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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Saturday, December 20, 2008

कबीर

फीरोज
दुनिया और देश के वर्तमान परिदृश्य पर दृष्टिपात किया जाये तो दो विपरीत स्थितियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। एक तरफ विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में विश्व विकास के उच्चतम सोपानों को छूता हुआ दिखाई देता है और समाज भौतिक सुख-सुविधा का विस्तार निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। परन्तु विकास का नाकारात्मक पहलू यह है कि सुख-सुविधा के कारण जिस शान्ति भरे वातावरण की स्थापना होनी चाहिए वह प्रतिस्पर्धा, अहंकार, दम्भ, छल और अलगाव की मानसिकता की सक्रियता से भंग हो रही है। परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन के विकास की गति अवरुद्ध हो रही है। अवरोध नया-नया रूप धारण करके विभिन्न प्रकार की बाधाएँ खड़ी कर रहा है। धर्म, रंग, नस्ल, वर्ग और जाति के मध्य बढ़ते भेद के परिणाम स्वरूप उपजी गतिविधियों ने सामाजिक जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है। मानवता की भावना आधोगामी होकर तिरोहित सी हो गयी है। जब स्थितियों को सहज और सुगम होना चाहिए था तब भौतिक विकास के समान्तर अलगाव की बढ़ती खाई उसे और विकट बनाने पर आमादा-सी है। उपजे इस संकट से मात्रा स्थान विशेष ही नहीं कमोबेश विश्व के अधिकांश भू-भाग को विविध रूपों में सामना करना पड़ रहा है। यह संकट सामाजिक-आचरण, व्यवहार और नैतिकता को प्रभावित करते हुए पूरी दुनिया में अजीब-अजीब समस्याओं को जन्म दे रहा है। इन समस्याओं का प्रभाव अन्ततः जनमानस पर ही पड़ता है। उसकी समस्त विरूपताओं की जद में आवाम ही आता है।यह सच्चाई निर्विवाद है कि कबीर आवाम की वाणी के उद्घोषक हैं। उनकी वाणी का स्फुरण धर्म, वर्ग, रंग, नस्ल, समाज, आचरण, नैतिकता और व्यवहार आदि सभी क्षेत्र में हुआ है। यह स्फुरण किसी विशेष वर्ग, भू-भाग या देश के लिए नहीं अपितु मानव मात्र के लिए है। उन्होंने आवाम को खानों में विभक्त करने वाली अवरोधी दीवारों को गिराकर एकत्त्व स्थापित करने का प्रयास किया है। इसके लिए जितने शक्तिशाली प्रहार की आवश्यकता थी उसे करने में चूके नहीं। बेखौफ होकर, जहाँ जक जाना सम्भव था वहाँ तक जाकर असत्य का प्रतिच्छेदन करते हुए सत्य के शोधन के माध्यम से समाजों को प्रेम के सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। वस्तुतः प्रेम पर आधारित वैचारिक क्रान्ति उनका प्रमुख हथियार था। दरअसल कबीर साहब का मुख्य लक्ष्य मानव कल्याण की प्रतिष्ठा थी और इसके लिए वह युगानुकूल जैसे भी प्रयत्न सम्भव थे उनको प्रयोग करने में हिचकिचाये नहीं। उनके निडर व्यक्तित्त्व से जन्मे विश्वास की यही शक्ति उनको हर युग और प्रत्येक समाज में प्रासंगिक बनाए हुए है।कबीर के सन्दर्भ में उल्लेखनीय यह भी है कि उनके विरोध और समर्थन में प्रत्येक युग में अलग-अलग विचार धाराओं के पोषकों के मध्य वाद-विवाद अनवरत चलता ही रहा है। वर्तमान में भी विभिन्न स्तरों पर यह मुद्दा कभी हाशिये पर तो कभी केन्द्र में, कहीं न कहीं अपनी उपस्थिति बनाए ही है। यहाँ गौरतलब यह है कि बावजूद इस भेड़चाल के न तो उनकी प्रतिष्ठा और न उनका दाय ही प्रभावित हो रहा है। इसे यदि आम फहम भाषा में कहें, तो कह सकते हैं कि उनकी सेहत पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। हालांकि ऐसा दावा करने का भ्रम पालने वालों की भी कमी नहीं, लेकिन आवाम का उनसे न तो कुछ लेना-देना है न उनके दावों से कोई सरोकार ही। उसके लिए उनकी सहजता, सरलता और व्यापकता ही अहम है। यह सहजता, सरलता और व्यापकता अभिव्यक्ति में नहीं क्योंकि यदि अभिव्यक्ति को ही केन्द्र में रखें तो अभिव्यक्ति के स्तर पर कभी-कभी कबीर जटिल, रूढ़ और उलझे से दिखाई देते हैं। दरअसल सहजता, सरलता, व्यापकता उनके प्रभाव में निहित है। उनका प्रभाव न तो प्रशस्ति का मोहताज है, न ही किसी प्रकार का विरोध उनका बाल भी बाँका कर सकता है।कबीर पर आधारित इस संग्रह का उद्देश्य न तो कबीर की प्रासंगिकता पर विचार मंथन है, न ही उनके समर्थन अथवा विरोध के माध्यम से किसी विचारधारा विशेष को स्थापित करने का प्रयास। वस्तुतः हमारा लक्ष्य यह है कि उनके असीम विस्तार में प्रवेश करके प्रकाश पुन्ज से कुछ किरणों को ऊपर लाया जाए जो वर्तमान में व्याप्त अस्थिरता के कुहासे को छाँटने में सहायता करें।

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