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Tuesday, December 2, 2008

धीरे-धीरे उतर क्षितिज से

महादेवी वर्मा


धीरे-धीरे उतर क्षितिज से
आ वसन्ती-रजनी।
तारकमय नव वेणीबन्धन
शीश-फूल कर शशि का नूतन,

रश्मि-वलय सित घन-अवगुण्ठन,
मुक्ताहल अभिराम बिछा दे
चितवन से अपनी।
पुलकती आ वसन्त-रजनी।

मर्मर की सुमधुर नूपुर-ध्वनि,
अलि-गुंजित पद्मों की किंकिणि,
भर पद-गति में अलस तरंगिणि,
तरल रजत की धार बहा दे

मृदु स्मित से सजनी।
विहँसती आ वसन्त-रजनी।
पुलकित स्वप्नों की रोमावलि,
कर में हो स्मृतियों की अंजलि,

मलयानिल का चल दुकूल अलि।
घिर छाया-सी श्याम, विश्व को
आ अभिसार बनी।
सकुचती आ वसन्त-रजनी।

सिरह सिरह उठता सरिता-उर,
खुल खुल पड़ते सुमन सुधा-भर,
मचल आते पल फिर फिर,
सुन प्रिय की पद-चाप हो गयी

पुलकित यह अवनी।
सिरहती आ वसन्त-रजनी।

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