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Friday, December 19, 2008

कर्त्तव्य की उदात्तीकृत चेतना के संवाहक : कबीर

डॉ० राजेश कुमार
हिन्दी-साहित्य में सर्वतोभावेन प्रतिभा से सम्पृक्त महात्मा कबीर की जनरंजिनी तथा भाव-प्रमोदिनी चेतना का संस्पर्श पाकर उन लोगों को कर्त्तव्य-बोध का भान हुआ, जो जीवन को जड़ता की कारा में निरुद्ध कर रहे थे। समाज में तथाकथित रूढ़िवादी विचारकों तथा उनके अनुयायियों ने भारतीय जनजीवन को अस्त-व्यस्त तथा संत्रस्त कर दिया था। यत्र-तत्र सर्वत्र अन्ध विश्वास से परिव्याप्त भारतीय समाज को युगद्रष्टा विचारक कबीर की वैज्ञानिक एवं तर्कपुष्ट विचारधारा का सम्बल प्राप्त हुआ, जिसने न केवल तत्कालीन परिवेश को आलोकित किया, बल्कि आज तक के आस्थाशील बुद्धिवादियों को दूर-दूर तक प्रभावित किया। जब कोई समाज तर्कशीलता का परित्याग कर अन्धानुकरण की ओर अग्रसर होता है, तब उसमें प्रगति की संभावनाएँ भस्मसात्‌ हो जाती हैं। अन्धानुकरण करने वाला समाज जीवन को अधोगति दिलाता है, जबकि तर्क और विज्ञान का अवलम्ब ग्रहण करने वाला समाज जीवन को उच्च स्थान दिलाने में समर्थ होता है। कबीर का आगमन ऐसे समय में हुआ, जब भारतीय समाज दीन-हीन रुग्णावस्था से जर्जर था। यहाँ-वहाँ धर्मों के सिद्धान्तवक्ता मानवता को विध्वंस की आग में झोंक रहे थे। सर्वत्रा अराजकता का दौर था, जिसने कबीर जैसे क्रान्तदर्शी व्यक्ति को मर्मान्तक पीड़ा दी। कबीर की एकनिष्ठ, ध्येयनिष्ठ तथा धैर्यनिष्ठ आस्था ने जीवन को मुक्त कराने के लिए किसी की रत्ती भर परवाह नहीं की, क्योंकि वे कर्त्तव्य की उदात्तीकृत चेतना के संवाहक थे। इसीलिए उन्होंने हर किसी को कर्त्तव्य-कर्म की ओर चलने का सत्परामर्श दिया।कबीर ने मनुष्यता को जीवित रखने के लिए जिस साहस और पुरुषार्थ का परिचय दिया, उसकी मिसाल अन्यत्रा दुर्लभ है। उनकी दृष्टि में जीवन का असली तत्त्व है - प्रेम। प्रेम के बिना पाण्डित्य-प्रदर्शन और शास्त्र-ज्ञान उनके लिए महत्त्वहीन है। उन्होंने प्रेम के ढाई अक्षर के व्यावहारिक अनुप्रयोग को सार्थक माना है। कबीर को निरक्षर मानने वाले विद्वानों से मैं सहमत नहीं हूं। निश्चय ही कबीर साक्षर रहे होंगे, तभी तो उन्होंने प्रेम शब्द की शुद्ध व्युत्पत्ति प्रस्तुत की है। जो विद्वान्‌ उनको मसि कागद छूयौ नहीं, कलम गह्यो नहिं हाथ पंक्ति के आधार पर निरक्षर साबित करते हैं, उन्हें सावधान करने के लिए निम्नलिखित साखी पुष्ट प्रमाण है - पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोइ।/ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥जिन तर्कों के आधार पर कबीर को निरक्षर मानने की श्रृंखला अनवरत जारी है, लगभग ऐसे ही तर्कों के आधार पर महात्मा तुलसीदास की काव्य-प्रतिभा पर भी प्रश्न चिह्‌न लगाया जा सकता है। तुलसी ने रामचरित मानस में कहा है - कवित बिबेक एक नहिं मोरे। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे॥क्या तुलसीदास को काव्य-निर्माण का विवेक न था। मेरा स्पष्ट मत है कि इन भक्त कवियों में अहं-प्रदर्शन की उग्रता और व्यग्रता न थी। ऐसी स्थिति में इनकी आत्मपरक उक्तियों को अभिधा के अर्थ में न ग्रहण करना चाहिए।
कबीर की कविता में भाव-लोक की समृद्धि उनके गहन अनुभवों तथा सुस्पष्टवादिता के कारण है। किसी भी प्रकार का दौर्बल्य कबीर को मान्य न था, तभी तो उनके काव्य में वक्रता में भी चारुता का दुर्लभ गुण है। भक्त कवियों में अकेले कबीर ऐसे हैं, जो कथ्य की उदात्त प्रवृत्ति के साथ संतुलन बनाए हुए हैं। उनका कथ्य ही इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसमें अवगाहन करते ही हृदय-तन्त्री के तार झंकृत हो उठते हैं, मन की वासनाएँ तार-तार हो जाती हैं, मनुष्यता का भाव-लोक लहलहा उठता है। कबीर के सम्बन्ध में काव्य-मर्मज्ञ त्रिालोचन का निम्नलिखित कथन बड़े महत्त्व का है - हिन्दी में कबीर अकेले ऐसे कवि हैं जो अपने ही कथ्य के कारण महत्त्वपूर्ण हैं। शास्त्र वे जानते नहीं थे और लोक के अनुबंधों की उन्होंने चिंता नहीं की। भाषा उनके द्वारा ऐसे रूप में आई है जिसे अनियमित पाकर पंडितों को खीझ होती है पर यह भाषा कथ्य के लिए इस प्रकार अनिवार्य है कि उसमें जरा भी संशोधन कथ्य को निस्तेज कर देगा। अनियमित हिन्दी के विभिन्न प्रदेशों के, विभिन्न नगरों में, भिन्न-भिन्न रूप सुनाई पड़ते हैं जिनका समर्थ उपयोग करने वाला कहीं एक भी कवि नहीं। यानी इतने सारे वादों विवादों के बाद भी हिन्दी के सिर चढ़ा मर्यादाबाद ज्यों का त्यों है।१
त्रिलोचन, कबीर के कथ्य की प्रशंसा ही नहीं करते, अपितु उनकी भाषा से भी अभिभूत होते हैं। आधुनिक हिन्दी-कवियों तथा मर्यादावादियों को त्रिलोचन की यह ललकार ध्यान से सुननी चाहिए।कबीर ने उन समस्त कुरीतियों का प्रतिरोध किया, जिन्होंने मनुष्यता का गला घोंट रखा है। आज के युग में जब व्यक्ति कर्त्तव्यच्युत तथा पथभ्रष्ट होकर निरन्तर पतनोन्मुख है, तो भी उनकी काव्य-धारा की वेगमयी लहरें कर्त्तव्य की उदात्तीकृत चेतना को प्रतिपादित कर रही हैं। वस्तुतः कबीर एक महामानव थे, जो मनुष्यता का समाज देखना चाहते थे। आज हिन्दू और मुसलमानों के बीच विभाजक रेखा खिंचती जा रही है, जिससे राष्ट्रीय एकता का यक्षप्रश्न भी उत्तर की प्रतीक्षा में है। आए दिन होने वाले साम्प्रदायिक दंगों ने भारतीय विचारकों को निराश-हताश किया है। कबीर ने हिन्दू-मुसलमानों को उनके रूढ़िगत विचारों के लिए न केवल फटकारा है, बल्कि इस बात पर भी चिन्ता प्रकट की है कि ये दोनों अभी सन्मार्ग पर क्यों नहीं हैं? निश्चय ही उनकी स्पष्टवादिता को साधुवाद देना होगा, क्योंकि उन्होंने पूर्ण प्रवेग तथा त्वरा के मध्य कथ्य का अद्भुत साम×जस्य प्रस्तुत किया। आत्म-सम्मोहन से ग्रस्त हिन्दुओं तथा मुसलमानों की विकृत जीवन-शैली को उन्होंने जमकर लताड़ा है - अरे इन दोहुन राह न पाई।/हिंदू अपनी करे बड़ाई गागर छुवन न देई।/वेस्या के पाइन-तर सोवै यह देखो हिंदुआई।/मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।/खाला केरी बेटी ब्याहैं घरहि में करै सगाई।/बाहर से इक मुर्दा लाये धोय-धाय चढ़वाई।/सब सखियाँ मिलि जेंवन बैंठी घर-भर करै बड़ाई।/हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।/कहैं कबीर सुनो भाई साधो कौन राह ह्‌वै जाई। २
धर्म के नाम पर पाखण्ड-प्रियता उन्हें प्रिय न थी। धर्म के नाम पर पाखण्ड करने वालों को उनकी दया का आश्रय नहीं मिला, बल्कि पाखण्डों को देखकर कबीर की आक्रामक शैली, व्यंग्य के नए तेवर के साथ प्रमुदित हुई। अपनी दृढ़ता के बल पर उन्होंने हर तरह के पाखण्ड का प्रखर विरोध किया। गंगा नहाने वालियों की आचरण-पद्धति को लक्ष्य कर उन्होंने व्यंग्य की धार में तीक्ष्णता ला दी है - चली है कुलबोरनी गंगा नहाय।/सतुवा कराइन बहुरी भुँजाइन, घूंघट ओटे भसकत जाय।/गठरी बाँधिन मोटरी बाँधिन, खसम के मूंड़े दिहिन धराय।/बिछुवा पहिरिन औंठा पहिरिन, लात खसम के मारिन धाय।/गंगा न्हाइन जमुना न्हाइनउ नौ मन मैल लिहिन चढ़ाय।/पाँच-पचीस कै धक्का खाइन, घरहुँ की पूँजी आई गँवाय।/कहत कबीर हेत कर गुरु सों, नहीं तोर मुकुती जाइ नसाय॥३
आज समाज में जातिवादी दुराग्रह ने हर बुद्धिजीवी को परेशान कर रखा है। स्थान-स्थान पर जातिवादी संकीर्णता की दुर्गन्ध मनुष्यता की सुरभि को पद दलित किए हुए है। ऐसे में हमारा ध्यान अनायास ही कबीर की ओर जाता है। ऊँच-नीच का भेद-भाव उनको मान्य न था। वे तो कर्त्तव्य की शुचिताजन्य उच्चता का उद्घोष करते हैं, जिससे जनजीवन का मार्ग सुगम और सरस होता है। सुरा से आपूरित स्वर्ण-पात्रा को निन्द्य ठहराने के पीछे उनका ध्येय कर्त्तव्य की उदात्तीकृत चेतना को पुष्ट करना ही है - ऊँचे कुल क्या जनमियाँ, जे करणीं ऊँच न होइ।/सोवन कलस सुरे भर्‌या, साधूँ निंद्या सोइ॥४संत कवियों में उनकी भाव-बोधिनी तथा विचार-प्रबोधिनी शक्ति अनूठी है। गुरु-शिष्य की सम्बन्धशीलता के महत्त्व से परिचित कबीर ने उन गुरु-शिष्यों को कठघरे में खड़ा किया है, जो अन्ध श्रद्धाजनित आस्था से परिचालित हैं तथा विवेकहीन हैं अथवा गतानुगतिकता के संजाल से मुक्त नहीं हैं। ऐसे गुरु-शिष्यों को उनकी इस साखी का आभार मानना चाहिए - जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।/अंधा अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत।''५
कबीर की साधना-पद्धति भी प्रयोग पर आधारित है। इसका अर्थ है कि कबीर जीवन के व्यावहारिक पक्ष को ही सर्वश्रेष्ठ मानते थे। उन्होंने धर्म से उत्पन्न उन खतरों से भी जनमानस को सावधान किया था, जो जीवन में प्रदूषण का कार्य करते हैं। कबीर, जीवन-पर्यावरण के शोधक हैं, अन्वेषक हैं, आविष्कारक हैं। असल में उनकी प्रासंगिकता पहले से भी अधिक है। यदि मनुष्यता को जीवित रखना है, तो हमें एक बार नहीं, सौ बार कबीर के काव्य में अवगाहन करना होगा, तभी हम सभ्य और शिष्ट मनुष्यता का साक्षात्कार कर सकेंगे।
सन्दर्भ-ग्रन्थ
१. त्रिलोचन, काव्य और अर्थ-बोध, प्रकाशक : साहित्यवाणी, २८ पुराना अल्लापुर, इलाहाबाद - २११००६, प्रथम संस्करण : १९९५, पृष्ठ ६१
२. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, कबीर, प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, प्रा.लि. १-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली - ११०००२, नौवीं आवृत्ति : २००२, पृष्ठ : २७१
३. वही, पृष्ठ : १३५
४. (सं०) डॉ० श्यामसुंदर दास, कबीर ग्रंथावली, प्रकाशक : नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, २२वाँ संस्करण, संवत्‌ २०५८ वि०, कुसंगति कौ अंग, पृष्ठ : ३७
५. वही, गुरुदेव कौ अंग, पृष्ठ : २

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