फेयरवेल
प्रताप दीक्षित
अंततः रामसेवक अर्थात् आर.एस. वर्मा, सहायक सुपरवाइजर की पोस्टिंग मुख्यालय में ही हो गई। ग्रामीण इलाकों से लेकर कस्बों और अनेक नगरों में फैली शाखाओं वाले इस अर्द्धसरकारी जनसेवी संस्था का मुख्यालय प्रदेश की राजधानी में स्थित था। नियुक्ति के पश्चात् लगभग पन्द्रह-सोलह वर्षों के दौरान वह सदा ग्रामीण अथवा कस्बाई इलाकों में ही रहा था। नीति के अनुसार प्रत्येक तीन वर्ष बाद उसका स्थानान्तरण हो जाता। यद्यपि इसके कारण अभी तक उसे कुछ विशेष असुविधा तो नहीं हुई क्योंकि जिस छोटे-से नगर की गंदी-सी बस्ती में उसका बचपन बीता था, उसकी तुलना में इन जगहों में उसके रहन-सहन का स्तर पर्याप्त से अधिक ही था। परन्तु बढ़ती सुविधाएँ, जिनका वह आदी होता गया था, शीघ्र ही अपनी अर्थवत्ता खोने लगीं। मसलन रंगीन टी.वी. और फ्रिज खरीदा, तो बिजली न आती। पत्नी के लिए ब्यूटी सैलून न होता। कहीं-कहीं तो उसके नए विशाल सोफे और बोन-चाइना की क्रॉकरी के लिए उपयुक्त मेहमान तक उपलब्ध न होते। अतः क्षेत्राीय प्रबंधक से लेकर यूनियन के महासचिव तक दौड़ने और काफी जद्दोजहद के बाद उसके स्थानान्तरण के लिए आदेश हेड ऑफिस हेतु हो गए। इस महानगर में आने के थोड़े ही दिनों बाद उसे लगने लगा कि उसके अंदर की गौरैय्या एक डैने पसारे विशाल पक्षी में परिवर्तित हो रही है।
नई जगह, आवास से कार्यालय दूर था। बच्चों के स्कूल भी पास नहीं। खर्च बढ़ने ही थे। पिता को भेजे जाने वाले मनीऑडरों में अंतराल आने लगा। दफ्तर के बाद अथवा छुट्टियों में बाहर निकलना मुश्किल होता। पिछली जगहों में, यहाँ की तरह नफासत पसंद सहयोगी भले ही न रहे हों, पर अवकाश के दिन और शामें मोहन लाल, श्रीवास्तव, रफीक अथवा पांडेय के यहाँ कट ही जाती थी। यहाँ इस प्रकार का पारस्परिक व्यवहार संभव न हो पाता। एक तो चलन नहीं दूसरे सभी दूर-दूर रहते थे। उसने प्रारम्भ में कोशिश की परन्तु थोड़ी ही देर बाद, जिसके घर वह गया होता, उसके आने का कारण पूछ बैठता। अतः वह भी चुप हो बैठ गया। इस नगर में दूर-पास के संबंधी भी शायद ढूँढने पर ही मिलते। यहाँ सुविधाएँ जरूर अधिक थीं-बिजली की आपूर्ति लगभग चौबीस घंटे, दूरदर्शन के अनेक चैनल, मनोरंजन के साधन, चिकित्सा सुविधा, नए-नए विज्ञापनों वाली उपभोक्ता वस्तुओं से भरे हुए बाजार। परन्तु समय कृपणता बरतता। पहली जगहों में जहाँ दुकानदार अनुनय के साथ किफायती दरों में सामान घर पहुँचा देते, यहाँ प्रॉविजन स्टोरों में प्रतीत होता कि उस पर लगातार एहसान किया जा रहा है या अति विनम्रता का प्रदर्शन कि बिना खरीददारी के वापस आने की हिम्मत न पड़ती, रेट चाहे जितने अधिक लगते रहे हों। यदि कभी बिजली न आ रही हो तो बंद कमरों से निकल चौथी मंजिल की खुली छत पर जाने का साहस न होता। शायद सुविधा भी नहीं थी। मकान मालिक की इतनी सदाशयता ही बहुत थी वह नजरें मिलने पर जरा-सा सिर हिलाकर नमस्कार-सा कर लेता।
मुख्यालय के जिस उपविभाग में सहायक-पर्यवेक्षक के पद पर उसकी नियुक्ति थी, वहाँ का मुख्य कार्य, विभिन्न शाखाओं से आए स्टेटमेंट का विश्लेषण और वर्गीकरण कर, अंतिम आंकड़े तैयार करना था। दफ्तर में काम तो कम था परन्तु फैलाव अधिक। एक का काम दूसरे से जुड़ा, एक हद तक दूसरे पर निर्भर था। अक्सर शाखाओं अथवा दूसरे विभागों से साप्ताहिक और मासिक रिपोर्ट समय पर न आती, जिससे कम्प्यूटर पर फीगर न पहुँच पाती। जिम्मेदार उसे ठहराया जाता। कार्यालय में लगता सभी जल्दी में हैं। लंच के बाद बाबू लोग तो चले ही जाते, अधिकारी भी इधर-उधर देख सिमट लेते। उसके विभाग को ऊपर के लोग अनाथालय और अधीनस्थ कर्मी ÷क्लब' कहते। निश्चित बंटा काम भी समय पर पूरा न हो पाता। कारण अनेक थे। स्टेशनरी की कमी जो अक्सर हो जाती, चपरासी या वाटर-ब्वाय का गायब हो जाना, आदि-आदि। इसके बाद लोगों के अपने काम भी तो थे। बिल अथवा शेयर फार्म जमा करना, बच्चों को स्कूल से लाना। मेहरोत्रा की बीबी स्कूल में पढ़ाती थी, वह उसे छोड़कर आता। फिर लेने भी तो जाना पड़ता था। विभाग में उसके अतिरिक्त एक अन्य अधिकारी जे.पी. श्रीवास्तव था। उसे लोग सनकी या ऐसा ही कुछ मानते। नियम-कानून का पक्का। खुद समय से आता, जमकर काम करता और सबसे यही उम्मीद करता। वह अक्सर हाजिरी रजिस्टर में क्रॉस लगा देता। लोग उससे चिढ़ते। खुद पिले रहो, पर यह क्या सबको घड़ी देखकर हांकोगे। उससे श्रीवास्तव की पट गई।
एक दिन उसकी सीट पर ऑडिट सेक्शन का कुंदन आया, ÷÷बॉस! जरा दो सौ रुपये बढ़ाना।'' उसके हाथ में एक लिस्ट थी। उसने फाइलों के बीच से सिर उठाकर प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा।
÷÷अरे! क्या जनार्दन जी का सरकुलर नहीं मिला। अपने निदेशक महोदय, शाह साहब का, स्थानान्तरण केन्द्रीय कार्यालय हुआ है। उनकी विदाई पार्टी है।''
÷÷परन्तु क्या यह राशि ज्यादा नहीं है?'' उसने झिझकते हुए कहा, लेकिन जनार्दन के नाम से उसने रुपये बढ़ा दिए थे।
÷÷आप अभी नए आए लगते हैं। मजे करोगे यार!'' कुंदन ने बेतकल्लुफी से कहा था।
दो दिन बार विदाई पार्टी का आयोजन संस्थान के अतिथिगृह में किया गया था। विशाल लॉन में कुर्सियाँ और बीच में लाल कालीन। लोग धीरे-धीरे आ रहे थे। उसने हाथ जोड़ नमस्ते किया। अधिकारी संघ के सचिव जनार्दन जी लोगों से घिरे हुए थे। व्यस्तता के बाद भी उन्होंने आगे बढ़कर उससे हाथ मिलाया। वह कृतज्ञ हो आया।
पण्डित जनार्दन, अधिकारी संघ के सचिव, टाई-सूट में रहते। गौर वर्ण, माथे पर लाल चंदन, सिर पर गांठ लगी चोटी। गरिमामय ढंग से निरन्तर अंग्रेजी बोलते। धीमे-धीमे बोलते अचानक उनका स्वर तेज हो जाता। यह इस बात का सूचक था कि फैसला हो गया, अब बात खत्म। उन्होंने कई लोगों को कुछ काम बताते हुए, आदेश जैसे स्वर में, प्रार्थना की। पास खड़ा जगदीश, कुछ नहीं तो, पास पड़ी बेतरतीब कुर्सियों को ही व्यवस्थित करने लगा। वह निरुद्देश्य इधर-उधर देखता रहा। तभी जनार्दन जी उसके पास आकर बोले, ÷÷आपसे तो मुलाकात ही नहीं होती बहुत व्यस्त रहते हैं।''
उसने कुछ कहना चाहा तभी निदेशक महोदय की कार अंदर आती दिखाई दी। लोग सावधान हो उठे। जनार्दन उससे ÷एंज्वाय', ÷एंज्वाय' करते उधर बढ़ गए। लोगों ने उन्हें मार्ग दिया। उन्होंने कार का दरवाजा खोलते हुए, ÷वेलकम सर' कहकर हाथ मिलाया।
काले सूट में मुस्कराते निदेशक महोदय, लोगो के साथ, सोफों की ओर बढ़े। सभी लोगों के साथ वह पीछे पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया था। वह स्पष्ट नहीं सुन पा रहा था। माल्यार्पण का कार्यक्रम आरम्भ हो चुका था। सचिव महोदय आवाज देते और लोग, महत्त्वपूर्ण लोग, निदेशक महोदय को माला पहनाकर वापस आ जाते। जर्नादन जी ने आवाज दी थी, ÷श्री जगदीश चन्द्र, स्टेटमेंट अनुभाग' जगदीश शायद लघुशंका हेतु चला गया था। पंडित जी ने कुछ रुककर कहा, ÷श्री राम सेवक जी।'
वह चौंका फिर सचिव महोदय को अपनी ओर देखते पाकर आगे बढ़ा और उनके हाथ से माला ले, निदेशक महोदय के गले में डाल, फिर वापस अपने स्थान पर आ बैठा। अभी भी कई मालाएँ बची हुई थीं। वह अपने को महत्त्वपूर्ण मान रहा था। उसका संकोच कुछ हद तक मिट गया था। इसके बाद अगला कार्यक्रम था। जर्नादन जी ने निदेशक महोदय का गिलास भरने के बाद अपना गिलास भरा था। इसके बाद अन्य लोगों ने। ÷चियर्स' के साथ हलचल बढ़ गई थी।
÷आओ यार।' कहीं से जगदीश ने आकर उसे खींचा था।
÷÷परन्तु, मैं तो लेता नहीं।'' उसने कहा।
÷÷अरे सूफीपन छोड़ो। दो सौ वसूलने हैं या नहीं?'' उसने दुबारा जोर दिया।
निदेशक महोदय, उपनिदेशक के साथ किसी गम्भीर मंत्राणा में व्यस्त हो गए थे। जनार्दन जी आते दिखे। वह उसके सामने आ गए थे। वह खड़ा हो गया। उससे मुखातिब होते हुए उन्होंने कहा, ÷यार रामसेवक तुम आगे क्या लिखते हो?'
वह संकुचित हो उठा। उसे याद आया, वर्षों पहले कॉलेज में एक प्रोफेसर के द्वारा इसी प्रश्न के उत्तर में उसने उन्हें वह लेक्चर पिलाया था कि वह माफी-सी माँगने लगे थे। पर इस समय उसने झिझकते हुए उत्तर दिया, ÷जी! वर्मा, रामसेवक वर्मा।'
÷वही तो,' वह हाथ में गिलास लिए हो-हो हँसते हुए थूक उड़ाते बोले, ÷÷वही तो। मैं तो कुछ और समय रहा था।''
वह कुछ कहना चाहता था, परन्तु माहौल देखकर चुप रह गया। जनार्दन जी फिर डायरेक्टर साहब के पास सिमट गए थे। वह चिन्तित से बोले-÷सर, आपके जाने के बाद इस मुख्यालय का क्या होगा? ईश्वर जाने इस संस्था का क्या भविष्य है?'
शायद भोजन कुछ कम पड़ गया था। लोग आशंकित हो हाथ में प्लेटें लिए टूट पड़ रहे थे। निदेशक महोदय को काफी बड़ा गिफ्ट पैकेट विदाई में दिया गया था। देर रात लौटते हुए उसने अपनी पूर्व विदाई पार्टियाँ याद आई। पाँच-पाँच रुपये एकत्रिात कर, चाय-समोसे, गुलाब जामुन और उपहार में एक पेनसेट। उसे संतोष हुआ चलो यहाँ से चलते समय विदाई पार्टी तो ढंग से होगी। घर में पत्नी और बच्चे पार्टी की भव्यता सुनकर उत्साहित थे।
अगले माह उसके प्रभाग में कार्यरत जगदीश के तबादले के आर्डर आ गए। उसके इस स्टेशन पर पाँच वर्ष पूर्ण हो चुके थे। आना था ही। उसने कुंदन, सचिव का सहयोगी, से जगदीश की पार्टी के लिए बात की। ÷क्या?' उसने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए कहा, ÷इस संबंध में तुम सचिव से ही सीधे बात कर लो।'
उसने सचिव को ढूँढा। वह डायरेक्टर के कमरे में था। वह बाहर ही प्रतीक्षा करने लगा। तभी द्वार खुला। स्प्रिंग वाला दरवाजा खोल, जनार्दन बाहर निकला। पीछे डायरेक्टर साहब। वह दरवाजा बंद होने से रोकने के लिए पकड़े रहा था। उसने सुना, ÷÷पहले की बातें तो जाने दीजिए। मैं जाने वाले की बुराई नहीं करता परन्तु यहाँ के प्रबन्ध, लोगों की कार्यक्षमता में जो सुधार आपके ज्वाइन करने के बाद हुआ, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।''
जनार्दन कह रहा था।
मुदित डायरेक्टर साहब कार में बैठ गए थे। उसने जनार्दन से अपनी बात जोर देकर कही। जनार्दन गंभीर हो गया, ÷÷इस बार तो संभव नहीं है। लोग अभी दो-दो सौ झेल ही चुके हैं। फिर इसे जनरल बॉडी में पास भी तो कराना पड़ेगा।''
तभी वहाँ कुंदन और तीन-चार अन्य साथी भी आ गए थे। वह निराश होकर आगे बढ़ गया था। पीछे से उसके कानों में कई आवाजें पड़ी थीं-÷पार्टी चाहिए! साला डायरेक्टर से अपनी बराबरी करता है।'
दो-ढाई महीने बीत गए। उसने इस बीच और कई साथियों से बात की थी। उसे आश्चर्य था कि सबके हित और समानता की बात होने पर भी कोई भी उससे सहमत क्यों नहीं था। एक शाम उसे कार्मिक विभाग में बुलाया गया। पता चला कि उसका ट्रांसफर एक दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रा में हो गया था। उसे रोष के साथ अचरज भी हुआ-उसे आए तो मुश्किल से एक वर्ष भी नहीं हुआ होगा। इतनी जल्दी
÷÷आप चाहें तो निदेशक महोदय से मिल लें।'' कार्मिक अधिकारी ने ठंडे स्वर में अपनी विवशता बताई।
परन्तु कुछ न हो सका। वह जनार्दन से किंचित आवेश में मिला।
÷÷यह तो प्रशासनिक आधार पर हुआ है। इसमें कुछ नहीं हो सकता।'' जनार्दन ने मजबूरी जाहिर की।
उसके दोबारा कहने पर कहा, ÷अच्छा तो आप अवकाश ले लें। देखूंगा, क्या-कुछ किया जा सकता है?'
एक दिन उसके सुनने में आया कि कुंदन ने जनार्दन से कहा था, ÷÷यह तो बना हुआ वर्मा है।''
जनार्दन ने कहा था, ÷÷मुझे पहले से ही मालूम था।''
वह दो माह तक बीमारी के आधार पर छुट्टी लिए रहा। रोज जनार्दन के कार्यालय में जाकर बैठ जाता। आखिरकार परिणाम आया। दूरस्थ शाखा से आदेश परिवर्तित होकर एक अन्य, अपेक्षाकृत निकट की ग्रामीण शाखा के लिए हो गया, उसे अवमुक्त कर दिया गया था। उसके अधीनस्थ भी प्रसन्न थे। तिवारी कह रहा था, ÷÷बड़े कानूनदां और तुर्रमखाँ बनते थे। लद गए न।''
वह रिलीविंग पत्रा लेकर लौट रहा था। उसको मालूम था कि उसकी फेयरवेल न होनी थी न होगी। उसके मन में आ रहा था-छोटू को गुलाब की माला और बेटी को गिफ्ट पैकेट की प्रतीक्षा होगी। पत्नी तो, पार्टी में खाने को क्या था-यही सुनकर तृप्त हो जाएगी।
वह निरन्तर सोचता रहा। लौटते हुए बाजार में घड़ी की एक दुकान पर रुका। एक अलार्म घड़ी खरीदकर पैक करवाने के बाद, लाल कागज में गिफ्ट-पैकेट बनवा लिया। पास में स्थित एक मंदिर के बाहर बैठे माली से एक गुलाब का हार लिया। माली ने उसे पत्ते में लपेटना चाहा, पर उसने उसे ऐसे ही ले लिया। माला लिए हुए वह पार्क के कोने में गया। इधर-उधर देख, उसने माला पहन लिया। वह पार्क के बाहर आया। एक रिक्शेवाले को रोका। वह चौकन्ना-सा रिक्शे पर बैठ गया। रिक्शा उसके घर की ओर चल पड़ा।
अंततः रामसेवक अर्थात् आर.एस. वर्मा, सहायक सुपरवाइजर की पोस्टिंग मुख्यालय में ही हो गई। ग्रामीण इलाकों से लेकर कस्बों और अनेक नगरों में फैली शाखाओं वाले इस अर्द्धसरकारी जनसेवी संस्था का मुख्यालय प्रदेश की राजधानी में स्थित था। नियुक्ति के पश्चात् लगभग पन्द्रह-सोलह वर्षों के दौरान वह सदा ग्रामीण अथवा कस्बाई इलाकों में ही रहा था। नीति के अनुसार प्रत्येक तीन वर्ष बाद उसका स्थानान्तरण हो जाता। यद्यपि इसके कारण अभी तक उसे कुछ विशेष असुविधा तो नहीं हुई क्योंकि जिस छोटे-से नगर की गंदी-सी बस्ती में उसका बचपन बीता था, उसकी तुलना में इन जगहों में उसके रहन-सहन का स्तर पर्याप्त से अधिक ही था। परन्तु बढ़ती सुविधाएँ, जिनका वह आदी होता गया था, शीघ्र ही अपनी अर्थवत्ता खोने लगीं। मसलन रंगीन टी.वी. और फ्रिज खरीदा, तो बिजली न आती। पत्नी के लिए ब्यूटी सैलून न होता। कहीं-कहीं तो उसके नए विशाल सोफे और बोन-चाइना की क्रॉकरी के लिए उपयुक्त मेहमान तक उपलब्ध न होते। अतः क्षेत्राीय प्रबंधक से लेकर यूनियन के महासचिव तक दौड़ने और काफी जद्दोजहद के बाद उसके स्थानान्तरण के लिए आदेश हेड ऑफिस हेतु हो गए। इस महानगर में आने के थोड़े ही दिनों बाद उसे लगने लगा कि उसके अंदर की गौरैय्या एक डैने पसारे विशाल पक्षी में परिवर्तित हो रही है।
नई जगह, आवास से कार्यालय दूर था। बच्चों के स्कूल भी पास नहीं। खर्च बढ़ने ही थे। पिता को भेजे जाने वाले मनीऑडरों में अंतराल आने लगा। दफ्तर के बाद अथवा छुट्टियों में बाहर निकलना मुश्किल होता। पिछली जगहों में, यहाँ की तरह नफासत पसंद सहयोगी भले ही न रहे हों, पर अवकाश के दिन और शामें मोहन लाल, श्रीवास्तव, रफीक अथवा पांडेय के यहाँ कट ही जाती थी। यहाँ इस प्रकार का पारस्परिक व्यवहार संभव न हो पाता। एक तो चलन नहीं दूसरे सभी दूर-दूर रहते थे। उसने प्रारम्भ में कोशिश की परन्तु थोड़ी ही देर बाद, जिसके घर वह गया होता, उसके आने का कारण पूछ बैठता। अतः वह भी चुप हो बैठ गया। इस नगर में दूर-पास के संबंधी भी शायद ढूँढने पर ही मिलते। यहाँ सुविधाएँ जरूर अधिक थीं-बिजली की आपूर्ति लगभग चौबीस घंटे, दूरदर्शन के अनेक चैनल, मनोरंजन के साधन, चिकित्सा सुविधा, नए-नए विज्ञापनों वाली उपभोक्ता वस्तुओं से भरे हुए बाजार। परन्तु समय कृपणता बरतता। पहली जगहों में जहाँ दुकानदार अनुनय के साथ किफायती दरों में सामान घर पहुँचा देते, यहाँ प्रॉविजन स्टोरों में प्रतीत होता कि उस पर लगातार एहसान किया जा रहा है या अति विनम्रता का प्रदर्शन कि बिना खरीददारी के वापस आने की हिम्मत न पड़ती, रेट चाहे जितने अधिक लगते रहे हों। यदि कभी बिजली न आ रही हो तो बंद कमरों से निकल चौथी मंजिल की खुली छत पर जाने का साहस न होता। शायद सुविधा भी नहीं थी। मकान मालिक की इतनी सदाशयता ही बहुत थी वह नजरें मिलने पर जरा-सा सिर हिलाकर नमस्कार-सा कर लेता।
मुख्यालय के जिस उपविभाग में सहायक-पर्यवेक्षक के पद पर उसकी नियुक्ति थी, वहाँ का मुख्य कार्य, विभिन्न शाखाओं से आए स्टेटमेंट का विश्लेषण और वर्गीकरण कर, अंतिम आंकड़े तैयार करना था। दफ्तर में काम तो कम था परन्तु फैलाव अधिक। एक का काम दूसरे से जुड़ा, एक हद तक दूसरे पर निर्भर था। अक्सर शाखाओं अथवा दूसरे विभागों से साप्ताहिक और मासिक रिपोर्ट समय पर न आती, जिससे कम्प्यूटर पर फीगर न पहुँच पाती। जिम्मेदार उसे ठहराया जाता। कार्यालय में लगता सभी जल्दी में हैं। लंच के बाद बाबू लोग तो चले ही जाते, अधिकारी भी इधर-उधर देख सिमट लेते। उसके विभाग को ऊपर के लोग अनाथालय और अधीनस्थ कर्मी ÷क्लब' कहते। निश्चित बंटा काम भी समय पर पूरा न हो पाता। कारण अनेक थे। स्टेशनरी की कमी जो अक्सर हो जाती, चपरासी या वाटर-ब्वाय का गायब हो जाना, आदि-आदि। इसके बाद लोगों के अपने काम भी तो थे। बिल अथवा शेयर फार्म जमा करना, बच्चों को स्कूल से लाना। मेहरोत्रा की बीबी स्कूल में पढ़ाती थी, वह उसे छोड़कर आता। फिर लेने भी तो जाना पड़ता था। विभाग में उसके अतिरिक्त एक अन्य अधिकारी जे.पी. श्रीवास्तव था। उसे लोग सनकी या ऐसा ही कुछ मानते। नियम-कानून का पक्का। खुद समय से आता, जमकर काम करता और सबसे यही उम्मीद करता। वह अक्सर हाजिरी रजिस्टर में क्रॉस लगा देता। लोग उससे चिढ़ते। खुद पिले रहो, पर यह क्या सबको घड़ी देखकर हांकोगे। उससे श्रीवास्तव की पट गई।
एक दिन उसकी सीट पर ऑडिट सेक्शन का कुंदन आया, ÷÷बॉस! जरा दो सौ रुपये बढ़ाना।'' उसके हाथ में एक लिस्ट थी। उसने फाइलों के बीच से सिर उठाकर प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा।
÷÷अरे! क्या जनार्दन जी का सरकुलर नहीं मिला। अपने निदेशक महोदय, शाह साहब का, स्थानान्तरण केन्द्रीय कार्यालय हुआ है। उनकी विदाई पार्टी है।''
÷÷परन्तु क्या यह राशि ज्यादा नहीं है?'' उसने झिझकते हुए कहा, लेकिन जनार्दन के नाम से उसने रुपये बढ़ा दिए थे।
÷÷आप अभी नए आए लगते हैं। मजे करोगे यार!'' कुंदन ने बेतकल्लुफी से कहा था।
दो दिन बार विदाई पार्टी का आयोजन संस्थान के अतिथिगृह में किया गया था। विशाल लॉन में कुर्सियाँ और बीच में लाल कालीन। लोग धीरे-धीरे आ रहे थे। उसने हाथ जोड़ नमस्ते किया। अधिकारी संघ के सचिव जनार्दन जी लोगों से घिरे हुए थे। व्यस्तता के बाद भी उन्होंने आगे बढ़कर उससे हाथ मिलाया। वह कृतज्ञ हो आया।
पण्डित जनार्दन, अधिकारी संघ के सचिव, टाई-सूट में रहते। गौर वर्ण, माथे पर लाल चंदन, सिर पर गांठ लगी चोटी। गरिमामय ढंग से निरन्तर अंग्रेजी बोलते। धीमे-धीमे बोलते अचानक उनका स्वर तेज हो जाता। यह इस बात का सूचक था कि फैसला हो गया, अब बात खत्म। उन्होंने कई लोगों को कुछ काम बताते हुए, आदेश जैसे स्वर में, प्रार्थना की। पास खड़ा जगदीश, कुछ नहीं तो, पास पड़ी बेतरतीब कुर्सियों को ही व्यवस्थित करने लगा। वह निरुद्देश्य इधर-उधर देखता रहा। तभी जनार्दन जी उसके पास आकर बोले, ÷÷आपसे तो मुलाकात ही नहीं होती बहुत व्यस्त रहते हैं।''
उसने कुछ कहना चाहा तभी निदेशक महोदय की कार अंदर आती दिखाई दी। लोग सावधान हो उठे। जनार्दन उससे ÷एंज्वाय', ÷एंज्वाय' करते उधर बढ़ गए। लोगों ने उन्हें मार्ग दिया। उन्होंने कार का दरवाजा खोलते हुए, ÷वेलकम सर' कहकर हाथ मिलाया।
काले सूट में मुस्कराते निदेशक महोदय, लोगो के साथ, सोफों की ओर बढ़े। सभी लोगों के साथ वह पीछे पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया था। वह स्पष्ट नहीं सुन पा रहा था। माल्यार्पण का कार्यक्रम आरम्भ हो चुका था। सचिव महोदय आवाज देते और लोग, महत्त्वपूर्ण लोग, निदेशक महोदय को माला पहनाकर वापस आ जाते। जर्नादन जी ने आवाज दी थी, ÷श्री जगदीश चन्द्र, स्टेटमेंट अनुभाग' जगदीश शायद लघुशंका हेतु चला गया था। पंडित जी ने कुछ रुककर कहा, ÷श्री राम सेवक जी।'
वह चौंका फिर सचिव महोदय को अपनी ओर देखते पाकर आगे बढ़ा और उनके हाथ से माला ले, निदेशक महोदय के गले में डाल, फिर वापस अपने स्थान पर आ बैठा। अभी भी कई मालाएँ बची हुई थीं। वह अपने को महत्त्वपूर्ण मान रहा था। उसका संकोच कुछ हद तक मिट गया था। इसके बाद अगला कार्यक्रम था। जर्नादन जी ने निदेशक महोदय का गिलास भरने के बाद अपना गिलास भरा था। इसके बाद अन्य लोगों ने। ÷चियर्स' के साथ हलचल बढ़ गई थी।
÷आओ यार।' कहीं से जगदीश ने आकर उसे खींचा था।
÷÷परन्तु, मैं तो लेता नहीं।'' उसने कहा।
÷÷अरे सूफीपन छोड़ो। दो सौ वसूलने हैं या नहीं?'' उसने दुबारा जोर दिया।
निदेशक महोदय, उपनिदेशक के साथ किसी गम्भीर मंत्राणा में व्यस्त हो गए थे। जनार्दन जी आते दिखे। वह उसके सामने आ गए थे। वह खड़ा हो गया। उससे मुखातिब होते हुए उन्होंने कहा, ÷यार रामसेवक तुम आगे क्या लिखते हो?'
वह संकुचित हो उठा। उसे याद आया, वर्षों पहले कॉलेज में एक प्रोफेसर के द्वारा इसी प्रश्न के उत्तर में उसने उन्हें वह लेक्चर पिलाया था कि वह माफी-सी माँगने लगे थे। पर इस समय उसने झिझकते हुए उत्तर दिया, ÷जी! वर्मा, रामसेवक वर्मा।'
÷वही तो,' वह हाथ में गिलास लिए हो-हो हँसते हुए थूक उड़ाते बोले, ÷÷वही तो। मैं तो कुछ और समय रहा था।''
वह कुछ कहना चाहता था, परन्तु माहौल देखकर चुप रह गया। जनार्दन जी फिर डायरेक्टर साहब के पास सिमट गए थे। वह चिन्तित से बोले-÷सर, आपके जाने के बाद इस मुख्यालय का क्या होगा? ईश्वर जाने इस संस्था का क्या भविष्य है?'
शायद भोजन कुछ कम पड़ गया था। लोग आशंकित हो हाथ में प्लेटें लिए टूट पड़ रहे थे। निदेशक महोदय को काफी बड़ा गिफ्ट पैकेट विदाई में दिया गया था। देर रात लौटते हुए उसने अपनी पूर्व विदाई पार्टियाँ याद आई। पाँच-पाँच रुपये एकत्रिात कर, चाय-समोसे, गुलाब जामुन और उपहार में एक पेनसेट। उसे संतोष हुआ चलो यहाँ से चलते समय विदाई पार्टी तो ढंग से होगी। घर में पत्नी और बच्चे पार्टी की भव्यता सुनकर उत्साहित थे।
अगले माह उसके प्रभाग में कार्यरत जगदीश के तबादले के आर्डर आ गए। उसके इस स्टेशन पर पाँच वर्ष पूर्ण हो चुके थे। आना था ही। उसने कुंदन, सचिव का सहयोगी, से जगदीश की पार्टी के लिए बात की। ÷क्या?' उसने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए कहा, ÷इस संबंध में तुम सचिव से ही सीधे बात कर लो।'
उसने सचिव को ढूँढा। वह डायरेक्टर के कमरे में था। वह बाहर ही प्रतीक्षा करने लगा। तभी द्वार खुला। स्प्रिंग वाला दरवाजा खोल, जनार्दन बाहर निकला। पीछे डायरेक्टर साहब। वह दरवाजा बंद होने से रोकने के लिए पकड़े रहा था। उसने सुना, ÷÷पहले की बातें तो जाने दीजिए। मैं जाने वाले की बुराई नहीं करता परन्तु यहाँ के प्रबन्ध, लोगों की कार्यक्षमता में जो सुधार आपके ज्वाइन करने के बाद हुआ, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।''
जनार्दन कह रहा था।
मुदित डायरेक्टर साहब कार में बैठ गए थे। उसने जनार्दन से अपनी बात जोर देकर कही। जनार्दन गंभीर हो गया, ÷÷इस बार तो संभव नहीं है। लोग अभी दो-दो सौ झेल ही चुके हैं। फिर इसे जनरल बॉडी में पास भी तो कराना पड़ेगा।''
तभी वहाँ कुंदन और तीन-चार अन्य साथी भी आ गए थे। वह निराश होकर आगे बढ़ गया था। पीछे से उसके कानों में कई आवाजें पड़ी थीं-÷पार्टी चाहिए! साला डायरेक्टर से अपनी बराबरी करता है।'
दो-ढाई महीने बीत गए। उसने इस बीच और कई साथियों से बात की थी। उसे आश्चर्य था कि सबके हित और समानता की बात होने पर भी कोई भी उससे सहमत क्यों नहीं था। एक शाम उसे कार्मिक विभाग में बुलाया गया। पता चला कि उसका ट्रांसफर एक दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रा में हो गया था। उसे रोष के साथ अचरज भी हुआ-उसे आए तो मुश्किल से एक वर्ष भी नहीं हुआ होगा। इतनी जल्दी
÷÷आप चाहें तो निदेशक महोदय से मिल लें।'' कार्मिक अधिकारी ने ठंडे स्वर में अपनी विवशता बताई।
परन्तु कुछ न हो सका। वह जनार्दन से किंचित आवेश में मिला।
÷÷यह तो प्रशासनिक आधार पर हुआ है। इसमें कुछ नहीं हो सकता।'' जनार्दन ने मजबूरी जाहिर की।
उसके दोबारा कहने पर कहा, ÷अच्छा तो आप अवकाश ले लें। देखूंगा, क्या-कुछ किया जा सकता है?'
एक दिन उसके सुनने में आया कि कुंदन ने जनार्दन से कहा था, ÷÷यह तो बना हुआ वर्मा है।''
जनार्दन ने कहा था, ÷÷मुझे पहले से ही मालूम था।''
वह दो माह तक बीमारी के आधार पर छुट्टी लिए रहा। रोज जनार्दन के कार्यालय में जाकर बैठ जाता। आखिरकार परिणाम आया। दूरस्थ शाखा से आदेश परिवर्तित होकर एक अन्य, अपेक्षाकृत निकट की ग्रामीण शाखा के लिए हो गया, उसे अवमुक्त कर दिया गया था। उसके अधीनस्थ भी प्रसन्न थे। तिवारी कह रहा था, ÷÷बड़े कानूनदां और तुर्रमखाँ बनते थे। लद गए न।''
वह रिलीविंग पत्रा लेकर लौट रहा था। उसको मालूम था कि उसकी फेयरवेल न होनी थी न होगी। उसके मन में आ रहा था-छोटू को गुलाब की माला और बेटी को गिफ्ट पैकेट की प्रतीक्षा होगी। पत्नी तो, पार्टी में खाने को क्या था-यही सुनकर तृप्त हो जाएगी।
वह निरन्तर सोचता रहा। लौटते हुए बाजार में घड़ी की एक दुकान पर रुका। एक अलार्म घड़ी खरीदकर पैक करवाने के बाद, लाल कागज में गिफ्ट-पैकेट बनवा लिया। पास में स्थित एक मंदिर के बाहर बैठे माली से एक गुलाब का हार लिया। माली ने उसे पत्ते में लपेटना चाहा, पर उसने उसे ऐसे ही ले लिया। माला लिए हुए वह पार्क के कोने में गया। इधर-उधर देख, उसने माला पहन लिया। वह पार्क के बाहर आया। एक रिक्शेवाले को रोका। वह चौकन्ना-सा रिक्शे पर बैठ गया। रिक्शा उसके घर की ओर चल पड़ा।
3 comments:
अब इसे कलम का जादू कैसे कहूँ.. जादू तो कलम चलने वालों में था
कहानी के अंत ने दिल को छु लिया.बधाई
कहानी का क्लाइमेक्स ही इसकी जान है..बधाई।
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