घटनाचक्र
महेंद्र भटनागर
हमने नहीं चाहा
कि इस घर के
सुनहरे-रुपहले नीले
गगन पर
घन आग बरसे !
.
हमने नहीं चाहा
कि इस घर का
अबोध-अजान बचपन
और अल्हड़ सरल यौवन
प्यार को तरसे !
.
हमने नहीं चाहा
कि इस घर की
मधुर स्वर-लहरियाँ
खामोश हो जाएँ,
यहाँ की भूमि पर
कोई
घृणा प्रतिशोध हिंसा के
विषैले बीज बो जाए !
.
हमने नहीं चाहा
प्रलय के मेघ छाएँ
और सब-कुछ दें बहा,
गरजती आँधियाँ आएँ
चमकते इंद्रधनुषी
स्वप्न-महलों को
हिला कर
एक पल में दें ढहा !
.
पर,
अनचहा सब
सामने घटता गया,
हम
देखते केवल रहे,
सब सामने
क्रमशः
उजड़ता टूटता हटता गया !
1 comments:
महेन्द्र जी की रचना पेश करने के लिए शुक्रिया।
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तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
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