कबीर के काव्य में कृषक-जीवन की त्रासदी का वर्णन
डॉ० शगुफ्ता नियाज
कृषक जीवन अभावों का जीवन रहा है। उसकी आवासीय व्यवस्था व निर्माण की प्रक्रिया उसके अभावों की द्योतक रही है। वह जिस तरह की झोपड़ी में रहता आ रहा है वह मौसम की मार झेलने में असमर्थ रही है। बरसात कृषक जीवन में कृषि संदर्भ में जहाँ उसके लिए संजीवनी है वहीं उसके गार्हस्थिक जीवन के लिए विषम परिस्थितियाँ लेकर आती है। कबीर ने कृषक जीवन की इस दशा को स्वयं देखा है, अनुभूत किया है। कवि ने अपनी इस दारूण अनुभूति और बरसात से बचने के लिए एक किसान द्वारा किए गए प्रयासों से अपने काव्य में रूपक संरचना की है। कबीर के कृषक जीवन से संबंधित रूपक जहाँ एक ओर कृषक जीवन की त्रासदी का मार्मिक वर्णन करते हैं वहीं गूढ़ परमतत्त्व की सत्ता के रहस्य का उद्घाटन भी करते हैं - जुगिया न्याय मरै मरि जाइ।/घर जाजरौ बलीडों टेढ़ौ, औलौति(अरराई) उरराई।/मगरी तजौ प्रीति पाषै सूं, डांडी देहु लगाई।/छीको छोड़ि उपराहिड़ो बांधो, ज्यूं जुगि जुगि रही समाइ।/बैसि परहड़ी द्वार मुंदावे, ल्यावो पूत घर घेरी।/जेठी धीय सांसरे पठवौं ग्यूँ बहुरि न आवै फेरी।/लुहरी धीय सबै कुल खोयौ, तब ढिग बैठन जाई।/कहै कबीर भाग बपरी कौ, किलकिल सबै चुकाइ।१वलींडो-ये छप्पर को आधार प्रदान करने के लिए बल्ली रूप में प्रयुक्त होती है जिसे जीव के शाश्वत ज्ञान के रूप में लिया गया है। औलौती-यह वर्षा के पानी को दूर फेंकने के लिए होता है जिसे काल के प्रभाव से रोकने की क्षमता के रूपक में लिया गया है। पाषा-ये मिट्टी या कच्ची ईंटों की ढलावदार दीवार के रूप में होता है जिस पर बलींडा रखा जाता है जो कि भक्ति ज्ञान व साधना के रूप में ग्रहण किया गया है। कृषक जीवन में छींका भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जो छप्पर में लटका होता है जिसमें बचा हुआ खाद्य पदार्थ रखा होता है जिसे संचित पुण्य कर्मों के रूप में लिया गया है। मगरी-बल्ली रखने की जगह होती है जो कि आसक्ति व अहंभाव का रूपक है। परहड़ी जल रखने का स्थान होता है जिसे आनंदस्वरूप माना गया है व उपराहड़ी परम तत्त्व या शून्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन प्रतिमानों से एक सुन्दर रूपक की रचना करते हुए कबीर जीव की स्थिति का निरूपण करते हैं। कृषक के जर्जर छप्पर की भाँति ही जीव के शरीर की भी दशा हो गई है और कृषक तेज वर्षा से छप्पर के गिरने की स्थिति से जिस प्रकार भयभीत रहता है, वैसे ही जीव की भी दशा ज्ञान व साधना के अभाव में क्षीण होती जा रही है।जीव का शरीर रूपी घर तो जर्जर है ही और उसका आधार (मेरूदण्ड) विषयों के बोझ से टेढ़ा पड़ गया है। इस छप्पर की कच्ची दीवारों की वर्षा के जल से रक्षा करने वाला औलौती भी छिन्न-भिन्न होकर डगमगाने लगी है अर्थात् काल के प्रभाव को रोकने की उसकी सामर्थ्य भी क्षीण होती जा रही है। छप्पर बलींडे रखने का स्थान (मगरी) का ध्यान छोड़कर उसको मोटा करने और सजाने का ध्यान छोड़कर उसके पाखों को मजबूत करने और सजाने का ध्यान छोड़कर उसके पाखों को मजबूत करने के लिए सहारा दो, ताकि वे गिरने से बचें। छींका बाँधने में सतर्कता बरतने की अपेक्षा छप्पर के ऊपरी हिस्से को मजबूती से बाँधो ताकि वह युगों तक बना रह सके अर्थात् भोगेच्छा से प्रेरित होकर विषयों के संचय और संरक्षण की आकांक्षा छोड़कर अपने मन के उच्चतम परम तत्त्व से अथवा गगन से बाँध दो ताकि उसमें तदाकार होकर अनन्त काल तक बने रह सको। इसके ऊपर का छप्पर भी सुराखों से पूर्ण एवं टूटा हुआ है। किसान के जर्जर घर में ऐसी अवस्था में पानी भर जाता है उसी प्रकार सुराखों से मृत्यु रूपी जल भीतर जाना चाहता है। बादल जब गरजते हैं तो जो दशा गरीब कृषक के टूटे मिट्टी के घर में रहने वालों की होती है कि वह उस गर्जना से बार-बार अपने को बेघर व असहाय अनुभव करने के लिए बाध्य हो जाता है। वही स्थिति काल की है जिसकी गर्जना कबीर ने सुनी व इस जीर्ण-शीर्ण मिट्टी रूपी काया के क्षणिक अस्तित्त्व का भान होते ही भय उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व में समा गया।इस प्रकार उक्त रूपक के माध्यम से कृषक जीवन की दुर्दशा और उसकी अर्थव्यंजना से आध्यात्मिक साधना को स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया गया है।कबीर ने ग्रामीण जीवन जो मूलतः कृषक जीवन ही माना जा सकता है को एक नहीं अनेक स्थलों पर अपने रूपक का विषय बनाया है। कबीर के इन रूपकों से एक ओर सामाजिक स्थिति का बोध होता है तो दूसरी ओर इस स्थिति से व्यंजित आध्यात्मिक जीवन बोध की अनुभूत्यात्मक दिशा खुलती है। कबीर के रूपकों के लिए यह सामग्री कृषक जीवन की दयनीय व्यवस्था से मिली है।
उदाहरण स्वरूप- इब न रहूँ माटी के घर में।/इब मैं जाइ रहूँ मिलि हरि मैं।/छिनहर घर अस झिरहर टाटी, धन गरजत कंपै मोरी छाती।/दसवैं द्वारि लागि गई तारि, दूरि गवन आवन भयो भारी।/चहुँ दिसि बैठे चारि पहरिया, जागत मुसि गए मोर नगरिया।/कहै कबीर सुनो रे लोई, भानण घड़ण संवारण सोई।२
जब आकाश में बादल गरजते हैं तो किसानों के हृदय में प्रिय की वियोग की पीड़ा व भावुकता के आँसू नहीं उमड़ते बल्कि उनकी छाती काँप उठती है और वे अपने मिट्टी के कच्चे घर में रहने से इंकार कर देते हैं कहीं वह कच्चा घर चू-चू कर ढह न जाए। इस मिट्टी के घर को कबीर ने आध्यात्मिक संदर्भ में काया कहा है व इसमें रहने से इंकार किया है कि यह शरीर रूपी घर अत्यन्त जीर्ण है।
घर की क्षणिकता व तुच्छता जीवन संदर्भों को अध्यात्म से जोड़ते हुए सफल अभिव्यंजना प्रस्तुत की है - काल के बादल जब गरजते हैं तब कबीर का आध्यात्मिक भय धन गरजत कंपे मोरी छाती' में पूर्ण रूप से परिलक्षित है। परन्तु ये भय कबीर के निजी जीवन से कदापि नहीं। क्योंकि कबीर के भीतर गाँव का आम आदमी है जो समाज की मारो को चुपचाप झेलता है। कबीर की ये महानता ही है कि उन्होंने परब्रह्म को एकान्त में न खोजकर समाज की भयानक परिस्थितियों में खोजा है और यही कबीर के चरित्रा का वह अंतर्विरोध है जिसे अधिकांशतः विद्वान समझ नहीं पाए हैं कि वह कर्म जगत में पूर्णतः सामाजिक है वहीं आतंरिक जगत में एकान्तिक है परन्तु कबीर की समग्रता का ये सशक्त प्रमाण है कि परमतत्त्व को पाने के सारे प्रयास धरती से ही प्रारम्भ होते हैं।
धरती के आम आदमी से छिपी दिव्यता को निकालकर ही कबीर ने अपने काव्य रूपकों की संरचना की है।मध्यकाल में कबीर ने उस संत परंपरा का प्रवर्त्तन किया, जो आत्मबोध के साथ समाज बोध को भी साथ लेकर चलता है। कबीर भीतर से परमसत्ता की तलाश में ही नहीं वरन् सामाजिक क्रांति के लिए भी बेचैन रहते हैं। इन्हीं दोनों में सामंजस्य बैठाते हुए कबीर ने अपनी काव्य रचना की सुन्दर सृष्टि की, जिसका एक प्रमुख तत्त्व रूपक विधान है।कबीर ने आध्यात्मिक सत्य की अवधारणा कृषक जीवन के लौकिक उपादानों के माध्यम से की है। सूक्ष्म अनुभूतियों के लिए कबीर ने रूपक का आश्रय लिया है व कृषक जीवन के उपादानों जैसे-किसानी, खेती, बीज, फल-फूल आदि के उपादानों से परमार्थ बोध की अभिव्यक्ति कराई है।
यथा-कालर खेत कृषक जीवन का अनुपयोगी भाग है, उसे भक्ति विहीन हृदय से सम्पृक्त कर कबीर ने अपने रूपकों में नवीन दृष्टि प्रदान की है। अच्छे व बुरे कर्मों से फल प्राप्ति को उपजाऊ व कालर दोनों भूमियों के अंतर को आध्यात्मिक संदर्भ में स्पष्ट किया है। इसी संदर्भ में कुदार, बीज व नय को क्रमशः ज्ञान, नाम व ध्यान के रूपकों में सफल प्रस्तुसित कबीर ने की है।कबीर की भावनाएँ एक किसान की भावनाओं के अत्यन्त निकट हैं। निचाई खेत के माध्यम से कबीर ने इस तथ्य की पुष्टि की है कि सांसारिक सुखों में आसक्ति ढूँढना हृदय को सूखाग्रस्त क्षेत्रा में परिवर्तित करना है और उसे विपरीत दिशा में मोड़ना अध्यात्म से जोड़ना है जो निचाई खेत की भाँति अवश्य ही अंकुरित होगा।कृषक की सुरक्षा के उपायों को जीवन में अनियन्त्रिात विषय विकारों के साथ जोड़ते हुए कबीर ने इस तथ्य का उद्घाटन किया है कि जीव को भी सजग होकर अपने जीवन रूपी खेत में भक्ति तत्त्व रूपी उपज की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिए।कृषक जीवन प्रकृति से भी अन्यन्तम रूप से जुड़ा है इस तथ्य को कबीर ने रूपक के रूप में ढाल कर सफल प्रस्तुतियाँ की है कि जहाँ एक ओर वृक्ष के द्वारा जीवन व सृष्टि का स्वरूप प्रस्तुत हुआ है वहीं जागतिक बेल से परब्रह्म के गुणों की अर्थवत्ता की गई है। प्रकृति में ÷वर्षा' का अपना महत्त्व है, जिसे भगवद् कृपा रूपी घटा के माध्यम से आध्यात्मिक जीवन बिम्ब की प्रस्तुति की है।कृषक जीवन के सामाजिक पक्ष जैसे-सामंती जीवन और जमींदारी व्यवस्था के कुशासन से पीड़ित जनता की पीड़ा को अनुभूत कर कबीर ने रूपक विधान के लिए प्रतिमान ग्रहण किए। यथा-शरीर के लिए गाँव व पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को सहायक किसान मानते हुए सामाजिक व आध्यात्मिक दोनों पक्षों पर प्रकाश डाला है।कृषक जीवन के अभावों का वर्णन करते हुए (घर जाजरौ बलींडो टेढ़ो औलोती अरराई) के रूप में जहाँ एक ओर उसकी आवासीय व्यवस्था का वर्णन किया गया है वहीं जीव के शाश्वत ज्ञान के आधारों को भी बताने का उद्देश्य निहित है।
संदर्भ-ग्रन्थ
१. डॉ० जयदेव सिंह, वासुदेव सिंह, कबीर वाङ्मय, सबद, पद-२२, पृ. २००
२. (सं.) डॉ० श्याम सुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली, पद-२७३, पृ. १३५
3 comments:
नित्य अभावों में जो रहता उसका नाम किसान है .
अन्नदाता नित भूखा रहता विधि का विचित्र विधान है .
बड़ी सारगर्भित व्याख्या की है आपने. आपकी मेहनत और बुद्धिमत्ता साफ झलकती है इस आलेख में. भारतीय किसान जीवन और जीव के सन्दर्भ में कबीर का यह रूपक अद्भुत है! आपने इसे बड़े अच्छे ढंग से समझाया है. बधाई भी; धन्यवाद भी! इन पदों से लोकभाषा के बदलाव और विकास का आभास भी होता है.
सरल शब्दों के तालमेल से वर्णन अतिसुन्दर है महोदया
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