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Wednesday, December 10, 2008

कबीर और जायसी की प्रेम व्यंजना

डॉ० आशुतोष पार्थेश्वर

कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरष्या आइ।
अंतरि भीगी आत्माँ हरी भई बनराइ॥
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मुहमद कवि जो प्रेम का ना तन रकत न मांसु।
जेई मुख देखा तेइ हंसा सुना तो आये आँसु॥
यदि विकास के वर्तमान मॉडल और भक्तिकाव्य को आस-पास रखें तो भक्तिकालीन कविता हमें मुँह चिढ़ाती नजर आती है, हम पर हँसती हुई मालूम होती है। उसकी हँसी में हम पर व्यंग्य है और दया भी। वह हमारी ऐतिहासिक निष्फलता को बयाँ करती है। हमारे आगे दर्पण रख देती है ताकि हम अपने को पहचान सकें। हमें मालूम हो सके कि हम जितना आगे बढ़ रहे हैं, उतना ही स्वकेन्द्रित हो रहे हैं। व्यवस्था से असहमति वाला वह साहस अब नहीं, उसकी जगह एक घुन्नापन है स्वार्थपरता है। कहना न होगा ऐसे में भक्तिकाल के चारों बड़े रचनाकार अपनी सीमाओं के बावजूद अपनी निष्कलुष मानवता, अकुंठ संवेदना और अपने प्रति संसार के साथ निरंतर प्रासंगिक होते जा रहे हैं। उनकी पूरी यात्रा संवेदना की यात्रा है। कबीर के उक्त दोहे का मर्म इसी में है।
कबीर प्रेम का बादल होना चाहते हैं, कौंध पैदा करना नहीं, बिजली चमकाना नहीं, बरसना चाहते हैं, ताकि आत्मा भींगे, हर कोई भींगे, कलुषता खत्म हो, मैल दूर हो, घृणा न रहे, ओछापन हटे, क्षुद्रता, लोभ-लालच न बचे, और हरियाली आए। नयापन आए। जीवन आए। पूरी प्रकृति प्रेम के रंग में रंग जाए। एक निष्ठुर समाज में यह कबीर की इच्छा है और यह जायसी की भी।भक्ति काव्य जागरण का काव्य है। स्मरण रहे, यहाँ भक्ति और जागरण अलग-अलग नहीं है। अपने ईश्वर की पहचान, उससे लगाव, उससे प्रेम ही उन्हें यह ताकत देती है जिससे कि वे मौजूदा संसार से अपनी असंतुष्टि दिखाते हैं और प्रतिसंसार की अपनी परिकल्पना प्रस्तुत कर पाते हैं। यह जागरण ठस्स बुद्धिवाद नहीं है। यहाँ तो सारा खेल, सारी पहचान, सभी घेरे प्रेम के हैं। हृदय के हैं।
इसलिए भी कि भक्त कवि अपने समय में सबसे उपेक्षित इसी हृदय को पाते हैं। इसी से सबसे अधिक बल प्रेम पर है। आपसदारी पर है। भक्त कवियों के अपने अंतर्विरोध हैं, पर उनके प्रतिसंसार का जो मॉडल है वह इन अंतर्विरोधों और सीमाओं से काफी बड़ा है।
कबीर जिस हरेपन की बात करते हैं, वह जिन्दगी का उल्लास है, आत्मा की तृप्ति है। स्पष्ट है कि यह गैर बराबरी के रहते संभव नहीं। कबीर इसी गैर बराबरी के खात्मे के लिए लाठी लेकर चलते हैं। यह कबीर का काल-यथार्थ है जो इतने ही तीखेपन के साथ जायसी में भी है।विजयदेव नारायण साही ने जायसी में इसका उल्लेख किया है कि पद्मावत केवल प्रेम का नहीं, युद्ध का भी ग्रन्थ है। संघर्ष, युद्ध और आतंक यह जायसी के समय का यथार्थ है। पद्मावत में जितना प्रेम है, उतना ही युद्ध है; जितना मन के भीतर दिपता हुआ सिंहल लोक है, उतना ही टूटे हुए दुर्गों की धूल उड़ाती हुई वीरानगी है, जितना अपने हाथ से सिर उतार कर जमीन पर रख देने की तड़प है, उतना ही वैभव का प्रदर्शन है; सत है, साका है। जायसी अपने समय से मुँह नहीं छिपाते। दिल्ली और शेष भारतीय समाज के बीच जो खाई है और उस खाई को युद्धों के माध्यम से, आतंक के रास्ते पाटने की जो कोशिश है; पद्मावत उसी का गवाह है और प्रतिकार भी।पद्मावती का आकर्षण ही दोनों को बाँधता है - रत्नसेन को भी और अलाउद्दीन को भी। पर दोनों विपरीत भूमिकाओं में हैं। रत्नसेन प्रेम के लिए भिखारी बनता है तो अलाउद्दीन आक्रमणकारी। चित्तौड़ की विजय तो होती है, पर पद्मावती कहाँ?
जायसी लिखते हैं - आइ साहि सब सुना अखारा। होइगा राति देवस जो बारा।/छार उठाइ लीन्हि एक मूठि। दीन्हि उड़ाइ पिरिथिमी झूठी॥/जौहर भइ सब इस्तिरी, पुरुष भए संग्राम।/बादसाह गढ़ चूरा चितउर भा इस्लाम॥पद्मावती कहाँ ? वह तो राख है। वह रूप कहाँ गया ? पद्मावती कहाँ गई? पद्मावती राख हो गई। चित्तौड़ टूटा। गढ़ टूटा। अलाउद्दीन जीता। रत्नसेन हारा। पर सच कहें तो जीतती केवल पद्मावती ही है। स्वयं को राख कर देना। यह स्वाधीनता की आकांक्षा है, अपने प्रेम की रक्षा है। हम अतिरिक्त शाबासी न दें, पर पद्मावती और पद्मावती के स्रष्टा जायसी दोनों की मनः स्थिति को समझने की कोशिश करें।अलाउद्दीन को इतनी बड़ी विजय भी व्यर्थ मालूम होती है - पृथ्वी झूठी है। बगैर प्रेम के झूठी है। जायसी इसी से कहते हैं - मानुस पेम भयउ बैकुंठी। नाहिं त काह छार एक मूठी।/पेम पंथ जौं पहुँचै पाराँ। बहुरि न आइ मिलै एहि छाराँ॥यह बैकुंठ प्रेम से अलग नहीं है, धरती से अलग नहीं है। अगर प्रेम है तब ही मनुष्य-मनुष्य है। धरती-धरती है और कहें कि तब धरती ही बैकुंठ है।प्रेम का यह जो ताना-बाना है जायसी के यहाँ, कबीर इसी प्रेम से अपनी चदरिया बनाते हैं। दुनिया वालों को केवल और केवल प्रेम पर भरोसा करने को कहते हैं - पोथि पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय।/ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय॥प्रेम के अतिरिक्त सभी शास्त्रा बेकार हैं, प्रेम से शून्य सारे शास्त्रा शून्य हैं। सारा ज्ञान बोझ है, मझधार में डुबोने वाला है, पार-लगाने वाला नहीं है। यह प्रेम दुनिया के बाहर की चीज नहीं है इसे जायसी भी मानते हैं और कबीर भी।
यह प्रेम मध्य युग में भी आवश्यक था और आज भी है। बिना रक्त, माँस और तन के जायसी जब खुद का परिचय प्रेम के कवि के रूप में देते हैं और आँसू की बात करते हैं तो इसलिए कि वह कवि के काव्य का विषय मात्र नहीं है, कवि के समय का अभाव भी है।पद्मावती में रूप की कौंध जरूर है, पर महत्त्वपूर्ण रूप की गाथा का प्रेम की गाथा में अंतरण है। क्योंकि वहाँ प्रेम केवल रक्त, माँस और तन का नहीं रह जाता; वहाँ आँसू का खेल है, करूणा का संसार है, संवेदना की एक विराट दुनिया है जो शारीरिक सौन्दर्य को धता बताते हुए मन की खूबसूरती को केन्द्रत्व देता है। रूप की हिंसक तृष्णा बेकार है, जायसी पद्मावत से यही बोध कराते हैं - जौ लहि ऊपर छार न परै। तौ लहि यह तिस्ना नहिं मरै॥बेशक, कबीर और जायसी दोनों ही ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रेम की भाषा बोलते है और सुनना भी चाहते हैं।कबीर और जायसी दोनों ही में रहस्यवाद को स्वीकारा जाता है, हम इस रहस्यवाद को तत्काल स्थगित कर, कबीर और जायसी में प्रेम की ठेठ देशज और लौकिक उपस्थिति को महसूसने की कोशिश करें। यों प्रेम अध्यात्म का पेटेंट माल है भी नहीं। दोनों कवियों के यहाँ प्रेम की जितनी छवियाँ हैं वह आम जन जीवन के अनुभवों से उपलब्ध हुई हैं।प्रेम के धरातल पर खड़े होते ही दोनों कवि भारतीय नारी के पास खींचे चले आते हैं। जायसी अपनी संपूर्ण भावुकता के स्त्री जीवन के अनुभवों कष्टों का परिचय देते हैं तो कबीर स्वयं को एक स्त्री के साथ रूप में ही ढाल लेते हैं।
नामवर सिंह ने लिखा है - कबीर के लोकप्रिय पद वे हैं जहाँ वे एक भारतीय नारी की तरह अपने नैहर और ससुराल की बातें करते हैं। पिया का घर प्यारा तो लगता है, लेकिन पिता के घर का छूटना भी कम दुखद नहीं। मध्यकालीन गीत काव्य में भारतीय नारी की ऐसी जीती जागती तस्वीर शायद ही कहीं मिले। स्त्री जीवन की इस चित्रावली में स्त्री हृदय की गहरी वेदना के साथ कुछ सुहाने सपने भी हैं। वेदना अधिक सपने कम। सपनों में ऐंद्रिय सुख की तलाश है, तो यथार्थ में विरह की आन्तरिक टीस और जल्द से जल्द मिलने की उत्कट तड़प। ऐसा ही एक पद देखें - ए अँखियाँ अलसानी पिया हो सेज चलो।/खंभ पकरि पतंग अस डोलै, बोलै मधुरी बानी।/फूलन सेज बिछाइ जो राख्यौ, पिया बिना कुम्हलानी।/धीरे पाँव धरौ पलंग पर, जागत ननँद जिठानी।/कहत कबीर सुनो भई साधो, लोक-लाज बिछलानीमिलने की बेचैनी भी और लाज की ललाई भी। इच्छा और संकोच के बीच जो चीज कौंधती है-जागत ननँद जिठानी। यह समूचे पद को भारत के ग्रामीण परिवारों का एक सहज, सुलभ चित्र बना देता है। ये दृश्य कबीर से भी पहले विद्यापति में मिलते हैं। वस्तुतः एक क्लासिक कवि की यह पहचान है कि वह अपने समाज को, उसकी बनावट और बुनावट को कितने गहरे जाकर पकड़ पाता है।कबीर के काव्य का श्रेष्ठांश वही है जहाँ वह अपने प्रिय के विरह में तड़पते नजर आते हैं और बकौल नामवर सिंह जहाँ से भारतीय नारी के जीवन की अनगिनत नाजुक स्थितियों की पहचान हो जाती है। अकेली स्त्री की पीड़ा देखें - कै विरहिन को मीचु दै कै आपा दिखलाय।/आठ पहर का दाझना मोपै सहा न जाय।'
अथवा - यह तन जालौ मसि करौं लिखौं राम का नाउँ।/लेखणि करुँ करंक की, लिखि लिखि राम पठाऊँ॥कबीर के प्रेम में पूर्ण समर्पण है, अपने राम के प्रति, अपने प्रिय के प्रति; किसी दूसरे का सवाल ही कहाँ उठता है? राम में ही रमना है - कबीर रेख सिंदूर की काजल दिया न जाइ।/नैनूं रमइया रमि रइया, दूजा कहाँ समाइ॥इसे ही घनानंद ने कहा है - यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।'' सर्वस्व राम का। मेरेपन का बोध और प्रेम रस का पान साथ-साथ नहीं हो सकता। राम नाम से भक्ति की जो गूज सुनाई पड़ती है। उसे सुनने से पहले हम उस प्रक्रिया को निथारें जिसके तहत कबीर उस बेचैनी, तड़प, प्रेम की उत्कटता और एकनिष्ठता को पा सके थे। निस्संदेह, यह एक भारतीय स्त्री के अनुभव हैं। कबीर पर राम से प्रेम की बेलि चढ़ गई है, और जिस पर प्रेम की बेलि चढ़ गई, जायसी के अनुसार उस पर कुछ और नहीं चढ़ सकता - प्रीति अकेली बेलि चढ़ि छावा। दूसरि बेलि न संचरै पावाप्रेम ईश्वर प्राप्ति का सबसे सुलभ और विश्वसनीय मार्ग है, पर यह एकदम आसान नहीं है। कबीर और जायसी दोनों ही इसे मानते हैं - कबीर यह घर प्रेम का खाला का घर नाँहि।/सीस उतारे हाथि करि सो पैसे घर माँहि।/पेम पहाड़ कठिन विधि गढ़ा।/सो पै चढ़ा सौ सीस चढ़ा।गौरतलब है कि प्रेम की यह उपस्थिति समाज की उपेक्षा करके नहीं है। आचार्य शुक्ल ने उचित ही पद्मावत में फारसी मसनवियों का प्रभाव और उससे कहीं अधिक भारतीयता देखी थी। फारसी परंपरा में प्रेम लगभग लोक विमुख होता है, जबकि भारतीय कहानियाँ लोकपक्ष का तिरस्कार नहीं करती हैं।
भारतीय कहानियों में प्रेम वायवीय नहीं होता, वह धरती के किसी कोने का ही होता है। वहाँ लोक-जीवन के चित्र और चेतना दोनों होते हैं। वहाँ जीवन और मर्यादा दोनों का परिपाक मिलता है। इन कहानियों में अपने समय को सँभालने वाली एक कोशिश होती है, दृष्टि होती है। प्रेम कितना भी उदात्त हो जाए, अशरीरी हो जाए, उसमें आध्यात्मिक संस्पर्श हो, पर यदि वह अपने काल-यथार्थ से कटा हो; तो भले वह प्रशंसनीय हो जाए, हमारे जीवन-संबंधो, आवेगों-संवेगों की अनुकृति नहीं हो सकता। यहाँ हम विद्यापति, बिहारी और घनानंद को देखें। विद्यापति प्रसंग में आचार्य शुक्ल ने आध्यात्मिक रंग के चश्मे की बात ही है और एक तरह से विद्यापति की पदावली की आध्यात्मिक व्याख्याओं को नकारा है। ध्यान रहे, विद्यापति के समूचे काव्य में नायकत्व कृष्ण को नहीं, राधा को प्राप्त है और यह राधा उत्तर बिहार में रहने वाली एक आम औरत से अलग नहीं है। जिसका पति रोजी-रोटी के लिए निरंतर परदेश ही रहता है। पलायन की समस्या विद्यापति के सात सौ साल बाद भी जस की तस है, अकारण नहीं कि विद्यापति आज भी मिथिला में जीवित हैं। अपने पदों में समायी वेदना और करूणा के जरिए।रीतिकाल के दो बड़े कवि घनानंद और बिहारी को लें तो आचार्य शुक्ल की दृष्टि में घनानंद का पलड़ा थोड़ा नहीं, बहुत भारी है। वहाँ प्रेम की पीड़ा, स्वाभाविकता, उदात्तता सब है जबकि बिहारी में केवल एक दर्शक है। जो मध्यवर्ग से आता है और सामंती संस्कार ओढ़ता है, जिसके पास अपूर्व सौंदर्यग्राहिणी दृष्टि है, पर जो दरबारी माँग के चित्र दिखलाने में ही थक जाती है। बावजूद हम कह सकते हैं कि घनानंद में प्रेम के तमाम स्वाभाविक और करूण चित्रों के होते हुए भी तत्कालीन समय और समाज की यथार्थ पहचान बिहारी से ही होती है। ऐसे में विद्यापति की दुर्लभता, कबीर का महत्त्व और जायसी की विशिष्टता स्पष्ट हो जाती है, जहाँ प्रेम की ऊँचाई भी है, देह का स्वीकार भी और भारतीय जन-जीवन की अभिव्यक्ति है।जायसी प्रबंधात्मक प्रतिभा के कवि हैं और उनके पास इसका पर्याप्त अवसर है कि मार्मिक प्रसंगों की व्यंजना कर सकें। नागमती का विरह वर्णन तो ख्यात ही है। आचार्य शुक्ल उचित ही उस पर मुग्ध है, वियोग का समाजीकरण उसे विश्वसनीय मार्मिक देता है। शुक्ल जी ने लिखा है - रानी नागमती विरह दशा में अपना रानीपन भूल जाती है और अपने को केवल साधारण स्त्री के रूप में देखती है।... यह आशिक माशूकों का निर्लज्ज प्रलाप नहीं है, यह हिन्दू-गृहिणी की विरह वाणी है। जायसी नागमती के पक्ष में खड़े होकर नागरता की आलोचना करते हैं - नागरि नारि काहुँ बस परा। तेइँ बिमोहि मोसौं चितु हरा।इस विरह वर्णन में ÷काम' की उपस्थिति भी है - पिउ बियोग अस बाउर जीऊ। पपिहा तस बोलै पिउ पीऊ॥/अधिक काम दगधै सो रामा। हरि जिउ लै सो गएउ पिय नामा॥तो, सुख सुविधाओं की लालसा से अलग अत्यन्त नम्र शीतल प्रेम की भी झलक है - हमहु वियाही संग ओही पीऊ। आपुहि पाई, जानु पर जीऊ॥/मोहिं भोग सौं काज न बारी। सौंह दिस्टि के चाहनहारी॥और अंत में नागमती और पद्मावती का जौहर परकीया प्रेम के उस युग में गार्हस्थिक प्रेम की मर्यादा की रक्षा के लिए है, जहाँ जायसी भावुक हो उठते हैं - गिरि समुद्र ससि मेघ रवि, सहि न सकहिं वह आगि।/मुहमद सती सराहिए, जर्रे जो अस पिउ लागि।शिव कुमार मिश्र ने उचित लिखा है कि जायसी पद्मावत लिखते नहीं, रचते हैं और जैसा कि साही ने कहा है कि पद्मावत का पूर्वार्द्ध ही नहीं उत्तरार्द्ध भी जायसी की कल्पना है, तो हम जायसी की पीड़ा को समझें कि अपनी सबसे सुंदर परिकल्पना को आग में झोंकते हुए वे क्या महसूस कर रहे होंगे ? इसे इतिहास की विडंबना कहें या समकाल का दबाव। पर सच है कि कथा का यह त्रासद अंत मध्यकाल के चेहरे को और चिथरा कर देता है।मध्यकाल के ये दोनों कवि अपनी प्रतिबद्धता सहिष्णुता और स्वतंत्राता के प्रति स्थिर करते हैं। अपने समय की चिन्ता और भविष्य के सपने दोनों ही इनके पास हैं। तिरस्कार है तो क्षुद्रता का, कृतित्रामता का। स्वीकार है मनुष्यता का, विवेक का, प्रेम का। कबीर और जायसी दोनों ही कवियों के यहाँ प्रेम दर्शन की चीज नहीं, जीवन की वस्तु है। विराट सांस्कृतिक चेतना और उदार मानवता की उपस्थिति प्रेम की जमीन पर खड़े होने से संभव हो सकी है।

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