आत्म-संवेदन
महेंद्र भटनागर
हर आदमी
अपनी मुसीबत में
अकेला है !
यातना की राशिµसारी
मात्र उसकी है !
साँसत के क्षणों में
आदमी बिल्कुल अकेला है !
.
संकटों की रात
एकाकी बितानी है उसे,
घुप अँधेरे में
किरण उम्मीद की जगानी है उसे !
हर चोट
सहलाना उसी को है,
हर सत्य
बहलाना उसी को है !
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उसे ही
झेलने हैं हर क़दम पर
आँधियों के वार,
ओढ़ने हैं वक्ष पर चुपचाप
चारों ओर से बढ़ते-उमड़ते ज्वार !
.
सहनी उसे ही ठोकरें —
दुर्भाग्य की,
अभिशप्त जीवन की,
कठिन चढ़ती-उतरती राह पर
कटु व्यंग्य करतीं
क्रूर-क्रीड़ाएँ
अशुभ प्रारब्ध की !
उसे ही
जानना है स्वाद कड़वी घूँट का,
अनुभूत करना है
असर विष-कूट का !
अकेले
हाँ, अकेले ही !
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क्योंकि सच है यह —
कि अपनी हर मुसीबत में
अकेला ही जिया है आदमी !
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1 comments:
अपनी हर मुसीबत में
अकेला ही जिया है आदमी !
-सटीक बात!!
महेन्द्र भटनागर जी की रचना पढ़वाने का आभार.
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