बाजार में मुक्ति तलाशती औरतें
सुरेश पंडित
नारीत्त्व का मिथक आखिर है क्या? क्यों स्त्री को धर्म, समाज, रूढ़ियाँ और साहित्य शाश्वत नारीत्त्व के मिथक के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं? क्योंकि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उसे-ओ वूमेन! दाऊ आर्ट हाफ ड्रीम एण्ड हाफ रियेलिटी' बताकर रहस्यात्मकता से आच्छादित करना चाहते हैं? क्यों महाकवि जयशंकर प्रसाद उसे ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो' कहकर एक उदात्त देवत्त्व प्रदान करने के लिए लालायित नजर आते हैं या फिर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ही क्यों उसे ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी' लिखकर करूणा का पात्रा बनाने पर उतारू हो जाते हैं? सुविख्यात नारीवादी चिन्तक सीमोन द बोउआर इस मनोवृत्ति को दुनिया की हर संस्कृति में पाती हैं। वे कहती हैं कि हर जगह उसे या तो देवी के रूप में पूजा की वस्तु या फिर दासी के रूप में उपयोग वस्तु बनाकर प्रस्तुत किया गया है। अपने ऊपर आरोपित इन दोनों स्थितियों को उसने सहर्ष स्वीकार तो किया ही है बल्कि स्थायित्त्व देने के लिए इनको अपने आचरण में उतारा तथा अगली पीढ़ियों को संस्कार के रूप में और आगे बढ़ाने के लिए दिया भी है।देवी के रूप में उसे दी गई प्रतिष्ठा दरअसल उसे उस मर्यादा में बंधे रहने के लिए बाध्य करती है जो पुरुष प्रधान समाज ने उसे अपने अधीन रखने के लिए बनाई थी। इसका उल्लंघन उसे तत्काल कुलटा, पतिता व कलंकिनी बना देता है और इसका प्राचश्चित व जान देकर अथवा जीवनभर सामाजिक उत्पीड़न सहकर ही कर पाती है।परन्तु पिछली सदी में चले महिला मुक्तिकामी आन्दोलनों ने न केवल उस मर्यादा की वैधता पर प्रश्न चिद्द लगाया बल्कि उसे पुरुषों के समान अधिकार पाने के लिए अधिकाधिक जागरूक भी किया। उनकी बदौलत ही उसे अपना पक्ष मजबूती से रखने के अवसर मिले और उसका एक निर्भीक असर्टिव(स्वाग्रही) व्यक्तित्त्व सामने आया। उसने जोर देकर घोषित किया कि वह बल और बुद्धि में किसी से कम नहीं है। इसलिए उस पर आरोपित रहस्यात्मकता, कामातिरेकता, बुद्धिहीनता, निर्णय, अशक्यता और दुर्बलता आदि की धारणाएँ न केवल निराधार व कपोल कल्पित हैं बल्कि एक सुचिन्तित साजिश की परिणाम भी हैं।स्त्री की स्वायत्त अस्मिता को पुल्लिंगी समाज से मान्यता दिलवाने में जहाँ कृषि समाज के पहले औद्योगिक और बाद में सूचना समाज में रूपान्तरण ने मदद की है वहीं मीडिया की भूमिका भी अतिशय उल्लेखनीय रही है। पत्र/पत्रिकाएँ लगाकार महिला मुक्ति के पक्ष-विपक्ष में बहस चलाते रहे हैं और इस तरह यह मुद्दा पिछले कई दशकों से चर्चा के केन्द्र में बना रहा है। मीडिया के इस संबल ने स्त्री को भरपूर आत्मविश्वासी एवं लक्ष्य प्राप्ति के लिए जुझारू बनाया है। लेकिन मीडिया की समय-समय पर हाँकने वाली ये उद्घोषणाएँ, लगता है समाज के कुछ खास वर्गों के सीमित सदस्यों को ध्यान में रखकर ही की जाती रही हैं क्योंकि अभी तक भी सामान्य परिवारों में बेटियों को जितनी छूट मिल जाती है उतनी बहुओं को सुलभ नहीं होती दिखाई देती। बल्कि देहात में तो बेटियाँ भी उस सुविधा को पाने में असमर्थ रहती हैं। बड़े और छोटे शहर, शहर और गाँव, तथा शिक्षा व धन के आधार पर बनी वर्ग भिन्नताएँ आज भी औरत की आजादी को किस तरह नियंत्रित करती हैं, इसे बताना अब आवश्यक नहीं रह गया है।परन्तु महिला मुक्ति के अनेक समर्थक भी अब सोचने लगे हैं कि कहीं यह आन्दोलन अपने असली उद्देश्य से भटक तो नहीं गया है? कहीं बाजार की ताकतों ने इसे ‘हाइजेक' करके अपने लाभ के लिए इसका उपयोग करना तो शुरू नहीं कर दिया है? क्योंकि मीडिया औरतों में बढ़ती जिस असर्टिवनैस को बढ़ा चढ़ा कर दिखा रहा है उसका उनकी मानसिक उन्मुक्तता से उतना सम्बन्ध नजर नहीं आता जितना देह प्रदर्शन या यौन मुक्ति से होता है। उसके नजरिए से वह औरत अधिक स्वायत्त और अधिकार सम्पन्न ठहरती है जो पश्चिमी पूँजीवादी सभ्यता की नकल करते हुए अपने जिस्म को बाजार की मांग के अनुरूप ढ़ालने में समर्थ होती है। भोगवादी जीवनशैली को अपना कर ही वह अपनी स्वाधीनता का परिचय दे सकती है। जो स्त्री-विमर्श कभी स्त्री को पुरुष के समान मान्यता और सम्मानपूर्ण जीवन जीने के अधिकार दिलाने का उद्देश्य सामने रखकर आगे बढ़ा था और वह अब देखते देखते स्त्री देह-विमर्श में बदल गया है, जो दूरदराज के गाँवों में रहने वाली अनपढ़, दीन-हीन औरतों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाते हुए उन्हें अधीनता से मुक्ति दिलाने और सम्मानपूर्वक जीना सिखाने के अभियान में लगी हैं। न ही उन महिलाओं को वह महत्त्व देता है जो भूमण्डलीय ग्राम में आर्थिक उदारीकरण के तहत होने वाले विकास के कारण हो रहे विस्थापन एवं अन्याय का प्रतिरोध कर रही हैं। उन्हें वह इसलिए हाईलाइट नहीं करता क्योंकि वे ग्लेमरस नहीं हैं और पूँजीवादी सभ्यता के मार्ग की अवरोधक बन रही हैं।दरअसल मीडिया स्त्री को उसी या उतनी ही स्वाधीनता देने का कायल है जिससे या जितनी से उसे लाभ होता है। उसका उद्देश्य स्त्री को स्वाधीन बनाना नहीं है उसकी स्वाधीनता का अपने हित में इस्तेमाल करना है। फिलहाल स्त्री-विमर्श की परिभाषा उसके लिए मात्र इतनी ही है कि स्त्री को अपनी देह पर उतना अधिकार मिलना ही चाहिए जिससे वह कामोत्तेजक मुद्राओं में स्वयं को अनावृत्त कर भोगवाद को बढ़ावा दे सके। मार्क्स एक जगह कहते हैं कि पूँजीवादी एक ऐसी स्थिति बनाता है जिसमें मनुष्य अनिवार्यतः मनुष्यता से वंचित होता चला जाता है। मीडिया भी औरत का इस्तेमाल एक मनुष्य के रूप में नहीं एक जिंस के रूप में कर रहा है।मीडिया के प्रचार का ही कमाल है कि जो आन्दोलन कभी स्त्री को एक ‘सैक्स ऑब्जेक्ट' या भोग की वस्तु बनाये जाने की प्रवृत्ति का तीव्र विरोध करता था आज न केवल उस पर कोई ऐतराज नहीं कर रहा है बल्कि उसे ही स्त्री-स्वाधीनता का प्रमाण-पत्र भी दे रहा है। अब औरत की बौद्धिक क्रियात्मकता अथवा अन्य क्षेत्रों में प्रदर्शित उत्कृष्टता मीडिया के लिए उतना महत्त्व नहीं रखती जितना सैक्स के क्षेत्र में उसके द्वारा किए गए ‘एडवेंचर' रखते हैं। केवल सैक्सी का विशेषण उसे अत्याधुनिक, साहसी एवं सर्वाधिकार सम्पन्न बना देता है। पूँजीवादी सभ्यता के आदर्श ग्लोबल मीडिया की कृपा से सबके लिए अनुकरणीय बनते जा रहे हैं। तभी तो किसी सीरियल में कोई बच्चा जब अपनी माँ को यह कहता सुनाई देता है कि ‘मम्मी'! आज तो आप बड़ी सैक्सी दिखाई दे रही हैं' या ‘पापा की गर्ल फ्रेन्ड बड़ी ‘क्यूट' लग रही है' तो हमें जरा-सा भी झटका नहीं लगता।अमरीकी टीवी चैनल इस मामले में सबसे आगे हैं। दूसरे देशों के लोग उनका अनुकरण इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वे आधुनिकता के मॉडल बने हुए हैं। अफ्रीकी एशियाई देशों में यह होड़ लगी हुई है कि किसी भी तरह वे विकसित योरोपीय देशों की पंक्ति में खड़े हो जायें और उन पर जो पिछड़ेपन व रूढ़िवादिता का कलंक लगा हुआ है वह जल्दी से जल्दी धुल जाए। वहाँ के ‘रियेलिटी', ‘बैचलर' तथा ‘बिग ब्रदर' जैसे हिट प्रोग्राम यहाँ भी बहुत हेर फेर के साथ विभिन्न चैनलों पर दिखाए जा रहे हैं और उन्हें देखने के लिए दर्शकों की अपार भीड़ भी जुट रही है। इनमें स्त्री जिस रूप में पेश की जा रही है उसे गौर से देखने की जरूरत है। इनमें उनका काम इतना प्रभावी नहीं होता जितना उनकी अदायें, चुलबुलापन, देह प्रदर्शन और मेकअप आदि होते हैं। कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि वे अपनी समझ-बूझ या प्रतिभा के अनुरूप अपनी भूमिका निभा रही हैं। जाहिर है ये प्रोग्राम इस तरह डिजाइन किए जाते हैं कि इनमें स्त्रियों की बौद्धिक योग्यता या रचनात्मक क्षमता के प्रदर्शन के लिए कोई गुंजाइश छोड़ी ही नहीं जाती। इनमें काम करने के लिए एक मात्र आवश्यक योग्यता स्त्री की फोटोजेनिक देह ही होती है। मीडिया उसे विभिन्न निर्माताओं के उत्पाद बेचने या प्रोग्राम को अधिकाधिक आकर्षक बनाकर टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करता है। घर, परिवार में वे पिता, पति या पुत्र के ही अनुशासन में रहती थी लेकिन इस (तथाकथित) स्वाधीनता की दुनिया में उन्हें अपना अस्तित्त्व बनाये रखने के लिए पग-पग पर कीमत चुकानी होती है। जिस आजादी को पाने और पुरुष वर्चस्वी समाज द्वारा निर्धारित आचार संहिता से मुक्त होने के लिए वह पिछली सदी से अनवरत लड़ाई लड़ती आ रही थी उस आजादी का यह स्वरूप तो निश्चय ही नहीं था। तब भी वह पुरुषों द्वारा अनुशासित होती थी अब भी होती है। पहले घर-परिवार, समाज के नियमों का उसे पालन करना होता था अब बाजार की शक्तियाँ, जिनकी डोर पुरुषों के ही हाथों में होती है, उसे अपने अनुसार चलाती हैं। पहले मर्यादा लांघकर चलने का परिणाम उसे कलंकित होने या यातना झेलने के रूप में भुगतना पड़ता था अब काम से हाथ धो बैठने और इस प्रकार जीवनयापन के साधन से वंचित हो जाने के रूप में भोगना पड़ता है। ‘बैचलर गेम' में अपने लिए उपयुक्त साथी तलाश करने वाले युवक को इंटरव्यू देने आई युवतियों की हर तरह से जाँच पड़ताल करने की सुविधा उपलब्ध करवाई जाती है। वह हर एपिसोड में उनके अंग प्रत्यंग का ठीक उसी तरह सूक्ष्म निरीक्षण करता है जिस तरह बाजार से किसी वस्तु को खरीदने से पहले ग्राहक उलट-पलट कर देखता है और अन्त में किसी एक को चुनकर शेष को रिजेक्ट कर देता है। इन युवतियों में किसी को यह अधिकार नहीं दिया जाता कि वह भी उस युवक को उसकी औकात बता दे।और ऐसे सीरियलों की तो भरमार है जिनमें किसी एक युवक को पाने के लिए अनेक युवतियाँ जी जान से कोशिश करती दिखाई जाती हैं। आश्चर्य है एक ओर तो निरन्तर कन्या भ्रूण हत्याओं का क्रम जारी है जिसके फलस्वरूप लिंगानुपात विषम होता जा रहा है। लड़कियों की संख्या लड़कों की अपेक्षा काफी नीचे गिरती जा रही है। दूसरी ओर एक युवक पर अनेक युवतियाँ अपना दावा पेश कर रही हैं। यह फिल्मी हक़ीकत हो सकती है जमीनी सच्चाई नहीं। पर सीरियल निर्माताओं को इससे क्या लेना-देना। उन्हें तो समाज में पुरुष के वर्चस्व को दिखाना है। स्त्रीवादी आन्दोलन इस तरह के प्रदर्शनों का विरोध नहीं करते न ही इनमें काम करने वाली स्त्रियाँ ऐसी भूमिकाएँ करने से इंकार करती हैं जिनसे उनके समानाधिकार पाने की मुहिम को झटका लगता है। इसके विपरीत एक युवक को पाने के लिए वे हर तरह के हथकंडे अपनाती हैं और उसके न मिलने पर आत्महत्या तक कर डालती हैं। मानो उसका न मिल पाना उसके जीवन की सबसे अहम् असफलता हो। तरह-तरह से यह सिद्ध किया जाता है कि अच्छा मर्द पा लेना ही स्त्री जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि है। जो ऐसा नहीं कर पाती उसकी जिन्दगी तो निरर्थक मान ली ही जाती है उसे समाज दया का पात्रा भी बना देता है। अपने मनचाहे पुरुष को पा लेने के बाद भी स्त्री की समस्या वहीं खत्म नहीं होती। उसे अपने चिपटाये रखने, विलग न होने देने के लिए उसे उन सब आकर्षणों को भी अपने में बनाये रखना होता है जिनकी बदौलत वह उसे पा सकी थी। उन्हें बनाये रखने के लिए उसे जहाँ कोस्मेटिक थेरेपी का सहारा लेना होता है वहीं नियमित एक्सरसाइज और डाइटिंग का भी ध्यान रखना पड़ता है।औरतों को बार-बार यह एहसास करवाया जाता है कि उनका यौवन, रूप-सौन्दर्य, हावभाव ही वे योग्यताएँ हैं जिनके उनके पास रहने से ही उनके मनचाहे पुरुष व बाजार की नजरों में उनका कोई मूल्य है। इनका कम होना उन्हें आतंकित करता रहता है। इससे निजात पाने के लिए वे सौन्दर्य प्रसाधनों, मसाज पालरों का सहारा तो लेती ही हैं ब्यूटीशियनों तथा डाइटिशियनों के निर्देशों का भी सख्ती से पालन करती हैं। उम्र की ढलान, बढ़ती मांसलता, घटता चेहरे का नमक उन्हें अपने अवमूल्यन का पैगाम देता रहता है। दूसरी ओर उनका बौद्धिक विकास और शक्तिमत्ता उनकी फेमिनिटी के कम होने के सूचक माने जाते हैं। इस तरह वह परिवार की अधीनता से मुक्ति पाने की दौड़ में शामिल होकर स्वयं को बाजारवादी ताकतों के हाथ सौंप देती हैं।बाजार की इस मनमानी के विरोध में जब जब भी विरोध मुखर होता है उसे स्त्री की स्वतंत्रता का विरोध घोषित कर दबाने की भरसक चेष्टा की जाती है और इसमें स्त्रीवादी आन्दोलन के मुखिया भी बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं। बुद्धि और विचार की दुनिया में निकाल कर स्त्री को रूप सौन्दर्य और भोग-विलास की ओर ले जाने के पीछे एक सुनियोजित रणनीति के होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि यह एक ओर तो उसे अपनी स्वाधीनता और समानाधिकार के लिए किए जाने वाले संघर्ष के रास्ते से भटकाती है और दूसरी ओर उसे उपभोक्तावाद का बरबस अनुयायी बनाती है। पहले उसे पालतू बनाने के लिए बचपन से ही पतिव्रता होने का प्रशिक्षण दिया जाता था। आज्ञाकारिता, नम्रता और समर्पण के भाव परिजनों द्वारा सिखाये जाते थे और इनके पालन न करने पर होने वाले भयावह परिणामों को बढ़ा चढ़ाकर बताया जाता था। अब उसी तरह की टे्रनिंग का दायित्त्व फैशन, विज्ञापन, मॉडलिंग आदि उद्योगों के संचालकों ने मीडिया को अपना सहायक बनाकर ले लिया है। पहले बालिकाओं को घर में बनी सीधी सादी गुड़ियाओं से खेलने दिया जाता था फिर वे बाजार में बनी तरह-तरह की फैशनों वाली गुड़ियाओं से खेलने लगी अब वे स्वयं उनकी नकल कर सैक्सी गुड़िया-सी बनने लगी हैं।बाजार की मांग की आपूर्ति के लिए बनाई जाने वाली स्त्री की कामोत्तेजक छवि का जब-जब विरोध किया जाता है तब-तब मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी इसे औरत की आजादी पर हमला बताकर इसका विरोध करने लगते हैं। यद्यपि वे यह भली भाँति जानते हैं कि न यह औरत की आजादी है और न इससे उसे सम्मान मिल रहा है। इसके विपरीत वह फिर से अधीन हो रही है, इस्तेमाल हो रही है। दूसरी ओर स्त्रियों के जुझारू संगठन भी इन विरोधकर्ताओं को पोंगापंथी व लकीर का फकीर घोषित कर उनकी निन्दा -भर्त्सना करने से बाज नहीं आते। उनका मानना है कि स्त्री पर किसी भी तरह का डे्रस कोड लादना या उसकी जीवन शैली की आलोचना करना एक ऐसा फासीवादी नजरिया है जो स्त्री को पुनः अन्धकार युग की ओर ले जाने वाला है। यह कैसी विडम्बना है कि एक तरफ के लोग स्त्री देह को जितना पर्दे में ढ़ककर, उसे दूसरों की नजरों से बचाकर रखना चाहते हैं तो दूसरी तरफ के उसे उतना ही अनावृत उद्घाटित करने की वकालत करते हैं। दोनों ही स्त्री के हित में इस तरह की दलीलें देते हैं। पर स्त्री वास्तव में क्या चाहती हैं, इस पर वे ध्यान नहीं देना चाहते। आखिर उसे अपनी समझ-विवेक के अनुसार जीने की स्वतंत्रता दिलाना ही तो स्त्री मुक्ति की एकमात्रऔर अनिवार्य शर्त है और यही स्वतंत्रता उसे किसी न किसी बहाने नहीं दी जा रही है। देह प्रदर्शन या यौन मुक्ति ही यदि उसकी स्वतंत्रता की काम्य मंजिल है तो यह मांग किसी के लिए आपत्तिजनक क्यों होनी चाहिए। पर उसे यह तो देखना ही होगा कि इस तरह वह कहीं अपने स्वत्त्व को ही तो जोखिम में नहीं डाल रही है।
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