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उन तमाम गुरूओं को समर्पित जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया.

Sunday, March 22, 2009

यथार्थता

महेंद्रभटनागर

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जीवन जीना —
दूभर - दुर्वह
भारी है!
मानों
दो - नावों की
विकट सवारी है!
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पैरों के नीचे
विष - दग्ध दुधारी आरी है,
कंठ - सटी
अति तीक्ष्ण कटारी है!
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गल - फाँसी है,
हर वक़्‍त
बदहवासी है!
भगदड़ मारामारी है,
ग़ायब
पूरनमासी,
पसरी सिर्फ़
घनी अँधियारी है!
.
जीवन जीना
लाचारी है!
बेहद भारी है!

1 comments:

Unknown March 22, 2009 at 11:05 AM  

जीवन बिंब पर बहुत ही सटीक कविता । बेहद सुन्दर रचना ।

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