ग़ज़ल
अहमद फ़राज
अब वो झोंके कहाँ सबा1 जैसे
आग है शहर की हवा जैसे
शब सुलगती है दोपहर की तरह
चाँद, सूरज से जल बुझा जैसे
मुद्दतों बाद भी ये आलम है
आज ही तो जुदा हुआ जैसे
इस तरह मंज़िलों से हूँ महरूम2
मैं शरीके-सफ़र3 न था जैसे
अब भी वैसी है दूरी-ए-मंज़िल
साथ चलता हो रास्ता जैसे
इत्तफ़ाक़न भी ज़िन्दगी में फ़राज़
दोस्त मिलते नहीं ज़िया4 जैसे
1 पुरवाई, समीर, ठण्डी हवा 2. वंचित, 3. सफ़र में शामिल 4 ज़ियाउद्दीन ज़िया
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