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Tuesday, December 2, 2008

कबीर साहित्य का समाज-दर्शन

प्रो० रामकली सराफ
साहित्य-रचना उसका बोधात्मक स्वरूप बराबर अपने युग के सामाजिक-आर्थिक संदर्भों से प्रभावित होता रहा है। कबीर साहित्य में समाज कैसे प्रतिबिम्बित हुआ? उनकी दृष्टि क्या रही है? इसे हमें देखना है। समाज बहुत व्यापक सत्ता है, उसके सारे अन्तर्विरोधों, विसंगतियों को पूरी तरह प्रतिबिम्बित करना चुनौती भरा काम है। एक महाकाव्य रचयिता के लिए तो यह बहुत हद तक संभव है कि वह साहित्यिक-बोध की व्यापक सामाजिक प्रक्रिया को अपने में समेट ले, लेकिन एक मुक्तककार के लिए अपने दोहों, साखी, रमैनी, पदों में समाज की जटिलताओं, प्रक्रियाओं बहुआयामी प्रक्रियाओं को समेटना अपेक्षाकृत मुश्किल भरा काम है।
लेकिन व्यापक सामाजिक सम्बन्धों की सौन्दर्यबोधीय, नैतिक, आर्थिक और राजनैतिक जटिलता के ताने-बाने को कबीर ने रचनात्मक धरातल पर बखूबी स्वीकार किया। आध्यात्मिक चेतना तो निहायत वैयक्तिक अनुभूति है। आध्यात्मिक अनुभूतियों के मूल में समाज नहीं होता। पर सवाल खड़ा होता है कि क्या कोई साधना-पद्धति पूर्णतया समाज निरपेक्ष हो सकती है? तो नहीं, साधनात्मक दार्शनिक पद्धतियों का भी समाज के साथ सम्बन्ध होता है। विभिन्न प्रतिक्रियाओं, दार्शनिक पद्धतियों सबका समाजशास्त्र होता है। इसका कारण भी समाज के भीतर मौजूद रहता है। इसलिए समाज पर उनका प्रभाव भी पड़ता है। कबीरदास ने अद्वैत, बौद्धों, सिद्धों, नाथों, वैष्णव धर्म, सूफी धर्म सबके प्रभाव को ग्रहण किया। लेकिन सारी साधना पद्धतियों में सम्मिश्रण के बावजूद उनकी अनुभूति अपनी है, सभी कुछ कबीरमय है, सबकी जीवित अनुभूतियाँ हैं।यद्यपि कबीर की वाणी निगेटिव रुख लिये हुए है, यह उनकी खास शैली है।
इसलिए स्टाइल भले ही नगेशन की हो पर उनकी अवधारणाएँ सकारात्मक हैं। कबीर सीधे-सहज ढंग से सामाजिक विसंगतियों, अन्तर्विरोधों पर चोट करते हैं। नकार की यह चीख एक नये समाज के निर्माण की ललक लिए हुए थी। ऊँच-नीच, जाति-पाँति, सम्प्रदाय जैसे खाँचों में बँटे समाज की वाह्य और आन्तरिक असंगति उनकी चीख को तीव्र कर देती है, जहाँ वे तमाम मानवीय सम्बन्धों को नकारते नहीं वरन्‌ यह उनके विक्षुब्ध मन का उद्वेलन था, जो मनुष्य को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठा दिलवाने का संकल्प लिए हुए था।इस प्रकार कबीर का समाज-दर्शन और जीवन जीवन-दर्शन परस्पर अन्तर्सम्बद्ध है। दोनों के केन्द्र में मनुष्य जीवन है, जहाँ मनुष्यता और कबीर दोनों एक-दूसरे के पर्याय बन गये। ब्रह्म भी कबीर के यहाँ आध्यात्मिक चेतना मात्र का प्रतीक न बनकर सामाजिक जीवन-दर्शन बन जाता है। उन्होंने कर्मकाण्ड प्रधान धर्म की अपेक्षा सर्वव्यापक चैतन्य स्वरूप ब्रह्म की उपासना पर बल दिया, जो प्रत्येक प्राणी के भीतर मौजूद है।
इस आधार पर वे सब प्राणियों को एक मानकर समत्ववादी दृष्टि के हिमायती बन जाते हैं, जो मानव-मात्र से प्रेम करना सिखाता है। विशिष्ट वर्ग द्वारा अपनायी गई भाषा, ज्ञान, अनुभव और उपलब्धि सामान्य जन को पंगु बना रही थी, उनको लगता था मुक्ति के द्वार भी उनके लिए बंद हैं और दूसरी ओर मंदिर मस्जिद में पाखण्डी पंडित और मुल्ला जनसाधारण को अपने कर्मकाण्डी विधानों से बरगलाकर उल्लू सीधा करने में लगे हुए थे। उनका कबीर साहब ने डटकर विरोध किया, जनता में आत्मबल और आत्मविश्वास पैदा किया। अकर्मण्य साधना के स्थान पर कर्म करते हुए साधना मार्ग पर चलने की सलाह दी। आत्मज्ञान के भाव को भरकर आत्मविश्वास के कार्य द्वारा उन्होंने आम लोगों के पुरुषार्थ को, विश्वास और संकल्प को पुनर्जीवित किया। इस क्रान्तिकारी कृत्य के मूल में संत कबीर का निर्भीक व्यक्तित्त्व ही था।कबीर ने मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखते हुए जाति, वर्ण, वर्ग, सम्प्रदाय के ऊपर हो समाज दृष्टि से समाज को देखा - जाँति-पाँति पूछै नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई। बाह्याडम्बरों-पूजा-पाठ, जप, तीर्थ, गंगास्नान आदि का कबीर ने जमकर विरोध किया सीधे-सादे सहज तर्कों के माध्यम से उन्होंने इन पर प्रबल आघात किया।
इनके व्यंग्य बड़े चुभते हुए और जोरदार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनके व्यंग्यकार व्यक्तित्व को सटीक ढंग से उपस्थित किया। इनके व्यंग्य तत्कालीन सामंती समाज व्यवस्था पर तीखी चोट करते हैं। मूर्तिपूजा का खण्डन करते हुए लिखा - पाहन पूजै हरि मिलै तो मैं पुजू पहार।इसी प्रकार मुल्लाओं और काजियों की धार्मिक रूढ़िग्रस्तता पर करारा प्रहार करते हुए कबीर ने अपना निशाना बनाया - कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय/ता चढ़ि मुल्ला बांग दे बहरा हुआ खुदाय। अतः इन तंगदिल वैभिन्य पैदा करने वाले पागलों से स्पष्ट सवाल किया - दुई जगदीश कहाँ से आये, कहु कोने भरमाया/अल्लाह राम करीम, केशव, हरि हजरत नाम धराया।''
इन बातों का कोई जवाब तत्कालीन सामंती शासक वर्ग के पास नहीं था। कबीर का यह विद्रोह मूल्यहीन विद्रोह नहीं था, वरन्‌ निर्मल हृदय संत कवि के हृदय के सहज उद्गार थे। जहाँ वे सहज मार्ग से ईश्वर की निकटता पाने के हामी थे, जिन्ह सहजैं हरि मिलै विभेद बुद्धि का वहाँ क्या काम?वस्तुतः कबीर मानव मात्रा की एकता के कायल थे। विभेद की समस्त रेखाएं तो वर्ग-स्वार्थ से जन्मीं मनुष्य निर्मित है। विधाता के यहाँ कोई भेद नहीं - एक जाति से सब उत्पन्ना को बाभन को सूद्रा। निश्चित ही जब ब्राह्मणों ने समाज में नियन्ता का पद संभाला तो उसके मूल में श्रम-विभाजन ही रहा। वह अकर्मण्य बन अपने गूढ़ चिन्तन को जनता की समझ में न आने वाली भाषा के माध्यम से शासक वर्ग की हिमायत करते हुए रखता था, क्योंकि यही वर्ग उसका भरण-पोषण करता था, सम्मान देता था और उच्च पद पर आसीन करके पूजता था।
यही पुरोहित वर्ग गुरु के रूप में सामाजिक शिक्षा पद्धति का स्वरूप निर्धारित करता था, जिसमें जनता को राजा का सम्मान करने और पूजने की बात कहकर उनके ईश्वर होने का भ्रम फैलाता था। उन्होंने ब्राह्मणों की तथाकथित उच्चता और जनविरोधी रुख पर करारा व्यंग्य करते हुए लिखा - जो तू बांभन जाया, आन बाट हवै क्यू नहीं आया। ब्राह्मण धर्म की इस कर्मकाण्डी जड़ता पर प्रबल आघात बुद्ध ने भी किया। ब्राह्मणों के गढ़ काशी में रहकर सारे विरोधों को झेलते हुए कबीर अज्ञान और असत्य के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने से डरे नहीं, आस्था और विश्वास के दृढ़ स्वर में लिखा - सो बांभन जो ब्रह्म विचारै। उन्होंने मुल्लाओं को अपना निशाना बनाते हुए लिखा - जो तू तुरूक तुरूकिनी जाया, पेटे सुन्नत क्यू न कराया। मानव मात्र एक है, कहीं कोई भेद नहीं। ऊँच-नीच, छुआछूत को धर्म ने कब और कहाँ पैदा किया यह बात संत कबीर की समझ में नहीं आती - कहुँ धौं छूति कहाँ ते ऊपजी तकही छूत तू मानी।/एकै पाट सकल बैठाए, छूति लेत हौं काकी। वहाँ तो सब एक ही विधि से उत्पन्न हुए हैं। सभी की धमनियों में एक ही रक्त प्रवाहित हो रहा है। सभी हाड़-मांस के बने हुए हैं।
इस प्रकार उन्होंने जन्मना श्रेष्ठता को पाने के ऊँच-नीच वाले आचरण का विरोध कर सदाचरण पर बल दिया। हृदय साधना का यह प्रबल रूप उनकी मानवतावादी दृष्टि का चरम उत्स है। लोकधर्मी भक्ति का यह भास्कर रूप उन्हें जीव मात्रा के प्रति हो रहे अत्याचार और पीड़ा के खिलाफ खड़ा कर देता है। सबै जीव सांई के प्यारे जब सांई को सब जीव प्यारे हैं तो फिर हम सब घरि को एक मानकर क्यों न चलें?यही एक अहम्‌ सवाल खड़ा होता है कि मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद को नकारने वाले संत कबीर ने स्त्री और पुरुष में भेद क्यों किया? उनके साहित्य में नारी की रचना कहाँ ठहरती हैं? उसे मनुष्य के बाहर क्यों खड़ा किया? नारी के प्रति जो निषेधात्मकता का रुख संत कबीर में दीखता है, अन्य पक्षों की तरह उसका सकारात्मक पक्ष उभरकर सामने नहीं आता।
जबकि उनकी सामाजिक दार्शनिक चेतना निहायत प्रगतिशील है जो उनके युग का सच ही नहीं बाद के युग का सच भी बनी। आज भी उन पक्षों की सच्चाई को हम स्वीकार करते हैं, बल देते हैं। लेकिन कबीर के इस सच का जितना आकर्षण है, उससे ज्यादा हमारे नारी होने की प्रतिबद्धता है जो बराबर प्रश्न खड़ा कर रही है कि कबीर के नारी सम्बन्धी दृष्टिकोण का सकारात्मक पक्ष क्या है?दरअसल हमारे यहाँ वैरागी संत पुरुष का जो मूल दर्शन रहा है
कबीरदास भी लगभग उसी के कायल थे। उनके समकालिक सभी संतों ने नारी को माया के रूप में देखा है जो साधक के साधना मार्ग में रोड़ा बनकर खड़ी हो जाती है, भटका देती है। यद्यपि कबीरदास के बारे में यह भी धारणा प्रचलित है कि उन्होंने विवाह किया था। निश्चित ही नारी से सम्बद्ध गृहस्थ जीवन की जो अनुभूतियाँ थीं, नारी की उपयोगिता अनुपयोगिता के स्वयं भुक्तभोगी रहे होंगे। पग-पग पर बाधाएँ भी झेली होगी। कुछ लोग ये भी कहते हैं कि उन्होंने विवाह नहीं किया। यदि नहीं भी किया तो मनुष्य के प्रति जो उनकी खरी प्रतिबद्धता है उससे बाहर खड़े दिखने लगते हैं। नारी उनके मनुष्य से बाहर खड़ी है, ऐसा क्यों? इसके मूल में उनकी साधक की वैयक्तिकता प्रधान रूप से झलकती है। उन्होंने लिखा - एक कनक अरू कामिनी, विष्कल किएउ पाई/देखैं ही थैं विष चढ़ै, खाएँ सूँ मरि जाए।बड़ी सामान्य उक्ति है, जगत की वास्तविकता का निषेध कर रहे हैं। सोना और स्त्री दोनों त्यागी पुरुष को बाँधनी हैं। लेकिन यदि कहा जाये की स्त्री भी सोने के प्रति आकर्षित होती हैं तो सच है। पर कबीरदास धन-सम्पदा और स्त्री को समान रूप से देख रहे हैं। इसी प्रकार उन्होंने अन्यत्र लिखा - सुदूरि तैं सुनि भाले, बिरला बचै को।/लोहा निहाला अगनि में, जलिबिल कोइला होय।इस प्रकार का ऐकान्तिक एकांगी दार्शनिक चिन्तन प्रायः साधकों के भीतर प्रतिबिम्बित होता है।
कबीर के इस सामाजिक दर्शन की वैज्ञानिकता के बीच सच्चाई सिद्ध नहीं होती। दूसरे कबीर युग में सामंती समाज में पैठी भोग-विलास की अतिशयता भी नारी के खिलाफ खड़ा करती है। उन्होंने कामी नर कै अंग में लिखा - परनारी के राचणैं औगुण है गुण नाहिं।/ पार समंद में मछला केता बहि-बहि जाहिं।'' संत कबीर जब यह लिखते हैं - नारी की झांई पड़त अंधा होत भुजंग। तो निश्चित ही वे नारी को माया की भाँति सांसारिकता के प्रतीक के रूप में देख रहे हैं, जहाँ वह साधक को अपने लक्ष्य से भटकाती है, अपने आकर्षण के पाश में बाँधकर अंधा बना देती है, सच्चाई से अलग कर देती है तो इसमें नारी का जितना दोष नहीं है, उससे अधिक दोष उस भुजंग का है।
भुजंग अंधा हो सकता है, भुजांगिनी अंधी हो सकती है दोनों को दोष दें तो समाज बनेगा। काम नारी में नहीं है, काम कामी में है अपने में दोष देखना चाहिए। युगीन अनेक अन्तर्विरोधों से कबीर अपने को बचा नहीं सके। अन्यत्र उन्होंने शब्द रूपा स्त्री के द्वारा ज्योतित होती सृष्टि को भी देखा - अन्तर्जोत सबद इक नारि, हरि ब्रह्मा ताके त्रिपुरारि। जबकि पहले के लेखकों न शब्दब्रह्म की बात की। लेकिन कबीर ने शब्दशक्ति स्त्री को माना। ब्रह्म की जगह पर स्त्री को बैठाया माया नहीं माना। हरि के साथ लक्ष्मी अनन्य आबद्ध होती है। शिव के साथ भवानी जिसमें कारण उनकी पूजा होती है, शक्ति के स्पर्श से शिव होता है। यही स्त्री ब्राह्मणी भी है। ब्रह्म की पत्नी भी है, पुत्री भी है। सरस्वती यानी शब्द जब रूप लेगा मर्यादा को अतिक्रमित कर जायेगा।निश्चित ही यह कबीर के युग का अन्तर्विरोध था। साधक की ऊँचाई से देखें तो यह नारी ही नहीं सम्पूर्ण स्त्री-पुरुष जाति की सच्चाई हो जाती है।
स्पष्ट है नारी के प्रति कबीर नाथपंथी योगियों और सिद्धों से भिन्न दृष्टिकोण लेकर चल रहे थे, जबकि उनका साधनात्मक रहस्यवाद शून्य, अनाहत नाद, इड़ा-पिंगला, सुषुम्ना नाड़ी, अष्टचक्र, सहस्रदल कमल आदि को स्वीकार करता है। कबीर परम्परित शास्त्रीयतावादी चिंतन माया, जीव, ब्रह्म, जगत्‌ आदि से अत्यधिक प्रभावित रहे। यही वजह है नारी और माया दोनों ही कबीर के लिए भेद ज्ञान पैदा करते हैं। अतः इनसे स्वयं को दूर कर वे साधना की ऊँचाई को संस्पर्श करते हुए सर्वब्रह्म के ज्ञान की ओर मुड़ते हैं। ऐसा ब्रह्म जो किसी दार्शनिक विचारधारा से आबद्ध न होकर स्वानुभूतिपरक ही अधिक है, कहीं-कहीं वे सगुण व्यक्त ब्रह्म को भी स्वीकार करते हैं, पर ब्रह्म का सूक्ष्म रूप ही उनको ग्राह्य है जो भावनामूलक इन्द्रियातीत है। गुरु से प्रेम का मंत्रा ग्रहण करके ही वे भाव-साधना द्वारा भक्ति-साधना की ओर उन्मुख हुए। तन्मयावस्था को प्राप्त करने के लिए निरन्तर सुपथ की खोज में रत रहे। परमत्याग ही इस अवस्था का अधिकारी बनाता है - सीस उतारि पगतलि धरै, तब चखै प्रेम का स्वाद। इस प्रकार अन्तःकरण को शुद्ध कर साधक अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है, उसमें कोई भेदभाव स्वीकार नहीं। निःसन्देह कबीर की भक्ति प्रेममूलक भक्ति थी, जहाँ वे अपने को राम की बहुरिया कहकर पुकारते हैं। एक ऐसी बहुरिया जो कंत को अपनी आँखों में ढॉपकर रखती हैं, जिसे न कोई अन्य देखे और नहीं वह किसी को देखे नैना अंतर आव तू ज्यूँ हौ नैन झंपेउँ/ना हौं देखू और कू, ना तुझ देखन देऊँ।यह है सर्वव्यापक घट-घट वासी ब्रह्म जो सभी प्राणियों को एक स्तर पर स्थापित करता है। कबीर का सर्वब्रह्म ज्ञान का यह दर्शन जो हिन्दू-मुस्लिम सामंती प्रभुओं के वर्चस्व से अलग अपने एक भिन्न मार्ग का निर्माण करता है, जो अध्यात्म से जुड़े होने के बावजूद सबके सम होने के भाव से सम्पृक्त है। ऐसा उच्चतर मानवीय संस्पर्श, जहाँ मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद नहीं है।वस्तुतः कबीरदास जिस वैयक्तिक चिंतन की ओर झुके, उसका कारण तत्कालीन शासकों की निर्ममता, शोषकवृत्ति और हृदयहीनता ही रही। यही कारण है भौतिक-सामाजिक सत्य के स्थान पर उन्हें गुहृय साधना का आश्रय लेना पड़ा। सवाल खड़ा होता है कि वह प्रवृत्ति निम्न तबके से सम्बद्ध सिद्धों, नाथों एवं संतों में ही क्यों जन्मी।
इसकी वजह क्या है? इसका सामाजिक, मनोवैज्ञानिक कारण यही हो सकता है कि इस उत्पीड़ित वर्ग के पास कोई राजनैतिक विकल्प नहीं था, जिसके तहत वे अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलवा पाते। इसी कारण ये अपने अन्तर्निहित सत्य की ओर उन्मुख हो गुहृय साधना में रत हुए और ऐसे दर्शन को स्वीकार किया जो सामाजिक समत्व पर बल देता था, जिसके मूल में प्रेम था।
उन्होंने अपनी प्रेममूलक भक्ति के बल पर ही जनता की भावना को आत्मसात्‌ किया, उनके दुःख-दर्द को समझा। यह प्रेम ही उनके लिए समस्त वाह्यचारों से परे समाज के भेदभाव से लड़ने का धारदार औजार था। इसी प्रेमतत्व में समूचे भक्ति आंदोलन की आत्मा का बहाव देखा जा सकता है, सूर, तुलसी, मीरा, जायसी के यहाँ भी यही है। जाहिर है कि संत कबीरदास भक्ति आंदोलन की मूल्यवान विरासत है। जिस आन्दोलन का सामाजिक आधार दलित मानव का भौतिक जीवन रहा है, जो वैषम्यपूर्ण दौर में उत्पीड़ित और आन्दोलन हो उठा था। कबीर ने लोकमानस के भीतर उठते इस ज्वार को पहचाना और वाणी दी। उनकी भक्ति का मुख्य पक्ष सन्त अथवा जनकवि का है। काव्य चेतना और लोक-चेतना की अन्तर्सम्बद्धता ही उन्हें सामंती ढाँचे के प्रतिरोध में खड़ा करती है। साधना के धरातल पर उनका आध्यात्मिक जीवन अवश्य प्रत्यक्ष हुआ, लेकिन वे साधु समाज की चिन्ता तक ही अपने को समेट नहीं पाये वरन्‌ सामाजिक चिन्ता के धरातल पर वे सामन्ती अमानवीयता के शिकार जनसमूह के साथ खड़े हुए। धर्म के नाम पर होने वाले पाखंडों और अंधविश्वासों का तीव्र विरोध करते हुए मानवता के पक्षधर बने रहे।भक्ति आन्दोलन का उत्पीड़ित जाति पर गहरा असर पड़ा। अभावग्रस्त, उपेक्षित, अशिक्षित लोग निर्गुणवादी चिन्तन के साथ जुड़े। जबकि चिन्तन की दृष्टि से वह गूढ़, सूक्ष्म और ज्ञान की ऊँचाईयों का संस्पर्श करने वाला है। लेकिन निर्गुणवाद का दार्शनिक सत्य समत्वादी दर्शन प्रभुत्वशाली वर्ग की दार्शनिक मान्यताओं के विपरीत था, जो उन्हें रास नहीं आया। अतः युगीन सामाजिक संघर्षों की द्वन्द्वात्मकता के बीच सन्त कवियों ने निर्गुणवाद में दार्शनिक परितृप्ति पायी। शायद यही कारण है कि मुक्तिबोध ने सगुण को सवर्णों से सम्बद्ध कर लिखा कि इस आन्दोलन के भीतर से भक्तियुगीन वर्ग-संघर्ष प्रतिबिम्बित हो रहा है जिसके कारण निर्गुण काव्यधारा में निम्नवर्गीय भावबोध की प्रधानता है और सगुण भक्तिधारा में उच्चवर्गीय भावबोध की। इसी आधार पर उन्होंने तुलसी की अपेक्षा कबीर को क्रान्तिकारी कवि कहा। उनकी जनजीवन को पहचानने की क्षमता अद्भुत थी।दरअसल कबीर लोक जीवन की भाषा और रूपकों को लेकर अपनी बात को जनता के मर्म तक उतारने में सिद्धहस्त थे। निश्चित ही वे शास्त्रीय कोटि के आचार्य न होकर व्यापक जनता के आचार्य थे। कदाचित्‌ इसी कारण आचार्य शुक्ल ने उनको कवि की कोटि में नहीं रक्खा। लेकिन बार-बार वे निर्गुणपन्थी सन्त-महात्माओं के उपकार को सराहते रहे कि इन कवियों ने उच्च विषयों का कुछ आभास देकर आचरण की शुद्धता पर बल देकर बाह्याडम्बरों को नकारकर निम्न जाति के लोगों में आत्मगौरव का भाव जगाया। इसी सन्दर्भ में उन्होंने कबीर को समाजसुधारक भी स्वीकार किया। लेकिन भक्तिरस में मग्न कर देने वाली सरसता की कमी उन्हें बराबर खटकती रही जिसके परिणामस्वरूप उनका ध्यान सूर-तुलसी खींच लेते हैं। बावजूद इसके यह तो निर्विवाद है कि भले ही कबीर में हठयोगी सिद्धों और नाथपंथी योगियों के निर्गुण निराकार ब्रह्म को स्वीकार किया तो भारतीय अद्वैत दर्शन और सूफियों के प्रेमतत्त्व का समावेश अपने चिंतन में किया। फिर निवेदन सगुण के प्रति हो या निर्गुण के प्रति इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बड़ा सवाल है कि प्रेम मानवीय कितना है? तो क्या मानवीय पहलू सभी में अपने-अपने स्तर पर अभिव्यक्त हुआ। ब्रह्म को सर्वव्यापी मानकर जिस समत्ववादी दृष्टि की हिमायत कबीर ने की, उसके मूल में प्रेमतत्त्व ही मौजूद है। सर्वव्यापी चैतन्य स्वरूप ब्रह्म की उपासना, जो प्रत्येक प्राणी के भीतर वास करता है। मनुष्य-मनुष्य के बीच एकापन पाता है, प्रेम करना सिखाता है। सत्य है कि तद्युगीन शासक वर्ग के चारित्रिक वैशिष्ठ्य से यह एकदम भिन्न बात थी कि वे सभी को समभाव से देखें। लोकभावना और लोकजीवन से जुड़ी ये बातें विशिष्टजन के विपरीत सामान्य जन को प्रिय होंगी, इस प्रकार सामाजिक-सांस्कृतिक धरातल पर अपनी बानियों के माध्यम से विशाल जनसमूह को एकजुट करने का विराट प्रयत्न कबीर ने किया। उनकी वाणी की संघर्षशील चेतना और प्रखर विद्रोही तेवर आज के अन्तर्विरोधी माहौल में भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने जो कुछ भोगा उसमें केवल निज के अन्तर्विरोध को ही नहीं पहचाना वरन्‌ अपने निजी अनुभवों के आलोक में व्यापक लोक से रिश्ता कायम किया। इस प्रकार मानव-मात्र की एकता के पक्षधर कबीर साहेब ने समस्त जातिगत, साम्प्रदायिक विभेदों का खण्डन कर मनुष्य को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठा दी।निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि कबीर का समाज-दर्शन मूलतः अध्यात्म दर्शन होने के बावजूद समाज के जिन आयामों का संकेत करता है, वे संकेत आज की दुनिया में धर्मभेद, जातिभेद, देशभेद, राष्ट्रभेद और युद्ध की भयावहता से आक्रांत मानव जाति के लिए कितने प्रासंगिक, कितने ऊँचे, कितने गृहणीय और अर्थवान है, यह सहज ही स्पष्ट है।

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