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Monday, December 8, 2008

सामाजिक - सांस्कृतिक क्रांति के सम्वाहक : कबीर

डॉ० जगत सिंह बिष्ट

कबीर हिंदी के संत काव्य परंपरा के प्रतिनिधि और प्रवर्तक कवि हैं। संत काव्य धारा के सांस्कृतिक एवं दार्शनिक आधार व्यापक हैं, वे आधार है : उपनिषद्, शंकराचार्य का अद्वैत-दर्शन, नाथपंथ, इस्लाम धर्म और सूफी दर्शन। यही कारण है कि हिंदी संत काव्य परंपरा वस्तुपरकता की दृष्टि से अत्यंत व्यापक है। इसी अर्थ में संत काव्य विश्व धर्म बन जाता है। एक ऐसा विश्व धर्म, जिसमें सब प्रकार के जीवों का कल्याण विद्यमान है। वह इसलिए भी कि संत कवियों ने अपने द्वारा गृहीत सांस्कृतिक और दार्शनिक आधारों के, केवल उन पक्षों का सार ग्रहण किया है, जो मानव समेत समस्त प्राणियों के लिए उपयोगी और कल्याणकारी है। यही कारण है कि हिंदी के विद्वान एकमत से संत काव्य का महत्त्व साहित्यिक दृष्टि की अपेक्षा सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक दृष्टि से मानते हैं-संत काव्य का जो महत्त्व सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दृष्टि से है; वह साहित्यिक दृष्टि से नहीं है।१ किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि संत काव्य का महत्त्व साहित्यिक दृष्टि से नगण्य है। इतना अवश्य है कि संत काव्य में वैचारिक क्रांति की अतिशयता से, उसका साहित्यिक पक्ष दब सा गया है फिर भी संत कवि अपनी कविताओं के द्वारा, जिस सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति को व्यक्त करते हैं; वह साहित्यिकता के बिना संभव नहीं है।

कबीर संत काव्य परंपरा के सर्वाधिक प्रभावशाली कवि हैं। वे अपने काव्य में एक साथ भक्त, कवि, विचारक एवं समाज सुधारक की भूमिका में दिखाई देते हैं। कहना यह है कि संत कबीर के काव्य में भक्ति, ज्ञान और वैचारिकता का अद्भुत सामंजस्य है। उनकी वैचारिक और समाज सुधारक की भूमिका ही, उन्हें सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति का सम्वाहक बनाती है। मूलतः एक भक्त कवि होते हुए भी; उन्हें अपने समाज की पर्याप्त चिन्ता थी। उनके काव्य के दो वर्ग हैं-इनमें से प्रथम रचनात्मक है तथा द्वितीय आलोचनात्मक। रचनात्मक विषयों के अन्तर्गत सतगुरु नाम, विश्वास, धैर्य, दया, विचार, औदार्य, क्षमा, संतोष आदि व्यावहारिक शैली में भाव व्यक्त किए गए हैं। यहाँ उनकी आलोचनात्मक प्रतिभा के दर्शन नहीं होते हैं अर्थात्‌ यहाँ मानव की हीनताओं का दिग्दर्शन नहीं कराया गया है। प्रतिपाद्य के दूसरे विषय में कबीर की आलोचनात्मक प्रतिभा व्यक्त हुई है। यहाँ वे आलोचक, सुधारक, पथ-प्रदर्शक और समन्वय कर्ता के रूप में दृष्टिगत होते हैं - चेतावनी, भेष, कुसंग, माया, मन, कपट, कामिनी आदि।२ यद्यपि संत कबीर के रचनात्मक और आलोचनात्मक दोनों ही प्रतिपाद्य विषयों में सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के स्वर विद्यमान हैं। फिर भी उनके रचनात्मक प्रतिपाद्य विषय उपदेश एवं नीतिपरक होने के कारण, उसमें सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रांति के स्वर दब से गए हैं। जबकि आलोचनात्मक प्रतिपाद्य विषयों में संत कबीर क्रांतिकारी दिखाई देते हैं इसलिए तो हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-फिर व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानते। पंडित और काजी, अवधू और जोगिया, मुल्ला और मौलवी - सभी उनके व्यंग्य से तिलमिला जाते हैं।३ कहने में संकोच नहीं है कि संत कबीर कालजयी कवि हैं क्योंकि उनकी साखियों, पदों एवं रमैनियों में तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक विकृतियों के प्रति विरोध मुखरित हुआ है। उससे कवि की संवेदना असीम हो गई है। सब बाहरी धर्माचारों को अस्वीकार करने का अपार साहस लेकर कबीरदास साधन के क्षेत्र में अवतीर्ण हुए।...उन्होंने अटल विश्वास के साथ अपने प्रेम मार्ग का प्रतिपादन किया। रूढ़ियों और कुसंस्कारों की विशाल वाहिनी से वह आजीवन जूझते रहे।४हिंदी साहित्य जगत में जब संत कबीर का अवतरण हुआ, उस समय भारत की सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थिति अच्छी नहीं थी। तब भारतीय समाज हिन्दू, मुस्लिम, जैन और बौद्ध आदि प्रमुख सम्प्रदायों में विभक्त था। समाज का प्रत्येक व्यक्ति इन सम्प्रदायों में व्याप्त रूढ़ियों, अंधविश्वासों, मिथ्या प्रदर्शनों, अमानवीय, अप्रासंगिक रीति-रिवाजों के मकड़जाल में बुरी तरह उलझा था। सभी सम्प्रदायों से सम्बद्ध लोग, अपने-अपने सम्प्रदायों की श्रेष्ठता के प्रतिपादन में कटिबद्ध थे। अपने मत की प्रतिष्ठा के सवाल से समूचे समाज में तनाव का माहौल बना हुआ था। संत कबीर ने ऐसे अराजक वातावरण में प्रत्येक सम्प्रदाय की अप्रासंगिक एवं अमानवीय रीति-रिवाजों का खुलकर विरोध किया था। उनके आलोचना के केन्द्र में प्रमुख रूप से हिंदू और मुस्लिम सम्प्रदाय थे। क्योंकि उस समय ये दोनों सम्प्रदाय सबसे बड़े थे और इन दोनों में ही प्रतिष्ठा के सवाल बराबर खड़े होते थे। फलतः सामाजिक समरसता को खतरा उत्पन्न हो रहा था। उस समय हिंदू समाज में भी नाना प्रकार की साधनाएँ प्रचलन में थीं। इन साधनाओं में शाक्त, शैव, वैष्णव आदि प्रमुख थे। इनमें भी परस्पर घोर अंतर्विरोध था। छोटी-छोटी बातों में खून-खराबा आम बात थी। इनकी उपासना पद्धतियों में कई प्रकार की विकृतियाँ प्रविष्ट हो चुकी थीं। फलतः संत कबीर ने विविध उपासना पद्धतियों से युक्त समाज में पारस्परिक समरसता के लिए प्रेम भक्ति की साधना का उच्चादर्श प्रस्तुत किया और हिंदू समाज में प्रचलित विविध उपासना पद्धतियों के आडम्बरों के प्रति घोर विरोध व्यक्त किया था। उनके समय में शक्ति की उपासना में मांस और मदिरा का चलन था। वे स्वयं सातात्त्विक प्रवृत्ति के थे। यही कारण है कि उन्होंने शक्ति के उपासकों को खूब फटकार लगाई थी। उन्हें शक्ति के उपासक सन की रस्सी के समान लगते थे, जो भीग कर अधिक कठोर हो जाती है-साबित सण का जेबड़ा, भीगाँ सू कठ्ठाइ। (कबीर समग्र; २८/११) संत कबीर का शाक्तों से विरोध केवल अपवित्रा एवं जीव विरोधी उपासना को लेकर था। क्योंकि उनकी उपसना में हिंसा, मदिरा एवं मांस का चलन था-पापी पूजा बैसि करि भषै मांस मद दोइ। (कबीर समग्र; २९०/१३) हिंदू समाज में प्रचलित मूर्तिपूजा, जप, तप, तीर्थस्नान और माला फेरने को ढकोसला मानते थे। उन्होंने हिन्दुओं की मूर्तिपूजा पर कई स्थलों पर खिल्ली उड़ाई है- पाहन पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार।/तातै यह चाकी भली, पीसि खाए संसार॥(कबीर समग्र, ४४१/०१)

वस्तुतः संत कबीर का मूर्तिपूजा के प्रति विरोध अकारण नहीं था। बल्कि यह विरोध गहरे यथार्थ बोध से उपजा था, जिसमें वर्षों से परिचालित हिंदुओं की जड़ एवं अप्रासंगिक मानसिकता के खिलाफ प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी आह्‌वान था। इसके अतिरिक्त उन्होंने पत्थर की मूर्ति का धंधा और समाज को दिग्भ्रमित करने वाले लोगों को भी बेनकाब किया था-मूरित धरि धंधा रचा, पाहन का जगदीश। (कबीर समग्र; ४४५/३) उन्होंने हिन्दुओं में माला फेरने की परंपरा का भी खंडन किया क्योंकि वे माला पहनने की अपेक्षा हृदय में पड़ी वासना की गाँठों को खोलना हितकर समझते थे-माला पहरयौ कुछ नहीं गाँठि, हिरदा की खोल (कबीर समग्र; २९४/९) इसी प्रकार संत कबीर ने बालों को मुड़ाकर वैष्णव भक्त बनने की आडम्बरपूर्ण प्रवृत्ति पर भी दो टूक बात की थी। वे बालों को मुड़ाने की अपेक्षा मन का संस्कार करना ठीक समझते हैं-कैसों कहा बिगाडिया, जे मूँडै सौ बार/मन कौं काहे न मूँडिए, जामै विषै विकार॥ (कबीर समग्र; २९४/१२) इतना ही नहीं, उन्होंने संन्यासी की वेश-भूषा धारण करने वाले वैष्णवों को भी नहीं छोड़ा और उन्हें आडम्बरपूर्ण वेश-भूषा के बजाय विवेकपूर्ण आचरण को आत्मसात्‌ करने की ओर प्रेरित किया-बसनों भया तौ का भया, बूझा नहीं विवेक।/छाया तिलक बनाइ करि, दगध्या लोक अनेक॥ (कबीर समग्र; २९५/१६)कबीर पोथी ज्ञान को भी अव्यावहारिक मानते हैं, उनका मानना है कि पोथियों को पढ़ने वालों को आत्मज्ञान न होकर आत्मनाश होता है। संसार में सारे पंडित पुस्तकें पढ़-पढ़कर मर गए किंतु किसी को भी आत्मज्ञान नहीं हुआ-पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा पंडित भया न कोइ। (कबीर समग्र; २८४/४) कहने की आवश्यकता नहीं है कि कबीर का यह मन्तव्य अकारण नहीं है। यह भी उनके गहरे यथार्थ बोध से उपजा है। आज के समय में जितनी भी प्रकार की विसंगतियाँ दिखाई देती हैं। उनमें से अधिकांश पोथी पाठी विद्वानों से उत्पन्न हुई हैं। चाहे जातिवाद हो, क्षेत्रवाद या फिर भाषावाद आदि।संत कबीर के समाज में हिंदू समाज में वर्ण व्यवस्था अपनी चरम सीमा में थी। समाज में ऊँच-नीच का बोल बाला था, जिससे समाज में अनेक प्रकार की विकृतियाँ पैदा हो चुकी थीं। स्वयं संत कबीर समाज में व्याप्त ऊँच-नीच और भेदभाव के भुक्तभोगी थे। अतः उन्होंने एक समाज सुधारक के रूप में हिंदू धर्म में प्रचलित वर्णों में ऐक्य स्थापित करने का प्रयत्न किया क्योंकि उनका मानना था कि विधाता ने सभी को एक ही प्रकार की मिट्टी से बनाया है उसी प्रकार जिस प्रकार कुम्हार एक ही मिट्टी से विविध प्रकार के बर्तनों का निर्माण करता है-माटी एक एकल संसारा, बहु विधि भाँडे, घडै कुम्हारा'' (कबीर समग्र; ५४६/५३) इनके अतिरिक्त वे हिंदू धर्म में प्रचलित पिंडदान प्रथा की विडम्बना पर भी कटाक्ष करते हैं। आडम्बर पूर्ण प्रदर्शनों की अपेक्षा लोकोचार को श्रेष्ठ मानते हैं। इसीलिए वे पितरों को पिण्डदान की अपेक्षा जीवित अवस्था में सेवा करने पर बल देते हैं-ताथै कहिए लोकोचार; वेद कतेब कथैं ब्यौहार।/जारि बारि काई आवै देहा, मूवाँ पीछै प्रीति स्नेहा॥/जीवित पित्राहि मारहि डंडा, मूवाँ पित्रा ले घालै गंगा।/जीवत पित्रा कूँ अन न ख्वावैं, मूवाँ पाछे प्यंड भरावै।/जीवत पित्रा कूँ बौले अपराध, मूँवाँ पीछे देहि सराध॥ (कबीर समग्र; ६७०/३५३)

संत कबीर ने हिंदू समाज में व्याप्त आडम्बरपूर्ण लोकाचारों के साथ-साथ मुस्लिम समाज के आडम्बरपूर्ण प्रदर्शनों की भी आलोचना की है। उन्होंने निर्भीक होकर दिन में पांच बार नमाज एवं बंदगी को व्यर्थ तथा असत्य कहा है-यह सब झूटी बंदनी, वरिया पंच निवाज (कबीर समग्र; २८९/५) वे हलाल को भी अनुचित मानते हैं क्योंकि वे हलाल को पूर्णतः हिंसा ही मानते हैं। वे हज यात्रा को भी व्यर्थ मानते हैं और वे हज यात्रा की अपेक्षा मन में संतोष उत्पन्न करने के पक्षधर थे-सेष सबूरी बाहिरा, क्या हज काबै जाई (कबीर समग्र; २९०/१) उन्होंने मुस्लिम सम्प्रदाय के द्वारा मस्जिद में बांग देने की परंपरा का भी मखौल उठाया है। वे मस्जिद में चढ़कर बांग देने को आडम्बरपूर्ण प्रदर्शन मानते हैं-ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाई (कबीर समग्र; ४४५/१३) क्योंकि कबीर का मत था कि मुल्ला जिसको बांग देता है वह सब जीवों के अंदर विद्यमान है- जिस कारण तू बांग दै, सो दिलहि अन्दर जोय। (कबीर समग्र; ४४५/१४) उन्होंने हिंदू एवं मुस्लिम समाज में प्रचलित हिंसा का घोर विरोध किया था। वे समान रूप से, इन दोनों सम्प्रदायों से सम्बद्ध लोगों को जीव हत्या के लिए फटकारते हैं -बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।/जो बकरी को खात है, तिनका कौन हवाल॥ (कबीर समग्र; ४८६/१८) अथवा दिन को रोजा रहत है, रात हनत है गाय।/यह खून वह बंदगी, कहुं क्यों खुशी खुदाय॥ (कबीर समग्र; ४८७/३३)वस्तुतः दो सम्प्रदायों में प्रचलित विविध बाह्याचारों के खिलाफ जिस प्रकार से कबीर ने लेखनी चलाई थी वह कम साहस का काम नहीं है। जबकि वह ऐसा समय था जब छोटी सी बात पर खून-खराबा होना आम बात हो गई थी। इसी अर्थ में जहाँ एक ओर कबीर प्रगतिशील कवि सिद्ध होते हैं। वहीं उनकी साखी, सबद और रमैनियाँ सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रांति की सम्वाहक दिखती हैं। उन्होंने एक पद में हिंदू और मुस्लिम सम्प्रदाय में प्रचलित नाना प्रकार के आडम्बरों की व्यर्थता सिद्ध करते हुए लिखा है-धरती से मिट्टी उठाकर मूर्ति बनाने और उसी मूर्ति को स्नान कराने में क्या फायदा? जप और मंजन करने और मस्जिद में सिर झुकाने से क्या? रोजा रखने, नमाज अदा करने, हज के लिए काबा जाने से क्या? ब्राह्मण चौबीस एकादशी करता है। काजी एक माह रमजान रखता है। तब ग्यारह माह प्रभु को अलग क्यों रखते हो?...अगर खुदा मस्जिद में निवास करता है तो अन्य स्थानों में कौन? तीर्थों एवं मूर्तियों में राम का निवास है यह भी ठीक नहीं है...हरि पूर्व में अल्लाह पश्चिम में रहता है। यह भी ठीक नहीं है। (कबीर समग्र; ६३०/२५९) कहने की आवश्यकता नहीं है कि इससे अधिक क्रांति के सम्वाहक स्वर और क्या हो सकते हैं? जिनको कवि एक परंपरा की तमाम प्रकार की रूढ़ियों और अंधविश्वास से जकड़े समाज में रहकर भी निर्भीकतापूर्वक ललकारता है।

एक क्रांतिधर्मी के रूप में संत कबीर ने तत्कालीन भारतीय समाज में हिंदू और मुस्लिम सम्प्रदायों के बीच उत्पन्न वैमनस्य की खाई को पाटने का भारी श्रम किया था। वस्तुतः तब इन दोनों सम्प्रदायों के बीच उत्पन्न वैमनस्य, इनके परस्पर विरोधी आचार-व्यवहार से उपजा था। वे दोनों सम्प्रदायों के वैमनस्य के बीच एक मध्यस्थ के रूप में खड़े दिखते हैं। उन्होंने दोनों सम्प्रदायों के बीच ऐक्य के लिए राम, रहीम, करीम, केशव, अल्लाह आदि सभी के सत्य का प्रतिपादन किया था। इसीलिए कबीर ने घोषणा की थी कि बिस्मिल्लाह और विशम्भर एक हैं। काजी, मुल्ला, पीर, पैगम्बर, राजा, पश्चिम दिशा में नमाज पढ़ना, पूर्व में एकादशी व्रत, गंगा में दीपदान सब एक हैं। मस्जिद एवं मंदिर दोनों स्थानों में ईश्वर है। हिंदू-मुसलमानों का सृष्टिकर्त्ता एक ही प्रभु है- हमारे राम रहीम करीमा केसो अल्लाह राम सति सोई।/बिसमिल मेटि विसंभर एकै, और न दूजा कोई।.../हिंदु तुरक का करता एकै, ता गति लखि न जाई। (कबीर समग्र; ५४८/५८)

इसके लिए संत कबीर ने हिंदू-मुस्लिम के बीच द्वैत उत्पन्न करने वालों को भोंदू (मूर्ख) कहा था क्योंकि उनका मानना था कि - यौनियाँ, दो धरती और अलग-अलग धर्म ये सब बीच के काम हैं। मूलतः राम रहीम एक ही हैं बोलने वाला प्रभु न हिंदू और न मुसलमान (कबीर समग्र; ५४७/५६) संत कबीर ने उसी हिंदू एवं मुसलमान को ठीक कहा है जिसका इमान ठीक है-सो हिन्दु सो मुसलमौंन, जिसका दुरस रहे ईमान। (कबीर समग्र; ६७०/३५५)

वस्तुतः संत कबीर संत काव्य परंपरा का नहीं अपितु सम्पूर्ण हिंदी साहित्य का बेजोड़ व्यक्तित्व हैं। मूलतः वे भक्त कवि हैं फिर भी वे कम विचारक एवं चिंतक नहीं हैं। इसी अर्थ में वे सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के सम्वाहक कवि सिद्ध होते हैं। उन्होंने भक्ति एवं चिंतक के रूप में वर्षों से विविध प्रकार के मानवता विरोधी अप्रासंगिक परंपरा से जकड़े समाज को नई दृष्टि दी। वह किसी क्रांतिकारी विद्रोही कवि से कम नहीं हैं। उन्होंने भक्ति और समाज में प्रचलित बाह्याचारों के विरोध में जिन क्रांतिकारी स्वरों को व्यक्त किया था। वह कम जोखिम का काम न था किन्तु संत कबीर ने हिंदू-मुस्लिम सम्प्रदाय की परवाह किए वगैर इनकी दोषपूर्ण भक्ति भावना और बाह्याचारों की खुलकर आलोचना की थी। संत कबीर ने प्रेम भक्ति, सादगी, अहिंसा और समदृष्टि के द्वारा उदात्त मानवीय मूल्यों की सद्भावना की थी। इसीलिए तो हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही लिखा है-हिंदी साहित्य के हजारों वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई उत्पन्न नहीं हुआ।५ अतः कहने में संकोच नहीं है कि संत कबीर के द्वितीय वर्ग का आलोचनात्मक साहित्य अपनी वस्तुपरकता में सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से क्रांति का वाहक है। ऐसी क्रांति जो आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक है। आज भी जब कभी सम्प्रदाय के नाम पर फसाद होते हैं, राजनेता इन फसादों के द्वारा कुर्सी की राजनीति में सक्रिय दिखते हैं और भ्रष्ट निष्कृष्ट कार्यों में लिप्त धर्माचार्यों एवं मठाधीशों के कारनामें उजागर होते हैं। तब संत कबीर की वाणी याद आती है। इस संबंध में कबीर के साहित्य के अध्येता डॉ० नजीर मुहम्मद का कथन समीचीन जान पड़ता है-कबीर एक सफल साधक प्रभावशाली उपदेशक, महान नेता और युगद्रष्टा थे। उन्होंने कविता के सहारे अपने विचारों को युगान्तर के लिए अमरता प्रदान की।६ वस्तुतः कबीर के विचारों की युगान्तर के लिए अमरता ही, उनके काव्य की प्रासंगिकता है। ऐसी प्रासंगिकता जिसकी आज के जटिल विविध जीवन संदर्भों के साथ पूर्ण संगति है। इसके अतिरिक्त कबीर काव्य के मूर्धन्य समीक्षक डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन कि - कबीर वाणी के डिक्टेटर ७ भी कहीं न कहीं संत कबीर के काव्य की प्रासंगिकता को ही व्यक्त करता है और कबीर का वाणी डिक्टेटर होना कुछ और नहीं बल्कि पुराणपंथियों, धर्म के ठेकेदारों और धर्मोन्माद फैलाने वाले तथाकथित मठाधीशों के प्रति क्रांति के स्वरों का वाहक है, जिसका लक्ष्य समाज में समरसता, अहिंसा, भाईचारा, सुख-शांति एवं समृद्धि की स्थापना करना है
संदर्भ-ग्रन्थ
१. डॉ० नगेन्द्र, हिंदी साहित्य का इतिहास; मयूर पेपर बैक्स, नोएडा, १९९७; पृ० १२४.
२. वही; पृ० १२८
३. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, १९७१; पृ० १८५
४. वही; पृ० १५९
५. वही; पृ० १८५
६. डॉ० नजीर मुहम्मद, कबीर के काव्य रूप; भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़, १९७१; पृ० 1
७. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर; पृ० १८५

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