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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Saturday, November 1, 2008

समन्वयवादी संत परम्परा में कबीर

प्रो० शुकदेव सिंह
'मेरी एक आँख गंगा है, दूसरी यमुना जिसको पूजना है मेरे पास आए।' इस तरह की बात कभी हमारे शहर बनारस के सबसे ज्यादा सम्मानित बुजुर्ग कवि और सूफी शायर 'नजीर बनारसी' ने कही तो लोगों को लगा कि यह कौन-सी परम्परा है, जिसमें विकसित होने वाला चौरासी बरस का एक बूढ़ा अपने को गंगा-यमुना संस्कृति का देवमंदिर, इबादतखाना मानकर बैठा हुआ है। अगर यह बात नजीर बनारसी ने नहीं कही होती तो लोग उसे बड़बोलापन कहते। लेकिन यह वक्तव्य उस आदमी का है जो सत्तर वर्ष से कविता की दुनिया में अपनी भाषा, शैली और अपनी रचना-दृष्टि के कारण अलग से पहचाना जाता है। नजीर साहब के कमरे में सजाकर रखा हुआ गुलदस्ता नहीं है, एक बड़े से वृक्ष हैं जो जाति, धर्म और वर्ग में क्यारी-क्यारी बँटे हुए एक बड़े मैदान में बरगद की तरह खड़े हैं। इस पेड़ की जड़ें बहुत गहरी हैं। कम से कम हजार साल पुरानी भारतीयता की परम्परा से सीधे जुड़ी हुई हैं। इस परम्परा को हम सिद्ध, नाथ, सूफी, जोगी परम्परा के रूप में याद करते हैं। यह परम्परा भाषा की भी है - चिन्तन, सोच-विचार और सही समय की भी है। संकीर्णताओं और सम्प्रदायवाद, कट्टरता, शास्त्रावाद और मूर्ति-मन्दिरवाद के बीच सबको इन्कार करती हुई यह परम्परा एक जीवित परम्परा है। तमाम तरह के निषेध, नकार और स्थापना और पुनर्स्थापना से संघर्ष करने वाली यह परम्परा हिन्दी-जाति की अपनी शक्ति है। हर बन्द दरवाजे पर यह परम्परा थाप देती है और कहती है कि खिड़कियाँ खोलो, बाहर आओ, जो बदल रहा है, उसे छोड़ो, जो कभी नहीं बदल सकता, उसे कभी मत छोड़ो अर्थात्‌ इंसानियत-मनुष्यता और परम्परा की चरितार्थता को।परम्परा की चरितार्थता को समझना थोड़ा कठिन है क्योंकि यह संग्रह में नहीं, त्याग में विकसित होती है। किसी ने शब्द कहा, अनुयायियों ने उसे आर्ष मान लिया। अक्षर से बाँधा। बाँधा अर्थात्‌ ग्रंथन किया। गठियाना है तो ग्रंथ है फिर इस ग्रंथ के लिए दीवारें खड़ी कीं, देवता बना, मन्दिर बना, छत ढाली, पुरोहित पुजारी बनाया। शंख घड़ियाल भर लिया। टीका, चंदन, माला, तस्वीह, ताबीज, स्वर्ग और मुक्ति का सपना अर्थात्‌ पूरे धर्माचार अर्थात्‌ पाखण्ड को रच लिया। धाम बनाये, तीर्थ खड़े किये, पूजा, प्रसाद और चढ़ावा सब कुछ को ग्रंथ किया। ग्रंथ केवल शब्दार्थ को बाँधना नहीं होता, स्वार्थ को, तृष्णा को, धर्म के कवच के भीतर तह तहकर बाँधना ही ग्रंथ है। मन्दिर, पूजा, पोथी इसीलिए ग्रंथ है। ग्रंथ का एक अर्थ, संग्रह भी होता है। यह संग्रह ऐसे ही सम्भव नहीं होता। उसके लिए चुराना पड़ता है। छिपाना पड़ता है। छीनना पड़ता है और चोटी को बचाने के लिए आक्रमण करना पड़ता है। दूसरे की निन्दा करनी पड़ती है और किसी व्यक्ति, समूह या समाज के प्रति घृणा-प्रचार के साधनों का विकास करना पड़ता है। घृणा के प्रचार के लिए 'ग्रंथ' से अधिक बड़ा साधन और कोई हो नहीं सकता। यह साधन भी है। शास्त्र भी है। दुःख न हो तो कहूँ 'ग्रंथ' से बड़ी कोई 'हिंसा' हो नहीं सकती। 'ग्रंथ' हिंसा का ही नाम है। क्या आपको बहुत खोलकर बताना होगा कि गुरुओं के वचन को जब 'ग्रंथ' में बाँधा गया, तखत पर बिठाया गया तो किस तरह अन्ततः कुछ लोगों ने उसे हथियार की धार, बन्दूक राइफल, गोली की वेधकता से जोड़ दिया। कहाँ कबीर, कहाँ नानक, कहाँ गुरु गोविन्द सिंह की असली ओट कहाँ ग्रंथ से माँजी हुई तलवार की धार कृपाण। कहाँ बन्दूक की गोलियाँ? इससे बड़ा दुःख क्या हो सकता है कि जिन संतों के वचन कृपा के लिए उच्चारित हुए उन्हीं वचनों को कुछ लोगों ने 'कृपाल' की धार के लिए शान बना लिया। दरअसल ग्रंथ किसी भी धर्म, परम्परा या पूजा का हो वह कृपा के लिए बनता है और अन्ततः कृपाण बन जाता है। कबीर और उनसे जुड़ी हुई परम्परा ने इसी कृपा और कृपाण के सम्बन्ध को समझते हैं, पोथी पढ़ने को इन्कार किया था। अगर कबीर ने मसि कागद नहीं छुई, कलम नहीं गही, पोथी पढ़ने वाले को 'मुरदा' कहा तो किस लिए? ग्रंथ से बचने के लिए। मन्दिर और मस्जिद से हटने के लिए। हिन्दू हो या मुसलमान हो, सिख हो या सुन्नत, पूजा हो, या नमाज इस सबसे जुड़ी हुई तारीकी और अन्धेरे की दहशत को समझाने के लिए कबीर ने अक्षर का, वेद का, संस्कृत का, ग्रंथ से जुड़ी हुई श्रद्धा का विरोध किया, उपहास किया, निन्दा की और लुकाठी लेकर खड़े हो गये सरेआम। अपना हाथ अपने सिर से सजाकर उन्होंने एक ऐसा घर बनाया, जिसमें घुसने के लिए 'सीस उतारे कर गहे' तब उसे अपने पास पहुँचने के योग्य बनाया। अब देखिए जिस कबीर के घर में 'सीस' उतार कर ही पहुँचा जा सकता था उसके घर में लोग जूता उतारकर प्रवेश करते हैं। कबीर के मठों के द्वार पर 'फाटक दास' मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा हुआ निर्देश पढ़वाता है, कृपया जूते उतारिए। यह कौन-सा छूत है जिसमें सिर उतारने की जगह को जूते उतारने की जगह में बदल दिया गया। मेरा समझना है वह कि जगह ग्रंथ, पोथी। चाहे वह 'बीजक' हो या 'आदि-ग्रंथ'। पंचवानी हो 'पांजीपंथ-प्रकाश', 'घट-रामायण' हो या 'कुल्जम स्वरूप'। शिव का मन्दिर हो या ठाकुरवाड़ी, मस्जिद हो या कीर्तनस्थल सभी जूते उतरवाते हैं। कहाँ अन्तर है, 'वेद' वालों से और 'बीजक' अथवा 'गुरुग्रंथ' वालों से। सबने पोथी बाँध ली और उससे हवा जोड़ ली। निषेध का नियम बना दिया, कुछ भी खुला नहीं छोड़ा, आचार, व्यवहार, ज्ञान, विवेक सबको 'ग्रंथ' कर लिया 'बाँध' दिया।इस बन्धनवाद या ग्रंथवाद के ठीक समानान्तर मुक्ति और खुलेपन की एक जीवित परम्परा है, जिसे सूफी, जोगी, सिद्धनाथ, यायावर जातियों की गायन-कला, फेरी लगाने की परम्परा में, भिक्षा माँग, गायन और बोधन से जोड़ा गया है। यह परम्परा कर्म और श्रम को धर्म से जोड़ती है। क्या सिद्ध मठों में रहते थे? जोगी आश्रमों में बसते थे? अगर ऐसा था तो मसान में मुरदे की पीठ पर बैठकर मसान कौन जगाता था? द्वार-द्वार घूमकर सारंगी रेतकर अलख कौन जगाता था? घाट, बन, निचाट, ऊसर में बैठा हुआ परती के प्रेम के रूप में पीपल पर झण्डा बनकर कौन टंगा रहता था। इसी पेड़ में डोरा बाँधकर किसी मजार पर अर्जी बनकर कौन समर्पित हो रहा था। दरअसल इसमें दो तरह के लोग थे, बिना घर वाले और घर वाले। जोगी बेघर थे और संत घर-घर में रहते हुए बिना माँगे झीनी-झीनी चादर बुनते, जूता बनाते हुए, दाढ़ी हजामत करते हुए, कसाई का धंधा करते हुए, सबद-विवेकी बने बैठे हुए थे। जोगी और संतों की वास्तविकता को समझने के लिए भारतीय संस्कृति की दोनों परम्पराओं को समझना आवश्यक है। घर छोड़ना है तो घर बनाने के लिए। जोगियों ने यह किया। घर में रहना है तो घर से जुड़ी हुई लालचों से मुक्ति पाने के लिए। सूफियों ने यही किया। संतों ने यही किया। इन दोनों को एक में जोड़ने की जरूरत है। दोनों अलग-अलग स्तर पर ढाई आखर वाले 'प्रेम' की बात दुहराते हैं। इस प्रेम या मानवीय संस्कृति को कुछ लोग भक्ति मान बैठे हैं। लेकिन भक्ति तो समर्पण है। दासता है। वह देवता की दासता है और ग्रंथ की भी दासता है। इसलिए ऐसे तमाम भक्त दास हैं और सभी संत साहब। संत स्वयं को दास माने यह दूसरी बात है लेकिन दूसरे लोग उन्हें तो साहब ही मानते हैं। कबीर स्वयं तो दास हैं लेकिन इनके अनुयायियों और प्रेमियों के लिए 'साहब' हैं। क्षमा करें भक्तों को तो चाहे लोग जितना आदर करें दास ही कहते हैं। अगर उन्हें कोई स्वामी भी मानता है तो इन्द्रियों का। तुलसी दास को कोई साहब नहीं कहता, स्वामी नहीं कहता है - गोस्वामी कहता है। इसलिए कि हमारे भक्त अधिकांशतः ग्रंथ बनाते हैं। लेकिन संत, 'बानी' बोलते हैं। 'संत' और 'भगत' का भेद 'बोल' और 'लिखत' को लेकर है। बड़े अर्थ में बोल 'वचन-वाचन' बिकता है और लिखत ग्रंथन। आखिर बोल और लिखत कविता के ही भीतर दो दुनिया में कैसे बँट गये? यह साधारण जन के लिए अमूर्त है। विवेकी के लिए भी बहुत स्पष्ट नहीं है। इसके लिए उस परम्परा को समझने की आवश्यकता होगी जिसे हम आज की भाषा में 'समन्वय की परम्परा' कहते हैं। स्पष्ट करना चाहूँगा कि समन्वय का अर्थ सबको समेटना नहीं, सही-सही ढंग से विश्लेषित करना ही समन्वय है। आप जानते हैं कि 'अन्वय' के नाम पर कविता में, राग धर्मी तंत्र या वाक्य-विन्यास को गद्य-धर्मी विन्यास में बदला जाता है। उसे आगे पीछे स्पष्ट करने के लिए खोला जाता है। समन्वय, अन्वय का श्रेष्ठ रूप है। वह समूह नहीं है। ग्रंथन नहीं है, समन्वय तो स्पष्टीकरण है। व्याख्या की पहली सीढ़ी है।आखिर ऐसा हुआ क्यों? उसे समझने का समय आ गया है। कबीर को समझने के लिए यह जरूरी भी है। क्योंकि अब तो लोग मन्दिर भी गिरा रहे हैं। इस विश्वास के साथ कि जो मन्दिर को पूजता है, उसे मन्दिर तो गिराने का अधिकार है। यह कुछ ऐसे ही हैं जैसे जो बच्चे को पैदा करता है, उसे बच्चे के कत्ल का भी अधिकार है। शायद यह सब इस भरोसे के साथ किया जा रहा है कि देखो हम अपना मन्दिर गिरा रहे हैं, तुम अपना मस्जिद भी गिरा लो। यह बहुत अच्छी बात है। अगर यही हो और इसी उद्देश्य के लिए हो तो बहुत अच्छा है। अपने मन्दिरों को वे गिरायें, अपने मस्जिद को ये गिराएँ। आदमी को बाँटने वाली दीवारें हम ढहा दें और वेहदी के मैदान में 'अरध से उरध' तक अनहद बाजा बजा दे। लेकिन मेरा ख्याल है कि लोगों का मन साफ नहीं है। वे छोटे मन्दिर गिरा कर बड़ा मन्दिर बनाना चाहते हैं। या डराना चाहते हैं कि देखो हम मन्दिर गिरा सकते हैं मस्जिद क्यों नहीं गिरा सकते? यही होता है। अगर एक बड़े उद्देश्य के पीछे कोई गर्हित कामना हो तो पूरा सन्दर्भ ही बदल जाता है। मन्दिर और ग्रंथ को मस्जिद और कितेब के गिराने और फेंकने की बात तो कबीर ने कही थी। इसलिए कि उनकी कामना बड़ी थी और उद्देश्य भी बड़ा था। जब संकल्प और उद्देश्य में दूरी होती है तो वह एषणा में बदल जाता है। मैं किसी के ऊपर कोई गलत संकेत नहीं कर सकता हूँ। मैं तो यह चाहता हूँ कि मन्दिर भी न रहे और मस्जिद भी न रहे। रहे भी तो एक दूसरे का रहना, एक दूसरा अनुभव न करे। मन्दिर वालों के लिए मस्जिद निरस्त हो और मस्जिद वालों के लिए भी मन्दिर निरस्त हो। कम से कम उसे मस्तिष्क से उतारना होगा। भाई चारे का सपना तभी पूरा होगा। दोनों को बटोरने के लिए दोनों को बिल्कुल एक दूसरे से अलग कर देने के लिए यह जरूरी है कि एक दूसरे अपने धर्म को अस्वीकार कर दें तभी एक दूसरे के बीच निहित मनुष्य का चेहरा 'परिचय' का अंग बनेगा। संतों ने इसी 'परिचय' (परचा को अंग : देखिए ग्रन्थों में कबीर ग्रन्थावली में) का आह्नान किया था। वहाँ कुछ नहीं था, न पोथी न इबादतखाना। सरोकार था और सरोकार से कुछ बड़ा नहीं था उनके लिए। इस पूरे सरोकार की परम्परा को जरा और समझिए।आठवीं, दसवीं शताब्दी के आसपास जब ग्रंथ-साधना और तंत्र ने बौद्ध धर्म को वज्रयान बना दिया और इसके ठीक उल्टे महायान भी बना दिया, हीनयान बना दिया। तब संस्कृति और ग्रंथ के कारण मठ और रहस्य-साधनाओं की भयावनी वृत्ति के कारण बौद्ध परम्पराओं में पतन के लक्षण स्पष्ट होने लगे। इन्हीं बौद्ध मठों में बैठकर शंकराचार्य ने संस्कृत पढ़ी शास्त्र बाँचा। कुमारिल यह ने भी बौद्ध गुरुओं से 'पालि' नहीं संस्कृत पढ़ी थी। ग्राम दिशा से नगर की ओर जाने वाली बौद्ध-भाषा की पलट को शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट ने पढ़ा। कितनी विचित्र बात है कि बौद्ध गुरुओं के ये शिष्य उनसे संस्कृत पढ़ने गये और फिर वही हुआ जो आज गुरुग्रंथ का हो रहा है। 'आतंक' पढ़ने जाते, अमि धम्म पिटक पढ़ने जाते, पालि पढ़ने जाते, बौद्धों की चर्या पढ़ने जाते तो वे बौद्ध भी होते परन्तु संस्कृत की संस्कृति थी जिसने श्रमण के घर में 'ब्राह्मण' खड़ा किया और फिर श्रमण के घर में पढ़े होने वाले ये ब्राह्मण मन्दिर और शास्त्र के लिए प्रस्थान बिन्दु बन गये। स्थापना-कर्ता बन गये। श्रृंगेरी से लेकर बदरी धाम तक द्वारिका से लेकर पुरी तक संस्कृतवादी मन्दिरों का एक समूह खड़ा हुआ। चार धाम और धामों से जुड़े हुए मन्दिर और संस्कृत विद्या-मन्दिर खड़े हुए। अभिधम्म की और धम्म-पद की समाप्ति के लिए शास्त्र और धर्म खड़े हुए। भिक्षु, भिक्षु-संस्कृति के विरोध में उन्हीं का गौरव धारण किये हुए संन्यासी खड़े हो गये। उनमें से कई को गिरि कहा अर्थात्‌ पर्वत की तरह साधु खड़े हो गये। बौद्ध देवता जो वज्र की तरह तीक्ष्ण थे वे वज्र की तरह कुन्द हो गये। बुद्ध से बुद्धु बने, भद्र से भद्दा, वज्र की तरह वेधक बुद्धि वाले वज्रबुद्धि कहे गये और बौद्धों के बड़े-बड़े आराम विहार, मठ, सुन्दर मूर्तियाँ, अमिताभ-मुद्राएँ, हिन्दू देवताओं में बदलने लगे। जो ग्रंथवाद बौद्ध को संकीर्ण बना रहा था, वही ग्रंथवाद उसका शत्रु बन गया। तद्भव को छोड़कर जब बौद्धों ने 'तत्सम' को स्वीकार किया तो उसका 'तत्सम' ही उन्हें खाने लगा। कितना दिन लगा, कुछ वर्षों में ही संस्कृत विजय से तृप्त होकर कुमारिल भट्ट तुषाग्नि में प्रवेश कर गये और इच्छा-मृत्यु वाले शंकराचार्य ने अपने युवा शरीर का परित्याग कर दिया। पर-काया प्रवेश की विद्या स्वकाय की रक्षा के लिए भी आवश्यक नहीं समझी गई। क्योंकि ऐसे कामों के लिए बहुत थोड़ा ही समय चाहिए। नहीं बनने में बहुत समय लगता है। बौद्ध बनने में कुछ महीने। जब बौद्ध बन गये तो उसके अभियंता स्वर्ग देव-पुरुष बन गये। यही वह क्षण था जब सिद्धों ने बौद्ध-विचार लेकर और तद्भव भाषा अर्थात्‌ संस्कृत को छोड़कर जन-भाषा में जिह्ना-जिह्ना में विचरण करने वाला 'चर्यापद' लिखा, दोहे लिखे, प्राण-संकली, बानी, नाम से सिद्धों और नाथों की हजारों रचनाएँ, संस्कृत को छोड़कर लोक-भाषा में स्थापित हुईं और इस तरह का काम संयोगवश सूफियों ने भी किया। जब लोग मकबरों पर मस्जिदों में नीले पर्शियन रंग से कुरान की आयतें लिख रहे थे और यहाँ वहाँ मस्जिद बना रहे थे उस समय गाँव-गाँव की भाषा में गाँव-गाँव की कहानियों को उठाकर सूफियों ने एलहाम की मस्ती का तराना छेड़ा। घर गाँव की कहानी लिखी और यह कहानी घर गाँव की भाषा में लिखी गई। लोक से लोक-भाषा एवं लोक-संस्कृति के साथ जो जुड़ा था उसने सिद्धों, नाथों जोगियों और सूफियों से सच्ची भारतीयता के साथ सम्प्रदायवाद से मुक्ति, संस्कृत और शास्त्रा का निषेध, मन्दिर और मस्जिद का निरोध, जाति और वर्ण का खण्डन जैसे महत्त्वपूर्ण चरित्रा-पाठ सिखाया। यह वह जमीन है जिस पर संतों का उद्भव हुआ, और संत लोकभाषा और जन मानस के वाक्‌ और वाक्य अर्थात्‌ उच्चारण और अर्थ के प्रतीक बन गये।क्या किया संतों ने...? ये छोटे घरों के ओछे कसब के लोग थे। जुलाहा, कोरी, दरजी, जाट, कसाई, नाई, अंसार, सब्जीफरोश, कान्दू, बनिया इत्यादि। समाज के निचले तह के लोग थे। इसमें अधिकांशतः मन्दिर में नहीं जा सकते थे अगर कुछ जा भी सकते थे तो पूजा स्वयं नहीं कर सकते थे। अपना और अपने बच्चों का नाम तत्सम शब्दों से नहीं धारण कर सकते थे। नाम के आगे शर्मा, त्रिापाठी इत्यादि उपाधि जैसे प्रतिष्ठा परक शब्द नहीं लगा सकते। इनके नाम से इनकी प्रतिष्ठा का पता कट जाता था। इन्हें पढ़ने नहीं दिया जाता था, इसलिए इन्होंने पढ़ने के लिए संकल्प लिया और अपढ़ लोगों की एक संस्कृति बनाई। इन संतों ने अपने को 'रामधारी संस्कृति' से सम्बद्ध किया। आश्चर्य नहीं है कि तमाम छोटी जातियाँ आजादी के पहले 'राम' लगाकर अपनी जाति की नीचता को व्यक्त करती थीं। अगर किसी का नाम ईश्वर राम भी है तो उसका अर्थ शूद्र ही होता था, पिछड़ा हुआ होता था। आकस्मिक नहीं है कि कबीर जैसे मुसलमान संत ने 'राम' शब्द को धारण कर लिया। क्योंकि इसके पहले सिद्धों, सूफियों, जोगियों के यहाँ 'राम' नहीं दिखाई पड़ते। निरंजन है, अलख है, अलह है, अकाल है, सत्पुरुष है, तमाम तरह के निराकार ईश्वर सूचक है। यहाँ तक कि गोविन्द और हरि जैसे शब्दों को भी निराकार, निरमोलक, अपशास्त्रीय, असंस्कृति देवता के रूप में प्रतिष्ठा मिलती है। इन ओछे कसब के जुड़े हुए संतों ने दो काम किये। सूफी जोगियों और सिद्धों जैसा मन रखा लेकिन घर नहीं छोड़ा, भीख नहीं माँगी, संग्रह नहीं किया। ग्रंथ नहीं स्थापित किये। इस प्रकार मन्दिर, शास्त्र, संस्कृत, विरोधी जो परम्परा चली आ रही थी उस परम्परा को संतों ने गृहस्थों के बीच रखा और गृहस्थों के बीच रहते हुए भी यह समझाया कि सांसारिक तृष्णाएँ माया होती हैं। पहले साधु, संन्यासी बताया करते थे कि सब कुछ क्षणिक है, सब कुछ मिथ्या है जैसे कोई चिकित्सक बताए कि तुम्हें बुखार है, तुम्हें प्लेग हुआ है। संतों ने कुछ ऐसे किया जैसे घर का कोई भाई कहे कि तुम्हारा सिर तप रहा है तो तुम्हें बुखार आ गया है क्या...? जरा धूप में जाना बन्द करो, बदन ढककर सो जाओ, अपनी ही शीतलता से अपनी गरमी शान्त करो। साधु, संन्यासी तो कुछ दूसरा ही बताते थे। तुम्हारा शरीर तप रहा है, तुम्हें तप करना चाहिए। मोक्ष और ज्ञान पढ़ना चाहते हो तो शरणागति को भी छोड़ दिया। यह शरणागति भाव तो बौद्धों से आया या 'बुद्धम्‌ शरणम्‌ गच्छामि' से आया इसे भक्तों ने लिया, संतों ने नहीं। संतों के यहाँ तो स्वसंवेद्य ज्ञान है, अनभय सांचा। कबीर को समझने के लिए उस समय से जुड़ने की जरूरत है, जिसकी जमीन को शास्त्र, मूर्तिवाद से बचने के लिए सिद्ध, नाथ, सूफी, योगी, मजबूत करते हैं लेकिन इस जमीन के संत अलग-अलग तरह के हैं, जो पिछड़ी जातियों और शूद्र कही जाने वाली जातियों से आते हैं। रैदास अपने को चमार कहते हैं, कबीर जुलाहा, धर्मदास बनिया, पल्टू बनिया, सेन अपने को नाई कहते हैं। अपना जाति-भाव लेने का मतलब ही यह है कि कोई जाति के कारण बड़ा नहीं होता, विचार के कारण बड़ा होता है। लोग गलत समझते हैं कि इन संतों ने जाति-पाँति को महत्त्व नहीं दिया। संतों ने तो जाति को सबसे अधिक महत्त्व दिया है लेकिन जाति के दंभ को तोड़ते हुए वे जाति का नाम ही इसलिए लेते थे कि जाति का दंभ और जाति-जनित पाखण्ड टूट जाय।मुझे ऐसा लगता है कि आजादी के बाद खास तरह से पिछले दस वर्षों में जातियाँ टूटी हैं और जाति के दंभ का विकास हुआ है। किसी आचरण के लिए, किसी जाति के लोग, किसी का हुक्का पानी नहीं काटते। अर्न्तजातीय विवाहों के नाम पर हंगामा खड़ा नहीं करते। सार्वजनिक स्थानों पर खा पीकर खानपान से जुड़ी जातिगत घृणा को हमारे समाज ने जी लिया है। लेकिन जाति के नाम पर अब भी दंगे होते हैं। सामूहिक नर-संहार होते हैं, इसका सीधा मतलब है कि जाति का मान नष्ट हुआ और जाति का दंभ बढ़ गया है। यही हमें कबीर की जरूरत है। कबीर जाति के भाव को मिटाकर कुछ नहीं करते लेकिन जाति के दम्भ पर थूकते हैं। शायद कहीं-कहीं ठीक युक्ति के साथ अगर यह बात समझाई जाय तो समझ में आ जाएगा कि नमी जाति-हिंसा और ग्रंथ में एक घनी मैत्री बढ़ी है। जब सिख हथियार उठाता है तो उसके दूसरे हाथ में ग्रंथ होता है, चेहरे पर वेश होता है, जब हिन्दू हिंसा पर उतारू होता है, उसके हाथ में राम की रामायण दिखाई पड़ने लगी है। जब हरिजन अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करता है तब उसके हाथ में रैदास बानी और रैदास मन्दिर का संकल्प दिखाई देता है। जब डोम या मेहतर अपनी जाति के दम्भ से जुड़ता है तो अपने को वाल्मीकि कहता है। कबीर और उनके जमाने के संत और उनके अनुयायी सब अपने को 'राम' से जोड़ते हैं, राम की पोथी से नहीं, उनके लिए जाति एक निराकार व्याप्ति है। क्या इस बात को बार-बार समझाना होगा कि कबीर-पंथियों में संस्कृत के प्रति अनुराग बढ़ा है, पोथी और वेद के प्रति आसक्ति बढ़ी है। ये भी एक खास दम्भ से जुड़ते जा रहे हैं। अब तो हालत यह है कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों के लिए सूफियों के बने हुए मजार जलाल और जमाल का निजंधर छोड़कर कुरान खानी का केन्द्र बनते जा रहे हैं। कबीर ने कभी यह नहीं सिखाया था। उन्होंने तो जाति को चरित से जोड़ा था और तिरस्कार निषेधक ऊर्जा के रूप में बार-बार अपने को जुलाहा कहा था। लेकिन कबीर के कहने से होना क्या...? जनाब नजीर बनारसी कहते हैं - 'दुआ कीजिएगा, दवा कीजिएगा।/न अच्छे हुए हम तो क्या कीजिएगा॥'

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एक दोयम दर्जे का प्रेम-पत्र

मौ० आरिफ
प्रिय.....समीरा।लिखता हूँ खत खून से स्याही न समझनामरता हूँ तेरी याद में जिन्दा न समझना ।हँसो मत समीरा पूरा खत पढ़ लो फिर चाहे जो करना। उस शेर का बुरा मत मानना। तुम सोच रही हो कि क्या आज भी मेरे पास इस सस्ते सड़क छाप शेर के अलावा कुछ लिखने को नहीं है। मुँह का स्वाद अगर खराब हो गया है तो माफी चाहता हूँ...पर क्या करूँ, मैं हूँ ही ऐसा और इसे तुमसे बेहतर कौन समझ सकता है?हुआ यूँ कि अपने एक साहित्यकार मित्र की एक पुस्तक वह जो यथार्थ था पढ़ रहा था। उन्होंने लिखा था - बचपन के अनुभवों की स्मृति स्त्री-पुरुष के पहले-पहले प्यार की तरह है जो अद्वितीय और अविस्मरणीय होती है। बस तुम याद आ गईं। जीवन का एक काल-खण्ड सजीव हो गया जो सिर्फ मेरा और तुम्हारा है। वह एक साल-हमारा एक साल-तुम्हारे पति और मेरी पत्नी से अनछुआ....प्रेमपत्र।अन्दर क्या-क्या घट रहा है कैसे बताऊँ। आँखों के सामने बमुश्किल ही कौंध पाता है वह सब। पर सच तो यह है कि तुमसे कभी भी मुक्त नहीं हो सका पूरी तरह....तुम्हें प्यार करना बन्द कर दिया तब भी। तुम यही कहीं रही हो...सदा...लेकिन जिन अनगिनत कोणों से तुम्हें कभी देखा था...देखता था, वे कोण अब नहीं बनते। वे लकीरें अब आपस में नहीं मिलती। मिलकर नये चित्र नहीं रचतीं।जिस दिन मित्र की पुस्तक में वे पंक्तियाँ पढ़कर तुम्हारे बारे में सोचने लगा, उसी रात सपने में तुम आईं। अपनी माँ के साथ तुम छत पर बैठी थीं। शायद उनका पैर दबा रही थीं। जाने कहाँ से मैं पहुँच गया। मैं भी नीचे ही बैठ गया। मुझे अचरज हुआ कि तुम्हारी मम्मी मुझसे अच्छी-अच्छी बातें कर रही हैं। उन दिनों...किन दिनों....याद करो...बहुत दिनों पहले....बहुत-बहुत दिनों पहले...युगों पहले....जब छोटे शहरों की सड़कें इतनी भरी-भरी नहीं होती थीं...जब जाड़े की इतवारों को सबकुछ कितना शांत और सुलझा हुआ रहता था....तब तो तुम्हारी मम्मी मुझे तुम्हारी ओर ताकने भी नहीं देती थीं।हम लोग उन दिनों कितने बड़े थे? बहुत छोटे थे क्या? इतने छोटे भी नहीं थे कि लोग हमें बेहिचक एक दूसरे से मिलने-जुलने की खुली छूट देते। कब देखा था तुम्हें पहली बार? कौन सा जुमला था जो पहली बार मैंने तुमसे बोला था? कौन सा दिन था वह? शायद किसी त्योहार का दिन था जब मैंने तुमसे पूछा था - किस क्लास में पढ़ती हो तुम? तुम्हें तो जैसे इसी का इंतजार था। बस शुरू हो गई थी तुम। कृष्णजन्माष्टमी के बहाने एक दिन में तीन बार डे्रस चेंज किया था तुमने। हर बार मुझे और अच्छी लगी थीं तुम।हो सकता है तुम्हें लगे मैं एक जजबाती और रूमानी मनचले किशोर में तब्दील हो गया हूँ। आई डोंट केयर। मैं देख रहा हूँ एक लड़की को...गाती, गुनगुनाती....कभी छत की रेलिंग से लटकी....कभी यों ही घूमती टहलती...कुछ तलाशती। और देख रहा हूँ तुम्हें मुस्कुराते, हँसते खिलखिलाते। .....चलते हुए, रिक्शे पर बैठे हुए...बैग लेकर स्कूल से आते हुए.....छत पर खड़ी होकर कंघी करते हुए। कभी एक चोटी में तो कभी दो चोटी में तो कभी खुले बालों में मेरे कमरे के सामने से गुजरते हुए।जिस दिन तुम्हें छत पर बैठकर अपनी माँ का पैर दबाते हुए सपने में देखा उसके दूसरे ही दिन बाजार गया। दिलो-दिमाग पर तो तुम छायी ही थी। एक दुकान पर खड़ी दो महिलाओं को ऊन के लच्छों पर हाथ फेरते देखा। उनमें से एक वाकई सुन्दर थी। दूसरी बस ठीक-ठाक। मोटी कुछ चौड़ी-चौड़ी.....बेतरतीबी से साड़ी पहने हुए...बड़ा सा पर्स टांगे। वह तुम्हारे जैसी लग रही थी। मैं उसे गौर से देखने लगा। वह तुम्हारे जैसी ही थी। बिल्कुल तुम। क्या वह तुम थी समीरा? जब वह महिला दुकान से बाहर आई तो मैंने उसकी चाल पर गौर किया। मैंने सोचा बड़ी होकर तुम इसी महिला की तरह हो गई होगी। उसकी चाल तुम्हारी चाल से कितना मेल खाती थी। उसका बच्चा उसे तंग कर रहा था और उसे डाँटने के लिए वह मुड़ी तो मैंने देखा कि सुन्दर होते हुए भी वह आकर्षक नहीं लग रही थी। सचमुच मुझे बहुत निराशा हुई। कितनी आकर्षक हुआ करती थीं तुम! कितना खिचाव होता था तुम्हारे चेहरे में! गौर से देखा तो उसकी चाल बड़ी बदनुमा लगी। पहले तो तुम ऐसे नहीं चलती थीं समीरा। पर शायद अब ऐसे ही चलने लगी हो। कितनी तीखी और बेसुरी आवाज में उसने डाँटा था अपने बच्चे को। और डाँटे ही जा रही थी....बिना इस बात की परवाह किये कि अगल-बगल के लोग भी देखने लगे हैं।घर लौटा तो तुम्हारे बारे में सोचता रहा। जाने क्यों एक तरह की वितृष्णा से भर गया। मुझे लगा मैं तुम्हें इस रूप में नहीं देख सकता। सपने में कितनी सुन्दर, कितनी भोली-भाली लगीं थीं तुम। बिन-ब्याही रह गई थीं तुम मेरी प्रतीक्षा करते। पर सामने से देखने पर कैसी हो गई थी। अपने बड़े, विवाहित रूप में तुम ऐसी हो जाओगी मैंने कल्पना में भी नहीं सोचा था।पर मुझे इन चीजों से क्या लेना देना। तुम्हारा वर्तमान मेरा सरोकार नहीं है समीरा। मेरा संबंध तो तुम्हारे भूतकाल से है। तुम्हारे बीते जीवन के उस साल से जब तुम बसंत में पुष्प की तरह खिली थीं। तुम्हारे उस कालखण्ड पर तुम्हारे बाद मेरा अधिकार है। केवल मेरा।तुम्हें खत लिखने की एक वजह यह भी है। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूँ कि तुम कभी मेरी थीं। बस मुझे जिद सवार हो गई है कि तुम्हें बताऊँ कि हम दोनों ही कभी एक दूसरे को कितना चाहते थे। मरते थे एक-दूसरे पर। किसी के भी साथ ऐसा हो सकता है। कितने ही लोगों के साथ ऐसा हो चुका है। हमारे तुम्हारे साथ भी ऐसा हुआ।खत लिखने के दो कारण और हैं। उतने ही मजबूत जितने बाकी जो मैंने गिनाये। एक तो यह कि मैं मन ही मन अपनी पत्नी को जताना चाहता हूँ कि उसके अलावा भी मुझे चाहने वाला कोई गुजर चुका है। ऐसी चाहत का हकदार मैं रह चुका हूँ जिसे लफ्जों में बयान नहीं किया जा सकता।साथ ही तुम्हारे पति से न जाने क्यों मुझे ईर्श्या हो रही है। मैं उन्हें बताना चाहता हूँ कि जनाब जो स्त्री आप पर जान छिड़कती है, आपको रोज रिझाती है, आपके लिए रोज खाना पकाती है, आपके बच्चे पाल पोश रही है, आपके साथ हम-बिस्तर होती है, आपके घर की मालकिन है, वह कभी मेरी थी। पूरी की पूरी मेरी। प्रेम का पहला अंकुर जब उसके दिल में फूटा तो उसने मुझे अपने सामने पाया। मोहब्बत से लबरेज थी वह.... और पूरा का पूरा प्रेम उसने मुझ पर उडेल दिया था-आखिरी बूँद तक। उसका निश्छल प्रथम प्रेम और अपनी पूरी तीव्रता और वेग के साथ मेरे नसीब में बदा था और मुझे हासिल हुआ। आप जो पा रहे हैं वह अगर आपको नहीं मिलता तो किसी और को मिलता-या फिर किसी और को....। मुझे जो मिला वह प्रकृति का दिया हुआ प्रथम पुष्प था-पहली बहार की खुशबू समेटे-जो मेरी प्रेयसी ने मुझ पर लुटा दिया।नेचर ने जब उसके बदन को गमकाया तो वह मेरे सामने प्रस्तुत हुई। मैंने उसे सूंघा, सराहा। उसके कुँआरे शरीर की गंध मस्त कर देने वाली थी। जिस गंध को आप जानते होंगे। वह. वह नहीं थी। तब वह परफ्यूम और शैम्पू और मेकअप नहीं लगाती थी। उसके बदन की सच्ची खुशबू से सिर्फ मैं वाकिफ हूँ। आप नहीं। जब वह जवान हो रही थी उस दौर को मैंने जाना है, देखा है। मैं गवाही देता हूँ कि एक अजीब दौर था। अजीब समय था।.....शब्दों से परे है आवारा हवाओं का वह खूबसूरत मौसम। वह बयार अब क्यों नहीं बहती....।कच्ची उमर का आकषर्ण समझकर आप इसे दरकिनार न कर दीजिएगा। यह एक सच्चाई है, फैक्ट है हम दोनों के जीवन का। इसने आज तक मेरा पीछा नहीं छोड़ा है.... और शायद आपकी वाइफ का भी। पता नहीं आप उसे किस उमर में मिले...मेरी उससे भेंट तब हुई जब वह सोलह की थी और मैं उससे एक साल बड़ा। पहली ही नजर में मर मिटी थी वह मुझ पर वह मुझे एक पल के लिए भी अपने से दूर नहीं होने देना चाहती थी....रोती थी मेरे लिए....हँसती थी मेरे लिए.....पूजती थी मुझे। राह तकते छत पर छुपी खड़ी रहती थी। पागल दिवाने थे हम दोनों एक दूसरे के लिए। मैं हिम्मत दिखाता तो वह मेरे साथ भाग सकती थी....मैं उकसाता तो वह आत्महत्या तक कर लेती।बाढ़ आई नदी को देखा है आपने? बौराये पेड़ पर नजर डाली है? बिना लगाम के घोड़े से पाला पड़ा है? कुछ ऐसा था उसके प्यार का आवेग-ऐसी थी उसके प्यार की लज्जत। बिना किसी से डरे, बिना किसी की परवाह किये वह मुझे प्रेम करती थी। भाई बुरा नहीं मानना, आपके पास तो वह एक नधी हुई घोड़ी बनकर गई है। आप उसके अंगों की गोपनीयता से परिचित होंगे। आपका सबकुछ.....पर मेरा वह पहला चुम्बन, वह बोसा, जो उसे चकित कर गया था... आपकी सभी क्रीड़ाओं पर भारी है। नहीं भूल सकती वह कभी उसे। फिर असीमित, अनगिनत चुंबनों की उसकी चाह....मैं कैसे भूल सकता हूँ।आप उससे कैसे मिले? आपको उससे जन्मपत्री ने मिलाया होगा, या किसी बिचौलिये ने या फिर आप लोगों के परिवार वालों ने। हमें हमारी उम्र ने मिलाया था हमारे नसीब ने मिलाया था। हमें मौसमों ने मिलाया था, बादलों, बिजलियों, नदियों, तालों, पहाड़ों और सागरों ने मिलाया था। सड़कों और रेल की पटरियों ने मिलाया था। जाड़े-पाले, धूप-लू और सर्द हवाओं ने मिली भगत की थी हमें मिलाने के लिए। चाँद, सूरज, तारों, सितारों ने शडयंत्र किया था मुझे और उसे एक-दूसरे के करीब लाने के लिए।अपनी माँ से जब उसने कुछ पकाना सीखा तो सबसे पहले मुझे खिलाया था। उसके हाथ का बुना हुआ पहला स्वेटर और पहला मफलर मेरे हिस्से में आया। मैं उसे प्यार से बिल्ली कहता था....पता नहीं क्यों। क्या आपने भी उसे कोई प्यार का नाम दिया है? मुझे पता है आप किस उम्र में उसे मिले हैं ऐसे में आपका शब्दकोश इन शरारतों के लिए नाकाफी है। आज वह आपके बच्चों को स्कूल भेजती है, उनका होमवर्क पूरा कराती है अच्छे रिजल्ट के लिए दिन-रात एक कर देती है। उसे स्वयं पढ़ते-लिखते मैंने नहीं देखा था....फेल होते-होते बची थी वह...कितनी बार स्कूल का नागा किया था उसने मेरी खातिर। अगर मैं कभी नाराज हो जाता....उससे एक-दो दिन बात नहीं करता तो बस डबडबाई आँख लेकर छत के मुंडेरी से लगकर खड़ी रहती-दूसरी दिशा में ताकते।कभी चिट्ठी लिखती है आपको? यही न....बच्चों की तबीयत....उनकी पढ़ाई, घर का खर्च, आपके माता-पिता का समाचार... उनकी दवा दारू...। मुझे अपने खतों में बताया करती थी हवा कैसी बही... कौन सा गाना सुनकर उदास हो गई..... कहाँ थे दो दिन से देखा नहीं.....नीला स्वेटर क्यों नहीं पहने.....कि मैं खम्भे के पास क्यों नहीं खड़ा था....कि वह वही वाला लव-इन-टोकियो लग गई थी मैंने क्यों नहीं देखा...कि अबकी गर्मियों में मामा के यहाँ जायेगी....मन नहीं है तब भी।पर मेरे भाई, क्या कर दिया तुमने उसकी मासूमियत और चंचलता को। उसकी खूबसूरत सादगी को...। तुम्हारे साथ रहते-रहते कितनी बेडौल हो गई है। कहाँ गई उसकी मनभावन काया, क्यूँ नजर लगा दिया तुमने उसकी कोयल जैसी आवाज को। उस दिन कैसे डाँट रही थी अपने बच्चे को बाजार में....कितना कर्कश स्वर था उसका। साड़ी और गहने में लदी फंदी रखते हो उसको। कितना ढेर सारा पाउडर लीपती है चेहरे पर अब। क्या से क्या कर दिया तुमने मेरी जान को। उसकी बेलाग हँसी भी खा गये....कहाँ फेंक आये मेरी रानी के पुराने कपड़ो को.... वो फ्रॉकें....वो स्कर्ट ब्लाउज....वो शर्ट और बेलबॉटम।समीरा, देख रही हो मैं कितना बहक गया हूँ। तुम्हें खत लिखने बैठा था, तुम्हारे पति से दो-दो हाथ करने लगा। खत इतना लम्बा हो गया है कि डर है तुम आधे पर ही मोड़कर रख दोगी। ऊपर से वह शेर...जो मैंने खत के शुरू में लिखा है....मूड तो तुम्हारा खराब होगा ही। लेकिन पेन बन्द करने से पहले एक बात बताता चलूँ समीरा। मैंने जब तुम्हें पहली बार देखा था तो तुम्हारी एक विचित्र सी इमेज मेरे मस्तिष्क में बनी थी। मैं किनारे वाले कमरे में बैठा था...जिसकी खिड़की सड़क पर खुलती थी। हाथ में किताब लिए तुम किसी लड़की से बात कर रही थीं। कुछ ऊँची सी....टाइट सी फ्रॉक पहन रखी थी तुमने। तुम्हारी टाँगों का ज्यादा हिस्सा तुम्हारी फ्रॉक से बाहर था। मुझे याद पड़ रहा है कि मुझे सब कुछ बहुत अच्छा लगा था। मैंने साथ वाले लड़के से पूछा कौन है ये। समीरा, इस मुहल्ले में बस अकेली है.....उसने कहा था। जैसे ही तुम किताब हाथ में झुलाते खिड़की के सामने से गुजरी, वह बोला-क्या चीज है! तुम सहसा धीरे हुई....पहले कनखियों से...फिर लगभग घूरते हुए तुमने खिड़की के अन्दर देखा और फिर बढ़ गईं। अगर मैं सीधे शब्दों में कहूं तो तुम्हारे अन्दर मुझे आत्म-विश्वास और स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा हुआ दिखाई पड़ा। याद पड़ रहा है कि मैंने मन ही मन कहा था बोल्ड एण्ड ब्युटीफुल। लड़कियों की एक डरपोक और शर्मीली इमेज मेरे दिमाग में थी। जो मैंने देखा वह उससे मेल नहीं खाया। सच मानो समीरा...मैं कुछ डर सा गया। सोचने लगा...तुम इसी मुहल्ले में रहती हो....कहीं अकेले न टकरा जाओ....मेरी किसी बात को कमेंट न समझ बैठो।पर पहली ही नज+र में तुम मुझ पर मर मिटी थीं। तुम्हारा आत्मविश्वास, तुम्हारा स्वाभिमान, तुम्हारा वह खिड़की में घूरना, तुम्हारी बोल्डनेस....कहाँ चली गई थी जब तुमने मुझे देखा। देखती ही रहती थी....देखने के कितने बहाने....कितनी जगहें खोज लेती थीं तुम। कैसे-कैसे पत्र लिखती थी तुम...लगता नहीं था मेरी बोल्ड एवं ब्युटीफुल इतनी रोमांटिक है अन्दर से।और समीरा....जब आखिरी बार तुम कमरे में आई थीं....जब मैं जा रहा था...जब हम अलग हो रहे थे....तुम मुझसे लगकर कितना-कितना रोई थीं। हिचकियाँ बंध गई थीं तुम्हें...कोई सुन न ले...इसलिए धीरे-धीरे रो रही थीं तुम। जिस तरह से तुम मुझसे लगी थीं...मालूम पड़ता था। जैसे तुम्हारे अन्दर कोई वजन ही नहीं है...एकदम हल्की गुड़िया जैसे था तुम्हारा स्पर्श और तुम्हारा आलिंगन। भिगो दिया था तुमने मेरी शर्ट के ऊपरी हिस्से को।नहीं मालूम कि जिस समय में हम लोग जी रहे हैं....जिन स्थितियों से घिरे हुए हैं....जो हमारे सरोकार हैं....जो एक आदर्श स्थिति की मांग होती है...उसमें प्रेम और प्रेमपत्र का कोई स्थान होना भी चाहिए या नहीं। पर यकीन मानो, मेरी बोल्ड एण्ड ब्युटीफुल मेरा यकीन करो, तुम्हारे आँसुओं से आज तक धुल रहा हूँ......मेरा पूरा सीना जहाँ तुमने सर रखकर आँसू बहाया था तर-बतर है। वह दृश्य मुझे हल्का और बेदाग बना रहा है।बस । तुम्हारा मानिक।अंत में एक शेर और...समीरा डोंट माइंड। जानती हो.... मैं हूँ ही ऐसा। तुम्हारा प्रेमी रहा हूँ.....मेरे इस पहलू को तुमसे बेहतर कौन जान सकता है।तुम मेरा प्रेम-पत्र पढ़कर कहीं नाराज न होनाअपने खूसट पति से डरकर कहीं फाड़ न देना।यह सब लिखने के बाद कुछ अजीब सी कैफियत हो रही है मेरी। ऐसी जजबाती, बचकानी बातें कलमबन्द करके सच पूछो तो मैं खुद को काफी कमतर पा रहा हूँ। अंग्रेजी में एक शब्द है एम्ब्रेस्ड... बस ऐसा ही फील कर रहा हूँ...कुछ-कुछ शर्मिन्दा सा। कैसी ओछी बातें मैंने लिख दी हैं। कुछ पागलपन जैसा नहीं लगता.....हाँ। तुम सोच रही होगी आखिर इस आदमी को कितनी फुर्सत है...कोई काम धाम नहीं जो प्यार मुहब्बत की बातें लेकर बैठ गया। कब की.....कौन सी बात...अब याद करता फिर रहा है। बनावटी मजनूँ।इस तरह की रूमानियत भरी चाइल्डिश बातें एक विवाहित महिला के बारे में लिखने की जुर्रत कैसे की इसने। जिन तारों को झनझनाने की कोशिश मैंने किया है उनका संगीत कब का अर्थहीन हो चुका है। मुझे महसूस हो रहा है तुम मेरा खत पढ़कर मेरा मजाक उड़ाओगी। अपने धीर गंभीर पति को हँस-हँसकर पढ़ाओगी। यहाँ तक कि अपने बच्चों को भी मेरा पत्र दिखाओगी। कहोगी उनसे कि तुम्हारे पड़ोस में एक पागल बेहूदा लड़का रहता था जो वक्त के साथ मेच्योर नहीं हुआ। कैसी अधकचरी अभिव्यक्ति है उसकी। कैसा भौंडा प्रदर्शन किया है उसने अपनी दबी हुई कामेच्छा का.. अपनी कुंठा का। भद्र शालीन महिलाओं से कैसे पेश आते हैं नहीं सीख सका यह मजनूँ। क्या उसकी पत्नी किसी और को चाहती है। क्या उसके बच्चे बड़े नहीं हुए । क्या वह इतना कमजोर रह गया कि सोलह-सत्तरह साल की उम्र में देखा-देखी को इतने सालों बाद प्रेम और विछोह का जामा पहनाकर सहानुभूति हासिल करना चाहता हैं। कैसा घटिया रूमानी, दोयम दर्जे का प्रेमपत्र लिखा है इस आदमी ने।सचमुच मैं यही सोचकर शर्मिन्दगी और बेचारगी से सराबोर हूँ। तुम मेरी खिल्ली उड़ा रही हो....और मुझे इसी बात का डर था। और सच यह भी है कि इस पल मैं स्वयं को सत्तरह साल के एक लड़के के रूप में ही देख पा रहा हूँ। और तुम्हें चालीस पार एक सभ्य सुसंस्कृत नारी के रूप में। और मैं साफ देख रहा हूँ कि काला चश्मा लगाये कार की अगली सीट पर तुम बैठी हो। बच्चे पिछली सीट पर बैठे कोई पुस्तक पढ़ रहे हैं। तुम्हारे पति सामने दुकान से फल खरीद रहे हैं। मैं देख रहा हूँ तुम्हें और तुम्हारे दमकते स्त्रीत्व को। कितनी सुन्दर है तुम्हारी साड़ी, तुम्हारा ब्लाउज और तुम्हारी शाल। तुमने चश्मे को सर पर चढ़ा लिया है और हंस-हँस कर मेरा पत्र पढ़ रही हो। फिर हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाती हो। फिर पत्र अपने पति को थमा देती हो। वे भी हँस रहे हैं....हँस-हँसकर लोट-पोट हो रहे हैं। तुम दोनों लोट-पोट हो रहे हो। तुम्हारे बच्चे भी लोट-पोट हो रहे हैं। तुम पत्र के कुछ खास पंक्तियों पर ऊँगली रखती हो और अपने पति को दिखाती हो और फिर हँसते-हँसते अपना सर उनके कंधे पर रख देती हो।अब अपने पति को तुम फिर कुछ दिखा रही हो। वे फिर लोट-पोट हो रहे हैं। तुम्हारे हाथों में एक छोटा कागज का टुकड़ा है...जिस पर तुमने जल्दी-जल्दी कुछ लिखा है। वही टुकड़ा तुम्हारी गाड़ी में सबको लोट-पोट कर रहा है। तुम्हारी गाड़ी मेरे बगल से सरकती है। तुमने वही कागज का टुकड़ा मेरी ओर फेंक दिया। तुम्हारी गाड़ी आगे बढ़ जाती है और फिर तुम्हें लेकर ओझल हो जाती है। क्या खूब लिखा है तुमने, मेरी बोल्ड एवं ब्युटीफुल।डियर मानिक,लिखते हो खत खून से क्या शर्म नहीं आती।जलते हो मेरे उनसे क्या अपनी नहीं भाती।थूका है तुम्हें देखकर कुल्ली न समझना।मरती हूँ सोनू के पापा पे अपनी न समझना।हो सके तो इसे भाभी जी को भी पढ़ा देना।श्रीमती समीरा भगत।बगुला भगत! शायद मेरे मुँह से यही निकला। बगुला भगत!

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Friday, October 31, 2008

स्त्री-विमर्श में मीरा कुछ प्रश्न : कुछ जिज्ञासाएँ

- शिव कुमार मिश्र
मीरा प्रेम और भक्ति की तन्मय गायिका के रूप में ख्यात और मान्य हैं। वे श्रीकृष्ण की प्रेमिका भी हैं, और उनकी भक्त भी। ऐसी प्रसिद्धि है कि उन्होंने बचपन में ही श्रीकृष्ण को अमें बँधी या बाँधी गईं, पति-गृह में वे श्रीकृष्ण की प्रतिमा के साथ आईं और भोजराज की विवाहिता होते हुए भी वे मन में श्रीकृष्ण को ही पति मानती रहीं, उन्हीं के प्रति समर्पित रहीं। मीरा के जीवन को लेकर कुछ विवाद भी हैं। एक मत है कि मीरा का भोजराज के साथ वैवाहिक जीवन बड़ी अल्प अवधि का रहा। भोजराज की असमय में मृत्यु हुई और मीरा कम उम्र में ही विधवा हो गई। अन्य मत है कि मीरा विधवा नहीं हुईं क्योंकि कहीं भी उन्होंने अपने विधवा होने का साक्ष्य अपने रचे गए पदों में नहीं दिया है। इसी तरह मीरा के जीवन को लेकर कुछ अन्य बातों में भी मतभेद और विवाद है। जो पक्ष मीरा के वैधव्य को नहीं मानता उसके अनुसार अपने आक्रांता के रूप में मीरा ने अपने पदों में जिस राणा का उल्लेख बार-बार किया है, वे और कोई नहीं, उनके पति भोजराज थे, जो मीरा की श्रीकृष्ण भक्ति, मीरा द्वारा पति-रूप में उनकी स्वीकृति, साज-सिंगार करके श्रीकृष्ण को रिझाने और उनकी प्रतिमा के समक्ष पग में घुँघरू बाँधकर उनके नाचने-गाने, साधु-संगति करने आदि-आदि बातों से बेहद असंतुष्ट और क्षुब्ध थे। सामाजिक विधि-निषेधों, राजकुल की मर्यादाओं की मीरा द्वारा की गई अवमानना तथा मीरा के अपना मनोवांछित जीवन जीने के हठ के चलते-यही भोजराज थे, जिन्होंने मीरा को यातनाएँ दीं, उन्हें प्रताड़ित किया और अंततः मीरा को राजमहल का त्याग करना पड़ा।जो पक्ष मीरा के अकाल-वैधव्य को मानता है, उसके अनुसार भोजराज जब तक जीवित रहे, मीरा को उन्होंने समझाया-बुझाया जरूर, परन्तु जब वे नहीं मानीं, वे उदासीन हो गए और मीरा के क्रिया-कलाप चलते रहे। उनकी मृत्यु के बाद, मीरा को जो यातनाएँ मिलीं - वे यातनाएँ उन्हें, देवर राणा विक्रमादित्त्य ने दीं और मीरा अपने पदों में जिस राणा का उल्लेख करती हैं, वे भोजराज नहीं, उनके छोटे भाई अर्थात्‌ मीरा के देवर राणा विक्रमादित्य हैं।राणा विक्रमादित्त्य इस कारण भी क्षुब्ध थे कि पति की मृत्यु के उपरांत वंश-कुल की परम्परा के अनुसार मीरा पति के साथ सती नहीं हुईं। विधवा के वेश के बजाए सधवा के रूप में साज-सिंगार करती रहीं, नाचती-गाती रहीं। यह कहते हुए कि उनके पति श्रीकृष्ण तो अविनाशी हैं, मर ही नहीं सकते। अपने को उन्होंने विधवा माना ही नहीं। देवर की यातनाओं से परेशान होकर अंततः मीरा ने राजमहल का परित्याग कर दिया।संप्रति, हमारी रुचि, मीरा के जीवन को लेकर उनके वैधव्य को लेकर जो विवाद है, उसकी तफसील में जाने की नहीं है। हमारा सवाल, या कहें, हमारी जिज्ञासा दूसरी हैं।राणा भोजराज हों अथवा राणा विक्रमादित्त्य, यदि श्रीकृष्ण के प्रति मीरा के प्रेम या भक्ति-भाव को, या श्रीकृष्ण को पति मानने की मीरा की बात को, मीरा के चाहे अनुसार, राज परिवार की, लोक की, सगे-संबंधियों की स्वीकृति मिल गई होती या वे सब मीरा के क्रिया-कलापों के प्रति तटस्थ या उदासीन हो गए होते, और मीरा बाधा-रहित श्रीकृष्ण के प्रति अपनी मनोभावनाओं को अभिव्यक्त कर पातीं, तब क्या जिस रूप में आज हम मीरा का स्मरण कर रहे हैं, उसी रूप में मीरा को याद करते? या कि जिस तरह आज, मीरा के समय में पाँच सौ सालों बाद, मीरा को - नई सदी के मुख्य विमर्शों में एक-स्त्री-विमर्श से जोड़कर देख रहे हैं, उन्हें अपना समकालीन मान रहे हैं वैसा समकालीन उन्हें मानते? शायद नहीं। अधिक से अधिक, ऐसी स्थिति में हम मीरा का स्मरण, उनके महत्त्व का आंकलन उसी तरह करते, मीरा हमें उसी तरह स्मरणीय होतीं जैसे विद्यापति, सूरदास, जयदेव आदि आज हमारे लिए हैं।जाहिर है कि मीरा श्रीकृष्ण से अपने संबंधों, उनके प्रति अपने प्रेम या भक्ति के नाते हमारी समकालीन नहीं हैं, उनके समकालीन होने का संदर्भ दूसरा है। स्त्री-विमर्श में भी मीरा की भागीदारी का सबब उनकी भक्ति या प्रेम नहीं, उनसे जुड़ी कुछ दूसरी बातें हैं।वस्तुतः मीरा हमारी समकालीन है और चल रहे स्त्री-विमर्श की भागीदार हैं - अपने उस प्रतिरोध तथा विद्रोह के नाते, जो उन्होंने अपने ऊपर लगाई गई पाबंदियों के खिलाफ किया। वे स्त्री-विमर्श में इसलिए हमारे साथ हैं कि सामंती जकड़बंदी के बीच आपकी प्रेम-पिपासा की उन्होंने निष्कुंठ अभिव्यक्ति की। उनके विद्रोह का संबंध है लोक, राज परिवार तथा संबंधियों द्वारा उन्हें दी गई यातना से उन पर थोपी गई पाबंदियों से जिन्हें मीरा ने अमान्य किया। यहाँ तक कि राजभवन को लात मारकर वे उससे बाहर आ गईं।लोक, समाज, राज परिवार आदि ने मीरा के प्रति जो क्रूरता बरती, उसके मूल में है - धर्मशास्त्र-आधारित सामाजिक सोच और वह सामाजिक संरचना जिसके तहत जीवन-व्यवहार, मर्यादाओं तथा कर्त्तव्यों के नाम पर स्त्री के लिए एक नरक रचा गया है। थोड़े-से सुभाषितों की आड़ में आजन्म, पराधीनता के एक नियति उसे दी गई है। स्त्री के वजूद को पूरी तरह नकारा गया है। उसे तरह-तरह की जंजीरों में बाँधा गया है।मीरा ने साहस के साथ इस नरक का प्रतिकार किया, पाबंदियों के खिलाफ बगावत की और व्यवस्था के प्रभुओं के इरादों का पर्दाफाश किया। अपने आक्रांताओं को उन्होंने पूरे मन से धिक्कारा। उसका नाम ले-लेकर उसे सबके सामने उजागर किया। उस समाज को भी मीरा ने लानत दी जिसने उन्हें बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मीरा के पद साक्ष्य हैं कि कितनी कठोर यातनाओं से होकर उन्हें गुजरना पड़ा है।हेली म्हासूं हरि बिन रह्यो न जाइ।सास लड़े मेरी, ननद खिजावै, राणा रह्या रिसाइ।पहरो भी राख्यो, चौकी बिठारयो, ताला दियो जड़ाय।पूर्वजन्म की प्रीत पुराणी, सो क्यूं छोड़ी जाए।ढेरों पद इसी तरह के हैं जिनमें विष का प्याला मंजने, पिटारी में सांप भेजने तथा यातना के दूसरे तरीकों का जिक्र मीरा ने किया है। समझा जा सकता है कि अपने आक्रान्ताओं के प्रति मीरा में कितनी घृणा, कड़वाहट तथा रोष है।संत या भक्त के मन को निर्मल कहा गया है - व्यक्तिगत्‌ राग-द्वेष से परे, उदार और क्षमाशील। मीरा की मनोभूमि ऐसी नहीं है। वे न तो अपने आक्रान्ताओं को जिन्दगी की आख़िरी सांस तक भूल पाई हैं और ना ही क्षमा कर पाई हैं। उनके प्रति उनकी घृणा रह-रहकर और भभकती रही है। फिर भी, मीरा संत और भक्त के रूप में मान्य हैं। निश्चय ही, संत और भक्त तो वे हैं, परन्तु इनके साथ-साथ एक औरत होने का एहसास भी उनमें बराबर रहा है। उनके पदों में संत और भक्त होने के साथ उनके औरत होने-लाचार और निरीह औरत होने की पहचान भी जुड़ी हुई है। वस्तुतः औरत होने का यह एहसास ही मीरा को हमारे समय के स्त्री-विमर्श से जोड़ता है। यह औरत मीरा में बराबर जि+न्दा रही है। मीरा ने उसे विचार के स्तर पर और संस्कार के स्तर पर अपने में, शिद्दत से जिलाए रखा है। जितना सच मीरा का संत या भक्त होना है?, उनका औरत होना भी उतना ही बड़ा सच है।इस बिन्दु पर सहज ही एक जिज्ञासा होती है। हम कह चुके हैं कि अपने समय में मीरा की अपने ऊपर थोपी गई पाबंदियों के खिलाफ बगावत, वंश, कुल की मर्यादा को अमान्य कर पति की मृत्यु पर उनका सती न होना, सधवा की तरह सज-सँवर कर अपने प्रियतम्‌ श्रीकृष्ण के समक्ष नाचना-गाना-साहस का, जोखिम का काम था, जिसे मीरा ने जोखिम उठाकर किया - परन्तु पदों का साक्ष्य देखें तो मीरा का यह विद्रोह - उनका निजी व्यक्तिगत्‌ विद्रोह ही अधिक लगता है। वह व्यंजक हैं, परन्तु है वह व्यक्तिगत्‌ विद्रोह ही। हमें मीरा के ऐसे पद नहीं मिलते जिनमें उनका यह विद्रोह उनके ‘स्व' से आगे जाकर स्त्री-जाति की यातना और मीरा - जैसी उसकी मनोकांक्षा से जुड़ा हो। बंधनों से अपनी ‘मुक्ति' का आग्रह मीरा में है - उस मुक्ति की आकांक्षा के तार- स्त्री - जाति की वैसी ही मुक्ति से सीधे नहीं जुड़ते। हम उन्हें स्त्री-जाति की मुक्ति-पराधीनता से मुक्ति से ज+रूर जोड़ते हैं परन्तु मीरा की मनोभूमि में भी उनकी अपनी ‘मुक्ति' के साथ स्त्री-जाति की मुक्ति की भी चिन्ता या उससे उनकी संलग्नता थी या नहीं थी। इस विषय में जिज्ञासा बनी रहती है, मीरा की पदावली, जितनी और जो भी हैं पूरी तरह प्रामाणिक रही हैं। जिज्ञासा होती है कि अपनी यातना, अपनी बेबसी, अपनी मुक्ति के साथ मीरा को क्या कभी- स्त्री-जाति की यातना, पराधीनता या मुक्ति की आकांक्षा की बात याद आई?मीरा के संदर्भ में इस तरह की जिज्ञासा स्वाभाविक है। मीरा का खुद औरत होना, उनका स्वतः यातना भोगना हमारी जिज्ञासा को एक आधार देता है।हमारा वाङ्मय गवाह है कि स्त्री के बारे में मीरा के पहले जो कुछ लिखा गया उसे लिखने वाले पुरुष थे - वे वाल्मीकि, वेद व्यास, कालिदास, भवभूति, कोई भी हों। उनकी रचनाओं में स्त्री के ख्यात स्त्रियों के - सीता, द्रौपदी, शकुन्तला आदि के जो भी बिम्ब उभरे हैं, उन पुरुष-रचनाकारों द्वारा निर्मित बिम्ब हैं। स्त्री उनकी रचनाओं में उनकी संवेदना, सहानुभूति, सब कुछ पा सकी है, परन्तु अंततः वह आर्यशास्त्रानुमोदित नियमों-मर्यादाओं के दायरे में ही बाँधी गई है। उस सामाजिक संरचना का उन पुरुषों द्वारा समर्थन ही है, जिसमें स्त्री के लिए-मुक्ति की बात को अमान्य किया गया है। वाल्मीकि की ‘रामायण' देखें, या व्यास की ‘महाभारत' - यातना के कठिन दौरों से गुज+रकर भी सीता-द्रौपदी तथा दूसरी नारियाँ जन्म-जन्म में उन्हीं पतियों को पाने की आकांक्षा रखती हैं उन्हें ही परमेश्वर मानती हैं, जिनके द्वारा वे यातनाग्रस्त हुई हैं। कहा जा सकता है कि चूँकि ये पुरुषों द्वारा रचित कृतियाँ हैं उनके पुरुष मानस से स्त्री के ऐसे ही बिम्ब सामने आ सकते थे, जो उनके मन के अनुरूप हों, जैसा कि वे आए भी हैं।परन्तु मीरा के यहाँ, मीरा के नाम पर जो कुछ संकलित है, वह मीरा का अपना रचा और गाया हुआ है। वह पुरुष की रचना न होकर एक स्त्री की रचना है, पहली बार एक स्त्री की रचना और उस स्त्री की रचना - जो महज रचनाकार नहीं, भोक्ता भी है। उसने जो कुछ रचा-गाया है, अपने भोगे हुए को, सहन किए हुए को। ऐसी स्थिति में ही हमारी जिज्ञासा को आधार मिलता है कि क्या अपने जिए भोगे को गाते-अभिव्यक्त करते हुए मीरा को, रचनाकार मीरा को, अपने साथ-साथ स्त्री-जाति का दुख, उसकी पराधीनता, उसके द्वारा भोगा और सहा जाना तथा जिन बंधनों में स्त्री जकड़ी है, उनसे स्त्री-जाति की मुक्ति की आकांक्षा की कभी याद आई है? अपनी यातना में मुक्ति की अपनी आकांक्षा में क्या वे स्त्री-जाति की यातना, मुक्ति की उसकी आकांक्षा को भी देख सकीं? अपनी यातना को क्या स्त्री-जाति की वृहत्तर यातना से वे जोड़ सकी है? जिज्ञासा इसलिए ताकि मीरा को हम समग्रता में जान सकें।इसी से जुड़ी हुई एक जिज्ञासा और भी। मीरा के पद-उनकी दो तरह की जीवन-स्थितियों में रचे गाए गए पद हैं, एक जब वे राजमहल की चहार दीवारी के भीतर बंधन की स्थितियों में रच और गा रही थीं। दूसरे राजमहल छोड़ देने के बाद से द्वारका तक मृत्यु पर्यन्त उनके द्वारा रचे और गाए गए पद - कब वे अपेक्षाकृत मुक्त, बंधनों की जड़ से बाहर आ गई थीं। कहते हैं - राजमहल छोड़ देने के बाद भी राज परिवार ने मीरा पर सदैव दबाव बनाए रखा। उन्हें चैन से नहीं रहने दिया। कहा तो यहाँ तक गया है और जो संभावित भी है कि द्वारका में कृष्ण की मूर्ति के आगे मीरा के अंतर्धान हो जाने की कथा, सिर्फ कथा ही है। वस्तुतः मीरा की वह हत्या थी। वास्तविकता जो भी हो, राजमहल के बाहर आकर मीरा अपेक्षाकृत अपनी मनोकांक्षित जमीन पर आ गई थीं। जिज्ञासा है कि क्या दो जीवन स्थितियों में लिखे रचे गए इन पदों की अलग से शिनाख्त की गई है - ताकि दोनों को समानान्तर रखकर जाना जा सके कि भिन्न जीवन स्थितियों में रचे गाए गए इन पदों में क्या मीरा की मनोभूमि में कुछ अंतर दिखाई पड़ता है? राजमहल से बाहर आकर क्या वे श्रीकृष्ण के प्रेमभाव में ही डूबकर रह गईं अथवा अपनी मनोकांक्षित जमीन पा जाने के बाद उन्हें स्त्री-जाति की यातना भी याद आई? क्या उन्होंने पुरुष वर्चस्व वाले समाज के समक्ष वैसे ही कुछ सवाल खड़े किए जैसे तब खड़े किए थे - जब वे बंधन में थीं?इन जिज्ञासाओं के मूल में हमारा आशय महज इतना मानना ही है कि क्या मीरा की यातना, उनका विद्रोह, पराधीनता की नियति से मुक्त होने की उनकी इच्छा, उनकी तड़प, स्त्री- जाति की वैसी ही यातना, पराधीनता या मुक्ति की आकांक्षा से जुड़ती हैं - खासतौर से मीरा की अपनी पहल पर?हम जानते हैं कि मीरा घर-परिवार से जुड़ी हुई स्त्री थीं, विवाह के पहले भी और विवाह के बाद भी। श्रीकृष्ण के पति उनके एकल प्रेमभाव और भक्ति से भी हम परिचित हैं। हम उस समय को ही पहचानते-जानते हैं जिसे मीरा जी रही थीं। उस समय की स्थितियों से भी हम अनभिज्ञ नहीं है। हमें ज्ञात है कि मीरा या उस समय के कोई भी संत या भक्त, हमारे अपने समाज की तरह की कोई सामाजिक कार्यकर्ता नहीं थे, ना ही मीरा स्त्री-मुक्ति की कोई ।बजपअपेज थीं, जो स्त्री-जाति की मुक्ति का कोई आन्दोलन छेड़तीं और उनका नेतृत्व करतीं। अपने समय की स्थितियों में खींचकर हम मीरा को अपनी मनोभूमि के अनुरूप ढालने का प्रयास भी नहीं कर रहे। मीरा के अपने समय में जो नामुमकिन था, उसकी कसौटी पर हम मीरा को नहीं परखना चाहते।हम बस इतना जानना चाहते हैं कि एक स्त्री होने के नाते, अपने कहे-लिखे-गाए गए में क्या मीरा ने ऐसा ही कुछ लिखा जो उनकी अपनी निजी यातना या आकांक्षा से आगे स्त्री जाति की यातना और आकांक्षा से भी जुड़ सका हो, एक वृहत्तर इयत्ता पा सका हो। यदि मीरा के ऐसे पद हमें मिलें तो मीरा के महत्त्व का संदर्भ भी बड़ा हो जाता है। मीरा की समकालीनता तो गाढ़ी होती ही है - मीरा अपने समय-संदर्भ से हमारे समय संदर्भ तक अंधकार में एक प्रखर ज्योति रेखा की तरह भास्वर हो उठती हैं।एक अंतिम और जरूरी बात और।जिस भेदभावपूर्ण सामाजिक संरचना के तहत अपने समय में मीरा ने बहुत कुछ सहा और भोगा - तमाम प्रतिरोधों के बावजूद वह सामाजिक संरचना न केवल बरकरार है, पहले से भी अधिक पीड़क हुई है। व्यवस्था के पंजे और मजबूत हुए हैं और उसके नाखून और दाँत और भी पैने। यह पहले से अधिक शातिर भी हुई है।कबीर हों, मीरा हों, प्रतिरोध सबने किया परन्तु कुछ भी इसलिए नहीं बदला कि मात्रसदिच्छाओं से या पीड़ा की वैयक्तिक अभिव्यक्तियों से, समाज नहीं बदला करता। सामाजिक परिवर्तन जिन स्थितियों और जिन शक्तियों के तहत होता है, न तो वैसी स्थितियाँ उस समय थीं ना ही वैसी शक्तियाँ। दूसरे, कबीर हों, अन्य संत हों या मीरा, उनकी अपनी सोच के विचारगत्‌ और व्यवहारगत्‌ अंतर्विरोध भी थे, जिनके चलते भी यथास्थिति को बल मिला। चली आ रही व्यवस्था के कुछ पहलुओं को विचार और आचरण के स्तर पर जरूर इन लोगों ने चुनौती दी परन्तु व्यवस्था के कुछ दीगर पहलू संस्कार बनकर उनके विचारों में घुले-मिले भी रहे जिन्होंने उनकी सोच को भी प्रभावित किया और आचरण को भी। व्यवस्था की शातिर निगाहों ने उन्हें उनके समय में भी भाँपा और आज भी उन्हें भाँप रही है। व्यवस्था के प्रभुओं ने उनके अंतर्विरोध को उनके समय में भी अपने हक में भुनाया और आज भी भुनाने पर आमादा हैं।इन संतों का, मीरा का, कहा हुआ, आचरित जो भी व्यवस्था के हित में जाता है, व्यवस्था ने तब भी उसे Highlight किया और आज भी कर रही है। इन संतों का और मीरा का जो कुछ भी कहा-रचा गया व्यवस्था के हित में नहीं रहा, व्यवस्था के प्रमुखों ने तब भी उसे दबाने की, हाशिए पर डालने की, विरूप करने की, अपने ढंग से व्याख्यायित करते हुए ।propriate करने की कोशिश की, आज भी कर रहे हैं। कबीर के साथ यह हुआ और हो रहा है। मीरा के साथ भी ऐसा ही हुआ और हो रहा है। सच कहा जाए तो व्यवस्था द्वारा मीरा का अप्रोपिएशन आसान भी है।मीरा की पदावली को देखें, पढ़ें और विचार करें, तो स्पष्ट होगा कि एक औरत होने के अहसास से ही नहीं, औरत होने के नाते अपने कमजोर, निरीह, असमर्थ और लाचार होने के एहसास से भी मीरा की मनोभूमि काफी कुछ आच्छादित और आक्रांत है। अबला होने का एहसास उन पर इस कदर हाबी है कि वे बार-बार अपने प्रभु या प्रियतम्‌ से अपनी रक्षा की गुहार लगाती हैं। श्रीकृष्ण पर उनकी निर्भरता तथा रक्षा का भरोसा इस नाते भी है कि जिन परिस्थितियों में वे थीं उन स्थितियों से उन्हें उबारने वाला उन्हें श्रीकृष्ण के अलावा कोई दूसरा नहीं दिखाई देता। श्रीकृष्ण से उनका संबंध भक्त का, प्रियतमा का और पत्नी का भी है, और श्रीकृष्ण प्रभु हों, प्रेमी हों,पति हों, अंततः पुरुष ही हैं - हर स्थिति में मीरा के संरक्षक और उद्धारक परम्परा भी ऐसा ही मानती है।मीरा प्रयत्ति की, शरणागति इस हद तक पहुँची हुई है कि अपने समूचे वजूद को अपने प्रभु, प्रेमी या पति पर निछावर किए हुए हैं। सारी तन्मयता, सारा समर्पण, सारा राग उन्हीं की ओर से है। भक्ति के स्तर पर तो भक्त के प्रभु के समक्ष इस तरह के एकांत समर्पण की बात समझी जा सकती है परन्तु प्रेमिका या पत्नी के रूप में, प्रियतम्‌ या पति के प्रति ऐसा समर्पण भाव, ऐसी निर्भरता कुछ हैरान और परेशान करती है। इस नाते कि व्यवस्था को ऐसे समर्पण में अपने अनुकूल बहुत कुछ मिल जाने और अपने हित में उसका इस्तेमाल करने की बेहद संभावना है।मीरा का ऐसा समर्पण भाव व्यवस्था को मौका देता है कि वह उसे सामाजिक जीवन-व्यवहार के तहत स्त्री के पुरुष के प्रति, पत्नी के पति के प्रति समर्पण भाव के रूप में, एक आदर्श के रूप में प्रचारित और व्याख्यायित करें। स्त्री-जाति को यह संदेश दे कि पुरुष के बिना स्त्री की तथा पति के लिए पत्नी की और कोई गति नहीं है। स्त्री के अस्तित्व की शर्त पुरुष के प्रति उसकी निर्भरता है। व्यवस्था को मौका मिलता है कि मीरा के साक्ष्य पर स्त्री-पुरुष या पति-पत्नी के ऐसे संबंध को वह वैध साबित करें।हमारी यह सोच किसी को अतिरंजित लग सकती है, परन्तु व्यवस्था का इतिहास साक्षी है कि उसने स्त्री की कमजोरी को हमेशा अपने हित में भुनाया और इस्तेमाल किया है।मीरा अपने प्रियतम्‌ से अपने मन चाहे पति से कभी बराबरी के स्तर पर नहीं बतियातीं। वे उनके प्रति अपने एकांत समर्पण में ही सुख मानती है। ‘गुलामी के इस सुख' को वे अपना सौभाग्य मानती हैं। वे अपने प्रभु या प्रियतम्‌ या पति-परमेश्वर की चाकरी के लिए सहज प्रस्तुत हैं - ‘प्रभु जी, कहाने चाकर राखो जी।' प्रभु की, प्रियतम्‌ की चाकर बनने में अपने वजूद को वे यहाँ तक भुला देती हैं कि उनका प्रभु उनका प्रियतम्‌, उन्हें जिस तरह रखे, जो भी खिलाए-पहिनाए, जहाँ भी रखे,वे उस तरह रहने, खाने-पहनने और वहाँ रहने को तैयार हैं। वह उन्हें बेचेगी, तो वे बिकने के लिए भी प्रस्तुत हैं। हमारे धर्मशास्त्राों में स्त्री को जिन मर्यादाओं में बाँधा गया है वे यही मर्यादायें हैं। संस्कार बनकर स्त्री मानस में वे इस तरह घुल पच गई हैं कि उनसे उबर पाना, जितना स्त्री मानस के लिए कठिन है, मीरा के लिए भी। अपने एक पद और (काश, यह पद प्रक्षिप्त हो) मीरा यहाँ तक कह गई है कि अपना पति, अपना ही है, वह कोढ़ी-कुष्टी ही क्यों न हो -छैल बिराणो लाख को हे, अपणे काज न होइ।ताके संग सीधारती है, भला न कहसीं कोई।वर हीणो अपनो भले है, कोढ़ी-कुष्टी कोइ।जाके संग सीधारती है, भला कहै सबलोइ॥स्त्री के संदर्भ में समर्पण की यह नियति, गुलामी का यह सुख, इस सुख से स्त्री की यह रजामंदी ही हमारी हैरानी और परेशानी का कारण है। कहने की जरूरत नहीं कि स्त्री मुक्ति की वही सबसे बड़ी बाधा भी है।मुक्ति कैसी भी हो किसी की भी हो, एक साथ और एक बार में होती है। किश्तों में मुुक्ति नहीं हुआ करती। चल रहे स्त्री-विमर्श में सक्रिय और उसके साथ चलने वाले सीधे-गुलाम होने के सुख पर मीरा को मुक्ति की इस आकांक्षा और अभियान में प्रतिरोध की मिसाल के रूप में प्रस्तुत करने वाले (प्रतिरोध की मिसाल मीरा हैं) सोचें और समझें कि मुक्त मीरा को ही नहीं होना है स्त्री जाति की मुक्ति होनी है। मीरा तो प्रतिरोध में है - मुक्त होंगी,जैसा कि वे हुईं-पर मीरा की मुक्ति से अहम्‌ सवाल हमारे लिए मुक्ति के अभियान में लगे हुए लोगों के लिए यह होना चाहिए कि मीरा की उस सास और ननद की मुक्ति भी स्त्री मुक्ति के अभियान से जुड़ी हुई है। मुक्त उन्हें भी होना है, जिनके लिए सचमुच गुलाम होने का सुख बहुत बड़ी नियामत है बिना उनके मुक्त हुए मीरा की या किसी अन्य की किसी समुदाय की मुक्ति का कोई मतलब नहीं। मुक्ति का यह अभियान कितना कठिन है आसानी से समझा जा सकता है।व्यवस्था बहुत शातिर है मीरा के अपने परमेश्वर-पति के प्रति समर्पण को स्त्री-जाति के सामने पति-परमेश्वर के प्रति समर्पण के रूप में व्याख्यायित कर ले जाना उसके लिए बहुत सहज है। धर्मशास्त्र स्त्री को, पति को परमेश्वर मानने की सीख तो देते हैं।समकालीन स्त्री-विमर्श में मीरा की भागीदारी ज+रूरी है। मीरा ने अपने समय में अपनी सीमाओं में जो किया बड़ा काम था। सन्तों के प्रतिरोध की जो वाणी बोली उसका भी हमारे लिए महत्त्व है। व्यवस्था न कबीर बदल सके, न मीरा। उनके लिए यह संभव भी न था। उनका महत्त्व इस बात में है कि मुक्ति के सपने को उन्होंने पराधीनों की आँखों में जीवित रखा। नई सदी में भी वह उनकी आँखों में जीवित हैं। इन्हीं आँखों में जितना कबीर हमारे समकालीन है, उतना ही मीरा।

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बाजार में मुक्ति तलाशती औरतें

सुरेश पंडित
नारीत्त्व का मिथक आखिर है क्या? क्यों स्त्री को धर्म, समाज, रूढ़ियाँ और साहित्य शाश्वत नारीत्त्व के मिथक के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं? क्योंकि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उसे-ओ वूमेन! दाऊ आर्ट हाफ ड्रीम एण्ड हाफ रियेलिटी' बताकर रहस्यात्मकता से आच्छादित करना चाहते हैं? क्यों महाकवि जयशंकर प्रसाद उसे ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो' कहकर एक उदात्त देवत्त्व प्रदान करने के लिए लालायित नजर आते हैं या फिर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ही क्यों उसे ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी' लिखकर करूणा का पात्रा बनाने पर उतारू हो जाते हैं? सुविख्यात नारीवादी चिन्तक सीमोन द बोउआर इस मनोवृत्ति को दुनिया की हर संस्कृति में पाती हैं। वे कहती हैं कि हर जगह उसे या तो देवी के रूप में पूजा की वस्तु या फिर दासी के रूप में उपयोग वस्तु बनाकर प्रस्तुत किया गया है। अपने ऊपर आरोपित इन दोनों स्थितियों को उसने सहर्ष स्वीकार तो किया ही है बल्कि स्थायित्त्व देने के लिए इनको अपने आचरण में उतारा तथा अगली पीढ़ियों को संस्कार के रूप में और आगे बढ़ाने के लिए दिया भी है।देवी के रूप में उसे दी गई प्रतिष्ठा दरअसल उसे उस मर्यादा में बंधे रहने के लिए बाध्य करती है जो पुरुष प्रधान समाज ने उसे अपने अधीन रखने के लिए बनाई थी। इसका उल्लंघन उसे तत्काल कुलटा, पतिता व कलंकिनी बना देता है और इसका प्राचश्चित व जान देकर अथवा जीवनभर सामाजिक उत्पीड़न सहकर ही कर पाती है।परन्तु पिछली सदी में चले महिला मुक्तिकामी आन्दोलनों ने न केवल उस मर्यादा की वैधता पर प्रश्न चिद्द लगाया बल्कि उसे पुरुषों के समान अधिकार पाने के लिए अधिकाधिक जागरूक भी किया। उनकी बदौलत ही उसे अपना पक्ष मजबूती से रखने के अवसर मिले और उसका एक निर्भीक असर्टिव(स्वाग्रही) व्यक्तित्त्व सामने आया। उसने जोर देकर घोषित किया कि वह बल और बुद्धि में किसी से कम नहीं है। इसलिए उस पर आरोपित रहस्यात्मकता, कामातिरेकता, बुद्धिहीनता, निर्णय, अशक्यता और दुर्बलता आदि की धारणाएँ न केवल निराधार व कपोल कल्पित हैं बल्कि एक सुचिन्तित साजिश की परिणाम भी हैं।स्त्री की स्वायत्त अस्मिता को पुल्लिंगी समाज से मान्यता दिलवाने में जहाँ कृषि समाज के पहले औद्योगिक और बाद में सूचना समाज में रूपान्तरण ने मदद की है वहीं मीडिया की भूमिका भी अतिशय उल्लेखनीय रही है। पत्र/पत्रिकाएँ लगाकार महिला मुक्ति के पक्ष-विपक्ष में बहस चलाते रहे हैं और इस तरह यह मुद्दा पिछले कई दशकों से चर्चा के केन्द्र में बना रहा है। मीडिया के इस संबल ने स्त्री को भरपूर आत्मविश्वासी एवं लक्ष्य प्राप्ति के लिए जुझारू बनाया है। लेकिन मीडिया की समय-समय पर हाँकने वाली ये उद्घोषणाएँ, लगता है समाज के कुछ खास वर्गों के सीमित सदस्यों को ध्यान में रखकर ही की जाती रही हैं क्योंकि अभी तक भी सामान्य परिवारों में बेटियों को जितनी छूट मिल जाती है उतनी बहुओं को सुलभ नहीं होती दिखाई देती। बल्कि देहात में तो बेटियाँ भी उस सुविधा को पाने में असमर्थ रहती हैं। बड़े और छोटे शहर, शहर और गाँव, तथा शिक्षा व धन के आधार पर बनी वर्ग भिन्नताएँ आज भी औरत की आजादी को किस तरह नियंत्रित करती हैं, इसे बताना अब आवश्यक नहीं रह गया है।परन्तु महिला मुक्ति के अनेक समर्थक भी अब सोचने लगे हैं कि कहीं यह आन्दोलन अपने असली उद्देश्य से भटक तो नहीं गया है? कहीं बाजार की ताकतों ने इसे ‘हाइजेक' करके अपने लाभ के लिए इसका उपयोग करना तो शुरू नहीं कर दिया है? क्योंकि मीडिया औरतों में बढ़ती जिस असर्टिवनैस को बढ़ा चढ़ा कर दिखा रहा है उसका उनकी मानसिक उन्मुक्तता से उतना सम्बन्ध नजर नहीं आता जितना देह प्रदर्शन या यौन मुक्ति से होता है। उसके नजरिए से वह औरत अधिक स्वायत्त और अधिकार सम्पन्न ठहरती है जो पश्चिमी पूँजीवादी सभ्यता की नकल करते हुए अपने जिस्म को बाजार की मांग के अनुरूप ढ़ालने में समर्थ होती है। भोगवादी जीवनशैली को अपना कर ही वह अपनी स्वाधीनता का परिचय दे सकती है। जो स्त्री-विमर्श कभी स्त्री को पुरुष के समान मान्यता और सम्मानपूर्ण जीवन जीने के अधिकार दिलाने का उद्देश्य सामने रखकर आगे बढ़ा था और वह अब देखते देखते स्त्री देह-विमर्श में बदल गया है, जो दूरदराज के गाँवों में रहने वाली अनपढ़, दीन-हीन औरतों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाते हुए उन्हें अधीनता से मुक्ति दिलाने और सम्मानपूर्वक जीना सिखाने के अभियान में लगी हैं। न ही उन महिलाओं को वह महत्त्व देता है जो भूमण्डलीय ग्राम में आर्थिक उदारीकरण के तहत होने वाले विकास के कारण हो रहे विस्थापन एवं अन्याय का प्रतिरोध कर रही हैं। उन्हें वह इसलिए हाईलाइट नहीं करता क्योंकि वे ग्लेमरस नहीं हैं और पूँजीवादी सभ्यता के मार्ग की अवरोधक बन रही हैं।दरअसल मीडिया स्त्री को उसी या उतनी ही स्वाधीनता देने का कायल है जिससे या जितनी से उसे लाभ होता है। उसका उद्देश्य स्त्री को स्वाधीन बनाना नहीं है उसकी स्वाधीनता का अपने हित में इस्तेमाल करना है। फिलहाल स्त्री-विमर्श की परिभाषा उसके लिए मात्र इतनी ही है कि स्त्री को अपनी देह पर उतना अधिकार मिलना ही चाहिए जिससे वह कामोत्तेजक मुद्राओं में स्वयं को अनावृत्त कर भोगवाद को बढ़ावा दे सके। मार्क्स एक जगह कहते हैं कि पूँजीवादी एक ऐसी स्थिति बनाता है जिसमें मनुष्य अनिवार्यतः मनुष्यता से वंचित होता चला जाता है। मीडिया भी औरत का इस्तेमाल एक मनुष्य के रूप में नहीं एक जिंस के रूप में कर रहा है।मीडिया के प्रचार का ही कमाल है कि जो आन्दोलन कभी स्त्री को एक ‘सैक्स ऑब्जेक्ट' या भोग की वस्तु बनाये जाने की प्रवृत्ति का तीव्र विरोध करता था आज न केवल उस पर कोई ऐतराज नहीं कर रहा है बल्कि उसे ही स्त्री-स्वाधीनता का प्रमाण-पत्र भी दे रहा है। अब औरत की बौद्धिक क्रियात्मकता अथवा अन्य क्षेत्रों में प्रदर्शित उत्कृष्टता मीडिया के लिए उतना महत्त्व नहीं रखती जितना सैक्स के क्षेत्र में उसके द्वारा किए गए ‘एडवेंचर' रखते हैं। केवल सैक्सी का विशेषण उसे अत्याधुनिक, साहसी एवं सर्वाधिकार सम्पन्न बना देता है। पूँजीवादी सभ्यता के आदर्श ग्लोबल मीडिया की कृपा से सबके लिए अनुकरणीय बनते जा रहे हैं। तभी तो किसी सीरियल में कोई बच्चा जब अपनी माँ को यह कहता सुनाई देता है कि ‘मम्मी'! आज तो आप बड़ी सैक्सी दिखाई दे रही हैं' या ‘पापा की गर्ल फ्रेन्ड बड़ी ‘क्यूट' लग रही है' तो हमें जरा-सा भी झटका नहीं लगता।अमरीकी टीवी चैनल इस मामले में सबसे आगे हैं। दूसरे देशों के लोग उनका अनुकरण इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वे आधुनिकता के मॉडल बने हुए हैं। अफ्रीकी एशियाई देशों में यह होड़ लगी हुई है कि किसी भी तरह वे विकसित योरोपीय देशों की पंक्ति में खड़े हो जायें और उन पर जो पिछड़ेपन व रूढ़िवादिता का कलंक लगा हुआ है वह जल्दी से जल्दी धुल जाए। वहाँ के ‘रियेलिटी', ‘बैचलर' तथा ‘बिग ब्रदर' जैसे हिट प्रोग्राम यहाँ भी बहुत हेर फेर के साथ विभिन्न चैनलों पर दिखाए जा रहे हैं और उन्हें देखने के लिए दर्शकों की अपार भीड़ भी जुट रही है। इनमें स्त्री जिस रूप में पेश की जा रही है उसे गौर से देखने की जरूरत है। इनमें उनका काम इतना प्रभावी नहीं होता जितना उनकी अदायें, चुलबुलापन, देह प्रदर्शन और मेकअप आदि होते हैं। कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि वे अपनी समझ-बूझ या प्रतिभा के अनुरूप अपनी भूमिका निभा रही हैं। जाहिर है ये प्रोग्राम इस तरह डिजाइन किए जाते हैं कि इनमें स्त्रियों की बौद्धिक योग्यता या रचनात्मक क्षमता के प्रदर्शन के लिए कोई गुंजाइश छोड़ी ही नहीं जाती। इनमें काम करने के लिए एक मात्र आवश्यक योग्यता स्त्री की फोटोजेनिक देह ही होती है। मीडिया उसे विभिन्न निर्माताओं के उत्पाद बेचने या प्रोग्राम को अधिकाधिक आकर्षक बनाकर टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करता है। घर, परिवार में वे पिता, पति या पुत्र के ही अनुशासन में रहती थी लेकिन इस (तथाकथित) स्वाधीनता की दुनिया में उन्हें अपना अस्तित्त्व बनाये रखने के लिए पग-पग पर कीमत चुकानी होती है। जिस आजादी को पाने और पुरुष वर्चस्वी समाज द्वारा निर्धारित आचार संहिता से मुक्त होने के लिए वह पिछली सदी से अनवरत लड़ाई लड़ती आ रही थी उस आजादी का यह स्वरूप तो निश्चय ही नहीं था। तब भी वह पुरुषों द्वारा अनुशासित होती थी अब भी होती है। पहले घर-परिवार, समाज के नियमों का उसे पालन करना होता था अब बाजार की शक्तियाँ, जिनकी डोर पुरुषों के ही हाथों में होती है, उसे अपने अनुसार चलाती हैं। पहले मर्यादा लांघकर चलने का परिणाम उसे कलंकित होने या यातना झेलने के रूप में भुगतना पड़ता था अब काम से हाथ धो बैठने और इस प्रकार जीवनयापन के साधन से वंचित हो जाने के रूप में भोगना पड़ता है। ‘बैचलर गेम' में अपने लिए उपयुक्त साथी तलाश करने वाले युवक को इंटरव्यू देने आई युवतियों की हर तरह से जाँच पड़ताल करने की सुविधा उपलब्ध करवाई जाती है। वह हर एपिसोड में उनके अंग प्रत्यंग का ठीक उसी तरह सूक्ष्म निरीक्षण करता है जिस तरह बाजार से किसी वस्तु को खरीदने से पहले ग्राहक उलट-पलट कर देखता है और अन्त में किसी एक को चुनकर शेष को रिजेक्ट कर देता है। इन युवतियों में किसी को यह अधिकार नहीं दिया जाता कि वह भी उस युवक को उसकी औकात बता दे।और ऐसे सीरियलों की तो भरमार है जिनमें किसी एक युवक को पाने के लिए अनेक युवतियाँ जी जान से कोशिश करती दिखाई जाती हैं। आश्चर्य है एक ओर तो निरन्तर कन्या भ्रूण हत्याओं का क्रम जारी है जिसके फलस्वरूप लिंगानुपात विषम होता जा रहा है। लड़कियों की संख्या लड़कों की अपेक्षा काफी नीचे गिरती जा रही है। दूसरी ओर एक युवक पर अनेक युवतियाँ अपना दावा पेश कर रही हैं। यह फिल्मी हक़ीकत हो सकती है जमीनी सच्चाई नहीं। पर सीरियल निर्माताओं को इससे क्या लेना-देना। उन्हें तो समाज में पुरुष के वर्चस्व को दिखाना है। स्त्रीवादी आन्दोलन इस तरह के प्रदर्शनों का विरोध नहीं करते न ही इनमें काम करने वाली स्त्रियाँ ऐसी भूमिकाएँ करने से इंकार करती हैं जिनसे उनके समानाधिकार पाने की मुहिम को झटका लगता है। इसके विपरीत एक युवक को पाने के लिए वे हर तरह के हथकंडे अपनाती हैं और उसके न मिलने पर आत्महत्या तक कर डालती हैं। मानो उसका न मिल पाना उसके जीवन की सबसे अहम्‌ असफलता हो। तरह-तरह से यह सिद्ध किया जाता है कि अच्छा मर्द पा लेना ही स्त्री जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि है। जो ऐसा नहीं कर पाती उसकी जिन्दगी तो निरर्थक मान ली ही जाती है उसे समाज दया का पात्रा भी बना देता है। अपने मनचाहे पुरुष को पा लेने के बाद भी स्त्री की समस्या वहीं खत्म नहीं होती। उसे अपने चिपटाये रखने, विलग न होने देने के लिए उसे उन सब आकर्षणों को भी अपने में बनाये रखना होता है जिनकी बदौलत वह उसे पा सकी थी। उन्हें बनाये रखने के लिए उसे जहाँ कोस्मेटिक थेरेपी का सहारा लेना होता है वहीं नियमित एक्सरसाइज और डाइटिंग का भी ध्यान रखना पड़ता है।औरतों को बार-बार यह एहसास करवाया जाता है कि उनका यौवन, रूप-सौन्दर्य, हावभाव ही वे योग्यताएँ हैं जिनके उनके पास रहने से ही उनके मनचाहे पुरुष व बाजार की नजरों में उनका कोई मूल्य है। इनका कम होना उन्हें आतंकित करता रहता है। इससे निजात पाने के लिए वे सौन्दर्य प्रसाधनों, मसाज पालरों का सहारा तो लेती ही हैं ब्यूटीशियनों तथा डाइटिशियनों के निर्देशों का भी सख्ती से पालन करती हैं। उम्र की ढलान, बढ़ती मांसलता, घटता चेहरे का नमक उन्हें अपने अवमूल्यन का पैगाम देता रहता है। दूसरी ओर उनका बौद्धिक विकास और शक्तिमत्ता उनकी फेमिनिटी के कम होने के सूचक माने जाते हैं। इस तरह वह परिवार की अधीनता से मुक्ति पाने की दौड़ में शामिल होकर स्वयं को बाजारवादी ताकतों के हाथ सौंप देती हैं।बाजार की इस मनमानी के विरोध में जब जब भी विरोध मुखर होता है उसे स्त्री की स्वतंत्रता का विरोध घोषित कर दबाने की भरसक चेष्टा की जाती है और इसमें स्त्रीवादी आन्दोलन के मुखिया भी बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं। बुद्धि और विचार की दुनिया में निकाल कर स्त्री को रूप सौन्दर्य और भोग-विलास की ओर ले जाने के पीछे एक सुनियोजित रणनीति के होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि यह एक ओर तो उसे अपनी स्वाधीनता और समानाधिकार के लिए किए जाने वाले संघर्ष के रास्ते से भटकाती है और दूसरी ओर उसे उपभोक्तावाद का बरबस अनुयायी बनाती है। पहले उसे पालतू बनाने के लिए बचपन से ही पतिव्रता होने का प्रशिक्षण दिया जाता था। आज्ञाकारिता, नम्रता और समर्पण के भाव परिजनों द्वारा सिखाये जाते थे और इनके पालन न करने पर होने वाले भयावह परिणामों को बढ़ा चढ़ाकर बताया जाता था। अब उसी तरह की टे्रनिंग का दायित्त्व फैशन, विज्ञापन, मॉडलिंग आदि उद्योगों के संचालकों ने मीडिया को अपना सहायक बनाकर ले लिया है। पहले बालिकाओं को घर में बनी सीधी सादी गुड़ियाओं से खेलने दिया जाता था फिर वे बाजार में बनी तरह-तरह की फैशनों वाली गुड़ियाओं से खेलने लगी अब वे स्वयं उनकी नकल कर सैक्सी गुड़िया-सी बनने लगी हैं।बाजार की मांग की आपूर्ति के लिए बनाई जाने वाली स्त्री की कामोत्तेजक छवि का जब-जब विरोध किया जाता है तब-तब मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी इसे औरत की आजादी पर हमला बताकर इसका विरोध करने लगते हैं। यद्यपि वे यह भली भाँति जानते हैं कि न यह औरत की आजादी है और न इससे उसे सम्मान मिल रहा है। इसके विपरीत वह फिर से अधीन हो रही है, इस्तेमाल हो रही है। दूसरी ओर स्त्रियों के जुझारू संगठन भी इन विरोधकर्ताओं को पोंगापंथी व लकीर का फकीर घोषित कर उनकी निन्दा -भर्त्सना करने से बाज नहीं आते। उनका मानना है कि स्त्री पर किसी भी तरह का डे्रस कोड लादना या उसकी जीवन शैली की आलोचना करना एक ऐसा फासीवादी नजरिया है जो स्त्री को पुनः अन्धकार युग की ओर ले जाने वाला है। यह कैसी विडम्बना है कि एक तरफ के लोग स्त्री देह को जितना पर्दे में ढ़ककर, उसे दूसरों की नजरों से बचाकर रखना चाहते हैं तो दूसरी तरफ के उसे उतना ही अनावृत उद्घाटित करने की वकालत करते हैं। दोनों ही स्त्री के हित में इस तरह की दलीलें देते हैं। पर स्त्री वास्तव में क्या चाहती हैं, इस पर वे ध्यान नहीं देना चाहते। आखिर उसे अपनी समझ-विवेक के अनुसार जीने की स्वतंत्रता दिलाना ही तो स्त्री मुक्ति की एकमात्रऔर अनिवार्य शर्त है और यही स्वतंत्रता उसे किसी न किसी बहाने नहीं दी जा रही है। देह प्रदर्शन या यौन मुक्ति ही यदि उसकी स्वतंत्रता की काम्य मंजिल है तो यह मांग किसी के लिए आपत्तिजनक क्यों होनी चाहिए। पर उसे यह तो देखना ही होगा कि इस तरह वह कहीं अपने स्वत्त्व को ही तो जोखिम में नहीं डाल रही है।

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