बदल रहा मनुष्य है
धर्मवीर भारती
ये जो पैर की धमक से काँप रहा है जहां
ये जो टूट-टूट कर बिखर रहा है आस्मां
चल रहा मनुष्य है !!
धूल जो उड़ी तो छा गया है आस्मान
मिट गये हैं आस्मान से प्रकाश के निशान
आज भूल कर विशाल स्वर्ग लोक को
भूमि के घृणा विषाद हर्ष शोक को
कुचल रहा मनुष्य है
कुचल रहा मनुष्य !!
है मनुष्य की न प्रेरणा परम्परा
हँस दिया मनुष्य स्वर्ग बन गयी धरा
हँस दिया मनुष्य छा गया नवल प्रभात
अब रही न भूख दासता न रक्त पात
बदल रहा मनुष्य है
बदल रहा मनुष्य !!
जिन्दगी की आग में सुलग रहा इन्सान
लाल रोशनी से भर रहा है ये जहां
औ धुआँ उमड़ के बन रहा है उफ़ान
पर निखर रहा मनु्ष्य स्वर्ण के समान
जल रहा मनुष्य है
जल रहा मनुष्य !!
पैर में मनुष्य के अतीत के निशान
सामने मनुष्य के भविष्य है महान्
चीरता मनुष्य है यथार्थ वर्तमान
और दोनों हाथ में दबा के आस्मान
चल रहा मनुष्य है
चल रहा मनुष्य !!!
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