कबीर और जायसी का रहस्यवाद : तुलनात्मक विवेचन
डॉ० ए.एल. अन्सारी
रहस्यवाद का अर्थ
काव्य की उस मार्मिक भावभिव्यक्ति को रहस्यवाद कहते हैं, जिसमें एक भावुक कवि अव्यक्त, अगोचर एवं अज्ञात सत्ता के प्रति अपने प्रेमोद्गार प्रकट करता है। काव्य की इस भावभिव्यक्ति के बारे में विद्वानों के विविध विचार मिलते हैं। जैसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि -जहाँ कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यन्त चित्रामयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है, उसे रहस्यवाद कहते हैं।१ डॉ० श्याम सुन्दर दास ने लिखा है कि -चिन्तन के क्षेत्रा का ब्रह्मवाद कविता के क्षेत्र में जाकर कल्पना और भावुकता का आधार पाकर रहस्यवाद का रूप पकड़ता है।२ महाकवि जयशंकर प्रसाद के अनुसार- रहस्यवाद में अपरोक्ष अनुभूति, समरसता तथा प्राकृतिक सौन्दर्य के द्वारा अहं का इदं से समन्वय करने का सुन्दर प्रयत्न है।३
सुप्रसिद्ध रहस्यवादी कवयित्री महादेव वर्मा ने - अपनी सीमा को असीम तत्त्व में खो देने को रहस्यवाद कहा है।४ डॉ० रामकुमार वर्मा का विचार है कि -रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल सम्बन्ध जोड़ना चाहती है और यह सम्बन्ध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता।५अतः यह कहा जा सकता है कि रहस्यवाद के अंतर्गत एक कवि उस अज्ञात एवं असीम सत्ता से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करता हुआ उसके प्रति अपने ऐसे प्रेमोद्गार व्यक्त करता है, जिसमें सुख-दुःख, आनन्द-विषाद, संयोग-वियोग, रूदन-हास आदि घुले मिले रहते हैं और वह अपनी अन्त होने वाली सत्ता को अनन्त सत्ता में विलीन करके एक व्यापक एवं अखण्ड आनन्द का अनुभव किया करता है।कबीर और जायसी के रहस्यवाद के सम्बन्ध में विद्वानों की रायकबीर और जायसी के रहस्यवाद के सम्बन्ध में हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वानों के मत एक-दूसरे से भिन्न हैं।
कोई कबीर को ही रहस्यवादियों में सर्वश्रेष्ठ मानता है, तो कोई जायसी के रहस्यवाद में ही रमणीयता और सौन्दर्य के दर्शन करता है। कोई कबीर के रहस्यवाद को प्रायः नीरस और शुष्क मानता है। निम्नलिखित उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जायेगा -डॉ० श्याम सुन्दर दास के अनुसार - रहस्यवादी कवियों में कबीर का ही आसन सबसे ऊँचा है। शुद्ध रहस्यवाद केवल उन्हीं का है। प्रेमाख्यानक कवियों का रहस्यवाद तो उनके प्रबन्ध के बीच-बीच में बहुत जगह थिगली सा लगता है और प्रबन्ध से अलग उनका अभिप्राय ही नष्ट हो जाता है।६आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार - कबीर में जो रहस्यवाद है वह सर्वत्र एक भावुक या कवि का रहस्यवाद नहीं है। हिन्दी के कवियों में यदि कहीं स्मरणीय और सुन्दर रहस्यवाद है तो जायसी में, जिनकी भावुकता बहुत ही उच्चकोटि की है। वे सूफियों की भक्ति भावना के अनुसार कहीं तो परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखकर जगत के नाना रूपों में उस प्रियतम के रूप-माधुर्य की छाया देखते हैं और कहीं सारे प्राकृतिक रूपों और व्यापारों को पुरुष के समागम हेतु प्रकृति के श्रृंगार, उत्कंठा या विरह-विकलता के रूप में अनुभव करते हैं।''७
डॉ० चन्द्रबली पाण्डेय के अनुसार -कबीर का रहस्यवाद प्रायः शुष्क और नीरस है, पर जायसी आदि का ऐसा नहीं ।8कबीर और जायसी- दोनों ही हिन्दी साहित्य के सुन्दर रहस्यवादी कलाकार हैं। दोनों ने अपनी-अपनी भावना रूपी बधुओं की झाँकी अपने-अपने ढंग पर सँवारी है। वे दोनों बधुएँ रहस्यात्मकता की दृष्टि से समान होते हुए भी आत्मा की दृष्टि से एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं।... कबीर की रहस्यात्मकता भारतीय हठयोग और औपनिषदिक विचारधारा के सुहाग से सम्भूत होने के कारण पूर्ण भारतीय हैं....यह बात दूसरी है कि उस पर चलते-चलते थोड़ा बहुत प्रभाव सूफी साधना का भी पड़ गया हो। किन्तु उसका सम्पूर्ण सौन्दर्य और निष्ठाएँ ठीक उसी प्रकार की हैं, जैसी आदर्श भारतीय बधुओं में पायी जाती है।....अभारतीय सूफी-साधना और भारतीय अद्वैतवाद के संयोग से उत्पन्न उनकी (जायसी की) रहस्य-भावना कुछ बातों में भारतीय और कुछ बातों में अभारतीय है।९तुलनात्मक विवेचनजायसी और कबीर के रहस्यवाद को पूर्ण रूप से देखने के लिए उनकी प्रकृति को समझना आवश्यक है। सभी रहस्यवादी कवियों के काव्यों में प्रायः ये सात अवस्थाएँ पायी जाती हैं : १. जिज्ञासा, २. महत्त्वदर्शन, ३. प्रयत्न, ४. विन एवं वेदना, ५. आभास, ६. अपरोक्ष अनुभूति और ७. चिरमिलन।
डॉ० रामकुमार वर्मा१० ने रहस्यवाद की तीन अवस्थाओं का उल्लेख किया है - प्रथम - स्थिति में आत्मा परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ने के लिए अग्रसर होती है, द्वितीय- स्थिति में आत्मा परमात्मा से प्रेम करने लगती है और तृतीय - स्थिति में आत्मा और परमात्मा का पूर्ण मिलन अथवा एकीकरण हो जाता है।अब तक कबीर और जायसी के रहस्यवाद की तुलनात्मक विवेचना करने वाले विद्वानों ने केवल नीरसता और माधुर्य की तुलना की है। कुछ विद्वान इस तथाकथित अन्तर का जायसी में प्रकृति के प्रति रुझान और कबीर में प्रकृति की उपेक्षा को माना है। विद्वानों ने जायसी के रहस्यवाद के पाँच प्रकार माने हैं -१. आध्यात्मिक रहस्यवाद २. प्रकृति-मूलक रहस्यवाद ३. प्रेम मूलक रहस्यवाद ४. भौतिक रहस्यवाद तथा ५. अभिव्यक्ति मूलक रहस्यवादइन रहस्यवादों में से प्रकृति मूलक रहस्यवाद को छोड़कर शेष सबका वर्णन कबीर के रहस्यवाद में मिलता है। कबीर ने प्रकृति-मूलक रहस्यवाद को नहीं अपनाया है। इसका कारण यह है कि कबीर में जहाँ प्रकृति अपने मिथ्यात्व के कारण तिरस्कृत है, वहाँ जायसी में वही परमात्मा के झलक का साधन बन गई है। कबीर में आत्मा और परमात्मा के सौन्दर्य का प्रकाश होने के कारण प्रकृति स्वयं परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित हो गई है।जायसी के रहस्यवाद की सबसे बड़ी विशेषता उनकी प्रेम की पीर है। इसी प्रेम-तत्त्व के कारण उनका रहस्यवाद मधुर से मधुरतम बन गया है और इसी कारण उसमें विलास की झाँकिया मिलती हैं।
जायसी का रहस्यवाद सर्वत्र समष्टिमूलक के रूप में प्रस्तुत हुआ है। सूफीमत और इस्लाम के प्रति पूर्ण आस्था रखने के कारण कहीं-कहीं उनका रहस्यवाद सूफी सिद्धान्तों से पूर्ण रूप से प्रभावित मिलता है। इसके अतिरिक्त समष्टिमूलक दृष्टिकोण होने के कारण उनके रहस्यवाद की अभिव्यक्ति प्रायः अन्योक्ति और समासोक्ति द्वारा हुई है। इसी कारण वह बहुत सांकेतिक और व्यंजनात्मक हो गया है।रहस्यवादी के लिए आस्तिक होना पहली शर्त है। कबीर पूर्ण आस्तिक हैं। उन्होंने नास्तिकों के शून्य को भी ब्रह्म बना दिया है परन्तु उनकी आस्तिकता परम्परा विश्वासों पर आधारित न होकर प्रत्यक्षानुभूति पर आश्रित है -देख्या है तो कस कहूँ, कहै तो को पतियाय।/गूँगे केरी सरकरा, खाये औ बैठा मुस्काय॥११जायसी भी पूर्ण आस्तिक हैं लेकिन उनकी आस्तिकता कबीर से भिन्न है। इस्लाम में प्रत्यक्षानुभूति पर विश्वास न कर इमान पर किया जाता है। इस कारण उनमें भावना और कल्पना का प्राधान्य है - निमिख न लाग कर ओहि सबइ कीन्ह पल एक।/गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिन्दु टेक॥१२उपास्य के मामले में दोनों के ही उपास्य सगुण और निर्गुण के समन्वित रूप वाले है। परन्तु जायसी की प्रेम-भावना समष्टिमूलक है, इसलिए वे अपने आराध्य का चिन्तन एक विराट सौन्दर्यमयी सत्ता के रूप में करते हैं। कबीर की भावना व्यष्टिमूलक है, इसलिए उसमें उस विराट सौन्दर्य के दर्शन नहीं होते। जायसी उसके सौन्दर्य वर्णन के लिए बाह्य साधनों का खुलकर उपयोग करते हैं, जबकि कबीर में बाह्य साधनों की अपेक्षाकृत न्यूनता है।
जायसी पद्मावती के सौन्दर्य में उसी विराट सौन्दर्य का प्रतिरूप देखते हैं - नयन जो देखा कमल भा, निर्मल नीर सरीर।/हँसत जो देखा हँस भा, दसन जोति नगहीर॥१३कबीर का ब्रह्म सुनि मण्डल बासी है -कोई ऐसा न मिले, सब विधि देहि बताय।/सुनि मण्डल में पुरुष एक, ताही रहै ल्यौं लाय॥१४दोनों ही तत्त्व रूप में ब्रह्म के उपासक हैं। दोनों ही शून्यवादी हैं। दोनों के उपास्य सौन्दर्य रूप हैं, किन्तु जायसी की सम्पूर्ण दृष्टि उसी आध्यात्मिक दिव्य सौन्दर्य से ओत-प्रोत है। उनका लक्ष्य सौन्दर्य की प्राप्ति है। इसके विपरीत कबीर के पास अपने आराध्य के सौन्दर्य को व्यक्त करने के साधन नहीं हैं। वे उसे केवल प्रकाश-स्वरूप कहकर ही संतोष कर लेते हैं। यदि उन्होंने कहीं प्रयत्न भी किया है तो उसमें जायसी का-सा भावात्मक सरस एवं ग्राह्य सौन्दर्य नहीं आ पाया है।ब्रह्म की अनुभूति के विषय में दोनों समान विश्वास करते हैं। परन्तु कबीर-औपे आप चिनारिया, तब केत होय आनन्द रे। कहकर उसे विचार प्रधान बना देते हैं। जायसी-आप पिछौनें आपै आप'' कहकर उसे भावना-प्रधान बना देते हैं। इस अनुभूति के लिए कबीर का विश्वास है कि - कुछ करनी कुछ करमगति, कछू पूरबला लेख।'' की सहायता से ही उस आलेख की अनुभूति की जा सकती है। इसके विपरीत जायसी - न जानौ कौन पौन लइे पाया। कहकर केवल आराध्य की कृपा पर ही विश्वास करते हैं।
कबीर और जायसी दोनों ने ही प्रेम रूपी अमृत का पान किया है, परन्तु जायसी के प्रेम में मादकता, कोमलता और भावुकता का प्राधान्य है। उनके अनुसार - प्रेम फाँद जो परा न छूटा। जिउ जाइ पै फाँद न टूटा। यह प्रेम की अग्नि बड़ी भयानक है, जो सारी सृष्टि में व्याप्त है। वह विरही और वह हृदय धन्य है, जिसमें यह समा जाती है - मुहम्मद चिनगी प्रेम की, सुनि महि गगन डराय।/धनि बिरही और धनि हिया, जहै अस अगिनि समाय।१५विरह और मिलन के वर्णन में दोनों में कोई मौलिक अन्तर नहीं दिखाई पड़ता। दोनों पर कुछ हद तक सूफी काव्य परम्परा का प्रभाव पड़ा है। दोनों को ही अपने प्रियतम का पता गुरु द्वारा मिलता है। कबीर को यह प्रेमतत्त्व के रूप में तथा जायसी को विरह-तत्त्व के रूप में प्राप्त होता है। कबीर को -गुरु ने प्रेम का अंग पढ़ाय दिया रे तथा जायसी को गुरु बिरह चिनङ्गी जो मेला। सो सुलगाई लेइ जो चेला।जायसी का प्रेम रूप-लिप्सा जनित है और कबीर का संस्कार-मूलक। यही कारण है कि सूफियों के प्रेम में अलौकिक भक्ति के साथ-साथ लौकिक रति को भी महत्त्व मिला है। जायसी का सम्पूर्ण काव्य सौन्दर्य और प्रेम की भावना से विभोर है। इस लौकिक सौन्दर्य और रति के कारण ही जायसी के रहस्यवाद में मादकता एवं विकास का पुट अत्यंत गहरा हो गया है।कबीर में इस प्रकार के वर्णन का अभाव है। जायसी और कबीर के प्रेम में विरह और मिलन के कुछ उद्धरण प्रस्तुत हैं -विरह -सब रग तंत रबान तन, विरह बजावै नित्त/और न कोई सुनि सकै, कै साँई के चित्त।१६ रकत ढरा माँसू गरा हाड़ भए सब संख।/धनि सारस होई ररि मुई आइ समेटहु पंख।१७मिलन -कहा मानसर चहा सो पाई। पारस रूप इहाँ लगि आई॥/भा निरमर तेन्ह पायन परसें। पावा रूप रूप के दरसें॥/मलै समीर बास तन आई। भा सीतल गै तपन बुझाई॥/न जनौं कौनु पौन लै आवा। पुन्नि दसा मैं पाप गँवावा॥१८ हरि संगति सीतल भया, मिटी मोह की ताप।/निज बासुरि सुख निधि लह्या, जब अन्तर प्रगट्या आप॥१९आध्यात्मिक अनुभूतिडॉ० त्रिगुणायत के अनुसार कुमारी अण्डरहिल नामक अंग्रेज महिला ने इस अनुभूति की पाँच अवस्थाएँ मानी हैं -१. आत्मा की जाग्रतावस्था - इसमें ब्रह्म-जिज्ञासा उत्पन्न होती है और साधक ज्ञान और वैराग्य की ओर उन्मुख होने लगता है।२. आत्मा के परिष्करण की स्थिति - इसमें साधक विविध प्रकार की साधनाओं में लग जाता है।३. आत्मा की आंशिक अनुभूति की स्थिति - साधक इसमें विविध ध्वनियाँ सुनता है और विविध दृश्य देखता है।४. रहस्यानुभूति के विनों की अवस्था-इसमें ईश्वरानुभूति में बाधाएँ पड़ने लगती है।५. तादात्म्क की स्थिति - यह आत्मा-परमात्मा के साक्षात्कार और तादात्म्य की स्थिति है।उपर्युक्त सभी स्थितियों का वर्णन सूफी तो बड़े विस्तार से करते हैं, किन्तु कबीर ने उनका वर्णन समान रूप से किया है। पहली स्थिति जो जाग्रतावस्था कहलाती है, में कबीर और जायसी ने गहरी जिज्ञासा और मिलन के लिए व्याकुलता दिखाई है। जायसी का रत्नसेन जब अपनी प्रियतमा के दिव्य सौन्दर्य की तन्मयता से जागता है तो सारा संसार उसे नीरस लगने लगता है और उसमें वैराग्य भावना उत्पन्न हो जाती है - जब भा चेत उठा बैरागा(जायसी)कबीर वैराग्य को महत्त्व नहीं देते। उनके लिए ज्ञान ही सब कुछ है - कबीर जाग्याहि चाहिए, क्या घर क्या वैराग।
(कबीर)साधना की दूसरी अवस्था में साधक विरह से व्यथित होने के साथ ही आराध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने लगता है। कबीर के विरह वर्णन में सूफी और भक्त दोनों पद्धतियों का प्रभाव है। भक्तों से प्रभावित होकर वे -जिन पर गोविन्द बीछुड़े, तिनको कौन हवाल। कहने लगते हैं और सूफियों का अनुसरण करते हुए कहते हैं - अंषड़िया झांई पड़ी, पंथ निहारि निहारि।/जीभड़िया छाला पड़या, राम पुकारि पुकारि।२०जायसी ने कबीर की यौगिक साधना की तरह सूफी-साधना अपनाई है। इसमें अपना कल्ब (हृदय) शुद्ध करके रूह को विकसित करना पड़ता है। इस शुद्धि के लिए साधक को सात मुकामात से होकर गुजरना पड़ता है। साथ ही उसे ईश्वर स्मरण और जप आदि भी करना पड़ता है। ये हालात कहलाते हैं। इस प्रकार साधक शुद्धाचरण आदि की सहायता से अपने शरीर और मन की शुद्धि कर साधना के मार्ग पर आगे बढ़ता है। इस मार्ग पर चार पड़ाव पड़ते है-शरीयत, तरीकत, हकीकत और मारफत। अन्तिम अवस्था हाल अर्थात् भावातिरेक की चरम अवस्था होती है और यहीं आकर रूह फना होकर आराध्य से जा मिलती है।जायसी में उपर्युक्त सम्पूर्ण अवस्थाओं के चित्राण मिलते हैं। उन्होंने प्रियतमा की प्राप्ति-चार बसेरे सों चढैं, सत सों उतरे पार कहकर इसी सूफी साधना पद्धति का पालन किया है। जबकि कबीर ज्ञान, वैराग्य और योग द्वारा आत्म परिष्करण कर भक्ति में तन्मय हो साक्षात्कार करना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने स्थान-स्थान पर-जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है जैसे सिद्धान्त, वाक्य कहकर ज्ञान को प्रधानता दी है।साधना की तीसरी अवस्था में साधक को आराध्य की झलक-सी मिल जाती है। कबीर इस स्थिति का आभास पाकर हर्ष से उन्मत्त हो उठते हैं। यथा - जरा मरण व्यापै नहीं, युवा न सुनिये कोय।/चलि कबीर तेहि देसिडे, जहँ वैद विधाता होय॥२१इस वर्णन में तीव्रता तो है, मगर सरसता और कोमलता की रमणीयता नहीं आ पाई है। जायसी के ऐसे वर्णनों में पर्याप्त सरसता और माधुर्य है। प्रियतम की झलक का वर्णन करने के उपरांत जायसी उस लोक का चित्रण करते हैं - जहाँ न राति न दिवस है, जहाँ न पौन न पानि।/तेहि बन सुअटा चल बसा, कौन मिलावै आनि।२३चौथी अवस्था विन की अवस्था है। साधक के मार्ग में अनेक विन बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। कबीर इन बाधाओं को माया का रूप देते हैं। माया ठगिनी का रूप धारण कर अनेक विन बाधाएँ उत्पन्न करती है। इसी प्रकार जायसी ने भी अपने नायक के मार्ग में पड़ने वाली विविध कठिनाईयों का वर्णन बड़े विस्तार से किया है परन्तु जायसी ने कबीर के समान माया के विभिन्न जालों द्वारा उत्पन्न कठिनाईयों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया है। साधक की अंतिम स्थिति मिलन की अवस्था है। मिलन होने पर साधक पूर्ण सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है।
कबीर आराध्य से मिलन मात्रा की कल्पना से काँप उठते हैं। जायसी ने मिलन से पूर्व की इस रोमांचित अवस्था का चित्रण ऐसा ही किया है किन्तु उसमें लौकिकता का प्राधान्य है। जायसी के इस वर्णन में रमणीयता है, एक अलौकिक आनन्द है। इसकी तुलना में कबीर का वर्णन शुष्क और नीरस है। इसका कारण यह है कि कबीर उपनिषदों से प्रभावित हैं, जबकि जायसी सूफी सौन्दर्यवाद और प्रतिबिम्बवाद से प्रभावित है। पूर्ण मिलन ही दोनों साधकों की साधना की पूर्ण स्थिति है। इस स्थिति के परिणाम स्वरूप कबीर तो पूर्ण रूप से जीवनमुक्त हो जाते हैं और अमर हो जाते हैं - हम न मरे मरिहैं संसार, हमकू मिले जियावन हारा।रहस्यवाद एक आध्यात्मिक अनुभूति का परिणाम है। अतः इसकी अभिव्यक्ति साधारण रूप से नहीं हो सकती। कबीर और जायसी दोनों ने इसकी अभिव्यक्ति अलग अलग ढंग से की है। कबीर ने प्रतीक-पद्धति, रूपक पद्धति तथा उलटबाँसियों की सहायता से अपने रहस्यवाद की अभिव्यक्ति की है तो जायसी ने अपनी स्वानुभूति की अभिव्यक्ति के लिए प्रेम-कथा का सहारा लेकर उसमें असफल अन्योक्ति और सफल समासोक्ति का प्रयोग किया हैं। साथ ही उन्होंने प्रतीक पद्धति को भी अपनाया है।
अतः कहा जा सकता है कि जायसी और कबीर हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ रहस्यवादी कवि हैं। एक (कबीर) का रहस्यवाद आध्यात्मिक, एकान्तिक व्यष्टिमूलक, सजीव और वर्णनात्मक है, तो दूसरे (जायसी) का सरस, संकेतात्मक और समष्टिमूलक है।
सन्दर्भ-ग्रन्थ
१. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. ६६८
२. कबीर-ग्रंथावली (भूमिका), पृ. ५६
३. काव्य कला और अन्य निबन्ध, पृ. ६९
४. महादेवी का विवेचनात्मक गद्य, पृ. १३२
५. कबीर का रहस्यवाद, पृ. ७
६. डॉ० श्याम सुन्दर दास : कबीर ग्रंथावली की भूमिका (पंचम संस्करण), पृ. ७५१
७. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : जायसी ग्रन्थावली की भूमिका, पृ. १६४
८. चन्द्रबली पाण्डेय
९. डॉ० त्रिगुणायत
१०. डॉ० राम कुमार वर्मा : कबीर का रहस्यवाद, पृ. १२-१४
११. राजनाथ शर्मा, कबीर, पृ. १२५
१२. डॉ० श्रीनिवास शर्मा, जायसी ग्रंथावली, पृ. ६६
१३. वही, पृ. १२०
१४. डॉ० भगवत स्वरूप मिश्र, साखी-सरोवर, पृ. २१२
१५. डॉ० श्री निवास शर्मा, जायसी ग्रंथावली, पृ. २३६
१६. डॉ० भगवत स्वरूप मिश्र, साखी-सरोवर, पृ. ७२
१७. पदमावत, पृ. ३५९१८. वही, पृ. ६५
१९. डॉ० भगवत स्वरूप मिश्र, साखी-सरोवर, पृ. ९१
२०. कबीर ग्रन्थावली : पृ. ७२
२१. वही, पृ. १३२
२२. जायसी ग्रंथावली, पृ. २१३
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जो इन्द्रियातीत है उसका वर्णन तो प्रतिको से ही हो सकता है। क्योकी हमारी भाषा के पास उन चिजो के लिए शब्द ही नही है जो हमारी इन्द्रियो से परे हो। अब सवाल यह पैदा होता है की जो उस परम सत्ता का वर्णन कर रहे है उन्होने स्वंय उसकी झलक पाई है या नही। मुझ जैसे अज्ञानी के लिए यह समझ पाना बडा ही कठीन है। और इस दुनिया मे जिसे देखो वही ऐसा व्यवहार करता दिखता है जैसे की वह सर्वज्ञ हो।
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