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Sunday, November 30, 2008

कबीरकालीन समाज

प्रो० शरद नारायन खरे
कबीर (शाब्दिक अर्थ - महान) का जन्म निराशा तथा हतोत्साह के वातावरण में हुआ था। उस समय विषमताएँ, नैराश्य, विश्वासघात तथा विसंगतियाँ व्याप्त थीं। समाज में कुत्सित-विचारों तथा बाह्य आडम्बरों का बाहुल्य था। धर्म के ठेकेदार मठाधीश बनकर अनाचार का जीवन व्यतीत कर रहे थे। सामाजिक विषमताओं से तंग आकर निम्न जाति के लोग धर्म-परिवर्तन पर उतारू हो गए थे। आर्थिक विपन्नता से सामान्य जनता की रीढ़ ही टूट गई थी। भावुक कबीर से समाज की यह दशा देखी न गई, इसीलिए कबीर आजीवन हिन्दुओं और मुसलमानों की कुरीतियों और आडम्बरों के विरुद्ध आवाज उठाते रहे। उनके काल में हिन्दू वर्ण-व्यवस्था अत्यन्त विकृत हो गई थी। हिन्दू जाति-पांति के बंधनों में बंधे रहना एक गौरव समझते थे। परस्पर ऊँच-नीच की भावना दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। ऐसी दशा में कबीर ने समस्त हिन्दू जाति को समानता का संदेश सुनाया।डॉ० युसुफ हुसैन के अनुसार-उत्तरी भारत के विभिन्न वर्ण और धार्मिक समुदायों के मतभेदों का मान्य उपायों द्वारा अंत करना कबीर का प्रमुख उद्देश्य था। वे वर्णाश्रम प्रथा के साथ ही अंधविश्वासों पर आधारित धर्मों की शत्रुता का अथवा दूसरों की मूर्खता से लाभ उठाकर उन्हें भ्रष्ट करने वाले एक अल्पसंख्यक समुदाय का उन्मूलन करना चाहते थे। साथ-साथ रहने वाले लोगों के बीच एक सामाजिक एवं धार्मिक शांति स्थापित करने के आकांक्षी थे, क्योंकि धर्म ने उन्हें एक-दूसरे से अलग कर दिया था।

उस काल में बाह्य आडम्बरों का बोलबाला था। अंधविश्वासों का आधिक्य था। परन्तु कबीर ने किसी भी र्धार्मिक विश्वास लोक तथा वेद के अंधानुकरण को स्वीकार नहीं किया, बल्कि विवेकपूर्वक उन धर्मों, विश्वासों तथा पाखण्डों को अपनी ध्वंसात्मक भूमिका से तहस-नहस करके ही दम लिया। उन्होंने हिन्दू धर्म के आचारों यथा-पूजा, उत्सव, वेदपाठ, तीर्थयात्रा, व्रत, छुआछूत, अवतारोपासना तथा कर्मकाण्डों पर कबीर ने कस-कसकर व्यंग्य किया। वे बाह्याडम्बरों को अंधकार की संज्ञा देते थे।

वस्तुतः तत्कालीन समाज साम्प्रदायिकता से परिपूर्ण था। वह काल दो धर्मों, दो संस्कृतियों एवं सभ्यताओं के संघर्ष का था। दोनों के मध्य टकराव, भेद व झगड़े के हालात थे, इसीलिए कबीर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच समानता का प्रतिपादन करके उन्हें एकता के सूत्र में बाँधना चाहते थे। उनका यह समन्वयवादी दृष्टिकोण सापेक्ष नहीं निरपेक्ष है। उन्होंने अपने युग की गलत विचारधाराओं की निडरतापूर्वक आलोचना की तथा निराकार ब्रह्म की उपासना की।
डॉ० ताराचंद के अनुसार-प्रेम के ऐसे धर्म का जो सभी धर्मों और जातियों को संगठित कर दे, का प्रचार करना ही कबीर के जीवन का लक्ष्य था। उन्हें हिन्दुत्व एवं इस्लाम के उन तत्त्वों को जो कि आध्यात्मिक कल्याण के लिए नहीं थे, अस्वीकार कर दिया।
यथार्थ तो यह है कि कबीरकालीन समाज पाखण्डों से परिपूर्ण था। जप, तप, संयम, स्नान, ध्यान आदि का बोलबाला था। परन्तु कबीर की मान्यता थी कि जब तक आराध्य के प्रति भक्तिभाव नहीं है, तब तक सब कुछ व्यर्थ है। उस काल में कर्म मार्ग तथा ज्ञान मार्ग का प्रचलन था, पर कबीर भक्ति मार्ग को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। लेकिन उनकी भक्ति-साधना में वेदशास्त्र, ज्ञान, यज्ञ, तीर्थ, व्रत तथा मूर्तिपूजा के लिए कोई स्थान नहीं था। उनका भक्ति भाव शक्ति में निहित था। वे न तो मंदिर की आवश्यकता महसूस करते थे और न ही मस्जिद की। वे तीर्थस्थानों को भी गैर-जरूरी मानते थे। पर उनके अनुसार इस हेतु गुरु की कृपा आवश्यक है। उनकी भक्ति में गुरु का स्थान सर्वोच्च था। वे कहते थे कि गुरु वह साधु है जिसे ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त है।
वस्तुतः कबीर के काल में सामाजिक विकार अपने चरम पर थे। उस काल में हिंदू समाज की जाति प्रथा, नारी वर्ग का नैतिक अवमूल्यन, परदा प्रथा, बाल-विवाह आदि का व्यापक अस्तित्व था। निम्न जातियों पर उच्च वर्ग का घोर अत्याचार शिक्षा के अभाव में जादू-टोना, शकुन-अपशकुन, जीव हिंसा, मांस-भक्षण, वेश्यागमन, अंधविश्वास आदि के कारण समाज की जड़ें खोखली हो रही थीं। इसीलिए कबीर ने तटस्थ होकर सामाजिक तथा आर्थिक विषमताओं को निहारा था और अपने प्रबल व्यक्तित्व से इन्हें मिटाकर एकत्व की स्थापना का निश्चय किया था।
मध्यकालीन समाज-सुधारकों में कबीर पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने समाज के आर्थिक ढांचे को समझने का प्रयास किया। कबीर धन को समाज के लिए एक सीमा तक ही जरूरी मानते थे।क्रांतिकारी व्यक्तित्व के धनी कबीर के बारे में यह कहना पूर्णतः सही है कि उन्होंने तटस्थ होकर सामाजिक तथा आर्थिक विषमताओं को निहारा था और अपने प्रबल व्यक्तित्व से इन्हें मिटाकर एकत्व की स्थापना का निश्चय किया था। वास्तव में कबीरकालीन युग सामाजिक व धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक जटिलताओं का था। उस काल में धर्म, जाति, पूँजी आदि के आधार पर अनेक सम्प्रदाय थे, वे समस्त संप्रदाय एक-दूसरे के कट्टर विरोधी थे। कबीर का चिन्तन था कि व्यक्ति को सच्चा, ईमानदार तथा द्वेष रहित होना चाहिए। वे विचारों की पवित्रता व मन की शुद्धता को प्रधानता देते थे। उन्होंने मानवतावादी दृष्टिकोण को महत्त्व दिया।
वस्तुतः कबीर मानवतावादी विचारधारा के प्रति गहन आस्थावान्‌ थे। वह युग अमानवीयता का था, इसीलिए कबीर ने मानवता से परिपूर्ण भावनाओं, संवेदनाओं व चेतना का प्रसार करने का प्रयास किया। हकीकत तो यही है कि कबीर वर्ग-संघर्ष के विरोधी थे। वे समाज में व्याप्त शोषक-शोषित का भेद मिटाना चाहते थे। जाति प्रथा का विरोध करके वे मानव जाति को एक-दूसरे के समीप लाना चाहते थे।वास्तव में कबीर ने युग-युग से प्रताड़ित, पीड़ित समाज के निम्न वर्ग को अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा ऊपर उठाया तथा उनमें आत्मसम्मान जगाया। इसीलिए डॉ० ताराचंद का कथन था- कबीर के शिष्यों की संख्या उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितनी कि उनका प्रभाव। यथार्थ तो यह है कि विषम परिस्थितियों में कबीर के जन्म ने उन्हें हिन्दू-मुसलमानों की समान रूप से आलोचना करने में समर्थ बनाया था।डॉ० ताराचंद का कहना था- प्रेम के ऐसे धर्म का जो सभी धर्मों और जातियों को संगठित कर दें, का प्रचार करना ही कबीर के जीवन का लक्ष्य था। उन्होंने हिन्दुत्व एवं इस्लाम के उन तत्त्वों को जो कि आध्यात्मिक कल्याण के लिए नहीं थे, अस्वीकार कर दिया।
कबीर भावुक थे, इसीलिए उनसे समाज की दशा देखी नहीं गई। बाह्य आडम्बर, असत्य, अनाचार, व्यभिचार तथा वर्ण भेद के प्रति उनकी प्रतिक्रिया एवं क्रांति के समान थी। वे अहिंसक क्रांति की भावना द्वारा राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक सभी क्षेत्रों में एक क्रांति पैदा करना चाहते थे, उनके पास क्रांति का अस्त्र व्यंग्य था। इसीलिए डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार -हिन्दी में आज तक ऐसा जबरदस्त व्यंग्य लेखक पैदा ही नहीं हुआ। वस्तुतः कबीर ने तत्कालीन समाज में व्याप्त धर्म की अकर्मण्यता से समाज को हटाकर उसे सहज बनाकर जन साधारण के लिए ग्रास बनाया। सच्चे अर्थों में कबीर एक क्रांतिकारी समाज सुधारक व प्रखर विचारक थे।

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