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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Wednesday, March 4, 2009

आता है नजर

सुनील गज्जाणी

सपेरा, मदारी खेल नट-नटनी का,
बतलाओ जरा कहां आता है नजर ?
खेल बच्चो का सिमटा कमरो में अब,
बलपण को लगी कैसी ये नजर ।

वैदिक ज्ञान, पाटी तख्ती, गुरू शिष्य अब,
किस्सो में जाने सिमट गए इस कदर,
नैतिकता, सदाचार अब बसते धोरो मे,
फ्रेम में टंगा बस आदमी आता है नजर।

चाह कंगुरे की पहले होती अब क्यूं,
धैर्य, नींव का कद बढ़ने तक हो जरा,
बच्चा नाबालिग नही रहा इस युग में,
बाल कथाएं अब कही सुनता आया है नजर।

अपने ही विरूद्ध खडे किए जा रहा,
प्रष्न पे प्रष्न निस्त्तर जाने मै क्यूं,
सोच कर मुस्कुरा देती उसकी ओर
सच्च, मेरे लिए प्यार उसमें आता है नजर।

दिन बहुत गुजरे शहर सूना सा लगे
चलो फिर कोई दफन मुद्दा उठाया जाए,
तरसते दो वक्त रोटी को वे अक्सर
सेकते रोटियां उन पे कुर्सिया रोज आती है नजर।

1 comments:

Science Bloggers Association March 5, 2009 at 2:08 PM  

जीवन के विविध पक्षों से जोडती सुन्‍दर कविता। बधाई।

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