहीं,
यही मनाते हैं, इनकी
आबाद रहे यह मधुशाला।
भर-भर कर देता जा, साक़ी
मैं कर दूँगा दीवाला,
अजब शराबी से तेरा भी
आज पड़ा आकर पाला,
लाख पिएँ, दो लाख पिएँ,
पर कभी नहीं थकनेवाला,
अगर पिलाने का दम है तो
जारी रख यह मधुशाला।
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